Shrimad Bhagavad Gita Chapter 5

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Shrimad Bhagavad Gita Chapter 5

 

 

 

कर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय पाँच

 

01-06 ज्ञानयोग और कर्मयोग की एकता, सांख्य पर का विवरण और कर्मयोगकी वरीयता

07-12 सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा

13-26 ज्ञानयोग का विषय

27-29 भक्ति सहित ध्यानयोग तथा भय, क्रोध, यज्ञ आदि का वर्णन

 

 

अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग

 

01-06 ज्ञानयोग और कर्मयोग की एकता, सांख्य पर का विवरण और कर्मयोगकी वरीयता

 

अर्जुन उवाच।

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥5.1॥

 

अर्जुन-उवाच-अर्जुन ने कहा; संन्यासम् – वैराग्य; कर्मणाम् – कर्मों का; कृष्ण-श्रीकृष्णः पुनः-फिर; योगम्-कर्मयोग; च-भी; शंससि–प्रशंसा करते हो, सराहना ; यत्-जो; श्रेयः-अधिक लाभदायक; एतयो:-इन दोनों में से; एकम्-एक; तत्-वह; मे -मेरे लिए; ब्रूहि-कृपया बताएँ; सुनिश्चितम् – निश्चित रूप से;

 

अर्जुन ने कहा-हे कृष्ण! पहले आप कर्म संन्यास (सकाम कर्मों का त्याग अर्थात कर्म फलों की इच्छा का त्याग ) की और फिर आप ( भक्ति युक्त ) कर्मयोग ( ईश्वर को समर्पित करते हुए शास्त्र सम्मत कर्त्तव्य कर्म ) की प्रशंसा करते हैं। कृपया अब मुझे इन दोनों में से जो एक मेरे लिए निश्चित कल्याणकारक और लाभदायक साधन या मार्ग  हो, उसको भली प्रकार से कहिए ॥5.1॥ 

 

श्रीभगवानुवाच

सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।

तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥5.2

 

श्रीभगवान् उवाच-परम् भगवान् ने कहा; संन्यासः- कर्म का त्यागः कर्मयोगः-भक्ति युक्त कर्म; च-और; निःश्रेयसकरौ–परम् लक्ष्य की ओर ले जाने वाले; उभौ-दोनों; तयोः दोनों में से; तु-लेकिन; कर्मसंन्यासात्-सकाम कर्मों का त्याग ; कर्मयोगः-भक्ति युक्त कर्म; विशिष्यते-श्रेष्ठ

 

श्री भगवान बोले- कर्म संन्यास ( सकाम कर्मों का त्याग अर्थात कर्म फलों की इच्छा का त्याग ) और ( भक्ति युक्त ) कर्मयोग ( बिना फल की इच्छा के ईश्वर को समर्पित  कर्त्तव्य पालन हेतु किये गए कर्म ) – ये दोनों ही परम कल्याण के करने वाले हैं, परन्तु उन दोनों में भी कर्मयोग कर्म संन्यास से साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है॥5.2॥

 

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥5.3॥

 

ज्ञेयः-मानना चाहिएः सः-वह मनुष्य; नित्य-सदैव; संन्यासी-वैराग्य का अभ्यास करने वाला; यः-जो; न कभी नहीं; द्वेष्टि-घृणा करता है; न-न तो; काङ्क्षति-कामना करता है; निर्द्वन्द्वः सभी द्वंदों से मुक्त; हि-निश्चय ही; महाबाहो- बलिष्ठ भुजाओं वाला अर्जुन; सुखम्-सरलता से; बन्धात्-बन्धन से; प्रमुच्यते-मुक्त होना।

 

वे कर्मयोगी मनुष्य जो न तो कोई कामना करते हैं और न ही किसी से घृणा करते हैं उन्हें नित्य संन्यासी माना जाना चाहिए। हे महाबाहु अर्जुन! सभी प्रकार के राग-द्वेषादि द्वन्द्वों से रहित होने के कारण वे निश्चय ही माया के बंधनों से सरलता से मुक्ति पा लेते हैं॥5.3॥

 

साङ्‍ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्‌ ॥5.4

 

सांख्य-कर्म का त्याग; योगौ-कर्मयोगः पृथक्-भिन्न; बाला:-अल्पज्ञ; प्रवदन्ति-कहते हैं; न- कभी नहीं; पण्डिताः-विद्वान्, ज्ञानी ; एकम्-एक; अपि-भी; आस्थित:-स्थित होना; सम्यक्-पूर्णतया; उभयोः-दोनों का; विन्दते-प्राप्त करना है; फलम् -परिणाम।

 

केवल अज्ञानी ही ‘सांख्य’ या ‘कर्म संन्यास’ को कर्मयोग से भिन्न और पृथक फल देने वाला कहते हैं । जो वास्तव में ज्ञानी हैं, वे जानते हैं की इन दोनों में से किसी भी मार्ग का अनुसरण करने से अर्थात किसी एक में भी पूर्णतया स्थित होने पर वे दोनों का फल प्राप्त कर सकते हैं अर्थात दोनों के फलरूप परमात्मा को प्राप्त होते हैं ॥5.4॥

 

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।

एकं सायं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥5.5॥

 

यत-क्या; साङ्ख्यैः -कर्म संन्यास के अभ्यास द्वारा ; प्राप्यते-प्राप्त किया जाता है; स्थानम्-स्थान; तत्-वह; योगैः-भक्ति युक्त कर्म द्वारा; अपि-भी; गम्यते-प्राप्त करता है; एकम्-एक; सांख्यम्-कर्म का त्यागः च-तथा; योगम्-कर्मयोगः च-तथा; यः-जो; पश्यति-देखता है; स:-वह; पश्चति-वास्तव में देखता है।

 

परमेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि सांख्य योग या कर्म संन्यास के माध्यम से जो प्राप्त होता है उसे भक्ति युक्त कर्मयोग से भी प्राप्त किया जा सकता है। अर्थात ज्ञान योगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार जो मनुष्य ( सांख्य ) कर्म संन्यास और कर्मयोग को एक समान देखते हैं अर्थात जो मनुष्य ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखते हैं वही वास्तव में सभी वस्तुओं को यथावत रूप में देखते हैं॥5.5॥

 

सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥5 .6॥

 

संन्यासः-वैराग्य; तु–लेकिन; महाबाहो – बलिष्ठ भुजाओं वाला, अर्जुन; दुःखम्-दुख; आप्तुम्–प्राप्त करता है; अयोगतः-कर्म रहित; योगयुक्त:-कर्मयोग में संलग्न; मुनिः-साधुः ब्रह्म-परम सत्य; न चिरेण-शीघ्र ही; अधिगच्छति–पा लेता है।

 

हे महाबाहो अर्जुन ! कर्म योग के बिना पारमार्थिक सन्यास ( अर्थात्‌ मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग ) मिलना कठिन है अर्थात भक्ति युक्त होकर कर्म किए बिना पूर्णतः कर्मों का परित्याग करना या कर्म रहित होना कठिन है। किन्तु जो संत ( भगवत्स्वरूप को मनन करने वाले कर्मयोगी ) कर्मयोग में संलग्न रहते हैं अर्थात फल न चाहकर ईश्वर समर्पण के भाव से किये हुए ( निष्काम ) कर्मयोग से युक्त हुआ ईश्वर के स्वरूप का मनन करने वाला मुनि ब्रह्म को अर्थात् परमात्म ज्ञान निष्ठा रूप पारमार्थिक संन्यास को शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है अर्थात वे शीघ्र परम परमेश्वर को पा लेते हैं॥5 .6॥

( वैदिक अर्थात निष्काम कर्मयोग ही ज्ञानयोग का साधन होने के कारण योग और संन्यास कहा जाने लगा है। परमात्म ज्ञानका सूचक होने से संन्यास ही ब्रह्म नाम से कहा गया है तथा संन्यास ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही परम है । इसलिये कर्मयोग श्रेष्ठ है। )

 

07-12 सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा

 

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।

सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥5 .7॥

 

योगयुक्त:-चेतना को भगवान में एकीकृत करना; विशुद्ध आत्मा:-शुद्ध बुद्धि के साथ; विजित आत्मा-मन पर विजय पाने वाला; जितेन्द्रियः-इन्द्रियों को वश में करने वाला; सर्वभूत आत्म-भूत आत्मा जो सभी जीवों की आत्मा में आत्मरूप परमात्मा को देखता है; कुर्वन्-निष्पादन; अपिः-यद्यपि; न- कभी नहीं; लिप्यते-बंधता।

 

जो कर्मयोगी योगयुक्त अर्थात अपनी चेतना को ईश्वर में एकीकृत करने वाला , विशुद्धात्मा अर्थात शुद्ध बुद्धि और निर्मल अन्तः करण से युक्त, विजितात्मा अर्थात अपने मन और आत्मा पर विजय पाने वाला तथा जितेन्द्रिय अर्थात अपनी इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाला और सभी जीवों की आत्मा में आत्मरूप परमात्मा को देखने वाला है , वे सभी प्रकार के कर्म करते हुए कभी कर्मबंधन में नहीं पड़ता॥5 .7॥

 

नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।

पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपश्वसन् ॥5 .8॥

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥5 .9॥

 

न-नहीं; एव-निश्चय ही; किंचित्-कुछ भी; करोमि -मैं करता हूँ; इति–इस प्रकार; युक्तः-कर्मयोग में दृढ़ता से स्थित; मन्येत–सोचता है; तत्त्ववित्-सत्य को जानने वाला; पश्यन्–देखते हुए; शृण्वन्–सुनते हुए; स्पृशन्-स्पर्श करते हुए; जिघ्रन्-सूंघते हुए; अश्नन्-खाते हुए; गच्छन्-जाते हुए; स्वपन्-सोते हुए; श्वसन्–साँस लेते हुए; प्रलपन्–बात करते हुए; विसृजन्–त्यागते हुए; गृह्णन्–स्वीकार करते हुए; उन्मिषन्–आंखें खोलते हुए; निमिषन्–आंखें बन्द करते हुए; अपि-तो भी; इन्द्रियाणि-इन्द्रियों कोः इन्द्रिय अर्थेषु – इन्द्रिय विषय; वर्तन्ते-क्रियाशील; इति–इस प्रकार; धारयन्–विचार करते हुए, सोचता है ।

 

कर्मयोग में दृढ़ता से स्थित तत्त्व दर्शी अर्थात तत्व को जानने वाला सांख्ययोगी तो सदैव देखते हुए , सुनते हुए , स्पर्श करते हुए , सूंघते हुए , भोजन करते हुए , चलते-फिरते हुए , सोते हुए, श्वास लेते हुए, बोलते हुए, त्यागते हुए, ग्रहण करते हुए और आंखें खोलते या बंद करते हुए भी सदैव यह सोचता है कि सभी इन्द्रियाँ अपने अपने विषयों में कार्यशील है ऐसा समझकर ऐसा मानता है कि – ‘मैं कर्ता नहीं हूँ’ अर्थात मैं कुछ भी नहीं करता हूँ॥5 .8-5 .9॥

 

(जो कुछ भी हो रहा है परमात्मा की कृपा से ही हो रहा है। जीव कुछ नहीं कर सकता। परमात्मा के विधान के अनुसार चलने वाला सुखी रहता है तथा मोक्ष प्राप्त करता है। विपरीत चलने वाले को हानि होती है।)

 

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सऊं त्यक्त्वा करोति यः ।

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ 5 .10॥

 

ब्रह्मण-भगवान् को; आधाय–समर्पित; कर्माणि-समस्त कार्यों को; सङ्गगम्-आसक्ति; त्यक्त्वा-त्यागकर; करोति-करना ; यः-जो; लिप्यते-प्रभावित होता है; न- कभी नहीं; स:-वह; पापेन-पाप से; पद्मपत्र – कमलपत्र; इव-के समान; अम्भसा-जल द्वारा।

 

जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है अर्थात जो अपने कर्मफल भगवान को समर्पित कर सभी प्रकार से आसक्ति रहित होकर कर्म करते हैं, वे पापकर्म से उसी प्रकार से अछूते रहते हैं जिस प्रकार से कमल के पत्ते को जल स्पर्श नहीं कर पाता॥5 .10॥

 

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।

योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥5.11॥

 

कायेन-शरीर के साथ; मनसा-मन से; बुद्धया-बुद्धि से; केवलैः-केवल; इन्द्रियैः-इन्द्रियों से; अपि-भी; योगिनः-योगी; कर्म-कर्म; कुर्वन्ति-करते हैं; सङ्गम्-आसक्ति; त्यक्त्वा-त्याग कर; आत्म-आत्मा की; शुद्धये-शुद्धि के लिए योगीजन आसक्ति को त्याग कर अपने शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि द्वारा केवल अपने शुद्धिकरण के उद्देश्य से कर्म करते हैं।

 

कर्मयोगी अर्थात योगीजन ममता और आसक्ति को त्याग कर अपने शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि द्वारा केवल अपने अन्तः करण के शुद्धिकरण ( आत्मशुद्धि या चित्तशुद्धि ) के उद्देश्य से कर्म करते हैं। ॥5 .11॥

 

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।

अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥5 .12॥

 

युक्तः-अपनी चेतना को भगवान में एकीकृत करने वाला; कर्म-फलम्-सभी कर्मों के फल; त्यक्त्वा-त्यागकर; शान्तिम्-पूर्ण शान्ति; आप्नोति-प्राप्त करता है; नैष्ठिकीम्-अनंत काल तक; अयुक्तः-वह जिसकी चेतना भगवान में एकीकृत न हो; कामकारेण–कामनाओं से प्रेरित होकर; फले–परिणाम में; सक्तः-आसक्त; निबध्यते-बंधता है।

 

निष्काम कर्मयोगी या युक्त मनुष्य ( जिसने अपनी चेतना को भगवन में एकीकृत कर लिया है ) अपने समस्त कमर्फलों को भगवान को अर्पित कर अर्थात कर्म फलों का त्याग कर के भगवत्प्राप्ति रूप चिरकालिक और अनंतकालीन शांति प्राप्त कर लेते हैं जबकि अयुक्त या सकाम मनुष्य अर्थात वे जो कामनायुक्त होकर निजी स्वार्थों से प्रेरित होकर कर्म करते हैं, वे बंधनों में पड़ जाते हैं क्योंकि वे कमर्फलों में आसक्त होकर कर्म करते हैं॥5 .12॥

 

13-26 ज्ञानयोग का विषय

 

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।

नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌ ॥5 .13॥

 

सर्व-समस्त; कर्माणि-कर्म; मनसा-मन से; संन्यस्य-त्यागकर; आस्ते-रहता है; सुखम्-सुखी; वशी-आत्मसंयमी; नवद्वारे-नौ द्वार; पुरे–नगर में; देही-देहधारी जीव; न-नहीं; एव–निश्चय ही; कुर्वन-कुछ भी करना; न-नहीं; कारयन्–कारण मानना।

 

आत्म संयमी मनुष्य ( अन्तःकरण जिसके वश में है, ऐसा सांख्य योग का आचरण करने वाला ) न ( कर्म ) करता हुआ और न ( कर्म ) करवाता हुआ ही नवद्वारों वाले शरीर रूप घर में सब कर्मों को मन से त्यागकर आनंदपूर्वक सच्चिदानंदघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है अर्थात जो देहधारी जीव आत्मनियंत्रित एवं निरासक्त होते हैं, नौ द्वार वाले भौतिक शरीर में भी वे सुखपूर्वक रहते हैं क्योंकि वे स्वयं को कर्त्ता या किसी कार्य का कारण मानने के विचार से मुक्त होते हैं ॥5 .13॥

 

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।

न कमर्फलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥5 .14॥

 

न–नहीं; कर्तृव्यम्-कर्त्तापन का बोध; न- न तो; कर्माणि-कर्मों के; लोकस्य–लोगों के; सृजति- उत्पन्न करता है; प्रभुः-भगवान; न- न तो; कर्म-फल-कर्मों के फल; संयोगम् -सम्बन्ध; स्वभावः-जीव की प्रकृति; तु-लेकिन; प्रवर्तते-कार्य करते हैं।

 

परमेश्वर लोकमात्र या मनुष्यों के लिए न तो कर्तापन के बोध की ( कर्त्तव्य की ), न कर्मों की और न कर्मफल के संयोग की रचना करते हैं, किन्तु यह सब प्रकृति ही कर रही है अर्थात यह सब प्रकृत्ति के गुणों से सृजित होते हैं॥ 5 .14॥

 

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥5 .15

 

न–कभी नहीं; आदत्ते-स्वीकार करना; कस्यचित्-किसी का; पापम्-पाप; न-न तो; च-और; एव-निश्चय ही; सुकृतम्-पुण्य कर्म; विभुः-सर्वव्यापी भगवान; अज्ञानेन–अज्ञान से; आवृतम्-आच्छादित; ज्ञानम्-ज्ञान; तेन-उससे; मुह्यन्ति-मोह ग्रस्त होते हैं; जन्तवः-जीवगण।

 

सर्वव्यापी परमेश्वर न किसी के पाप कर्मों को और न किसी के शुभ ( पुण्य ) कर्मों को ही ग्रहण या स्वीकार करता है, किन्तु जीवात्माएँ मोहग्रस्त रहती हैं क्योंकि उनका वास्तविक आत्मिक ज्ञान अज्ञान द्वारा ढँका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं ॥ 5 .15॥

 

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥5 .16॥

 

ज्ञानेन-दिव्य ज्ञान द्वारा; तु–लेकिन; तत्-वह; अज्ञानम्-अज्ञानता; येषाम्- जिनका; नाशितम् – नष्ट हो जाती है; आत्मनः-आत्मा का; तेषाम्-उनके; आदित्यवत्-सूर्य के समान; ज्ञानम्-ज्ञान; प्रकाशयति-प्रकाशित करता है; तत्-उस; परम्-परम तत्त्व।

 

किन्तु जिनकी आत्मा का अज्ञान दिव्यज्ञान ( परमात्मा के तत्व ज्ञान ) द्वारा नष्ट हो जाता है उनका वह ज्ञान सूर्य के समान उस परमतत्त्व सच्चिदानंदघन परमात्मा को उसी प्रकार से प्रकाशित कर देता है जैसे दिन में सूर्य के प्रकाश से सभी वस्तुएँ प्रकाशित हो जाती हैं ॥ 5 .१६ ॥

 

तद्‍बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।

गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥5 .17॥

 

तत् बुद्धयः-वह जिनकी बुद्धि भगवान की ओर निर्देशित है; तत्आत्मानः-वे जिनका अंत:करण केवल भगवान में तल्लीन होता है; तत् निष्ठाः-वे जिनकी बुद्धि भगवान में दृढ़ विश्वास करती है; तत् परायणाः-भगवान को अपना लक्ष्य और आश्रय बनाने का प्रयास करना; गच्छन्ति–जाते हैं; अपुन:-आवृत्तिम्-वापस नहीं आते; ज्ञान-ज्ञान द्वारा; निर्धूत -निवारण होना; कल्मषाः-पाप।

 

वह जिनकी बुद्धि भगवान की ओर निर्देशित है, वे जिनका अंत:करण केवल भगवान में तल्लीन होता है , वे जिनकी बुद्धि भगवान में दृढ़ विश्वास करती है और जो भगवान को अपना लक्ष्य और आश्रय बनाने का प्रयास करते हैं अर्थात सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही जो  निरंतर एकीभाव से स्थित हैं , ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान द्वारा पापरहित होकर इस पुनरावृत्ति ( अर्थात बार बार जन्म मरण ) से मुक्त हो जाते है को अर्थात परमगति को प्राप्त होते हैं और पुनः इस संसार में वापस नहीं आते ॥5 .17॥

 

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।

शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥5 .18 ॥

 

विद्या-दिव्य ज्ञान; विनय-विनम्रता से; सम्पन्ने-से युक्त; ब्राह्मणे-ब्राह्मण; गवि-गाय में; हस्तिनि – हाथी में; शुनि–कुत्ते में; च–तथा; एव–निश्चय ही; श्वपाके-कुत्ते का मांस भक्षण करने वाले, चाण्डाल में; च-और; पण्डिताः-विद्ववान; समदर्शिनः-समदृष्टि।

 

सच्चे ज्ञानी महापुरुष एक विनम्रता से युक्त ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल को अपने दिव्य ज्ञान के चक्षुओं द्वारा निश्चित रूप से समान दृष्टि से ही देखते हैं ॥5 .18॥

 

इहैव तैर्जितः सर्गों येषां साम्ये स्थितं मनः ।

निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥5 .19॥

 

इहैव-इस जीवन में; तै:-उनके द्वारा; र्जितः-विजयी; सर्गः-सृष्टि; येषाम् – जिनका; साम्ये-समता में; स्थितम्-स्थित; मन:-मन; निर्दोषम–दोषरहित; हि-निश्चय ही; समम्-समान; ब्रह्म-भगवान; तस्मात् – इसलिए; ब्रह्मणि-परम सत्य में; ते- वे; स्थिताः-स्थित हैं।

 

वे जिनका मन समता या समभाव में स्थित है, वे इसी जीवन में जन्म और मरण के चक्र से मुक्ति पा लेते हैं अर्थात उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है। वे भगवान के समान दोष रहित तथा गुणों से संपन्न हो जाते हैं क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है और इस प्रकार वे परमसत्य में स्थित हो जाते हैं ॥5 .19॥

 

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्‌ ।

स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥20

 

न–कभी नहीं; प्रहृष्येत्-हर्षित होना; प्रियम्-परम सुखदः प्राप्य- प्राप्त करना; न-नहीं; उद्विजेत्–विचलित होना; प्राप्य–प्राप्त करके; च-भी; अप्रियम्-दुखद; स्थिरबुद्धिः-दृढ़ बुद्धि, असम्मूढः-पूर्णतया स्थित, संशयरहित; ब्रह्मवित्-दिव्य ज्ञान का बोध; ब्रह्मणि-भगवान में; स्थित:-स्थित।

 

जो पुरुष प्रिय या परम सुखद पदार्थ को प्राप्त कर न तो हर्षित होता और अप्रिय या दुखद स्थिति में उद्विग्न या विचलित नहीं होता , वह स्थिरबुद्धि, संशयरहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष दिव्य ज्ञान में दृढ़ विश्वास धारण कर और मोह रहित होकर सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है ॥20॥

 

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।

स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥5 .21॥

 

बाह्य स्पर्शेषु- बाहरी इन्द्रिय सुख; असक्त आत्मा-वे जो अनासक्त रहते हैं; विन्दति–पाना; आत्मनि-आत्मा में; यत्-जो; सुखम्-आनन्द; सः-वह व्यक्ति; ब्रह्मयोगयुक्त-आत्मा योग द्वारा भगवान में एकाकार होने वाले; सुखम् -आनन्द; अक्षयम्-असीम; अश्नुते–अनुभव करना 

 

जो बाह्य इन्द्रिय सुखों में आसक्त नहीं होते वे आत्मिक परम आनन्द की अनुभूति करते हैं। आत्म योग के द्वारा भगवान के साथ एकनिष्ठ या एकाकार होने के कारण वे असीम सुख भोगते हैं अर्थात बाहर के विषयों में आसक्तिरहित अन्तःकरण वाला साधक आत्मा में स्थित जो ध्यानजनित सात्विक आनंद है, उसको प्राप्त होता है, तदनन्तर वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के ध्यानरूप योग में अभिन्न भाव से स्थित पुरुष अक्षय आनन्द का अनुभव करता है॥5 .21॥

 

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।

आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥5 .22॥

 

ये-जो; हि-वास्तव में; संस्पर्शजा:-इन्द्रियों के विषयों के स्पर्श से उत्पन्न; भोगा:-सुख भोग; दुःख-दुख; योनयः-का स्रोत, एव–वास्तव में; ते–वे; आदि अन्तवन्तः-आदि और अन्तवाले; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र अर्जुन; न -कभी नहीं; तेषु–उनमें; रमते-आनन्द लेता है; बुधः-बुद्धिमान्।

 

हे कुन्तीपुत्र! इन्द्रिय विषयों के सम्पर्क से उत्पन्न होने वाले सुख और भोग हैं यद्यपि सांसारिक मनोदृष्टि वाले लोगों और विषयी मनुष्यों को आनन्द और सुख प्रदान करने वाले प्रतीत होते हैं किन्तु वे वास्तव में दुखों के कारण हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात अनित्य हैं। इसलिए बुद्धिमान ज्ञानी मनुष्य इनमें आनन्द नहीं लेते अर्थात नहीं रमते॥5 .22॥

 

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।

कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥5 .23॥

 

शक्नोति-समर्थ है; इह एव–इसी शरीर में; यः-जो; सोढुम्-सहन करना; प्राक्-पहले; शरीर-शरीर; विमोक्षणात्-त्याग करना; काम- इच्छा; क्रोध-क्रोध से; उद्भवम्-उत्पन्न; वेगम्-बल से; सः-वह; युक्तः-योगी; सः-वही व्यक्ति; सुखी-सुखी; नरः-व्यक्ति।

 

वे मनुष्य ही योगी हैं जो इस शरीर को त्यागने से पूर्व कामनाओं और क्रोध से उत्पन्न वेग को सहन करने या रोकने में समर्थ होते हैं, केवल वही संसार मे सुखी रहते हैं॥5 .23॥

 

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।

स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥5 .24॥

 

यः-जो; अन्त:-सुखः-अपनी अन्तरात्मा में सुखी; अन्त: आरामः-आत्मिक आनन्द में अन्तर्मुखी; तथा – उसी प्रकार से; अन्तः ज्योतिः-आंतरिक प्रकाश से प्रकाशित; यः-जो; स:-वह; योगी-योगी; ब्रह्मनिर्वाणं-भौतिक जीवन से मुक्ति; ब्रह्मभूतः-भगवान में एकनिष्ठ; अधिगच्छति–प्राप्त करना।

 

जो पुरुष अपनी अन्तरात्मा में ही सुखी रहने वाला है, आत्मिक आनंद अर्थात जो अन्तर्मुखी होकर ही सुख का अनुभव करते हैं  अपनी आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा जो आत्मिक या आंतरिक प्रकाश से प्रकाशित रहते हैं। ऐसे ( सांख्य ) योगी सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीकृत होकर भौतिक जीवन से मुक्त हो जाते हैं और शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है ॥5 .24॥

( आंतरिक प्रकाश दिव्य ज्ञान है जो भगवान की कृपा द्वारा हमारे भीतर अनुभूति के रूप में तब प्रकट होता है जब हम भगवान के शरणागत हो जाते हैं।)

 

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।

छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥5 .25॥

 

लभन्ते–प्राप्त करना; ब्रह्मनिर्वाणम्-भौतिक जीवन से मुक्ति; ऋषयः-पवित्र मनुष्य; क्षीण-कल्मषा:-जिसके पाप धुल गए हों; छिन्न-संहार; द्वैधाः-संदेह से; यत-आत्मानः-संयमित मन वाले; सर्वभूत-समस्त जीवों के; हिते-कल्याण के कार्य; रताः-आनन्दित होना।

 

वे पवित्र मनुष्य जिनके सब पाप धुल गए हैं , जिनके सभी संशय ज्ञान के द्वारा मिट गए हैं , जिनका मन संयमित होता है और निश्छल भाव से परमात्मा में स्थित है, जो सभी प्राणियों के कल्याण के कार्य में रत हैं वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष सांसारिक बंधनों से मुक्त हो कर निर्वाण ब्रह्म अर्थात मोक्ष को प्राप्त होते हैं॥5 .25॥

 

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्‌ ।

अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्‌ ॥5 .26॥

 

काम-इच्छाएँ; क्रोध-क्रोध; वियुक्तानाम् – वे जो मुक्त हैं; यतीनाम्-संत महापुरुष; यतचेतसाम्-आत्मलीन और मन पर नियंत्रण रखने वाला; अभितः-सभी ओर से; ब्रह्म-आध्यात्मिक; निर्वाणम्-भौतिक जीवन से मुक्ति; वर्तते-होती है। विदित आत्मनाम्-वे जो आत्मलीन हैं।

 

ऐसे संन्यासी जो काम-क्रोध से रहित, जीते हुए चित्तवाले अर्थात जो सतत प्रयास से क्रोध और काम वासनाओं पर विजय पा लेते हैं , जो अपने मन को वश में कर आत्मलीन हो जाते हैं अर्थात आत्मा को जानने वाले है ऐसे परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए ज्ञानी मनुष्यों के लिए दोनों ओर से ( शरीर के रहते हुए और शरीर छूटने के बाद) निर्वाण परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण है अर्थात वे इस जन्म में ( इस लोक में)  और परलोक में भी माया शक्ति और भौतिक जीवन के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं और मोक्ष प्राप्त करते है ॥5 .26॥

 

27-29 भक्ति सहित ध्यानयोग तथा भय, क्रोध, यज्ञ आदि का वर्णन

 

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।

प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥5 .27॥

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।

विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥5 .28॥

 

स्पर्शान-इन्द्रिय विषयों से सम्पर्क; कृत्वा-करना; बहिः-बाहरी; बाह्यान्–बाहरी विषय; चक्षुः-आंखें; च -और; एव–निश्चय ही; अन्तरे-मध्य में; भ्रवोः-आंखों की भौहों के; प्राण अपानो-बाहरी और भीतरी श्वास; समौ-समान; कृत्वा-करना; नास अभ्यन्तर- नासिका छिद्रों के भीतर; चारिणौ-गतिशील; यत-संयमित; इन्द्रिय-इन्द्रियाँ; मन:-मन; बुद्धिः-बुद्धि; मुनिः-योगी; मोक्ष-मुक्ति; परायणः-समर्पित; विगत-मुक्त; इच्छा–कामनाएँ; भय-डर; क्रोधः-क्रोध; यः-जो; सदा-सदैव; मुक्तः-मुक्ति; एव–निश्चय ही; सः-वह व्यक्ति।

 

समस्त बाह्य इन्द्रिय सुख और विषय भोगों का विचार न कर अर्थात समस्त इन्द्रियविषयों को बाहर करके अपनी दृष्टि को भौहों के बीच के स्थान में स्थित कर या केंद्रित कर नासिका में विचरने वाली बाहरी ( प्राण ) और भीतरी ( अपान ) श्वासों के प्रवाह को सम करते हुए इन्द्रिय, मन और बुद्धि को संयमित करके जो मोक्षपरायण ज्ञानी मुनि ( परमेश्वर के स्वरूप का निरन्तर मनन करने वाला ) इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है , वह सदा के लिए मुक्त हो जाता है॥ 5 .27 – 5 .28॥

 

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌ ।

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥5 .29

 

भोक्तारम्-भोक्ता; यज्ञ-यज्ञ; तपसाम्-तपस्या; सर्वलोक-सभी लोक; महाईश्वरम्-परम् प्रभुः सुहृदम्-सच्चा हितैषी; सर्व-सबका; भूतानाम्-जीव; ज्ञात्वा-जानकर; माम्-मुझे, श्रीकृष्ण; शान्तिम्-शान्ति; ऋच्छति-प्राप्त करता।

 

जो भक्त मुझे समस्त यज्ञों और तपस्याओं का भोक्ता, सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण जीवों और प्राणियों का सच्चा हितैषी समझते हैं, वे परम शांति प्राप्त करते हैं॥5 .29॥

 

 

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसंन्यासयोगो नाम पंचमोऽध्यायः ॥5॥

 

 

 

 

 

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