gajendra moksha stotra in hindi

Gajendra Moksha Stotra with Hindi meaning | गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र हिंदी अर्थ के साथ | गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र | Gajendra Moksha Stotra in hindi | Gajendra Moksha Stotra Lyrics in hindi 

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gajendra moksha stotra with hindi meaning

 

 

गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र का महत्व

 

हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार जब आप किसी भयंकर मुसीबत मैं फँस जाये तो गजेंद्र मोक्ष के पाठ करने से भगवान विष्णु आपको उस मुसीबत से बाहर निकाल लेंगे जैसे उन्होंने गजेंद्र नाम के गज को मगरमच्छ के मुँह से बाहर निकाला था।

गजेंद्र मोक्ष का पाठ करने से ऋण और पितृ दोष से मुक्ति मिलती है तथा शत्रु से छुटकारा और दुर्भाग्य का नाश होता है इसका निरंतर स्तवन करने से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है उसके सभी कष्टों का निवारण हो जाता है सभी प्रकार के दुःस्वप्नों  का विनाश हो जाता है सभी प्रकार  के विघ्नों का विनाश हो जाता है और वह मृत्यु के बाद कभी नरक नहीं जाता ऐसा स्वयं भगवान का वचन है

श्री कृष्ण ने भागवत पुराण में कहा है कि जो मनुष्य इसका पाठ करेगा या सुनेगा उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं होगा, वो अवश्य मुझे प्राप्त करेगा और मुझे अत्यंत प्रिय होगा

 

ग्राह और गजेंद्र की कथा 

 

इस कथा में करुणारस और भक्तिरस का समन्वय है इस कथा के श्रद्धा पूर्ण श्रवण से ह्रदय में भक्ति भाव का संचार होता है। यह उत्तम कथा भागवत पुराण के  आठवें स्कन्द में वर्णित है। इस कथा को भाव पूर्वक सुनने से आंखे अश्रुपूरित हो जायेंगी यह उत्तम कथा भागवत पुराण के  आठवें स्कन्द में वर्णित है।

एक दिन गजराज अपने परिवार के साथ अठखेलियां करते हुए जीवन का भरपूर आनंद उठाते हुए नदी में स्नान कर रहा था। तभी उसके नदी में प्रवेश  करने के बाद नदी में उपस्थित ग्राह ने गज के पैर को दबोच लिया और उसे पानी में अंदर खींचने लगा। गजराज ने स्वयं को ग्राह के फंदे से छुड़ाने कि  बहुत कोशिश की परन्तु सभी प्रयासों में असफल हो गया। उसने अपने सभी सगे संबंधियों , पत्नी , पुत्र , मित्र सभी से सहायता के लिए आर्त पुकार की परन्तु कोई भी उसकी सहायता के लिए अपना जीवन दांव पे नहीं लगाना चाहता था। दर्द और पीड़ा की अवस्था में गजराज भगवान की स्तुति करते हैं

इस स्तुति को गजेंद्र अपने ह्रदय में भगवान को स्थित कर के मन में ही स्तवन करता है  

उसने इस स्तुति में किसी भी देवता का नाम नहीं लिया है परन्तु भक्त वत्सल भगवान श्री हरि भक्ति के वशीभूत हो कर उसकी सहायता के लिए प्रकट होते हैं और ग्राह का उद्धार कर गज को नया जीवन प्रदान करते हैं परन्तु गजेंद्र भगवान से प्रार्थना करता है कि अब इस संसार से उसका मोह समाप्त हो गया है उसने अपने सभी सगे सम्बन्धियों कि सच्चाई देख ली। इस जीवन के कटु सत्य से अब वो भली भांति परिचित हो चुका था कि जिस जीवन को वो अटल सत्य मानता था वह तो क्षण भंगुर है और प्रभु की माया मात्रा है गजेंद्र ने प्रभु से अपने लिए मोक्ष प्रदान करने का आग्रह किया प्रभु ने उसे प्रसन्न हो कर मोक्ष प्रदान किया।  

सर्वप्रथम श्री हरि ने ग्राह का उद्धार किया। क्योंकि ग्राह ने शरणागत वत्सल भगवान के भक्त के पैर पकड़े थे और भगवान अपने भक्तों के अधीन रहते  हैं इसीलिए भगवान ने पहले भक्त के पैर पकड़ने वाले का उद्धार किया

 

इस स्तोत्र को पढ़ने और सुनने से भगवान शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं

 

 

gajendra moksha stotra

 

 

गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र 

 

 

श्री शुक उवाच

एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम ॥१॥

 

श्री शुकदेव जी ने कहा-

अपनी बुद्धि के द्वारा पिछले अध्याय में वर्णित रीति से निश्चय करके तथा मन को हृदय देश में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्व जन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन ही मन पाठ करने लगा ॥१॥

 

 

गजेन्द्र उवाच

 नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥१॥

 

गजराज ने (मन ही मन) कहा

जिनके प्रवेश करने पर (जिनकी चेतना को पाकर) ये जड़ शरीर और मन आदि भी चेतन बन जाते हैं (चेतन की भांति व्यवहार करने लगते हैं), ‘ शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीर में प्रकृति एवं पुरुष रूप से प्रविष्ट हुए उन सर्व समर्थ परमेश्वर को हम मन ही मन नमन करते हैं ॥२॥

 


यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं इदं स्वयं
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ॥३॥

 

जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है , जिन्होंने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रूप में प्रकट हैंफिर भी जो इस दृश्य जगत से एवं इसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण ) एवं श्रेष्ठ हैंउन अपने आपबिना किसी कारण केबने हुए भगवान की मैं शरण लेता हूं ॥३॥

 

 

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्कचिद्विभातं क्क तत्तिरोहितम

अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते
आत्ममूलोवतु मां परात्परः ॥४॥

 

अपने संकल्प शक्ति के द्वार अपने ही स्वरूप में रचे हुए और इसीलिये सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले इस शास्त्र प्रसिद्ध कार्य कारण रूप जगत को जो अकुण्ठित दृष्टि होने के कारण साक्षी रूप से देखते रहते हैं उनसे लिप्त नहीं होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें ॥४॥

 

 

कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो
लोकेषु पालेषु सर्व हेतुषु

तमस्तदाsसीद गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः ॥५॥

 

समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर तथा पंचभूतों से लेकर महत्वपर्यंत सम्पूर्ण कारणों के उनकी परम करुणारूप प्रकृति में लीन हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेय तथा अपार अंधकाररूप प्रकृति ही बच रही थी। उस अंधकार के परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान सब ओर प्रकाशित रहते हैं वे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥५॥

 

 

यस्य देवा ऋषयः पदं विदु
र्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम

यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमणः मावतु ॥६॥

 

भिन्न भिन्न रूपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नहीं जान पाते , उसी प्रकार सत्त्व प्रधान देवता तथा ऋषि भी जिनके स्वरूप को नहीं जानते , फिर दूसरा साधारण जीव तो कौन जान अथवा वर्णन कर सकता हैवे दुर्गम चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें ॥६॥

 

 

दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम
विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः

चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतत्मभूता सुहृदः मे गतिः ॥७॥

 

आसक्ति से सर्वदा छूटे हुए , सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले , सबके अकारण हितू एवं अतिशय साधु स्वभाव मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरूप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रह कर अखण्ड ब्रह्मचार्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं , वे प्रभु ही मेरी गति हैं ॥७॥

 

 

विद्यते यस्य जन्म कर्म वा
नाम रूपे गुणदोष एव वा

तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यः
स्वमायया तान्युलाकमृच्छति ॥८॥

 

जिनका हमारी तरह कर्मवश ना तो जन्म होता है और जिनके द्वारा अहंकार प्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरूप का तो कोई नाम है रूप ही, फिर भी समयानुसार जगत की सृष्टि एवं प्रलय (संहार) के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं ॥८॥

 

 

तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेsनन्तशक्तये
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे ॥९॥

 

उन अनंत शक्ति संपन्न परं ब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार है उन प्राकृत आकार रहित एवं अनेकों आकारवाले अद्भुतकर्मा भगवान को बारंबार नमस्कार है ॥९॥

 

नमः आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥१०॥

 

स्वयं प्रकाश एवं सबके साक्षी परमात्मा को नमस्कार है उन प्रभु को जो मन , वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी सर्वथा परे हैं, बार बार नमस्कार है ॥१०॥

 

 

सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता
नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥११॥

 

विवेकी पुरुष के द्वारा सत्त्वगुणविशिष्ट निवृत्तिधर्म के आचरण से प्राप्त होने योग्य, मोक्ष सुख की अनुभूति रूप प्रभु को नमस्कार है ॥११॥

 

 

नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय ॥१२॥

 

सत्त्वगुण को स्वीकार करके शान्त , रजोगुण को स्वीकर करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ से प्रतीत होने वाले, भेद रहित, अतएव सदा समभाव से स्थित ज्ञानघन प्रभु को नमस्कार है ॥१२॥

 

 

क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे
पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः ॥१३॥

 

शरीर इन्द्रिय आदि के समुदाय रूप सम्पूर्ण पिण्डों के ज्ञाता, सबके स्वामी एवं साक्षी रूप आपको नमस्कार है सबके अन्तर्यामी , प्रकृति के भी परम कारण, किन्तु स्वयं कारण रहित प्रभु को नमस्कार है ॥१३॥

 

 

सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे
असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः ॥१४॥

 

सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जडप्रपंच एवं सबकी मूलभूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले तथा सम्पूर्ण विषयों में अविद्यारूप से भासने वाले आपको नमस्कार है ॥१४॥

 

 

नमो नमस्ते खिल कारणाय
निष्कारणायद्भुत कारणाय

सर्वागमान्मायमहार्णवाय
नमोपवर्गाय परायणाय ॥१५॥

 

सबके कारण किंतु स्वयं कारण रहित तथा कारण होने पर भी परिणाम रहित होने के कारण, अन्य कारणों से विलक्षण कारण आपको बारम्बार नमस्कार है सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों के परम तात्पर्य , मोक्षरूप एवं श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति भगवान को नमस्कार है ॥१५॥

 

 

गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपाय
तत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय

नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम
स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥१६॥

 

जो त्रिगुणरूप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानरूप अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की बाह्य वृत्ति जागृत हो उठती है तथा आत्म तत्त्व की भावना के द्वारा विधि निषेध रूप शास्त्र से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महात्माओं में जो स्वयं प्रकाशित हो रहे हैं उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१।६॥

 

 

मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय
मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोsलयाय

स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत
प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥१७॥

 

मुझ जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीवों की अविद्यारूप फाँसी को सदा के लिये पूर्णरूप से काट देने वाले अत्याधिक दयालु एवं दया करने में कभी आलस्य ना करने वाले नित्यमुक्त प्रभु को नमस्कार है अपने अंश से संपूर्ण जीवों के मन में अन्तर्यामी रूप से प्रकट रहने वाले सर्व नियन्ता अनन्त परमात्मा आप को नमस्कार है ॥१७॥

 

 

आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै
र्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय

मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय
ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥१८॥

 

शरीर, पुत्र, मित्र, घर, संपत्ति एवं कुटुंबियों में आसक्त लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले तथा मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरूप , सर्वसमर्थ भगवान को नमस्कार है ॥१८॥

 

 

यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति

किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं
करोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम ॥१९॥

 

जिन्हें धर्म, अभिलाषित भोग, धन तथा मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं अपितु जो उन्हें अन्य प्रकार के अयाचित भोग एवं अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ति से सदा के लिये उबार लें ॥१९॥

 

 

एकान्तिनो यस्य कंचनार्थ
वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः

अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं
गायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः ॥२०॥

 

जिनके अनन्य भक्तजो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान के ही शरण हैधर्म , अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नहीं चाह्ते, अपितु उन्हीं के परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र में गोते लगाते रहते हैं ॥२०॥

 

 

तमक्षरं ब्रह्म परं परेश
मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम

अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूर
मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥२१॥

 

उन अविनाशी, सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिये प्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा प्राप्त करने योग्य, अत्यन्त निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होने वाले , इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ञेय, अन्तरहित किंतु सबके आदिकारण एवं सब ओर से परिपूर्ण उन भगवान की मैं स्तुति करता हूँ ॥२१॥

 

 

यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या कलया कृताः ॥२२॥

 

ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा संपूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं ॥२२॥

 

 

यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयो
निर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः

तथा यतोयं गुणसंप्रवाहो
बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥२३॥

 

जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार बार निकलती है और पुनः अपने कारण मे लीन हो जाती है उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीरयह गुणमय प्रपंच जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्हीं में लीन हो जाते हैं ॥२३॥

 

 

वै देवासुरमर्त्यतिर्यंग
स्त्री षण्डो पुमान जन्तुः

नायं गुणः कर्म सन्न चासन
निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥

 

वे भगवान तो देवता हैं असुर, मनुष्य हैं तिर्यक (मनुष्य से नीचीपशु , पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी है वे स्त्री हैं पुरुष और नपुंसक ही हैं वे ऐसे कोई जीव हैं, जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश हो सके वे गुण हैं कर्म, कार्य हैं तो कारण ही सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ है ऐसे भगवान मेरे उद्धार के लिये आविर्भूत हों ॥२४॥

 

 

जिजीविषे नाहमिहामुया कि
मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या

इच्छामि कालेन यस्य विप्लव
स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ॥२५॥

 

मैं इस ग्राह के चंगुल से छूट कर जीवित नहीं रहना चाहता; क्योंकि भीतर और बाहरसब ओर से अज्ञान से ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने आप नाश नहीं होता , अपितु भगवान की दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है ॥२५॥

 

 

सोsहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम ॥२६॥

 

इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मैं विश्व के रचियता, स्वयं विश्व के रूप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मरूप से व्याप्त , अजन्मा, सर्वव्यापक एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री भगवान को केवल प्रणाम ही करता हूं, उनकी शरण में हूँ ॥२६॥

 

 

योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोsस्म्यहम ॥२७॥

 

जिन्होंने भगवद्भक्ति रूप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किये हुए अपने हृदय में जिन्हें प्रकट हुआ देखते हैं उन योगेश्वर भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२७॥

 

 

नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग
शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय

प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये
कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥२८॥

 

जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्त्वरजतमरूप ) शक्तियों का रागरूप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयरूप में प्रतीत हो रहे हैं, तथापि जिनकी इन्द्रियाँ विषयों में ही रची पची रहती हैं ऐसे लोगों को जिनका मार्ग भी मिलना असंभव है, उन शरणागतरक्षक एवं अपारशक्तिशाली आपको बार बार नमस्कार है ॥२८॥

 

 

नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोsस्म्यहम ॥२९॥

 

जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरूप अहंकार से ढंके हुए अपने स्वरूप को यह जीव जान नही पाता, उन अपार महिमा वाले भगवान की मैं शरण आया हूँ ॥२९॥

 

श्री शुकदेव उवाच – 

एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं
ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः

नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात
तत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत ॥३०॥

 

श्री शुकदेवजी ने कहा

जिसने पूर्वोक्त प्रकार से भगवान के भेदरहित निराकार स्वरूप का वर्णन किया था , उस गजराज के समीप जब ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नही आये, जो भिन्न भिन्न प्रकार के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरूप मानते हैं, तब सक्षात श्री हरिजो सबके आत्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरूप हैंवहाँ प्रकट हो गये ॥३०॥

 

 

तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः
स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि :

छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान
श्चक्रायुधोsभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥३१॥

 

उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुःखी देख कर तथा उसके द्वारा पढ़ी हुई स्तुति को सुन कर सुदर्शनचक्रधारी जगदाधार भगवान इच्छानुरूप वेग वाले गरुड़ जी की पीठ पर सवार होकर स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान अपर पहुँच गये जहाँ वह हाथी था

 

 

सोsन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो
दृष्ट्वा गरुत्मति हरि उपात्तचक्रम

उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा
न्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते ॥३२॥

 

सरोवर के भीतर महाबली ग्राह के द्वारा पकडे जाकर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुड़ की पीठ पर सवार चक्र उठाये हुए भगवान श्री हरि को देखकर अपनी सूँड कोजिसमें उसने (पूजा के लिये) कमल का एक फूल ले रखा थाऊपर उठाया और बड़ी ही कठिनाई सेसर्वपूज्य भगवान नारायण ! आपको प्रणाम है !यह वाक्य कहा ॥३२॥

 

 

तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य
सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार

ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं
सम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम ॥३३॥

 

उसे पीड़ित देख कर अजन्मा श्री हरि एकाएक गरुड को छोडकर नीचे झील पर उतर आये वे दया से प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते देखते चक्र से मुँह चीर कर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया ॥३३॥

 

 

गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र के लाभ

 

हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार जब आप किसी भयंकर मुसीबत मैं फँस जाये तो गजेंद्र मोक्ष के पाठ करने से भगवान विष्णु आपको उस मुसीबत से बाहर निकाल लेंगे जैसे उन्होंने गजेंद्र नाम के गज को मगरमच्छ के मुँह से बाहर निकाला था। गजेंद्र मोक्ष का पाठ करने से ऋण और पितृ दोष से मुक्ति मिलती है तथा शत्रु से  छुटकारा और दुर्भाग्य का नाश होता है इसका निरंतर स्तवन करने से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है  

 

श्री कृष्ण ने भागवत पुराण में कहा है कि जो मनुष्य इसका पाठ करेगा या सुनेगा उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं होगा, वो अवश्य मुझे प्राप्त करेगा और मुझे अत्यंत प्रिय होगा

 

गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र का फल 

 

इसका निरंतर स्तवन करने से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है सभी कष्टों का निवारण हो जाता है दुःस्वप्नो का विनाश हो जाता है सभी प्रकार  के विघ्नों का विनाश हो जाता है और वह मृत्यु के बाद कभी नरक नहीं जाता ऐसा स्वयं भगवान का वचन है

 

गज और ग्राह की कथा 

 

भागवत पुराण में गजेंद्र मोक्ष की कथा का वर्णन मिलता है, जहां पर स्वयं भगवान श्री कृष्ण यह कहते है, की जो मनुष्य भक्तिभाव से इसका पाठ और श्रवण करेगा उसके लिए इस जगत में कुछ भी प्राप्त करना असंभव नहीं होगा। वो मुझे बड़ी ही सहजता से प्राप्त कर लेगा। इसलिए बड़े ही स्थिर मन से इसका पाठ करना चाहिये।

 

गजेंद्र मोक्ष का पाठ ब्राह्ममुहूर्त में ही करना उचित माना जाता है, भगवान् श्री हरी के सामने या उनका ध्यान करके भाव पूर्वक इसका पाठ करे। इसका निरंतर श्रद्धा भाव से स्तवन करने से मनुष्य समस्त प्रकार के पापो से मुक्त हो जाता है, उसके सभी कष्टों और विघ्नो का विनाश हो जाता है। और शरीर त्यागने के पश्चात् उसे कभी नरक में नहीं जाना पड़ता, ऐसा स्वयं श्री भगवान् का वचन है।

 

गजेंद्र मोक्ष की सुन्दर कथा का वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण के आठवे स्कन्द में किया गया है। क्षीर सागर में 10 हजार योजन ऊंचा एक त्रिकूट नाम का एक पर्वत था। उस पर्वत के निकट घने जंगल में बहुत सी हथनियों के साथ एक गजेंद्र नाम का हाथी निवास करता था। वह सभी हाथियों का सरदार था।

 

एक दिन वह उसी पर्वत पर वह अपनी पत्नियों के साथ बड़ेबड़े झाड़ियों और पेड़ों को रौंदता हुआ घूम रहा था।उसके पीछेपीछे हाथियों के छोटेछोटे बच्चे तथा हथनिया घूम रही थी। बड़े जोर की धूप के कारण वह तथा उसके साथी प्यास से व्याकुल हो समीप के एक सरोवर से पानी पीकर अपनी प्यास बुझाने लगे।

 

प्यास बुझाने के बाद वह सभी हथनियों और अपने साथियो के साथ स्नान कर जल क्रीड़ा करने लगा। वह सूँड़ से पानी भरभर अन्य हाथियों पर फेंकने लगा और दूसरे भी वही करने लगे। मदमस्त गजराज सबकुछ भूलकर जल क्रीड़ा का आनन्द उठाता रहा। उसे पता नहीं था कि उस सरोवर में एक बहुत बलवान ग्राह भी रहता था। उसी समय एक बलवान मगरमच्छ(ग्राह) ने उस गजराज के पैर को अपने मुंह में दबोच लिया और उसे बलपूर्वक पानी के भीतर खींचने लगा।

 

उसके साथ के हाथियों और हथिनियों को गजराज की इस स्थिति पर बहुत चिंता हुई। उन्होंने एक साथ मिलकर गजराज को जल के बाहर खींचने का प्रयास किया किंतु वे इसमें सफल नहीं हुए। वे घबराकर ज़ोरज़ोर से चिंघाड़ने लगे। इस पर दूरदूर से आकर हाथियों के कई झुण्डों ने गजराज के झुण्डों से मिलकर उसे बाहर खींचना चाहा किन्तु यह सम्मिलित प्रयास भी विफल रहा।

सभी हाथी शान्त होकर अलग हो गए। अब ग्राह और गजराज में घोर युद्ध चलने लगा दोनों अपने रूप में काफी बलशाली थे और हार मानने वाले नहीं थे।

 

गजेंद्र ने तत्त्काल अपनी पूरी शक्ति लगाकर स्वयं को छुड़ाने का प्रयास किया परन्तु असफल रहा। जीवनमरण का यह संघर्ष निरन्तर चलता रहा।

 

गजेन्द्र स्वयं को बाहर बाहर खींचने का प्रयत्न करता और ग्राह उसे भीतर खींच लेता। उन दोनों के संघर्ष के कारण सरोवर का निर्मल जल गंदला हो गया और सभी कमलदल भी क्षतविक्षत हो गए। समस्त जलजंतु व्याकुल हो उठे। गजेन्द्र और ग्राह का संघर्ष निरंतर चलता रहा।

 

अंततः गजेन्द्र का सामर्थ्य क्षीण होने लगा और उसका शरीर शिथिल पड़ गया। अब उसके शरीर में शक्ति और मन में उतना उत्साह नहीं रहा। परन्तु जलचर होने के कारण ग्राह की शक्ति में कोई कमी नहीं आई। उसकी शक्ति बढ़ गई थी।

 

वह नवीन उत्साह के अत्यधिक शक्ति लगाकर गजेन्द्र को खींचने लगा। सभी प्रकार से असमर्थ गजेन्द्र के प्राण संकट में पड़ गए। उसकी शक्ति और पराक्रम का अहंकार चूर हो गया था। वह पूर्णतया निराश हो गया। परन्तु पूर्व जन्म के पुण्य फल के कारण उसे भगवत्स्मृति हो आई।

 

तब उसने निश्चय किया इस कराल काल संकट से केवल सर्वसमर्थ प्रभु ही उसकी रक्षा कर सकते है। अन्ततः इस निश्चय के साथ गजेन्द्र ने मन को एकाग्र कर पूर्वजन्म की स्मृति से सीखे हुए श्रेष्ठ स्त्रोत द्वारा श्री हरि की स्तुति करने लगा।

 

उसने अपनी शक्ति को पूरी तरह से भूलकर और अपने को पूरी तरह असहाय घोषित कर नारायण को पुकारा। भगवान समझ गए कि इसे अपनी शक्ति का मद जाता रहा और वह पूरी तरह से मेरा शरणागत है।

 

जब नारायण ने देखा कि मेरे अतिरिक्त यह किसी को अपना पक्षक नहीं मानता तो गजेंद्र का अंतर्नाद और उसकी भक्तिमय स्तुति को सुनकर सर्वदेवस्वरूप भगवान विष्णु तत्त्काल नारायण के `ना` के उच्चारण के साथ ही गरुण पर सवार होकर चक्र धारण किए हुए उस सरोवर के तट पर प्रकट हो गए। उन्होंने देखा कि गजेन्द्र डूबने ही वाला है। वह शीघ्रता से गरुण से कूद पड़े।

 

इस समय तक बहुत से देवीदेवता भी भगवान के आगमन को समझकर वहाँ उपस्थित हो गए थे। सभी के देखते ही देखते भगवान ने गजराज और गजेन्द्र को एक क्षण में सरोवर से खींचकर बाहर निकाला। देवताओं ने आश्चर्य से देखा, उन्होंने सुदर्शन से इस तरह ग्राह का मुँह फाड़ दिया कि गजराज के पैर को कोई क्षति नहीं पहुँची।

 

ब्रह्मादि देवगण श्री हरि की प्रशंसा करते हुए उनके ऊपर स्वर्गिक सुमनों की वृष्टि करने लगे। सिद्ध और ऋषिमहर्षि परब्रह्म भगवान विष्णु का गुणगान करने लगे।

 

जब गजेन्द्र ने हाथ में चक्र लिए गरुड़ारूढ़ भगवान विष्णु को देखा तो उसने कमल का एक सुन्दर पुष्प अपनी सूंड में लेकर ऊपर उठाया और बड़े करुण स्वर से कहा– “ हे नारायण ! हे जगदीश्वर ! हे पूर्णतम परमात्मा ! आपको नमस्कार है।

 

गजेन्द्र को अत्यंत पीड़ित देखकर भगवान विष्णु द्रवित हो तत्काल गरुड़ की पीठ से नीचे उतर आये और गजेन्द्र को ग्राह के साथ सरोवर से बाहर खींच कर तुरंत ही अपने सुदर्शन चक्र से ग्राह का मुंह चीरकर गजेन्द्र को मुक्त कर दिया। श्रीहरि के द्वारा मुक्ति पाकर ग्राह दिव्य शरीर धारण कर श्री विष्णु के चरणो में सिर झुकाकर उनकी स्तुति करने लगा।

 

वह समस्त पापो से मुक्त हो प्रभु की परिक्रमा कर अपने लोक को चला गया। भगवान विष्णु ने भी गजेन्द्र का उद्धार कर उसे अपना पार्षद बना लिया। गजेन्द्र द्वारा की गयी स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने कहा– “हे प्रिय गजेन्द्र ! जो लोग ब्रह्म मुहूर्त में उठकर तुम्हारी की हुई इन स्तुति से मेरा ध्यान करेंगे, उन्हें मैं मृत्यु के समय निर्मल बुद्धि का दान प्रदान करूँगा।

 

यह कहकर भगवान विष्णु ने पार्षद रूप में गजेन्द्र को अपने साथ लिया और गरुड़ पर विराजमान होकर वैकुण्ठ धाम को चले गए।

 

गजेंद्र का पूर्व जन्म का वृतांत  

 

प्राचीन काल मे द्रविड़ प्रदेश में एक पाण्ड्यवंशी राजा राज्य करता था। उनका नाम इंद्रद्युम्न था। वह बड़ा ही धर्मपरायण और प्रजा पालक था परन्तु वह अपना अधिक समय भगवान की आराधना में ही व्यतीत करता था। यद्यपि उनके राज्य में सर्वत्र सुख-शांति थी और प्रजा प्रत्येक प्रकार से अपने राजा से संतुष्ट थी। 

 

राजा इंद्रद्युम्न ने राजकार्य में समय देना बहुत कम कर दिया। वे कहने लगे कि भगवान विष्णु ही मेरे राज्य की व्यवस्था करते है। अतः इसलिए अब मै अपने इष्ट की आराधना में ही रहना चाहता हु। राजा इंद्रद्युम्न राज्य का त्याग कर मलय-पर्वत पर जाकर रहने लगे और तपस्वियों का वेश बनाकर निरंतर परमब्रह्म श्री हरि की भक्ति में तल्लीन रहते थे। उनका मन और प्राण निरन्तर श्री हरि के चरणो में ही समाया था।

 

एक बार की बात है, राजा इन्द्रद्युम्न प्रतिदिन की भांति स्नान आदि से निवृत हो श्री हरि की भक्ति में लीन थे। उन्हें बाह्य जगत का तनिक भी ध्यान नहीं था। संयोग वश उसी समय महर्षि अगस्त्य अपने समस्त शिष्यों के साथ वहां पर पहुँच गए। ध्यान में निमग्न होने के कारण राजा इंद्रद्युम्न ने महर्षि और उनके शिष्यों का कोई स्वागत सत्कार नहीं किया।

 

राजा के इस व्यव्हार से महर्षि अगस्त्य क्रोधित हो गए। उन्होंने इंद्रद्युम्न को श्राप देकर कहा – “हे राजन ! तुमने गुरुजनों से कोई शिक्षा ग्रहण नहीं की है और अभिमानवश अपने राजधर्म से निवृत होकर मनमानी कर रहे हो। तुमने हाथी के सामान जड़बुद्धि का अनुसरण करके ऋषियों का अपमान किया है इसलिए तुम्हे तुम्हे घोर अज्ञानमयी हाथी की योनि प्राप्त हो।” महर्षि अगत्स्य हरि भक्त राजा इंद्रद्युम्न को यह शाप देकर चले गए।

 

राजा इन्द्रद्युम्न ने इसे श्री भगवान का मंगलमय विधान समझकर प्रभु के चरणों में अपना सिर रख दिया। इसलिए महर्षि अगत्स्य के श्राप से राजा इंद्रद्युम्न अगले जन्म मे गजेन्द्र नाम के हाथी हुए, परन्तु अपनी अटल प्रभु भक्ति के कारण उन्हे पूर्वजन्म की स्मृति बनी रही।

 

ग्राह का पूर्व जन्म का वृतांत

 

गजेंद्र को जिस ग्राह ने पकड़ा था वह पूर्वजन्म में हूहू नामक एक गन्धर्व था। एक समय महर्षि देवल सरोवर में स्नान कर रहे थे। उसी समय हूहू नामक गन्धर्व ने उपहास के लिए सरोवर मे जाकर महर्षि देवल के पैर पकड़ लिये और मगर-मगर चिल्लाने लगा।

 

उसके इस व्यवहार से महर्षि देवल क्रोधित हो गये तब उन्होंने हूहू को श्राप देते हुऐ कहा – हे गन्धर्व! तुझे ऋषि और मुनियों का आदर करना चाहिए परन्तु तू एक मगर की भाँति पैर पकड़कर मेरा निरादर और उपहास कर रहा है क्या तुझे लाज नहीं आती। यदि तुझे मगर बनने का इतना ही शौक है तो जा तुझे मगर की ही योनि प्राप्त हो।

 

श्राप पाकर हूहू गंधर्व ऋषि से क्षमायाचना करने लगा। तब महर्षि देवल ने कहा मेरा श्राप व्यर्थ नहीं जायगा इसलिए तुझे मगर योनि तो अवश्य प्राप्त होगी परन्तु तेरा उद्धार श्री भगवान के हाथों से होगा।

 

एक अन्य वर्णन के अनुसार गज-ग्राह दोनों की पूर्व जन्म की कथा 

 

ऋषि कपिल जिनके वंशज ऋषभ देव से जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ था, महर्षि कर्दम के पुत्र थे। कर्दम ऋषि की पत्नी का नाम देवहूति था, उन्हीं के गर्भ से कपिल मुनि का जन्म हुआ था । 

 

कर्दम ऋषि और देवहूति के कपिल मुनि से बड़े दो पुत्र और थे जो कि वेदज्ञ थे । वे दोनों एक बार एक राजा के यहाँ जब यज्ञ संपन्न कर के आये । यज्ञ विधि विधान पूर्वक संपन्न होने के बाद दोनों को राजा से बहुत धन मिला । परन्तु दोनों में धन को ले कर कुछ  विवाद हो गया था। तब दोनों ने एक दूसरे को ग्राह और गज होने का श्राप दे दिया। दोनों विष्णु भक्त थे और दोनों की श्राप सत्य सिद्ध हुए। और अगले जन्म में दोनों ने गज और ग्रह के रूप में जन्म लिया। 

 

लेकिन इस जन्म में मृत्यु से पूर्व उन्होंने तपस्या कर विष्णु जी को प्रसन्न कर लिया और वरदान में मुक्ति माँग ली और इसीलिए अगले जन्म में उन्हें पूर्व जन्म का स्मरण था और दोनों ने भगवान विष्णु के हाथों मुक्ति पाई।

 

एक अन्य वर्णन के अनुसार गज-ग्राह दोनों की अगले जन्मों की कहानी

 

गज-ग्राह को अपनी भक्ति और विष्णु के हाथों मुक्ति के चलते वैकुण्ठ में स्थान मिला । दोनों वैकुण्ठ लोक में द्वारपाल हुए जिनका नाम जय और विजय हुआ। आगे चल कर सनत कुमारों के श्राप के कारण दोनों अगले तीन जन्मों में हिरण्याक्ष – हिरण्यकश्यपु, रावण – कुम्भकर्ण और शिशुपाल – दन्तवक्र हुए थे। एक बार जय विजय वैकुण्ठ के द्वार पर पहरा दे रहे थे । तभी चारों सनत कुमार सनक , सनन्दन , सनातन , सनत्कुमार भगवन श्री हरि के दर्शन के लिए आये । चारों सनत कुमारों कुमारों को पुरे ब्रम्हांड में कही भी आने जाने में कोई रोक टोक नहीं है । परन्तु जय विजय इस बात से अनभिज्ञ थे। उन्होंने सनत कुमारों को श्री हरि से मिलने की आज्ञा ये कह कर नहीं दी कि प्रभु अभी विश्राम कर रहे हैं आपको अभी अंदर जाने कि अनुमति नहीं मिल सकती। सनत कुमारों के बहुत आग्रह करने पर भी जब उन दोनों ने उन्हें प्रभु से मिलने नहीं जाने दिया तब क्रोध में उन सनत कुमारों ने उन दोनों द्वारपालों को श्राप दे दिया कि जाओ अगले तीन जन्मो में तुम राक्षस योनि में जन्म लो । इस श्राप को सुन कर जय विजय दोनों भयभीत हो गए और क्षमा याचना करने लगे। उन्होंने प्रभु को याद किया । परन्तु भगवन बोले कि इस सृष्टि में कुछ भी बिना मेरी इच्छा के नहीं होता । इन सनत कुमारों के मुँह से निकला श्राप भी मेरी ही इच्छा से निकला है । तुम दोनों अगले तीन जन्मो तक मेरे द्वारा की जाने वाली लीलाओं में भाग लोगे। अतः शोक न करो। सनत कुमारों ने भी अत्यंत दुःख व्यक्त किया कि इतनी सी बात पर उन्होंने इतना बड़ा श्राप दे दिया परन्तु जब प्रभु ने उस श्राप को अपनी इच्छा बताया तब वे चारों प्रभु के नामों का गुणगान करते वहाँ से चले गए। इस प्रकार वही जय विजय ने सतयुग में हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु , त्रेता युग में रावण और कुम्भकर्ण तथा द्वापर में शिशुपाल और दन्तवक्र के रूप में जन्म लिया और प्रभु ने सतयुग में वराह और नरसिंह रूप में , त्रेता में राम रूप में , और द्वापर में कृष्ण रूप में उनका उद्धार किया। 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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