Shri Krishna Garbh Stuti

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Shri Krishna Garbh Stuti

 

(श्रीमद्भागवतपुराण, दशमस्कन्ध , अध्याय २, श्लोक २६-४१)

 

भगवान श्रीकृष्ण के गर्भ प्रवेश के बाद भगवान शंकर और ब्रह्माजी कंस के कारागृह में आये जहाँ देवकी और वासुदेव को बंदी बना के रखा था। उनके साथ अपने अनुचरों के सहित समस्त देवता और नारद आदि ऋषि भी थे। वे लोग सुमधुर वचनों से सबकी अभिलाषा पूर्ण करने वाले श्रीहरि की इस प्रकार स्तुति करने लगे ⁠।⁠ जो भी श्री हरि की इस गर्भ स्तुति को पढता या सुनता है उसे दुबारा कभी गर्भ में प्रवेश नहीं करना पड़ता अर्थात वो जन्म – मरण और इस संसार में आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाता है ।

 

ब्रह्मा भवश्च तत्रैत्य मुनिभिर्नारदादिभिः

देवैः सानुचरैः साकं गीर्भिरवृषणमेद्यंमैडयन।।25

 

हे परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण के गर्भ प्रवेश के बाद भगवान् शंकर और ब्रह्माजी कंस के कैदखाने में आये। उनके साथ अपने अनुचरों के सहित समस्त देवता और नारदादि ऋषि भी थे। वे लोग सुमधुर वचनों से सबकी अभिलाषा पूर्ण करने वाले श्रीहरि की इस प्रकार स्तुति करने लगे ⁠।⁠

 

सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये ।
सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः ।।26

 

‘प्रभो! आप सत्यसंकल्प हैं। सत्य ही आपकी प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन है। सृष्टि के पूर्व, प्रलय के पश्चात् और संसार की स्थिति के समय- इन असत्य अवस्थाओं में भी आप सत्य हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच दृश्यमान सत्यों के आप ही कारण हैं और उनमें अन्तर्यामी रूप से विराजमान भी हैं। आप इस दृश्यमान जगत्‌ के परमार्थस्वरूप हैं। आप ही मधुर वाणी और समदर्शन के प्रवर्तक हैं। भगवन्! आप तो बस, सत्यस्वरूप ही हैं। हम सब आपकी शरण में आये हैं ⁠।

 

एकायनोऽसौ द्विफलस्त्रिमूलश्चतूरसः पञ्चविधः षडात्मा ।
सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षो दशच्छदी द्विखगो ह्यादिवृक्षः ।। 27

 

यह संसार क्या है, एक सनातन वृक्ष। इस वृक्ष का आश्रय है – एक प्रकृति । इसके दो फल हैं – सुख और दुःख ; तीन जड़ें हैं – सत्त्व , राज और ताम ; चार रास हैं – धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष । इसके जान ने के पांच प्रकार हैं – श्रोत्र , त्वचा , नेत्र , रसना और नासिका । इसके छह सवभाव हैं – पैदा होना , रहना , बढ़ना , बदलना , घटना और नष्ट हो जाना । इस वृक्ष की छाल हैं सात धातुएं – रास , रुधिर , मांस , मेद , अस्थि , मज्जा और शुक्र । आठ शाखाएं हैं – पांच महाभूत , मन , बुद्धि और अहंकार । इसमें मुख आदि नावों द्वार खोडर हैं । प्राण , अपान , व्यान , उदान , समान , नाग , कूर्म , कृकल , देवदत्त और धनञ्जय – ये दस प्राण ही इसके दस पत्ते हैं । इस संसार रूप वृक्ष पर दो पक्षी हैं – जीव और ईश्वर ।। 27

 

त्वमेक एवास्य सतः प्रसूतिस्त्वं सन्निधानं त्वमनुग्रहश्च ।
त्वन्मायया संवृतचेतसस्त्वां पश्यन्ति नाना न विपश्चितो ये ।।28

 

इस संसाररूप वृक्ष की उत्पत्ति के आधार एकमात्र आप ही हैं। आपमें ही इसका प्रलय होता है और आपके ही अनुग्रह से इसकी रक्षा भी होती है। जिनका चित्त आपकी मायासे आवृत हो रहा है, इस सत्य को समझने की शक्ति खो बैठा है-वे ही उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने वाले ब्रह्मादि देवताओं को अनेक देखते हैं। तत्त्वज्ञानी पुरुष तो सबके रूप में केवल आपका ही दर्शन करते हैं ⁠।⁠

 

बिभर्षि रूपाण्यवबोध आत्मा क्षेमाय लोकस्य चराचरस्य ।
सत्त्वोपपन्नानि सुखावहानि सतामभद्राणि मुहुः खलानाम् ।।29

 

आप ज्ञान स्वरूप आत्मा हैं । चराचर जगत के कल्याण के लिए ही अनेकों रूप धारण करते हैं । आपके वे रूप विशुद्ध अप्राकृत सत्त्वमय होते हैं और संत पुरुषों को बहुत सुख देते हैं । साथ ही दुष्टों को उनकी दुष्टता का दंड भी देते हैं । उनके लिए अमंगलमय भी होते हैं ।।29

 

त्वय्यम्बुजाक्षाखिलसत्त्वधाम्नि समाधिनावेशितचेतसैके ।
त्वत्पादपोतेन महत्कृतेन कुर्वन्ति गोवत्सपदं भवाब्धिम् ।।30

 

कमल के समान कोमल अनुग्रह भरे नेत्रों वाले प्रभो! कुछ बिरले लोग ही आपके समस्त पदार्थों और प्राणियों के आश्रयस्वरूप रूप में पूर्ण एकाग्रता से अपना चित्त लगा पाते हैं और आपके चरणकमलरूपी जहाज का आश्रय लेकर इस संसार-सागर को बछड़े के खुर के गढ़े के समान अनायास ही पार कर जाते हैं। क्यों न हो, अब तक के संतों ने इसी जहाज से संसार-सागर को पार जो किया है ⁠।⁠ ⁠ 

 

स्वयं समुत्तीर्य सुदुस्तरं द्युमन् भवार्णवं भीममदभ्रसौहृदाः ।
भवत्पदाम्भोरुहनावमत्र ते निधाय याताः सदनुग्रहो भवान् ।।31

 

परम प्रकाशस्वरूप परमात्मन्! आपके भक्तजन सारे जगत्‌ के निष्कपट प्रेमी, सच्चे हितैषी होते हैं। वे स्वयं तो इस भयंकर और कष्टसे पार करने योग्य संसारसागरको पार कर ही जाते हैं, किन्तु औरों के कल्याण के लिये भी वे यहाँ आपके चरण-कमलों की नौका स्थापित कर जाते हैं। वास्तव में सत्पुरुषों पर आपकी महान् कृपा है। उनके लिये आप अनुग्रहस्वरूप ही हैं ⁠।⁠

 

येऽन्येऽरविन्दाक्ष विमुक्तमानिनस् त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धयः ।
आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं ततः पतन्त्यधोऽनादृतयुष्मदङ्घ्रयः ।।32

 

कमलनयन! जो लोग आपके चरणकमलों की शरण नहीं लेते तथा आपके प्रति भक्तिभाव से रहित होने के कारण जिनकी बुद्धि भी शुद्ध नहीं है, वे अप नेको झूठमूठ मुक्त मानते हैं। वास्तव में तो वे बद्ध ही हैं। वे यदि बड़ी तपस्या और साधना का कष्ट उठाकर किसी प्रकार ऊँचेसेऊँचे पद पर भी पहुँच जायँ, तो भी वहाँ से नीचे गिर जाते हैं

 

तथा न ते माधव तावकाः क्वचिद्भ्रश्यन्ति मार्गात्त्वयि बद्धसौहृदाः ।
त्वयाभिगुप्ता विचरन्ति निर्भया विनायकानीकपमूर्धसु प्रभो ।।33

परन्तु भगवन्! जो आपके अपने निज जन हैं, जिन्होंने आपके चरणों में अपनी सच्ची प्रीति जोड़ रखी है, वे कभी उन ज्ञानाभिमानियों की भाँति अपने साधनमार्ग से गिरते नहीं। प्रभो! वे बड़ेबड़े विघ्न डालने वालों की सेना के सरदारों के सिर पर पैर रख कर निर्भय विचरते हैं, कोई भी विघ्न उनके मार्ग में रुकावट नहीं डाल सकते; क्योंकि उनके रक्षक आप जो हैं

 

सत्त्वं विशुद्धं श्रयते भवान्स्थितौ शरीरिणां श्रेय उपायनं वपुः ।
वेदक्रियायोगतपःसमाधिभिस्तवार्हणं येन जनः समीहते ।।34

आप संसार की स्थिति के लिये समस्त देहधारियों को परम कल्याण प्रदान करनेवाला विशुद्ध सत्त्वमय, सच्चिदानन्दमय परम दिव्य मंगलविग्रह प्रकट करते हैं। उस रूप के प्रकट होने से ही आपके भक्त वेद, कर्मकाण्ड, अष्टांगयोग, तपस्या और समाधि के द्वारा आपकी आराधना करते हैं। बिना किसी आश्रय के वे किसकी आराधना करेंगे?

 

सत्त्वं न चेद्धातरिदं निजं भवेद् विज्ञानमज्ञानभिदापमार्जनम् ।
गुणप्रकाशैरनुमीयते भवान् प्रकाशते यस्य च येन वा गुणः ।।35

 

प्रभो ! आप सबके विधाता हैं । यदि आपका यह विशुद्ध सत्त्वमय निज स्वरूप न हो , तो अज्ञान और उसके द्वारा होने वाले भेद भाव को नष्ट करने वाला अपरोक्ष ज्ञान ही किसी को न हो । जगत में दिखने वाले तीनों गन आपके हैं और आपके द्वारा ही प्रकाशित होते हैं , यह सत्य है परन्तु इन गुणों की प्रकाशक वृत्तियों से आपके स्वरूप का केवल अनुमान ही होता है , वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार नहीं होता । ( आपके स्वरूप का साक्षात्कार तो आपके इस विशुद्ध सत्त्वमय स्वरूप की सेवा करने पर आपकी कृपा से ही होता है ) 35

 

न नामरूपे गुणजन्मकर्मभिर्निरूपितव्ये तव तस्य साक्षिणः ।
मनोवचोभ्यामनुमेयवर्त्मनो देव क्रियायां प्रतियन्त्यथापि हि ।।36

 

भगवन्! मन और वेद-वाणी के द्वारा केवल आपके स्वरूप का अनुमान मात्र होता है। क्योंकि आप उनके द्वारा दृश्य नहीं; उनके साक्षी हैं। इसलिये आपके गुण, जन्म और कर्म आदिके द्वारा आपके नाम और रूपका निरूपण नहीं किया जा सकता। फिर भी प्रभो! आपके भक्तजन उपासना आदि क्रियायोगों के द्वारा आपका साक्षात्कार तो करते ही हैं ⁠।⁠

 

शृण्वन्गृणन्संस्मरयंश्च चिन्तयन् नामानि रूपाणि च मङ्गलानि ते ।
क्रियासु यस्त्वच्चरणारविन्दयोर् आविष्टचेता न भवाय कल्पते ।।37

 

जो पुरुष आपके मंगलमय नामों और रूपों का श्रवण, कीर्तन, स्मरण और ध्यान करता है और आपके चरणकमलों की सेवा में ही अपना चित्त लगाये रहता है,उसे फिर जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्र में नहीं आना पड़ता ⁠।

 

दिष्ट्या हरेऽस्या भवतः पदो भुवो भारोऽपनीतस्तव जन्मनेशितुः ।
दिष्ट्याङ्कितां त्वत्पदकैः सुशोभनैर् द्रक्ष्याम गां द्यां च तवानुकम्पिताम् ।।38

 

सम्पूर्ण दुःखों के हरने वाले भगवन्! आप सर्वेश्वर हैं। यह पृथ्वी तो आपका चरणकमल ही है। आपके अवतार से इसका भार दूर हो गया। धन्य है! प्रभो! हमारे लिये यह बड़े सौभाग्य की बात है कि हम लोग आपके सुन्दर-सुन्दर चिह्नों से युक्त चरणकमलों के द्वारा विभूषित पृथ्वी को देखेंगे और स्वर्गलोक को भी आपकी कृपा से कृतार्थ देखेंगे ⁠।

 

न तेऽभवस्येश भवस्य कारणं विना विनोदं बत तर्कयामहे ।
भवो निरोधः स्थितिरप्यविद्यया कृता यतस्त्वय्यभयाश्रयात्मनि ।।39

 

प्रभो! आप अजन्मा हैं। यदि आपके जन्म के कारण के सम्बन्ध में हम कोई तर्क ना करें, तो यही कह सकते हैं कि यह आपका एक लीला-विनोद है। ऐसा कहने का कारण यह है कि आप तो द्वैत के लेश से रहित सर्वाधिष्ठानस्वरूप हैं और इस जगत्‌ की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय अज्ञान के द्वारा आपमें आरोपित हैं ⁠।⁠

 

मत्स्याश्वकच्छपनृसिंहवराहहंस राजन्यविप्रविबुधेषु कृतावतारः ।
त्वं पासि नस्त्रिभुवनं च यथाधुनेश भारं भुवो हर यदूत्तम वन्दनं ते ।।40

 

प्रभो! आपने जैसे अनेकों बार मत्स्य, हयग्रीव, कच्छप, नृसिंह, वराह, हंस, राम, परशुराम और वामन अवतार धारण करके हम लोगों की और तीनों लोकों की रक्षा की है-वैसे ही आप इस बार भी पृथ्वी का भार हरण कीजिये। यदुनन्दन! हम आपके चरणों में वन्दना करते हैं’ ⁠।

 

दिष्ट्याम्ब ते कुक्षिगतः परः पुमान् अंशेन साक्षाद्भगवान्भवाय नः ।

माभूद्भयं भोजपतेर्मुमूर्षोर् गोप्ता यदूनां भविता तवात्मजः ।।41

 

[देवकीजी को सम्बोधित करके] ‘माताजी! यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आपकी कोख में हम सबका कल्याण करने के लिये स्वयं भगवान् पुरुषोत्तम अपने ज्ञान, बल आदि अंशों के साथ पधारे हैं। अब आप कंस से तनिक भी मत डरिये। अब तो वह कुछ ही दिनों का मेहमान है। आपका पुत्र यदुवंश की रक्षा करेगा’⁠।⁠

 

श्रीशुक उवाच 

इत्यभिष्टूय पुरुषं यद्रूपमनिदं यथा ।

ब्रह्मेशानौ पुरोधाय देवाः प्रतिययुरदिवम।। 42

 

 हे परीक्षित ! ब्रह्मादि देवताओं ने इस प्रकार भगवान की स्तुति की। उनका रूप ‘यह है’ इस प्रकार निश्चितरूप से तो कहा नहीं जा सकता । सब अपनी-अपनी मति के अनुसार उसका निरूपण करते हैं। इसके बाद ब्रह्मा और शंकरजी को आगे करके देवगण स्वर्ग में चले गये ⁠।⁠

 

(श्रीमद्भागवतपुराण, दशमस्कन्ध , अध्याय २, श्लोक २६-४१)

 

 

 

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