Bhagavad Gita Bhakti Yog Chapter 12

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Bhagavad Gita Bhakti Yog Chapter 12

 

 

BhaktiYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 12 | भक्तियोग ~ अध्याय बारह

 

अथ द्वादशोऽध्यायः- भक्तियोग

 

 

साकार और निराकार के उपासकों की उत्तमता का निर्णय और भगवत्प्राप्ति के उपाय का विषय

 

 

 

 

अर्जुन उवाच

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।

ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥12 .1॥

 

 

अर्जुनः उवाच-अर्जुन ने कहा; एवम्-इस प्रकार; सतत–निरंतर; युक्ताः -समर्पित; ये-जो; भक्ताः -भक्तजन; त्वाम्-आपको; पर्युपासते-आराधना करते हैं; ये-जो; च-भी; अपि-पुनः; अक्षरम्-अविनाशी; अव्यक्तम्-अप्रकट को; तेषाम्-उनमें से; के-कौन; योगवित्तमा:-योगविद्या में अत्यन्त पारंगत।

 

 

अर्जुन बोले- जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरन्तर आपके भजन-ध्यान में लगे रहकर आप सगुण रूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म को ही अतिश्रेष्ठ भाव से भजते हैं- उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं? अर्थात जो भक्त, सतत युक्त और समर्पित होकर इस (पूर्वोक्त) प्रकार से आपके साकार रूप की दृढ़तापूर्वक उपासना करते हैं और जो भक्त आपके अक्षर, अविनाशी , अव्यक्त और निराकार रूप की उपासना करते हैं, उन दोनों में से आप किसे पूर्ण मानते हैं ?॥12.1॥

 

 

श्रीभगवानुवाच

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।

श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥12.2॥

 

 

श्रीभगवान् उवाच-आनन्दमयी श्री भगवान ने कहा; मयि–मुझमें; आवेश्य-स्थिर करके; मन:-मन को; ये-जो; माम्-मुझमें; नित्ययुक्ताः-सदा तल्लीन हुए; उपासते-उपासना करते हैं; श्रद्धया – श्रद्धापूर्वक; परया-उत्तम; उपेता:-युक्त होकर; ते – वे; मे – मेरे द्वारा; युक्ततमा:-योग की उच्चावस्था में स्थित; मता:-मैं मानता हूँ।

 

 

आनंदमयी श्री भगवान बोले- मुझमें मन को एकाग्र और मुझमें स्थिर करके निरंतर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ और पूर्ण श्रद्धा से युक्त होकर दृढ़तापूर्वक मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं अर्थात मेरी भक्ति में तल्लीन रहते हैं , मैं उन्हें योगियों में अति उत्तम और सर्वश्रेष्ठ योगी मानता हूँ ॥12.2॥

 

 

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।

सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्‌ ॥12.3॥

सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥12.4॥

 

 

ये-जो; तु–लेकिन; अक्षरम्-अविनाशी; अनिर्देश्यम्-अनिचित; अव्यक्तम्-अप्रकट; पर्युपासते-आराधना करना; सर्वत्रगम्-सर्वव्यापी; अचिन्त्यम्-अकल्पनीय; च-और; कूटस्थम्-अपरिवर्तित; अचलम्-अचल; ध्रुवम्-शाश्वत; सकियम्य-वश में करके; इन्द्रियग्रामम्-समस्त इन्द्रियों को; सर्वत्र – सभी स्थानों में; समबुद्धयः-समदर्शी; ते-वे; प्राप्नुवन्ति-प्राप्त करते हैं; माम्-मुझको; एव-निश्चय ही; सर्वभूतहिते-समस्त जीवों के कल्याण के लिए; रताः-तल्लीन।

 

 

परन्तु जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को निग्रह करके, उनको भली प्रकार वश में कर के सर्वत्र समभाव से मन-बुद्धि से परे मेरे परम सत्य, निराकार, अविनाशी, अनिर्वचनीय, अव्यक्त, सर्वव्यापक, अकल्पनीय, अपरिवर्तनीय, अकथनीय , शाश्वत, नित्य , अचिन्त्य , अनिर्देश्य , अक्षर , सदा एकरस रहने वाले , सच्चिदानंदघन ब्रह्म और अचल रूप की पूजा करते हैं, वे सभी जीवों ( भूतों ) और प्राणिमात्र के कल्याण में रत ( संलग्न ) , सबमें समान भाव वाले और सब जगह समबुद्धिवाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं॥12.3-12.4॥

 

 

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्‌ ।

अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥12.5॥

 

 

क्लेशः-कष्ट; अधिकतरः-भरा होना; तेषाम्-उन; अव्यक्त-अव्यक्त के प्रति; आसक्त-अनुरक्त; चेतसाम्-मन वालों का; अव्यक्ता -अव्यक्त की ओर; हि-वास्तव में ; गतिः-प्रगति; दुःखम्-दुख के साथ; देहवद्धिः-देहधारी के द्वारा; अवाप्यते-प्राप्त किया जाता है।

 

 

जिन लोगों का मन भगवान के अव्यक्त रूप पर आसक्त होता है उनके लिए भगवान की अनुभूति का मार्ग अतिदुष्कर और कष्टों से भरा होता है। अर्थात उन अव्यक्त सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्त वाले पुरुषों ( साधकों ) के साधन में कठोर परिश्रम और अत्यंत कष्ट तथा क्लेश है क्योंकि अव्यक्त रूप की उपासना देहधारी जीवों अर्थात देहाभिमानियों के लिए अत्यंत दुष्कर होती है और उनके द्वारा अव्यक्तविषयक गति दुःखपूर्वक तथा कठिनता से प्राप्त की जाती है॥12.5॥

 

 

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः ।

अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥12.6॥

 

 

ये-जो; तु–लेकिन; सर्वाणि-समस्त; कर्माणि-कर्म; मयि–मुझे ; सन्नयस्य–समर्पित कर; मत्पराः-मुझे परम लक्ष्य मानते हुए; अनन्येन -अनन्य; एव-निश्चय ही; योगेन-भक्ति युक्त होकर; माम्-मुझको; ध्यायन्तः-ध्यान करते हुए; उपासते-उपासना करते हुए;

 

 

परन्तु जो मेरे परायण रहने वाले भक्त जन अपने सभी कर्मों को मुझे समर्पित करते हैं और मुझे ही अपना परम लक्ष्य समझकर मेरी आराधना करते हैं और अनन्य भक्ति भाव से मेरा ध्यान करते हैं अर्थात मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं और मन को मुझमें स्थिर कर अपनी चेतना को मेरे साथ एकीकृत कर देते हैं ॥12.6॥

 

 

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्‌ ।

भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्‌ ॥12.7॥

 

 

तेषाम्-उनका; अहम्-मैं; समुद्धर्ता-उद्धारक; मृत्यु-मृत्यु के; संसार-संसार रूपी; सागरत्-जन्म और मृत्यु के सागर से; भवामि-होता हूँ; न-नहीं; चिरात्-दीर्घ काल; पार्थ-पृथा पुत्र, अर्जुन; मयि–मुझ पर; आवेशित चेतसाम्-चेतना को एकीकृत करने वाले।

 

 

हे पार्थ! उन मुझमें चित्त लगाने वाले – मुझमें ही अपना चित्त स्थिर करने वाले – मुझ में ही अपनी चेतना को एकीकृत करने वाले प्रेमी भक्तों को मैं शीघ्र ही जन्म – मृत्यु रूप संसार-समुद्र से पार करा के उनका उद्धार करने वाला होता हूँ अर्थात उनका उद्धार कर देता हूँ॥12.7॥

 

 

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥12.8॥

 

 

मयि-मुझमें; एव-अकेले ही; मन:-मन को; आधत्स्व-स्थिर; मयि-मुझमें; बुद्धिम्-बुद्धि; निवेशय-समर्पित करो; निवसिष्यसि-तुम सदैव निवास करोगे; मयि-मुझमें; एव-अकेले ही; अतःऊर्ध्वम्-तत्पश्चात; न – कभी नहीं; संशयः-सन्देह।

 

 

अपने मन और बुद्धि को मुझमें ही लगाओ अर्थात अपने मन को केवल मुझ पर स्थिर करो और अपनी बुद्धि मुझे समर्पित कर दो। इस के पश्चात् तुम सदैव मुझ में स्थित रहोगे- मुझमें ही निवास करोगे- इसमें कोई संदेह नहीं हैं॥12.8॥

 

 

अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषि मयि स्थिरम्‌ ।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥12.9॥

 

 

अथ-यदि,; चित्तम्-मन; समाधातुम् – स्थिर करना; न – नहीं; शक्नोषि-तुम समर्थ नहीं हो; मयि-मुझ पर; स्थिरम्-स्थिर भाव से; अभ्यासयोगेन-बार बार अभ्यास द्वारा भगवान में एकीकृत होना; ततः-तब; माम् – मेरा; इच्छ-इच्छा; आप्तुम् – प्राप्त करने की; धनञ्जय -धन और वैभव का स्वामी अर्जुन।

 

 

हे धनञ्जय ! यदि तुम दृढ़ता से – अचल भाव से मुझ पर अपना मन स्थिर करने में – मुझे अपना मन समर्पित करने में असमर्थ हो तो सांसारिक कार्यकलापों से मन को विरक्त कर भक्ति भाव से निरंतर मेरा स्मरण करने का अभ्यास करो अर्थात अभ्यास योग भगवान के नाम और गुणों का श्रवण, कीर्तन, मनन तथा श्वास द्वारा जप और भगवत्प्राप्तिविषयक शास्त्रों का पठन-पाठन इत्यादि चेष्टाओं के द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए अर्थात मेरी प्राप्ति की इच्छा कर – प्रयत्न कर ॥12.9॥

 

 

( भगवत्प्राप्ति के लिए भगवान के नाम और गुणों का श्रवण, कीर्तन, मनन तथा श्वास द्वारा जप और भगवत्प्राप्तिविषयक शास्त्रों का पठन-पाठन इत्यादि चेष्टाएं बारंबार करने का नाम ‘अभ्यास’ है । )

 

 

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥12.10॥

 

 

अभ्यासे-अभ्यास में; अपि – यदि; असमर्थ:-असमर्थ; असि-हो; मत्कर्मपरम-कर्म को मेरे प्रति समर्पित करना; भव-बनो; मत्अर्थम् – मेरे लिए; अपि-भी; कर्माणि-कर्म; कुर्वन्-करते हुए; सिद्धिम् – पूर्णता को; अवाप्स्यसि – तुम प्राप्त करोगे।

 

 

यदि तू उपर्युक्त अभ्यास में भी असमर्थ है अर्थात यदि तुम भक्ति मार्ग के पालन के साथ मेरा स्मरण करने का अभ्यास नहीं कर सकते तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण हो जा अर्थात स्वार्थ को त्यागकर तथा परमेश्वर को ही परम आश्रय और परम गति समझकर, निष्काम प्रेमभाव से सती-शिरोमणि, पतिव्रता स्त्री की भाँति मन, वाणी और शरीर द्वारा परमेश्वर के ही लिए यज्ञ, दान और तपादि सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को कर अर्थात मेरी सेवा के लिए कर्म करने का अभ्यास करो। इस प्रकार मेरे लिए कर्मों को करता हुआ भी तू मेरी प्राप्ति रूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा अर्थात पूर्णता की अवस्था को प्राप्त कर लेगा ॥12.10॥

(स्वार्थ को त्यागकर तथा परमेश्वर को ही परम आश्रय और परम गति समझकर, निष्काम प्रेमभाव से सती-शिरोमणि, पतिव्रता स्त्री की भाँति मन, वाणी और शरीर द्वारा परमेश्वर के ही लिए यज्ञ, दान और तपादि सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों के करने का नाम ‘भगवदर्थ कर्म करने के परायण होना’ है।)

 

 

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः ।

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्‌ ॥12.11॥

 

 

अथ-यदि; एतत्-यह; अपि-भी; अशक्त:-असमर्थ; असि-तुम हो; कर्तुम् – कार्य करना; मत्-मेरे प्रति; योगम्-मेरे प्रति समर्पण; आश्रित:-निर्भर; सर्वकर्म-समस्त कर्मो के; फलत्यागम्-फल का त्याग; ततः-तब; कुरु-करो; यतात्मवान -आत्मा में स्थित।

 

 

यदि मेरी प्राप्ति रूप योग के आश्रित होकर उपर्युक्त साधन को करने में भी तू असमर्थ है अर्थात यदि तुम भक्तियुक्त होकर मेरी सेवा के लिए कार्य करने में असमर्थ हो तो आत्मसंयम से युक्त होकर मन-बुद्धि और इन्द्रियों आदि पर विजय प्राप्त कर – उनको वश में कर के सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्याग कर और अपनी आत्मा में स्थित हो जा॥12.11॥

 

 

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते ।

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्‌ ॥12.12॥

 

 

श्रेयः-उत्तम; हि-निश्चय ही; ज्ञानम्-ज्ञान; अभ्यासात्- शारीरिक अभ्यास से; ज्ञानात्-ज्ञान से; ध्वानम्-ध्यान; विशिष्यते-श्रेष्ठ समझा जाता है; ध्यानात्-ध्यान से; कर्मफलत्यागः-समस्त कर्म फलों का त्याग; त्यागात्-त्याग से; शान्तिः-शान्ति; अनंतरम्- शीघ्र।

 

 

मर्म को न जानकर किए हुए शारीरिक अभ्यास की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान की अपेक्षा मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान की अपेक्षा  सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति होती है॥12.12॥

(केवल भगवान के लिए कर्म करने वाले पुरुष का भगवान में प्रेम और श्रद्धा तथा भगवान का चिन्तन भी बना रहता है, इसलिए ध्यान की अपेक्षा ‘कर्मफल का त्याग’ श्रेष्ठ कहा है)

 

 

भगवत्‌-प्राप्त पुरुषों के लक्षण

 

 

अर्जुन उवाच

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।

निर्ममो निरहङ्‍कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥12.13॥

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥12.14॥

 

 

अद्वेष्टा – द्वेष रहित ; सर्वभूतानाम-समस्त जीवों के प्रति; मैत्रः-मैत्रीभाव वाला; करुणः-दयावान; एव-वास्तव में; च-भी; निर्मम-स्वामित्व की आसक्ति से रहित; निरहंकारः-अहंकार रहित; सम-समभाव; दुःख-दुख; सुखः-सुख; क्षमी-क्षमावान; सन्तुष्टः-तुष्ट; सततम्-निरंतर; योगी-भक्ति में एकीकृत; यतात्मा – आत्मसंयमी; दृढनिश्चयः-दृढसंकल्प सहित; मयि–मुझमें; अर्पित-समर्पित; मन:-मन को; बुद्धिः-तथा बुद्धि को; यः-जो; मत् भक्त:-मेरा भक्त; स:-वह; मे-मेरा; प्रियः-अतिप्रिय।

 

 

जो मनुष्य सब भूतों ( प्राणियों ) में द्वेष भाव से रहित अर्थात जो किसी प्राणी से द्वेष नहीं करते, स्वार्थ रहित , सबसे प्रेम करने वाले , सबके मित्र और दयालु है ऐसे मुझमें अर्पण किये हुए मन और बुद्धि वाले भक्त मुझे अति प्रिय हैं क्योंकि वे स्वामित्व की भावना से अनासक्त , ममता और मिथ्या अहंकार से मुक्त रहते हैं, दुख और सुख में समभाव रहते हैं और सदैव क्षमावान होते हैं अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाले हैं तथा जो । ऐसे भक्त निरन्तर संतुष्ट और तृप्त रहते हैं , मेरी भक्ति में दृढ़ता से एकीकृत हो जाते हैं। वे आत्म संयमित होकर, दूंढ़-संकल्प के साथ अपना मन और बुद्धि मुझे समर्पित करते हैं। ऐसे भक्त मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाले हैं । इस प्रकार मुझ में अर्पित और समर्पित मन-बुद्धिवाला जो मेरा भक्त है, वह मुझे अतिशय प्रिय है॥12.13-12.14॥

 

 

श्रीभगवानुवाच

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥12.15॥

 

 

यस्मात्-जिसके द्वारा; न – कभी नहीं; उद्विजते-उत्तेजित, क्रोधित, चिंतित ; लोकः-लोग, व्यक्ति , जीव , प्राणी ; लोकात्-लोगों से; न–कभी नहीं; उद्विजते-विक्षुब्ध होना; च–भी; यः-जो; हर्ष-प्रसन्न; अमर्ष- ईर्ष्या , अप्रसन्नता, दूसरे की उन्नति को देखकर संताप होना ; भय-भय; उद्वेगैः-चिन्ता से; मुक्त:-मुक्त; यः-जो; सः-वह; च-और; मे-मेरा; प्रियः-प्रिय।

 

 

जिस के द्वारा कोई भी जीव , कोई भी व्यक्ति , कोई भी प्राणी उद्वेग ( क्रोध या चिंता ) को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव , प्राणी , व्यक्ति द्वारा उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष या ईर्ष्या , भय और चिंता आदि से रहित है वह भक्त मुझको प्रिय है अर्थात वे जो किसी भी प्राणी को उद्विग्न ( क्रोधित या चिंतित ) करने का कारण नहीं होते और न ही किसी के द्वारा व्यथित होते हैं। जो सुख-दुख में समभाव रहते हैं, भय और चिन्ता से मुक्त रहते हैं मेरे ऐसे भक्त मुझे अति प्रिय हैं ॥12.15॥

 

 

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।

सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥12.16॥

 

 

अनपेक्ष:-सासांरिक प्रलोभनों से उदासीन, आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से रहित ; शुचि:-शुद्ध, पवित्र; दक्षः-कुशल, निपुण ; उदासीन:-चिन्ता रहित; गतव्यथ:-कष्टों से मुक्त, कष्ट रहित , व्यथा रहित ; सर्वारम्भ – सभी प्रकार के कार्य कलाप , समस्त प्रयत्न, नये-नये कर्मों का आरम्भ ; परित्यागी-त्याग करने वाला; यः-जो; मत् भक्त:-मेरा भक्त; सः-वह; मे – मेरा; प्रियः-अति प्रिय।

 

 

वे जो सांसारिक प्रलोभनों से उदासीन रहते हैं अर्थात आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से रहित , बाह्य और आंतरिक रूप से शुद्ध , निपुण , चिन्ता रहित, कष्ट रहित और सभी प्रकार के आरम्भों अर्थात् नये-नये कर्मों के आरम्भ का या सभी प्रकार के कार्यकलापों और प्रयत्नों का सर्वथा परित्याग करने वाले हैं या उनसे सन्यास लेने वाले हैं , मेरे ऐसे भक्त मुझे अति प्रिय हैं।।12.16॥

 

 

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्‍क्षति।

शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥12 .17॥

 

 

यः-जो; न – न तो; हृष्यति-प्रसन्न होता है; न-नहीं; द्वेष्टि-निराश होता है; न – कभी नहीं; शोचति-शोक करता है; न-न तो; काङ्‍क्षति-सुख की लालसा करता है; शुभाशुभपरित्यागी-शुभ और अशुभ कर्मों का त्याग करने वाला; भक्तिमान्यः – भक्ति से परिपूर्णमान् भक्त; यः-जो; स:-वह है; मे-मेरा; प्रियः-प्रिय।

 

 

वे जो न तो लौकिक सुखों से हर्षित होते हैं और न ही सांसारिक दुखों से निराश होते हैं तथा न ही किसी हानि के लिए शोक करते हैं एवं न ही लाभ की लालसा करते हैं, वे शुभ और अशुभ कर्मों का परित्याग करते हैं। ऐसे भक्त जो भक्ति भावना से परिपूर्ण होते हैं, मुझे अति प्रिय हैं॥12 .17॥

 

 

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्‍गविवर्जितः॥12.18॥

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्‌।

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥12.19॥

 

 

समः-समान; शत्रौ – शत्रु में; च – और; मित्रे – मित्र में; च-भी; तथा – उसी प्रकार; मान अपमानयो – मान अपमान में; शीत उष्ण- सर्दी गर्मी; सुख-सुख में; दुःखेषु-दुख में; समः-समभाव; सङ्‍गविवर्जितः- सब प्रकार की कुसंगतियों से मुक्त; तुल्य-जैसा; निन्दा स्तुतिः-निंदा और प्रशंसा; मौनी-मौन; सन्तुष्ट:-तृप्त; येन केनचित्–किसी प्रकार से; अनिकेतः-घर गृहस्थी के प्रति ममतारहित; स्थिर – दृढ़; मतिः-बुद्धि; भक्तिमान्-भक्ति में लीन; मे – मेरा; प्रियः-प्रिय; नरः-मनुष्य।

 

 

जो मित्रों और शत्रुओं के लिए एक समान है अर्थात मित्र और शत्रु को एक समान ही समझता हैं और उनसे एक समान ही व्यवहार करता हैं  , मान और अपमान, शीत और ग्रीष्म, अनुकूलता और प्रतिकूलता , सुख तथा दुख में समभाव रहते हैं, वे मुझे अति प्रिय हैं। जो सभी प्रकार के कुसंग से मुक्त रहते हैं। जो अपनी प्रशंसा और निंदा को एक जैसा समझते हैं, जो सदैव मौन और चिन्तन में लीन रहते हैं , जो मिल जाए उसमें संतुष्ट रहते हैं, घर-गृहस्थी में आसक्ति और ममता नहीं रखते अर्थात जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान या निवास स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है , जिनकी बुद्धि दृढ़तापूर्वक मुझमें स्थिर रहती है और जो मेरे प्रति भक्ति भाव से परिपूर्ण रहते हैं, वे स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझे अत्यंत प्रिय है। श्रीकृष्ण भक्तों की दस अन्य विशेषताओं का वर्णन करते हैं।।12.18-12.19।।

 

 

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।

श्रद्धाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥12.20॥

 

 

ये-जो; तु-लेकिन; धर्म-बुद्धिरूपी; अमृतम्-अमृता; इदम्-इस; यथा-जिस प्रकार से; उक्तम्-कहा गया; पर्युपासते-अनन्य भक्ति; श्रद्धाना:-श्रद्धा के साथ; मत्परमा:-मुझ परमात्मा को परम लक्ष्य मानते हुए; भक्ताः-भक्तजन; ते-वे; अतीव-अत्यधिक; मे-मेरे; प्रिया:-प्रिय।।

 

 

परन्तु जो श्रद्धायुक्त पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेमभाव से सेवन करते हैं अर्थात इस अमृत रूपी ज्ञान का आदर करते हैं और मुझमें विश्वास करते हैं तथा निष्ठापूर्वक मुझे अपना परम लक्ष्य मानकर मुझ पर समर्पित होते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं॥12.20॥

(वेद, शास्त्र, महात्मा और गुरुजनों के तथा परमेश्वर के वचनों में प्रत्यक्ष के सदृश विश्वास का नाम ‘श्रद्धा’ है)

 

 

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥12॥

 

 

 

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