Shruti Gita with hindi meaning

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Shruti Gita with hindi meaning

 

 

 

वेद स्तुति श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध में वर्णित है । इसे श्रुति गीता के नाम से भी जाना जाता है । इसमें वेदों के द्वारा भगवान विष्णु के तात्विक स्वरूप का वर्णन किया गया है ।

 

 

परीक्षिदुवाच-

ब्रह्मन् ब्रह्मण्यनिर्देश्ये निर्गुणे गुणवृत्तयः।

कथं चरन्ति श्रुतयः साक्षात् सदसतः परे ॥१॥

 

राजा परीक्षित ने पूछा –

भगवन ! ब्रह्म कार्य और कारण से सर्वथा परे है । सत्व , रज और तम – ये तीनों गुण उसमें है ही नहीं । मन और वाणी से संकेत रूप में भी उसका निर्देश नहीं किया जा सकता । दूसरी और समस्त श्रुतियों का विषय गुण ही है । ( वे जिस विषय का वर्णन करती हैं उसके गुण , जाति , क्रिया अथवा रूढ़ि का ही निर्देश करती हैं ) ऐसी स्थिति में श्रुतियाँ निर्गुण ब्रह्म का प्रतिपादन किस प्रकार करती हैं ? क्योंकि निर्गुण वस्तु का स्वरूप तो उनकी पहुँच से परे है ।। 1

 

श्रीशुक उवाच-

बुद्धीन्द्रियमनःप्राणान् जनानामसृजत् प्रभुः।

मात्रार्थं च भवार्थं च आत्मनेऽकल्पनाय च॥२॥

 

परीक्षित ! ( भगवान शक्तिमान और गुणों के निधान हैं । श्रुतियाँ स्पष्टतः सगुण का ही निरूपण करती हैं , परन्तु विचार करने पर उनका तात्पर्य निर्गुण ही निकलता है । विचार करने के लिए ही ) भगवान ने जीवों के लिए बुद्धि , इन्द्रिय , मन और प्राणों की सृष्टि की है । इनके द्वारा वे स्वेच्छा से अर्थ , धर्म , काम अथवा मोक्ष का अर्जन कर सकते हैं ( प्राणो के द्वारा जीवन धारण , श्रवणादि इन्द्रियों के द्वारा महावाक्य आदि का श्रवण , मन के द्वारा मनन और बुद्धि के द्वारा निश्चय करने पर श्रुतियों के तात्पर्य निर्गुण स्वरूप का साक्षात्कार हो सकता है । इसलिए श्रुतियाँ सगुण का प्रतिपादन करने पर भी वस्तुतः निर्गुणपरक हैं ) ।।2।।

 

सैषा ह्युपनिषद् ब्राह्मी पूर्वेषां पूर्वजैर्धृता।

श्रद्धया धारयेद् यस्तां क्षेमं गच्छेदकिंचनः ॥३॥

 

ब्रह्म का प्रतिपादन करने वाली उपनिषद् का यही स्वरूप है । इसे पूर्वजों के भी पूर्वज सनकादि ऋषियों ने आत्मनिश्चय के द्वारा धारण किया है । जो भी मनुष्य इसे श्रद्धापूर्वक धारण करता है , वह बंधन के कारण समस्त उपाधियों – अनात्म भावों से मुक्त होकर अपने परम कल्याण स्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है ।

 

अत्र ते वर्णयिष्यामि गाथां नारायणान्विताम्।

नारदस्य च संवादमृषेर्नारायणस्य च ॥४॥

 

इस विषय में मैं तुम्हें एक गाथा सुनाता हूँ । उस गाथा के साथ स्वयं भगवान नारायण का सम्बन्ध है । वह गाथा देवर्षि नारद और ऋषिश्रेष्ठ नारायण का संवाद है ।।4

 

एकदा नारदो लोकान् पर्यटन् भगवत्प्रियः।

सनातनमृषिं द्रष्टुं ययौ नारायणाश्रमम्॥५॥

 

एक समय की बात है , भगवान् के प्यारे भक्त देवर्षि नारद जी विभिन्न लोकों में विचरण करते हुए सनातन ऋषि भगवान नारायण का दर्शन करने के लिए बद्रिकाश्रम गए ।। 5

 

यो वै भारतवर्षेऽस्मिन्क्षेमाय स्वस्तये नृणाम्।

धर्मज्ञानशमोपेतमाकल्पादास्थितस्तपः॥६॥

 

भगवान् नारायण मनुष्यों के अभ्युदय ( लौकिक कल्याण ) और परम निःश्रेयस ( भगवत्स्वरूप अथवा मोक्ष की प्राप्ति ) के लिए इस भारत वर्ष में कल्प के प्रारम्भ से ही धर्म , ज्ञान और संयम के साथ महान तपस्या कर रहे हैं ।। 6

 

तत्रोपविष्टमृषिभिः कलापग्रामवासिभिः।

परीतं प्रणतोऽपृच्छदिदमेव कुरूद्वह॥७॥

 

परीक्षित ! एक दिन वे कलाप ग्राम वासी सिद्ध ऋषियों के बीच में बैठे हुए थे । उस समय नारद जी ने उन्हें प्रणाम कर के बड़ी नम्रता से यही प्रश्न पूछा , जो तुम मुझसे पूछ रहे हो ।

 

तस्मै ह्यवोचद् भगवानृषीणां शृण्वतामिदम्।

यो ब्रह्मवादः पूर्वेषां जनलोकनिवासिनाम् ॥८॥

 

भगवान नारायण ने ऋषियों की उस भरी सभा में नारद जी को उनके प्रश्न का उत्तर दिया और वह कथा सुनाई , जो पूर्वकालीन जनलोक निवासियों में परस्पर वेदों के तात्पर्य और ब्रह्म के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार करते समय कही गयी थी ।। 8

 

श्रीभगवानुवाच-

स्वायंभुव ब्रह्मसत्रं जनलोकेऽभवत्पुरा।

तत्रस्थानां मानसानां मुनीनामूर्ध्वरेतसाम्॥९॥

 

भगवान नारायण ने कहा – नारद जी ! प्राचीन काल की बात है । एक बार जनलोक में वहां रहने वाले ब्रह्मा के मानस पुत्र नैष्ठिक ब्रह्मचारी सनक , सनन्दन , सनातन आदि परमर्षियों का ब्रह्मसत्र ( ब्रह्मविषयक विचार या प्रवचन ) हुआ था ।। 9

 

श्वेतद्वीपे  गतवति त्वयि द्रष्टुं तदीश्वरम्।

ब्रह्मवादः सुसंवृत्तः श्रुतयो यत्र शेरते।

तत्र हायमभूत्प्रश्नः त्वं मां यमनुपृच्छसि॥१०॥

 

उस समय तुम मेरी श्वेतद्वीपाधिपति अनिरुद्ध मूर्ति का दर्शन करने के लिए श्वेतद्वीप चले गए थे । उस समय वहां उस ब्रह्म के सम्बन्ध में बड़ी ही सुन्दर चर्चा हुई थी , जिसके विषय में श्रुतियाँ भी मौन धारण कर लेती हैं , स्पष्ट वर्णन न करके तात्पर्य रूप से लक्षित कराती हुई उसी में सो जाती हैं । उस ब्रह्म सत्र में यही प्रश्न उपस्थित किया गया था जो तुम मुझसे पूछ रहे हो ।। 10

 

तुल्यश्रुततपःशीलास्तुल्यस्वीयारिमध्यमाः।

अपि चक्रुः प्रवचनमेकं शुश्रूषवोऽपरे॥११॥

 

सनक , सनन्दन , सनातन , सनत्कुमार – ये चारों भाई शास्त्रीय ज्ञान , तपस्या और शील – स्वभाव में समान हैं । उन लोगों की दृष्टि में शत्रु , मित्र और उदासीन एक से हैं । फिर भी उन्होंने अपने में से सनन्दन को तो वक्त बना लियाब और शेष भाई सुनने के इच्छुक बन के बैठ गए ।। 11

 

सनन्दन उवाच –

स्वसृष्टमिदमापीय शयानं सह शक्तिभिः।

तदन्ते बोधयांचक्रुस्तल्लिङ्गैः श्रुतयः परम्॥१२॥

यथा शयानं सम्राजं वन्दिनस्तत्पराक्रमैः

प्रत्यूषेऽभ्येत्य सुश्लोकैर्बोधयन्त्यनुजीविनः ॥१३॥

 

सनन्दन जी ने कहा – जिस प्रकार प्रातः काल होने पर सोते हुए सम्राट को जगाने के लिए अनुजीवी वंदीजन उसके पास आते हैं और सम्राट के पराक्रम तथा सुयश का गान कर के उसे जगाते हैं , वैसे ही जब परमात्मा अपने बनाये हुए सम्पूर्ण जगत को अपने में लीन करके अपनी शक्तियों के सहित सोये रहते हैं तब प्रलय के अंत में श्रुतियाँ उनका प्रतिपादन करने वाले वचनों से उन्हें इस प्रकार जगाती हैं ।। 12-13

 

श्रुतय ऊचुः

जय जय जह्यजामजितदोषगृभीतगुणां

त्वमसि यदात्मना समवरुद्धसमस्तभगः।

अगजगदोकसामखिलशक्त्यवबोधक ते

क्वचिदजयाऽऽत्मना च चरतोऽनुचरेन्निगमः ॥१४॥

 

श्रुतियाँ कहती हैं – अजित ! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं , आप पर कोई विजय प्राप्त नहीं कर सकता । आपकी जय हो , जय हो । प्रभो ! आप स्वभाव से ही समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं , इसलिए चराचर प्राणियों को फंसाने वाली माया का नाश कर दीजिये । प्रभो ! इस गुणमयी माया ने दोष के लिए – जीवों के आनन्दादिमय सहज स्वरूप का आच्छादन कर के उन्हें बंधन में डालने के लिए ही सत्वादि गुणों को ग्रहण किया हैं । जगत में जितनी भी साधना , ज्ञान , क्रिया आदि शक्तियां हैं , उन सबको जगाने वाले आप ही हैं । इसलिए आपके मिटाये बिना यह माया मिट नहीं सकती । ( इस विषय में यदि प्रमाण पूछा जाये तो आपकी श्वासभूता श्रुतियाँ ही – हम ही प्रमाण हैं ।) यद्यपि हम आपका स्वरूपतः वर्णन करने में असमर्थ हैं , परन्तु जब कभी आप माया के द्वारा जगत की सृष्टि करके सगुण हो जाते हैं या उसको निषेध करके स्वरूपस्थिति की लीला करते हैं अथवा अपना सच्चिदानंद स्वरूप श्रीविग्रह प्रकट करके क्रीड़ा करते हैं , तभी हम यत्किंचित आपका वर्णन करने में समर्थ होती हैं । ।14

 

बृहदुपलब्धमेतदवयन्त्यवशेषतया

यत उदयास्तमयौ विकृतेर्मृदि वाविकृतात्।

अत ऋषयो दधुस्त्वयि मनोवचनाचरितं

कथमयथा  भवन्ति भुवि दत्तपदानि नृणाम् ॥१५॥

 

इसमें संदेह नहीं कि हमारे द्वारा इंद्र , वरुण आदि देवताओं का भी वर्णन किया जाता है, परन्तु हमारे ( श्रुतियों के ) सारे मंत्र अथवा सभी मंत्र दृष्टा ऋषि प्रतीत होने वाले इस सम्पूर्ण जगत को ब्रह्मस्वरूप ही अनुभव करते हैं क्योंकि जिस समय यह सारा जगत नहीं रहता , उस समय भी आप बचे रहते हैं । जैसे घट , शराब ( मिटटी का प्याला – कसोरा ) आदि सभी विकार मिटटी से ही उत्पन्न और उसी में लीन होते हैं , उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत कि उत्पत्ति और प्रलय आप में ही होती है । तब क्या आप पृथ्वी के समान विकारी हैं ? नहीं – नहीं , आप तो एकरस – निर्विकार हैं । इसी से तो यह जगत , आप में उत्पन्न नहीं , प्रतीत है । इसलिए जैसे घट , शराब आदि का वर्णन भी मिटटी का ही वर्णन है , वैसे ही इंद्र , वरुण आदि देवताओं का वर्णन भी आपका ही वर्णन है । यही कारण है कि विचारशील ऋषि , मन से जो कुछ सोचा जाता है और वाणी से जो कुछ कहा जाता है , उसे आप में ही स्थित , आपका ही स्वरूप देखते हैं । मनुष्य अपना पैर चाहे कहीं भी रखे – ईंट , पत्थर या काठ पर – होगा वो पृथ्वी पर ही ; क्योंकि वे सब पृथ्वी स्वरूप ही हैं । इसलिए हम चाहे जिस नाम या जिस रूप का वर्णन करें , वह आपका ही नाम , आपका ही रूप है ।।15

 

इति तव सूरयस्त्र्यधिपतेऽखिलकमल-

क्षपणकथामृताब्धिमवगाह्य तपांसि जहुः।

किमुत पुनः स्वधामविधूताशयकालगुणाः

परम भजन्ति ये पदमजस्रसुखानुभवम्  ॥१६॥

 

भगवन ! लोग सत्व , रज , तम – इन तीन गुणों की माया से बने हुए अच्छे – बुरे भावों या अच्छी – बुरी क्रियाओं में उलझ जाया करते हैं परन्तु आप तो उस माया नटी के स्वामी , उसको नाच नचाने वाले हैं । इसीलिए विचारशील पुरुष आपकी लीला कथा के अमृत सागर में गोते लगाते रहते हैं और इस प्रकार अपने सारे पाप – ताप को धो बहा देते हैं । क्यों न हो , आपकी लीला – कथा सभी जीवों के मायामल को नष्ट करने वाली जो है । पुरुषोत्तम ! जिन महापुरुषों ने आत्मज्ञान के द्वारा अन्तःकरण के राग – द्वेष आदि और शरीर के कालकृत जरा – मरण आदि दोष मिटा दिए हैं और निरंतर आपके उस स्वरूप की अनुभूति में मग्न रहते हैं , जो अखंड आनंदस्वरूप है , उन्होंने अपने पाप – तापों को सदा के लिए शांत , भस्म कर दिया है  – इसके विषय में तो कहना ही क्या है ।।16

 

दृतय इव श्वसन्त्यसुभृतो यदि तेऽनुविधा

महदहमादयोऽण्डमसृजन् यदनुग्रहतः

पुरुषविधोऽन्वयोऽत्र चरमोऽन्नमयादिषु

यः सदसतः परं त्वमथ यदेष्ववशेषमृतम्॥१७॥

 

भगवन ! प्राणधारियों के जीवन की सफलता इसी में है कि वे आपका भजन – सेवन करें , आपकी आज्ञा का पालन करें । यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनका जीवन व्यर्थ है और उनके शरीर में श्वास का चलना ठीक वैसा ही है जैसा लुहार की धौंकनी में हवा का आना जाना । महतत्व , अहंकार आदि ने आपके अनुग्रह से – आपके मन में प्रवेश करने पर ही इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि की है । अन्नमय , प्राणमय , मनोमय , विज्ञानमय और आनंदमय – इन पाँचों कोशों में पुरुष – रूप से रहने वाले हैं , उनमें ‘ मैं – मैं ‘ की स्फूर्ति करने वाले भी आप ही हैं । आपके ही अस्तित्व से उन कोशों के अस्तित्व का अनुभव होता है और उनके न रहने पर भी अंतिम अवधि रूप से आप विराजमान रहते हैं , इस प्रकार सबमें अन्वित और सबकी अवधि होने पर भी आप असंग ही हैं क्योंकि वास्तव में जो कुछ वृत्तियों के द्वारा अस्तित्व अस्ति अथवा नास्ति के रूप में अनुभव होता है , उन समस्त कार्य – कारणों से आप परे हैं । ‘ नेति – नेति ‘ के द्वारा इन सबका निषेध हो जाने पर भी आप ही शेष रहते हैं क्योंकि आप उस निषेध के भी साक्षी हैं और वास्तव में आप ही एकमात्र सत्य हैं ( इसलिए आपके भजन के बिना जीव का जीवन व्यर्थ ही है क्योंकि वह इस महान सत्य से वंचित है ) ।। 17

 

उदरमुपासते य ऋषिवर्त्मसु कूर्पदृशः

परिसरपद्धतिं हृदयमारुणयोदहरम्।

तत उदगादनन्त तव धाम शिरः परं

पुनरिह यत्समेत्य न पतन्ति कृतान्तमुखे॥१८॥

 

ऋषियों ने आप की प्राप्ति के लिए अनेकों मार्ग माने हैं । उनमें जो स्थूल दृष्टि वाले हैं , वे मणिपूरक चक्र में अग्नि रूप से आप की उपासना करते हैं । अरुण वंश के ऋषि समस्त नाड़ियों के निकलने के स्थान ह्रदय में आपके परम सूक्ष्म स्वरूप दहर ब्रह्म की उपासना करते हैं । प्रभो ! ह्रदय से ही आपको प्राप्त करने का श्रेष्ठ मार्ग सुषुम्ना नाड़ी ब्रह्म रंध्र तक गयी हुई है । जो पुरुष उस ज्योतिर्मय मार्ग को प्राप्त कर लेता है और उससे ऊपर की ओर बढ़ता है , वह फिर जन्म – मृत्यु के चक्र में नहीं पड़ता ।

 

 

श्रुति गीता ( श्रीमद्भागवतम , स्कंध 10 , अध्याय 87 में वर्णित )

 

 

स्वकृतविचित्रयोनिषु विशन्निव हेतुतया

तरतमतश्चकास्स्यनलवत्स्वकृतानुकृतिः।

अथ वितथास्वमूष्ववितथं तव धाम समं

विरजधियोऽनुयन्त्यभिविपण्यव एकरसम् ॥१९॥

 

भगवन ! आपने ही देवता , मनुष्य और पशु – पक्षी आदि योनियाँ बनाई हैं । सदा – सर्वत्र सब रूपों में आप हैं ही , इसलिए कारण रूप से प्रवेश न करने पर भी आप ऐसे जान पड़ते हैं , मानो उसमें प्रविष्ट हुए हों । साथ ही विभिन्न आकृतियों का अनुकरण करके कहीं उत्तम , तो कहीं अधम रूप से प्रतीत होते हैं , जैसे आग छोटी – बड़ी लकड़ियों और कर्मों के अनुसार प्रचुर अथवा अल्प परिणाम में या उत्तम – अधम रूप में प्रतीत होती है । इसलिए संत पुरुष लौकिक – पारलौकिक कर्मों की दुकानदारी से , उनके फलों से विरक्त हो जाते हैं और अपनी निर्मल बुद्धि से सत्य – असत्य , आत्मा – अनात्मा को पहचान कर जगत के झूठे रूपों में नहीं फंसते ; आपके सर्वत्र एकरस , समभाव  से स्थित सत्य स्वरूप का साक्षात्कार करते हैं ।।19

 

स्वकृतपुरेष्वमीष्वबहिरन्तरसंवरणं

तव पुरुषं वदन्त्यखिलशक्तिधृतोंऽशकृतम्।

इति नृगतिं विविच्य कवयो निगमापवनं

भवत उपासतेऽङ्घ्रिमभवं भुवि विश्वसिताः ॥२०॥

 

प्रभो ! जीव जिन शरीरों में रहता है , वे उसके कर्म के द्वारा निर्मित होते हैं और वास्तव में उन शरीरों के कार्य – कारण रूप आवरणों की सत्ता ही नहीं है । तत्वज्ञानी पुरुष ऐसा कहते हैं कि समस्त शक्तियों को धारण करने वाले आपका ही वह स्वरूप है । स्वरूप होने के कारण अंश न होने पर भी उसे अंश कहते हैं और निर्मित न होने पर भी निर्मित कहते हैं । इसी से बुद्धिमान पुरुष जीव के वास्तविक स्वरूप पर विचारक कर के परम विश्वास के साथ आपके चरणकमलों कि उपासना करते हैं क्योंकि आपके चरण ही समस्त वैदिक कर्मों के समर्पण स्थान और मोक्ष स्वरूप हैं ।। 20

 

दुरवगमात्मतत्त्वनिगमाय तवात्ततनो-

श्चरितमहामृताब्धिपरिवर्तपरिश्रमणाः।

न परिलषन्ति केचिदपवर्गमपीश्वर

ते चरण सरोज हंसकुलसंगविसृष्टगृहाः ॥२१॥

 

भगवन ! परमात्म तत्व का ज्ञान प्राप्त करना अत्यंत कठिन है । उसी का ज्ञान कराने के लिए आप विभिन्न प्रकार के अवतार ग्रहण करते हैं और उनके द्वारा ऐसी लीला करते करते हैं , जो अमृत के महासागर से भी मधुर और मादक होती है । जो लोग उसका सेवन करते हैं , उनकी सारी थकावट दूर हो जाती है , वे परमानन्द में मग्न हो जाते हैं । कुछ प्रेमी भक्त तो ऐसे होते हैं , जो आपकी लीला कथाओं को छोड़कर मोक्ष की भी अभिलाषा नहीं करते – स्वर्ग आदि की तो बात ही क्या है । वे आपके चरण कमलों के प्रेमी परमहंसों के सत्संग में , जहाँ आपकी कथा होती है , इतना सुख मानते हैं कि उसके लिए इस जीवन में प्राप्त अपनी घर – गृहस्थी का भी परित्याग कर दते हैं ।।21

 

त्वदनुपथं कुलायमिदमात्मसुहृत्प्रियव-

यदनुशया भ्रमन्त्युरुभये कुशरीरभृतः ॥२२॥

 

प्रभो ! यह शरीर आपकी सेवा का साधन होकर जब आपके पथ का अनुरागी हो जाता है , तब आत्मा , हितैषी , सुहृद और प्रिय व्यक्ति के सम्मान आचरण करता है । आप जीव के सच्चे हितैषी , प्रियतम और आत्मा ही हैं और सदा सर्वदा जीव को अपनाने के लिए तैयार भी रहते हैं । इतनी सुगमता होने पर तथा अनुकूल मानव – शरीर को पाकर भी लोग सख्य भाव आदि के द्वारा आपकी उपासना नहीं करते , आप में नहीं रमते , बल्कि इस विनाशी और असत शरीर तथा उसके सम्बन्धियों में ही रम जाते हैं , उन्हीं की उपासना करने लगते हैं और इस प्रकार अपने आत्मा का हनन करते हैं , उसे अधोगति में पहुंचाते हैं । भला , यह कितने कष्ट की बात है । इसका फल यह होता है कि उनकी सारी वृत्तियाँ , सारी वासनाएं शरीर आदि में ही लग जाती हैं और फिर उनके अनुसार उनको पशु – पक्षी आदि के न जाने कितने बुरे – बुरे शरीर ग्रहण करने पड़ते हैं और इस प्रकार अत्यंत भयावह जन्म – मृत्यु रूप संसार में भटकना पड़ता है ।

 

निभृतमरुन्मनोऽक्षदृढयोगयुजो हृदि

य-न्मुनयो उपासते तदरयोऽपि ययुः स्मरणात्।

स्त्रिय उरगेन्द्रभोगगुजदण्डविषक्तधियो वयमपि

ते समाः समदृशोऽङ्घ्रिसरोजसुधाः॥२३॥

 

प्रभो ! बड़े – बड़े विचारशील योगी – यति अपने प्राण , मन और इन्द्रियों को वश में करके दृढ़ योगाभ्यास के द्वारा ह्रदय में आपकी उपासना करते हैं परन्तु आश्चर्य की बात तो यह है कि उन्हें जिस पद की प्राप्ति होती है , उसी की प्राप्ति उन शत्रुओं को भी हो जाती है , जो आपसे बैर भाव रखते हैं क्योंकि स्मरण तो वे भी करते ही हैं । कहाँ तक कहें , भगवन ! वे स्त्रियां , जो अज्ञानवश आपको परिच्छिन्न मानती हैं और आपकी शेषनाग के समान मोटी , लम्बी तथा सुकुमार भुजाओं के प्रति काम भाव से आसक्त रहती हैं , जिस परम पद को प्राप्त करती हैं , वही पद हम श्रुतियों को भी प्राप्त होता है – यद्यपि हम आपको सदा – सर्वदा एकरस अनुभव करती हैं और आपके चरणारविन्द का मकरंद रस पान करती रहती हैं । क्यों न हो , आप समदर्शी जो हैं । आपकी दृष्टि में उपासक के परिच्छिन्न या अपरिच्छिन्न भाव में कोई अंतर नहीं है ।

 

क इह नु वेद बतावरजन्मलयोऽग्रसरं

यत उदगादृषिर्यमनु देवगणा उभये।

तर्हि न सन्न चासदुभयं न च कालजवः

किमपि न तत्र शास्त्रमवकृष्य शयीत यदा ॥२४॥

 

भगवन ! आप अनादि और अनंत हैं । जिसका जन्म और मृत्यु काल से सीमित है , वह भला आप को कैसे जान सकता है ? स्वयं ब्रह्माजी , निवृत्तिपरायण सनकादि तथा प्रवृत्ति परायण मरीचि आदि भी बहुत पीछे आप से ही उत्पन्न हुए हैं । जिस समय आप सब को समेत कर सो जाते हैं , उस समय ऐसा कोई साधन नहीं रह जाता , जिससे उनके साथ ही सोया हुआ जीव आप को जान सके क्योंकि उस समय न तो आकाशादि स्थूल जगत रहता है और न तो महतत्त्वादि सूक्ष्म जगत । इन दोनों से बने हुए शरीर और उनके निमित्त क्षण – मुहूर्त आदि काल के अंग भी नहीं रहते । उस समय कुछ भी नहीं रहता । यहाँ तक कि शास्त्र भी आप में समा जाते हैं । ( ऐसी अवस्था में आपको जानने की चेष्टा न करके आपका भजन करना ही सर्वोत्तम मार्ग है ) ।। 24

 

जनिमसतः सतो मृतिमुतात्मनि ये च भिदां

विपणमृतं स्मरन्त्युपदिशन्ति त आरुपितैः।

त्रिगुणमयः पुमानिति भिदा यदबोधकृता

त्वयि न ततः परत्र स भवेदवबोधरसे॥२५॥

 

प्रभो ! कुछ लोग मानते हैं कि असत जगत की उत्पत्ति होती है और कुछ लोग कहते हैं कि सत- रूप दुखों का नाश होने पर मुक्ति मिलती है । दूसरे लोग आत्मा को अनेक मानते हैं , तो कई लोग कर्म के द्वारा प्राप्त होने वाले लोक और परलोक रूप व्यव्हार को सत्य मानते हैं । इसमें संदेह नहीं कि ये सभी बातें भ्रममूलक हैं और वे आरोप करके ही ऐसा उपदेश करते हैं । पुरुष त्रिगुणमय है – इस प्रकार का भेदभाव केवल अज्ञान से ही होता है और आप अज्ञान से सर्वथा परे हैं । इसलिए ज्ञानस्वरूप आपमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है ।

 

सदिव मनस्त्रिवृत्त्वयि विभात्यसदामनुजात्

सदभिमृशन्त्यशेषमिदमात्मतयात्मविदः।

न हि विकृतिं त्यजन्ति कनकस्य तदात्मतया

स्वकृतमनुप्रविष्टमिदमात्मययावसितम्॥२६॥

 

यह त्रिगुणात्मक जगत मन की कल्पना मात्र है । केवल यही नहीं , परमात्मा और जगत से पृथक प्रतीत होने वाला पुरुष भी कल्पना मात्र ही है । इस प्रकार वास्तव में असत होने पर भी अपने सत्य अधिष्ठान आपकी सत्ता के कारण यह सत्य सा प्रतीत हो रहा है । इसलिए भोक्ता , भोग्य और दोनों के सम्बन्ध को सिद्ध करने वाली इन्द्रियाँ आदि जितना भी जगत है , सबको आत्मज्ञानी पुरुष आत्मरूप से सत्य मानते हैं । सोने से बने हुए कड़े , कुण्डल आदि स्वर्णरूप ही तो हैं ; इसलिए उनको इस रूप में जानने वाला पुरुष उन्हें छोड़ता नहीं , वह समझता है कि यह भी सोना है । इसी प्रकार यह जगत आत्मा में ही कल्पित , आत्मा से ही व्याप्त है ; इसलिए आत्मज्ञानी पुरुष इसे आत्मरूप ही मानते हैं ।। 26

 

तव परि ये चरन्त्यखिलसत्त्वनिकेततया

त उत पदाक्रमन्त्यविगणय्य शिरो निरृतेः।

परिवयसे पशूनिव गिरा विबुधानपि तां-

स्त्वयि कृतसौहृदाः खलु पुनन्ति न ये विमुखाः ॥२७॥

 

भगवन ! जो लोग यह समझते हैं कि आप समस्त प्राणियों और पदार्थों के अधिष्ठान हैं , सबके आधार हैं और सर्वात्मभाव से आपका भजन – सेवन करते हैं , वे मृत्यु को तुच्छ समझकर उसके सिर पर लात मारते हैं अर्थात उस पर विजय प्राप्त कर लेते हैं । जो लोग आपसे विमुख हैं , वे चाहे जितने बड़े विद्वान हों , उन्हें आप कर्मों का प्रतिपादन करने वाली श्रुतियों से पशुओं के समान बाँध लेते हैं । इसके विपरीत जिन्होंने आपके साथ प्रेम का सम्बन्ध जोड़ रखा है , वे न केवल अपने को बल्कि दूसरों को भी पवित्र कर देते हैं – जगत के बंधन से छुड़ा देते हैं । ऐसा सौभाग्य भला , आपसे विमुख लोगों को कैसे प्राप्त हो सकता है ।। 27

 

त्वमकरणः स्वराडखिलकारकशक्तिधर-

स्तव बलिमुद्वहन्ति समदन्त्यजयानिमिषाः।

वर्षभुजोऽखिलक्षितिपतेरिव विश्वसृजो

विदधति यत्र ये त्वधिकृता भवतश्चकिताः ॥२८॥

 

प्रभो ! आप मन , बुद्धि और इन्द्रिय आदि करणों से – चिंतन , कर्म आदि के साधनों से सर्वथा रहित हैं । फिर भी आप समस्त अंतःकरण और वाह्य करणों की शक्तियों से सदा – सर्वदा संपन्न हैं । आप स्वतः सिद्ध ज्ञानवान , स्वयं प्रकाश हैं । अतः कोई काम करने के लिए आपको इन्द्रियों की आवश्यकता नहीं है । जैसे छोटे – छोटे राजा अपनी – अपनी प्रजा से कर लेकर स्वयं अपने सम्राट को कर देते हैं वैसे मनुष्यों के पूज्य देवता और देवताओं के पूज्य ब्रह्मा आदि भी अपने अधिकृत प्राणियों से पूजा स्वीकार करते हैं और माया के अधीन होकर आपकी पूजा करते रहते हैं । वे इस प्रकार आपकी पूजा करते हैं कि आपने जहाँ जो कर्म करने के लिए उन्हें नियुक्त कर दिया है , वे आपसे भयभीत रह कर वहीँ वह काम करते रहते हैं ।। 28

 

स्थिरचरजातयः स्युरजयोत्थनिमित्तयुजो

विहर उदीक्षया यदि परस्य विमुक्त ततः।

न हि परमस्य कश्चिदपरो न परश्च भवेत्

वियत इवापदस्य तव  शून्यतुलां दधतः ॥२९॥

 

नित्यमुक्त ! आप मायातीत हैं , फिर भी जब अपने ईक्षण मात्र से – संकल्प मात्र से माया के साथ क्रीड़ा करते हैं , तब आपका संकेत पाते ही जीवों के सूक्ष्म शरीर और उनके सुप्त कर्म – संस्कार जग जाते हैं और चराचर प्राणियों कि उत्पत्ति होती है । प्रभो ! आप परम दयालु हैं । आकाश के समान सबमें सम होने के कारण न तो कोई आपका अपना है और न तो पराया । वास्तव में तो आपके स्वरूप में मन और वाणी की गति ही नहीं है । आपमें कार्य – कारण रूप प्रपंच का आभाव होने से वाह्य दृष्टि से आप शून्य के समान ही जान पड़ते हैं परन्तु उस दृष्टि के भी अधिष्ठान होने के कारण आप परम सत्य हैं ।। 29

 

अपरिमिता ध्रुवास्तनुभृतो यदि सर्वगता-

स्तर्हि न शास्यतेति नियमो ध्रुव नेतरथा।

अजनि च यन्मयं तदविमुच्य नियन्तृ भवेत्

सममनुजानतां यदमतं मतदुष्टतया ॥३०॥

 

भगवन ! आप नित्य एकरस हैं । यदि जीव असंख्य हों और सब के सब नित्य एवं सर्वव्यापक हों , तब तो वे आपके समान ही हों जायेंगे । उस हालत में वे शासित हैं और आप शासक – यह बात बन ही नहीं सकती और तब आप उनका नियंत्रण कर ही नहीं सकते । उनका नियंत्रण आप तभी कर सकते हैं , जब वे आपसे उत्पन्न एवं आपकी अपेक्षा न्यून हों । इसमें संदेह नहीं कि ये सब के सब जीव तथा इनकी एकता या विभिन्नता आपसे ही उत्पन्न हुई है । इसलिए आप उनमें कारणरूप से रहते हुए भी उनके नियामक हैं । वास्तव में आप उनमें समरूप से स्थित हैं परन्तु यह जाना नहीं जा सकता कि आपका वह स्वरूप कैसा है क्योंकि जो लोग ऐसा समझते हैं कि हमने जान लिया , उन्होंने वास्तव में आपको नहीं जाना ; उन्होंने तो केवल अपनी बुद्धि के विषय को जाना है , जिससे आप परे हैं और साथ ही मति के द्वारा जितनी वस्तुएं जानी जाती हैं वे मतियों की भिन्नता के कारण भिन्न – भिन्न होती हैं ; इसलिए उनकी दुष्टता , एक मत के साथ दूसरे मत का विरोध प्रत्यक्ष ही है । अतएव आपका स्वरूप समस्त मतों के परे हैं ।। 30

 

न घटत उद्भवः प्रकृतिपूरुषयोरजयो-

रुभययुजा भवन्त्यसुभृतो जलबुद्बुदवत्।

त्वयि ते इमे ततो विविधनामगुणैः परमे

सरित इवार्णवे मधुनि लिल्युरशेषरसाः ॥३१॥

 

स्वामिन ! जीव आपसे उत्पन्न होता है , यह कहने का ऐसा अर्थ नहीं है कि आप परिणाम के द्वारा जीव बनते हैं । सिद्धांत तो यह है कि प्रकृति और पुरुष दोनों अजन्मा हैं अर्थात उनका वास्तविक स्वरूप – जो आप हैं – कभी वृत्तियों के अंदर उतरता नहीं , जन्म नहीं लेता । तब प्राणियों का जन्म कैसे होता है ? अज्ञान के कारण प्रकृति को पुरुष और पुरुष को प्रकृति समझ लेने से , एक का दूसरे के साथ संयोग हो जाने से जैसे ‘ बुलबुला ‘ नाम की कोई स्वतन्त्र वास्तु नहीं है , परन्तु उपादान कारण जल और निमित्त – कारण वायु के संयोग से उसकी सृष्टि हो जाती है । प्रकृति में पुरुष और पुरुष में प्रकृति का अध्यास ( एक में दूसरे की कल्पना ) हो जाने के कारण ही जीवों के विविध नाम और गुण रख लिए जाते हैं । अंत में जैसे समुद्र में नदियाँ और मधु में समस्त पुष्पों के रस समा जाते हैं , वैसे ही वे सब के सब उपाधिरहित आप में समा जाते हैं । ( इसलिए जीवों की भिन्नता और उनका पृथक अस्तित्व आपके द्वारा नियंत्रित है । उनकी पृथक स्वतंत्रता और सर्व व्यापकता आदि वास्तविक सत्य को न जानने के कारण ही मानी जाती है ) ।। 31

 

नृषु तव मायया भ्रमममीष्ववगत्य भृशं

त्वयि सुधियोऽभवे दधति भावमनुप्रभवम्।

कथमनुवर्ततां भवभयं तव यद् भ्रुकुटिः

सृजति मुहुस्त्रिनेमिरभवच्छरणेषु भयम्॥३२॥

 

भगवन ! सभी जीव आपकी माया से भ्रम में भटक रहे हैं , अपने को आप से पृथक मान कर जन्म – मृत्यु का चक्कर काट रहे हैं परन्तु बुद्धिमान पुरुष इस भ्रम को समझ लेते हैं और सम्पूर्ण भक्ति भाव से आपकी शरण ग्रहण करते हैं क्योंकि आप जन्म – मृत्यु के चक्कर से छुड़ाने वाले हैं । यद्यपि शीत , ग्रीष्म और वर्षा – इन तीनों भागों वाला कालचक्र आपका भ्रूविलासमात्र है , वह सभी को भयभीत करता है , परन्तु वह उन्हीं को बार – बार भयभीत करता है , जो आपकी शरण नहीं लेते । जो आपके शरणागत भक्त हैं , उन्हें भला , जन्म – मृत्यु रूप संसार का भय कैसे हो सकता है ? ।। 32

 

विजितहृषीकवायुभिरदान्तमनस्तुरगं

य इह यतन्ति यन्तुमतिलोलमुपायखिदः।

व्यसनशतान्विताः समवहाय गुरोश्चरणं

वणिज इवाज सन्त्यकृतकर्णधरा जलधौ ॥३३॥

 

अजन्मा प्रभो ! जिन योगियों ने अपनी इन्द्रियों और प्राणों को वश में कर लिया है , वे भी जब , गुरुदेव के चरणों की शरण न लेकर उच्छृंखल एवं अत्यंत चंचल मन – तुरंग को अपने वश में करने का प्रयत्न करते हैं , तब अपने साधनों में सफल नहीं होते । उन्हें बार – बार खेद और सैंकड़ों विपत्तियों का सामना करना पड़ता है , केवल श्रम और दुःख ही उनके हाथ लगता है । उनकी ठीक वही दशा होती है , जैसी समुद्र में बिना कर्णधार की नाव पर यात्रा करने वाले व्यापारियों की होती है ( तात्पर्य यह है कि जो मन को वश में करना चाहते हैं , उनके लिए कर्णधार – गुरु की अनिवार्य आवश्यकता है ) ।। 33

 

स्वजनसुतात्मदारधनधामधरासुरथै-

स्त्वयि सति किं नृणां श्रयत आत्मनि सर्वरसे।

इति सदजानतां मिथुनतो रतये चरतां

सुखयति को न्विह स्वविहते स्वनिरस्तभगे॥३४॥

 

भगवन ! आप अखंड आनंद स्वरूप और शरणागतों के आत्मा हैं । आपके रहते स्वजन , पुत्र , देह , स्त्री , धन , महल , पृथ्वी , प्राण और रथ आदि से क्या प्रयोजन है ? जो लोग इस सत्य सिद्धांत को न जान कर स्त्री – पुरुष के सम्बन्ध से होने वाले सुखों में ही रम रहे हैं , उन्हें संसार में भला , ऐसी कौन सी वस्तु है , जो सुखी कर सके ? क्योंकि संसार की सभी वस्तुएं स्वभाव से ही विनाशी हैं , एक न एक दिन मटियामेट हो जाने वाली हैं । और तो क्या , वे स्वरूप से ही सारहीन और सत्ताहीन हैं ; वे भला क्या सुख दे सकती हैं ? ।।  34

 

भुवि पुरुपुण्यतीर्थसदनान्यृषयो विमदा-स्त

उत भवत्पदाम्बुजहृदोऽघभिदङ्घ्रिजलाः।

दधति सकृन्मनस्त्वयि य आत्मनि नित्यसुखे

नपुनरुपासते पुरुषसारहरावसथान् ॥३५॥

 

भगवन ! जो ऐश्वर्य , विद्या , लक्ष्मी , जाति , तपस्या आदि के घमंड से रहित हैं , वे संत पुरुष इस पृथ्वी तल पर परम पवित्र और सबको पवित्र करने वाले पुण्यमय सच्चे तीर्थ स्थान हैं क्योंकि उनके ह्रदय में आपके चरणारविन्द सर्वदा विराजमान रहते हैं और यही कारण है कि उन संत पुरुषों का चरणामृत समस्त पापों और तापों को सदा के लिए नष्ट कर देने वाला है । भगवन ! आप नित्य आनंदस्वरूप आत्मा ही हैं । जो एक बार भी आपको अपना मन समर्पित कर देते हैं – आपमें मन लगा देते हैं – वे उन देह – गेहों में कभी नहीं फंसते जो जीव के विवेक , वैराग्य , धैर्य , क्षमा और शांति आदि गुणों का नाश करने वाले हैं । वे तो बस , आप में ही रम जाते हैं ।।35

 

सतइदमुत्थितं सदिति चेन्ननु तर्कहतं

व्यभिचरति क्व च क्व च मृषा न तथोभययुक्।

व्यवहतये विकल्प इषितोऽन्धपरम्परया

भ्रमयति भारती त उरुवृत्तिभिरुक्थजडान्॥३६॥

 

भगवन ! जैसे मिट्टी से बना हुआ घड़ा मिट्टीरूप ही होता है , वैसे ही सत से बना हुआ जगत भी सत ही है – यह बात युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि कारण और कार्य का निर्देश ही उनके भेद का द्योतक है । यदि केवल भेद का निषेध करने के लिए ही ऐसा कहा जा रहा हो तो पिता और पुत्र में , दंड और घटनाश में कार्य – कारण-भाव होने पर भी वे एक दूसरे भिन्न हैं । इस प्रकार कार्य – कारण की एकता सर्वत्र एक सी नहीं देखी जाती । यदि कारण – शब्द से निमित्त – कारण न लेकर केवल उपादान – कारण लिया जाये – जैसे कुण्डल का सोना – तो भी कहीं – कहीं कार्य की असत्यता प्रमाणित होती है – जैसे रस्सी में सांप । यहाँ उपादान – कारण के सत्य होने पर भी उसका कार्य सर्प सर्वथा असत्य है । यदि यह कहा जाये कि प्रतीत होने वाले सर्प का उपादान – कारण केवल रस्सी नहीं है , उसके साथ अविद्या का – भ्रम का मेल भी है , तो यह समझना चाहिए कि अविद्या और सत वस्तु के संयोग से ही इस जगत की उत्पत्ति हुई है । इसलिए जैसे रस्सी में प्रतीत होने वाला सर्प मिथ्या है , वैसे ही सत वस्तु में अविद्या के संयोग से प्रतीत होने वाला नाम – रूपात्मक जगत भी मिथ्या है । यदि केवल व्यवहार की सिद्धि के लिए ही जगत की सत्ता अभीष्ट हो , तो उसमें कोई आपत्ति नहीं ; क्योंकि वह पारमार्थिक सत्य न होकर केवल व्यावहारिक सत्य है । यह भ्रम व्यावहारिक जगत में माने हुए काल की दृष्टि से अनादि है और अज्ञानीजन बिना विचार किये पूर्व – पूर्व के भ्रम से प्रेरित होकर अंध परंपरा से इसे मानते चले आ रहे हैं । ऐसी स्थिति में कर्मफल को सत्य बतलाने वाली श्रुतियाँ केवल उन्हीं लोगों को भ्रम में डालती हैं , जो कर्म में जड़ हो रहे हैं और यह नहीं समझते कि इनका तात्पर्य कर्मफल की नित्यता बतलाने में नहीं बल्कि उनकी प्रशंसा करके उन कर्मों में लगाने में है ।। 36

 

न यदिदमग्र आस न भविष्यदतो निधना-

दनुमितमन्तरा त्वयि विभाति मृषैकरसे।

अतउपमीयते द्रविणजातिविकल्पपथै-

रवितथमनोविलासमृतमित्यवयन्त्यबुधाः ॥३७॥

 

भगवन ! वास्तविक बात तो यह है कि यह जगत उत्पत्ति के पहले नहीं था और प्रलय के बाद नहीं रहेगा ; इस से यह सिद्ध होता है कि यह बीच में भी एकरस परमात्मा में मिथ्या ही प्रतीत हो रहा है । इसी से हम श्रुतियाँ इस जगत का वर्णन ऐसी उपमा देकर करती हैं कि जैसे मिट्टी में घड़ा , लोहे में शस्त्र और सोने में कुण्डल आदि नाम मात्र हैं , वास्तव में मिट्टी , लोहा और सोना ही हैं । वैसे ही परमात्मा में वर्णित जगत नाममात्र हैं , सर्वथा मिथ्या और मन की कल्पना है। इसे नासमझ मूर्ख ही सत्य मानते हैं ।। 37

 

स यदजया त्वजामनुशयीतगुणांश्च जुषन्

भजतिसरूपतां तदनु मृत्युमपेतभगः ।

त्वमुत जहासि तामहिरिवत्वचमात्तभगो

महसिमहीयसेऽष्टगुणितोऽपरिमेयभगः ॥३८॥

 

भगवन ! जब जीव माया से मोहित होकर अविद्या को अपना लेता है , उस समय उसके स्वरूपभूत आनन्दादि गुण ढक जाते हैं ; वह गुणजन्य वृत्तियों , इन्द्रियों और देहों में फँस जाता है तथा उन्हीं को अपना आपा मानकर उनकी सेवा करने लगता है । अब उनकी जन्म – मृत्यु में अपनी जन्म – मृत्यु मानकर उनके चक्कर में पड़ जाता है । परन्तु प्रभो ! जैसे सांप अपने केंचुल से कोई सम्बन्ध नहीं रखता , उसे छोड़ देता है – वैसे ही आप माया – अविद्या से कोई सम्बन्ध नहीं रखते , उसे सदा – सर्वदा छोड़े रहते हैं । इसी से आपके सम्पूर्ण ऐश्वर्य , सदा – सर्वदा आपके साथ रहते हैं । अणिमा आदि अष्ट सिद्धियों से युक्त परमैश्वर्य में आपकी स्थिति है । इसी से आपका ऐश्वर्य , धर्म , यश , श्री , ज्ञान और वैराग्य अपरिमित है , अनंत है ; वह देश , काल और वस्तुओं की सीमा से आबद्ध नहीं है ।।38

 

यदि न समुद्धरन्ति यतयो हृदि कामजटा

दुरधिगमोऽसतांहृदि गतोऽस्मृतकण्ठमणिः।

असुतृपयोगिनामुभयतोऽप्यसुखंभगव-

न्ननपगतान्तकादनधिरूढपदाद्भवतः ॥३९॥

 

भगवन ! यदि मनुष्य योगी – यति होकर भी अपने ह्रदय की विषय – वासनाओं को उखाड़ नहीं फेंकते तो उन असाधकों के लिए आप ह्रदय में रहने पर भी वैसे ही दुर्लभ हैं , जैसे कोई अपने गले में मणि पहने हुए हो , परन्तु उसकी याद न रहने पर उसे ढूँढ़ता फिरे इधर – उधर । जो साधक अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने में ही लगे रहते हैं , विषयों से विरक्त नहीं होते , उन्हें जीवन भर और जीवन के बाद भी दुःख – ही – दुःख भोगना पड़ता है क्योंकि वे साधक नहीं , दम्भी हैं । एक तो अभी उन्हें मृत्यु से छुटकारा नहीं मिला है , लोगों को रिझाने , धन कमाने आदि के क्लेश उठाने पड़ रहे हैं और दूसरे आप का स्वरूप न जानने के कारण अपने धर्म – कर्म का उल्लंघन करने से परलोक में नरक आदि प्राप्त होने का भय भी बना ही रहता है ।

 

त्वदवगमी न वेत्ति भवदुत्थशुभाशुभयो-

र्गुणविगुणान्वयांस्तर्हिदेहभृतां च गिरः।

अनुयुगमन्वहं सगुण गीतपरंपरया

श्रवणभृतो यतस्त्वमपवर्गगतिर्मनुजैः ॥४०॥

 

भगवन ! आपके वास्तविक स्वरूप को जानने वाला पुरुष आपके दिए पुण्य और पाप कर्मों के फल सुख एवं दुःखों को नहीं जानता , नहीं भोगता ; वह भोग्य और भोक्तापन के भाव से ऊपर उठ जाता है , उस समय विधि – निषेध के प्रतिपादक शास्त्र भी उससे निवृत्त हो जाते हैं ; क्योंकि वे देहाभिमानियों के लिए हैं । उनकी ओर तो उसका ध्यान ही नहीं जाता । जिसे आपके स्वरूप का का ज्ञान नहीं हुआ है , वह भी यदि प्रतिदिन आपकी प्रत्येक युग में की हुई लीलाओं , गुणों का गान सुन – सुन कर उनके द्वारा आपको अपने ह्रदय में बैठा लेता है तो अनंत , अचिन्त्य , दिव्या गुण गणों के निवास स्थान प्रभो ! आपका वह प्रेमी भक्त भी पाप – पुण्यों के फल सुख – दुःखों और विधि – निषेधों से अतीत हो जाता है । क्योंकि आप ही उनकी मोक्षस्वरूप गति हैं । ( परन्तु इन ज्ञानी और प्रेमियों को छोड़कर और सभी शास्त्र बंधन में हैं तथा वे उसका उल्लंघन करने पर दुर्गति को प्राप्त होते हैं ।। 40

 

द्युपतय एव ते न ययुरन्तमनन्ततया

त्वमपि यदन्तराण्डनिचया ननु सावरणाः।

ख इव रजांसि वान्ति वयसा सह यच्छ्रुतय-

स्त्वयि हि फलन्त्यतन्निरसनेन भवन्निधनाः॥४१॥

 

भगवन ! स्वर्गादि लोकों के अधिपति इन्द्र , ब्रह्मा प्रभृत्ति भी आपकी थाह – आपका पार न पा सके ; और आश्चर्य की बात तो यह है कि आप भी उसे नहीं जानते । क्योंकि जब अंत है ही नहीं , तब कोई जानेगा कैसे ? प्रभो ! जैसे आकाश में हवा से धूल के नन्हें – नन्हें कण उड़ते रहते हैं , वैसे ही आपमें काल के वेग से अपने से उत्तरोत्तर दसगुने सात आवरणों के सहित असंख्य ब्रह्माण्ड एक साथ ही घूमते रहते हैं । तब भला , आपकी सीमा कैसे मिले ? हम श्रुतियाँ भी आपके स्वरूप का साक्षात वर्णन नहीं कर सकतीं , आपके अतिरिक्त वस्तुओं का निषेध करते – करते अंत में आपका भी निषेध कर देती हैं और आपमें ही अपनी सत्ता खोकर सफल हो जाती हैं ।।41

 

श्रीभगवानुवाच-

इत्येतद् ब्रह्मण्णः पुत्रा आश्रुत्यात्मानुशासनम्।

सनन्दनमथानर्चुः सिद्धा ज्ञात्वात्मनोगतिम् ॥४२॥

 

भगवान नारायण ने कहा – देवर्षे ! इस प्रकार सनकादि ऋषियों ने आत्मा और ब्रह्म की एकता बतलाने वाला उपदेश सुनकर आत्मस्वरूप को जाना और नित्य सिद्ध होने पर भी इस उपदेश से कृत – कृत्य हो कर उन लोगों ने सनन्दन की पूजा की ।

 

इत्यशेषसमाम्नायपुराणोपनिषद्‍रसः।

समुद्धृतः पूर्वजातैर्व्योमयानैर्महात्मभिः॥४३॥

 

नारद ! सनकादि ऋषि सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए थे , अतएव वे सबके पूर्वज हैं , उन आकाशगामी महात्माओं ने इस प्रकार समस्त वेद , पुराण और उपनिषदों का रास निचोड़ लिया है , यह सबका सार – सर्वस्व है ।।43

 

त्वं चैतद्  ब्रह्मदायाद श्रद्धयात्मानुशासनम्।

धारयंश्चर गां कामं कामानां  भर्जनं नृणाम् ॥४४॥

 

देवर्षे ! तुम भी उन्हीं के सामान ब्रह्मा के मानस पुत्र हो – उनकी ज्ञान – संपत्ति के उत्तराधिकारी हो । तुम भी श्रद्धा के साथ इस ब्रह्मात्म विद्या को धारण करो और स्वच्छंद भाव से पृथ्वी में विचरण करो । यह विद्या मनुष्यों की समस्त वासनाओं को भस्म कर देने वाली है ।। 44

 

श्रीशुक उवाच-

एवं स ऋषिणादिष्टं गृहीत्वा श्रद्धयात्मवान्।

पूर्णः श्रुतधरो राजन्नाह वीरव्रतो मुनिः ॥४५॥

 

श्री शुकदेव जी कहते हैं – परीक्षित ! देवर्षि नारद बड़े संयमी , ज्ञानी , पूर्णकाम और नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं । वे जो कुछ सुनते हैं , उन्हें उसकी धारणा हो जाती है । भगवान नारायण ने उन्हें जब इस प्रकार उपदेश किया , तब उन्होंने बड़ी श्रद्धा से उसे ग्रहण किया और उनसे यह कहा ।। 45

 

श्रीनारद उवाच-

नमस्तस्मै भगवते कृष्णायामलकिर्तये।

यो धत्ते सर्वभूतानामभवायोशतीः कलाः ॥४६॥

 

देवर्षि नारद ने कहा – भगवन ! आप सच्चिदानंद स्वरूप श्रीकृष्ण हैं । आपकी कीर्ति परम पवित्र है । आप समस्त प्राणियों के परम कल्याण – मोक्ष के लिए कमनीय  कलावतार धारण किया करते हैं । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।। 46

 

इत्याद्यमृषिमानम्य तच्छिष्यांश्च महात्मनः

ततोऽगादाश्रमं साक्षात्पितुर्द्वैपायनस्य मे ॥४७॥

 

शुकदेव गोस्वामी बोले , परीक्षित ! इस प्रकार महात्मा देवर्षि नारद आदि ऋषि भगवान् नारायण को और उनके शिष्यों को नमस्कार कर के स्वयं मेरे पिता श्री कृष्ण द्वैपायन के आश्रम पर गए ।। 47

 

सभाजितो भगवता कृतासनपरिग्रहः।

तस्मै तद्वर्णयामास नारायणमुखाच्छ्रुतम् ॥४८॥

 

भगवान वेदव्यास ने उनका यथोचित सत्कार किया । वे आसन स्वीकार करके बैठ गए , इसके बाद देवर्षि नारद ने जो कुछ भगवान नारायण के मुँह से सुना था , वह सब कुछ मेरे पिताजी को सुना दिया ।। 48

 

इत्येतद्वर्णितं राजन् यन्नः प्रश्नः कृतस्त्वया।

यथा ब्रह्मण्यनिर्देश्ये निर्गुणेऽपि मनश्चरेत् ॥४९॥

 

राजन ! इस प्रकार मैंने तुम्हें बतलाया कि मन – वाणी से अगोचर और समस्त प्राकृत गुणों से रहित परब्रह्म परमात्मा का वर्णन श्रुतियाँ किस प्रकार करती हैं और उसमें मन का प्रवेश कैसे होता है ? यही तो तुम्हारा प्रश्न था । 

 

यं सम्पद्यजहात्यजामनुशयी सुप्तः कुलायं यथा।

तं कैवल्यनिरस्तयोनिमभयं ध्यायेदजस्रं हरिम् ॥५०॥

 

परीक्षित ! भगवान ही इस विश्व का संकल्प करते हैं तथा उसके आदि , मध्य और अंत में स्थित रहते हैं । उन्होंने ही इसकी सृष्टि करके जीव के साथ इसमें प्रवेश किया है और शरीरों का निर्माण कर के वे ही उनका नियंत्रण करते हैं । जैसे गाढ़ निद्रा – सुषुप्ति में मग्न पुरुष अपने शरीर का अनुसन्धान छोड़ देता है , वैसे ही भगवान् को पाकर यह जीव माया से मुक्त हो जाता है । भगवान ऐसे विशुद्ध , केवल चिन्मात्र तत्व हैं कि उनमें जगत के कारण माया अथवा प्रकृति का रत्ती भर भी अस्तित्व नहीं है । वे ही वास्तव में अभय – स्थान हैं । उनका चिंतन निरंतर करते रहना चाहिए ।। 50

 

 

 

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