Avdhoot upanishad with hindi meaning

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Avdhoot upanishad with hindi meaning

 

 

 

अथ ह सांकृतिर्भगवन्तमवधूतं दत्तात्रेयं परिसमेत्य पप्रच्छ।

भगवन्कोऽवधूतस्तस्य का स्थितिः किं लक्ष्म किं संसरणमिति।

तं होवाच भगवो दत्तात्रेयः परमकारुणिकः ॥

अक्षरत्वाद्वरेण्यत्वाद्धूतसंसारबन्धनात्।

तत्त्वमस्यादिलक्ष्यत्वावधूत इतीर्यते ॥

 

सांकृति ने भगवान् दत्तात्रेयजी के समीप जाकर पूछा – ‘हे भगवन्! अवधूत कौन है? उसकी स्थिति किस तरह की होती है? उसका लक्षण किस प्रकार का होता है? तथा उसका संसार (सांसारिक व्यवहार) किस प्रकार का होता है?’

उनके इन प्रश्नों को सुनकर परम कृपालु भगवान् दत्तात्रेयजी ने कहा– जो अक्षर अर्थात् अविनाशी (भावयुक्त) हो, वरण करने योग्य हो, संसार रूपी बन्धनों से रहित हो तथा ‘तत्त्वमसि’ आदि वाक्यों के लक्ष्यार्थ बोध से युक्त हो, उसे ही अवधूत (अक्षर का ‘अ’, वरेण्य का ‘व’, धूतसंसारबन्धन का ‘धू’ तथा तत्त्वमस्यादि लक्ष्य का ‘त’ लेने से ‘अवधूत’) कहा जाता है ॥

 

यो विलङ्घयाश्रमान्वर्णानात्मन्येव स्थितः सदा।

अतिवर्णाश्रमी योगी अवधूतः स कथ्यते ॥

 

जो योगी पुरुष आश्रम एवं वर्ण व्यवस्था से ऊपर उठकर आत्मा में ही सदैव स्थित रहता हो, वह वर्णाश्रम रहित योगी पुरुष ‘ अवधूत’ कहा जाता है॥

 

तस्य प्रियं शिरः कृत्वा मोदो दक्षिणपक्षकः ।

प्रमोद उत्तरः पक्ष आनन्दो गोष्पदायते ॥

 

उस (योगी) का प्रिय (ब्रह्म) ही सिर है, ‘मोद’ दायाँ बाजू और ‘प्रमोद’ बायाँ बाजू है तथा ‘आनन्द’ मध्य आत्मा है। उसकी (आत्मा की) स्थिति गाय के पैर के सदृश (चार-प्रिय, मोद, प्रमोद एवं आनन्द रूप) हो जाती है ॥ [यही प्रकरण तैत्तिरीयोपनिषद् (२.५) में भी आया है।]

 

गोवालसदृशं शीर्षे नापि मध्ये न चाप्यधः।

ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठेति पुच्छाकारेण कारयेत् ।

एवं चतुष्पदं कृत्वा ते यान्ति परमां गतिम्॥

 

उस सिर (हर्ष) में, अधः (मोद-प्रमोद) में तथा मध्य (आनन्द) में आत्मबुद्धि नहीं करनी चाहिए (आत्मा नहीं मानना चाहिए, तो किसे मानना चाहिए ? इस पर कहते हैं कि) गोवाल (गौ की पूँछ) सदृश उस ब्रह्म की पुच्छ प्रतिष्ठा है, उस ब्रह्म को इसी पुच्छाकार में जानना चाहिए। इस प्रकार ब्रह्म को भली-प्रकार जानकर वे (योगीपुरुष) परमगति को प्राप्त करते हैं ॥

 

न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः ॥

 

अमरत्व की प्राप्ति न तो विभिन्न कर्मों के द्वारा, न प्रजा के द्वारा और न ही धन के द्वारा होती है। एक मात्र त्याग के द्वारा ही अमरत्व को प्राप्त किया जा सकता है॥

 

स्वैरं स्वैरविहरणं तसंसरणम्।

साम्बरा वा दिगम्बरा वा ।

न तेषां धर्माधर्मौ न मेध्यामेध्यौ।

सदा सांग्रहण्येष्ट्याश्वमेधमन्तर्यागं यजते ।

स महामखो महायोगः ॥

 

अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करना हो उन योगियों का संसार है। उनमें से कितने ही तो वस्त्रों को धारण करते हैं और कितने ही दिगम्बर अर्थात् बिना वस्त्रों के ही रहते हैं। उन योगियों के लिए न कुछ धर्म है और न ही कुछ अधर्म है, पवित्र एवं अपवित्र आदि भी कुछ नहीं है। (इन्द्रियों को वश में करने के रूप में) सदा संग्रह की दृष्टि से वे (योगीजन) अन्त:करण में (आत्मा का ध्यान रूप) अश्वमेध यज्ञ किया करते हैं। यही उनका महायज्ञ और महायोग है॥

[अन्तः स्थित परमात्म चेतना में बहिर्मुखी व्यक्त शक्ति धाराओं को समर्पित कर देना-विसर्जित कर देना ही। आन्तरिक अश्वमेध कहा गया है। इसे ही महायज्ञ या महायोग भी कहा गया है।]

 

कृत्स्नमेतच्चित्रं कर्म ।

स्वैरं न विगायेत्तन्महाव्रतम्।

न स मूढवल्लिप्यते ॥

 

इस प्रकार उन योगियों का सम्पूर्ण चरित्र आश्चर्य युक्त होता है। उनके इस प्रकार के चित्र विचित्र कर्मों की निन्दा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यही उनका महाव्रत है। वे अज्ञानी मनुष्यों की भाँति (पाप-पुण्यादि में) लिप्त नहीं होते। वे सदैव निर्लिप्त भाव से इच्छानुसार विचरण करते रहते हैं ॥

 

यथा रविः सर्वरसान्प्रभुङ्क्ते हुताशनश्चापि हि सर्वभक्षः।

तथैव योगी विषयान्प्रभुङ्क्ते न लिप्यते पुण्यपापैश्च शुद्धः ॥

 

जिस प्रकार सूर्य सभी प्रकार के रसों को ग्रहण करता है तथा अग्नि सभी कुछ भक्षण कर लेता है, उसी प्रकार योगी पुरुष विषयादि भोगों का उपभोग करता हुआ भी शुद्ध होने के कारण पाप-पुण्यादि का भागीदार नहीं बनता ॥

 

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥

 

जिस प्रकार चारों ओर से परिपूर्ण होने पर भी अचल प्रतिष्ठा (स्थिति) वाले समुद्र में जल प्रविष्ट होता । है, वैसे ही योगी पुरुष सभी विषय-भोगों के रहने पर भी अचल रहता है और शान्ति को प्राप्त करता है। विषय-भोगों की इच्छा करने वाला कामना युक्त मनुष्य वैसी शान्ति नहीं प्राप्त करता ॥

 

न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः ।

न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता ॥

 

अतः सत्य बात तो यह है कि किसी का (निरोध) लय नहीं है, किसी की उत्पत्ति नहीं है, कोई आबद्ध (बँधा) हुआ नहीं है, कोई साधक नहीं है, कोई (मुमुक्षु) अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करने वाला नहीं है तथा कोई मुक्त भी नहीं है, यही वास्तविक स्थिति है॥

 

ऐहिकामुष्मिकव्रातसिद्ध्यै मुक्तेश्च सिद्धये।

बहुकृत्यं पुरा स्यान्मे तत्सर्वमधुना कृतम्॥

तदेव कृतकृत्यत्वं प्रतियोगिपुर:सरम्।

दुःखिनोऽज्ञाः संसरन्तु कामं पुत्राद्यपेक्षया ॥

परमानन्दपूर्णोऽहं संसरामि किमिच्छया।

अनुतिष्ठन्तु कर्माणि परलोकयियासवः ॥

सर्वलोकात्मकः कस्मादनुतिष्ठामि किं कथम्।

व्याचक्षतां ते शास्त्राणि वेदानध्यापयन्तु वा ॥

येऽत्राधिकारिणो मे तु नाधिकारोऽक्रियत्वतः

निद्राभिक्षे स्नानशौचे नेच्छामि न करोमि च॥

द्रष्टारश्चेत्कल्पयन्तु किं मे स्यादन्यकल्पनात्।

गुञ्जापुञ्जादि दह्येत नान्यारोपितवह्निना।।

नान्यारोपितसंसार धर्मानेवमहं भजे ॥

 

इस लोक एवं परलोक के कृत्यों की सिद्धि के लिए, वैसे ही मुक्ति की सिद्धि के लिए सर्वप्रथम मुझे बहुत कुछ करना अत्यन्त आवश्यक था; परन्तु अब यह सभी कुछ हो चुका है। इस तरह से हर एक योग का मुख्यरूप से अनुसंधान करता हुआ वह अवधूत इसी में कृतकृत्य होता हुआ सदैव तृप्त होता रहता है। (इसके पक्षात् वह ध्यान करता हुआ कहता है-) अज्ञानीजन पुत्रादि की इच्छा से अत्यन्त दुःखी होकर संसार के आवागमन में फँसते रहें ; किन्तु मैं तो परम आनन्द से परिपूर्ण हूँ, तब फिर कौन सी इच्छा के कारण इस संसार में पुनः फँसूँ ? जिन्हें परलोक गमन की इच्छा हो, वे लोग चाहे उस इच्छा से भले ही कर्म किया करें; परन्तु मैं समस्त लोकों का आत्मा हूँ, सर्वलोकमय बन गया हूँ, तो फिर मैं कोई भी कर्म क्यों करूँ ? जिन लोगों को इस बात का अधिकार हो, वे भले ही प्रवचन किया करें, चाहे वेदों को पढ़ाते रहें, किन्तु मुझे तो इसका अधिकार ही नहीं; क्योंकि मैं तो निष्क्रिय (क्रिया रहित) हूँ। मैं निद्रा की, भिक्षा की, स्नान अथवा शौच आदि की तनिक भी इच्छा नहीं करता। जो लोग द्रष्टा स्तर के हों, वे भले ही अन्य कोई कल्पना करें; परन्तु मुझे किसी अन्य की कल्पना करने से कोई लाभ नहीं। अन्य लोग गुञ्जा (चिरमिरी) की लालिमा के कारण उसमें भले ही अग्नि को प्रतिष्ठित करें, किन्तु इस अग्नि से गुञ्जा का ढेर नहीं जलता है। तब फिर मेरे अन्दर तो संसार के धर्म आरोपित ही नहीं, है इस कारण मैं किसी का भी भजन नहीं करता ॥

 

शृण्वन्त्वज्ञाततत्त्वास्ते जानन्कस्माच्छृणोम्यहम्।

मन्यन्तां संशयापन्ना न मन्येऽहमसंशयः॥

 

जो लोग तत्त्व को न जानते हों, वे भले ही कुछ भी श्रवण करें: किन्तु मैं (अवधूत) तो स्वयं ही तत्त्व को जानने में समर्थ हूँ। फिर किस लिए श्रवण करूँ? जो लोग संशय में पड़े हों, वे मनन करें। मुझे तो किसी भी तरह का संशय ही नहीं है, इस कारण से मैं (अवधूत) मनन नहीं करता ॥

 

विपर्यस्तो निदिध्यासे किं ध्यानमविपर्यये।

देहात्मत्वविपर्यास न कदाचिद्भजाम्यहम्॥19

 

जिसको विपर्यास अर्थात् विपरीत ज्ञान हुआ हो, वह भले ही निदिध्यासन करे; परन्तु जहाँ पर विपर्यास ही नहीं, वहाँ पर ध्यान की आवश्यकता नहीं होती। शरीर को आत्मा मान लेने का विपर्यास मुझ (अवधूत) को नहीं होता। इस कारण निदिध्यासन को आवश्यकता ही नहीं पड़ती ॥

 

अहं मनुष्य इत्यादिव्यवहारो विनाप्यमुम्।

विपर्यासं चिराभ्यस्तवासनातोऽवकल्पते ॥

 

मैं मनुष्य हूँ, इस तरह का व्यवहार भी बिना विपर्यास (विपरीत ज्ञान) के नहीं होता। यह विपर्यास भी दीर्घकाल से अभ्यास में पड़ी वासना के कारण ही होता है॥

 

आरब्धकर्मणि क्षीणे व्यवहारो निवर्तते ।

कर्मक्षये त्वसौ नैव शाम्येयानसहस्त्रतः ॥

 

प्रारब्ध कर्मों के विनष्ट होने पर ही यह व्यवहार निवर्तित (बन्द) होता है; किन्तु प्रारब्ध कर्मों का नाश न हुआ हो, तब तक सहस्त्रों बार चिन्तन करने के बाद भी यह व्यवहार शान्त नहीं होता ॥

 

विरलत्वं व्यवहृतेरिष्टं चेद्ध्यानमस्तु ते।

बाधिकर्मव्यवहृतिं पश्यन्ध्यायाम्यहं कुतः ॥

 

यदि व्यवहार कर्म करने की इच्छा हो, तो तुम अपनी इच्छानुसार ध्यान करो; परन्तु मेरी दृष्टि में तो कर्मों का कोई व्यवहार ही नहीं, तो मैं किसलिए ध्यान करूँ ॥

 

विक्षेपो नास्ति यस्मान्मे न समाधिस्ततो मम।

विक्षेपो वा समाधिर्वा मनसः स्याद्विकारिणः ॥

 

मुझे विक्षेप अर्थात् चित्त की अस्थिरता होती ही नहीं, इस कारण से मुझे समाधि-अवस्था की जरूरत ही नहीं पड़ती। जब यह मन विकारग्रस्त होता है, तब चित्त अस्थिर होता है और तभी समाधि की आवश्यकता होती है। मैं तो नित्य ही अनुभव रूप हूँ। समाधि में मुझे और क्या कुछ भिन्न अनुभव हो सकता है ? ॥

 

नित्यानुभवरूपस्य को मेऽत्रानुभवः पृथक्

कृतं कृत्यं प्रापणीयं प्राप्तमित्येव नित्यशः ॥

व्यवहारो लौकिको वा शास्त्रीयो वाऽन्यथापि वा।

ममाकर्तुरलेपस्य यथारखधं प्रवर्तताम्॥

 

मुझे जो-जो करना है, वह-वह मैंने किया तथा जो कुछ भी प्राप्त करना है, वह सदा ही प्राप्त करता रहा। इस कारण लौकिक, शास्त्रीय या फिर अन्य किसी भी तरह का व्यवहार मुझे क्यों करना चाहिए? अतः मैं नहीं करता हूँ। मुझे किसी भी बात की लिप्तता नहीं है। सहज प्राकृतिक ढंग से जो होता है, उसी में रत रहता हूँ॥

 

अथवा कृतकृत्योऽपि लोकानुग्रहकाम्यया।

शास्त्रीयेणैव मार्गेण वर्तेऽहं मम का क्षतिः ॥26

 

अथवा मैं कृत-कृत्य (पूर्णकाम) हूँ, तब भी साधारण लोगों पर अनुग्रह करने की इच्छा से यदि शास्त्रज्ञानुसार मैं चलती हूँ, तो इसमें मेरी क्या हानि है ? ॥

 

देवार्चनस्नानशौचभिक्षादौ वर्ततां वपुः ।

तारं जपतु वाक्तद्वत्पठत्वाम्नायमस्तकम्॥27

 

देवताओं की स्तुति-अर्चना, स्नान, शौच, शिक्षा आदि में शरीर भले ही लगा रहे । वाणी ॐकार रूपी प्रणव को भले ही जपती रहे, उपनिषदों का पाठ भले ही होता रहे, बुद्धि सदैव भगवान् विष्णु का चिन्तन भले ही करती रहे या फिर भले ही (वह) ब्रह्मलीन रहे; किन्तु मैं तो केवल साक्षी रूप हूँ। मैं (अवधूत) इनमें से किसी भी काम को कभी भी नहीं करता हूँ और न करवाता ही हूँ॥

 

विष्णुं ध्यायतु धीर्यद्वा ब्रह्मानन्दे विलीयताम्।

साक्ष्यहं किंचिदप्यत्र न कुर्वे नापि कारये ॥28

 

देवताओं की स्तुति-अर्चना, स्नान, शौच, शिक्षा आदि में शरीर भले ही लगा रहे । वाणी ॐकार रूपी प्रणव को भले ही जपती रहे, उपनिषदों का पाठ भले ही होता रहे, बुद्धि सदैव भगवान् विष्णु का चिन्तन भले ही करती रहे या फिर भले ही (वह) ब्रह्मलीन रहे; किन्तु मैं तो केवल साक्षी रूप हूँ। मैं (अवधूत) इनमें से किसी भी काम को कभी भी नहीं करता हूँ और न करवाता ही हूँ॥

 

कृतकृत्यतया तृप्तः प्राप्तप्राप्यतया पुनः ।

तृप्यन्नेवं स्वमनसा मन्यतेऽसौ निरन्तरम्॥

 

मैं (अवधूत) कृतकृत्य होने से पूर्ण तृप्त हूँ तथा जो कुछ भी मुझे प्राप्त करना था, वह सभी कुछ प्राप्त कर लिया है। इस प्रकार से इस तृप्ति को ही मैं निरन्तर अपने मन में मानता रहता हूँ॥

 

धन्योऽहं धन्योऽहं नित्यं स्वात्मानमञ्जसा वेद्मि।।

धन्योऽहं धन्योऽहं ब्रह्मानन्दो विभाति मे स्पष्टम्॥30

 

मैं धन्य हूँ-धन्य हूँ; क्योंकि मैं नित्य, अविनाशी अपने आत्म-तत्त्व को सहज रूप से ही जानता हूँ। मैं धन्य हूँ- मैं धन्य हूँ; क्योंकि मुझे ब्रह्म का आनन्द स्पष्टतया प्रकाश प्रदान करता है ॥

 

धन्योऽहं धन्योऽहं दुःखं सांसारिकं न वीक्षेऽद्य।

धन्योऽहं धन्योऽहं स्वस्याज्ञानं पलायितं क्वापि॥31

धन्योऽहं धन्योऽहं कर्तव्यं मे न विद्यते किंचित्।

धन्योऽहं धन्योऽहं प्राप्तव्यं सर्वमत्र संपन्नम्॥32

धन्योऽहं धन्योऽहं तृप्तेर्मे कोपमा भवेल्लोके।

धन्योऽहं धन्योऽहं धन्यो धन्यः पुनः पुनर्धन्यः ॥33

अहो पुण्यमहो पुण्यं फलितं फलितं दृढम्।

अस्य पुण्यस्य संपत्तेरहो वयमहो वयम्॥34

अहो ज्ञानमहो ज्ञानमहो सुखमहो सुखम्।

अहो शास्त्रमहो शास्त्रमहो गुरुहो गुरुः ॥35

 

मैं धन्य हूँ- मैं धन्य हूँ, क्योंकि मैं अब इस नाशवान् संसार का दुःख बिलकुल भी नहीं देखता। मैं धन्य हूँ- मैं धन्य हूँ; क्योंकि मेरा अज्ञान कभी का (अर्थात् बहुत पहले ही) विनष्ट हो गया है। मैं धन्य हूँ- मैं धन्य हूँ; क्योंकि मुझे अब कुछ भी करना शेष नहीं है। मैं धन्य हूँ-मैं धन्य हूँ; क्योंकि मुझे जो कुछ भी प्राप्त करना है, वह सभी कुछ मैंने यहीं पर पहले ही प्राप्त कर लिया है। मैं धन्य हूँ- मैं धन्य हूँ; क्योंकि मेरी तृपति की क्या इस लोक में कोई उपमा है ( अर्थात् कोई नहीं है)। मैं धन्य हूँ- मैं धन्य हूँ; मैं बारम्बार धन्य हूँ- धन्य हूँ। अहो पुण्य ! अहो पुण्य ।। स पुण्य की सफलता दृढतापूर्वक फलीभूत हुई है। धन्य हैं हम सब। अहो ज्ञान!! अहो सुख! अहो सुख!! अहो शास्त्र! अहो शास्त्र!! अहो गुरु! अहो गिरू!! (वास्तव में सफल होने के कारण सब धन्यवाद के पात्र हैं) ॥

 

इति य इदमधीते सोऽपि कृतकृत्यो भवति।

सुरापानात्पूतो भवति। स्वर्णस्तेयात्पूतो भवति।

ब्रह्महत्यात्पूतो भवति। कृत्याकृत्यात्पूतो भवति।

एवं विदित्वा स्वेच्छाचारपरो भूयादोंसत्यमित्युपनिषत् ॥36

 

इस प्रकार जो भी मनुष्य इस उपनिषद् का पाठ करता है, वह कृत-कृत्य हो जाता है। मदिरापान करने वाला, सुवर्ण की चोरी करने वाला, ब्रह्महत्या करने वाला, कृत्याकृत्य (अर्थात् कार्य-अकार्य) करने वाला भी इसका (भावनापूर्वक) पाठ करने से पवित्र (श्रेष्ठ प्रकृतियों वाला) हो जाता है। मनुष्य इसका पाठ करने मात्र से पवित्र हो जाता है। मनुष्य इस तरह का ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त अपनी इच्छानुसार (आत्म प्रेरणा से ही श्रेष्ठता-पवित्रता की दिशा में) प्रवृत्त हो जाता है। ॐ (ब्रह्म) ही सत्य है, यही उपनिषद् है॥

 

 

 

 

 

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