bheeshm stavraj in hindi

Bheeshm Stavraj-भीष्म द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति | भीष्म स्तवराज | Bheeshm Stavraj | Bheeshm Stuti | Bhishm Stuti | Bhishm Stavraj | भीष्म पितामह द्वारा भगवान श्री कृष्ण की स्तुति | भीष्म स्तवराज पढ़ने और सुनने का फल | Stuti of Lord Krishna By Bheeshm Pitamah | Bheeshm Stuti in Hindi|भीष्म स्तुति हिंदी में|Stuti of Lord Krishna by Bheeshm | Bhishm Stuti in Hindi

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bheeshm stavraj

 

 

 

जनमेजय ने पूछा –

बाण शय्या पर सोये हुए भरतवंशियों के पितामह भीष्म जी ने किस प्रकार अपन शरीर का त्याग किया और उस समय उन्होंने किस योग की धारणा की ?

 

वैशम्पायनजी कहते हैं –

राजन् ! कुरुश्रेष्ठ ! तुम सावधान, पवित्र और एकाग्रचित्त हो कर महात्मा भीष्म के देहत्याग का वृत्तान्त सुनो। राजन् ! जब दक्षिणायन समाप्त हुआ और सूर्य उत्तरायण में आ गये, तब माघ मास के शक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को राहिणी नक्षत्र में मध्यान्ह के समय भीष्मजी ने ध्यानमग्न होकर अपने मन को परमात्मा में लगा दिया। चारों ओर अपनी किरणें बिखेरने वाले सूर्य के समान सैंकड़ों बाणों से छिदे हुए भीष्म उत्तम शोभा से सुशोभित होने लगे, अनेकानेक श्रेष्ठ ब्राह्मण उन्हें घेरकर बैठे थे।

 

 

 

bheeshm stuti

 

 

 

वेदों के ज्ञाता व्यास, देवर्षि नारद, देवस्थान, वात्स्य, अश्मक, सुमन्तु, जैमिनी, महातमा पैल, शाण्डिल्य, देवल, बुद्धिमान् मैत्रेय, असित, वसिष्ठ, महात्मा कौशिक ( विश्वामित्र ), हारीत, लोमश, बुद्धिमान् दत्तात्रेय, बृहस्पति, शुक्र, महामुनि च्यवन, सनत्कुमार, कपिल, वाल्मीकि, तुम्बुरु, कुरु, मौद्गल्य, भृगुवंशी परशुराम, महामुनि तृणबिन्दु, पिप्पलाद, वायु, संवर्त, पुलह, कच, कश्यप, पुलत्स्य, क्रतु, दक्ष, पराशर, मरीचि, अंगिरा, काशय, गौतम, गालव मुनि, धौम्य, विभाण्ड, माण्डव, धौम्र, कृष्णानुभौतिक, श्रेष्ठ ब्राह्मण उलूक, महामुनि मार्कण्डेय, भास्करि, पुरण, कृष्ण और परम धार्मिक सूत – ये तथा और भी बहुत से सौभाग्यशाली महात्मा मुनि, जो श्रद्धा, शम, दम आदि गुणों से सम्पन्न थे, भीष्मजी को घेरे हुए थे। इन ऋषियों के बीच में भीष्म जी ग्रहों से घिरे हुए चन्द्रमा के समान शोभा पा रहे थे।

 

पुरुषसिंह भीष्म शय्या पर ही पड़े-पड़े हाथ जोड़ पवित्र भाव से मन, वाणी और क्रिया द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करने लगे। ध्यान करते-करते वे हृष्ट-पुष्ट स्वर से भगवान् मधुसूदन की स्तुति करने लगे। वाग्वेत्ताओं में श्रेष्ठ , शक्तिशाली, परम धर्मात्मा भीष्म ने हाथ जोडकर योगेश्वर पद्मनाभ, सर्वव्यापी, विजयशील जगदीश्वर वासुदेव की इस प्रकार स्तुति आरम्भ की।

 

 

 

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भीष्मजी बोले –

मैं श्रीकृष्ण के आराधन की इच्छा मन में लेकर जिस वाणी का प्रयोग करना चाहता हूँ, वह विस्तृत हो या संक्षिप्त, उसके द्वारा वे पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण मुझपर प्रसन्न हों।

 

जो स्वयं शुद्ध हैं, जिनकी प्राप्ति का मार्ग भी शुद्ध है, जो हंस स्वरूप, तत् पद के लक्ष्यार्थ परमात्मा और प्रजापालक परमेष्ठी हैं, मैं सब ओर से सम्बन्ध तोड़ केवल उन्हीं से नाता जोड़कर सब प्रकार से उन्हीं सर्वात्मा श्रीकृष्ण की शरण लेता हूँ।

 

उनका न आदि है न अन्त। वे ही परब्रह्म परमात्मा हैं। उनको न देवता जानते हैं न ऋषि। एकमात्र सबका धारण-पोषण करने वाले भगवान् श्रीनारायण हरि ही हैं।

 

 

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ऋषिगण, सिद्ध, बड़े-बड़े नाग, देवता तथा देवर्षि भी उन्हें अविनाशी परमात्मा के रूप में जाने जाते हैं।

 

देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग भी जिनके विषय में यह नहीं जानते हैं कि ये भगवान् कौन हैं तथा कहाँ से आये हैं ?

 

उन्हीं में सम्पूर्ण प्राणी स्थित हैं और उन्हीं में उनका लय होता है। जैसे डोरे में मनके पिरोये होते हैं, उसी प्रकार उन भूतेश्वर परमात्मा में समस्त त्रिगुणात्मक भूत पिरोये हुए हैं।

 

भगवान् सदा नित्य विद्यमान ( कभी नष्ट न होने वाले ) और तने हुए एक सुदृढ़ सूत के समान हैं।

 

उनमें यह कार्य-कारण रूप जगत् उसी प्रकार गुँथा हुआ है, जैसे सूत में फूल की माला।

 

यह सम्पूर्ण विश्व उनके ही श्रीअंग में स्थित है; उन्होंने ही इस विश्व की सृष्टि की है।

 

उन श्रीहरि के सहस्त्रों सिर, सहस्त्रों चरण और सहस्त्रों नेत्र हैं, वे सहस्त्रों भुजाओं, सहस्त्रों मुकुटों तथा सहस्त्रों मुखों से देदीप्यमान रहते हैं।

 

वे ही इस विश्व के परम आधार हैं। इन्हीं को नारायणदेव कहते हैं। वे सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और स्थूल से भी स्थूल। वे भारी-से-भारी ओर उत्तम से भी उत्तम हैं।

 

वाकों और अनुवाकों निषदों और उपनिषदों में तथा सच्ची बात बताने वाले साममन्त्रों में उन्हीं को सत्य और सत्यकर्मा कहते हैं।

 

वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध – इन चार दिव्य गोपनीय और उत्तम नामों द्वारा ब्रह्म, जीव, मन और अहंकार – इन चार स्वरूपों में प्रकट हुए उन्हीं भक्तप्रतिपालक भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा की जाती है, जो सबके अनतःकरण में विद्यमान हैं।

 

भगवान् वासुदेव की प्रसन्नता के लिये ही नित्य तप का अनुष्ठान किया जाता है; क्योंकि वे सबके हृदयों में विराजमान हैं। वे सबके आत्मा, सबको जानने वाले है।

 

सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग करके अनन्य भाव से स्थिर रहने वाला साधक मोक्ष के उद्देश्य से अपने विशुद्ध अन्तःकरण में जिन पापरहित शुद्ध-बुद्ध परमात्मा गोविन्द का ज्ञानदृष्टि से साक्षात्कार करता है, जिनका पराक्रम वायु और इन्द्र से बहुत बढ़कर है, जो अपने तेज से सूर्य को भी तिरस्कृत कर देते हैं तथा जिनके स्वरूप तक इन्द्रिय, मन और बुद्धि की भी पहुँच नहीं हो पाती, उन प्रजापालक परमेश्वर की मैं शरण लेता हूँ।

 

पुराणों में जिनका ‘ पुरुष ‘ नाम से वर्णन किया गया है , जो युगों के आरम्भ में ‘ ब्रह्म ‘ और युगांत में ‘ संकर्षण ‘ कहे गए हैं , उन उपास्य परमेश्वर की हम उपासना करते हैं ।

 

जो एक होकर भी अनेक रूपों में प्रकट हुए हैं , जो इन्द्रियों और उनके विषयों से ऊपर उठे होने के कारण ‘ अधोक्षज ‘ कहलाते हैं , उपासकों की समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं , यज्ञादि कर्म और पूजन में लगे हुए अनन्य भक्त जिनका यजन करते हैं , जिन्हें जगत का कोषगार कहा जाता है , जिनमें सम्पूर्ण प्रजाएं स्थित हैं , पानी के ऊपर तैरने वाले जल पक्षियों की तरह जिनके ही ऊपर इस सम्पूर्ण जगत की चेष्टाएं हो रही हैं , जो परमार्थ सत्यस्वरूप और एकाक्षर ब्रह्म प्रणव ‘ ॐ ‘ हैं । सत और असत से विलक्षण हैं ।

 

जिनका आदि , मध्य और अंत नहीं है । जिन्हें न देवता ठीक – ठीक जानते हैं और न ऋषि , अपने मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए सम्पूर्ण देवता , असुर , गन्धर्व ,सिद्ध, ऋषि , बड़े – बड़े नारायण जिनकी सदा पूजा किया करते हैं , जो दुःख रुपी रोग की सबसे बड़ी औषधि हैं , जन्म – मरण से रहित , स्वयंभू एवं सनातन देवता हैं , जिन्हें इन चर्म – चक्षुओं से देखना और बुद्धि के द्वारा सम्पूर्ण रूप से जानना असंभव है । उन भगवन श्री हरि नारायण देव की मैं शरण लेता हूँ ।

 

जो इस विश्व के विधाता और चराचर जगत् के स्वामी हैं, जिन्हें संसार का साक्षी और अविनाशी परम पद कहते हैं, उन परमात्मा की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।।

 

जो सुवर्ण के समान कान्तिमान्, अदिति के गर्भ से उत्पन्न, दैत्यों के नाशक तथा एक होकर भी बारह रूपों में प्रकट हुए हैं, उन सूर्यस्वरूप परमेश्वर को नमस्कार है।

 

जो अपनी अमृतमयी कलाओं से शुक्लपक्ष में देवताओं को और कृष्णपक्ष में पितरों को तृत्प करते हैं तथा जो सम्पूर्ण द्विजों के राजा हैं, उन सोमस्वरूप परमात्मा को नमस्कार है।

 

अग्नि जिनके मुख में है, वे देवता सम्पूर्ण जगत् को धारण करते हैं, जो हविष्य के सबसे पहले भोक्ता हैं, उन अग्निहोत्र स्वरूप परमेश्वर को नमस्कार है।।

 

जो अज्ञानमय महान् अन्धकार से परे और अत्यन्त प्रकाशित होने वाले आत्मा हैं, जिन्हें जान लेने पर मनुष्य मृत्यु से सदा के लिये छूट जाता है, उन ज्ञेयरूप परमेश्वर को नमस्कार है।

 

उक्त नामक बृहत् यज्ञ के समय, अग्न्याधानकाल में तथा महायाग में ब्राह्मणवृन्द जिनका ब्रह्म के रूप में स्तवन करते हैं, उन वेदस्वरूप भगवान् को नमस्कार है।

 

ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद जिसके आश्रय हैं, पाँच प्रकार का हविष्य जिसका स्वरूप है, गायत्री आदि सात छन्द ही जिसके सात तन्तु हैं, उस यज्ञ के रूप में प्रकट हुए परमात्मा को प्रणाम है।

 

चार, चार, दो, पाँच, दो – इन सत्रह अक्षरों वाले मन्त्रों से जिन्हें हविष्य अर्पण किया जाता है, उन होम स्वरूप परमेश्वर को नमस्कार है।

 

जो ‘यजुः’ नाम धारण करने वाले वेदरूपी पुरुष हैं, गायत्री आदि छन्द जिनके हाथ-पैर आदि अवयव हैं, यज्ञ ही जिनका मस्तक है तथा ‘रथन्तर’ और ‘बृहत्’ नामक साम ही जिनकी सान्त्वनाभरी वाणी है, उन स्तोत्ररूपी भगवान को प्रणाम है।

 

जो ऋषि हजार वर्षों में पूर्ण होने वाले प्रजापतियों के यज्ञ में सोने के पंख वाले पक्षी के रूप में प्रकट हुए थे, उन हंसरूपधारी परमेश्वर को प्रणाम है।

 

पदों के समूह जिनके अंग हैं, सन्धि जिनके शरीर की जोड़ है, स्वर और व्यंजन जिनके लिये आभूषण का काम देते हैं तथा जिन्हें दिव्य अक्षर कहते हैं, उन परमेश्वर को वाणी के रूप में नमस्कार है।

 

जिन्होंने तीनों लोकों का हित करने के लिये यज्ञमय वराह का स्वरूप धारण करके इस पृथ्वी को रसातल से ऊपर उठाया था, उन वीर्यस्वरूप भगवान् को प्रणाम है।

 

जो अपनी योगमाया का आश्रय लेकर शेषनाग के हजार फनों से बने हुए पलंग पर शयन करते हैं, उन निद्रास्वरूप परमात्मा को नमस्कार है।

 

विश्वेदेव, मरुद्गण, रुद्र, इन्द्र, आदित्य, अश्विनिकुमार, वसु, सिद्ध और साध्य – ये सब जिनकी विभूतियाँ हैं, उन देवस्वरूप परमात्मा को नमस्कार है।।

 

अव्यक्त प्रकृति, बुद्धि ( महत्तत्त्व ), अहंकार, मन, ज्ञानेन्द्रियाँ, तन्मात्राएँ और उनका कार्य – वे सब तिनके ही स्वरूप हैं, उन तत्त्वमय परमात्मा को नमस्कार है।।

 

जो भूत, वर्तमान और भविष्य – काल रूप हैं, जो भूत आदि की उत्पत्ति और प्रलय के कारण हैं, जिन्हें सम्पूर्ण प्राणियों का अग्रज बताया गया है, उन भूतात्मा परमेश्वर को नमस्कार है।।

 

सूक्ष्म तत्त्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुष जिस परम सूक्ष्म तत्त्व का अनुसंधान करते रहते हैं, जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, वह ब्रह्म जिनका स्वरूप हैं, उन सूक्ष्मात्मा को नमस्कार है।।

 

जिन्होंने मत्स्य शरीर धारण करके रसातल में जाकर नष्ट हुए सम्पूर्ण वेदों को ब्रह्माजी के लिये शीघ्र ला दिया था, उन मत्स्य रूपधारी भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार है।।

 

जिनहोंने अमृत के लिये समुद्र मन्थन के समय अपनी पीठ पर मंदराचल पर्वत को धारण किया था, उन अत्यन्त कठोर देहधारी कच्छपरूप भगवान् श्रीकृष्ण् को नमस्कार है।

 

जिन्होंने वाराहरूप धारण करके अपने एक दाँत से वन और पर्वतों सहित समूची पृथ्वी का उद्धार किया था, उन वाराहरूपधारी भगवान् को नमस्कार है।।

 

जिन्होंने नृसिंहरूप धारण करके सम्पूर्ण जगत् के लिये भयंकर हिरण्यकशिपु नामक राक्षस का वध किया था, उन नृसिंहस्वरूप श्रीहरि को नमस्कार है।।

 

जिन्होंने वामनरूप धारण करके माया द्वारा बलि को बाँधकर सारी त्रिलोकी को अपने पैरों से नाप लिया था, उन क्रान्तिकारी वामनस्पधारी श्रीकृष्ण को प्रणाम है।।

 

जिन्होंने शास्त्रधारियों में श्रेष्ठ जमदग्निपुत्र परशुराम का रूप धारण करके इस पृथ्वी को क्षत्रियों से हीन कर दिया, उन परशुराम स्वरूप श्रीहरि को नमस्कार है।।

 

जिन्होंने अकेले की धर्म के प्रति गौरव का उल्लंघन करने वाले क्षत्रियों का युद्ध में इक्कीस बार संहार किया, उन क्रोधात्मा परशुराम को नमस्कार है।

 

जिन्होंने दशरथनन्दन श्रीराम का रूप धारण करके शुद्ध में पुलत्स्य कुलनन्दन रावण का वध किया था, उन क्षत्रियात्मा श्रीराम स्वरूप श्रीहरि को नमस्कार है।

 

जो सदा हल, मूसल धारण किये अद्भुत शोभा से सम्पन्न हो रहे हैं, जिनके श्रीअंगों पर नील वस्त्र शोभा पाता है, उन शेषावतार रोहिणीनन्दन राम को नमस्कार है।

 

जो शंख, चक्र, शारंग धनुष, पीताम्बर और वनमाला धारण करते हैं, उन श्रीकृष्ण स्वरूप श्रीहरि को नमस्कार है।।

 

जो कंस वध के लिये वसुदेव के शोभाशाली पुत्र के रूप में प्रकट हुए और नन्द के गोकुल में भाँति-भाँति की लीलाएँ करते रहे, उन लीलामय श्रीकृष्ण को नमस्कार है।

 

जिन्होंने यदुवंश में प्रकट हो वासुदेव के रूप में आकर पृथ्वी का भार उतारा है, उन श्रीकृष्णात्मा श्रीहरि को नमस्कार है।।

 

जिन्होंने अर्जुन का सारथित्व करते समय तीनों लोकों के उपकार के लिये गीता-ज्ञानमय अमृत प्रदान किया था, उन ब्रह्मात्मा श्रीकृष्ण को नमस्कार है।।

 

जो सृष्टि की रक्षा के लिये दानवों को अपने अधीन करके पुनः बुद्धभाव को प्राप्त हो गये, उन बुद्धस्वरूप श्रीहरि को नमस्कार है।।

 

जो कलयुग आने पर घोड़े पर सवार हो धर्म की स्थापना के लिये म्लेच्छों का वध करेंगे, उन कल्किरूप श्रीहरि को नमस्कार है।।

 

जिन्होंने तारामय संग्राम में दानवराज कालनेमि का वध करके देवराज इन्द्र को सारा राज्य दे दिया था, उन मुख्यात्मा श्रीहरि को नमस्कार है।।

 

जो समस्त प्राणियों के शरीर में साक्षी रूप से स्थित हैं तथा सम्पूर्ण क्षर ( नाशवान् ) भूतों में अक्षर ( अविनाशी ) स्वरूप से विराजमान हैं, उन साक्षी परमात्मा को नमस्कार है।।

 

महादेव! आपको नमस्कार है। भक्तवत्सल! आपको नमस्कार है। सुब्रह्मण्य ( विष्णु )! आपको नमस्कार है। परमेश्वर! आप मुझपर प्रसन्न हों।

 

प्रभो! आपने अव्यक्त और व्यक्त रूप से सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त कर रखा है। मैं सहस्रों नेत्र धारण करने वाले, सब ओर मुख वाले हिरण्यनाभ, यज्ञांग स्वरूप, अमृतमय, सब ओर मुख वाले और कमलनयन पुरुषोत्तम श्रीनारायणदेव की शरण लेता हूँ।

 

जिनके हृदय में मंगलभवन देवेश्वर श्रीहरि विराजमान हैं, उनका सभी कार्यों में सदा मंगल ही होता है – कभी किसी भी कार्य में अमंगल नहीं होता।।

 

भगवान् विष्णु मंगलमय हैं, मधुसूदन मंगलमय हैं कमलनयन मंगलमय हैं और गरुड़ध्वज मंगलमय हैं।।

 

जिनका सारा व्यवहार केवल धर्म के ही लिये है, उन वश में की हुई इन्द्रियों के द्वारा जो मोक्ष के साधनभूत वैदिक उपायों से काम लेकर  धर्म-मर्यादा का प्रयास करते हैं, उन सत्यस्वरूप परमात्मा को नमस्कार है।

 

जो भिन्न-भिन्न धर्मों का आचरण करके अलग-अलग उनके फलों की इच्छा रखते हैं, ऐसे पुरुष पृथक् धर्मों के द्वारा जिनकी पूजा करते हैं, उन धर्मस्वरूप भगवान को प्रणाम है।

 

जिस अनंग की प्रेरणा से सम्पूर्ण अंगधारी प्राणियों का जन्म होता है, जिससे समस्त जीव उन्मत्त हो उठते हैं, उस काम के रूप में प्रकट हुए परमेश्वर को नमस्कार है।।

 

जो स्थूल जगत् में अव्यक्त रूप से विराजमान है, बड़े-बड़े महर्षि जिसके तत्त्व का अनुसंधान करते रहते हैं, जो सम्पूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ के रूप में बैठा हुआ है, उस क्षेत्ररूपी परमात्मा प्रणाम है।

 

जो सत्, रज और तम – इन तीन गुणों के भेद से त्रिविध प्रतीत होते हैं, गुणों के कार्यभूत सोलह विकारों से आवृत्त होने पर भी अपने स्वरूप में ही स्थित हैं, सांख्यमत के अनुयायी जिन्हें सत्रहवाँ तत्त्व ( पुरुष ) मानते हैं, उन सांख्यरूप परमात्मा को नमस्कार है।

 

जो नींद को जीतकर प्राणों पर विजय पर चुके हैं और इन्द्रियों को अपने वश में करके शुद्ध सत्त्व में स्थित हो गये हैं, वे निरन्तर योगाभ्यास में लगे हुए योगिजन जिनके ज्योतिर्मय स्वरूप का साक्षात्कार करते हैं, उन योगरूप परमात्मा को प्रणाम है।

 

पाप और पुण्य का क्षय हो जाने पर पुनर्जन्म के भय से मुक्त हुए शान्तचित्त संन्यासी जिन्हें प्राप्त करते हैं, उन मोक्षरूप परमेश्वर को नमस्कार है।

 

सृष्टि के एक हजार युग बीतने पर प्रचण्ड ज्वालाओं से युक्त प्रजयकालीन अग्नि का रूप धारण कर जो सम्पूर्ण प्राणियों का संहार करते हैं, उन घोररूपधारी परमात्मा को नमस्कार है।

 

इस प्रकार सम्पूर्ण भूतों का भक्षण करके जो इस जगत् को जलमय कर देते हैं और स्वयं बालक का रूप धारण कर अक्षयवट के पत्ते पर शयन करते हैं, उन मायामय बालमुकुन्द को नमस्कार है।

 

जिस पर यह विश्व टिका हुआ है, वह ब्रह्माण्ड कमल जिन पुण्डरीकाक्ष भगवान् की नाभि से प्रकट हुआ है, उन परमेश्वर को प्रणाम है।

 

जिनके हजारों मस्तक हैं, जो अन्तर्यामीरूप से सबके भीतर विराजमान हैं, जिनका स्वरूप किसी सीमा में आबद्ध नहीं है, जो चारों समुद्रों के मिलने से एकार्णव हो जाने पर योगनिद्रा का आश्रय लेकर शयन करते हैं, उन योगनिद्रारूप भगवान् को नमस्कार है।

 

जिनके मस्तक के बालों की जगह मेघ हैं, शरीर की सन्धियों में नदियाँ हैं और उदर में चारों समुद्र हैं, उन जलरूपी परमात्मा को प्रणाम है। सृष्टि और प्रलयरूप समस्त विकार जिनसे उत्पन्न होते हैं और जिनमें ही सबका लय होता है, उन कारणरूप परमेश्वर को नमस्कार है।

 

जो रात में भी जागते रहते हैं और दिन के समय साक्षी रूप से स्थित रहते हैं तथा जो सदा ही सबके भले-बुरे को देखते रहते हैं, उन दृष्टारूपी परमात्मा को प्रणाम है। जिन्हें कोई भी काम करने में रुकावट नहीं होती, जो धर्म का काम करने में सर्वदा उद्यत रहते हैं तथा जो वैकुण्ठधाम के स्वरूप हैं, उन कार्यरूप भगवान् को नमस्कार है।

 

जिन्होंने धर्मात्मा होकर भी क्रोध में भरकर धर्म के गौरव का उल्लंघन करने वाले क्षत्रिय-समाज का युद्ध में इक्कीस बार संहार किया, कठोरता का अभिनय करने वाले उन भगवान् परशुराम को प्रणाम है।

 

जो प्रत्येक शरीर के भीतर वायुरूप में स्थित हो अपने को प्राण-अपान आदि पाँच स्वरूपों में विभक्त करके सम्पूर्ण प्राणियों को क्रियाशील बनाते हैं, उन वायुरूप परमेश्वर को नमस्कार है।।

 

जो प्रत्येक युग में योगमाया के बल से अवतार धारण करते हैं और मास, ऋतु, अयन तथा वर्षों के द्वारा सृष्टि और प्रलय करते रहते हैं, उन कालरूप परमात्मा को प्रणाम है।

 

ब्राह्मण जिनके मुख हैं, सम्पूर्ण क्षत्रिय-जाति जिनकी भुजाएं हैं , वैश्य जंघा एवं उदर हैं और शूद्र जिनके चरणों के आश्रित हैं, उन चातुर्वण्र्यरूप परमेश्वर को नमस्कार है।

 

अग्नि जिनका मुख है, स्वर्ग मस्तक है, आकाश नाभि है, पृथ्वी पैर है, सूर्य नेत्र हैं और दिशाएँ कान हैं, उन लोकरूप परमात्मा को प्रणाम है।

 

जो काल से परे हैं, यज्ञ से भी परे हैं और परे से भी अत्यन्त परे हैं, जो सम्पूर्ण विश्व के आदि हैं; किन्तु जिनका आदि कोई भी नहीं है, उन विश्वात्मा परमेश्वर को नमस्कार है।

 

जो मेघ में विद्युत और उदर में जठरानल के रूप में स्थित हैं, जो सबको पवित्र करने के कारण पावक तथा स्वरूपतः शुद्ध होने से ‘शुचि’ कहलाते हैं, समस्त भक्ष्य पदार्थों को दग्ध करने वाले वे अग्निदेव जिनके ही स्वरूप हैं, उन अग्निमय परमात्मा को नमस्कार है।।

 

वैशेषिक दर्शन में बताये हुए रूप, रस आदि गुणों के द्वारा आकृष्ट हो जो लोग विषयों के सेवन में प्रवृत्त हो रहे हैं, उनकी उन विषयों की आसक्ति से जो रक्षा करने वाले हैं, उन रक्षक रूप परमात्मा को प्रणाम है।

 

जो अन्न-जलरूपी ईंधन को पाकर शरीर के भीतर रस और प्राणशक्ति को बढ़ाते तथा सम्पूर्ण प्राणियों को धारण करते हैं, उन प्राणातमा परमेश्वर को नमस्कार है।

 

प्राणों की रक्षा के लिये जो भक्ष्य, भोज्य, चोष्य लेह्य – चार प्रकार के अन्नों का भोग लगाते हैं और स्वयं ही पेट के भीतर अग्निरूप में स्थित हो कर भोजन को पचाते हैं, उन पाकरूप परमेश्वर को प्रणाम है।

 

जिनका नरसिंहरूप दानवराज हिरण्यकशिपु का अन्त करने वाला, उस समय जिनके नेत्र और कंधे के बाल पीले दिखायी पड़ते थे, बड़ी-बड़ी दाढ़े और नख ही जिनके आयुध थे, उन दर्परूपधारी भगवान नरसिंह को प्रणाम है।

 

जिन्हें न देवता, न गन्धर्व, न दैत्य और न दानव ही ठीक-ठीक जान पाते हैं, उन सूक्ष्मस्वरूप परमात्मा को नमस्कार है।

 

जो सर्वव्यापक भगवान् श्रीमान् अनन्त नामक शेषनाग रूप में रसातल मे रहकर सम्पूर्ण जगत् को अपने मस्तक पर धारण करते हैं, उन वीर्यरूप परमेश्वर को प्रणाम है।

 

जो इस सुष्टि-परम्परा की रक्षा के लिये सम्पूर्ण प्राणियों को स्नेहपाश में बाँधकर मोह में डाले रखते हैं, उन मोहरूप भगवान् को नमस्कार है।

 

अन्नमयादि पाँच कोषों में स्थित अन्तरतम आत्मा का ज्ञान होने के पश्चात् विशुद्ध बोध के द्वारा विद्वान् पुरुष जिन्हें प्राप्त करते हैं, उन ज्ञान स्वरूप परब्रह्म को प्रणाम है।

 

जिनका स्वरूप किसी प्रमाण का विषय नहीं है, जिनके बुद्धिरूपी नेत्र सब ओर व्याप्त हो रहे हैं तथा जिनके भीतर अनन्त विषयों का समावेश है, उन दिव्यात्मा परमेश्वर को नमस्कार है।

 

जो जटा और दण्ड धारण करते हैं, लम्बोदर शरीर वाले हैं तथा जिनका कमण्डलु ही तूणीर का काम देता है, उन ब्रह्माजी के रूप में शोभित भगवान को प्रणाम है।।

 

जो त्रिशूल धारण करने वाले और देवताओं के स्वामी हैं, जिनके तीन नेत्र हैं, जो महात्मा हैं तथा जिन्होंने अपने शरीर पर विभूति रमा रखी है, उन रुद्ररूप परमेश्वर को नमस्कार है।

 

जिनके मस्तक पर अर्धचन्द्र का मुकुट और शरीर पर सर्प का यज्ञोपवीत शोभा दे रहा है, जो अपने हाथ में पिनाक और त्रिशूल धारण करते हैं, उन उग्ररूपधारी भगवान् शंकर को प्रणाम है।

 

जो सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा और उनकी जन्म-मृत्यु के कारण हैं, जिनमें क्रोध, द्रोह और मोह का सर्वथा अभाव है, उन शान्तात्मा परमेश्वर को नमस्कार है।

 

जिनके भीतर सब कुछ रहता है, जिनसे सब उत्पन्न होता है, जो स्वयं ही सर्वस्वरूप हैं, सदा ही सब ओर व्यापक हो रहे हैं और सर्वमय हैं, उन सर्वात्मा को प्रणाम है।

 

इस विश्व की रचना करने वाले परमेश्वर! आपको प्रणाम हैं।

 

विश्व के आत्मा और विश्व की उत्पत्ति के स्थानभूत जगदीश्वर! आपको नमस्कार है।

 

आप पाँचों भूतों से परे हैं और सम्पूर्ण प्राणियों के मोक्ष स्वरूप ब्रह्म हैं। तीनों लोकों में व्याप्त हुए आपको नमस्कार है।

 

त्रिभुवन में परे रहने वाले आपको प्रणाम है, सम्पूर्ण दिशाओं मे व्यापक आप प्रभु को नमस्कार है;

 

आप सब पदार्थो से पूर्ण भण्डार हैं। संसार की उत्पत्ति करने वाले अविनाशी भगवान् विष्णु! आपको नमस्कार है।

 

हृषीकेश! आप सबके जन्मदाता और संहारकर्ता हैं। आप किसी से पराजित नहीं होते।

 

मैं तीनों लोकों में आपके दिव्य जन्म-कर्म का रहस्य नहीं जान पाता; मैं तो तत्त्वदृष्टि से आपका जो सनातन रूप है, उसी की और लक्ष्य रखता हूँ।

 

स्वर्गलोक आपके मस्तक से, पृथ्वी देवी आपके पैरों से और तीनों लोक आपके तीन पगों से व्याप्त हैं, आप सनातन पुरुष हैं।

 

दिशाएँ आपकी भुजाएँ, सूर्य आपके नेत्र और प्रजापति शुक्राचार्य आपके वीर्य हैं।

 

आपने ही अत्यन्त तेजस्वी वायु के रूप में ऊपर के सातों मार्गों को रोक रखा है।।

 

जिनकी कान्ति अलसी के फूल की तरह साँवली है, शरीर पर पीताम्बर शोभा देता है, जो अपने स्वरूप से कभी च्युत नहीं होते, उन भगवान् गोविन्द को जो लोग नमस्कार करते हैं, उन्हें कभी भय नहीं होता।

 

भगवान् श्रीकृष्ण को एक बार भी प्रणाम किया जाय तो वह दस अश्वमेध यज्ञों के अन्त में किये गये स्नान के समान फल देने वाला होता है।

 

इसके सिवा प्रणाम में एक विशेषता है – दस अश्वमेध करने वाले का तो पुनः इस संसार में जनम होता है, किंतु श्रीकृष्ण को प्रणाम करने वाला मनुष्य फिर भव-बन्धन में नहीं पड़ता।

 

जिन्होंने श्रीकृष्ण-भजन का ही व्रत ले रखा है, जो श्रीकृष्ण का निरन्तर स्मरण करते हुए ही रात को सोते हैं और उन्हीं का स्मरण करते हुए सवेरे उठते हैं, वे श्रीकृष्णस्वरूप होकर उनमें इस तरह मिल जाते हैं, जैसे मन्त्र पढ़कर किया हुआ घी अग्नि में मिल जाता है।।

 

जो नरक के भय से बचाने के लिये रक्षा मण्डल का निर्माण करने वाले और संसार रूपी सरिता की भँवर से पार उतारने के लिये काठ की नाव के समान हैं, उन भगवान् विष्णु को नमस्कार है।

 

जो ब्राह्मणों के प्रेमी तथा गौ और ब्राह्मणों के हितकारी हैं, जिनसे समस्त विश्व का कल्याण होता है, उन सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् गोविन्द को प्रणाम है।।

 

‘हरि’ ये दो अक्षर दुर्गम पथ के संकट के समय प्राणों के लिये राह-खर्च के समान हैं, संसाररूपी रोग से छुटकारा दिलवाने के लिये औषध तुल्य हैं तथा सब प्रकार के दुःख-शोक से उद्धार करने वाले हैं।

 

जैसे सत्य विष्णुमय है, जैसे सारा संसार विष्णुमय है, जिस प्रकार सब कुछ विष्णुमय है, उस प्रकार इस सत्य के प्रभाव से मेरे सारे पाप नष्ट हो जायँ।

 

देवताओं में श्रेष्ठ कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण! मैं आपका शरणागत भक्त हूँ और अभीष्ट गति को प्राप्त करना चाहता हूँ; जिसमें मेरा कल्याण हो, वह आप ही सोचिये।

 

जो विद्या और तप के जन्मस्थान हैं, जिनको दूसरा कोई जन्म देने वाला नहीं है, उन भगवान् विष्णु का मैंने इस प्रकार वाणी रूप यज्ञ से पूजन किया है। इससे वे भगवान् जनार्दन मुझ पर प्रसन्न हों।

 

नारायण ही परब्रह्म हैं, नारायण ही परम तप हैं। नारायण ही सबसे बड़े देवता हैं और भगवान् नारायण ही सदा सब कुछ हैं।

 

वैशम्पायनजी कहते हैं –

जनमेजय! उस समय भीष्मजी का मन भगवान् श्रीकृष्ण में लगा हुआ था, उन्होंने ऊपर बतायी हुई स्तुति करने के पश्चात् ‘नमः श्रीकृष्णाय’ कहकर उन्हें प्रणाम किया।

 

भगवान भी अपने योगबल से भीष्म जी की भक्ति को जानकर उनके निकट गये और उन्हें तीनों लोकों की बातों का बोध कराने वाला दिव्य ज्ञान देकर लौट आये।

 

योग पुरुष प्राण त्याग के समय जिन्हें बड़े यत्न से अपने हृदय में स्थापित करते हैं, उनहीं श्रीहरि को अपने सामने देखते हुए भीष्म जी ने जीवन का फल प्राप्त करके अपने प्राणों का परित्याग किया था।।

 

जब भीष्मजी का बोलना बंद हो गया, तब वहाँ बैठे हुए ब्रह्मवादी महर्षियों ने आँखों में आँसू भरकर गद्गद कण्ठ से परम बुद्धिमान् भीष्मजी की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

 

वे ब्राह्मण शिरोमणि सभी महर्षि पुरुषोत्तम भगवान् केशव की स्तुति करते हुए धीरे-धीरे भीष्मजी की बारंबार सराहना करने लगे।

 

इधर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण भीष्म जी के भक्तियोग को जानकर सहसा उठे और बड़े हर्ष के साथ रथ पर जो बैठे। एक रथ से सात्यकि और श्रीकृष्ण चले तथा दूसरे रथ से महामना युधिष्ठिर और अर्जुन भीमसेन और नकुल-सहदेव तीसरे रथ पर सवार हुए। चौथे रक्ष से कृपाचार्य, युयुत्सु और शत्रुओं को तपाने वाला सारथि संजय – से तीनों चल दिये। वे पुरुषप्रवर पाण्डव और श्रीकृष्ण नगराकार रथों द्वारा उनके पहियों के गम्भीर घोष से पृथ्वी को कँपाते हुए बड़े वेग से गये। उस समय बहुत-से ब्राह्मण मार्ग में पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की स्तुति करते और भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न मन से उसे सुनते थे। दूसरे बहुत से लोग हाथ जोड़कर उनके चरणों में प्रणाम करते और केशिहन्ता केशव मन-ही-मन आनन्दित हो उन लोगों का अभिनन्दन करते थे।

 

जो मनुष्य शारंग धनुष धारण करने वाले यदुकुलनन्दन श्रीकृष्ण की इस स्तुति को याद करते, पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे इस शरीर का अन्त होने पर भगवान् श्रीकृष्ण में प्रवेश कर जाते हैं।

 

चक्रधारी श्रीहरि उनके सारे पापों का नाश कर डालते हैं।

 

गंगानन्दन भीष्म ने पूर्वकाल में जिसका गान किया था, अद्भुतकर्मा विष्णु का वही यह स्तवराज पूरा हुआ।

 

यह बड़े-बड़े पातकों का नाश करने वाला है।।

 

यह स्तवराज पापियों के समस्त पापों का नाश करने वाला है, संसार-बन्धन से छूटने की इच्छा वाला जो मनुष्य इसका पवित्रभाव से पाठ करता है, वह निर्मल सनातन लोकों को भी लाँघकर परमात्मा श्रीकृष्ण के अमृतमय धाम को चला जाता है।

 

 

भीष्म स्तवराज पढ़ने और सुनने का फल 

 

यह स्तवराज बड़े बड़े पातकों के समूहों का अर्थात समस्त जघन्य पापों नाश करने वाला है ।चक्रधारी श्रीहरि उनके सारे पापों का नाश कर डालते हैं। संसार-बन्धन से छूटने की इच्छा वाला जो मनुष्य इसका पवित्रभाव से पाठ करता है, वह निर्मल सनातन लोकों को भी लाँघकर परमात्मा श्रीकृष्ण के अमृतमय धाम को चला जाता है। जो मनुष्य भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की इस स्तुति को याद करते, पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे इस शरीर का अन्त होने पर भगवान् श्रीकृष्ण में प्रवेश कर जाते हैं।

 

 

 

Bheeshm Stuti in Hindi with meaning

 

 

 

Kunti Stuti-कुंती द्वारा भगवान श्री कृष्ण की स्तुति 

 

 

 

 

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