कबीर भेष अतीत का, करतूति करै अपराध।
बाहरि दीसै साध गति, माँहैं महा असाध॥
वेश तो साधु का बना लिया है, अत्तीत (इस लोक से परे का ) लेकिन करनी साधू की नहीं हैं, करनी तो असंत है तो उसे साधू कैसे कहा जा सकता है। भाव है कि केवल गेरुआ वस्त्र पहन लेने से कोई साधू नहीं बन जाता है। उसकी कथनी और करनी में समानता होनी चाहिए। उसके कार्य भी संतजन जैसे होने चाहिए नहीं तो उसे साधू कैसे कहा जा सकता है। साधू और संत वही है जिसकी कथनी और करनी में समानता होनी चाहिए। हमें स्वंय के कर्म सुधरने चाहिए।