Shrimad Bhagwad Gita Chapter 8

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Apr 22, 2022 #Akshar Brahm Yog, #Akṣhar Brahma Yog Bhagwat Geeta Chapter 8, #Bhagavad Gita - The Song of God, #Bhagavad Gita Chapter 8 " Akṣhar Brahma Yog ", #Bhagavad Gita in Hindi, #Bhagvad Gita Chapter 8, #Chapter – 8 - The Gita – Shree Krishna Bhagwad Geeta, #Chapter 08 - Bhagavad-Gita, #Chapter 8 : Akṣhar Brahma Yog  - Holy Bhagavad Gita, #Chapter 8: Akṣhar Brahma Yog - Bhagavad Gita, #Conversation between Arjun And Krishna, #Essence of Akṣhar Brahma Yog Bhagavadgita Chapter-8, #Shrimad Bhagavad Geeta Chapter 8, #Shrimad Bhagwad Gita Chapter 8, #Srimad Bhagwat Geeta in Hindi, #Summary of chapter 08- Akṣhar Brahma Yog ~ अध्याय आठ - अक्षर ब्रह्म योग, #The Bhagavad Gita - An Epic Poem, #The Bhagavad Gita by Krishna, #The Bhagavad Gita by Krishna Dwaipayana Vyasa, #अक्षर ब्रह्म योग, #गीता हिंदी अर्थ सहित, #भगवद गीता, #भगवद गीता अध्याय 8|, #भगवद गीता हिंदी अर्थ सहित, #भगवद गीता हिंदी भावार्थ सहित, #भगवद गीता हिंदी में, #श्रीमद भगवद गीता, #श्रीमद भगवद गीता अध्याय आठ  - अक्षर ब्रह्म योग, #श्रीमद्भगवद्गीता, #श्रीमद्भगवद्गीता हिंदी अर्थ सहित, #सम्पूर्ण श्रीमद भागवत गीता
Shrimad Bhagawad Gita Chapter 8

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Shrimad Bhagawad Gita Chapter 8

 

 

अक्षरब्रह्मयोग-  आठवाँ अध्याय

01-07ब्रह्म, अध्यात्म औरकर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर

08-22 भगवानका परम धाम और भक्ति के सोलह प्रकार

23-28 शुक्लऔर कृष्ण मार्ग का वर्णन

 

01-07 ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर

 

अर्जुन उवाच

किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं पुरुषोत्तम ।

अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते৷৷8.1৷৷

 

अर्जुनः उवाच-अर्जुन ने कहा; किम्-क्या; तत्-वह; ब्रह्म-ब्रह्म; किम्-क्या; अध्यात्मम्- आत्मा / जीवात्मा; किम्-क्या; कर्म-कर्म के नियम; पुरूष-उत्तम-परम दिव्य स्वरूप, श्रीकृष्ण; अधिभूतम्– भौतिक अभिव्यक्तियाँ/ भौतिक जगत ; च-और; किम्-क्याः प्रोक्तम्-कहलाता है; अधिदैवम् – स्वर्ग के देवता; किम्-क्या; उच्यते-कहलाता है।

 

अर्जुन ने कहा- हे पुरुषोत्तम!

*वह ब्रह्म क्या है?

*अध्यात्म या आत्मा क्या है?

*कर्म क्या है?

*अधिभूत या भौतिक जगत नाम से क्या कहा गया है

*अधिदैव या देवता किसको कहते हैं॥8.1॥

 

(परम सत्य ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् के नाम से जाना जाता है | साथ ही जीवात्मा या जीव को ब्रह्म भी कहते हैं | अर्जुन यहाँ ब्रह्म के बारे में , अध्यात्म या आत्मा ( अध्यात्म अर्थात आत्मा का अध्ययन )  के विषय में , सकाम कर्मों के विषय में में पूछ रहा है । अधिभूत अर्थात भौतिक अभिव्यक्तियाँ क्या हैं ? और अधिदैव अर्थात स्वर्ग के देवता कौन है ?)

 

अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।

प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ॥8.2৷৷

 

अधियज्ञः-यज्ञ के कर्मकाण्डों के स्वामी; कथम् – किस प्रकार से; क:-कौन; अत्र-यहाँ; देहे-शरीर में; अस्मिन्-इस; मधुसूदन-मधु नाम के असुर का दमन करने वाले, श्रीकृष्णः ; प्रयाणकाले-मृत्यु के समय; च-तथा; कथम्-कैसे; ज्ञेयः-जानना; असि-सकनाः-नियत-जानना; आत्मभिः-दृढ़ मन वालो द्वारा।

 

अर्जुन ने पूछा – हे मधुसूदन!

यहाँ अधियज्ञ अर्थात यज्ञ का स्वामी कौन है? और वह इस शरीर में कैसे रहता है? तथा दृढ़ मन से आपकी भक्ति में लीन रहने वाले मनुष्य अंत समय में आप को किस प्रकार जान पाते हैं॥8.2॥

 

श्रीभगवान उवाच।

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।

भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसज्ञितः ॥8.3॥

 

श्रीभगवान् उवाच-आनन्दमयी भगवान ने कहा; अक्षरम्-अविनाशी ब्रह्म; ब्रह्म परमम्-सर्वोच्च; स्वभाव-प्रकृति; अध्यात्मम्-अपनी आत्मा; उच्यते-कहलाता है; भूतभावउद्भवकरः-जीवों की भौतिक संसार से संबंधित गतिविधियाँ और उनका विकास, विसर्गः-सृष्टि; कर्म-सकाम कर्म; सञ्जितः-कहलाता है।

 

परम कृपालु भगवान ने कहाः

*परम अक्षर अविनाशी सत्ता को ‘ ब्रह्म ‘ कहा जाता है।

*किसी मनुष्य की अपनी आत्मा अर्थात अपने स्वरूप ( जीवात्मा ) को  ‘अध्यात्म ‘ कहा जाता है।

* जीवों के भौतिक शरीर से सम्बंधित गतिविधि को कर्म या सकाम कर्म कहा जाता है या भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला अर्थात प्राणियों के उद्भव या उनकी सत्ता को प्रकट करनेवाला जो विसर्ग अर्थात यज्ञ रुपी त्याग है, वह ‘कर्म’ नाम से कहा गया है॥8.3॥

 

( प्राणियों / जीवों / भूतों की सत्ता को उत्पन्न या प्रकट करने वाला ऐसा जो विसर्ग अर्थात् देवों के उद्देश्य से चरु पुरोडाश आदि ( हवन करने योग्य ) द्रव्यों का त्याग करना है वह त्याग रूप यज्ञ कर्म नाम से कहा जाता है इस बीज रूप यज्ञ से ही वृष्टि आदि के क्रम से स्थावरजङ्गम समस्त भूत प्राणी उत्पन्न होते हैं।)

[अविनाशी और दिव्य जीव ब्रह्म कहलाता है और उसका नित्य स्वभाव अध्यात्म या आत्म कहलाता है । जीवों के भौतिक शरीर से सम्बन्धित गतिविधि कर्म या सकाम कर्म कहलाती है । ब्रह्म अविनाशी तथा नित्य है और इसका विधान कभी भी नहीं बदलता । किन्तु ब्रह्म से परे परब्रह्म होता है । ब्रह्म का अर्थ है जीव और परब्रह्म का अर्थ भगवान् है । जीव का स्वरूप भौतिक जगत् में उसकी स्थिति से भिन्न होता है । भौतिक चेतना में उसका स्वभाव पदार्थ पर प्रभुत्व जताना है, किन्तु आध्यात्मिक चेतना में उसकी स्थिति परमेश्र्वर की सेवा करना है । जब जीव भौतिक चेतना में होता है तो उसे इस संसार में विभिन्न प्रकार के शरीर धारण करने पड़ते हैं । वैदिक साहित्य में जीव को जीवात्मा तथा ब्रह्म कहा जाता है, किन्तु उसे कभी परब्रह्म नहीं कहा जाता । जीवात्मा विभिन्न स्थितियाँ ग्रहण करता है – कभी वह अन्धकार पूर्ण भौतिक प्रकृति में मिल जाता है और पदार्थ को अपना स्वरूप मान लेता है तो कभी वह परा आध्यात्मिक प्रकृति के साथ मिल जाता है । इसीलिए वह परमेश्र्वर की तटस्था शक्ति कहलाता है । भौतिक या आध्यात्मिक प्रकृति के साथ अपनी पहचान के अनुसार ही उसे भौतिक या आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है । भौतिक प्रकृति में वह चौरासी लाख योनियों में से कोई भी शरीर धारण कर सकता है, किन्तु आध्यात्मिक प्रकृति में उसका एक ही शरीर होता है । भौतिक प्रकृति में वह अपने कर्म अनुसार कभी मनुष्य रूप में प्रकट होता है तो कभी देवता, पशु, पक्षी आदि के रूप में प्रकट होता है । स्वर्गलोक की प्राप्ति तथा वहाँ का सुख भोगने की इच्छा से वह कभी-कभी यज्ञ सम्पन्न करता है, किन्तु जब उसका पुण्य क्षीण हो जाता है तो वह पुनः मनुष्य रूप में पृथ्वी पर वापस आ जाता है । यह प्रक्रिया कर्म कहलाती है । यज्ञ प्रक्रिया में जीव अभीष्ट स्वर्गलोकों की प्राप्ति के लिए विशेष यज्ञ करता है और उन्हें प्राप्त करता है । जब यज्ञ का पुण्य क्षीण हो जाता है तो वह पृथ्वी पर वर्षा के रूप में उतरता है और अन्न का रूप ग्रहण करता है । इस अन्न को मनुष्य खाता है जिससे यह वीर्य में परिणत होता है जो स्त्री के गर्भ में जाकर फिर से मनुष्य का रूप धारण करता है । यह मनुष्य पुनः यज्ञ करता है और पुनः वही चक्र चलता है । इस प्रकार जीव शाश्र्वत रीति से आता और जाता रहता है । किन्तु भक्त ऐसे यज्ञों से दूर रहता है । वह सीधे भक्ति ग्रहण करता है और इस प्रकार ईश्र्वर के पास वापस जाने की तैयारी करता है ।]

 

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्‌ ।

अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥8.4৷৷

 

अधिभूतम्-भौतिक अभिव्यक्ति में नित्य परिवर्तन; क्षर:-नाशवान; भावः-प्रकृति; पुरुषः-भौतिक सृष्टि में व्याप्त भगवान का ब्रह्माण्डीय स्वरूप; च-तथा; अधिदैवतम्-स्वर्ग के देवता; अधियज्ञः-सभी यज्ञों के स्वामी; अहम् – मैं (कृष्ण); एव-निश्चय ही; अत्र-इस; देहे-शरीर में; देहभृताम्-देहधारियों में; वर-श्रेष्ठ।

 

हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्पत्ति-विनाश धर्म वाले सब पदार्थ ” अधिभूत ” हैं, हिरण्यमय पुरुष (जिसको शास्त्रों में सूत्रात्मा, हिरण्यगर्भ, प्रजापति, ब्रह्मा इत्यादि नामों से कहा गया है) ” अधिदैव ” है और इस शरीर में मैं वासुदेव ही अन्तर्यामी रूप से ” अधियज्ञ ” हूँ॥8.4॥

 

[*निरंतर परिवर्तनशील भौतिक प्रकृति या भौतिक अभिव्यक्ति को ‘अधिभूत’ कहते हैं अर्थात सभी उत्पत्तिशील और नाशवान पदार्थों को  अधिभूत कहते हैं । पंचमहाभूत आदि नश्वर वस्तुएं अधिभूत हैं । 

*पुरुष जिससे यह सब जगत् परिपूर्ण है अथवा जो शरीर रूप पुर में रहने वाला होने से पुरुष कहलाता है। वह सब प्राणियोंके इन्द्रियादि कारणों का अनुग्राहक सूर्य लोक में रहने वाला हिरण्यगर्भ ‘अधिदैव’ है। हिरण्यमय पुरुष (जिसको शास्त्रों में सूत्रात्मा, हिरण्यगर्भ, प्रजापति, ब्रह्मा इत्यादि नामों से कहा गया है) ही अधिदैव है । या भगवान का विश्व रूप या विराट रूप जो इस सृष्टि में सूर्य , चंद्र आदि समस्त देवताओं पर भी शासन करता है उसे अधिदैव कहते हैं।

*सभी प्राणियों या देहधारियों के हृदय में परमात्मा रूप में स्थित मैं ‘अधियज्ञ’ या सभी यज्ञों का स्वामी कहलाता हूँ। [यज्ञ ही विष्णु है इस श्रुति के अनुसार सब यज्ञों के अधिष्ठाता विष्णु हैं वह अधियज्ञ है।] हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन इस देह में जो यज्ञ है उसका अधिष्ठाता वह विष्णु रूप अधियज्ञ मैं ही हूँ। [यज्ञ शरीर से ही सिद्ध होता है । अतः यज्ञ का शरीर से नित्य सम्बन्ध है इसलिये वह शरीर में रहने वाला माना जाता है।]

 

अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्‌ ।

यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ৷৷8.5৷৷

 

अन्तकाले-मृत्यु के समय; च-और; माम्-मुझे; एवं-केवल; स्मरन्-स्मरण करते हुए; मुक्त्वा -त्यागना; कलेवरम्-शरीर को; यः-जो; प्रयाति–जाता है; सः-वह; मत् भावम्-मेरे (भगवान के) स्वभाव को; याति-प्राप्ति करता है; न-नहीं; अस्ति–है; अत्र-यहाँ; संशयः-सन्देह।

 

जो अंतकाल में शरीर त्यागते समय भी केवल मेरा ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे ही साक्षात स्वरूप को प्राप्त होता है – इसमें निश्चित रूप से कुछ भी संशय नहीं है॥8.5॥

 

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥8.6॥

 

यम् यम्-जिसका; वा-या; अपि-किसी भी; स्मरन्-स्मरण कर; भावम्-स्मरण; त्यजति-त्याग करना; अन्ते–अन्तकाल में; कलेवरम्-शरीर को; तम् तम्-उस उसको; एव–निश्चय ही; एति-प्राप्त करता है; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन,; सदा-सदैव; तत्-उस; भावभावितः-चिन्तन में लीन।

 

हे कुन्ती पुत्र अर्जुन! मनुष्य अंतकाल में शरीर छोड़ते हुए जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है अर्थात मृत्यु के समय मनुष्य जिसका भी स्मरण करता है उसकी ही गति को प्राप्त होता है क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहता है या उसी के चिंतन में लीन रहता हैं ॥8.6॥

( इसीलिए कहा जाता है अंतकाल में इस संसार की ओर से धयान हटा कर केवल भगवान का स्मरण करना चाहिए जिस से उनको प्राप्त किया जा सके। परन्तु जिसने जीवन भर भगवान का रूप , नाम , ध्यान , स्मरण नहीं किया अचानक अंत समय में वो ध्यान कैसे आ जाये। इसलिए बचपन से ही भगवान का ध्यान , नाम , जप , भक्ति , भजन , कीर्तन में लगे रहना चाहिए जिस से अंत समय में उन्हें याद करने में परेशानी न हो । क्योंकि अंत समय में वही ध्यान आता है जिसका हमने जीवन भर ध्यान किया । )

 

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च ।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌ ৷৷8.7৷৷

 

तस्मात् – इसलिए; सर्वेषु-सब में; कालेषु-कालों में; माम्-मुझको; अनुस्मर-स्मरण करना; युध्य – युद्ध करना; च-भी; मयि–मुझमें; अर्पित-समर्पित; मनः-मन, बुद्धि:-बुद्धि; माम्-मुझको; एव-निश्चय ही; एष्यसि–प्राप्त करोगे; असंशयः-सन्देह रहित।

 

इसलिए हे अर्जुन ! तुम सदा मेरा स्मरण करो और युद्ध करने के अपने कर्त्तव्य का भी पालन करो। अपना मन और बुद्धि मुझे समर्पित करो। तब तुम निश्चित रूप से मुझे पा लोगे, इसमें कोई संदेह नहीं है॥8.7॥

 

भगवान का परम धाम और भक्ति के सोलह प्रकार

 

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्‌ ॥8.8৷৷

 

अभ्यासयोग–योग के अभ्यास द्वारा; युक्तेन-निरन्तर स्मरण में लीन रहना; चेतसा-मन द्वारा; न अन्यगामिना-बिना विचलित हुए; परमम-परम; पुरुषम्-पुरुषोत्तम भगवान; दिव्यम् – दिव्य; याति – प्राप्त करता है; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; अनुचिन्तयन्–निरन्तर स्मरण करना।

 

हे पार्थ! अभ्यास के साथ जब मनुष्य बिना विचलित हुए मन को केवल मुझ पुरुषोत्तम भगवान के स्मरण में ही लीन करते हैं अर्थात अभ्यास योगसे युक्त और किसी अन्य का चिन्तन न करने वाले चित्त से केवल और केवल मुझ परम दिव्य पुरुष का चिन्तन करते हुए  (शरीर छोड़ने वाले मनुष्य) निश्चित रूप से परम प्रकाश रूप मुझ परमेश्वर को पा लेंगे॥8.8॥

 

कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।

सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌ ৷৷8.9৷৷

 

कविम्-कवि, सर्वज्ञ ; पुराणम्-प्राचीन ; अनुशासितारम्-नियन्ता; अणो:-अणु से; अणीयांसम्-लघुतर; अनुस्मरेत्-सदैव सोचता है; यः-जो; सर्वस्य–सब कुछ; धातारम्-पालक; अचिन्त्य-अकल्पनीयः रूपम्-दिव्य स्वरूप; आदित्यवर्णम्-सूर्य के समान तेजवान; तमसः-अज्ञानता का अंधकार; परस्तात्-परे।

 

जो मनुष्य सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियंता (अंतर्यामी रूप से सब प्राणियों के शुभ और अशुभ कर्म के अनुसार शासन करने वाला) ,सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करने वाले अचिन्त्य-स्वरूप, सूर्य के सदृश नित्य चेतन प्रकाश रूप और अविद्या से अति परे, शुद्ध सच्चिदानन्दघन परमेश्वर का स्मरण करता है॥8.9॥

 

प्रयाण काले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।

भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्‌- स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्‌ ৷৷8.10৷৷

 

प्रयाणकाले-मृत्यु के समय; मनसा-मन; अचलेन-दृढ़ः भक्त्या-श्रद्धा भक्ति से स्मरण; युक्तः-एकीकृत कर; योगबलेन-योग शक्ति के द्वारा; च-भी; एव-निश्चय ही; भ्रुवोः-दोनों भौहों के; मध्ये-मध्य में ; प्राणम्-प्राण को; आवेश्य-स्थित करना; सम्यक्-पूर्णतया; स:-वह; तम्-उसका; परम्-पुरुषोत्तम ; भगवान-दिव्य भगवान; उपैति-प्राप्त करता है; दिव्यम्-दिव्य स्वरूप के स्वामी, भगवान।

 

मृत्यु के समय जो भक्ति युक्त मनुष्य योग के अभ्यास द्वारा स्थिर मन के साथ अपने प्राणों को भौहों के मध्य स्थित कर लेता है और दृढ़तापूर्वक निश्चल मन से पूर्ण भक्ति से दिव्य भगवान का स्मरण करता है वह निश्चित रूप से उस दिव्य रूप परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है॥8.10॥

 

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥8.11॥

 

यत्-जिस; अक्षरम्-अविनाशी; वेदविदः-वेदों के ज्ञाता; वदन्ति–वर्णन करते हैं; वशन्ति–प्रवेश करना; यत्-जिसमें; यतयः-बड़े बड़े तपस्वी; वीतरागाः-आसक्ति रहित; यत्-जो; इच्छन्तः-इच्छा करने वाले; ब्रह्मचर्यम् – ब्रह्मचर्य का; चरन्ति–अभ्यास करना; तत्-उस; ते-तुमको; पदं-लक्ष्य; सङ्ग्रहेण-संक्षेप में; प्रवक्ष्ये-मैं बतलाऊँगा।

 

वेदों के जानने वाले विद्वान जिस सच्चिदानन्दघनरूप परम पद को अविनाशी कहते हैं, आसक्ति रहित यत्नशील संन्यासी महात्माजन, जिसमें प्रवेश करते हैं और जिस परम पद को चाहने वाले महान तपस्वी ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं और उसमे स्थित होने के लिए सांसारिक सुखों का त्याग करते हैं। उस परम पद मुक्ति के मार्ग को मैं तुम्हारे लिए संक्षेप में कहूँगा॥8.11॥

 

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।

मूर्ध्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥8.12॥

 

सर्वद्वाराणि-समस्त द्वार; संयम्य-नियंत्रित करके; मन:-मन ; हृदि-हृदय में; निरूध्य–अवरोध; च-भी; मूर्ध्नि-सिर पर; आधाय–स्थिर करना; आत्मन:-अपने ; प्राणम्-प्राणवायु को; आस्थितः-स्थित; योगधारणाम् – योग में एकाग्रता।

 

शरीर के समस्त इन्द्रिय द्वारों को बंद कर या रोक कर मन को हृदय स्थल पर स्थिर करते हुए फिर उस जीते हुए मन द्वारा प्राण वायु को सिर पर केन्द्रित करते हुए मनुष्य को दृढ़ यौगिक चिन्तन में स्थित हो जाना चाहिए।।8.12।।

 

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्‌ ।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्‌ ৷৷8.13৷৷

 

ॐ – निराकार भगवान के स्वरूप का प्रतिनिधित्व करने वाला मंत्र; इति–इस प्रकार; एक अक्षरम्-एक अक्षर; ब्रह्म-परम सत्य; व्याहरन्-उच्चारण करना; माम्-मुझको; अनुस्मरन्-स्मरण करते हुए; यः-जो; प्रयाति–प्रस्थान करना; त्यजन्–छोड़ते हुए; देहम्-इस शरीर को; सः-वह; याति-प्राप्त करता है; परमाम्-परम; गतिम्-लक्ष्य।

 

इस प्रकार परमात्म संबंधी योगधारणा में स्थित होकर जो ‘ॐ’ इस पवित्र एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और देह त्यागते समय मेरा स्मरण और चिंतन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह परम गति को प्राप्त होता है॥8.13॥

 

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।

तस्याहं सुलभः पार्थ नित्यमुक्तस्य योगिनः ॥8.14॥

 

अनन्यचेताः-बिना विचलित मन से; सततम्-सदैव; यः-जो; माम्–मुझमें; स्मरति-स्मरण; नित्यश:-नियमित रूप से; तस्य-उसका; अहम्-मैं हूँ; सुलभः-सरलता से प्राप्त; पार्थ-पृथापुत्र; अर्जुन; नित्य-निरन्तर; युक्तस्य–तल्लीन; योगिनः-योगी।

 

हे पार्थ! जो योगी अनन्य भक्ति भाव से अविचलित मन से सदैव मेरा ही चिन्तन करते हैं, उस नित्य निरंतर मुझमें युक्त योगी के लिए मैं सरलता से सुलभ रहता हूँ और सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ क्योंकि वे निरन्तर मुझ पुरुषोत्तम की भक्ति में तल्लीन रहते हैं।।8.14।।

 

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।

नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥8.15॥

 

माम्-मुझे ; उपेत्य-प्राप्त करके; पुनः-फिर; जन्म-जन्म; दुःख आलयम्-दुखों से भरे संसार में; आशाश्वतम्-अस्थायी; न-कभी नहीं; आप्नुवन्ति–प्राप्त करते हैं; महाआत्मानः-महान पुरूष; संसिद्धिम् – पूर्णता को; परमाम् – परम; गताः-प्राप्त हुए।

 

मुझे प्राप्त करने के बाद महान आत्माएँ फिर कभी इस अनित्य , क्षणभंगुर और दुखों से भरे हुए संसार में पुनः जन्म नहीं लेतीं है क्योंकि वे पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर चुकी होती हैं॥8.15॥

 

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ৷৷8.16৷৷

 

आब्रह्मभुवनात्-ब्रह्मा के लोक तक; लोकाः-सारे लोक; पुनः-फिर; आवर्तिनः-पुर्नजन्म लेने वाले; अर्जुन-अर्जुन; माम्-मुझको; उपेत्य-पाकर; तु-लेकिन; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र अर्जुन; पुनः जन्म-पुनर्जन्म; न-कभी नहीं; विद्यते-होता है।

 

हे कौन्तेय ! इस भौतिक सृष्टि में ब्रह्मलोकपर्यंत सभी लोक पुनरावर्ती हैं अर्थात ब्रह्म लोक तक सभी लोकों में तुम्हें पुनर्जन्म प्राप्त होगा , परन्तु हे कुन्तीपुत्र! मुझको प्राप्त होकर फिर पुनर्जन्म नहीं होता, क्योंकि मैं कालातीत हूँ अर्थात काल से परे हूँ । (काल का मेरे ऊपर कोई वश नहीं है , काल मेरे वश में है ) परन्तु ये सब ब्रह्मादि के लोक काल द्वारा सीमित और नियंत्रित होने से अनित्य हैं॥8.16॥

 

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।

रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥8.17॥

 

सहस्त्र-एक हजार; युग-युग; पर्यन्तम्-तक; अहः-एक दिन; यत्-जो; ब्रह्मण-ब्रह्मा का; विदु:-जानना; रात्रिम्-रात्रि; युग-युग; सहस्न्नान्ताम्-एक हजार युग समाप्त होने पर; ते–वे; अहःरात्रविद:-दिन और रात को जानने वाले; जना:-लोग।

 

जो लोग ये जानते हैं कि ब्रह्मा जी का एक दिन सहस्र युगों का है अर्थात एक हजार युग मिलकर ब्रह्मा जी का एक दिन बनता है । इसी प्रकार ब्रह्मा जी कि एक रात्रि सहस्र युगो कि है अर्थात एक हजार युग मिलकर उनकी एक रात्रि बनती है । ऐसे लोग वास्तव में दिन और रात को जानने वाले हैं अर्थात इसे वही बुद्धिमान समझ सकते हैं जो दिन और रात्रि की वास्तविकता को जानते हैं या काल के तत्व को जानने वाले हैं ।।8.17।।

 

अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।

रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसञके ॥8.18॥

 

अव्यक्तात-अव्यक्त अवस्था से; व्यक्तयः-व्यक्तावस्थाः सर्वाः-सारेः प्रभवन्ति–प्रकट होते हैं; अहःआगमे-ब्रह्मा के दिन का शुभारम्भ; रात्रिआगमे-रात्रि होने पर; प्रलीयन्ते-लीन हो जाते हैं; तत्र-उसमें; एव-निश्चय ही; अव्यक्त-अप्रकट; अव्यक्तसंज्ञके-अव्यक्त कहा जाने वाला।

 

ब्रह्मा के दिन के शुभारम्भ पर सभी जीव अव्यक्त अवस्था से व्यक्त होते हैं और रात्रि होने पर पुनः सभी जीव अव्यक्त अवस्था में लीन हो जाते हैं अर्थात ब्रह्मा जी के दिन का उदय होने पर सम्पूर्ण प्राणी उनके सूक्ष्म शरीर से उत्पन्न होते हैं और ब्रह्मा जी की रात्रि के आगमन पर उसी में लीन हो जाते हैं । अर्थात ब्रह्मा जी के दिन की शुरआत होने पर यह सम्पूर्ण चराचर जगत उन सूक्ष्म शरीर वाले ब्रह्मा जी की अप्रकट या अव्यक्त अवस्था से व्यक्त या प्रकट प्रतीत होता है और रात्रि के होने पर यह व्यक्त या प्रकट जगत पुनः अप्रकट या अव्यक्त हो जाता है । 

 

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।

रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥8.19॥

 

भूतग्रामः-असंख्य जीव; सः-ये; एव–निश्चय ही; अयम्-यह; भूत्वा-बारम्बार जन्म लेना; प्रलीयते-विलीन हो जाता है; रात्रिआगमे-रात्रि होने पर; अवशः-असहाय; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन ; प्रभवति-प्रकट होता है; अहः-दिन; आगमे-दिन के आरम्भ में।

 

ब्रह्मा के दिन के आगमन के साथ असंख्य जीव पुनः जन्म लेते हैं और ब्रह्माण्डीय रात्रि के आने पर अगले ब्रह्माण्डीय दिवस के आगमन पर स्वतः पुनः प्रकट होने के लिए विलीन हो जाते हैं अर्थात वही यह भूतसमुदाय ( प्राणिसमुदाय ) प्रकृति और काल के वश में हुआ बार – बार उत्पन्न हो- हो कर रात्रि के प्रवेश काल में लीन होता है और दिन के प्रवेश काल में फिर उत्पन्न होता है॥8.19॥

 

[अल्पज्ञानी पुरुष, जो इस भौतिक जगत् में बने रहना चाहते हैं, उच्चतर लोकों को प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु उन्हें पुनः इस धरालोक पर आना होता है । वे ब्रह्मा का दिन होने पर इस जगत् के उच्चतर तथा निम्नतर लोकों में अपने कार्यों का प्रदर्शन करते हैं, किन्तु ब्रह्मा की रात्रि होते ही वे विनष्ट हो जाते हैं । दिन में उन्हें भौतिक कार्यों के लिए नाना शरीर प्राप्त होते रहते हैं, किन्तु रात्रि के होते ही उनके शरीर विष्णु के शरीर में विलीन हो जाते हैं। वे पुनः ब्रह्मा का दिन आने पर प्रकट होते हैं । दिन के समय वे प्रकट होते हैं और रात्रि के समय पुनः विनष्ट हो जाते हैं । अन्ततोगत्वा जब ब्रह्मा का जीवन समाप्त होता है, तो उन सबका संहार हो जाता है और वे करोड़ो वर्षों तक अप्रकट रहते हैं । अन्य कल्प में ब्रह्मा का पुनर्जन्म होने पर वे पुनः प्रकट होते हैं । इस प्रकार वे भौतिक जगत् के जादू से मोहित होते रहते हैं किन्तु जो बुद्धिमान व्यक्ति भगवन की भक्ति को  स्वीकार करते हैं, वे इस मनुष्य जीवन का उपयोग भगवान् की भक्ति करने में समय व्यतीत करते हैं । इस प्रकार वे कृष्ण के धाम को प्राप्त होते हैं और वहाँ पर पुनर्जन्म के चक्कर से मुक्त होकर सतत आनन्द का अनुभव करते हैं ।]

 

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।

यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ৷৷8.20৷৷

 

पर:-परे; तस्मात्-उसकी अपेक्षा; तु–लेकिन; भावा:-सृष्टि; अन्य:-दूसरी; अव्यक्त:-अव्यक्त; अव्यक्तात्-अव्यक्त की; सनातनः-शाश्वत; य–जो; सः-वह जो; सर्वेषु-समस्त; भूतेषु-जीवों में; नश्यत्सु-नष्ट होने पर; न-कभी नहीं; विनश्यति–विनष्ट होती है।

 

व्यक्त और अव्यक्त सृष्टि से परे अन्य अव्यक्त शाश्वत आयाम है। जब सब कुछ विनष्ट हो जाता है किन्तु उसकी सत्ता का विनाश नहीं होता अर्थात उस व्यक्त से भी अति परे जो दूसरा विलक्षण सनातन अव्यक्त भाव है, वह परम दिव्य पुरुष सब भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता॥8.20॥

(इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यय प्रकृति है, जो शाश्र्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है । यह परा (श्रेष्ठ) और कभी न नाश होने वाली है । जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता ।)

 

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥8.21॥

 

अव्यक्त:-अप्रकट; अक्षर:-अविनाशी; इति-इस प्रकार; उक्त:-कहा गया; तम्-उसको; आहुः-कहा जाता है; परमाम्-सर्वोच्च; गतिम्-गन्तव्य; यम्-जिसको; प्राप्य-प्राप्त करके; न-कभी; निवर्तन्ते–वापस आते है; तत्-वह; धाम–लोक; परमम्-सर्वोच्च; मम–मेरा।

 

जो वह ‘अव्यक्त’ ( अप्रकट ) और  ‘अक्षर’ ( अविनाशी ) इस प्रकार कहा गया है, वह अक्षर नामक अव्यक्त भाव परम गन्तव्य है अर्थात सर्वोच्च और श्रेष्ठ गति है। उसी अक्षर या अविनाशी नामक अव्यक्त या अप्रकट भाव को परमगति कहते हैं और इस सनातन परम अव्यक्त भाव को प्राप्त हो कर फिर कोई इस नश्वर संसार में लौट कर नहीं आता। यह मेरा परम धाम है॥8.21॥

 

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।

यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्‌ ৷৷8.22৷৷

 

पुरूषः-परम भगवान; सः-वह; परः-महान, पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; भक्त्या-भक्ति द्वारा; लभ्यः-प्राप्त किया जा सकता है; तु-वास्तव में; अनन्यया-बिना किसी अन्य के; यस्य-जिसके; अन्तःस्थानि-भीतर स्थित; भूतानि-सभी जीव; येन-जिनके द्वारा; सर्वम्-समस्त; इदम्-जो कुछ हम देख सकते हैं; ततम्-व्याप्त है।

 

हे पार्थ! जिस परमात्मा के अंतर्गत सर्वभूत हैं और जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मा से यह समस्त जगत परिपूर्ण है , वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष तो वास्तव में अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होने योग्य है अर्थात परमेश्वर का दिव्य व्यक्तित्व सभी सत्ताओं से परे है। यद्यपि वह सर्वव्यापक है और सभी प्राणी उसके भीतर रहते है तथापि उसे केवल भक्ति द्वारा ही जाना जा सकता है।॥8.22॥

 

शुक्ल और कृष्ण मार्ग का वर्णन

 

यत्र काले त्वनावत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।

प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ৷৷8.23৷৷

 

यत्र-जहाँ; काले-समय; तु–निश्चित रूप से; अनावृत्तिम्-लौटकर न आना; आवृत्तिम्-लौटना; च-भी; एव-निश्चय ही; योगिनः-योगी; प्रयाता:-देह त्यागने वाले; यान्ति–प्राप्त करते हैं; तम्-उस; कालम्-काल को; यक्ष्यामि-वर्णन करूँगा; भरतऋषभ-भरत कुल श्रेष्ठ। 

 

हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! जिस काल अर्थात मार्ग में शरीर त्याग कर गए हुए योगीजन वापस न लौटने वाली गति को प्राप्त होते हैं अर्थात वे पुनः इस संसार में लौट कर नहीं आते और जिस काल या मार्ग में गए हुए वापस लौटने वाली गति को ही प्राप्त होते हैं अर्थात पुनः इस संसार में लौट कर आते हैं , उस काल को अर्थात दोनों मार्गों को मैं कहूँगा॥8.23॥

 

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ ।

तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ৷৷8.24৷৷

 

अग्रिः-अग्नि; ज्योति:-प्रकाश; अहः-दिन; शुक्ल:-शुक्लपक्ष; षट् मासाः-छह महीने; उत्तर-अयणम्-जब सूर्य उत्तर दिशा की ओर रहता है; तत्र-वहाँ; प्रयाता:-देह त्यागने वाले; गच्छन्ति-जाते हैं; ब्रह्मविदः-ब्रह्म को जानने वाले; जनाः-लोग।

 

जिस मार्ग में प्रकाशस्वरूप अग्निका अधिपति देवता, दिनका अधिपति देवता, शुक्लपक्ष का अधिपति देवता, और छः महीनों वाले उत्तरायण का अधिपति देवता है, शरीर छोड़ कर उस मार्ग से गये हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर (पहले ब्रह्मलोकको प्राप्त होकर पीछे ब्रह्माजीके साथ) पर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं और पुनः इस संसार में लौट कर नहीं आते ॥8.24॥

 

धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम्‌ ।

तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ৷৷8.25৷৷

 

धूम:-धुआँ; रात्रि:-रात; तथा-और; कृष्ण:-चन्द्रमा का कृष्णपक्ष; षट् मासा:-छह मास की अवधि; दक्षिणअयणम्-जब सूर्य दक्षिण दिशा में रहता है; तत्र-वहाँ; चान्द्रमसम् -चन्द्रमा संबंधी; ज्योतिः-प्रकाश; योगी-योगी; प्राप्य–प्राप्त करके; निवर्तते-वापस आता है।

 

जिस मार्ग में धूम का अधिपति देवता, रात्रिका अधिपति देवता, कृष्णपक्ष का अधिपति देवता और छः महीनों वाले दक्षिणायनका अधिपति देवता है, शरीर छोड़कर उस मार्ग से गया हुआ सकाम कर्म करने वाला योगी उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाया गया हुआ चंद्रमा की ज्योत को प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर वापस आता है अर्थात् जन्म-मरणको प्राप्त होता है।॥8.25॥

 

शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।

एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ॥8.26॥

 

शुक्ल-प्रकाश; कृष्णे-अंधकार; गती-मार्ग; हि-निश्चय ही; एते-ये दोनों; जगतः-भौतिक जगत् का; शाश्वते-नित्य; मते–मत से; एकया-एक के द्वारा; याति–जाता है; अनावृत्तिम्-न लौटने के लिए; अन्यथा-अन्य के द्वारा; आवर्तते-लौटकर आ जाता है; पुनः-फिर से।

 

क्योंकि जगत के ये दो प्रकार के- शुक्ल और कृष्ण अर्थात देवयान और पितृयान मार्ग सनातन माने गए हैं। इनमें एक द्वारा गया हुआ (अर्थात अर्चिमार्ग या प्रकाश मार्ग से गया हुआ योगी) जिससे वापस नहीं लौटना पड़ता, उस परमगति को प्राप्त होता है और दूसरे के द्वारा गया हुआ ( अर्थात धूममार्ग या अंधकार मार्ग से गया हुआ सकाम कर्मयोगी ) फिर वापस आता है अर्थात्‌ जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है॥8.26॥

(प्रकाश मार्ग से गए हुए निष्काम योगी को इस संसार में वापस नहीं लौटना पड़ता और वह परमगति अर्थात मोक्ष को प्राप्त होता है। अंधकार मार्ग से गए हुए सकाम कर्मयोगी को इस संसार में फिर वापस आना पड़ता है अर्थात्‌ वह पुनः जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है। )

 

  

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ৷৷8.27৷৷

 

न-कभी नहीं; एते-इन दोनों; सृती-मार्ग ; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; जानन्-जानते हुए भी; योगी-योगी; मुह्यति–मोहग्रस्त; कश्चन-कोई; तस्मात्-अतः; सर्वेषुकालेषु-सदैव; योगयुक्तः- योग में स्थित; भव-होना; अर्जुन–हे अर्जुन।

 

हे पार्थ! इस प्रकार इन दोनों मार्गों को तत्त्व से जानकर अर्थात इन दोनों मार्गों का रहस्य जानने के बाद कोई भी योगी मोहित नहीं होता। इस कारण तुम सब काल में योग से युक्त हो जाओ अर्थात निरंतर मेरी प्राप्ति के लिए साधन करने वाले हो जाओ ॥8.27॥

 

वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।

अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥8.28॥

 

वेदेष- वेदों के अध्ययन में; यज्ञेषु-यज्ञ का अनुष्ठान करने में; तपःसु-तपस्याएँ करने में; च-भी; एव-निश्चय ही; दानेषु-दान देने में; यत्-जो; पुण्यसफलम्-पुण्यकर्म का फल; प्रदिष्टम् – प्राप्त करना; अत्येति-पार कर जाता है; तत् सर्वम्-वे सब; इदम् – यह; विदित्वा-जानकर; योगी-योगी; परम-परम; स्थानम्-धाम को; उपैति-प्राप्त करता है; च-भी; आद्यम्-सनातन, आदि।

 

जो योगी इस ( दोनों मार्गों शुक्ल और कृष्णमार्ग के रहस्य और तत्व को) जान लेते हैं वे वेदाध्ययन, तपस्या, यज्ञों के अनुष्ठान और दान से प्राप्त होने वाले पुण्य फलों से परे उठ जाते हैं अर्थात उन सभी पुण्यफलों का उल्लंघन कर और अधिक लाभ प्राप्त करते हैं। ऐसे योगियों को भगवान का सनातन परमधाम प्राप्त होता है

 

 

 

 

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम अष्टमोऽध्यायः ॥8॥

 

 

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