Svadha Stotram for ancestors

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Svadha Stotra

 

 

 

स्वधा स्तोत्र का उल्लेख ब्रह्म वैवर्त पुराण के प्रकृति खंड में किया गया है । यह भगवन ब्रह्मा द्वारा कहा गया है । स्वधा स्तोत्र का पाठ श्राद्ध पक्ष / पितृ पक्ष , श्राद्ध के दिनों में करना चाहिए । स्वधा स्तोत्र सम्पूर्ण अभिलाषा प्रदान करने वाला है।  यदि किसी कारणवश पूरा पाठ न कर पाएं तो केवल तीन बार स्वधा , स्वधा , स्वधा बोलने से ही सौ श्राद्धों के समान पुण्य फल मिलता है । 

Contents

भगवती स्वधा की उत्तम कथा

 

यह पितरों के लिये तृप्तिप्रद एवं श्राद्धों के फल को बढ़ाने वाला है। जगत्स्रष्टा ब्रह्मा ने सृष्टि के आरम्भ में सात पितरों का सृजन किया; उनमें चार तो मूर्तिमान थे और तीन तेजःस्वरूपा थे। उन सातों सिद्धिस्वरूप मनोहर पितरों को देखकर उनके भोजन के लिये श्राद्ध-तर्पणपूर्वक दिया हुआ पदार्थ निश्चित किया। तर्पणान्त स्नान, श्राद्धपर्यन्त देवता पूजन तथा त्रिकालसंध्यान्त आह्निक कर्म – यह ब्राह्मणों का परम कर्तव्य है।

यह बात श्रुति में प्रसिद्ध है। जो ब्राह्मण नित्य त्रिकाल संध्या, श्राद्ध, तर्पण, बलिवैश्वदेव और वेदध्वनि नहीं करता, उसे विषहीन सर्प के समान शक्तिहीन समझना चाहिये। श्रीहरि की सेवा से वंचित तथा भगवान को भोग लगाये बिना खाने वाला मनुष्य जीवनपर्यन्त अपवित्र रहता है। उसे कोई भी शुभ कार्य करने का अधिकार नहीं है। इस प्रकार ब्रह्मा जी तो पितरों के आहारार्थ श्राद्ध आदि का विधान करके चले गये; परंतु ब्राह्मण आदि उनके लिये जो कुछ देते थे, उसे पितर पाते नहीं थे। अतः वे सभी क्षुधा शान्त न होने के कारण दुःखी होकर ब्रह्मा जी की सभा में गये। उन्होंने वहाँ जाकर ब्रह्मा जी को सारी बातें बतायीं। तब उन महाभाग विधाता ने एक परम सुन्दर मानसी कन्या प्रकट की।

सैकड़ों चन्द्रमा की प्रभा के समान मुखवाली वह देवी रूप और यौवन से सम्पन्न थी। उस साध्वी देवी में विद्या, गुण, बुद्धि और रूप सम्यक प्रकार से विद्यमान थे। श्वेत चम्पा के समान उसका उज्ज्वल वर्ण था। वह रत्नमय भूषणों से विभूषित थी। मूलप्रकृति भगवती जगदम्बा की अंशभूता वह शुद्धस्वरूपा देवी मन्द-मन्द मुस्करा रही थी। वर देने वाली एवं कल्याणस्वरूपिणी उस सुन्दरी का नाम ‘स्वधा’ रखा गया। भगवती लक्ष्मी के सभी शुभ लक्षण उसमें विराजमान थे। उसके दाँत बड़े सुन्दर थे। वह अपने चरणकमलों को शतदल कमल पर रखे हुए थी। उसके मुख और नेत्र विकसित कमल के सदृश सुन्दर थे। उसे पितरों की पत्नी बनाया गया। ब्रह्मा जी ने पितरों को संतुष्ट करने के लिये यह तुष्टिस्वरूपिणी पत्नी उन्हें सौंप दी। साथ ही अन्त में ‘स्वधा’ लगाकर मन्त्रों का उच्चारण करके पितरों के उद्देश्य से पदार्थ अर्पण करना चाहिये– यह गोपनीय बात भी ब्राह्मणों को बतला दी। तबसे ब्राह्मण उसी क्रम से पितरों को कव्य प्रदान करने लगे। यों देवताओं के लिये वस्तु दान में ‘स्वाहा’ और पितरों के लिये ‘स्वधा’ शब्द का उच्चारण श्रेष्ठ माना जाने लगा। सभी कर्मों (यज्ञों) में दक्षिणा उत्तम मानी गयी है। दक्षिणाहीन यज्ञ नष्टप्राय कहा गया है। उस समय देवता, पितर, ब्राह्मण, मुनि और मानव– इन सबने बड़े आदर के साथ उन शान्तस्वरूपिणी भगवती स्वधा की पूजा एवं स्तुति की। देवी के वर-प्रसाद से वे सब-के-सब परम संतुष्ट हो गये। उनकी सारी मनःकामनाएँ पूर्ण हो गयीं।

भगवती स्वधा की पूजा का विधान, ध्यान और स्तोत्र

 

देवी स्वधा का ध्यान-स्तवन वेदों में वर्णित है, अतएव सबके लिये मान्य है। शरत्काल में आश्विन मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी तिथि को मघा नक्षत्र में अथवा श्राद्ध के दिन यत्नपूर्वक भगवती स्वधा की पूजा करके तत्पश्चात् श्राद्ध करना चाहिये। जो अभिमानी ब्राह्मण स्वधा देवी की पूजा न करके श्राद्ध करता है, वह श्राद्ध और तर्पण के फल का भागी नहीं होता – यह सर्वथा सत्य है।

 

ब्रह्मणो मानसीं कन्यां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् ।

पूज्यां पितॄणां देवानां श्राद्धानां फलदां भजे ।।

 

‘भगवती स्वधा ब्रह्मा जी की मानसी कन्या हैं, ये सदा तरुणावस्था से सम्पन्न रहती हैं। पितरों और देवताओं के लिये सदा पूजनीया हैं। ये ही श्राद्धों का फल देने वाली हैं। इनकी मैं उपासना करता हूँ।’

इस प्रकार ध्यान करके शालग्राम शिला अथवा मंगलमय कलश पर इनका आवाहन करना चाहिये। तदनन्तर मूलमन्त्र से पाद्य आदि उपचारों द्वारा इनका पूजन करना चाहिये।

 

‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं स्वधादेव्यै स्वाहा’

इस मन्त्र का उच्चारण करके ब्राह्मण इनकी पूजा, स्तुति और इन्हें प्रणाम करें।

 

 

Svadha Stotram for ancestors

 

 

ब्रह्मोवाच –

स्वधोच्चारणमात्रेण तीर्थस्नायी भवेन्नरः ।

मुच्यते सर्वपापेभ्यो वाजपेयफलं लभेत् ॥ १ ॥

 

ब्रह्माजी बोले स्वधा शब्द के उच्चारण मात्र से मानव तीर्थ स्नायी हो जाता है। वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर वाजपेय यज्ञ के फल का अधिकरी हो जाता है॥

 

स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं यदि वारत्रयं स्मरेत् ।

श्राद्धस्य फलमाप्नोति कालतर्पणयोस्तथा ॥ २ ॥

 

स्वधा, स्वधा, स्वधा – इस प्रकार यदि तीन बार स्मरण किया जाये तो श्राद्ध, काल और तर्पण के फल पुरुष को प्राप्त हो जाते हैं|

 

श्राद्धकाले स्वधास्तोत्रं यः शृणोति समाहितः ।

लभेच्छ्राद्धशतानाञ्च पुण्यमेव न संशयः ॥ ३ ॥

 

श्राद्ध के अवसर पर जो पुरुष सावधान होकर स्वधा देवी के स्तोत्र का श्रवण करता है,वह सौ श्राद्धों का पुण्य पा लेता है, इस में संशय नहीं है ।

 

स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः ।

प्रियां विनीतां स लभेत्साध्वीं पुत्रं गुणान्वितम् ॥ ४ ॥

 

जो मानव ‘स्वधा, स्वधा, स्वधा’ इस पवित्र नाम का त्रिकाल सन्ध्या के समय पाठ करता है, उसे विनीत, पतिव्रता एवं प्रिय पत्नी प्राप्त होती है तथा सद्गुण सम्पन्न पुत्र का लाभ होता है।

 

पितॄणां प्राणतुल्या त्वं द्विजजीवनरूपिणी ।

श्राद्धाधिष्ठातृदेवी च श्राद्धादीनां फलप्रदा ॥ ५ ॥

 

देवि ! तुम पितरों के लिये प्राणतुल्या और ब्राह्मणों के लिये जीवन स्वरूपिणी हो। तुम्हें श्राद्ध की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। तुम्हारी ही कृपा से श्राद्ध और तर्पण आदि के फल मिलते हैँ।

 

बहिर्मन्मनसो गच्छ पितॄणां तुष्टिहेतवे ।

सम्प्रीतये द्विजातीनां गृहिणां वृद्धिहेतवे ॥ ६ ॥

 

देवी ! तुम पितरों की तुष्टि, द्विजातियों की प्रीति तथा गृहस्थों की अभिवृद्धि के लिये मुझ ब्रह्मा के मन से निकल कर बाहर आ जायो।

 

नित्यानित्यस्वरूपासि गुणरूपासि सुव्रते ।

आविर्भावस्तिरोभावः सृष्टौ च प्रलये तव ॥ ७ ॥

 

सुव्रते! तुम नित्य हो तुम्हारा विग्रह नित्य और गुणमय है। तुम सृष्टि के समय प्रकट होती हो और प्रलयकाल में तुम्हारा तिरोभाव हो जाता है ।

 

ॐ स्वस्ति च नमः स्वाहा स्वधा त्वं दक्षिणा तथा ।

निरूपिताश्चतुर्वेदे षट्प्रशस्ताश्च कर्मिणाम् ॥ ८ ॥

 

तुम ॐ, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा एवं दक्षिणा हो॥ चारों वेदों द्वारा तुम्हारे इन छः स्वरूपों का निरूपण किया गया है, कर्मकाण्डी लोगों में इन छहों की बड़ी मान्यता है।

 

पुरासीत्त्वं स्वधागोपी गोलोके राधिकासखी ।

धृतोरसि स्वधात्मानं कृतं तेन स्वधा स्मृता ॥ ९ ॥

 

हे देवि ! तुम पहले गोलोक में “स्वधा” नाम की गोपी थी और राधिका की सखी थी, भगवान श्री कृष्ण ने अपने वक्षः स्थल पर तुम्हें  धारण किया, इसी कारण तुम “स्वधा” नाम से जानी गयी॥

 

इत्येवमुक्त्वा स ब्रह्मा ब्रह्मलोके च संसदि ।

तस्थौ च सहसा सद्यः स्वधा साविर्बभूव ह ॥ १० ॥

 

इस प्रकार देवी स्वधा की महिमा गा कर ब्रह्मा जी अपनी सभा में विराजमान हो गये। इतने में सहसा भगवती स्वधा उन के सामने प्रकट हो गयी॥

 

तदा पितृभ्यः प्रददौ तामेव कमलाननाम् ।

तां संप्राप्य ययुस्ते च पितरश्च प्रहर्षिताः ॥ ११ ॥

 

तब पितामह ने उन कमलनयनी देवी को पितरों के प्रति समर्पण कर दिया। उन देवी की प्राप्ति से पितर अत्यन्त प्रसन्न हो कर अपने लोक को चले गये॥

 

स्वधा स्तोत्रमिदं पुण्यं यः शृणोति समाहितः ।

स स्नातः सर्वतीर्थेषु वेदपाठफलं लभेत् ॥ १२ ॥

 

यह भगवती स्वधा का पुनीत सतोत्र है। जो पुरुष समाहित चित्त से इस स्तोत्र का श्रवण करता है, उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान कर लिया और वह वेदपाठ का फल प्राप्त कर लेता है॥ ॥

 

इस प्रकार देवी स्वधा की महिमा गाकर ब्रह्मा जी अपनी सभा में विराजमान हो गये। इतने में सहसा भगवती स्वधा उनके सामने प्रकट हो गयीं। तब पितामह ने उन कमलनयनी देवी को पितरों के प्रति समर्पण कर दिया। उन देवी की प्राप्ति से पितर अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे आनन्द से विह्वल हो गये।

 

 

इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसण्वादे स्वधोपाख्याने स्वधोत्पत्ति तत्पूजादिकं नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥

इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्त्त महापुराण द्वितीय प्रकृतिखण्ड नारदनारायणसंवाद स्वधोपाख्यान अध्याय-४१ व श्रीमद्देवीभागवत पुराणान्तर्गत नवम स्कन्ध अध्याय-३२ भगवती स्वधा का उपाख्यान, उनके ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तोत्रों का वर्णन समाप्त हुआ॥

 

 

 

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