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|| विष्णु सूक्त ||
विष्णुसूक्तम् ऋग्वेदः – १.१५४
इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्।
समूढमस्य पाशसुरे स्वाहा ॥ १ ॥
सर्वव्यापी भगवान् श्री हरि विष्णु ने इस जगत को धारण किया हुआ है और वे ही पहले भूमि, दूसरे अन्तरिक्ष और तीसरे धुलोक में तीन पदों को स्थापित करते हैं अर्थात् सर्वत्र व्याप्त हैं। इन विष्णु देव में ही समस्त विश्व व्याप्त है। हम उनके निमित्त हवि प्रदान करते हैं॥ १ ॥
इरावती धेनुमती हि भूत
सूयवसिनी मनवे दशस्या।
व्यस्कनारोदसीविष्णवेतेदाधर्थ
पृथिवीमभितोमयूखैः स्वाहा॥ २ ॥
यह पृथ्वी सबके कल्याणार्थ अन्न और गाय से युक्त, खाद्य-पदार्थ देने वाली तथा हित के साधनों को देने वाली है। हे विष्णुदेव! आपने इस पृथ्वी को अपनी किरणों के द्वारा सब ओर अच्छी प्रकार से धारण कर रखा है। हम आपके लिये आहुति प्रदान करते हैं ॥ २ ॥
देवश्रुतौ देवेष्वा घोषतं प्राची प्रेतमध्वरं
कल्पयन्ती ऊर्ध्वं यज्ञं नयतं मा जिह्वरतम् ।
स्वं गोष्ठमा वदतं देवी दुर्ये आयुर्मा निर्वादिष्टं प्रजां मा
निर्वादिष्टमत्र रमेथां वर्ष्मन् पृथिव्याः ॥ ३ ॥
आप देवसभा में प्रसिद्ध विद्वानों में यह कहें :- इस यज्ञ के समर्थन में पूर्व दिशा में जाकर यज्ञ को उच्च बनायें, अध:पतित न करें। देवस्थान में रहने वाले अपनी गोशाला में निवास करें। जब तक आयु है, तब तक धनादि से सम्पन्न बनायें। संततियों पर अनुग्रह करें। इस सुखप्रद स्थान में आप सदैव निवास करें ॥ ३ ॥
विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्र वोचं
यः पार्थिवानि विममे रजाःसि।
योअस्कभायदुत्तर सधस्थं
विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायो विष्णवे त्वा॥ ४ ॥
जिन सर्वव्यापी भगवान् श्री हरि विष्णु ने अपने सामर्थ्य से इस पृथ्वी सहित अन्तरिक्ष, द्युलोकादि स्थानों का निर्माण किया है तथा जो तीनों लोकों में अपने पराक्रम से प्रशंसित होकर उच्चतम स्थान को शोभायमान करते हैं, उन सर्वव्यापी परमात्मा के किन-किन यशों का वर्णन करें ॥ ४ ॥
दिवो वा विष्ण उत वा पृथिव्या
महो वा विष्ण उरोरन्तरिक्षात् ।
उभा हि हस्ता वसुना पृणस्वा
प्रयच्छ दक्षिणादोत सव्याद्विष्णवे त्वा ॥ ५ ॥
हे विष्णु! आप अपने अनुग्रह से समस्त जगत को सुखों से पूर्ण कीजिये और भूमि से उत्पन्न पदार्थ और अन्तरिक्ष से प्राप्त द्रव्यों से सभी सुख निश्चय ही प्रदान करें। हे सर्वान्तर्यामी प्रभु! दोनों हाथों से समस्त सुखों को प्रदान करनेवाले विष्णु! हम आपको सुपूजित करते हैं ॥ ५ ॥
प्र तद्विष्णुः स्तवते वीर्येण मृगो
न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः।
यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्व
धिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ॥ ६ ॥
भयंकर सिंह के समान पर्वतों में विचरण करने वाले सर्वव्यापी देव विष्णु! आप अतुलित पराक्रम के कारण स्तुति-योग्य हैं। सर्वव्यापक विष्णु देव के तीनों स्थानों में सम्पूर्ण प्राणी निवास करते हैं ॥ ६ ॥
विष्णो रराटमसि विष्णोःश्नप्ने स्थो
विष्णोः स्यूनसि विष्णोर्ध्रुवोऽसि ।
वैष्णवमसि विष्णवे त्वा ॥ ७ ॥
इस विश्व में व्यापक देव विष्णु का प्रकाश निरन्तर फैल रहा है। विष्णु के द्वारा ही यह विश्व स्थिर है तथा इनसे ही इस जगत् का विस्तार हुआ है और कण-कण में ये ही प्रभु व्याप्त हैं। जगत की उत्पत्ति करने वाले हे प्रभु! हम आपकी अर्चना करते हैं ॥ ७ ॥
विष्णु सूक्त समाप्त॥
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