Gopal Upanishad with hindi meaning

Gopal Upanishad with Hindi meaning। । गोपाल उपनिषद । । गोपालपूर्वतापिन्युपनिषद् | गोपाल उपनिषद हिंदी अर्थ सहित | Gopal Upanishad | Gopal Upanishad in hindi 

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Gopal Upanishad with hindi meaning

 

 

 

कृषिर्भवाचकः शब्दो नश्च निर्वृतिवाचकः ।

तयोरैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ॥

सच्चिदानन्दरूपाय कृष्णायाक्लिष्टकर्मणे।

नमो वेदान्तवेद्याय गुरवे बुद्धिसाक्षिणे॥1

 

कृष’ शब्द सत्तावाचक है और ‘ ण ‘ शब्द निवृत्ति अर्थात् परमानन्द बोधक है। इन दोनों की समीपता ही सच्चिदानन्दमय परमेश्वर ‘ श्रीकृष्ण ‘ के नाम का प्रतिपादन करती है। ‘कृष्’-धातु में ‘ण’–प्रत्यय युक्त करके ‘कृष्ण’ शब्द में परमब्रह्म प्रतिपादित हुआ है। ‘कृष्ण’ शब्द से आनन्दमयी सत्ता को समझना चाहिए। अनायास ही सभी कुछ कर सकने में समर्थ सच्चिदानन्दमय भगवान् श्रीकृष्ण को, जो वेदान्त के द्वारा जानने योग्य हैं, वे ( हम ) सभी की बुद्धि के साक्षी एवं सम्पूर्ण विश्व के गुरु हैं। ऐसे श्रीकृष्ण को सादर नमन-वंदन है ॥

[वेदान्त में इसे ‘आनन्दं ब्रह्म’ कहते हैं, अर्थात् ब्रह्म आनन्दमय है, परन्तु कृष्ण में वह आनन्द प्रचुर मात्रा में है, अर्थात् कृष्ण का आनन्द असीम है, जो कि ब्रह्मानन्द का भी आधार है। दूसरी ओर भगवान् रस स्वरूप हैं, सुख स्वरूप एवं आनन्द स्वरूप हैं वे (परम पुरुष कृष्ण) रस स्वरूप हैं। उस रस (आनन्द) का जो पान करते हैं, वे ‘आनन्दी’ होते हैं। उपनिषद् में ‘सः’ शब्द के द्वारा ‘कृष्ण’ को ही इंगित किया गया है।

‘कृष्ण’ अर्थात वो जो आकर्षण करके आनन्द देते हैं और स्वयं आनन्दित होते हैं, वे ही ‘कृष्ण’ हैं। अर्थात् कृष्ण का अर्थ है – सर्वाकर्षक, सर्वानन्ददायक। कृष्ण अणु से भी अणु परमात्मा और विभु से भी विभु ब्रह्म हैं एवं विचित्र प्रकार की अनन्य लीला करने वाले हैं।भगवान् अनन्त रूपों से जो अनन्त लीलायें करते हैं उनमें से श्री कृष्ण स्वयं रूप हैं।प्रत्येक युग में जब भी जगत् असुरों से पीड़ित होता है, तब असुरों के उपद्रव से जगत् की रक्षा करने के लिए ये अवतार हुआ करते हैं। किन्तु, व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण तो साक्षात् स्वयं-भगवान् (अवतारी) हैं।

श्री कृष्ण समस्त अवतारों के कारण-अवतारीं हैं, स्वयं भगवान् हैं।सच्चिदानंदविग्रह श्रीगोविन्द कृष्ण ही परमेश्वर हैं। वे अनादि, सबके आदि और समस्त कारणों के कारण हैं।जीव की हर प्रकार की इच्छित वस्तु की सर्वोत्तम परिपूर्ति एक मात्र नन्दनन्दन श्रीकृष्ण की आराधना से ही हो सकती है। उनका न तो कोई कारण है, न कोई उनके समान है, उनसे अधिक होने का तो प्रश्न ही नहीं है। अतः उन भगवान् को जानने के लिये उनकी कृपा के अतिरिक्त किसी अन्य उपाय को स्वीकार नहीं किया जा सकता। ]

 

मुनयो ह वै ब्राह्मणमूचुः ।

कः परमो देवः ।

कुतो मृत्युर्बिभेति ।

कस्य विज्ञानेनाखिलं विज्ञातं भवति।

केनेदं विश्वं संसरतीति ॥2

 

एक बार मुनियों ने पितामह ब्रह्मा जी से प्रश्न किया-

हे भगवन् ! कौन देवता सर्वश्रेष्ठ है? किससे मृत्यु भयभीत होती है ? किसके तत्व को सम्यक् रूप से जान लेने के पश्चात् सभी कुछ पूर्णतया ज्ञात हो जाता है ? यह जगत् किसके द्वारा प्रेरित होकर आवागमन के चक्र में भ्रमण करता रहता है ॥

 

तदु होवाच ब्राह्मणः ।

कृष्णो वै परमं दैवतम्।

गोविन्दान्मृत्युर्बिभेति ।

गोपीजनवल्लभ-

ज्ञानेनैतद्विज्ञातं भवति ।

स्वाहेदं विश्वं संसरतीति ॥3

 

इन समस्त प्रश्नों का समाधान करते हुए भगवान् ब्रह्मा जी ने मुनियों से कहा-

हे मुनियों ! ‘ श्रीकृष्ण ‘ ही सर्वश्रेष्ठ देवता हैं। ‘ गोविन्द ‘ से मृत्यु भी भयभीत रहती हैं। ‘ गोपीजन वल्लभ ‘ के तत्त्व को पूर्णतः जान लेने से सभी कुल सम्यक् रूप से ज्ञात हो जाता है। ‘ स्वाहा ‘ रूपी मायाशक्ति से प्रेरित हुआ यह समस्त जगत् गमनागमन के चक्र में भ्रमणरत रहता है ॥

 

 

 

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तद् होचुः ।

कः कृष्णः ।

गोविन्दश्च कोऽसाविति।

गोपीजनवल्लभश्च कः ।

का स्वाहेति ॥4

 

तदनन्तर उन मुनिजनों ने पुनः प्रश्न किया-

हे भगवन् ! वे ‘ श्रीकृष्ण’ एवं गोविन्द कौन हैं ? गोपीजन वल्लभ कौन हैं? तथा वह ‘स्वाहा’ कौन है? कृपा करके बताने का अनुग्रह करें ।।

 

तानुवाच ब्राह्मणः ।

पापकर्षणो गोभूमिवेदविदितो

गोपीजनविद्याकलापीप्रेरकः ।

तन्माया चेति सकलं परं ब्रह्मैव तत्।

यो ध्यायति रसति भजति सोऽमृतो भवतीति ॥5

ते होचुः किं तद्रूपं कि रसनं किमाहो

तद्भजनं तत्सर्वं विविदिषतामाख्याहीति ॥6

 

ऐसा सुनकर ब्रह्मा जी ने उन मुनिजनों को आश्वस्त करते हुए कहा-

हे मुनियों ! ‘ श्रीकृष्ण ‘ ही पापों का अपहरण  करने वाले हैं। वही गौ, भूमि एवं वेदवाणी के ज्ञातारूप से प्रख्यात सर्वज्ञ हरिरूप में गोविन्द हैं। वे गोपीजनवल्लभ -गोपीजनों के विद्या कला आदि के प्रेरक हैं और इन्हीं की मायाशक्ति ‘ स्वाहा ‘ है। यह सभी ब्रह्ममयी है। इस प्रकार से जो मनुष्य उन ‘ श्रीकृष्ण ‘ नाम से प्रख्यात परब्रह्म का ध्यान एवं जपादि के द्वारा नामामृत का पान करता है एवं उनके भजन-कीर्तन आदि में निरन्तर संलग्न रहता है, निश्चय ही वह अमृतत्व को प्राप्त होता है।

तदनन्तर उन मुनियों ने पुनः पूछा-

हे पितामह ! ध्यान करने के अनुकूल श्रीकृष्ण का कैसा रूप होना चाहिए? उनके नाम-रूप अमृत का रसास्वादन कैसा होता है ? तथा उनका भजन-कीर्तन किस तरह से किया जाता है? कृपापूर्वक स्पष्टतया बताने का अनुग्रह करें ॥

 

तदु होवाच हैरण्यो गोपवेषमभ्राभं तरुणं कल्पद्रुमाश्रितम् ॥7

 

तदनन्तर वे हिरण्यगर्भ भगवान् ब्रह्माजी बोले-

हे मुनियों ! उन अविनाशी भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करने योग्य रूप का वर्णन इस प्रकार है- उनका वेश ग्वाल-बालों के अनुरूप है, उनका वर्ण ( रंग ) नवीन जलधर की भाँति श्याम है, किशोरावस्था है और वे भगवान् श्रीकृष्ण दिव्य कल्पवृक्ष के नीचे विराजमान हैं ।।

 

तदिह श्लोका भवन्ति–

सत्पुण्डरीकनयनं मेघाभं वैद्युताम्बरम्।

द्विभुजं ज्ञानमुद्राढयं वनमालिनमीश्वरम् ॥8

गोपगोपाङ्गनावीतं सुरद्रुमतलाश्रितम्।

दिव्यालंकरणोपेतं रत्नपङ्कजमध्यगम्॥9

कालिन्दीजलकल्लोलसङ्गिमारुतसेवितम्।

चिन्तयंशचेतसा कृष्णं मुक्तो भवति संसृतेः ॥10

 

इसी सन्दर्भ में ये श्लोक हैं-

भगवान् श्रीकृष्ण’ के नेत्र खिले हुए श्वेत कमल के समान हैं, उनके श्री अङ्गों की आभा मेघ के सदृश श्याम है, वे विद्युत् के समान तेजोमय पीताम्बर को धारण किये हुए हैं, दोनों भुजाओं से युक्त हो ज्ञान मुद्रा में अवस्थित हैं। उनके गले में लम्बी वनमाला सुशोभित हो रही है, वे महान् ईश्वर हैं। गोप एवं गोप सुन्दरियों के द्वारा वे चारों ओर से आवृत हैं। वे कल्पवृक्ष के नीचे अवस्थित हैं। उनका श्रीविग्रह ( शरीर ) दिव्य वस्त्राभूषणों से सुशोभित है। रत्नजटित सिंहासन पर रत्नमय कमल के मध्य भाग में वे विद्यमान हैं। कालिन्दी ( यमुना ) के जल से उठती हुई चञ्चल लहरों को चूमकर प्रवाहित होने वाली शीतल सुवासित वायु उन भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा में रत है। इस मनमोहक रूप में श्रीकृष्ण का मन से ध्यान करने वाला भक्त सांसारिक बन्धनों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है।।

 

तस्य पुना रसनमिति जलभूमीन्दु

संपातः कामादिकृष्णायेत्येकं पदम्।

गोविन्दायेति द्वितीयम्।

गोपीजनेति तृतीयम्।

वल्लभायेति तुरीयम्।

स्वाहेति पञ्चममिति ॥

पञ्चपदं जपन्पश्क्जञ्चाङ्ग

द्यावाभूमिसूर्याचन्द्रमसौ

साग्नी तद्रूपतया ब्रह्म संपद्यते

ब्रह्म संपद्यत इति।।11

 

इसके पश्चात् उन भगवान् श्रीकृष्ण के नाम रूपी अमृत के रसास्वादन एवं मन्त्र-जप का उल्लेख करते हैं-

जल ( क ), भूमि ( ल ), ईकार, इन्दुः (अनुस्वार ं ) का समूह ( ‘ क्लीं ‘) शब्द ही कामबीज है। इस बीजमन्त्र को प्रारम्भ में रखते हुए ‘ कृष्णाय ‘ पद का उच्चारण करना चाहिए। अतः ‘ क्लीं कृष्णाय ’ पूरे मंत्र का प्रथम पद हुआ। ‘ गोविन्दाय ‘ यह द्वितीय पद है। ‘ गोपीजन ‘ यह तृतीय पद है। ‘ वल्लभाय ‘ चतुर्थ पद है और ‘स्वाहा’ यह पञ्चम पद है। पाँच पदों से युक्त यह मन्त्र ‘ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा ‘ हुआ। यह पञ्चपदी के नाम से जाना जाता है। पृथ्वी, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा एवं अग्नि आदि का प्रकाशक होने के कारण यह चिन्मय मन्त्र पाँच अङ्गों का सम्मिलित रूप है। जो साधक इस मंत्र के द्वारा जप एवं भजन-कीर्तन आदि करता है, वह परब्रह्ममय भगवान् श्रीकृष्ण को प्राप्त करता है॥

 

 

 

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तदेष श्लोकः-

क्लीमित्येतदादावादाय कृष्णाय

गोविन्दाय गोपीजनवल्लभायेति

बृहन्भानव्या सकृदुच्चरेद्योऽसौ

गतिस्तस्यास्ति मङ्क्षु नान्या गतिः स्यादिति ॥12

 

इस सन्दर्भ में यह श्लोक है-

इस ‘ क्लीं ‘ कामबीज को प्रारम्भ में रखकर जो साधक ‘ कृष्णाय ‘, ‘ गोविन्दाय ‘, ‘ गोपीजन वल्लभाय ‘ पदों का बृहन् भानव्य अर्थात् स्वाहा के साथ उच्चारण करेगा, उसे शीघ्रातिशीघ्र (श्रीकृष्ण-मिलनरुपा) श्रेष्ठ सद्गति मिलेगी। उस साधक के लिए दूसरी अन्य कोई गति नहीं है॥

 

भक्तिरस्य भजनम्।

तदिहामुत्रोपाधिनैराश्येना

मुष्मिन्मनः कल्पनम् ।

एतदेव च नैष्कर्म्यम्॥14

 

इन भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति अटूट भक्ति ही भजन है। इस लोक एवं परलोक के सम्पूर्ण भोगों की आकांक्षा का हमेशा के लिए परित्याग कर देना और श्रीकृष्ण में इन्द्रियों के सहित मन को लगा देना ही वास्तविक भजन का स्वरूप है। यही नैष्कर्म्य अर्थात् वास्तविक संन्यास है॥

 

कृष्णं तं विप्रा बहुधा यजन्ति

गोविन्दं सन्तं बहुधाऽऽराधयन्ति।

गोपीजनवल्लभो भुवनानि दधे

स्वाहाश्रितो जगदैजत्सुरेताः ॥15

 

वेदज्ञ विद्वज्जन उन सच्चिदानन्द स्वरूप ‘ श्रीकृष्ण ‘ का भिन्न-भिन्न प्रकार से यजन-पूजन सम्पन्न करते हैं। ‘ गोविन्द ‘ नाम से प्रख्यात उन ‘ श्रीकृष्ण ‘ को विभिन्न तरह से स्तुति-प्रार्थना करते हैं, वे ‘ गोपीजन-वल्लभ ‘ ( श्याम सुन्दर ही ) समस्त लोकों का पालन-पोषण करते हैं तथा संकल्परुप श्रेष्ठ शक्तिसम्पन्न उन परमेश्वर ने ही ‘ स्वाहा ‘ नामक माया-शक्ति का आश्रय प्राप्त करके इस जगत् को प्रकट किया है॥

 

वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो जन्ये

जन्ये पञ्चरूपो बभूव।

कृष्णस्तथैकोऽपि जगद्धितार्थं

शब्देनासौ पञ्चपदो विभातीति ॥16

 

जिस प्रकार सम्पूर्ण जगत् में संव्याप्त एक ही वायुतत्त्व प्रत्येक शरीर के अन्त में प्राण आदि पञ्च रूपों से जाना जाता है, वैसे ही ‘ श्रीकृष्ण ‘ एक होते हुए भी जगत् के कल्याण के लिए इस ऊपर कहे हुए मत्र में अलग-अलग नाम से पाँच पदों वाले जाने जाते हैं।।

 

ते होचुरुपासनमेतस्य परमात्मनो

गोविन्दस्याखिलाधारिणो ब्रूहीति ॥17

 

इसके पश्चात् उन समस्त मुनियों ने कहा-

हे पितामह ! सम्पूर्ण विश्व के आश्रयभूत परमब्रह्म गोविन्द की उपासना किस प्रकार की जाती है? कृपापूर्वक उपदेश देने का अनुग्रह करें ॥

 

तानुवाच यत्तस्य पीठं हैरण्यापलाशमम्बुजं

तदन्तरालिकानलास्त्रयुगं तदन्तरालाद्यर्णा-

खिलबीजं कृष्णाय नम इति बीजाढ्यं स

ब्रह्माणमादायानङ्गगायत्रीं यथावद्वयालिख्य

भूमण्डलं शूलवेष्टितं कृत्वाङ्गवासुदेवादि

रुक्मिण्यादिस्वशक्तीन्द्रादिवसुदेवादि

पार्थादिनिध्यावीतं यजेत्संध्यासु प्रतिपत्तिभिरुषचारैः।

तेनास्याखिलं भवत्यखिलं भवतीति ॥18

 

तदनन्तर ब्रह्माजी उन मुनियों से भगवान् श्रीकृष्ण के पीठ ( गोपाल-यंत्र ) का वर्णन करते हुए बोले –

हे मुनियों ! सर्वप्रथम पीठ पर सुवर्ण से युक्त अष्टदल कमल का निर्माण करे। उसके बीच में एक-दूसरे से उल्टे दो त्रिकोण बनावे। इससे छ: कोण विनिर्मित होंगे। इन कोणों के बीच में स्थित कर्णिका में आदि अक्षर स्वरूप कामबीज ( क्लीं ) का उल्लेख करे। यह बीजमन्त्र सभी कार्यों की सिद्धि का अमोघ माध्यम है । इसके बाद हर एक कोण में ‘ क्लीं ‘ बीज से युक्त ‘ कृष्णाय नम: ‘ मंत्र के एक-एक अक्षर को लिखे। तदनन्तर ब्रह्म-मन्त्र ( अष्टादशाक्षर गोपाल विद्या ) तथा काम-गायत्री ( कामदेवाय विद्महे, पुष्पबाणाय धीमहि, तन्नोऽनङ्गः प्रचोदयात् ) का उल्लेख करके आठ वज्रो से आवृत भूमण्डल का निर्माण करे। फिर उपर्युक्त मन्त्र को अङ्ग वासुदेवादि, रुक्मिणी सहित स्वशक्ति तथा इन्द्र, वसुदेव, पार्थं एवं निधि सहित आठ आवरणों से संरक्षित उस पीठ यन्त्र की पूजा सम्पन्न करे। उक्त आवरणों से परिवेष्टित श्रीकृष्णचन्द्र को तीनों सन्ध्याओं के समय ध्यान करने के बाद षोडशोपचार विधि से पूजन करे। इस विधि से पूजन-प्रक्रिया सम्पन्न करने से साधक को ( धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष ) सभी कुछ सुलभता से प्राप्त हो जाता है ।।

 

तदिह श्लोका भवन्ति–

एको वशी सर्वगः कृष्ण ईड्य

एकोऽपि सन्बहुधा यो विभाति।

तं पीठगं येऽनुभजन्ति धीरास्तेषां

सिद्धिः शाश्वती नेतरेषाम् ॥19

 

इस सन्दर्भ में ये श्लोक हैं-

सभी को अपने वश में रखने वाले, सर्वत्र व्याप्त रहने वाले एकमात्र भगवान् श्रीकृष्ण ही सदैव स्तुति करने के योग्य हैं। वे एक रहते हुए भी अनेक रूपों में परिलक्षित होते हैं। जो ज्ञानी मनुष्य उपर्युक्त पीठ पर विद्यमान उन भगवान् श्रीकृष्ण का प्रत्येक दिन पूजन करते हैं, उन्हीं को शाश्वत आनन्दानुभूति होती है, अन्यों को नहीं ॥

 

नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको

बहूनां यो विदधाति कामान्।

तं पीठगं येऽनुभजन्ति धीरास्तेषां

सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥20

 

जो ( श्रीकृष्ण ) नित्यों में नित्य, चेतनों के भी परम चेतन हैं और जो सभी की मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं, उन श्रीकृष्ण को पूर्वोक्त पीठ में प्रतिष्ठित करके जो ज्ञानी-भक्त निरन्तर पूजन करता है, उन्हें सनातन सुख मिलता है, अन्यों को नहीं ॥

 

एतद्विष्णोः परमं पदं ये नित्यो

द्युक्तास्तं यजन्ति न कामात्।

तेषामसौ गोपरूपः प्रयत्नात्प्रकाश

येद्वात्मपदं तदेव ॥21

 

जो मनुष्य उत्साहपूर्वक श्रीविष्णु ( श्रीकृष्ण ) के इस ( अविनाशी पदस्वरूप ) मंत्र की विधि-विधान से पूजा-प्रक्रिया सम्पन्न करते हैं और जो उन भगवान् के अतिरिक्त दूसरी किसी भी वस्तु की आकांक्षा नहीं करते, उन ( साधकों ) के लिए वे गोपालरूपधारी श्यामसुन्दर अपनी स्वरूप और अपना परम शाश्वत धाम शीघ्र ही प्रयासपूर्वक दिखा देते हैं ॥

 

यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो

विद्यां तस्मै गोपायति स्म कृष्णः।

तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं

मुमुक्षुः शरणं व्रजेत् ॥22

 

जो भगवान् श्रीकृष्ण सृष्टि की प्रारम्भिक अवस्था में ब्रह्माजी को प्रकट करते हैं एवं जो उन (ब्रह्माजी) को वेदविद्या का ज्ञान प्रदान करके उन्हीं के द्वारा उस (विद्या) का गायन करवाते हैं। सम्पूर्ण जीवों को बुद्धि का प्रकाश प्रदान करने वाले उन भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में मोक्ष-प्राप्ति की इच्छा से मनुष्य को अवश्य ही जानी चाहिए ॥

 

ओङ्कारेणान्तरितं ये जपन्ति गोविन्दस्य पञ्चपदं मनुम्।

तेषामसौ दर्शयेदात्मरूपं तस्मान्मु-मुक्षुरभ्यसेन्नित्यशान्त्यै।।23

 

जो श्रेष्ठ साधक ‘ श्रीगोविन्द ‘ के उस पाँच पद से युक्त प्रख्यात अष्टादशाक्षर मन्त्र को प्रणव से सम्पुटित करके जप करते हैं, उन्हीं को वे अपने स्वरूप का दर्शन कराते हैं। अतः सांसारिक बन्धनों से मुक्त होने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को नित्य-शान्ति की प्राप्ति के लिए ऊपर वर्णित मन्त्र जप करना चाहिए ।।

 

एतस्मा एव पञ्चपदादभूवन्गोविन्दस्य मनवो मानवानाम्।

दशार्णाद्यास्तेऽपि संक्रन्दनाद्यैरभ्यस्यन्ते भूतिकामैर्यथावत्।।24

 

इन पाँच पदों से युक्त मन्त्र द्वारा ही अन्य और भी दशाक्षर आदि मन्त्र प्रादुर्भूत हुए हैं, वे सभी मन्त्र मानव के लिए कल्याणकारी हैं। उन दशाक्षर आदि मन्त्रों का ऐश्वर्य की कामना से युक्त इन्द्रादि देवता न्यास-ध्यान के सहित विधिवत् जप करते हैं।।

 

ते पप्रच्छुस्तदु होवाच ब्रह्मसदनं चरतो मे

ध्यातः स्तुतः परमेश्वरः परार्धान्ते सोऽबुध्यत ।

गोपवेषो मे पुरुषः पुरस्तादाविर्बभूव।

ततः प्रणतो मयानुकूलेन हृदा मह्यमष्टा

दशार्णस्वरूपं सृष्टये दत्त्वान्तर्हितः ।

पुनस्ते सिसृक्षतो मे प्रादुरभूत्तेष्वक्षरेषु

विभज्य भविष्यज्जगद्रूपं प्रकाशयन्।

तदिह कादापो लात्पृथिवीतोऽग्निर्बिन्दो

रिन्दुस्तसंपातात्तदर्क इति क्लींकारादसृजं

कृष्णादाकाशं खाद्वायुरुत्तरात्सुरभिविद्याः

प्रादुरकार्षमकार्षमिति।

तदुत्तरात्स्त्रीपुंसादिभेदं

सकलमिदं सकलमिदमिति ।।25

 

उन ऋषियों के पूछने पर समाधान करते हुए पितामह बोले-

हे मुनिवरों ! मेरी ( ब्रह्मा की ) दो परार्ध की आयु होती है, उसमें से एक परार्ध आयु भगवान् का निरन्तर ध्यान एवं स्तुति करते हुए बीत गयी, तब उन भगवान् का ध्यान मेरी तरफ आकृष्ट हुआ। वे गोपवेश धारण किये हुए श्यामसुन्दर पूर्ण पुरुषोत्तम रूप में मेरे समक्ष प्रकट हुए। उनके चरण कमलों में भक्तिपूर्वक मैंने नमन-वन्दन किया। उन परमेश्वर ने दयार्द्र-भाव से कृपापूर्वक सृष्टि- संरचना हेतु अपने स्वरूपभूत अष्टादशाक्षर मन्त्र का उपदेश प्रदान किया और अन्तर्धान हो गये। जब मेरे हृदय में सृष्टि-संरचना की इच्छा जाग्रत हुई, तब अष्टादशाक्षर मन्त्र के उन समस्त अक्षरों में भावी जगत के रूप का साक्षात्कार कराते हुए वे पुनः मेरे समक्ष उपस्थित हो गये। तत्पश्चात् मैंने इस मन्त्र के ‘ क ‘ अक्षर से जल की, ‘ ल ‘ अक्षर से पृथ्वी की ‘ ई ‘ अक्षर से अग्नि की, अनुस्वार से चन्द्रमा की और इन सबके समुदाय रूप ‘ क्लीं ‘ से सूर्य की संरचना की। मन्त्र के द्वितीय पद ‘ कृष्णाय ’ से आकाश तत्त्व की एवं आकाश से वायु की सृष्टि की। तृतीय ‘ गोविन्दाय ‘ पद से कामधेनु गौ और वेदादि विद्याओं को प्रकट किया। उसके पश्चात् चतुर्थ पद ‘ गोपीजनवल्लभाय ‘ से स्त्री-पुरुषादि की संरचना की और सबसे बाद में पञ्चम पद ‘स्वाहा’ से सम्पूर्ण जड़ चेतनमय चर-अचर विश्व को प्रादुर्भूत किया ।।

 

[यहाँ जिस अष्टादशार्ण (अष्टादशाक्षर) मन्त्र की विवेचना की है, वह मन्त्र इस प्रकार है-

क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा। ]

 

एतस्यैव यजनेन चन्द्रध्वजो

गतमोहमात्मानं वेदयति।

ओंकारालिकं मनुमावर्तयेत्।

सङ्गरहितोऽभ्यानत्।।26

 

प्राचीनकाल में राजर्षि चन्द्रध्वज मोहरहित होकर भगवान् श्रीकृष्ण के पूजन एवं ॐ कार द्वारा सम्पुटित अष्टादशाक्षर मंत्र के जप एवं ध्यान के द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त करके सङ्गरहित हो गये ।।

 

तद्विष्णोः परमं पदं सदा

पश्यन्ति सूरयः ।

दिवीव चक्षुराततम्॥27

 

भगवान् विष्णु ( श्रीकृष्ण ) के उस अविनाशी परमधाम गोलोक का ज्ञानी और प्रेमी भक्तजन निरन्तर दर्शन करते रहते हैं। आकाश में सूर्य के सदृश वे ( भगवान् ) परम व्योम में चतुर्दिक् संव्याप्त एवं प्रकाशस्वरूप विद्यमान हैं ।।

 

तस्मादेनं नित्यमावर्तयेन्नित्यमावर्तयेदिति ॥28

 

उस शाश्वत परम अविनाशी गोलोक धाम की प्राप्ति, पूर्व में कहे हुए अष्टादशाक्षर मन्त्र के जप एवं ध्यान से ही सम्भव होती है, अतः इस दिव्य मन्त्र का प्रतिदिन ही जप करना चाहिए॥

 

तदाहुरेके यस्य प्रथमपदाद्भूमिर्द्वितीयपदाज्जलं

तृतीयपदात्तेजश्चतुर्थपदाद्वायुश्चरमपदा-द्वयोमेति ।

वैष्णवं पञ्चव्याहृतिमयं मन्त्रं कृष्णावभासकं

कैवल्यस्य सृत्यै सततमावर्तयेत्सततमाव-र्तयेदिति ॥29

 

उपर्युक्त अष्टादशाक्षर मंत्र के सन्दर्भ में कुछ मुनिगण ऐसा कहते हैं कि जिसके प्रथम पद ( क्लीं ) से पृथ्वीतत्त्व, द्वितीय पद ( कृष्णाय ) से जल तत्त्व, तृतीय पद ( गोविन्दाय ) से तेजस् ( अग्नितत्त्व ), चतुर्थ पद ( गोपीजनवल्लभाय ) से वायुतत्त्व और अन्तिम पञ्चम पद ( स्वाहा ) से आकाश तत्त्व का प्राकट्य हुआ; वह पञ्चमहाव्याहृतियों से युक्त अष्टादशाक्षर वैष्णव मन्त्र श्रीकृष्ण के स्वरूप को तेजोमय बनाने वाला है। उस मन्त्र का मोक्ष प्राप्ति के लिए सतत जप एवं ध्यान करते रहना चाहिए॥

 

तदत्र गाथा:- यस्य चाद्यपदाद्भूमिर्द्वितीयात्सलिलोद्भवः।

तृतीयात्तेज उद्भूतं चतुर्थाद्रन्धवाहनः ॥30

पञ्चमादम्बरोत्पत्तिस्तमेवैकं समभ्यसेत् ।

चन्द्रध्वजोऽगमद्विष्णोः परमं पदमव्ययम्॥31

 

इस सन्दर्भ में यहाँ पर यह गाथा प्रसिद्ध है- जिस ( अष्टादशाक्षर ) मंत्र के प्रथम पद से पृथ्वी उत्पन्न हुई, द्वितीय पद से जलतत्त्व का आविर्भाव हुआ, तृतीय पद से तेजस् ( अग्नि ) का प्राकट्य हुआ, चतुर्थ पद से वायु तत्त्व प्रकट हुआ और पंचम पद से आकाश तत्त्व का प्रादुर्भाव हुआ, उस एकमात्र अष्टादशाक्षर मन्त्र का ही सर्वदा जप एवं ध्यान करना चाहिए। उस मन्त्र के जप द्वारा ही राजर्षि चन्द्रध्वज ने ‘ श्रीकृष्ण ‘ के अविनाशी शाश्वत गोलोक धाम को प्राप्त किया ॥

 

ततो विशुद्धं विमलं विशोकम

शेषलोभादिनिरस्तसङ्गम्।

यत्तत्पदं पञ्चपदं तदेव स

वासुदेवो न यतोऽन्यदस्ति ।।32

 

वह गोलोक धाम परम पवित्र, विमल, शोक-विहीन, लोभ आदि से रहित, समस्त प्रकार की आसक्ति से रहित है। वह ऊपर कहे पाँच पदों वाले मन्त्र से भिन्न नहीं है। वह मन्त्र स्वयं साक्षात् वासुदेवमय ही है, उन वासुदेव से भिन्न दूसरा और कुछ भी नहीं है॥

 

तमेकं गोविन्दं सच्चिदानन्दविग्रहं पञ्चपदं

वृन्दावनसुरभूरुहतलासीनं सततं

समरुद्गणोऽहं परमया स्तुत्या तोषयामि॥33

 

वे भगवान् गोविन्द पञ्चपद मन्त्र स्वरूप हैं। उनका श्रीविग्रह सत्-चित्-आनन्द स्वरूप है। वे वृन्दावन में स्थित कल्पवृक्ष के नीचे ( रत्नजटित सिंहासन पर ) सदैव विराजमान रहते हैं। मैं ( ब्रह्मा ) मरुद्गणों के साध रहते हुए उन भगवान् ( श्रीकृष्ण ) को श्रेष्ठ स्तुतियों के द्वारा प्रसन्न करता हूँ॥

 

नमो विश्वस्वरूपाय विश्वस्थित्यन्तहेतवे।

विश्वेश्वराय विश्वाय गोविन्दाय नमो नमः॥34

 

सम्पूर्ण जगत् ही जिनका स्वरूप है, जो जगत् के पालनकर्ता एवं संहार के एकमात्र कारण हैं और स्वयं ही विश्वमय एवं एकमात्र इस जगत् के अधिष्ठाता हैं, ऐसे उन भगवान् गोविन्द को बारम्बार प्रणाम है ॥

 

नमो विज्ञानरूपाय परमानन्दरूपिणे।

कृष्णाय गोपीनाथाय गोविन्दाय नमो नमः॥35

 

जो विज्ञानमय तथा परम आनन्दमय हैं और जो प्राणिमात्र को अपनी तरफ आकृष्ट कर लेने में पूर्ण सक्षम हैं, ऐसे उन गोपसुन्दरियों के प्राणाधार भगवान् श्री गोविन्द के लिए बारम्बार नमन-वन्दन है॥

 

नमः कमलनेत्राय नमः कमलमालिने।

नमः कमलनाभाय कमलापतये नमः॥36

 

जो अपने दोनों चक्षुओं में कमल की सुन्दर आभा को धारण किये हुए हैं, गले में कमल पुष्पों की माला धारण किये हुए हैं, जिनकी नाभि से कमल उत्पन्न हुआ है, ऐसे उन भगवान् कमलापति ( श्रीकृष्ण) को नमस्कार है॥

 

बर्हापीडाभिरामाय रामायाकुण्ठमेधसे।

रमामानसहंसाय गोविन्दाय नमो नमः॥37

 

जिनके मस्तक पर मोरपंख सुशोभित हो रहा है, जिन ( श्रीकृष्ण) में सभी का मन रमण करता रहता है, जिनकी बुद्धि और स्मरणशक्ति कभी कुण्ठित नहीं होती और जो रमा, गोपसुन्दरीगण एवं श्रीराधा जी के मानस के राजहंस हैं, ऐसे उन भगवान् गोविन्द को बारम्बार प्रणाम है ॥

 

कंसवशविनाशाय केशिचाणूरघातिने।

वृषभध्वजवन्द्याय पार्थसारथये नमः ॥38

 

जो कंस के वंश का विनाश करने वाले तथा केशी एवं चाणूर के घातक हैं। जो भगवान् वृषभध्वज ( शिवजी ) के भी वन्दनीय हैं, उन पार्थसारथि भगवान् श्रीकृष्ण के लिए बारम्बार नमन-वन्दन है ॥

 

वेणुवादनशीलाय गोपालायाहिमर्दिने।

कालिन्दीकूललोलाय लोलकुण्डलधारिणे ॥39

 

वंशी ( वेणु ) वादन ही जिनकी सहज वृत्ति है, जो समस्त गौओं के पालक हैं तथा जो कालियानाग का मान-मर्दन करने में समर्थ हैं। कालिन्दी के सुन्दर तट पर कालियाह्रद में नाग के फणों पर ओ चञ्चल गति से अविराम लास्य-लीला में संलग्न हैं । जिनके कानों में स्थित कुण्डल गतिशीलता के कारण हिलते हुए झिलमिला रहे हैं,

 

बल्लवीवदनाम्भोजमालिने नृत्यशालिने।

नमः प्रणतपालाय श्रीकृष्णाय नमो नमः॥40

 

जिनके श्री-अंग खिले हुए कमल की माला से सुशोभित हो रहे हैं और जो नर्तन में संलग्न होने के कारण अत्यधिक शोभायमान हो रहे हैं, उन शरणागत वत्सल भगवान् श्रीकृष्ण’ को बारम्बार नमस्कार है ॥

 

नमः पापप्रणाशाय गोवर्धनधराय च।

पूतनाजीवितान्ताय तृणावर्तासुहारिणे॥41

 

जो ( भगवान् श्रीकृष्ण ) पाप एवं पापी-असुरों के विध्वंशक हैं, ( व्रजवासियों की रक्षा हेतु अपने हाथ की एक अँगुली पर ) गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले हैं, पूतना के प्राणों का अन्त करने वाले और तृणावर्त असुर का संहार करने वाले हैं ( उन भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार है ) ॥

 

निष्कलाय विमोहाय शुद्धायाशुद्धवैरिणे।

अद्वितीयाय महते श्रीकृष्णाय नमो नमः॥42

 

जो कलाओं से परे हैं, जिनमें मोह का सर्वथा अभाव है, जो स्वरूप से ही परम पवित्र एवं श्रेष्ठ हैं, अशुद्ध स्वभाव एवं आचरण से युक्त रहने वाले असुरों के शत्रु हैं और जिनसे पृथक् और कोई नहीं है, ऐसे महान् भगवान् श्रीकृष्ण’ को बारम्बार प्रणाम है॥

 

प्रसीद परमानन्द प्रसीद परमेश्वर।

आधि-व्याधि-भुजंगेन दष्ट मामुद्धर प्रभो॥43

 

हे परम आनन्दस्वरूप परमेश्वर ! ( आप ) मुझ पर प्रसन्न हों, प्रसन्न हों। हे प्रभो! मुझे आधि-व्याधि ( मानसिक एवं शारीरिक व्यथा ) रूपी सर्पों ने डस लिया है, कृपा करके मेरा उन व्यथाओं से उद्धार करें ।।

 

श्रीकृष्ण रुक्मिणीकान्त गोपीजनमनोहर।

संसारसागरे मग्नं मामुद्धर जगद्गुरो॥44

 

हे श्रीकृष्ण! हे रुक्मिणीवल्लभ ! हे गोप-सुन्दरियों के चित्त का हरण करने वाले श्याम सुन्दर! मैं इस संसार सागर में डूब रहा हैं। हे जगद्गुरो! आप मेरा उद्धार करें ॥

 

केशव क्लेशहरण नारायण जनार्दन।

गोविन्द परमानन्द मां समुद्धर माधव॥45

 

हे केशव! हे क्लेशहरण करने में समर्थ नारायण! हे जनार्दन ! हे परमानन्दमय गोविन्द ! हे माधव! आप कृपा करें, मेरा उद्धार करें ॥

 

अथैवं स्तुतिभिराराधयामि तथा यूयं पञ्चपदं जपन्तः।

श्रीकृष्णं ध्यायन्तः संसृति तरिष्यथेति होवाच हैरण्यगर्भः ॥46

 

हे श्रेष्ठ मुनियों ! जिस प्रकार मैं ( ब्रह्मा ) इन स्तुतियों के द्वारा परमेश्वर भगवान् कृष्ण की उपासना करता हूँ, वैसे ही तुम सभी लोग भी पाँच पदों से युक्त ऊपर कहे हुए अष्टादशाक्षर मन्त्र का जप एवं भगणान् श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए उनकी उपासना-आराधना में निरन्तर संलग्न रहो। इसके द्वारा संसार सागर से पार हो जाओगे। इस प्रकार से पितामह ब्रह्मा जी ने उन ऋषि-मुनियों को उपदेश प्रदान किया ॥

 

अमुं पञ्चपदं मन्त्रमावर्तयेद्यः स

यात्यनायासतः केवलं तत्पदं तत्॥47

अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षदिति ॥48

तस्मात्कृष्ण एव परमो देवस्तं ध्यायेत् तं रसयेत्

तं भजेत् तं भजेदियों तत्सदित्युपनिषत् ॥49

 

जो श्रेष्ठ मनुष्य इस पूर्वोक्त पञ्चपद युक्त अष्टादशाक्षर मन्त्र का निरन्तर जप एवं भगवान् श्रीकृष्ण का चिन्तन करता है, निश्चय ही वह भगवान् के उस अनुपम परम अविनाशी पद को प्राप्त कर लेता है। वह परमपद गतिशील नहीं, वरन् नित्य एवं स्थिर है; किन्तु फिर भी वह मन से भी अधिक तीव्र गति वाला है। भगवन्मय होने से ही वह अद्वितीय है। वहाँ तक देवता या वाणी आदि इन्द्रियाँ कभी नहीं पहुंच सकती हैं। इन्द्रियों की जहाँ तक गति है, वहाँ तक यह पूर्व से ही पहुँचा हुआ रहता है। अतः भगवान् श्रीकृष्ण ही परम शाश्वत देव हैं। उन भगवान् का सतत चिन्तन करते रहना चाहिए। मन्त्र जप द्वारा उनके नाम-रूप-अमृत का सतत रसास्वादन करना चाहिए और उन्हीं भगवान् का नित्य नियमित भजन करते रहना चाहिए। उन्हीं के भजन में सदैव संलग्न रहे। ॐ ( परमात्मा ) ही सत्य है। इस प्रकार यह उपनिषद् ( विद्या ) पूर्ण हुई।।

 

 

 

 

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