Shattila Ekadashi

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Shattila Ekadashi

 

 

माघ मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को षट्तिला एकादशी कहते हैं । पुराणों में षटतिला एकादशी का बहुत महत्त्व बताया गया है । इस दिन उपवास करने से , विधि विधान पूर्वक पूजा करने से , दान तथा तर्पण करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है । पद्म पुराण के अनुसार षटतिला अर्थात तिलों के छह प्रकार के प्रयोग से युक्त एकादशी । षटतिला एकादशी के दिन तिलों का छह प्रकार से प्रयोग किया जाता है । षटतिला एकादशी के दिन तिलों का इस प्रकार प्रयोग करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है । षटतिला एकादशी का व्रत करने से वाचिक, मानसिक और शारीरिक तीन तरह के पापों से मुक्ति मिलती है । षटतिला एकादशी के दिन पूजन में व्रत कथा का पाठ करना चाहिए। पूजन के अंत में भगवान विष्णु की आरती कर पारण के समय तिल का दान करें। ऐसा करने से भगवत कृपा की प्राप्ति होती है और सभी मनोकामनाएं पूर्ति होती है। पूजन के अंत में भगवान विष्णु की आरती कर पारण के समय तिल का दान करें। ऐसा करने से भगवत कृपा की प्राप्ति होती है और सभी मनोकामनाएं पूर्ति होती है।

 

तिल का पहला प्रयोग – तिल मिश्रित जल से स्नान 

व्रत रखने के अलावा सभी लोग इस दिन तिल का छह तरीकों से प्रयोग कर सकते हैं । सबसे पहले तिल मिश्रित जल से स्नान करें । षट्तिला एकादशी के दिन तिल मिश्रित जल से स्नान करने से सुख सौभाग्य की प्राप्ति होती है और मोक्ष के द्वार खुल जाते हैं । 

तिल का दूसरा प्रयोग – तिल के तेल से मालिश 

षट्तिला एकादशी के दिन व्रत करने वाले और न व्रत रखने वाले सभी मनुष्यों को तिल के तेल से मालिश करनी चाहिए । षट्तिला एकादशी के दिन तिल के तेल से मालिश करने से आरोग्य की प्राप्ति होती है । 

तिल का तीसरा प्रयोग – तिल से हवन

षट्तिला एकादशी के दिन पांच मुट्ठी तिल से हवन अवश्य करना चाहिए । षट्तिला एकादशी के दिन तिलों का हवन करने से भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है और वे प्रसन्न होते हैं ।हवन करने के पहले तिलों को गाय के घी में तिलों को मिला लें । फिर किसी भी विष्णु मंत्र या ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र का जाप करते हुए हवन कर सकते हैं । माता लक्ष्मी की प्रसन्नता और कृपा प्राप्ति के लिए श्री सूक्त या कनकधारा स्त्रोत्र का जप करते हुए भी हवन कर सकते हैं । 

तिल का चौथा प्रयोग – तिल के पानी का सेवन 

षट्तिला एकादशी के दिन प्रत्येक मनुष्य को तिल मिश्रित जल का सेवन करना चाहिए । पीने वाले जल में तिल मिला कर पीने से कई रोग दूर होते हैं । दक्षिण दिशा की और मुँह कर के पितरों को तिल मिश्रित जल का तर्पण करने से पितरों का आशीर्वाद मिलता है और परिवार में सुख समृद्धि और शान्ति बनी रहती है । 

तिल का पांचवां प्रयोग – तिल का दान 

शास्त्रों और पुराणों के अनुसार एकादशी के दिन तिलों का दान करने का विशेष महत्त्व है । महाभारत में उल्लेख है कि जो व्यक्ति भी तिलों का दान करता है उसे कभी नरक के दर्शन नहीं करने पड़ते । मान्यता है कि षट्तिला एकादशी के दिन जितने तिलों का दान किया जाता है उतने ही पाप नष्ट हो जाते हैं और उतने ही सालों के लिए स्वर्ग लोक में स्थान प्राप्त होता है । 

तिल का छठा प्रयोग – तिल से बने पदार्थों का सेवन 

षट्तिला एकादशी के दिन सभी मनुष्यों को तिल से बने हुए पदार्थों का सेवन करना चाहिए । इस दिन सायंकाल के समय तिल युक्त भोजन बना कर भगवन विष्णु और माता लक्ष्मी को भोग लगाएं । यदि संभव हो तो गरीबों और जरूरतमंदों को भी भोजन कराएं । व्रत करने वाले मनुष्य को भी तिल युक्त फलाहार करना चाहिए जैसे तिल के लड्डू , तिल से बनी गजक पट्टी इत्यादि । ऐसा करने से वैकुण्ठ धाम की प्राप्ति होती है । 

 

षटतिला एकादशी की कथा 

 

युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा: भगवन् ! माघ मास के कृष्णपक्ष में कौन सी एकादशी होती है? उसके लिए कैसी विधि है तथा उसका फल क्या है ? कृपा करके ये सब बातें हमें बताइये ।

 

श्रीभगवान बोले: नृपश्रेष्ठ ! माघ (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार पौष) मास के कृष्णपक्ष की एकादशी ‘षटतिला’ के नाम से विख्यात है, जो सब पापों का नाश करनेवाली है । मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्य ने इसकी जो पापहारिणी कथा दाल्भ्य से कही थी, उसे सुनो ।

 

दाल्भ्य ने पूछा: ब्रह्मन्! मृत्युलोक में आये हुए प्राणी प्राय: पापकर्म करते रहते हैं । उन्हें नरक में न जाना पड़े इसके लिए कौन सा उपाय है? बताने की कृपा करें ।

 

पुलस्त्यजी बोले: महाभाग ! माघ मास आने पर मनुष्य को चाहिए कि वह नहा धोकर पवित्र हो इन्द्रियसंयम रखते हुए काम, क्रोध, अहंकार ,लोभ और चुगली आदि बुराइयों को त्याग दे । देवाधिदेव भगवान का स्मरण करके जल से पैर धोकर भूमि पर पड़े हुए गोबर का संग्रह करे । उसमें तिल और कपास मिलाकर एक सौ आठ पिंडिकाएँ बनाये । फिर माघ में जब आर्द्रा या मूल नक्षत्र आये, तब कृष्णपक्ष की एकादशी करने के लिए नियम ग्रहण करें । भली भाँति स्नान करके पवित्र हो शुद्ध भाव से देवाधिदेव श्रीविष्णु की पूजा करें । कोई भूल हो जाने पर श्रीकृष्ण का नामोच्चारण करें । रात को जागरण और होम करें । चन्दन, अरगजा, कपूर, नैवेघ आदि सामग्री से शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले देवदेवेश्वर श्रीहरि की पूजा करें । तत्पश्चात् भगवान का स्मरण करके बारंबार श्रीकृष्ण नाम का उच्चारण करते हुए कुम्हड़े, नारियल अथवा बिजौरे के फल से भगवान को विधिपूर्वक पूजकर अर्ध्य दें । अन्य सब सामग्रियों के अभाव में सौ सुपारियों के द्वारा भी पूजन और अर्ध्यदान किया जा सकता है । अर्ध्य का मंत्र इस प्रकार है:

 

कृष्ण कृष्ण कृपालुस्त्वमगतीनां गतिर्भव ।

संसारार्णवमग्नानां प्रसीद पुरुषोत्तम ॥

नमस्ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते विश्वभावन ।

सुब्रह्मण्य नमस्तेSस्तु महापुरुष पूर्वज ॥

गृहाणार्ध्यं मया दत्तं लक्ष्म्या सह जगत्पते ।

 

‘सच्चिदानन्दस्वरुप श्रीकृष्ण ! आप बड़े दयालु हैं । हम आश्रयहीन जीवों के आप आश्रयदाता होइये । हम संसार समुद्र में डूब रहे हैं, आप हम पर प्रसन्न होइये । कमलनयन ! विश्वभावन ! सुब्रह्मण्य ! महापुरुष ! सबके पूर्वज ! आपको नमस्कार है ! जगत्पते ! मेरा दिया हुआ अर्ध्य आप लक्ष्मीजी के साथ स्वीकार करें ।’

 

तत्पश्चात् ब्राह्मण की पूजा करें । उसे जल का घड़ा, छाता, जूता और वस्त्र दान करें । दान करते समय ऐसा कहें : ‘इस दान के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों ।’ अपनी शक्ति के अनुसार श्रेष्ठ ब्राह्मण को काली गौ का दान करें । द्विजश्रेष्ठ ! विद्वान पुरुष को चाहिए कि वह तिल से भरा हुआ पात्र भी दान करे । उन तिलों के बोने पर उनसे जितनी शाखाएँ पैदा हो सकती हैं, उतने हजार वर्षों तक वह स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है । तिल से स्नान होम करे, तिल का उबटन लगाये, तिल मिलाया हुआ जल पीये, तिल का दान करे और तिल को भोजन के काम में ले ।’

 

इस प्रकार हे नृपश्रेष्ठ ! छ: कामों में तिल का उपयोग करने के कारण यह एकादशी ‘षटतिला’ कहलाती है, जो सब पापों का नाश करनेवाली है ।

 

षटतिला एकादशी की व्रत की अन्य कथा 

 

षटतिला एकादशी की व्रत कथा के अनुसार प्राचीन काल में एक ब्राह्मणी रहती थी। वह सदैव व्रत और पूजन करती थी। यद्यपि वह अत्यंत धर्मपारायण थी लेकिन कभी पूजन में दान नहीं करती थी। न ही उसने कभी देवताओं या ब्राह्मणों के निमित्त अन्न या धन का दान किया था। उसके कठोर व्रत और पूजन से भगवान विष्णु प्रसन्न थे, लेकिन उन्होनें सोचा कि ब्राह्मणी ने व्रत और पूजन से शरीर शुद्ध कर लिया है । इसलिए इसे बैकुंठलोक तो मिल ही जाएगा। परंतु इसने कभी भी अन्न का दान नहीं किया है तो बैकुंठ लोक में इसके भोजन का क्या होगा? 

ऐसा सोचकर भगवान विष्णु भिखारी के वेश में ब्राह्मणी के पास गए और उससे भिक्षा मांगी। ब्राह्मणी ने भिक्षा में उन्हें एक मिट्टी का ढेला दे दिया। भगवान उसे लेकर बैकुंठ लोक में लौट आए। कुछ समय बाद ब्राह्मणी भी मृत्यु के बाद शरीर त्याग कर बैकुंठ लोक में आ गई। मिट्टी का दान करने के कारण बैकुंठ लोक में महल मिला, लेकिन उसके घर में अन्नादि कुछ नहीं था। ये सब देखकर वह भगवान विष्णु से बोली कि मैनें जीवन भर आपका व्रत और पूजन किया है लेकिन मेरे घर में कुछ भी नहीं है।

भगवान ने उसकी समस्या सुन कर कहा कि तुम बैकुंठ लोक की देवियों से मिल कर षटतिला एकादशी व्रत और दान का महात्म सुनो। उसका पालन करो, तुम्हारी सारी भूल क्षम्य होंगी और मनोकामानाएं पूरी होंगी। ब्राह्मणी में देवियों से षटतिला एकादशी का माहत्म सुना और इस बार व्रत करने के साथ तिल का दान किया। मान्यता है कि षटतिला एकादशी के दिन व्यक्ति जितने तिल का दान करता है, उतने हजार वर्ष तक बैकुंठलोक में सुख पूर्वक रहता है।

 

षटतिला एकादशी का महत्त्व और फल 

 

षटतिला एकादशी का व्रत करने से वाचिक, मानसिक और शारीरिक तीन तरह के पापों से मुक्ति मिलती है । षटतिला एकादशी सब पापों का नाश करनेवाली है ।  षटतिला एकादशी के दिन जो व्यक्ति भी तिलों का दान करता है उसे कभी नरक के दर्शन नहीं करने पड़ते । मान्यता है कि षट्तिला एकादशी के दिन जितने तिलों का दान किया जाता है उतने ही पाप नष्ट हो जाते हैं और उतने ही सालों के लिए स्वर्ग लोक में स्थान प्राप्त होता है । षट्तिला एकादशी के दिन पितरों को तिल मिश्रित जल का तर्पण करने से पितरों का आशीर्वाद मिलता है और परिवार में सुख समृद्धि और शान्ति बनी रहती है । पीने वाले जल में तिल मिला कर पीने से कई रोग दूर होते हैं । षट्तिला एकादशी के दिन तिलों का हवन करने से भगवन विष्णु और माता लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है और वे प्रसन्न होते हैं । षट्तिला एकादशी के दिन तिल के तेल से मालिश करने से आरोग्य की प्राप्ति होती है । षट्तिला एकादशी के दिन तिल मिश्रित जल से स्नान करने से सुख सौभाग्य की प्राप्ति होती है और मोक्ष के द्वार खुल जाते हैं । 

एकादशी व्रत का महत्त्व 

 

एकादशी को भगवान श्री विष्णु को समर्पित दिन माना जाता है। प्रत्येक एकादशी तिथि का एक अलग महत्व है और प्रत्येक एकादशी तिथि पर विष्णु की पूजा की जाती है। एकादशी तिथि हर महीने में दो बार आती है, एक कृष्ण पक्ष में और एक शुक्ल पक्ष में। इस प्रकार एक वर्ष में कम से कम 24 एकादशी होती हैं। हिन्दू पंचांग के अनुसार प्रत्येक माह की 11वीं तिथि को एकादशी कहते हैं। एकादशी  भगवान विष्णु को समर्पित एक दिन माना जाता है। एक महीने में दो पक्ष होने के कारण दो एकादशी आती हैं, एक शुक्ल पक्ष की और दूसरी कृष्ण पक्ष की। इस प्रकार एक वर्ष में कम से कम 24 एकादशी हो सकती हैं, लेकिन अधिक मास (अतिरिक्त महीने) के मामले में यह संख्या 26 भी हो सकती है।

 

दोनों पक्षों की एकादशी समान रुप से कल्याण करने वाली है । इसमें शुक्ल और कृष्ण का भेद नहीं करना चाहिए । यदि उदय काल में थोड़ी सी एकादशी, मध्य में पूरी द्वादशी और अन्त में किंचित् त्रयोदशी हो तो वह ‘त्रिस्पृशा एकादशी’ कहलाती है । वह भगवान को बहुत ही प्रिय है । यदि एक ‘त्रिस्पृशा एकादशी’ को उपवास कर लिया जाय तो एक हजार एकादशी व्रतों का फल प्राप्त होता है तथा इसी प्रकार द्वादशी में पारण करने पर हजार गुना फल माना गया है । अष्टमी, एकादशी, षष्ठी, तृतीय और चतुर्दशी – ये यदि पूर्व तिथि से विद्ध हों तो उनमें व्रत नहीं करना चाहिए । परवर्तिनी तिथि से युक्त होने पर ही इनमें उपवास का विधान है । पहले दिन में और रात में भी एकादशी हो तथा दूसरे दिन केवल प्रात: काल एक दण्ड एकादशी रहे तो पहली तिथि का परित्याग करके दूसरे दिन की द्वादशी युक्त एकादशी को ही उपवास करना चाहिए । यह विधि मैंने दोनों पक्षों की एकादशी के लिए बतायी है । एकादशी तिथि के लिए उदया तिथि मान्य होती है। वैष्णवों को योग्य द्वादशी मिली हुई एकादशी का व्रत करना चाहिए। त्रयोदशी आने से पूर्व व्रत का पारण करें।

 

जो मनुष्य एकादशी को उपवास करता है, वह वैकुण्ठ धाम में जाता है, जहाँ साक्षात् भगवान गरुड़ध्वज विराजमान रहते हैं । जो मानव हर समय एकादशी के माहात्म्य का पाठ करता है, उसे हजार गौदान के पुण्य का फल प्राप्त होता है । जो दिन या रात में भक्तिपूर्वक इस माहात्म्य का श्रवण करते हैं, वे नि:संदेह ब्रह्महत्या आदि पापों से मुक्त हो जाते हैं । एकादशी के समान पापनाशक व्रत दूसरा कोई नहीं है । हिंदू धर्म में एकादशी का बहुत अधिक महत्व होता है। इस दिन विधि- विधान से भगवान विष्णु की पूजा- अर्चना होती है।  

 

एकादशी व्रत को सबसे कठिन व्रतों में से एक माना गया है। इसलिए एकादशी व्रत में नियम और अनुशासन का विशेष ध्यान रखना चाहिए। इसके साथ ही व्रत का पारण भी शुभ मुहूर्त में करना चाहिए। एकादशी व्रत में पारण का विशेष महत्व दिया गया है। मान्यता है कि विधि पूर्वक व्रत का पारण न करने से इस व्रत का पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं होता है।

 

इस दिन विधिपूर्वक भगवान नारायण की पूजा करनी चाहिए । जैसे नागों में शेषनाग, पक्षियों में गरुड़ तथा देवताओं में श्रीविष्णु श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण व्रतों में एकादशी तिथि श्रेष्ठ है ।

 

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजेन्द्र ! बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञों से भी मुझे उतना संतोष नहीं होता, जितना एकादशी व्रत के अनुष्ठान से होता है ।

 

एकादशी की रात्रि में रात्रि जागरण का विशेष महत्त्व है । अतः बंधु बांधवों के साथ या उनके अभाव में स्वयं ही भजन कीर्तन , नाम संकीर्तन और मन्त्र जाप करते हुए रात्रि जागरण करना चाहिए । एकादशी की रात में जागरण करके शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान विष्णु की भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए । ऐसा करनेवाले पुरुष के पुण्य की गणना करने में चतुर्मुख ब्रह्माजी भी असमर्थ हैं । 

 

एकादशी का व्रत क्यों रखा जाता है? 

एकादशी व्रत के पीछे वैज्ञानिक कारण 

 

 

एकादशी हर 15 दिन में एक बार आती है। यह वह समय होता है जब शरीर एक विशेष चक्र से गुजरता है। इस समय शरीर को भोजन की कोई खास जरूरत नहीं रहती या यूं कहें कि बाकी दिनों की अपेक्षा सबसे कम होती है। इस काल में शरीर हल्का और शुद्ध होना चाहता है। ऊर्जा अंतर्मुखी होकर बहना चाहती है।

 

हर 15 दिन बाद होने वाली व्रत की यह शृंखला शरीर की कोशिकाओं पर ही नहीं, बल्कि डीएनए तक पर प्रभाव डालकर अनेक असाध्य बीमारियों से बचाव करते हैं और शरीर की उम्र बढ़ाती है। ऐसे में किया गया उपवास शारीरिक, मानसिक, भावात्मक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को बढ़ा देता है। यह उपवास करने का सबसे उचित समय होता है जो हमें प्रकृति से जोड़कर अंतर्मुखी करने में मदद करता है।

 

एकादशी व्रत कैसे प्रारंभ हुआ?

 

भगवती एकादशी कौन है, इस संबंध में पद्म पुराण में कथा है कि एक बार पुण्यश्लोक धर्मराज युधिष्ठिर को लीला पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण ने समस्त दुःखों, त्रिविध तापों से मुक्ति दिलाने, हजारों यज्ञों के अनुष्ठान की तुलना करने वाले, चारों पुरुषार्थों को सहज ही देने वाले एकादशी व्रत करने का निर्देश दिया। एकादशी व्रत-उपवास करने का बहुत महत्व होता है। साथ ही सभी धर्मों के नियम भी अलग-अलग होते हैं। खास कर हिंदू धर्म के अनुसार एकादशी व्रत करने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को दशमी के दिन से ही कुछ अनिवार्य नियमों का पालन करना चाहिए।

 

एकादशी व्रत-उपवास के नियम

एकादशी व्रत के दिन क्या करें क्या न करें 

 

एकादशी का व्रत दसवीं तिथि के सूर्यास्त के बाद से शुरू होकर एकादशी के अगले दिन सूर्योदय तक रहता है। इसमें खाने-पीने की कई चीजों का ध्यान रखना भी जरूरी होता है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार एकादशी का पूर्ण लाभ लेने के लिए व्रत के नियमों का सख्ती से पालन करना चाहिए। एकादशी व्रत का नियम कुछ कठोर होता है। यह व्रत कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा से रख सकता है।एकादशी के व्रत में दशमी के दिन से ही ब्रह्मचार्य व्रत का पूर्ण रूप से पालन करना चाहिए। एकादशी का व्रत भगवान विष्णु को समर्पित है। इस दिन भगवान विष्णु की पूजा की जाती है और उन्हें प्रसन्न करने के लिए उन्हें धूप, फल, फूल, दीप, पंचामृत आदि अर्पित करते हैं। व्रत के दौरान क्रोध और द्वेष भावना नहीं रखनी चाहिए।

 

द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को मिष्ठान्न, दक्षिणा देना चाहिए। क्रोध नहीं करते हुए मधुर वचन बोलना चाहिए। इस व्रत को करने से जीवन के सारे कष्ट समाप्त हो जाते हैं, और उपवास करने वाला दिव्य फल प्राप्त करता है।

 

एकादशी के दिन क्या खाएं क्या न खाएं 

 

एकादशी व्रत में अन्न नहीं खाया जाता।  इस दिन चावल बिलकुल भी नहीं खाने चाहिए तथा चने या चने के आटे से बनी चीज से भी परहेज करना चाहिए। इस दिन शहद खाने से भी बचना चाहिए। एकादशी का व्रत-उपवास करने वालों को दशमी के दिन से ही मांस, लहसुन, प्याज, मसूर की दाल आदि निषेध वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। रात्रि को पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए तथा भोग-विलास से दूर रहना चाहिए। 

 

एकादशी के व्रत का भोजन 

 

एकादशी के व्रत में अन्न खाना मना होता है। कुछ लोग एकादशी का व्रत निर्जला करते हैं, जिसे निर्जला एकादशी के नाम से जाना जाता है। वहीं, शास्त्रों के अनुसार एकादशी के दिन इन वस्तुओं और मसालों का प्रयोग व्रत के दौरान कर सकते हैं- एकादशी के व्रत में ताजे फल, मेवे, चीनी, कुट्टू, नारियल, जैतून, दूध, अदरक, काली मिर्च, सेंधा नमक, आलू, साबूदाना, शकरकंद आदि खा सकते हैं। एकादशी व्रत का भोजन सात्विक होना चाहिए। एकादशी के दिन व्रतधारी व्यक्ति को गाजर, शलजम, गोभी, पालक, इत्यादि का सेवन नहीं करना चाहिए। केला, आम, अंगूर, बादाम, पिस्ता इत्यादि अमृत फलों का सेवन करें। प्रत्येक वस्तु प्रभु को भोग लगाकर तथा तुलसीदल छोड़कर ग्रहण करना चाहिए।

 

कैसे करें एकादशी का व्रत

पूजा विधि

 

एकादशी तिथि के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान व ध्यान करने के बाद स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए। इसके बाद पूजा की तैयारियां शुरू कर दें और व्रत का संकल्प लें। इसके बाद भगवान कृष्ण की मूर्ति या चित्र पर गंगाजल से छिड़काव करें और रोली व अक्षत से टीका करें। इसके बाद देशी घी का दीपक जलाएं और फूलों से मंदिर को सजाएं। इस एकादशी पर भगवान कृष्ण की पूजा करने का भी विधान है। कृष्णजी को माखन-मिश्री अच्छी लगती है इसलिए उनको यही भोग लगाएं। धूप-दीप से भगवान की पूजा करने के बाद विष्णु सहस्रनाम का पाठ करना उत्तम रहेगा। इसके बाद तुलसी पूजन करें। दिन भर मन को शांत रखकर भगवान का स्मरण करते रहें और हो सके तो गीता पाठ कर लें । शाम के समय श्रीकृष्ण की फिर से पूजा करें और भोग लगाएं। इसके बाद भोग को सभी में बांट दें।अगले दिन पूजा-पाठ और दान-दक्षिणा देकर ब्राह्मणों को घर पर बुलाकर भोजन करवाएं और फिर खुद पारण करें।

 

भगवान को केवल सात्विक चीजें ही अर्पित करें। ऐसा माना जाता है कि तुलसी के बिना भगवान विष्णु भोग स्वीकार नहीं करते हैं। इस दिन भगवान विष्णु के साथ-साथ मां लक्ष्मी की भी पूजा करनी चाहिए। पूजा के बाद आरती करें और भगवान से प्रर्थना करें। तत्पश्चात् पूजा स्थल को गंगा के जल की कुछ बूंदें डालकर पवित्र कर लेना चाहिये और तदुपरांत भगवान् नारायण का षोडशोपचार विधि से पूजन, अर्चन और स्तवन करना चाहिये। षोडशोपचार यानी सोलह प्रकार के उपचार के क्रियान्वयन को भगवान् की पूजा का षोडशोपचार पूजन कहा जाता है। इसमें सोलह प्रकार की चीजों का प्रयोग किया जाता है जो इस प्रकार हैं:

 

पहला उपचार यानी देवता का आवाहन।
दूसरा उपचार यानी देवता को आसन देना।
तीसरा उपचार यानी पाद प्रक्षालन।
चौथा उपचार यानी अर्घ्य देना।
पांचवां उपचार यानी आचमन या मुख प्रक्षालन।
छठवां उपचार यानी स्नान यानी देवता पर जल चढ़ाना।
सातवां उपचार यानी देवता को वस्त्र देना।
आठवां उपचार यानी देवता को उपवस्त्र अर्थात् जनेऊ देना।
नौवां उपचार यानी देवता को गंध या चंदन देना।
दसवां उपचार यानी पुष्प अर्पित करना।
ग्यारहवां उपचार यानी धूप अर्पित करना।
बारहवां उपचार यानी दीप अर्पित करना।
तेरहवां उपचार नैवेद्य अर्पित करना।
चौदहवां उपचार यानी देवता को नमन करना।
पंद्रहवां उपचार यानी परिक्रमा करना।
सोलहवां उपचार यानी मंत्रपुष्प अर्पित करना।

 

इस प्रकार षोडशोपचार विधि से भगवान् नारायण का पूजन करके उनसे अपने अपराधों के क्षमा याचना करनी चाहिये। रात में दीपों का दान करना चाहिये और यदि संभव हो तो पूरी रात जागरण करते हुए भगवान् नारायण का पाठ करते रहें। इस अवसर पर विष्णुसहस्रनाम का पाठ बहुत फल देने वाला माना गया है। इस प्रकार अगले दिन प्रात: पुन: पूजन आदि करके दान और भोजन आदि से योग्य पात्रों को संतुष्ट करके स्वयं भी सात्विक भोजन कर लेना चाहिये। 

 

 

 

 

 

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