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क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग- तेरहवाँ अध्याय
01-18 ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन
19-34 ज्ञानसहितप्रकृति-पुरुष का वर्णन
Contents
Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13 | क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह
अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच
ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय
अर्जुन उवाच
प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च ।
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव ৷৷13.1৷৷
अर्जुनःउवाच-अर्जुन ने कहा; प्रकृतिम्-भौतिक शक्ति; पुरुषम्-भोक्ता; च -और; एव–वास्तव में; क्षेत्रम्-कर्म क्षेत्र; क्षेत्रज्ञम्-क्षेत्र को जानने वाला; एव-वास्तव में; च-भी; एतत्-यह सारा; वेदितुम-जानने के लिए; इच्छामि-इच्छुक हूँ; ज्ञानम्-ज्ञान; ज्ञेयम्-ज्ञान का लक्ष्यः च-और; केशव-केशी नाम के असुर को मारने वाले अर्थात श्रीकृष्ण;
अर्जुन ने कहा-हे केशव! मैं यह जानने का इच्छुक हूँ कि प्रकृति क्या है और पुरुष क्या है तथा क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ क्या है? मैं यह भी जानना चाहता हूँ कि सच्चा ज्ञान क्या है और इस ज्ञान का लक्ष्य क्या है?॥13.1॥
श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥2।।
श्रीभगवान् उवाच-परमेश्वर ने कहा; इदम्- यह; शरीरम् – शरीर; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन ; क्षेत्रम्-कर्म का क्षेत्र; इति–इस प्रकार; अभिधीयते-कहा जाता है; एतत्-यह; यः-जो; वेत्ति-जानता है; तम्-वह मनुष्यः प्राहुः-कहा जाता है; क्षेत्रज्ञः-क्षेत्र को जानने वाला; इति-इस प्रकार; तत् विदः-इस सत्य को जानने वाला।
परम पुरुषोतम भगवान ने कहाः हे अर्जुन! इस शरीर को क्षेत्र या कर्म क्षेत्र के रूप में परिभाषित किया गया है और जो इस क्षेत्र को जानता है अर्थात जो इस शरीर को ( क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ दोनों का सत्य जानने वाले ऋषियों के माध्यम से ) जान जाता है ज्ञानीजनों द्वारा उसे क्षेत्रज्ञ या शरीर का ज्ञाता कहा जाता है॥13.2॥
(जैसे खेत में बोए हुए बीजों का उनके अनुरूप फल समय पर प्रकट होता है, वैसे ही इसमें बोए हुए कर्मों के संस्कार रूप बीजों का फल समय पर प्रकट होता है, इसलिए इसका नाम ‘क्षेत्र’ ऐसा कहा है)
श्रीभगवानुवाच
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥3
क्षेत्रज्ञम्-क्षेत्र का ज्ञाता; च-भी; अपि-निश्चय ही; माम्-मुझको; विद्धि-जानो; सर्व-समस्त; क्षेत्रेषु – शरीर के कर्मों का क्षेत्र; भारत-भरतवंशी; क्षेत्र-कर्मक्षेत्र; क्षेत्रज्ञयो:-क्षेत्र का ज्ञाता; ज्ञानम्-जानना; यत्-जो; तत्-वह; ज्ञानम्-ज्ञान; मतम्-मत; मम–मेरा।
हे अर्जुन! तू समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ ( जीवात्मा ) भी मुझे ही जान और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है ( कि मैं वासुदेव ही समस्त शरीरों के कर्म क्षेत्रों का ज्ञाता हूँ अर्थात कर्म क्षेत्र के रूप में शरीर, आत्मा तथा भगवान को इस शरीर के ज्ञाता के रूप में जान लेना ही ) मेरे मतानुसार सच्चा ज्ञान है ৷৷13.3৷৷
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु॥4
तत्-वह; क्षेत्रम्-कर्मक्षेत्र; यत्-क्या; च-भी; यादृक्-उसकी प्रकृति; च-भी; यत् विकारि-यह परिवर्तन कैसे होते है; यतः-जिससे; च-भी; यत्-जोः सः-वह; च-भी; यः-जो; यत् प्रभाव:-उसकी शक्तियाँ क्या हैं; च-भी; तत्-उस; समासेन-संक्षेप में; मे-मुझसे; शृणु-सुनो।
वह क्षेत्र या कर्म क्षेत्र क्या है ? इसकी प्रकृति क्या है ? इसमें कैसे परिवर्तन होते है? यह कहाँ से और किस कारण से उत्पन्न हुआ है? किन विकारों वाला है? इस कर्म क्षेत्र का ज्ञाता या क्षेत्रज्ञ कौन है ? उसकी शक्तियाँ क्या हैं? वह किस प्रभाव वाला है ?वह सब संक्षेप में मुझसे सुन৷৷13.4৷৷
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥5
ऋषिभिः-महान ऋषियों द्वारा; बहुधा–अनेक प्रकार से; गीतम्-वर्णित; छन्दोभिः-वैदिक मन्त्रो में; विविधो:-विविध प्रकार के; पृथक्-अलगअलग; ब्रह्मसूत्र-वेदान्त के सूत्र; पदैः-स्त्रोतों द्वारा; च-भी; एव-विशेष रूप से; हेतुमद्भिः-तर्क सहित; विनिश्चितैः-निर्णयात्मक साक्ष्यों।
यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ ( क्षेत्र के ज्ञाता ) का तत्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से तथा अत्यंत विस्तार से कहा गया है और विविध वेदमन्त्रों, वेदों कि ऋचाओं और विविध छंदों द्वारा भी विभागपूर्वक कहा गया है तथा वैदिक स्रोतों एवं भलीभाँति निश्चय किए हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्र के पदों ( ब्रह्म के सूचक शब्दों ) द्वारा भी ठोस तर्क और निर्णयात्मक साक्ष्यों के साथ प्रकट किया गया है ৷৷13.5৷৷
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥6
महाभूतानि–पंच महातत्त्व, पंच महाभूत ; अहंकारः-अभिमान; बुद्धिः-बुद्धि; अव्यक्तम्-अप्रकट मौलिक पदार्थ, अव्यक्त मूल तत्व ; एव-वास्तव में; च-भी; इन्द्रियाणि-इन्द्रियाँ; दशएकम्-ग्यारह; च-भी; पञ्च-पाँच; च-भी; इन्द्रियगोचराः-इन्द्रियों के विषय;
कर्म क्षेत्र पाँच महातत्त्वों ( पांच महाभूतों – अग्नि , जल , आकाश , पृथ्वी , वायु ) , समष्टि अहंकार, समष्टि बुद्धि ( महतत्व ) और अव्यक्त मूल तत्त्व ( प्रकृति ) , ग्यारह इन्द्रियों (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियों और मन) और इन्द्रियों के पाँच विषयों ( शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध ) से निर्मित है अर्थात यह चौबीस तत्त्वोंवाला क्षेत्र है।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥7
इच्छा-कामना; द्वेषः-घृणा; सुखम्-सुख, दुःखम्-दुख; सङ्घात:- स्थूल देह , शरीर ; चेतना-शरीर में चेतना; धृतिः-इच्छा शक्ति; एतत्-सब; क्षेत्रम्-कर्मों का क्षेत्र; समासेन-सम्मिलित करना; स विकारम् – विकारों सहित; उदात्रतम्-कहा गया।
श्रीकृष्ण अब क्षेत्र के गुणों और उसके विकारों को स्पष्ट करते हैं। इच्छा, द्वेष ( घृणा ) , सुख, दुःख, शरीर ( स्थूल देह ) , चेतना ( शरीर और अन्तःकरण की एक प्रकार की प्राण शक्ति या चेतन-शक्ति ) और इच्छा शक्ति ये सब क्षेत्र ( कर्म क्षेत्र) में सम्मिलित है । इस प्रकार विकारों सहित यह क्षेत्र संक्षेप में कहा गया है ৷৷13.7৷৷
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥8
अमानित्वम्-विनम्रता; अदम्भित्वम्-आडम्बर या दिखावटीपने या दिखावे से मुक्ति; अहिंसा-अहिंसा; क्षान्ति:-क्षमाशील; आर्जवम्-सरलता; आचार्य उपासनम्-गुरु की सेवा; शौचम्-मन और शरीर की पवित्रता या शुद्धि ; स्थैर्यम्-दृढ़ता; आत्म विनिग्रहः-आत्म संयम;
विनम्रता अर्थात श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव अर्थात बहरी आडम्बर और दिखावटीपने से मुक्ति , अहिंसा अर्थात किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, सादगी अर्थात मन-वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर अर्थात शरीर और मन की शुद्धि , दृढ़ता अर्थात अन्तःकरण की स्थिरता और आत्म संयम अर्थात मन-इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह अर्थात मन और इन्द्रियों का वश में होना ৷৷13.8৷৷
(सत्यतापूर्वक शुद्ध व्यवहार से द्रव्य की और उसके अन्न से आहार की तथा यथायोग्य बर्ताव से आचरणों की और जल-मृत्तिकादि से शरीर की शुद्धि को बाहर की शुद्धि कहते हैं तथा राग, द्वेष और कपट आदि विकारों का नाश होकर अन्तःकरण का स्वच्छ हो जाना भीतर की शुद्धि कही जाती है।)
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥9
इन्द्रियम अर्थेषु–इन्द्रियों के विषय में; वैराग्यम्-विरक्ति; अनहंकार:-अभिमान से रहित; एव-निश्चय ही; च-भी; जन्म-जन्म; मृत्यु-मृत्यु; जरा-बुढ़ापा; व्याधि-रोग; दुःख-दुख का; दोष-बुराई; अनुदर्शनम् – बोध;
इन्द्रिय विषयों के प्रति उदासीनता या वैराग्य अर्थात इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव होना , अहंकार का अभाव होना , जन्म, मृत्यु, रोग और वृद्धावस्था कि दुःखमयी अवस्था का ज्ञान होना और इन अवस्थाओं के दोषों का विचार करना। इस प्रकार इस जीवन के सदोष स्वभाव का सूक्ष्मता से निरीक्षण करना – यह ज्ञान कहा गया है। ৷৷13.9৷৷
असक्तिरनभिष्वङ्ग: पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥10
असक्ति-आसक्ति; अनभिष्वङ्गः-लालसा या मोह और ममता रहित; पुत्र-पुत्र; दार-स्त्री; गृह आदिषु – घर गृहस्थी आदि में; नित्यम्-निरंतर; च-भी; सम-चित्तवम्-समभाव; इष्ट – इच्छित; अनिष्ट-अवांछित; उपपत्तिषु-प्राप्त करके;
पुत्र, स्त्री, घर-गृहस्थी और धन- संपत्ति आदि में आसक्ति और ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में अर्थात जीवन में वांछित और अवांछित घटनाओं या अनुकूलता-प्रतिकूलता की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना अर्थात एक समान रहना – यह ज्ञान कहा गया है।॥13.10॥
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥11
मयि-मुझ में; च-भी; अनन्ययोगेन-अनन्य रूप से एकीकृत; भक्ति:-भक्ति; अव्यभिचारिणी- अचल , अविचल , दृढ , अनन्य , अविरल ; विविक्त-एकान्त; देश-स्थानों की; सेवित्वम्-इच्छा करते हुए; अरति:-विरक्त भाव से; जनसंसदि-लौकिक समुदाय के लिए;
मुझ परमेश्वर में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी अर्थात अविचल और अनन्य भक्ति तथा एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और लौकिक समुदाय या विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में अरुचि , विमुखता और प्रेम का न होना अर्थात मनुष्यों के समुदाय के व्यर्थ कोलाहल से दूर रहकर शांति में चित्त की रुचि होना – यह ज्ञान कहा गया है ॥13.11॥
(केवल एक सर्वशक्तिमान परमेश्वर को ही अपना स्वामी मानते हुए स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके, श्रद्धा और भाव सहित परमप्रेम से भगवान का निरन्तर चिन्तन करना ‘अव्यभिचारिणी’ भक्ति है। सनातन परमेश्वर के प्रति हृदय की गहरी और सदा बनी रहने वाली उपासना )
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥12
अध्यात्म – आत्मा सम्बन्धी; ज्ञान-ज्ञान ; नित्यत्वम्-निरंतर; तत्त्वज्ञानं-आध्यात्मिक सिद्वान्तों का ज्ञान; अर्थ – हेतु; दर्शनम् – दर्शनशास्त्र; एतत्-यह सारा; ज्ञानम्-ज्ञान; इति-इस प्रकार; प्रोक्तम्-घोषित; अज्ञानम्-अज्ञान; यत्-जो; अत:-इससे; अन्यथा-विपरीत।
अध्यात्म ज्ञान में नित्य स्थिति या स्थिरता और परम सत्य की तात्त्विक खोज और तत्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही सर्वत्र देखना- इन सबको मैं ज्ञान घोषित करता हूँ और जो भी इसके प्रतिकूल हैं उसे मैं अज्ञान कहूँगा 13.12॥
(जिस ज्ञान द्वारा आत्मवस्तु और अनात्मवस्तु जानी जाए, उस ज्ञान का नाम ‘अध्यात्म ज्ञान’ है। इस अध्याय के श्लोक 7 से लेकर यहाँ तक जो साधन कहे हैं, वे सब तत्वज्ञान की प्राप्ति में हेतु होने से ‘ज्ञान’ नाम से कहे गए हैं। ऊपर कहे हुए ज्ञान के साधनों से विपरीत तो मान, दम्भ, हिंसा आदि हैं, वे अज्ञान की वृद्धि में हेतु होने से ‘अज्ञान’ नाम से कहे गए हैं। )
ज्ञेयं यत्तत्वप्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥13
ज्ञेयम्-जानने योग्य; यत्-जो; तत्-वह; प्रवक्ष्यामि-अब मैं प्रकट करूंगा; यत्-जिसे; ज्ञात्वा-जानकर; अमृतम्-अमरत्व को; अश्नुते–प्राप्त होता है; अनादि-आदि रहित; मत्-परम्-मेरे अधीन; ब्रह्म-ब्रह्म; न-न तो; सत्-अस्तित्व; तत्-वह; न-न तो; असत्-अस्तित्व हीन , ; उच्यते-कहा जाता है।
अब मैं तुम्हें स्पष्ट रूप से वह प्रकट करूंगा जो ज्ञेय है अर्थात जानने योग्य है तथा जिस ( परमात्म तत्व ) को जानकर मनुष्य परमानन्द और अमरत्व को प्राप्त होता है। वह (ज्ञेय-तत्त्व) अनादि और परम ब्रह्म है। उसको न सत् कहा जा सकता है और न असत् ही कहा जा सकता है।अर्थात जो अस्तित्त्व और अस्तित्त्वहीन से परे है ৷৷13.13৷৷
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥14
सर्वतः-सर्वत्र; पाणि-हाथ; पादम्-पैर; तत्-वह; सर्वतः-सर्वत्र; अक्षि-आँखें; शिरः-सिर; मुखम्-मुँह; सर्वतः-सर्वत्र; श्रुतिमत्-कानों से युक्त; लोके-संसार में; सर्वम्-हर वस्तु; आवृत्य-व्याप्त; तिष्ठति–अवस्थित है।
वह ( परमात्मा ) सब ओर हाथ-पैर वाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुख वाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। (आकाश जिस प्रकार वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी का कारण रूप होने से उनको व्याप्त करके स्थित है, वैसे ही परमात्मा भी सबका कारण रूप होने से सम्पूर्ण चराचर जगत को व्याप्त करके स्थित है) ॥13.14॥
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥15
सर्व-सभी; इन्द्रिय-इन्द्रियों; गुण-इन्द्रिय विषय का; आभासम्–गोचर, जानने वाला ; सर्व-सभी; इन्द्रिय-इन्द्रियों से; विवर्जितम्-रहित; असक्तम्-अनासक्त; सर्वभृत्-सबके पालनहार; च-भी; एव–वास्तव में; निर्गुणम्-प्राकृत शक्ति के तीनों गुणों से परे; गुणभोक्तृ-प्रकृति के तीनों गुणों के भोक्ता; च- यद्यपि।
यद्यपि वह सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है, परन्तु वास्तव में वह सब इन्द्रियों से रहित है तथा आसक्ति रहित होने पर भी सबका धारण-पोषण करने वाला पालनहार है और निर्गुण ( गुणों से रहित ) होने पर भी प्रकृति के तीनों गुणों ( सतोगुण , रजोगुण , तमोगुण ) को भोगने वाला है॥13.15॥
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥16
बहिः-बाहर; अन्तः -भीतरः च और; भूतानाम्-सभी जीवों का; अचरम्-जड़ ; चरम्-जंगम, चल ; एव-भी; च-और; सूक्ष्मत्वात्-सूक्ष्म होने के कारण; तत्-वह; अविज्ञेयम्-अज्ञेय; दूरस्थम्-दूर स्थित; च-भी; अन्तिके–अति समीप; च-तथा; तत्-वह।
वह चराचर परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है अर्थात भगवान सभी जीवों के भीतर एवं बाहर स्थित हैं चाहे वे चर हों या अचर । चर-अचर प्राणियों के रूप में भी वही है और वह अति सूक्ष्म होने से अविज्ञेय अर्थात हमारी समझ से परे ( जैसे सूर्य की किरणों में स्थित हुआ जल सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है, वैसे ही सर्वव्यापी परमात्मा भी सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है ) हैं तथा अति समीप में (वह परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण और सबका आत्मा होने से अत्यन्त समीप है) और अत्यंत दूर में (श्रद्धारहित, अज्ञानी पुरुषों के लिए न जानने के कारण बहुत दूर है) भी स्थित वही है॥13.16॥
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥17
अविभक्तम्-अविभाजित; च यद्यपि; भूतेषु–सभी जीवों में ; विभक्तम्-विभक्त; इव-प्रत्यक्ष रूप से; च–फिर; स्थितम्-स्थित; भूतभर्तृ-सभी जीवों का पालक; च-भी; तत्-वह; ज्ञेयम्-जानने योग्य; ग्रसिष्णु-संहारक, प्रभविष्णु-सृष्टा; च-और।
वह परमात्मा स्वयं विभागरहित होते हुए भी तथा आकाश के सदृश परिपूर्ण होने पर भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है अर्थात यद्यपि भगवान सभी जीवों के बीच विभाजित प्रतीत होता है किन्तु वह अविभाजित है (जैसे महाकाश विभागरहित स्थित हुआ भी घड़ों में पृथक-पृथक के सदृश प्रतीत होता है, वैसे ही परमात्मा सब भूतों में एक रूप से स्थित हुआ भी पृथक-पृथक की भाँति प्रतीत होता है) तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णुरूप से भूतों को धारण-पोषण करने वाला और रुद्ररूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मारूप से सबको उत्पन्न करने वाला है अर्थात वह जानने योग्य परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियों के जनक ( उनको उत्पन्न करने वाले ) पालनकर्ता ( उनका भरण-पोषण करने वाले ) और संहारक ( उनका संहार करने वाले ) हैं ॥13.17॥
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥18
ज्योतिषाम् – सभी प्रकाशित वस्तुओं में; अपि – भी; तत्-वह; ज्योतिः-प्रकाश का स्रोत; तमस:-अन्धकार; परम्-परे; उच्यते-कहलाता है; ज्ञानम्-ज्ञान; ज्ञेयम्-ज्ञान का विषय; ज्ञानगम्यम्-ज्ञान का लक्ष्य; हृदि – हृदय में; सर्वस्य–सब; विष्ठितम्-निवास।
वे समस्त प्रकाशमयी पदार्थों के प्रकाश स्रोत हैं, वे सभी प्रकार की अज्ञानता के अंधकार से परे हैं अर्थात वह परब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति एवं माया तथा अज्ञान से अत्यन्त परे कहा जाता है। वे ज्ञान हैं, वे ज्ञान का विषय हैं और ज्ञान का लक्ष्य हैं अर्थात वह परमात्मा ज्ञानस्वरूप ( चैतन्य स्वरूप या बोध स्वरूप ) , जानने के योग्य एवं तत्वज्ञान से प्राप्त करने या जानने योग्य ( ज्ञानगम्य ) है और वे सभी जीवों के हृदय में विशेष रूप से स्थित हैं ( विराजमान हैं या निवास करते हैं ) ॥13.18॥
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥19
इति–इस प्रकार; क्षेत्रम्-क्षेत्र की प्रकृति; तथा—और; ज्ञानम्-ज्ञान का अर्थ; ज्ञेयम्-ज्ञान का विषय; च-और; उक्तम्-प्रकट करना; समासतः-संक्षेप में; मत् भक्त:-मेरा भक्त; एतत्-यह सब; विज्ञाय-जान कर; मत् भावाय-मेरी दिव्य प्रकृति; उपपद्यते-प्राप्त करता है।
इस प्रकार मैंने तुम्हें कर्म क्षेत्र अर्थात क्षेत्र की प्रकृति, ज्ञान अर्थात ज्ञान का अर्थ और ज्ञेय अर्थात ज्ञान का विषय या ज्ञान के लक्ष्य को संक्षेप में प्रकट किया है। इसे वास्तव में केवल मेरे भक्त ही पूर्णतः समझ सकते हैं और इसे जानकर वे मेरी दिव्य प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात मेरा भक्त इसको तत्त्व से जानकर मेरे भाव को अर्थात मेरे ही स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। ॥13.19॥
ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय
श्रीभगवानुवाच
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥20
प्रकृतिम्-प्राकृत शक्ति; पुरुषम्-जीवात्मा को; च-भी; एव-वास्तव में; विद्धि-जानो; अनादी-आदिरहित; उभौ-दोनों; अपि-भी; विकारान्–विकारों को; च-भी; गुणान् – प्रकृति के तीन गुण; च-भी; एव-निश्चय ही; विद्धि-जानो; प्रकृति-भौतिक प्रकृति से; सम्भवान्- उत्पन्न।
प्रकृति और पुरुष (जीवात्मा) – इन दोनों को ही तू अनादि जान और राग-द्वेषादि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न जान अर्थात शरीर में होने वाले सभी परिवर्तन और प्रकृति के तीनों गुणों की उत्पत्ति प्राकृत शक्ति से होती है अर्थात सभी विकार और गुण प्रकृति से ही उत्पन्न हुए हैं। कार्य और कारण के द्वारा होने वाली क्रियाओं को उत्पन्न करने में प्रकृति ही हेतु कही जाती है और सुख-दुःख के भोक्तापन में पुरुष हेतु कहा जाता है ॥13.20॥
श्रीभगवानुवाच
कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।।13.21।।
कार्य-परिणाम; कारण-कारण; कर्तृत्वे-सृष्टि के विषय में; हेतुः-माध्यम; प्रकृतिः-भौतिक शक्ति; उच्यते-कही जाती है; पुरूष:-जीवात्मा; सुख दुखानाम्-सुख तथा दुख का; भोक्तृत्वे-अनुभूति; हेतुः-उत्तरदायी; उच्यते-कहा जाता है।
कार्य (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध – इनका नाम ‘कार्य’ है) और कारण (बुद्धि, अहंकार और मन तथा कर्ण , त्वचा, जिह्वा , नेत्र और घ्राण एवं वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा- इन 13 का नाम ‘ कारण ‘ है) को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और पुरुष या जीवात्मा सुख-दुःख के भोक्तापन में अर्थात भोगने में हेतु कहा जाता है अर्थात सृष्टि के विषय में प्राकृत शक्ति ही कारण और परिणाम के लिए उत्तरदायी है और सुख-दुख की अनुभूति हेतु जीवात्मा को उत्तरदायी बताया जाता है।॥13.21॥
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।13.22।।
पुरुषः-जीवात्मा; प्रकृतिस्थ:-भौतिक शक्ति में स्थित होकर; हि-निश्चय ही; भुक्ते-भोग की इच्छा; प्रकृतिजान्- भौतिक प्रकृति से उत्पन्न; गुणान्- प्रकृति के तीन गुणों को; कारणम्-कारण; गुणसङ्ग – प्रकृति के गुणों में आसक्ति; अस्य-जीव की; सत् असत्-अच्छी तथा बुरी; योनि-उत्तम और अधम योनियों में; जन्मसु-जन्म लेना।
प्रकृति में ( प्रकृति का अर्थ है भगवान की त्रिगुणमयी माया ) स्थित पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी-बुरी या शुभ – अशुभ या ऊंची – नीची योनियों में जन्म लेने का कारण है। (सत्त्वगुण के संग से देवयोनि में , रजोगुण के संग से मनुष्य योनि में और तमो गुण के संग से पशु आदि नीच योनियों में जन्म होता है।) अर्थात पुरुष अर्थात जीव प्रकृति में स्थित हो जाता है, प्रकृति के तीनों गुणों के भोग की इच्छा करता है, उनमें आसक्त हो जाने के कारण उत्तम और अधम योनियों में जन्म लेता है॥13.22॥
उपद्रष्टाऽनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः।।13.23।।
उपद्रष्टा-साक्षी; अनुमन्ता–अनुमति देने वाला; च-भी; भर्ता-निर्वाहक; भोक्ता–परम भोक्ता; महा-ईश्वर:-परम नियंन्ता; परम्-आत्म-परमात्मा; इति-भी; च-तथा; अपि-निस्सन्देह; उक्तः-कहा गया है; देहे-शरीर में; अस्मिन्-इस; पुरुषःपर-परम प्रभु।
इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है। यह पुरुष या आत्मा साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीवरूप से भोक्ता, ब्रह्मा आदि का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा- ऐसा कहा गया है अर्थात इस शरीर में पुरुष या आत्मा रुपी परमेश्वर भी रहता है। यह आत्मा रूप पुरुष शरीर रूप प्रकृति के साथ सम्बन्ध रखने से ‘उपद्रष्टा’, उसके साथ मिलकर सम्मति, अनुमति देने से ‘अनुमन्ता’, अपने को उसका भरण पोषण करने वाला मानने से ‘भर्ता’, उसके सङ्गसे सुखदुःख भोगने से ‘भोक्ता’, और अपने को उसका स्वामी मानने से ‘महेश्वर’ बन जाता है। परन्तु स्वरूप से यह पुरुष ‘परमात्मा’ कहा जाता है। यह देह में रहता हुआ भी देह से पर या सम्बन्ध-रहित ही है। परम पुरुष ही इस देह में साक्षी, अनुमति प्रदान करने वाला, सहायक, परम भोक्ता, परम नियन्ता और परमात्मा कहा जाता है॥13.23॥
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैःसह।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते।।13.24।।
यः-जो; एवम्-इस प्रकार; वेत्ति–जानना है; पुरुषम्-जीव; प्रकृतिम्-भौतिक शक्ति; च-तथा; गुणैः-प्रकृति के तीनों गुणों के सह-साथ; सर्वथा-सभी प्रकार; वर्तमान:-स्थित होकर; अपि-यद्यपि; न कभी नहीं; स:-वह; भूयः-फिर से; अभिजायते-जन्म लेता है।
इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है वह सब प्रकार से कर्तव्य कर्म करता हुआ या सब प्रकार से व्यवहार करता हुआ या रहता हुआ भी फिर कभी जन्म नहीं लेता है अर्थात वे जो परमात्मा, जीवात्मा या पुरुष और प्रकृति के सत्य और तीनों गुणों की अन्तःक्रिया को समझ लेते हैं वे पुनः जन्म नहीं लेते। उनकी वर्तमान स्थिति चाहे जैसी भी हो वे मुक्त हो जाते हैं।॥13.24॥
(दृश्यमात्र सम्पूर्ण जगत माया का कार्य होने से क्षणभंगुर, नाशवान, जड़ और अनित्य है तथा जीवात्मा नित्य, चेतन, निर्विकार और अविनाशी एवं शुद्ध, बोधस्वरूप, सच्चिदानन्दघन परमात्मा का ही सनातन अंश है, इस प्रकार समझकर सम्पूर्ण मायिक पदार्थों के संग का सर्वथा त्याग करके परम पुरुष परमात्मा में ही एकीभाव से नित्य स्थित रहने का नाम उनको ‘तत्व से जानना’ है)
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे।।13.25।।
ध्यानेन-ध्यान के द्वारा; आत्मनि-अपने भीतर; पश्यन्ति-देखते हैं; केचित्-कुछ लोग; आत्मानम्-परमात्मा को; आत्मना-मन से; अन्ये – अन्य लोग; सांख्येन-ज्ञान के पोषण द्वारा; योगेन-योग पद्धति द्वारा; कर्म-योगेन-कर्मयोग द्वारा भगवान में एकीकृत होना; च-भी; अपरे–अन्य।
कुछ लोग शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि या मन से ध्यान के द्वारा, कुछ लोग सांख्य योग या ज्ञान के संवर्धन के द्वारा जबकि कुछ अन्य लोग कर्म योग के द्वारा अपने भीतर स्थित आत्मा अर्थात परमात्मा या परमात्म तत्व को देखते हैं॥13.25॥
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वाऽन्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः।।13.26।।
अन्ये – अन्य; तु–लेकिन; एवम्-इस प्रकार; अजानन्तः-आध्यात्मिक ज्ञान से अनभिज्ञ; श्रुत्वा-सुनकर; अन्येभ्यः-अन्यों से; उपासते- आराधना करना प्रारम्भ कर देते हैं; ते–वे; अपि-भी; च-तथा; अतितरन्ति-पार कर जाते हैं; एव-निश्चय ही; मृत्युम्-मृत्युः श्रुतिपरायणाः-संतो के उपदेश सुनकर।
अन्य लोग जो आध्यात्मिक मार्ग से अनभिज्ञ होते हैं या (ध्यानयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग, आदि साधनों को नहीं जानते ) , लेकिन वे अन्य संत पुरुषों या जीवन्मुक्त महापुरुषों ( तत्व को जानने वाले संतों ) से श्रवण कर भगवान की आराधना करने लगते हैं। इस प्रकार वे भी निःसंदेह जन्म और मृत्यु के सागर को पार कर लेते हैं या इस भाव सागर से तर जाते हैं ॥13.26॥
यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ।।13.27।।
यावत्-जो भी; सञ्जायते-प्रकट होता है; किञ्चित्-कुछ भी; सत्त्वम्-अस्तित्त्व; स्थावर-अचर; जङ्गमम्-चर; क्षेत्र-कर्मक्षेत्र; क्षेत्रज्ञ- शरीर को जानने वाले का; संयोगत्-संयोग से; तत्-तुम; विद्धि-जानो; भरतऋषभ-भरतवंशियों में श्रेष्ठ।
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! जो भी स्थावर और जंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं अर्थात जो भी चर और अचर का अस्तित्व तुम्हें दिखाई दे रहा है, उनको तुम क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न हुए जानो ॥13.27॥
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति।।13.28।।
समम्-समभाव से; सर्वेषु-सब में; भूतेषु-जीवों में; तिष्ठन्तम्-निवास करते हुए; परम ईश्वरम्-परमात्मा; विनश्यत्सु-नाशवानों में; अविनश्यन्तम्-अविनाशी; यः-जो; पश्यति-देखता है; सः-वही; पश्यति–अनुभव करते हैं।
जो सभी जीवों में परमात्मा को आत्मा के साथ देखता है और जो इस नश्वर शरीर में दोनों को अविनाशी समझता है केवल वही वास्तव में समझता है अर्थात जो समस्त नाशवान जीवों में अविनाशी परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वही वास्तव में सत्य देखता है॥13.28॥
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्।।13.29।।
समम्-समान रूप से; पश्यन् – देखते हुए; हि-निश्चय ही; सर्वत्र – सभी स्थानों में; समवस्थितम्-एक समान रूप से स्थित; ईश्वरम्-परमात्मा के रूप में भगवान; न-नहीं; हिनस्ति– हिंसा ; आत्मना-मन से, स्वयं के द्वारा ; आत्मानम्-आत्मा को, स्वयं को ; ततः-तब; याति–पहुँचता है; पराम्-दिव्य; गतिम्- परम गति /गन्तव्य को।
निश्चय ही, वह जो सब स्थानों पर सभी जीवों में सम भाव से या समान रूप से स्थित परमेश्वर को देखता है वह आत्मा के द्वारा आत्मा का नाश नहीं करता है अर्थात वह स्वयं के द्वारा स्वयं का नाश नहीं करता और इससे वह परम गति को प्राप्त होता है ॥13.29॥
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथाऽऽत्मानमकर्तारं स पश्यति।।13.30।।
प्रकृत्या – प्राकृतिक शक्ति द्वारा; एव–वास्तव में; च-भी; कर्माणि-कर्म; क्रियमाणानि–निष्पादित किये गये; सर्वशः-सभी प्रकार से; यः-जो; पश्यति-देखता है; तथा—भी; आत्मानम् – देहधारी आत्मा को; अकर्तारम्-अकर्ता ; सः-वह; पश्यति-देखता है।
जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति द्वारा ही किए जाते हुए देखता है अर्थात जो इस प्रकार देखता है कि शरीर के समस्त कार्य प्राकृत शक्ति द्वारा सम्पन्न होते हैं और आत्मा को अकर्ता देखता है अर्थात यह देखता है कि देहधारी आत्मा वास्तव में कुछ नहीं करती और आत्मा या स्वयं को अकर्ता देखता है , वही वास्तव में यथार्थ देखता है॥13.30॥
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।।13.31।।
यदा-जब; भूत-जीव; पृथक् भावम् – विभिन्न जीवन रूप, विविध प्रकार के भाव ; एकस्थम्-एक स्थान पर; अनुपश्यति-देखता है; तत:-तत्पश्चात; एव-वास्तव में; च-और; विस्तारम्-जन्म से; ब्रह्म-ब्रह्म; सम्पद्यते-वे प्राप्त करते हैं; तदा-उस समय।
जिस क्षण यह पुरुष भूतों के पृथक-पृथक भाव को एक परमात्मा में ही स्थित तथा उस परमात्मा से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है॥13.31॥
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।।13.32।।
अनादित्वात्-आदि रहित; निर्गुणत्वात्-प्रकृति के गुणों से रहित; परम-सर्वोच्च; आत्मा-आत्मा; अयम्-यह; अव्ययः-अविनाशी; शरीर-स्थ:-शरीर में वास करने वाला; अपि – यद्यपि; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; न करोति-कुछ नहीं करता; न लिप्यते-न ही दूषित होता है।
हे कौन्तेय ! अनादि होने से और निर्गुण ( प्रकृति के गुणों से रहित ) होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होने पर भी वास्तव में न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है अर्थात वह न (कर्म) करता है और न (फलों से) लिप्त होता है ॥13.32॥
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथाऽऽत्मा नोपलिप्यते।।13.33।।
यथा-जैसे; सर्वगतम्-सर्वव्यापक; सौक्ष्म्यात्-सूक्ष्म होने के कारण; आकाशम्-अंतरिक्ष; न–नहीं; उपलिप्यते- लिप्त होता है/ दूषित होता है; सर्वत्र-सभी स्थानों पर; अवस्थितः-स्थित; देहे-शरीर में; तथा – उसी प्रकार; आत्म-आत्मा ; न – कभी नहीं; उपलिप्यते- लिप्त होता है/ दूषित होता है।
जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सर्वत्र स्थित आत्मा किसी भी देह में लिप्त नहीं होता अर्थात जिस प्रकार अंतरिक्ष सबको अपने में धारण कर लेता है लेकिन सूक्ष्म होने के कारण जिसे यह धारण किए रहता है उसमें लिप्त नहीं होता। इसी प्रकार से यद्यपि आत्मा चेतना के रूप में पूरे शरीर में व्याप्त रहती है फिर भी आत्मा शरीर के धर्म से प्रभावित नहीं होती या देह में सर्वत्र स्थित आत्मा निर्गुण होने के कारण देह के गुणों से लिप्त नहीं होता॥13.33॥
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत।।13.34।।
यथा-जैसे; प्रकाशयति-आलोकित करता है; एकः-एक; कृत्स्नम्-समस्त; लोकम् – ब्रह्माण्ड प्रणालियाँ; इमम्-इस; रविः-सूर्य ; क्षेत्रम्-शरीर; क्षेत्री-आत्मा; तथा – उसी तरह; कृत्स्नम्-समस्त; प्रकाशयति-आलोकित करता है; भारत-भरतपुत्र, अर्जुन।
हे भारत ! जैसे एक ही सूर्य अपने प्रकाश से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, ऐसे ही एक ही क्षेत्री अर्थात आत्मा अपनी चेतना शक्ति से सम्पूर्ण क्षेत्र अर्थात सम्पूर्ण शरीर को प्रकाशित करता है॥13.34॥
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्।।13.35।।
क्षेत्र-शरीर; क्षेत्रज्ञयोः-शरीर के ज्ञाता; एवम्-इस प्रकार; अन्तरम्-अन्तर को; ज्ञानचक्षुषा-ज्ञान की दृष्टि से; भूत-जीवित प्राणी; प्रकृति-प्राकृतिक शक्ति; मोक्षम्-मोक्ष को, प्राकृत शक्ति से मुक्ति; च-और; ये-जो; विदुः-जानते हैं; यान्ति–प्राप्त होते हैं; ते–वे; परम-परम लक्ष्य।
इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा कार्य सहित प्रकृति से मुक्त होने को जो पुरुष ज्ञान नेत्रों द्वारा तत्व से जानते हैं, वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं अर्थात जो लोग ज्ञान चक्षुओं के द्वारा शरीर और शरीर के ज्ञाता के बीच के अन्तर और प्राकृतिक शक्ति के बन्धनों से मुक्त होने की विधि जान लेते हैं, वे परम लक्ष्य अर्थात परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं।॥13.35॥
(क्षेत्र को जड़, विकारी, क्षणिक और नाशवान तथा क्षेत्रज्ञ को नित्य, चेतन, अविकारी और अविनाशी जानना ही ‘उनके भेद को जानना’ है)
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥13॥
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