bhramar geet by soordas

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bhramar geet by soordas

 

 

राग सारंग

तिहारी प्रीति किधौं तरवारि?
दृष्टि-धार करि मारि साँवरे घायल सब ब्रजनारि॥
रही सुखेत ठौर बृन्दाबन, रनहु न मानति हारि।
बिलपति रही संभारत छन छन बदन-सुधाकर-बारि॥
सुंदरस्याम-मनोहर-मूरति रहिहौं छबिहि निहारि।
रंचक सेष रही सूर प्रभु अब जनि डारौ मारि॥१५१॥

 

इसमें गोपियों के वियोग में व्यथित गोपियों की मार्मिक दशा का वर्णन हुआ है । वियोग में गोपियों को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि श्री कृष्ण का प्रेम प्रेम न हो कर उन सबों के लिए तलवार की भाँति घातक है ।

 

श्री कृष्ण के प्रति गपियों का कथन है कि हे श्याम ! यह तुम्हारा प्रेम है की तलवार है । आशय यह है कि तुमने संयोग की घड़ियों में जो अपने प्रेम का जादू हम सब गोपियों पर डाला आज वियोग में वह हमारे लिए तलवार की भांति चुभ रहा है । तुमने वृन्दावन रुपी रण क्षेत्र में जो अपनी तीक्ष्ण चितवन रुपी तलवार की धार से चोट की । उसके कारण घायल हो कर आज भी ब्रज की युवतियां पड़ी हुयी तड़प रही हैं और रणस्थल में घायल होकर भी अपनी पराजय स्वीकार नहीं करतीं । प्रेम के इस युद्ध में उन्हें विश्वास है कि विजय उन्हीं की होगी । हे कृष्ण ! तुम्हारे वियोग में प्रेम की तलवार से घायल हम सब रो रही हैं और क्षण – क्षण तुम्हारे चंद्र- मुख के कान्ति रुपी अमृत जल से अपने प्राणों की रक्षा करती रहीं । व्यंजना यह है कि स्मृति पटल पर अंकित तुम्हारे सौंदर्य का अवलोकन करके हम सब जीवित हैं और भविष्य में भी हे श्यामसुंदर ! तुम्हारी मनोहारिणी मूर्ति की शोभा को देख कर अपने जीवन को बिता देंगीं । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ श्री कृष्ण से कह रही हैं कि तुम्हारी प्रेम रुपी तलवार से घायल हम सबों का जीवन अब बहुत थोड़ा शेष रह गया है अर्थात अब हम सब मरणोन्मुख हैं । अब हमें मत मारिये । इस थोड़े से जीवन में तो अपना दर्शन दे दें क्योंकि हम इसी आशा में टिकी हैं कि शायद श्यामसुंदर का दर्शन हो जाये ।

 

राग धनाश्री

मधुकर! कौन मनायो मानै?
अबिनासी अति अगम अगोचर कहा प्रीति-रस जानै?
सिखवहु ताहि समाधि की बातें जैहैं लोग सयाने।
हम अपने ब्रज ऐसेहि बसिहैं बिरह-बाय-बौराने॥
सोवत जागत सपने सौंतुख रहिहैं सो पति माने।
बालकुमार किसोर को लीलासिंधु सो तामें साने॥
पर्‌यो जो पयनिधि बूंद अलप सो को जो अब पहिचाने?
जाके तन धन प्रान सूर हरि-मुख-मुसुकानि बिकाने॥१५२॥

 

गोपियाँ उद्धव के निर्गुण ब्रह्म को किसी भी रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं । उनका समस्त व्यक्तित्व श्री कृष्ण के लीला समुद्र में डूब चुका है अतः पृथकता का भाव वे किसी भी रूप में नहीं कर सकतीं । इन्ही सब कारणों से वे उद्धव के निर्गुण ब्रह्म कि उपासना के प्रति अपनी पूर्ण असमर्थता प्रकट कर रही हैं ।

 

हे भ्रमर उद्धव ! तुम्हारे पूर्ण समझने पर भी इस निर्गुण ब्रह्म की उपासना पद्धति को कौन स्वीकार करे ? भला वह अविनाशी अत्यंत अगम्य अर्थात जहाँ तक पहुँचना कठिन है , अगोचर अर्थात दृष्टि द्वारा जिसे देखा नहीं जा सकता प्रेम के रस को क्या समझे ? अर्थात हमारे ह्रदय में सगुण रूप श्री कृष्ण का जो प्रेम है और उस प्रेम से हमें जो सुख प्राप्त होता है उसे तुम्हारा निर्गुण ब्रह्म क्या जाने ? तुम योगियों की समाधि विषयक बातें उन्हें सिखाओ जो चतुर लोग हैं । आशय यह है कि यहाँ तो इन बातों को समझने वाले नहीं हैं। हाँ मथुरा में कृष्ण और कुब्जा आदि तुम्हारी बातों को ग्रहण करने में सक्षम हैं । वे सब योगी होने के कारण योग के मर्म को आसानी से समझ सकते हैं और इसकी उन्हें आवश्यकता भी है लेकिन हम तो श्री कृष्ण के वियोग सन्निपात से ग्रस्त बावली की भाँति इस ब्रज में भास्कर अपना जीवन बिता देंगीं । हमें वियोग में बावरी हो कर ब्रज में जीवन बिताने में जो आनंद और सुख आता है वो तुम्हारी निर्गुण ब्रह्मोपासना में कहाँ है ? हम तो सोते समय , जागृत अवस्था में , स्वप्न में और प्रत्यक्ष श्री कृष्ण को पति मान कर ही इस जीवन को बिता देंगीं किन्तु दूसरों को पति के रूप में कदापि वरण नहीं करेंगीं । हम श्री कृष्ण की बाल , कुमार और किशोरावस्था के लिलरूपी समुद्र में अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को डुबा चुकी हैं । अब हमारा मानस उनकी लीला में तन्मय हो चुका है । अब हमारे किये उस समुद्र से निकलना उसी प्रकार कठिन है जैसे समुद्र में यदि थोड़ी सी बूँद गिर जाये तो कौन ऐसा है जो उसे पहचान सके अर्थात बूंदों के स्वतन्त्र अस्तित्व का कौन उल्लेख कर सकता है । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हमारे लिए तो श्री कृष्ण के मुख की मुस्कराहट ही तन , मन ,धन और प्राण तुल्य है और हम सब उस मुस्कराहट के वशीभूत हैं ।152

 

राग मलार

मधुकर! ये मन बिगरि परे।
समुझत नाहिं ज्ञानगीता को हरि-मुसुकानि अरे॥
बालमुकुंद-रूप-रसराचे तातें बक्र खरे।
होय न सूधी स्वान पूँछि ज्यों कोटिक जतन करे॥
हरि-पद-नलिन बिसारत नाहीं सीतल उर संचरे।
जोग गंभीर है अंधकूप तेहि देखत दूरि डरे॥
हरि-अनुराग सुहाग भाग भरे अमिय तें गरल गरे।
सूरदास बरु ऐसेहि रहिहैं कान्हबियोग-भरे॥१५३॥

 

गोपियाँ इस पद में उद्धव के समक्ष अपने मन की विवशता प्रकट कर रही हैं । उनके अनुसार यह मन इस सीमा तक बिगड़ चुका है कि उद्धव की बातों पर थोड़ा भी ध्यान नहीं देता ।

 

हे भ्रमर ! हम तुम्हारी ज्ञान की बातों को नहीं सुनतीं लेकिन हमारा मन इस प्रकार बिगड़ चुका है कि वह तुम्हारी गीता का ज्ञान नहीं समझता और श्री कृष्ण की मुस्कराहट में अड़ गया है । हम सब बस मुस्कराहट को ही देखा करती हैं वहां से हमारा मन हटना ही नहीं चाहता । ये श्री कृष्ण के सौंदर्य रास में सदैव अनुरक्त रहते हैं इसीलिए इन्हें गर्व हो गया है और बहुत टेढ़े स्वभाव के हो गए हैं । श्री कृष्ण के सौंदर्य का आनंद प्राप्त कर के ये किसी को कुछ नहीं समझते और सदैव वक्र बने रहते हैं । अब इनके स्वभाव में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं हो सकता जैसे कितना ही यत्न किया जाये लेकिन कुत्ते की टेढ़ी पूँछ सीधी नहीं हो सकती उसी प्रकार इनके स्वभाव की वक्रता दूर नहीं हो सकती । ये श्री कृष्ण के उन कमलवत चरणों को नहीं भूल पाते जो ह्रदय में शीतल रूप में संचारित या व्याप्त हो गए हैं अर्थात श्री कृष्ण के उन कमलवत चरणों का निरंतर ध्यान किया करते हैं जिनसे इनका ह्रदय शीतल हो जाता है । इन्हें तुम योग की शिक्षा देना चाहते हो लेकिन ये तो योग को गहरे अंधकूप की भांति दूर से ही देख कर ही दर जाते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि योग की जटिलताओं से हम लोगों का मन सदैव उदासीन रहता है । इनका तो यह संकल्प है कि श्री कृष्ण के प्रेम रुपी सौभाग्य या सिन्दूर को मस्तक पर धारण करके यदि इन्हें अमृत को छोड़ कर अर्थात अमरता से अलग हो कर विष अर्थात नश्वरता में गलना पड़े तो स्वीकार है अर्थात सुख की जगह चाहे इन्हें दुःख झेलना पड़े परन्तु ये तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की ओर नहीं जायेंगे । तात्पर्य यह है कि श्री कृष्ण के अनुराग को धारण करने पर चाहे जो भी कष्ट मिलें उस से यह भयभीत नहीं होने वाले । सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि श्री कृष्ण के वियोग को धारण किये हुए – श्री कृष्ण की वियोगाग्नि में जलते हुए ये भले ही ऐसे ही जीवन बिता दें किन्तु योग साधना को स्वीकार न करेंगे ।

 

राग मलार 

मधुकर! जौ तुम हितू हमारे।
तौ या भजन-सुधानिधि में जनि डारौ जोग-जल खारे॥
सुनु सठ रीति, सुरभि पयदायक क्यों न लेत हल फारे?
जो भयभीत होत रजु देखत क्यों बढ़वत अहि कारे॥
निज कृत बूझि, बिना दसनन हति तजत धाम नहिं हारे।
सो बल अछत निसा पंकज में दल-कपाट नहिं टारे॥
रे अलि, चपल मोदरस-लंपट! कतहि बकत बिन काज?
सूर स्याम-छबि क्यों बिसरत है नखसिख अंग बिराज?॥१५४॥

 

इस पद में गोपियाँ क्रुद्ध हो कर कहती हैं कि यदि तुम हमारे सच्चे हितैषी हो तो योग की शिक्षा मत दो । हमारे लिए तुम्हारा यह उपदेश नीति के विरुद्ध है ।

 

हे भ्रमर ! हे उद्धव ! यदि तुम हमारे सच्चे हितैषी बनते हो तो श्री कृष्ण के भजन रुपी अमृत के समुद्र में योग रुपी खारा जल मत डालो । कहने का तात्पर्य यह है कि श्री कृष्ण के भजन में हमें अमृत जैसा सुख और आनंद की प्राप्ति होती है और तुम्हारे योग की बातें सुनकर हमें कडुवाहट और खारेपन का अनुभव होता है । रे दुष्ट भ्रमर ! क्या तुम्हें इस रीति का ज्ञान नहीं है कि जिसका जो काम होता है वही उस काम को करता है – उसे दूसरा नहीं कर सकता । तुम इस रीति को सुनो और समझो । यदि ऐसा नहीं है तो दूध दुहने वाली गाय हल और फाल क्यों नहीं लेती अर्थात हल में तो बैल ही जुतता है गाय नहीं । उसी प्रकार नारियों को योग कि शिक्षा नियम विरुद्ध है और यह गाय को हल में जोतने के समान है । तुम बार – बार हमें निर्गुण ब्रह्म की बातें बताते हो । भला जो रस्सी को सर्प समझ कर डर जाता है उसके आगे काले सर्प को क्यों बढ़ाते हो ? आशय यह है कि जो योग की बातों को सुनकर डर जाती है उन्हें श्री कृष्ण को छोड़ कर निर्गुण ब्रह्मोपासना में लगा कर क्यों डराते हो ? तुम दूसरों को तो उपदेश देते फिरते हो किन्तु पहले अपनी करनी को तो देखो कि दांतों से बिना काटे अपने उस गृह से अर्थात छत्ते से बाहर नहीं निकलते बल्कि उनको काट कर बाहर निकल आते हो किन्तु तुम्हारे पास काटने कि शक्ति होते हुए भी तुम रात्रि बेला में कमल में बस जाते हो और उसकी पंखुड़ी रुपी दरवाजे को नहीं खोलते । उसमें बंद रह कर घुटन सह कर भी उसे नष्ट नहीं करते । अरे चंचल और सुरभि एवं मकरंद के लोभी भ्रमर क्यों बड़ – बड़ कर रहे हो ? व्यर्थ प्रलाप क्यों कर रहे हो ? सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हे भ्रमर ! श्री कृष्ण की मधुर छवि तो हमारे प्रत्येक अंग में विराजमान है वह हमें कैसे भूल सकती है अर्थात उसे हम किसी भी स्थिति में नहीं भूल सकतीं ।

 

राग सोरठ

मधुकर! कौन गाँव की रीति?
ब्रजजुवतिन को जोग-कथा तुम कहत सबै बिपरीति॥
जा सिर फूल फुलेल मेलिकै हरि-कर ग्रंथैं छोरी।
ता सिर भसम, मसान पै सेवन, जटा करत आघोरी॥
रतनजटित ताटंक बिराजत अरु कमलन की जोति।
तिन स्रवनन पहिरावत मुद्रा तोहिं दया नहिं होति॥
बेसरि नाक, कंठ मनिमाला, मुखनि सार असवास।
तिन मुख सिंगी कहौ बजावन, भोजन आक, पलास॥
जा तन को मृगमद घसि चंदन सूछम पट पहिराए।
ता तन को रचि चीर पुरातन दै ब्रजनाथ पठाए॥
वै अबिनासी ज्ञान घटैगो यहि बिधि जोग सिखाए।
करैं भोग भरिपूर सूर तहँ, जोग करैं ब्रज आए॥१५५॥

 

इस पद में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हे उद्धव ! तुम यह नहीं देखते कि योग साधना किसके लिए है तथा भोग और योग के अंतर को तुम बिलकुल नहीं समझ रहे हो । भला यह तो बताओ कि जो अभी तक भोगमय जीवन में लगी रहीं , उन्हें यह योग साधना कैसे अच्छी लग सकती है ?

 

हे भ्रमर उद्धव ! यह किस गाँव की रीति है कि तुम ब्रज कि युवतियों को योग कथा बता रहे हो जो सब प्रकार से नीति विरुद्ध है । व्यंजना यह है कि क्या तुम्हारे मथुरा में ऐसी ही उलटी नीति का व्यव्हार होता है और क्या वहां नव युवतियों को योग की शिक्षा दी जाती है ? हमारे जिस सिर को श्री कृष्ण ने फूलों से अलंकृत किया और सुगन्धित तेल लगा कर उन्होंने इसकी गांठें खोलीं । आज तुम उसी सिर पर भस्म मलने के लिए कह रहे हो और अघोरपंथी की भांति सिर पर जाता बाँध कर शमशान की साधना करने पर बल दे रहे हो । यह कैसे संभव हो सकता है ? जिन कानों में रत्नजड़ित कर्णफूल आभूषण शोभित होता था और जिनमें मोतियों की कांति दीप्त होती थी , उन कानों में योगियों की भांति कांच के कुण्डलों को पहनाते समय तुम्हें दया नहीं आ रही है अर्थात तुम इतने निष्ठुर हो रहे हो की जिन कोमल कानों में सुन्दर आभूषण शोभित होते थे उनमें अब तुम बलात कुण्डल पहना रहे हो । हमारी नाक में नथनियाँ शोभित होती थीं , गले में मणिमाला और मुख कपूर से सदैव सुगन्धित रहता था आज तुम उस मुख को सिंगी बाजा ( योगियों का एक बाजा ) बजने को कह रहे हो और भोजन में खाने के लिए मदार और ढाक बता रहे हो , तुम्हें लज्जा नहीं आती । हमने अपने जिस तन पर चन्दन और चन्दन का लेप किया , जिस पर रेशमी वस्त्र धारण किया आज उस को सजाने के लिए पुराण वस्त्र भिजवाया है । तुम श्री कृष्ण को अविनाशी ब्रह्म कह रहे हो । तुम्हारे कहने से हमने उन्हें ब्रह्म मान लिया लेकिन पात्र अपात्र का विचार किये बिना जो युवतियों को इस प्रकार योग सीखा रहे हो उस से तुम्हारा ज्ञान घटेगा , तुम अज्ञानी माने जाओगे । वे वहां मथुरा में भले ही पूर्णरूपेण भोग की साधना करें लेकिन हम तो उन्हें तब समझेंगीं जब वे ब्रज में आकर योग साधना हमारे साथ करें । योग साधना कितनी कठिन है यह उन्हें पता चल जायेगा क्योंकि वे मथुरा में बैठे-बैठे हमारे पास योग सन्देश तो भेजा करते हैं पर स्वयं योग साधना के लिए यहाँ नहीं आते । व्यंजना यह है कि यहाँ आने पर वे अपनी योग साधना की बातें गोपियों को देखते ही भूल जाएंगे और उनके साथ वे भी भोगमय जीवन की साधना में जुट जाएंगे ।

 

राग नट

मधुकर! ये नयना पै हारे।
निरखि निरखि मग कमलनयन को प्रेममगन भए भारे॥
ता दिन तें नींदौ पुनि नासी, चौंकि परत अधिकारे।
सपन तुरी जागत पुनि सोई जो हैं हृदय हमारे॥
यह निगुन लै ताहि बतावो जो जानैं याके सारे।
सूरदास गोपाल छाँड़ि कै चूसैं टेटी खारे॥१५६॥

 

इस पद में गोपियों ने अपने नेत्रों की दशा का वर्णन उद्धव के समक्ष किया है ।

 

हे भ्रमर ! हमारे ये नेत्र कमलनेत्र श्री कृष्ण का मार्ग देखते – देखते थक गए और अंततः उनके प्रेम में अतिशय मग्न हो गए । जब से श्री कृष्ण यहाँ से गए हैं उसी दिन से इनकी नींद भी चली गयी है । ये सोते नहीं उन्हें देखते ही रहते हैं और किसी समय उनके ध्यान में ये अधिक चौंक पड़ते हैं । इन्हें तो स्वप्न में , तुरीयावस्था में और जाग्रतावस्था में हमारे प्राणस्वरूप वे ही श्री कृष्ण दिखाई पड़ते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक स्थिति में हमारे ध्यान में श्री कृष्ण का ही चित्र रहता है । तुम यह देखते हुए भी बार – बार निर्गुण की महत्ता प्रतिपादित करते रहते हो । अरे निर्गुण की बात तो उन्हें बताओ जो इसके तत्व को , इसके गूढ़ मर्म को समझते हो । हम सब निर्गुण के बारे में क्या जाएं ? कहने का आशय यह है कि इसे कृष्ण जैसे योगी और कुब्जा जैसी योगिनी को समझाओ , ये सब इसे सहर्ष ग्रहण करेंगे । हम सब तो गोपाल की उपासिका हैं , उनकी रूप माधुरी का निरंतर आनंद लिया करती हैं । भला ऐसे मधुर रस को छोड़ कर तुम्हारे निर्गुण के रस को जो करेले के कड़ुए फल की भांति है इसे कौन पसंद करेगा । तात्पर्य यह है कि जैसे कोई मधुर फल का रसास्वादन करने के पश्चात् करेले के कड़ुए फल को नहीं चाहता ठीक उसी प्रकार गोपाल के आनंद को प्राप्त कर के इस निर्गुण के कड़ुए स्वाद से कौन संतुष्ट होगा ?

 

राग धनाश्री

मधुकर! कह कारे की जाति?
ज्यों जल मीन, कमल पै अलि की, त्यों नहिं इनकी प्रीति॥
कोकिल कुटिल कपट बायस छलि फिरि नहिं वहि वन जाति।
तैसेहि कान्ह केलि-रस अँचयो बैठि एक ही पाँति॥
सुत-हित जोग जज्ञ ब्रत कीजत बहु बिधि नींकी भाँति।
देखहु अहि मन मोहमया तजि ज्यों जननी जनि[१] खाति॥
तिनको क्यों मन बिसमौ कीजै औगुन लौं सुख-सांति।
तैसेइ सूर सुनौ जदुनंदन, बजी एकस्वर तांति॥१५७॥

 

इस पद में गोपियों ने काले वर्ण वालों का बहुत उपहास किया है । श्याम वर्ण के होने के कारण श्री कृष्ण को लेकर श्याम रंग वालों के प्रति बहुत चुभता हुआ व्यंग्य किया है ।

 

हे भ्रमर ! क्या काले रंग वालों की भी कोई जाति होती है ? क्या इनमें कुलीनता के कुछ गुण होते हैं ? आशय यह है कि काले रंग वाले बड़े कुटिल , छली और निष्ठुर होते हैं । जिस प्रकार जल से मछली का और कमल से भौंरे का प्रेम होता है । वैसा सच्चा और दृढ प्रेम इन कालों जैसे उद्धव , श्री कृष्ण और उद्धव आदि का नहीं है , ये सब भी काले माने गए हैं । काली कोयल को देखो वह कितनी कुटिल और कपटी है । वह कपट से अपने बच्चों को कौए के घोंसले में रख आती है और जब वे बच्चे बड़े हो जाते हैं तो कोकिल कुल में मिल जाते हैं और कोकिला अपने बच्चों को प्राप्त कर के पुनः उस वन में नहीं जाती और कौए से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखती । उसी प्रकार ये काले कृष्ण ने भी हम लोगों की पंक्ति में बैठ कर , हम लोगों के साथ में रहकर नाना प्रकार की क्रीड़ाओं के रस को प्राप्त किया लेकिन अंत में धोखा देकर वे मथुरा चले गए और हम लोगों की याद भुला दी । इसी प्रकार लोग जहाँ पुत्र प्राप्ति के लिए नाना प्रकार के यज्ञ करते हैं , व्रत रखते हैं तब बड़ी कठिनाई के साथ वह मिलता है , वहीं सर्पिणी को तो देखो , यह जैसे ही बच्चों को जन्म देती है , उसी क्षण समस्त माया मोह को छोड़ कर , निष्ठुर होकर अपने बच्चों को खा जाती है । यही है काले रंग की निष्ठुरता । उनके सम्बन्ध में वस्तुतः मन में आश्चर्य करने की आवश्यकता नहीं है जिन्हें अवगुण ग्रहण करने में ही सुख और शांति मिलती है । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि इसी तरह यशोदा के पुत्र श्री कृष्ण भी हैं । ये भी उसी रंग में रँगे हुए हैं । एक ही रंगत हैं और इनके यहाँ भी एक ही ढंग कि तंत्री बजी । एक ही प्रकार का स्वर निकला अर्थात इनमें भी उक्त कालों के गुण उपस्थित हैं ।

 

राग रामकली

मधुकर! ल्याए जोग-संदेसो।
भली स्याम-कुसलात सुनाई, सुनतहिं भयो अंदेसो॥
आस रही जिय कबहुँ मिलन की, तुम आवत ही नासी।
जुवतिन कहत जटा सिर बांधहु तो मिलिहैं अबिनासी॥
तुमको जिन गोकुलहिं पठायो ते बसुदेव-कुमार।
सूर स्याम मनमोहन बिहरत ब्रज में नंददुलार॥१५८॥

 

गोपियों को यह विश्वास नहीं है कि नंदकुमार ने उनके पास यह योग सन्देश भिजवाया है । उनके अनुसार नन्द कुमार तो ब्रज में हैं और योग सन्देश भिजवाने वाले राजा वसुदेव के पुत्र हैं ।

 

हे भ्रमर उद्धव ! तुम तो योग सन्देश क्या लाये उसी के बहाने श्याम का अच्छा कुशल सुनाया जिसे सुनते ही हमारे मन में शंका उत्पन्न हो गयी । शंका इस बात की है कि यह सन्देश कृष्ण का भेजा हुआ नहीं है । वे ऐसी बातें भिजवा ही नहीं सकते हैं । व्यंगात्मक अर्थ यह है कि तुमने श्याम का जो समाचार दिया है वह बड़ा दुःखद है उसने हमारे मन में शंका और उद्विग्नता उत्पन्न कर दी है । अभी तक तो हमारे मन में यह आशा बनी हुई थी कि श्री कृष्ण कभी आवेंगे किन्तु तुम्हारे आते ही और इस योग सन्देश को सुते ही हमारी सभी आशाएं नष्ट हो गयीं और हम सब निराश हो गयीं । तुम तो हम युवतियों को सिर पर जटा बाँधने का उपदेश दे रहे हो । हमें योगिनी बना रहे हो और यह कहते हो कि ऐसा करने से उस अविनाशी ब्रह्म का साक्षात्कार होगा परन्तु हमें इस बात की शंका है कि इस प्रकार का उपदेश देने के लिए श्री कृष्ण ने तुम्हें गोकुल भेजा है बल्कि वसुदेव पुत्र मथुराधिपति ने यह सन्देश तुम्हारे द्वारा भिजवाया है । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हमारे नन्द कुमार तो हमारे साथ बृज में विचरण कर रहे हैं और वे यहीं रहते हैं । सन्देश भिजवाने वाले ये नहीं हैं , वे कोई दूसरे हैं अर्थात वसुदेव पुत्र हैं ।

 

राग सोरठ

स्याम विनोदी रे मधुबनियाँ।
अब हरि गोकुल कांहे को आवहिं चाहत नवयौवनियाँ॥
वे दिन माधव भूलि बिसरि गए गोद खिलाए कनियाँ।
गुहि गुहि देते नंद जसोदा तनक कांच के मनियाँ॥
दिना चारि तें पहिरन सीखे पट पीतांबर तनियाँ।
सूरदास प्रभु तजी कामरी अब हरि भए चिकनियाँ॥१५९॥

 

यद्यपि श्री कृष्ण गोकुल से जा कर मथुरा में राजा हो गए हैं किन्तु गोपियाँ ब्रज के बाल कृष्ण को आज भी नहीं भूल नहीं सकी हैं । व्यंग्य विनोद के साथ वे कृष्ण के पूर्व रूप और कार्य कलाप को स्मरण करती हुयी उलाहना दे रही हैं ।

 

गोपियाँ परस्पर कह रही हैं कि हे सखी ! कृष्ण तो अब मथुरा के रसिक बन गए हैं, बड़े लोगों के साथ रहने लगे हैं , वे अब गोकुल क्यों आएंगे ? गोकुल में अब क्या धरा है ? अब तो वे मथुरा की युवतियों को पसंद करेंगे । यहाँ उन्हें ऐसी युवतियां कहाँ मिलेंगी। उन्हें अब हमारी चाह क्यों होगी ? अब तो कृष्ण अपने बचपन के उन दिनों को बिलकुल भूल गए हैं जब हमनें उन्हें गोद में खिलाया और प्यार में उन्हें अपने कंधे पर चढ़ाया । हे सखी ! हम उन दिनों को याद करती हैं जब यशोदा और नन्द कांच की छोटी – छोटी गुरियों की माला गुह कर उन्हें पहना देते थे । तब वे मणि – मुक्त की बात नहीं जानते थे । उन्होंने रेशमी पीताम्बर और कुरता तो थोड़े समय से ही पहनना सीखा है जब से वे मथुरा के राज कुमार बने हैं । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे सखी ! कि अब तो श्री कृष्ण अपनी कमरी त्याग कर मथुरा के छैला बन गए हैं । अब वे कम्बल और लाठी ले कर गाय चराना भूल गए और छैला जैसी बातें करने लगे हैं । तात्पर्य यह है कि मथुरा जाते ही श्री कृष्ण का स्वभाव बिलकुल बदल गया है ।

 

राग धनाश्री

ऊधो! हम ही हैं अति बौरी।
सुभग कलेवर कुंकुम खौरी। गुंजमाल अरु पीत पिछौरी॥
रूप निरखि दृग लागे ढोरी। चित चुराय लयो मूरति सो, री!
गहियत सो जा समय अंकोरी। याही तें बुधि कहियत बौरी॥
सूर स्याम सों कहिय कठोरी! यह उपदेस सुने तें बौरी॥१६०॥

 

गोपियाँ उद्धव को बता रही हैं कि हम सब पगली थीं कि जो उनके मनोहर रूप को देखकर मुग्ध हो गयीं । यह दोष हमारा ही था । यदि हम उन पर मोहित न होतीं तो आज कृष्ण के कठोर हो जाने पर हमें दुःख क्यों होता ?

 

हे उद्धव ! हम सब अति पगली हैं । यदि पगली न होतीं तो उनके सुन्दर शरीर , कुमकुम का टीका, गले में पड़ी गुंजा की माला और पीताम्बर की शोभा को देख कर हमारे नेत्र उनके पीछे क्यों लगते और हमें इस प्रकार कष्ट क्यों होता ? उनकी उस मूर्ति ने हमारे चित्त को चुरा लिया । हमारा चित्त उनके वशीभूत हो गया । जिस समय हम उन्हें अपनी गोद में लेकर अपने गले लगाती थीं उस समय लोग हमें मंद बुद्धि की नारियां कहते थे किन्तु हमने उनकी बातों की परवाह नहीं की । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! तुम श्याम से कह देना कि तुम अब अतिशय कठोर हो गए हो , यदि कठोर न होते तो योग का सन्देश हमारे पास क्यों भेजते ? किन्तु तुम यह बता देना कि तुम्हारे योग सन्देश को सुनते ही सब गोपियाँ पागल हो गयी हैं । उनकी चित्त वृत्ति ठिकाने पर नहीं रहती पागल की तरह घूमती रहती हैं ।

 

राग धनाश्री 

कहाँ लगि मानिए अपनी चूक?
बिन गोपाल, ऊधो, मेरी छाती ह्वै न गई द्वै टूक॥
तन, मन, जौबन वृथा जात है ज्यों भुवंग की फूँक।
हृदय अग्नि को दवा बरत है, कठिन बिरह की हूक॥
जाकी मनि हरि लई सीस तें कहा करै अहि मूक?
सूरदास ब्रजबास बसीं हम मनहूँ दाहिने सूक॥161

 

गोपियाँ अंततः अपनी ही गलती स्वीकार करती हैं और उनके अनुसार अपने अपराधों के कारण ही उन्हें यह कष्ट भोगना पड़ रहा है। यदि कृष्ण के जाते ही उनकी छाती फट गयी होती तो इस असह्य पीड़ा की अनुभूति उन्हें न होती । वे कृष्ण के बिना अपने जीवन को निरर्थक समझती हैं और इसे स्पष्टतया उद्धव से बता रही हैं ।

 

हे उद्धव ! मैं अपनी गलती कहाँ तक बताऊँ । मैंने इतने अपराध किये हैं कि उन सबों को बताना मेरे लिए संभव नहीं । अभी तक गोपाल के बिना मैं जी रही हूँ यही एक बाद अपराध है क्योंकि उनके जाते ही मेरी यह छाती दो टुकड़ों में क्यों नहीं फट गयी । यदि यह दो टुकड़ों में बँट गयी होती तो आज मुझे यह पीड़ा न अनुभव करनी पड़ती । अब तो श्री कृष्ण के बिना मेरा यह तन , मन व्यर्थ में निरुद्देश्य बीत रहा है । यह उसी प्रकार नष्ट हो रहा है जैसे सर्प की फुफकार अर्थात सर्प जैसे बिना किसी को काटे ही व्यर्थ में फुफकारता रहता है यही मेरी दशा है । कृष्ण के बिना वियोग की पीड़ा मुझे अत्यंत कष्ट दे रही है और ह्रदय में निरंतर वियोग का दावानल जलता रहता है । ह्रदय शीतल नहीं हो पाता। भला जिस सर्प की मणि छीन ली गयी गयी हो वह वाणी विहीन मूक सर्प क्या करे अर्थात मेरी दशा उस सर्प की भांति हो रही है जिसकी श्री कृष्ण रुपी मणि छीन ली गयी हो । हे सखी ! मुझे तो ऐसा लगता है की ब्रज में शुभ मुहूर्त में नहीं बसी । बसते समय मानो शुक्र दक्षिण थे । कहा जाता है कि शुक्र के दक्षिण होने पर शुभ कार्य नहीं करना चाहिए क्योंकि ज्योतिष के अनुसार यह शुभ नहीं होता ।

 

राग कल्याण

ऊधों! जोग जानै कौन?
हम अबला कह जोग जानैं जियत जाको रौन॥
जोग हमपै होय न आवै, धरि न आवै मौन।
बाँधिहैं क्यों मन-पखेरू साधिहैं क्यों पौन?
कहौ अंबर पहिरि कै मृगछाल ओढ़ै कौन?
गुरु हमारे कूबरी-कर-मंत्र-माला जौन॥
मदनमोहन बिन हमारे परै बात न कौन?
सूर प्रभु कब आयहैं वे श्याम दुख के दौन?॥१६२॥

 

गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि जिस योग की साधना पर आप बल दे रहे हैं क्या वह हमारे लिए उचित है ? योग तो विधवाओं के लिए है । हमारे स्वामी श्री कृष्ण तो अभी जीवित हैं , फिर हमें योग की क्या आवश्यकता है ?

 

हे उद्धव ! यह तुम्हारा योग कौन समझे ? हमारे यहाँ तुम्हारे योग का साधक कोई नहीं है । भला हम अबलाएं योग क्या जानें जिनके पति श्री कृष्ण जीवित हैं अर्थात तुम योग उन विधवाओं को समझाओ जिनके पति नहीं हैं और अनाथ हैं । हमसे योग साधते नहीं बनता और न हम सब मौन धारण करना ही जानती हैं, ऐसी स्थिति में तुम्हारी बातों को हम किस प्रयोजन से ग्रहण करें । आशय यह है कि तुम ठीक स्थान पर नहीं पहुंचे , वहां जाओ जहाँ इसके सम्बन्ध में लोग जानते हों । हम सब अपने मन रुपी पक्षी को कैसे बांधें । चंचल मन को कैसे नियंत्रित करें क्योंकि बिना चित्तवृत्ति निरोध के योग साधना संभव ही नहीं है और अपने श्वासों को प्राणायाम द्वारा कैसे साधें ? हम तो वियोग की सांसें निरंतर लेती हैं अतः श्वासों को संयमित करने का हमारे लिए कोई प्रश्न ही नहीं है । अब आप ही बताइये कि जिस शरीर पर हमने अच्छे वस्त्रों को धारण किया उसकी जगह योगिनी के रूप में कौन मृगछाला ओढ़े ? हे उद्धव ! हमारे जो गुरु श्री कृष्ण हैं वे तो कूबरी के हाथों मंत्र माला हैं । जैसे मंत्र जपने की माला को लोग घुमाया करते हैं । कूबरी भी श्री कृष्ण को अपने ढंग से मंत्र माला की तरह घुमाया करती हैं । वह उन्हें अपने वश में किये हुए हैं । जिधर वह घुमाती है श्री कृष्ण उधर ही नाचा करते हैं किन्तु सच बात तो यह है कि बिना श्री कृष्ण के हमारे मन में कोई बात बैठती ही नहीं । उनके बिना हमें कुछ भी अच्छा नहीं लगता । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से पूछ रही हैं कि हमारे दुःख दूर करने वाले वे श्री कृष्ण कब आएगें ?

 

राग केदारो

फिर ब्रज बसहु गोकुलनाथ।
बहुरि न तुमहिं जगाय पठवौं गोधनन के साथ॥
बरजौं न माखन खात कबहूँ, दैहौं देन लुटाय।
कबहूँ न दैहौं उराहनो जसुमति के आगे जाय॥
दौरि दाम न देहुँगी, लकुटी न जसुमति-पानि।
चोरी न देहुँ उघारि, किए औगुन न कहिहौं आनि॥
करिहौं न तुमसों मान हठ, हठिहौं न माँगत दान।
कहिहौं न मृदु मुरली बजावन, करन तुमसों गान॥
कहिहौं न चरनन देन जावक, गुहन बेनी फूल।
कहिहौं न करन सिंगार बट-तर, बसन जमुना-कूल॥
भुज भूषननयुत कंध धरिकै रास नृत्य न कराउँ।
हौं संकेत-निकुंज बसिकै दूति-मुख न बुलाउँ।
एक बार जु दरस दिखवहु प्रीति-पंथ बसाय।
चँवर करौं, चढ़ाय आसन, नयन अंग अंग लाय॥
देहु दरसन नंदनंदन मिलन ही की आस।
सूर प्रभु की कुँवर-छंबि को मरत लोचन प्यास॥१६३॥

 

गोपियों को इस बात की शंका है कि जब श्री कृष्ण ब्रज में थे तो उन्होंने उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया । इसी कारण कुपित हो कर कदाचित श्री कृष्ण मथुरा चले गए । गोपियाँ अपने इस दुर्व्यवहार के लिए पश्चाताप कर रही हैं और कृष्ण को आश्वासन दे रही हैं कि भविष्य में वे सब उनके साथ इस प्रकार का व्यवहार नहीं करेंगी । वे निश्चिन्त हो कर पुनः ब्रज में आ कर रहने लगे । कोई कुछ नहीं कहेगा ।

 

कृष्ण के प्रति किसी गोपी या राधा का कथन – उद्धव के माध्यम से कोई गोपी श्री कृष्ण के प्रति अपना सन्देश भेजते हुए कह रही है कि हे गोकुलनाथ ! अब मेरा निवेदन है कि आप पुनः ब्रज में आकर रहने लगें । जब आप ब्रज में थे तो हम सबों ने आपके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया । अब फिर तुम्हें प्रातः काल जगाकर ग्वालों के साथ बन में गायों को चराने के लिए नहीं भेजूंगी । कभी तुम्हें मक्खन खाने से भी नहीं रोकूंगी और यदि तुम ग्वालों के बच्चों दही लुटाना चाहोगे तो ऐसा करने से भी तुम्हें नहीं रोकूंगी । तुम जो दही लुटाते थे उसके लिए कभी भी अब यशोदा के समक्ष इस सम्बन्ध में उलाहना भी नहीं दूँगी । यशोदा के हाथ में दौड़ कर न रस्सी दूँगी न डंडा । ए.बी.ए. ऐसा अवसर नहीं आएगा कि यशोदा तुम्हें दही और मक्खन चुराने पर रस्सी से बांधे और दंड से तुम्हें मारे । हम सब न तो तुम्हारी चोरी की कलई यशोदा के सामने खोलेंगी और न तुम्हारे किये हुए अवगुणों को ही आकर कहेंगीं । अब न तुमसे वंशी बजाने का आग्रह करूंगी और न गीत गाने के लिए ही कहूँगी । पहले मैं तुमसे अपने पैरों में महावर लगवाती थी पर अब ऐसा नहीं करूंगी और न सर में चोटी गूंथने को कहूँगी और न उसे फूलों से अलंकृत करवाउंगी । न ही वट वृक्ष के नीचे बैठ कर तुम्हें श्रृंगार करने को कहूँगी और न यह आग्रह करूंगी कि तुम हमारे साथ यमुना तट पर निवास करो । मैं आभूषणों से अपनी भुजाओं को तुम्हरे कन्धों पर नहीं रखूंगी और रास मंडल में नृत्य करने के लिए भी नहीं कहूँगी । यदि तुम एक बार भी अपने दर्शन देकर प्रेम मार्ग को सफल कर दोगे तो तुम्हें आसन पर बैठाकर तुम्हारे ऊपर चंवर डुलाऊँगी अपने नेत्रों से तुम्हारे अंगों कि शोभा देखूँगी । हे कृष्ण ! अब विलम्ब न कीजिये । हमें अपने दर्शन दें । हम आपके दर्शनों के लिए आतुर हैं और तुमसे मिलने की मन में बड़ी आशा है । हमारे नेत्र तुम्हारी कुमारावस्था की शोभा का रसास्वादन करने के लिए आतुर हैं । हमारे नेत्रों में तुम्हारे दर्शनों की उत्कट चाह है ।

 

राग सारंग

कबहूँ सुधि करत गोपाल हमारी?
पूछत नंद पिता ऊधो सों अरु जसुमति महतारी॥
कबहुँ तौ चूक परी अनजानत, कह अबके पछिताने?
बासुदेव घर-भीतर आए हम अहीर नहिं जाने॥
पहिले गरग कह्यो हो हमसों, ‘या देखे जनि भूलै’।
सूरदास स्वामी के बिछुरे राति-दिवस उर सूलै॥१६४॥

 

नन्द और यशोदा उद्धव से पूछते हैं कि क्या श्री कृष्ण कभी हमारी याद भी करते हैं ? इसमें श्री कृष्ण के ईशरत्व का संकेत भी मिलता है ।

 

नन्द और यशोदा वात्सल्य भाव से प्रेरित हो कर उद्धव से कहते हैं कि हे उद्धव ! क्या श्री कृष्ण कभी हमारी भी याद करते हैं ? शायद अनजाने में हमसे कोई गलती हो गयी इसी कारण श्री कृष्ण हमसे नाराज हैं और ब्रज नहीं आ रहे हैं । किन्तु अब पश्चाताप करने से क्या लाभ । हमें गलती करनी ही नहीं चाहिए थी । वस्तुतः श्री कृष्ण जो ईश्वर के अवतार थे हमारे घर में आये । बहुत समय तक हमारे साथ रहे लेकिन हम गंवार अहीर इस मर्म को समझ नहीं सके । उन्हें साधारण मनुष्य ही समझा । गर्ग मुनि ने हमें पहले ही संकेत कर दिया था कि इन्हें देख कर भूल मत जाना अर्थात ये परब्रह्म के अवतार हैं । इसे स्मरण रखना । लेकिन माया मोह में हमने इस पर ध्यान नहीं दिया और उन्हें भूल गए । सूरदास के शब्दों में नन्द और यशोदा कह रहे हैं कि स्वामी श्री कृष्ण के बिछुड़ जाने से हम दोनों का ह्रदय रात दिन निरंतर पीड़ित रहता है । उनके बिछड़ने की पीड़ा ह्रदय से जाती नहीं ।

 

राग बिलावल

भली बात सुनियत हैं आज।
कोऊ कमलनयन पठयो है तन बनाय अपनो सो साज॥
बूझौ सखा कहौ कैसे कै, अब नाहीं कीबे कछु काज।
कंस मारि बसुदेव गृह आने, उग्रसेन को दीनो राज॥
राजा भए कहाँ है यह सुख, सुरभि-संग बन गोप-समाज?
अब जो सूर करौ कोउ कोटिक नाहिंन कान्ह रहत ब्रज आज॥१६५॥

 

उद्धव के आगमन पर कोई सखी किसी सखी से कह रही है कि लगता है श्री कृष्ण ने अपने ही जैसा रूप बनाकर किसी को यहाँ भेजा है 

 

हे सखी ! ब्रज में एक अच्छा समाचार सुना है । वह यह कि कमल नेत्र श्री कृष्ण ने किसी को अपने जैसे रूप में सज्जित कर के यहाँ भेजा है । चलो उनसे पूछें कि तुम्हारे सखा श्री कृष्ण का क्या समाचार है ? अब हमें कुछ अन्य कार्य नहीं करना है अर्थात उनसे मिलकर श्री कृष्ण का समाचार पूछने की इतनी जिज्ञासा बढ़ गयी है कि अन्य कार्य में अब मन नहीं लग रहा है । उनसे ऐसा समाचार मिला है कि श्री कृष्ण कंस को मार कर अपने पिता वसुदेव को बंदी गृह से छुड़ा कर लाये हैं और उन्होंने अपने नाना उग्रसेन को राज्य सौंप दिया है । ये यद्यपि अब राजा हो गए हैं लेकिन जो सुख उन्हें वहां मिल रहा है गाय के संग वन में और गोप समाज में वह सुख कहाँ मिलेगा ? इसी कारण हे सखी ! चाहे कोई करोड़ों उपाय करे, श्री कृष्ण अब ब्रज में आकर बसने वाले नहीं हैं । अब राज कुमार होने के बाद उनका स्वभाव पूर्णतया बदल गया है ।

 

राग नट

उधो! हम आजु भईं बड़भागी।
जैसे सुमन-गंध लै आवतु पवन मधुप अनुरागी।
अति आनंद बढ़्यो अँग अँग मैं, परै न यह सुख त्यागी।
बिसरे सब दुख देखत तुमको स्यामसुन्दर हम लागी[१]॥
ज्यों दर्पन मधि दृग निरखत जहँ हाथ तहाँ नहिं जाई।
त्यों ही सूर हम मिलीं साँवरे बिरह-बिथा बिसराई॥१६६॥

 

इसमें उद्धव को देखकर गोपियाँ कृष्ण मिलन जैसा सुख प्राप्त करती हैं और उनके दर्शन से अपने को सौभाग्यशालिनी समझती हैं ।

 

हे उद्धव ! आज आपका दर्शन करके हम सब अतिशय भाग्यशालिनी हो गयी हैं क्योंकि तुम हमारे प्रियतम श्री कृष्ण का सन्देश लेकर आये हो । तुम्हारे आगमन से हमारे अंग – प्रत्यंग में उसी प्रकार का सुख प्राप्त हुआ जैसे पवन पुष्पों की सुगंध ले कर जब आता है तो उन पुष्पों का प्रेमी मधुप उसे प्राप्त करके अपने अंग – अंग में आनंद का अनुभव करता है और ऐसे आनंद को उस से छोड़ते नहीं बनता । वह ऐसे आनंद में मग्न हो जाता है। तुम्हें देखते ही हम अपनी वियोग जन्य समस्त पीड़ा भूल गयीं और ऐसा लगा मानो हम सब श्याम सुन्दर से मिल गयीं । जैसे हम सबों को श्याम सुन्दर का दर्शन हो गया । तुम्हें नेत्रों से देखकर श्याम सुन्दर का प्रतिबिम्ब उसी प्रकार झलकने लगा जैसे दर्पण के मध्य प्रतिबिम्ब किन्तु उसे हाथों से स्पर्श नहीं किया जा सकता । हाथ वहां तक नहीं पहुँच सकते हैं । आशय यह है कि श्री कृष्ण की छाया ही तुम में दिखाई पड़ी । वास्तविक श्री कृष्ण को प्राप्त नहीं कर सकीं लेकिन इस प्रतिबिम्ब में हमें वही सुख मिला जो वास्तविक रूप में मिलता है । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! उस दर्पण की छाया की भांति हमने अपने श्याम सुन्दर का दर्शन करके अपने सभी दुखों को भुला दिया । आपको देख कर ऐसा लगा कि मानो साक्षात श्री कृष्ण ही आ गए हों। अतः इतना आनंद मिला कि सभी वियोग पीड़ा नष्ट हो गयी ।

 

राग सारंग

पाती सखि! मधुबन तें आई।
ऊधो-हाथ स्याम लिखि पठई, आय सुनौ, री माई!
अपने अपने गृह तें दौरीं लै पाती उर लाई।
नयनन नीर निरखि नहिं खंडित प्रेम न बिथा बुझाई॥
कहा करौं सूनो यह गोकुल हरि बिनु कछु न सुहाई।
सूरदास प्रभु कौन चूक तें स्याम सुरति बिसराई?॥१६७॥

 

उद्धव द्वारा प्रेषित श्री कृष्ण के पत्र को जान ने की जिज्ञासा से ब्रज मंडल की युवतियां अपने – अपने घर से निकल पड़ीं और उद्धव से पत्र को ले कर अपने ह्रदय से लगाने लगीं ।

 

हे सखी ! सुना है कि मथुरा से श्री कृष्ण का पत्र आया है । यह पत्र श्री कृष्ण ने स्वयं लिख कर उद्धव के हाथ से भिजवाया है । आकर सुनो तो उसमें उन्होनें क्या – क्या बातें लिखी हैं । पत्र की बातों को जानने की जिज्ञासा से गोपियाँ अपने – अपने घर से निकल पड़ीं और उद्धव के पास पहुंची तथा उनसे पत्र लेकर स्नेह से उसे अपने ह्रदय से लगाने लगी । गोपियों को वह पत्र अतिशय प्रिय लगा क्योंकि इसे श्याम ने अपने हाथों से लिखा है । वे श्री कृष्ण के उस प्रेममयी पत्र को पढ़ने लगीं । उस पत्र को देख कर उनके नेत्रों से अखंड जल की धारा अर्थात न रुकने वाले आंसू निकलने लगे और गोपियों के प्रेम और वियोग की पीड़ा इस से शांत न हो सकी और वे उद्धव से कहने लगीं कि हे उद्धव ! क्या करें श्री कृष्ण के बिना यह गोकुल सूना – सूना लग रहा है और उनके बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता अर्थात ब्रज और गोकुल में सब कुछ होते हुए भी श्री कृष्ण के बिना जैसे कुछ रह नहीं गया । यह सूना पन हम सब को खाये जा रहा है। सूरदास के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि हमसे क्या अपराध हो गया जिसके कारण श्याम ने हमारी सुधि भुला दी अर्थात हमें भुला दिया । गोपियाँ अपने ही अपराध को स्वीकार करती हैं और उपास्य को सर्वथा निरपराध समझती हैं ।

 

उद्धव-वचन

राग नट

सुनु गोपी हरि को सँदेस।
करि समाधि अंतर-गति चितवौ प्रभु को यह उपदेस॥
वै अबिगत, अबिनासी, पूरन, घटघट रहे समाय।
तिहि निश्चय कै ध्यावहु ऐसे सुचित कमलमन लाइ॥
यह उपाय करि बिरह तजौगी मिलै ब्रह्म तब आय।
तत्त्वज्ञान बिनु मुक्ति न होई निगम सुनाबत गाय॥
सुनत सँदेस दुसह माधव के गोपीजन बिलखानी।
सूर बिरह की कौन चलावै, नयन ढरत अति पानी॥१६८॥

 

 इस पद में उद्धव गोपियों को निर्गुण ब्रह्म की उपासना का उपदेश दे रहे हैं ।

 

हे गोपियों ! श्री कृष्ण ने जो सन्देश हमें तुम्हारे द्वारा भेजा है उसे सुनो । तुम सब समाधिस्थ हो कर अपने ह्रदय के भीतर देखो । वे परब्रह्म , अज्ञात , अविनाशी , पूर्ण और प्रत्येक के अंतःकरण में व्याप्त हैं । उस ब्रह्म को इस प्रकार स्वस्थ चित्त से दृढ़तापूर्वक कमल अर्थात योगियों के षट्चक्र जो कमल के रूप में माने जाते हैं उनमें मन लगाकर ध्यान करो अर्थात षट्चक्रों की साधना द्वारा उस ब्रह्म को प्राप्त करने की चेष्टा करो । इस प्रकार के उपायों द्वारा जब तुम श्री कृष्ण के वियोग को त्याग दोगी तब ब्रह्म का साक्षात्कार होगा अर्थात जब तुम श्री कृष्ण के प्रति अपने आसक्ति के भाव को त्याग कर एक मात्र ब्रह्मोपासना में अपने मन को लीन करो तभी ईश्वर की प्राप्ति होगी । वेद और शास्त्र भी यही कहते हैं कि बिना तत्वज्ञान के मुक्ति संभव नहीं है । श्री कृष्ण के ऐसे असह्य सन्देश को सुनते ही गोपियाँ व्याकुल हो उठीं । गोपियों को यह आशा नहीं थी कि श्री कृष्ण इस प्रकार के नीरस और दुखद सन्देश भिजवा कर उनके मानस को संतप्त करेंगे । सूरदास के शब्दों में गोपियों के विरह दुःख की चर्चा कौन करे । वे इतनी व्यकुलमना हो गयीं कि बिलख – बिलख कर रोने लगीं ।

 

राग सारंग

मधुकर! भली सुमति मति खोई।
हाँसी होन लगी या ब्रज में जोगै राखौ गोई॥
आतमराम लखावत डोलत घटघट व्यापक जोई।
चापे काँख फिरत निर्गुन को, ह्याँ गाहक नहिं कोई॥
प्रेम-बिथा सोई पै जानै जापै बीती होई।
तू नीरस एती कह जानै? बूझि देखिबे ओई॥
बड़ो दूत तू, बड़े ठौर को, कहिए बुद्धि बड़ोई।
सूरदास पूरीषहि षटपद! कहत फिरत है सोई॥१६९॥

 

गोपियाँ उद्धव के निर्गुण ज्ञान का उपहास कर रही हैं और कहती हैं कि तुम अपने इस योग को छिपा लो , अब मत दिखाओ क्योंकि ब्रज में सब जगह लोग इसकी हंसी उड़ाने लगे हैं।

 

हे भ्रमर ! तुमने योग क्या सीखा अपनी अच्छी बुद्धि भी खो दी अर्थात अब तुम्हारी गणना पागलों और अज्ञानियों में होने लगी है । इस ब्रजमंडल में सर्वत्र तुम्हारे ऊपर व्यंग कसे जा रहे हैं , हंसी उड़ाई जा रही है । अतः अपनी मर्यादा बचाना चाहते हो तो इस योग को छिपा कर रखो । अब इसे किसी को मत दिखाओ । आश्चर्य है कि तुम उस अंतर्यामी का साक्षात्कार कराते फिर रहे हो , रहे हो जो सबकी अंतरात्मा में व्याप्त है । तुम अपने निर्गुण ज्ञान को अपनी कांख में दबाये इसधर – उधर नाच रहे हो , अपनी बगल में दबाये चिंतित हो रहे हो , परन्तु यह अच्छे से समझ लो कि यहाँ इसका कोई भो ग्राहक नहीं है । इस योग और निर्गुण ब्रह्म विषयक चर्चा को सुनने वाला यहाँ कोई नहीं है । हे भ्रमर , हमारी प्रेम पीड़ा को तो निश्चित वही जान सकता है जिस पर बीती हो , जिसने इसका अनुभव किया हो । तुम नीरस शुष्क ज्ञानी इस प्रेम की महत्ता को क्या समझो ? यदि तुम जानना ही चाहते हो तो उसी कृष्ण से इसे पूछ के देखो । वे रसिक हैं , प्रेम तत्व के मर्म को जानते हैं , वे तुम्हें समझा देंगे । अरे तुम तो बहुत बड़े दूत हो , सब कुछ समझते हो और बड़े स्थान अर्थात मथुरा के निवासी हो तथा तुम्हारी बुद्धि भी बड़ी कही जाती है ।

 

राग सारंग

सुनियत ज्ञानकथा अलि गात।
जिहि मुख सुधा बेनुरवपूरित हरि प्रति छनहिं सुनात॥
जहँ लीलारस सखी-समाजहिं कहत कहत दिन जात।
बिधिना फेरि दियो सब देखत, तहँ षटपद समुझात॥
बिद्यमान रसरास लड़ैते कत मन इत अरुझात?
रूपरहित कछु बकत बदन ते मति कोउ ठग भुरवात॥
साधुबाद स्रुतिसार जानिकै उचित न मन बिसरात।
नँदनंदन कर-कमलन को छबि मुख उर पर परसात॥
एक एक ते सबै सयानी ब्रजसुँदरि न सकात।
सूर स्याम-रससिंधुगामिनी नहिं वह दसा हिरात॥१७०॥

 

इस पद में सखियाँ परस्पर उद्धव की बातों की निंदा कर रही हैं । उनका कहना है कि जहाँ जिस कृष्ण प्रेम में उनका मन अटक चुका है , वहां से हटा कर निर्गुण ब्रह्म की ओर उसे लगाना कहाँ तक उचित है ? यही नहीं ब्रह्मा द्वारा परिवर्तित इस स्थिति से गोपियों का मानस क्षुब्ध है ।

 

सखियाँ परस्पर कह रही हैं कि हे सखी ! श्री कृष्ण अपने जिस मुख से प्रति क्षण अमृतयुक्त वंशी की ध्वनि सुनाया करते थे , आज हम लोगों को बलात उद्धव की ज्ञान गाथा सुनाई पड़ रही है । एक समय ऐसा भी था जब श्री कृष्ण की नाना प्रकार की लीलाओं के आनंद की चर्चा करती हुयी सखियों का समय व्यतीत हो जाता था । आज ब्रह्मा ने उसे सब के देखते – देखते पलट दिया । वे सुखमय दिन समाप्त हो गए और आज ये अज्ञानी भ्रमर अर्थात उद्धव हमें निर्गुण का ज्ञान बिना किसी संकोच के सुना रहा है । रास में नृत्य का आनंद देने वाले प्रिय कृष्ण के होते हुए यह हमारा मन निर्गुण की ओर क्यों उलझे ? आनंद राशि श्री कृष्ण को छोड़ कर हमारा मन उद्धव की नीरस और आकर्षणहीन बातों में नहीं फंस सकता । वह किसी निराकार के सम्बन्ध में अपने मुख से कुछ उसी तरह मीठी – मीठी बातें कर रहा है जैसे कोई ठग किसी भोले – भाले व्यक्ति की बुद्धि को अपनी मीठी – मीठी बातों लगाने की चेष्टा करता है अर्थात अपनी चिकनी – चुपड़ी बातों से उसे ठग लेता है । हमें यह उद्धव उसी प्रकार का लग रहा है । पुनः गोपियाँ उद्धव को सम्बोधित करके कहने लगीं – हे उद्धव ! तुम्हारे इस वेद तत्व को जानकर हम सब प्रसन्न हैं । तुमने जो ऐसी वेदांत की बातें सुनाईं उसके लिए धन्यवाद किन्तु तुम हमारे मन को भुलाना चाहते हो अर्थात कृष्ण की ओर से हटा कर निर्गुण की ओर उन्मुख करना चाहते हो किन्तु हमारा मन विवश है और वह कृष्ण को छोड़कर अन्यत्र नहीं जा सकता । वह जो कृष्ण को नहीं भुला पाता हमारी दृष्टि में उचित और तर्क संगत है । हे उद्धव ! आज भी श्री कृष्ण के कमलवत हाथों से हमारे मुख और ह्रदय को स्पर्श करते थे तो उनके हाथों का वह लावण्य अमिट रूप से मुख और ह्रदय पर छा जाता था , उसका प्रभाव अभी भी बना हुआ है । ह्रदय उस छवि को भूलता नहीं है और मुख हाथों के कोमल स्पर्श से गदगद है । उद्धव जी ! यह अच्छे से जान लो कि ब्रज की सभी युवतियां एक से एक चतुर और कुशला हैं , वे किसी से डरती नहीं हैं । तुम्हारे निर्गुण ज्ञान से भी वे विचलित होने वाली नहीं हैं । सूर के शब्दों में वे श्री कृष्ण रुपी आनंद सागर में नदी की भाँति प्रवाहमान हैं । उसी ओर प्रवाहित हैं । जैसे नदियां अपने प्रियतम सागर में मिलकर आनंद का अनुभव करती हैं उसी प्रकार ये युवतियां प्रियतम श्री कृष्ण के आनंद की ओर उन्मुख हैं और अपने गंतव्य या लक्ष्य की दिशा को भूल नहीं सकतीं । मिलन की अवस्था उनके लिए अविस्मरणीय है ।

 

राग सारंग 

ऊधो! इतनी कहियो जाय।
अति कृसगात भई हैं तुम बिनु बहुत दुखारी गाय॥
जल समूह बरसत अँखियन तें, हूंकत लीने नाँव।
जहाँ जहाँ गोदोहन करते ढूँढ़त सोइ सोई ठाँव॥
परति पछार खाय तेहि तेहि थल अति व्याकुल ह्वै दीन।
मानहुँ सूर काढ़ि डारे हैं बारि मध्य तें मीन॥१७१॥

 

इसमें गोपियों ने उद्धव के समक्ष श्री कृष्ण के वियोग में व्याकुल गायों का बड़ा ही मार्मिक और यथार्थ वर्णन किया है ।

हे उद्धव ! तुम श्री कृष्ण से इतनी बातों का निवेदन अवश्य कर देना कि तुम्हारे वियोग में अति व्याकुलमना और दुःखित गायें बहुत क्षीणकाय हो गयी हैं । उनकी आँखों से निरंतर अश्रु की धारा बहती रहती है और यदि कोई तुम्हारा नाम लेता है तो वे हुंकारें मारने लगती हैं । वे बड़ी आतुरता से तुम्हें उन उन स्थानों पर ढूंढा करती हैं जहाँ तुमने उनका दुग्ध दोहन किया है और जब वे तुम्हें उन स्थलों पर नहीं पातीं तो वहीं पछाड़ खा कर गिर जाती हैं । उनकी दशा अत्यंत दयनीय है । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि वे श्री कृष्ण के वियोग में इस प्रकार संतप्त और मरणासन्न हैं जैसे पानी के बीच से मछलियों को निकाल दिए जाने पर वे निष्प्राण हो जाती हैं ।

 

राग सारंग 

ऊधो जोग सिखावन आए।
सिंघी , भस्म, अधारी, मुद्रा लै ब्रजनाथ पठाए॥
जौपै जोग लिख्यो गोपिन को, कत रसरास खिलाए?
तबहिं ज्ञान काहे न उपदेस्यो, अधर-सुधारस प्याए॥
मुरली सब्द सुनत बन गवनति सुत पति गृह बिसराए।
सूरदास रंग छाँड़ि स्याम को मनहिं रहे पछिताए॥१७२॥

 

योग की शिक्षा देने पर गोपियाँ उद्धव से क्रोधित हो कर कहती हैं कि क्या ब्रजनाथ ने तुम्हें इसी प्रयोजन से यहाँ भेजा है ?

 

हे उद्धव ! क्या तुम हम सब को योग का उपदेश देने के लिए पधारे हो ? ब्रजनाथ ने क्या तुम्हें इसी प्रयोजन से सिंघी , भस्म , अधारी और कुण्डल लेकर तुम्हारे हाथों भिजवाया है किन्तु हम लोगों कि समझ में यह बात नहीं आती कि यदि गोपियों के भाग्य में योग की शिक्षा ही लिखी थी तो श्री कृष्ण ने रास मंडल की नृत्य आदि क्रीड़ा हमारे साथ क्यों की । प्रारम्भ से ही उन्हें योग की शिक्षा देनी चाहिए थी । जब वे अपने अधरों के रस का पान कराते थे तब क्यों उन्होंने योग का उपदेश नहीं दिया ? अब मथुरा जाने पर उन्हें योग सूझ पड़ा । हम सब मुरली की ध्वनि सुनते ही पुत्र , पति और घर की सुधि भुलाकर वन की ओर चल पड़ती थीं । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि श्री कृष्ण का साथ छोड़ देने से आज भी हमारे मन में पछतावा है क्योंकि जब से हम श्री कृष्ण के सत्संग से वंचित हुयी हैं वैसा आनंदमय सुख हमें आज तक न मिला ।

 

राग सारंग

ऊधो! लहनौ अपनो पैए।
जो कछु विधना रची सो भइए आन दोष न लगैए॥
कहिए कहा जु कहत बनाई सोच हृदय पछितैए।
कुब्जा बर पावै मोहन सो, हमहीं जोग बतैए॥
आज्ञा होय सोई तुम कहिबो, बिनती यहै सुनैए।
सूरदास प्रभु-कृपा जानि जो दरसन सुधा पिबैए॥१७३॥

 

इस पद में गोपियाँ उद्धव के समक्ष अपना ही दोष स्वीकार करती हैं । इसमें गोपियों का दैन्य भाव व्यक्त हुआ है ।

 

हे उद्धव ! अपने भाग्य में जो लिखा है वह अवश्य मिलता है । अतः दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए क्योंकि ब्रह्मा ने जो भाग्य में रच दिया उसे कोई काट नहीं सकता , उसे वह निश्चय ही भोगेगा । तुम जो निर्गुण ज्ञान विषयक बहुत सी बातें गढ़ – गढ़ कर यहाँ कह रहे हो उनके सम्बन्ध में हम अधिक क्या कहें । यह हमारे कर्मों का ही फल है जो ऐसी बातें सुन रही हैं , जिन्हें सुन कर हमारे ह्रदय में अत्यंत पश्चाताप होता है । जब हम अपने भाग्य के बारे में सोचती हैं तो अपार दुःख होता है । भाग्य की ही बात है कि कुब्जा जैसी कुपात्री मोहन जैसे सत्पात्र वर को प्राप्त करे और हमें योग की शिक्षा दी जाये । यदि भाग्य की बात न होती तो क्या तुम हमें योग की शिक्षा देते और कुब्जा श्री कृष्ण को पति के रूप में वरण करती ? हे उद्धव! तुम्हें श्री कृष्ण की जो आज्ञा हुयी तुम उसका पालन करो अर्थात श्री कृष्ण ने तुम्हें हमारे सम्बन्ध में जो कुछ कहने को कहा हो तुम हमसे वही कहो , कुछ और नहीं सुनाओ । अंत में तुम हमारी एक प्रार्थना उनसे अवश्य कह देना कि हम अपने प्रति तुम्हारी बहुत बड़ी कृपा समझेंगीं । यदि तुम ब्रज में आकर एक बार अपने दर्शन का अमृत हम सब को पिला दो तो हम स्वयं को धन्य समझेंगे ।

 

राग सारंग 

ऊधो! कहा करैं लै पाती?
जौ लगि नाहिं गोपालहिं देखति बिरह दहति मेरी छाती॥
निमिष एक मोहिं बिसरत नाहिंन सरद-समय की राती।
मन तौ तबही तें हरि लीन्हों जब भयो मदन बराती॥
पीर पराई कह तुम जानौ तुम तो स्याम-सँघाती।
सूरदास स्वामी सों तुम पुनि कहियो ठकुरसुहाती॥१७४॥

 

यद्यपि श्री कृष्ण ने गोपियों को संतुष्ट करने के लिए उद्धव द्वारा पत्र भेजा है लेकिन गोपियाँ श्री कृष्ण के इस पत्र से संतुष्ट नहीं हैं । वे तो श्री कृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन द्वारा ही संतुष्ट हो सकती हैं । इस पद में वे उद्धव से अपनी यही बात कह रही हैं ।

 

हे उद्धव ! कृष्ण के इस पत्र को लेकर क्या करें । इस से हमारे वास्तविक उद्देश्य की पूर्ति तो होती नहीं क्योंकि जब तक श्री कृष्ण को हम इन आँखों से नहीं देख लेतीं तब तक हमारा यह ह्रदय उनके वियोग ताप से जलता ही रहेगा । हमें एक – एक पल के लिए शरद की उस रात का आनंद नहीं भूलता जब कृष्ण ने हमें वशीभूत कर लिया । अब श्री कृष्ण के वियोग में जो पीड़ा होती है उसे पराये की पीड़ा न समझने वाले तुम क्या जानो । तुम भी तो श्री कृष्ण के मित्र हो अर्थात तुम दोनों का स्वभाव एक समान है , जैसे दूसरों की पीड़ा श्री कृष्ण नहीं समझते । हमारे मन को मोहित कर के छोड़ दिया उसी प्रकार तुम भी हमारी दशा और वियोग की पीड़ा को नहीं समझ पा रहे हो । सूरदास के शब्दों में वियोगिनियाँ गोपियाँ कह रही हैं कि हे उद्धव ! तुम तो यहाँ से जाने पर पुनः ठकुर सुहाती कहोगे अर्थात वही बात श्री कृष्ण के पास जा कर कहोगे जो उन्हें भाती है । हमारी दशा से तुम्हें क्या प्रयोजन ? तात्पर्य यह है कि सत्य और यथार्थ बात तुम कहने वाले नहीं हो और तुम ब्रज की सच्ची – सच्ची बातों का उल्लेख नहीं करते तो श्री कृष्ण हम सब की यथार्थ दशा के बारे में क्या जान सकते हैं ?

 

राग सारंग 

ऊधौ! बिरहौ प्रेमु करै।
ज्यों बिनु पुट पट गहै न रंगहिं , पुट गहे रसहि परै॥
जौ आँवौ घट दहत अनल तनु तौ पुनि अमिय भरै।
जौ धरि बीज देह अंकुर चिरि तौ सत फरनि फरै॥
जौ सर सहत सुभट संमुख रन तौ रबिरथहि सरै।
सूर गोपाल प्रेमपथ-जल तें कोउ न दुखहिं डरै॥१७५॥

 

इस पद में गोपियों ने अपने विरह को भी अच्छा बताया है । उनके अनुसार जितनी अधिक वियोग की पीड़ा बढ़ती है उतना ही विरही के ह्रदय में अपने प्रियतम के लिए प्रेम भाव बढ़ता है ।

 

हे उद्धव ! हमारे लिए विरह भी अच्छा ही है क्योंकि विरह से प्रेम अपेक्षाकृत अधिक बढ़ता है । जैसे बिना पुट दिए वस्त्र रंग नहीं पकड़ता है अर्थात रंग पक्का नहीं होता और पुट देने पर रंग चढ़ जाता है और पक्का हो जाता है वैसे ही विरह से हमारे प्रेम का रंग पक्का होता जा रहा है । जैसे आंवां में घड़ा अपने शरीर को पहले जलाता है । आँवा में घड़ा जब बहुत पक्का हो जाता है तब वह अमृत धारण करने में समर्थ होता है क्योंकि कच्चा घड़ा तो अमृत या जल आदि धारण करने पर गाल जायेगा । तात्पर्य यह है कि जब तक विरह की पीड़ा बढ़ती नहीं तब तक सुधोपम प्रेम का स्वाद नहीं मिल सकता । इसी प्रकार जब बीज का शरीर पृथ्वी के नीचे फट कर अपने शरीर में अंकुर धारण करता है अर्थात पृथ्वी के नीचे जब बीज अपने को गलाता है तो उसमे अंकुर उत्पन्न होते हैं तब वही अंकुर वृक्ष के रूप में सैंकड़ों फल फैलने में समर्थ होता है । यदि अंकुर न होता तो सैंकड़ों सुन्दर फलों की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी । आशय यह है कि दुःखों का सामना किये बिना आनंद की उपलब्धि नहीं होती । जैसे योद्धा जब युद्धस्थल में अपनी छाती में शत्रु के बाणों की चोट सहता है तब वह सूर्य मंडल को भेदते हुए स्वर्ग की प्राप्ति करता है । ऐसा माना जाता है कि युद्ध स्थल में जो योद्धा युद्ध स्थल में अपने धर्म का पालन करते हुए मरता है वह सीधे स्वर्ग पहुँचता है । सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि अब श्री कृष्ण के प्रेम मार्ग पर चल कर कौन ऐसी है जो सुख और दुःख से दर जाये अर्थात सुख दुःख के भय से ब्रज में ऐसा कोई नहीं है जो प्रेम मार्ग को छोड़ दे ।

 

राग सारंग

ऊधो ! इतनी जाय कहो ।
सब बल्लभी कहत हरि सों ये दिन मधुपुरी रहो।।
आज काल तुमहूँ देखत हौ तपत तरनि सैम चंद ।
सुन्दर स्याम परम कोमल तनु क्यों सहिहैं नन्द नन्द ।।
मधुर मोर पिक परुष प्रबल अति बन उपवन चढ़ि बोलत ।
सिंह , बृकन सैम गाय बच्छ ब्रज बीथिन – बीथिन डोलत।।
आसन, असन, बसन , विष अहि सम भूषन भवन भण्डार ।
जित तित फिरत दुसह द्रुम द्रुम प्रति धनुष लए सत मार ।।
तुम तौ परम साधु कोमल मन जानत हाउ सब रीति ।
सूर स्याम को क्यों बोलैं ब्रज बिन टारे यह ईति।।176

 

गोपियाँ संकट की इस बेला में श्री कृष्ण को ब्रज मंडल में बुलाना नहीं चाहतीं । वियोग में आज वसंत ऋतु की सभी सुखद वस्तुएं दुखद हो गयीं हैं । अनुकूल परिस्थितियां प्रतिकूल हो गयी हैं अतः गोपियाँ ऐसे वातावरण में श्री कृष्ण को बुलाकर कष्ट नहीं देना चाहतीं । वे उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! श्री कृष्ण से कह देना कि अभी वे वहीं रहे यहाँ न आवें क्योंकि ब्रज में बसंत का आगमन हो गया है ।

 

हे उद्धव ! तुम हमारी इतनी बातें श्री कृष्ण से जाकर कह देना कि तुम्हारी सभी प्रेमिकाएं तुमसे यही निवेदन करती हैं कि तुम इस समय ब्रजमंडल में न आओ । यहाँ अभी आने पर तुम्हे कष्ट होगा जो हमें वांछनीय नहीं है । अभी तुम मथुरा में ही रहो । उद्धव जी ! तुमसे क्या छुपा है , तुम भी देख रहे हो कि आजकल शीतलता प्रदान करने वाला चन्द्रमा भी सूर्य की भांति संतप्त कर रहा है । भला सुन्दर श्याम और कोमल शरीर वाले हमारे श्याम सुन्दर इस ताप को कैसे सहन कर सकते हैं । उद्धव जी ! आप देख रहे हैं कि मधुर वाणी बोलने वाले मोर और कोयल बन और उपवन के वृक्षों पर चढ़कर आज अतिशय कठोर वाणी बोल कर हम सब को संत्रस्त कर रहे हैं । आशय यह है कि श्री कृष्ण के वियोग में इनकी मधुर वाणी भी कठोर और कटु प्रतीत होती है । समय के बदल जाने पर जो गायें और बछड़े हमें सुखद प्रतीत होते थे वे ही सिंह और भेड़िये के समान ब्रज की गली – गली में घूमते हुए प्रतीत हो रहे हैं । आशय यह है कि उन्हें देख कर हम सब उसी प्रकार डर जाती हैं जैसे सिंह और भेड़ियों को देख कर लोग संत्रस्त हो जाते हैं । श्री कृष्ण के चले जाने पर जब गोपियाँ गायों और बछड़ों को देखती हैं तो उनके मानस में श्री कृष्ण की मधुर स्मृतियाँ जाग उठती हैं और वे व्याकुल हो उठती हैं । आज वियोग में शय्या , भोजन और वस्त्र आदि सब विष के समान जला रहे हैं और आभूषण , भवन और भवन की वस्तुओं के भण्डार सर्पवत भयंकर लग रहे हैं । इन्हें देखने की इच्छा नहीं होती । यत्र – तत्र सर्वत्र प्रत्येक वृक्ष पर सैंकड़ों कामदेव असहनीय धनुष लिए घूम रहे हैं । हे उद्धव ! तुम तो बड़े ही कोमल स्वभाव के संत हो और चतुर भी हो । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! अब तुम्ही बताओ कि इन सब बाधाओं को दूर किये बिना हम श्री कृष्ण को यहाँ कैसे बुलाएं ? अर्थात उन्हें भी हमारी भांति यहाँ आने पर कष्ट होगा ।176

 

राग मलार

जो पै ऊधो ! हिरदय माँझ हरी ।
तौ पै इती अवज्ञा उन पै कैसे सही परी?
तबहि दवा द्रुम दहन न पाए , अब क्यों देह जरी?
सुन्दर स्याम निकसि उर तें हम सीतल क्यों न करी ?
इन्द्र रिसाय बरस नयनन मग , घटत न के घरी ।
भीजत सीत भीत तन काँपत रहे , गिरि क्यों न घरी ।।
कर कंकन दर्पन लै दोऊ अब यहि अनख मरी।
एतो मान सूर सुनि योग जु बिरहिनि बिरह धरी ।। 177

 

उद्धव का यह कथन कि श्री कृष्ण ब्रह्म रूप में सबके घाट में व्याप्त हैं , गोपियों को मान्य नहीं है । वे प्रश्न करती हैं कि यदि ब्रह्म रूप श्री कृष्ण ह्रदय में हैं तो हम लोगों के ऐसे संकट के समय में वे प्रकट क्यों नहीं होते ?

 

हे उद्धव ! यदि तुम्हारे कथनानुसार ब्रह्म रूप श्री कृष्ण ह्रदय में ही हैं तो हम सबों के ऐसे संकट को देखकर भी वे क्यों नहीं प्रकट होते ? उनसे हम लोगों की ऐसी उपेक्षा कैसे करते बना ? पहले जब वे ब्रज में थे तो उन्होंने दावाग्नि लगने पर एक भी वृक्ष को जलने नहीं दिया । सब की रक्षा की और आज जब हम सब वियोगाग्नि जल रही हैं तो वे कहाँ हैं ? हमें क्यों नहीं बचाते ? अब यह शरीर उन्होंने क्यों जलने दिया और श्यामसुंदर ने ह्रदय से निकल कर क्यों नहीं इस जलते शरीर को शीतल किया ? तात्पर्य यह है कि तुम जिस कृष्ण को ब्रह्म के रूप में घट – घट वासी कहते हो उसमें हमारा विश्वास नहीं है । हमारे कृष्ण तो मथुरा में हैं और हमें वियोगिनी के रूप में छोड़ कर चले गए । यदि कृष्ण यहाँ होते तो इस समय जो इन्द्र नाराज होकर नेत्रों के मार्ग से जल वृष्टि कर रहा है और जो जल एक घड़ी के लिए भी बंद नहीं होता उसे देख कर वे चुप कैसे बैठते ? क्योंकि एक समय इन्द्र के नाराज होने पर उन्होंने गोवर्धन पर्वत उठा कर हमारी रक्षा की थी और इस अखंड अश्रु – प्रवाह से भीग कर शीतलता के भय से कांपती हुयी हम सब की दशा को देख कर गोवर्धन पर्वत क्यों नहीं धारण करते ? हे उद्धव ! हाथों में कंकण और दर्पण ले कर हम सब अब कुढ़न से मरी जा रही हैं अर्थात जब वियोग में शरीर की कृशता से ढीले कंकण को और हाथ में दर्पण ले कर मुख के पीलेपन की ओर देखती हैं तो बड़ी कुढ़न पैदा होती है । सूर के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि वियोग का इतना अधिक कष्ट सहने पर भी हमारे लिए अब योग से बढ़ कर वियोग ही है । व्यंजना यह है कि अब हम योग से भी अधिक कष्ट जब वियोग में सह रही हैं तो योग साधना की क्या आवश्यकता है ? हमारे लिए योग से बढ़ कर वियोग ही है ।

 

राग मलार

ऊधो ! इतै हितूकर रहियो ।
या ब्रज के ब्योहार जिते हैं सब हरि सों कहियो ।।
देखि जात अपनी इन आँखिन दावानल दहियो ।
कहँ लौं कहौं बिथा अति लाजति यह मन को सहियो।।
कितौ प्रहार करत मकरध्वज ह्रदय फारि चहियो ।
यह तन नहिं जरि जात सूर प्रभु नयनन को बहियो ।।178

 

गोपियाँ इस पद में उद्धव से निवेदन कर रहीं हैं कि इस समय ब्रजवासियों की जो दशा है लेकिन इधर भी अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखना अर्थात कृपालु होकर इस ब्रज मंडल की समस्त बातों का निवेदन श्री कृष्ण से सत्य – सत्य कह देना ।

 

हे उद्धव ! तुम अपनी आँखों से देखे ही जा रहे हो कि हम सब किस प्रकार वियोग की दावग्नि में जल रही हैं अतः तुमसे बढ़ कर यहाँ की यथार्थता का वर्णन अन्य कौन कर सकता है ? हे उद्धव ! हम अपने इस मन की सहनशीलता का वर्णन तुमसे क्या करें । इसमें इतनी व्यथा और पीड़ा रहती है कि उसे वह निरंतर सहता रहता है । इस सहनशीलता को देख कर स्वयं व्यथा भी लज्जित हो जाती है । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि यह शरीर वियोग की ज्वाला में भस्म हो जाता लेकिन अश्रु प्रवाह के कारण यह निरंतर शीतल होता रहता है इस से यह नष्ट होने से बच जाता है ।

राग मलार

ऊधो ! यहि ब्रज बिरह बढ्यो।
घर , बाहर , सरिता , बन , उपवन , बल्ली द्रुमन चढ़्यो ।।
बासर – रैन सधूम भयानक दिसि दिसि तिमिर मढ़्यो ।
द्वन्द करत अति प्रबल होत पुर , पय सों अनल डढ़्यो।
जरि किन होत भस्म छान महियाँ हा हरि , मंत्र पढ्यो।
सूरदास प्रभु नन्द नंदन नाहिन जात कढ्यो।।179

इस पद में गोपियों के वियोग का अति रंजना पूर्ण वर्णन हुआ है गोपियों के वियोग की यह आग उनके शरीर तक ही सीमित नहीं है बल्कि वह प्रकृति की प्रत्येक वस्तु में व्याप्त हो गयी है ।

 

हे उद्धव ! इस ब्रजमंडल में वियोग की जवाला बढ़ गयी है और वह इतनी अधिक बढ़ गयी है कि केवल हम लोगों के शरीर को ही दग्ध नहीं कर रही है बल्कि वियोग की इस ज्वाला से समस्त प्रकृति प्रभावित है । यह वियोगाग्नि घर , बाहर , नदी , वन , उपवन , लता और वृक्षों में चढ़ गयी है । सभी इस ज्वाला से जल रहे हैं । यह ज्वाला धूम्र से युक्त है । इस आग से इतने धुएं निकल रहे हैं कि प्रत्येक दिशा में भयानक अन्धकार छा गया , कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता । यह विरहानल गाँव – गाँव में अति प्रबल होकर उत्पात मचा रहा है और पानी पड़ने से अर्थात अश्रु प्रवाह से और बढ़ जाता है । हे उद्धव ! हम सब इसमें इसलिए भस्म होने से बच जाती हैं कि निरंतर ‘ हा हरि , हा हरि ‘ रुपी मंत्र पढ़ा करती हैं अर्थात हम सबों का व्यथित मन से ‘ हा हरि , हा हरि ‘ शब्दों का उच्चारण ही मंत्र समान है जिस से हम सब वियोगानल से अपने प्राणों की रक्षा करती हैं । सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन हैं कि हे उद्धव ! वियोग की यह आग चतुर्दिक लग गयी है अतः नन्द नंदन के बिना उस से निकलने का कोई उपाय नहीं सूझता । आशय यह है कि जब तक श्री कृष्ण का दर्शन न होगा तब तक यह वियोगाग्नि शांत होने वाली नहीं है ।

राग धना श्री

ऊधो ! तुम कहियो ऐसे गोकुल आवैं ।
दिन दस रहे सो भली कीनी अब जनि गहरु लगावैं ।।
तुम बिनु कछु न सुहाय प्रानपति कानन भवन न भावैं ।
बाल बिलख , मुख गो न चरत तृन, बछरनि छीर न प्यावैं ।।
देखत अपनी आँखिन , ऊधो , हम कहि कहा जनावैं।
सूर स्याम बिनु तपति रैन दिनु हरिहि मिले सचुपावैं ।।180

 

गोपियाँ उद्धव से निवेदन करते हुए कहती हैं कि तुम श्री कृष्ण को यहाँ की मार्मिक दशा का वर्णन इस ढंग से करना कि वे इस से प्रभावित होकर गोकुल लौट आवें ।

 

हे उद्धव ! तुम ब्रजमंडल कि दशा का उल्लेख इस प्रकार से करना जिस से प्रभावित हो कर श्री कृष्ण गोकुल लौट आवें । उनसे कह देना कि थोड़े दिन वे मथुरा में बस गए यह अच्छा ही हुआ किन्तु अब यहाँ आने में देरी न करें । हे प्राणपति ! तुम्हारे बिना हमें कुछ अच्छा नहीं लगता । अब न तो हमें घर भाता है न बन । कहीं भी रहने पर तुम्हारी चिंता हमें लगी रहती है । तुम्हारे बिना ब्रज के सभी बच्चे सदा रोते रहते हैं और गायें तो इतनी दुखी रहती हैं कि मुख से घास भी नहीं चरती अर्थात खाना – पीना छोड़ के बैठी हैं और अपने बछड़ों को दूध भी नहीं पिलातीं । तुम तो यहाँ की दशा अपनी आँखों से देख ही रहे हो , उसे कह कर तुम्हें क्या बताएं । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हे उद्धव ! हम सब वियोग की ज्वाला में दिन – रात जलती रहती हैं और हम लोगों को शान्ति नहीं मिलती । हम सबों को सुख और शांति श्री कृष्ण के दर्शन से ही मिल सकती है ।

 

राग धनाश्री

ऊधो ! अब जो कान्ह न ऐहैं।
जिय जानौ अरु ह्रदय बिचारौ हम न इते दुःख सेहैं ।।
बूझौ जाय कौन के ढोटा , का उत्तर तब दैहैं ?
खायो , खेल्यो संग हमारे , ताको कहा बनैहैं।।
गोकुलमनि मथुरा के बासी कौ लों झूठो कैहैं ।
अब हम लिखि पठवन चाहति हैं वहां पाँति नहिं पैहैं ।।
इन गैयन चरिबो छांड्यौ है जो नहिं लाल चरैहैं ।
एते पै नहिं मिलत सूर प्रभु फिरि पाछे पछितैहैं ।। 181

 

कृष्ण दर्शन से वंचित गोपियाँ अब वियोग का कष्ट अधिक नहीं सह सकतीं अतः असमर्थ होकर उन्हें कहना पड़ा कि इतने कष्ट पर भी यदि वे दर्शन नहीं देते तो अंततः उन्हें पछताना पड़ेगा क्योंकि मथुरा में उनकी कलई खोल देने पर वे जाति बहिष्कृत हो जाएंगे और यहाँ आने पर हमें न पाएंगे । ये दोनों ओर से चले जाएंगे ।

 

हे उद्धव ! इतनी प्रतीक्षा के पश्चात यदि अब कृष्ण नहीं आते तो इसे अपने मन में समझ लो और ह्रदय में विचार कर लो , हम सब उनके बिना इतना दुःख सहने को तैयार नहीं हैं । श्री कृष्ण के वियोग की जितनी पीड़ा हम लोगों ने सही है शायद ही कोई सह सके । इस पीड़ा की हद हो गयी । यदि तुम जाकर उनसे पूछो कि वे किसके पुत्र हैं तो वे इसका क्या उत्तर देंगे ? उनके पास इसका कोई उत्तर नहीं है । वे बचपन से तो हमारे साथ ही खेलते खाते रहे । अन्यत्र तो कहीं गए नहीं । इसके सम्बन्ध में वे क्या बात गढ़ लेंगे । इसको वे कहाँ तक छुपायेंगे क्योंकि इस बात को तो सारा संसार जानता है । वे कब तक गोकुल के शिरोमणि हो कर अपने को झूठे रूप में मथुरावासी सिद्ध करते फिरेंगे । वस्तुतः वे तो गोकुल के ही हैं , यहीं उनका बचपन बीता , अब थोड़े दिनों से वे मथुरा में रहने लगे तो क्या वे मथुरावासी हो जायेंगे ? गोपियाँ श्री कृष्ण के मथुरावासी रूप को स्वीकार नहीं करतीं । उनके लिए तो गोकुलवासी श्री कृष्ण ही पूज्य हैं । अभी तक तो हम सब श्री कृष्ण के साथ सनकोच करती रहीं , अब सभी संकोच को त्याग कर मथुरावासियों के पास एक पत्र भेजकर इनकी सब कलई खोल देना चाहती हैं । इनकी वास्तविकता का ज्ञान हो जाने पर ये अपनी जाति से बहिष्कृत कर दिए जाएंगे और अपने जाति वालों की  पंगत में नहीं बैठ पाएंगे । यह भी कह देना कि जब से तुम गए हो तुम्हारी इन गायों ने चरना छोड़ दिया है और आकर इन्हें पहले की भांति नहीं चराओगे तो ये निश्चित ही मर जायेंगीं । ब्रज की इन दशाओं का भान होने पर भी यदि तुम्हारा दर्शन नहीं होता तो इसके लिए तुम्हें पछताना पड़ेगा ।

 

 

 

Soordas Bhramar Geet – Part 1

 

 

 

Surdas Bhramar Geet – Part 2

 

 

 

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Surdas Bhramar Geet – Part 5

 

 

 

 

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