Bhagavad Gita Chapter 1

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Apr 1, 2022 #Arjun Vishaad Yog, #Arjuna Vishaada Yogam with Lyrics, #Arjuna Vishada Yog, #Bhagavad Gita, #Bhagavad Gita - The Song of God, #Bhagavad Gita Chapter 1, #Bhagavad Gita Chapter 1 - The Grief of Arjuna, #Bhagavad Gita Chapter 1 "Arjuna Vishada Yoga", #Bhagavad Gita in Hindi, #Bhagavad Gita with Hindi Meaning, #Bhagavadgita, #Chapter – 1 - The Gita – Shree Krishna Bhagwad Geeta, #Chapter 01 - Bhagavad-Gita, #Chapter 1 : Arjun Vishad Yog - Holy Bhagavad Gita, #Conversation between Arjun And Krishna, #Geeta, #Gita, #Shrimad Bhagavad Gita, #Shrimad Bhagwad Gita – Chapter – 1, #Srimad Bhagavad-Gita, #Srimad Bhagwat Geeta in Hindi, #The Bhagavad Gita, #The Bhagavad Gita - An Epic Poem, #The Bhagavad Gita by Krishna, #The Bhagavad Gita by Krishna Dwaipayana Vyasa, #अर्जुन विषाद योग, #गीता, #धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।, #भगवद गीता, #भगवद गीता अध्याय 1, #भगवद गीता हिंदी अर्थ सहित, #भगवद गीता हिंदी भावार्थ सहित, #भगवद गीता हिंदी में, #श्री कृष्ण अर्जुन संवाद, #श्रीमद भगवद गीता, #श्रीमद्भगवद्गीता, #श्रीमद्भगवद्गीता हिंदी अर्थ सहित, #सम्पूर्ण श्रीमद भागवत गीता
Bhagavad Gita Chapter 1

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Bhagavad Gita Chapter 1

 

 

 

अर्जुनविषादयोग ~ अध्याय एक

 

01-11 दोनों सेनाओं के प्रधान शूरवीरों और अन्य महान वीरों का वर्णन

12-19 दोनों सेनाओं की शंख-ध्वनि का वर्णन

20-27 अर्जुन का सैन्य परिक्षण, गाण्डीव की विशेषता

28-47 अर्जुनका विषाद,भगवान के नामों की व्याख्या

 

 

 

अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग 

 

01-11 दोनों सेनाओं के प्रधान शूरवीरों और अन्य महान वीरों का वर्णन

 

 

धृतराष्ट्र उवाच।

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥1.1॥

 

धृतराष्ट्रः उवाच-धृतराष्ट्र ने कहा; धर्मक्षेत्र-धर्मभूमिः कुरूक्षेत्र-कुरुक्षेत्र; समवेता:-एकत्रित होने के पश्चात; युयुत्सवः-युद्ध करने को इच्छुक; मामकाः-मेरे पुत्रों; पाण्डवाः-पाण्डु के पुत्रों ने; च -तथा; एव-निश्चय ही; किम्-क्या; अकुर्वत-उन्होंने किया; संजय हे संजय।

 

धृतराष्ट्र ने कहाः हे संजय! कुरुक्षेत्र की पवित्र भूमि पर युद्ध करने की इच्छा से एकत्रित होने के पश्चात, मेरे और पाण्डु पुत्रों ने क्या किया?।। 1.1 ।।

 

सञ्जय उवाच।

दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।

आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रतीत् ॥1.2॥

 

संजय उवाच-संजय ने कहा; दृष्टा-देखकर; तु-किन्तु; पाण्डव अनीकम्-पाण्डव सेना; व्यूढं-व्यूह रचना में खड़े होना; दुर्योधनः-राजा दुर्योधन; तदा-तब; आचार्यम्-गुरु, उपसंगम्य-पास जाकर; राजा-राजा; वचनम्-शब्द; अब्रवीत्-कहा।

 

संजय ने कहाः हे राजन्! पाण्डवों की सेना की व्यूहरचना का अवलोकन कर राजा दुर्योधन ने अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास जाकर इस प्रकार के शब्द कहे।। 1.2 ।।

 

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।

व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥1.3॥

 

पश्य-देखना; एताम्-इस; पाण्डु-पुत्रणाम् पाण्डु पुत्रों की; आचार्य- गुरु; महतीम-विशाल; चमूम्-सेना को; व्यूढां-सुव्यस्थित व्यूह रचना; द्वपद-पुत्रेण द्रुपद पुत्र द्वारा; तव-तुम्हारे; शिष्येण-शिष्य द्वारा; धीमता-बुद्धिमान।

 

दुर्योधन ने कहाः पूज्य आचार्य! पाण्डु पुत्रों की विशाल सेना का अवलोकन करें, जिसे आपके द्वारा प्रशिक्षित बुद्धिमान शिष्य द्रुपद के पुत्र ने कुशलतापूर्वक युद्ध करने के लिए सुव्यवस्थित किया है।। 1.3।।

 

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।

युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः॥1.4॥

धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।

पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः॥1.5॥

युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।

सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः॥1.6॥

 

अत्र – यहाँ; शूराः-शक्तिशाली योद्धा; महा इषु आसा:-महान धनुर्धर; भीम अर्जुन समा:-अर्जुन और भीम के समान; युधि-;युद्धकला के पराक्रमी योद्धा; युयुधान:-युयुधान; विराट:-विराटः च-भी; द्रुपदः-द्रुपद; च-भी; महारथ:-महान योद्धा, जो अकेले दस हजार साधारण सैनिकों का सामना करने की सामर्थ्य रखता हो; धृष्टकेतुः-धृष्टकेतु; चेकितानः-चेकितान; काशिराज:-काशिराज; च-और; वीर्यवान्-महानयोद्धा; पुरुजित्-पुरुजित् ;कुन्तिभोज-कुन्तिभोज; च-तथा; शैब्य:-शैव्य; च-और; नरपुङ्गवः-उत्तम पुरूष; युधामन्युः-युधामन्यु; च -और; विक्रान्त:-निडर; उत्तमौजा:-उत्तमौजा; च-और; वीर्यवान्-महाशक्तिशाली; सौभद्र-सुभद्रा का पुत्र; द्रौपदेया:-द्रोपदी के पुत्र; च -और; सर्वे-सभी; एक्-निश्चय ही; महारथाः-महारथी, जो युद्ध में अकेले ही दस हजार साधारण योद्धाओं का सामना कर सके।

 

यहाँ इस सेना में भीम और अर्जुन के समान बलशाली युद्ध करने वाले महारथी युयुधान, विराट और द्रुपद जैसे अनेक शूरवीर धनुर्धर हैं। यहाँ पर इनके साथ धृष्टकेतु, चेकितान काशी के पराक्रमी राजा कांशिराज, पुरूजित, कुन्तीभोज और शैव्य सभी महान सेना नायक हैं। इनकी सेना में पराक्रमी युधमन्यु, शूरवीर, उत्तमौजा, सुभद्रा और द्रोपदी के पुत्र भी हैं जो सभी निश्चय ही महाशक्तिशाली योद्धा हैं जो युद्ध में अकेले ही दस हजार साधारण योद्धाओं का सामना कर सके।। 1.4-1.6।।

 

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।

नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥1.7॥

 

अस्माकम् – हमारे; तु-परन्तु; विशिष्टा–विशेष रूप से; ये-जो; तान्–उनको; निबोध -जानकारी देना, द्विज-उत्तम-ब्राह्मण श्रेष्ठ; नायका:-महासेना नायक; मम -हमारी; सैन्यस्थ -सेना के; संज्ञा-अर्थम्-सूचना के लिए; तान्–उन्हें; ब्रवीमि वर्णन कर रहा हूँ; ते-आपको।

 

हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! हमारे पक्ष की ओर के उन सेना नायकों के संबंध में भी सुनो, जो सेना को संचालित करने में विशेष रूप से निपुण हैं। अब मैं तुम्हारे समक्ष उनका वर्णन करता हूँ।। 1.7 ।।

 

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।

अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥1.8॥

 

भवान्-आप: भीष्मः-भीष्म पितामहः च-और; कर्ण:-कर्णः च-और; कपः-कृपाचार्य; च-और; समितिन्जयः-युद्ध में सदा विजयी; अश्वत्थामा- अश्वत्थामा; विकर्ण:-विकर्ण; च-और; सौमदत्ति:- सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा; तथा-और; एक- समान रूप से; च-भी।।

 

इस सेना में सदा विजयी रहने वाले आपके समान भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण तथा सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा आदि महा पराक्रमी योद्धा हैं जो युद्ध में सदा विजेता रहे हैं।। 1.8 ।।

 

अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।

नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥1.9॥

 

अन्ये-अन्य सब; च-भी; बहवः-अनेक; शूराः-महायोद्धा; मत् अर्थे- मेरे लिए; त्यक्त-जीविता:-अपने जीवन का बलिदान देने को तत्पर; नाना-शस्त्र-प्रहरणा:-विविध प्रकार के शस्त्रों से सुसज्जित; सर्वे-सभी; युद्ध विशारदा:-युद्ध कौशल में निपुण।।

 

यहाँ हमारे पक्ष में अन्य अनेक महायोद्धा भी हैं जो मेरे लिए अपने जीवन का बलिदान करने के लिए तत्पर हैं। वे युद्ध कौशल में पूर्णतया निपुण और विविध प्रकार के शस्त्रों से सुसज्जित हैं।। 1.9 ।।

 

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।

पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥1.10॥

 

अपर्याप्तम्-असीमित; तत्-वह; अस्माकम्-हमारी; बलम्-शक्ति; भीष्म-भीष्म पितामह के नेतृत्व में; अभिरक्षितम्-पूर्णतः सुरक्षित; पर्याप्तम्-सीमित; तु-लेकिन; इदम्-यह; एतेषाम्-उनकी; बलम्-शक्ति; भीम-भीम की देख रेख में; अभिरक्षितम् -पूर्णतया सुरक्षित।

 

हमारी शक्ति असीमित है और हम सब महान सेना नायक भीष्म पितामह के नेतृत्व में पूरी तरह से संरक्षित हैं जबकि पाण्डवों की सेना की शक्ति भीम द्वारा भलीभाँति रक्षित होने के पश्चात भी सीमित है।। 1.10 ।।

 

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।

भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥1.11॥

 

अयनेषु–निश्चित स्थान पर; च-भी; सर्वेषु- सर्वत्र; यथा-भागम्-अपने अपने निश्चित स्थान पर; अवस्थिता:-स्थित; भीष्मम्-भीष्म पितामह की; एव-निश्चय ही; अभिरक्षन्तु–सुरक्षा करना; भवन्त:-आप; सर्वे- सब ; एव हि-जब भी।

 

इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सभी निःसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें॥1.11॥

 

12-19 दोनों सेनाओं की शंख-ध्वनि का वर्णन

 

तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।

सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्ख दध्मौ प्रतापवान् ॥1.12॥

 

तस्य-उसका; सन्जनयन्-हेतु; हर्षम्-हर्ष; कुरूवृद्धः-कुरूवंश के वयोवद्ध (भीष्म); पितामहः-पितामह (दादा) ; सिंहनादम्-सिंह के समान गर्जना; विनद्य-गर्जना; उच्चैः-उच्च स्वर से; शङ्ख-शंख; दध्मौ–बजाया; प्रतापवान्–यशस्वी योद्धा।

 

कुरूवंश के वयोवृद्ध परम यशस्वी महायोद्धा एवं वृद्ध भीष्म पितामह ने सिंह-गर्जना जैसी ध्वनि करने वाले अपने शंख को उच्च स्वर से बजाया जिसे सुनकर दुर्योधन हर्षित हुआ।। 1.12 ।।

 

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।

सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥1.13॥

 

ततः-तत्पश्चात; शङ्खा:-शंख, च-और; भेर्य:-नगाड़े ; च-तथा; पणव आनक-ढोल तथा मृदंग; गोमुखाः-तुरही; सहसा-अचानक; एव-वास्तव में; अभ्यहन्यन्त-एक साथ बजाये गये; सः-वह; शब्दः-स्वर; तुमुल:-कोलाहलपूर्ण; अभवत्-हो गया था।

 

इसके पश्चात शंख, नगाड़े, बिगुल, तुरही तथा सींग अचानक एक साथ बजने लगे। उनका समवेत स्वर अत्यन्त भयंकर था।। 1.13 ।।

 

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।

माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः॥1.14॥

 

ततः-तत्पश्चात; श्वेत-श्वेत; हयैः-अश्व से; युक्ते–युक्त; महति-भव्य; स्यन्दने– रथ में; स्थितौ-आसीन; माधव:-कृष्ण,भाग्य की देवी लक्ष्मी के पति; पाण्डवः-पाण्डु पुत्र अर्जुन ; च-और; एव-निश्चय ही; दिव्यौ-दिव्य; शङ्खौ-शंख; प्रदध्मतुः-बजाये।

 

तत्पश्चात पाण्डवों की सेना के बीच श्वेत अश्वों द्वारा खींचे जाने वाले भव्य रथ पर आसीन माधव और अर्जुन ने अपने-अपने दिव्य शंख बजाये।। 1.14 ।।

 

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः।

पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्ख भीमकर्मा वृकोदरः॥1.15॥

 

पाञ्चजन्यं–पाञ्चजन्य नामक शंख; ऋषीकेश:-श्रीकृष्ण, जो मन और इन्द्रियों के स्वामी हैं; देवदत्तम-देवदत्त नामक शंख; धनम् जयः-धन और वैभव का स्वामी, अर्जुन ; पौण्ड्रम्-पौण्ड्र नामक शंख; दध्मौ–बजाया; महाशङ्ख-भीषण शंख; भीमकर्मा-दुस्साधय कर्म करने वाला; वृक उदरः-अतिभोजी भीम ने।

 

ऋषीकेश भगवान् कृष्ण ने अपना पाञ्जन्य शंख बजाया, अर्जुन ने देवदत्त शंख तथा अतिभोजी एवं अति दुष्कर कार्य करने वाले भीम ने पौण्डू नामक भीषण शंख बजाया।। 1.15 ।।

 

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।

नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥1.16॥

 

अनन्तविजयम्-अनन्त विजय नाम का शंख; राजा-राजा; कुन्तिपुत्रः-कुन्ति के पुत्र; युधिष्ठिरः-युधिष्ठिर; नकुलः-नकुलः सहदेवः-सहदेव ने; च–तथा; सुघोषमणिपुष्पकौ-सुघोष तथा मणिपुष्पक नामक शंख;

 

कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाए॥1.16॥

 

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।

धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः॥1.17॥

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।

सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक् पृथक्॥1.18॥

 

काश्य:-काशी (वाराणसी) के राजा ने; च-और; परम ईषु आस:-महान धनुर्धर; शिखण्डी-शिखण्डी ने; च-भी; महारथ:-दस हजार साधारण योद्धाओं से अकेला लड़ने वाला; धृष्टद्युम्नो:-धृष्टद्युम्न ने; विराट:-विराट; च-और; सात्यकिः-सात्यकि; च-तथा; अपराजित:-अजेय; द्रुपदः-द्रुपद; द्रौपदेया:-द्रौपदी के पुत्रों ने; च-भी; सर्वश:-सभी; पृथिवीपते -हे पृथ्वी का राजा; सौभद्रः-सुभद्रा के पुत्र; अभिमन्यु ने; च-भी; महाबाहुः-विशाल भुजाओं वाला; शड्.खान्–शंख; दध्मुः-बजाए; पृथक पृथक-अलग अलग।

 

हे पृथ्वीपति राजन्! राजा युधिष्ठिर ने अपना अनन्त विजय नाम का शंख बजाया तथा नकुल और सहदेव ने सुघोष एवं मणिपुष्पक नामक शंख बजाये। श्रेष्ठ धनुर्धर काशीराज, महा योद्धा शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, विराट, अजेय सात्यकि, द्रुपद, द्रौपदी के पांच पुत्रों तथा सुभद्रा के महाबलशाली पुत्र वीर अभिमन्यु आदि सबने अपने-अपने अलग-अलग शंख बजाये।। 1.17-1.18 ।।

 

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।

नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलोऽभ्यनुनादयन् ॥1.19॥

 

सः-उस; घोषः-शब्द ध्वनि; धार्तराष्ट्राणाम् -धृतराष्ट्र के पुत्रों के; हृदयानि- हृदयों को; व्यदारयत्-विदीर्ण कर दिया; नभ:-आकाश; च-भी; पृथिवीम्-पृथ्वी को; च-भी; एव-निश्चय ही; तुमुल:-कोलाहलपूर्ण ध्वनि; व्यनुनादयन्–गर्जना करना।

 

हे धृतराष्ट्र! इन शंखों से उत्पन्न ध्वनि द्वारा आकाश और धरती के बीच हुई गर्जना ने आपके पुत्रों के हृदयों को विदीर्ण कर दिया।। 1.19 ।।

 

20-27 अर्जुन का सैन्य परिक्षण, गाण्डीव की विशेषता

 

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः।

प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।। 1.20।।

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥1.21॥

 

अथ- तत्पश्चात; व्यवस्थितान्-सुव्यवस्थित; दृष्टा-देखकर; धार्तराष्ट्रान्–धृतराष्ट्र के पुत्रों को; कपिधवजः-वानर चित्र अंकित; प्रवृत्ते-उद्यत; शस्त्रसम्पाते-शास्त्र चलाने के लिए; धनुः-धनुष; उद्यम्य-ग्रहण करके, पाण्डवः-पाण्डुपुत्र अर्जुन; हृषीकेशम्-भगवान् कृष्ण से; तदा-उस समय; वाक्यम् वचन; इदम्- ये; आह-कहे; महीपते-हे राजा; अर्जुनः उवाच-अर्जुन ने कहा; सेनयोः-सेनाएं; उभयोः-दोनों; मध्ये–बीच; रथम्-रथ; स्थापय-खड़ा करें; मे–मेरे; अच्युत-श्रीकृष्ण;

 

हे राजन्‌! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-संबंधियों को देखकर, उस शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा- हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए॥1.20-1.21॥

 

यावदेतानिरीक्षेऽहं योद्धकामानवस्थितान्।

कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥1.22॥

 

यावत्-जब तक; एतान्–इन सब; निरीक्षे–देखना; अहम्-मैं; योद्धकामान्–युद्ध के लिए; अवस्थितान्–व्यूह रचना में एकत्र; के:-किन-किन के साथ; मया-मुझे ; सह-साथ; योद्धव्यम्-युद्ध करना; अस्मिन्-इसमें, रणसमुद्यमे-घोर युद्ध में।

 

अर्जुन ने कहा! हे अच्युत! मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच खड़ा करने की कृपा करें ताकि मैं यहाँ एकत्रित युद्ध करने की इच्छा रखने वाले योद्धाओं जिनके साथ मुझे इस महासंग्राम में युद्ध करना है, को देख सकूं।। 1.22 ।।

 

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।

धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेयुद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥1.23॥

 

योत्स्यमानान्–युद्ध करने के लिए आए योद्धाओं को; अवेक्षे-अहम्- मैं देखना चाहता हूँ; ये-जो; एते-वे; अत्र-यहाँ; समागता:-एकत्र; धार्तराष्ट्रस्य-धृतराष्ट्र के पुत्र; दुर्बुद्धेः-हीन मानसिकता वाले; युद्धे- युद्ध में; प्रिय-चिकीर्षवः-प्रसन्न करने वाले।

 

मैं उन लोगों को देखने का इच्छुक हूँ जो यहाँ पर धृतराष्ट्र के दुश्चरित्र पुत्रों को प्रसन्न करने की इच्छा से युद्ध लड़ने के लिए एकत्रित हुए हैं।।1.23।।

 

सञ्जय उवाच।

एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।

सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्॥1.24॥

 

संजयः उवाच—-संजय ने कहा; एवम्-इस प्रकार; उक्त:-व्यक्त किए गये; हृषीकेशः-इन्द्रियों के स्वामी, श्रीकृष्ण ने; गुडाकेशेन–निद्रा को वश में करने वाला, अर्जुन; भारत-भरत वंशी; सेनयोः-सेनाओं के; उभयोः-दोनों; मध्ये-मध्य में; स्थापयित्वा –स्थित करना; रथ-उत्तमम् भव्य रथ को।

 

संजय ने कहा-हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! निद्रा पर विजय पाने वाले अर्जुन द्वारा इस प्रकार के वचन बोले जाने पर तब भगवान श्रीकृष्ण ने उस भव्य रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले जाकर खड़ा कर दिया।। 1.24 ।।

 

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।

उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ॥1.25॥

 

भीष्म-भीष्म पितामह; द्रोण-द्रोणाचार्य ; प्रमुखतः-उपस्थिति में; सर्वेषाम्-सब; च – और; मही-क्षिताम्-अन्य राजा; उवाच-कहा; पार्थ-पृथा पुत्र, अर्जुन; पश्य -देखो; एतान्–इन सबों को; समवेतान्–एकत्रित; कुरून्-कुरु वंशियों को; इति–इस प्रकार।

 

भीष्म, द्रोण तथा अन्य सभी राजाओं की उपस्थिति में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि हे पार्थ! यहाँ पर एकत्रित समस्त कुरुओं को देखो।।1.25 ।।

 

तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान्।

आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥1.26॥

श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि

तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ॥1.27॥

 

तत्र-वहाँ; अपश्यत्-देखा; स्थितान्-खड़े पार्थः-अर्जुन ने; पितॄन्-पिता; अथ-तत्पश्चात; पितामहान–पितामहों को; आचार्यान्–शिक्षकों को; मातुलान्-मामाओं को; भ्रातृन्–भाइयों को; पुत्रान्–पुत्रों को; सखीन्-मित्रों को; तथा-और; श्वशुरान्–श्वसुरों को; सुहृदः-शुभचिन्तकों को; च-भी; एव-निश्चय ही; सेनयोः-सेना के; उभयोः-दोनो पक्षों की सेनाएं; अपि:- भी; तान्-उन्हीं; समीक्ष्य-देखकर; सः-वे; कौन्तेयः-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; सर्वान्–सभी प्रकार के; बंधु-बान्धव-सगे सम्बन्धियों को; अवस्थितान्–उपस्थित;

 

अर्जुन ने वहाँ खड़ी दोनों पक्षों की सेनाओं के बीच अपने पिता तुल्य चाचाओं-ताऊओं, पितामहों, गुरुओं, मामाओं, भाइयों, चचेरे भाइयों, पुत्रों, भतीजों, मित्रों, ससुर, और शुभचिन्तकों को भी देखा। उन उपस्थित सम्पूर्ण बंधुओं को देखकर वे कुंतीपुत्र अर्जुन। ।1.26-1.27।।

 

28-47 अर्जुनका विषाद,भगवान के नामों की व्याख्या

 

कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्

अर्जुन उवाच।

दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥1.28॥

 

कृपया-करुणा से; परया – अत्यधिक; आविष्ट:-अभिभूत; विषीदन्–गहन शोक प्रकट करता हुआ; इदम्-इस प्रकार; अब्रवीत् -बोला। अर्जुन:-उवाच-अर्जुन ने कहा; दृष्ट्वा-देख कर; इमम्- इन सबको; स्वजनम्- वंशजों को; कृष्ण-कृष्ण; युयुत्सुम-युद्ध लड़ने की इच्छा रखने वाले; समुपस्थितम्- उपस्थित;

 

अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले। अर्जुन बोले- हे कृष्ण! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजनसमुदाय को उपस्थित देखकर।। 1.28।।

 

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति

वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥1.29॥

 

सीदन्ति–काँप रहे हैं; मम-मेरे; गात्रणि-होंठ; मुखम्-मुँह; च-भी; परिशुष्यति-सूख रहा है; वेपथुः-कम्पन; च-भी; शरीरे-शरीर में; मे- मेरे; रोमहर्षः-शरीर के रोम कूप खड़े होना; च-भी; जायते-उत्पन्न हो रहा है;

 

मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है॥1.29।।

 

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चै व परिदह्यते।

न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥1.30॥

 

गाण्डीवम्-अर्जुन का धनुष; स्रंसते-सरक रहा है; हस्तात्-हाथ से; त्वक्-त्वचा; च-भी; एव–वास्तव में; परिदह्यते-सब ओर जल रही है। न-नही; च-भी; शक्नोमि-समर्थ हूँ; अवस्थातुम्- स्थिर खड़े होने में; भ्रमतीव-झूलता हुआ; च-और; मे–मेरा; मनः-मन;

 

हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ॥1.30॥

 

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥1.31॥

 

निमित्तानि-अशुभ लक्षण; च-भी; पश्यामि-देखता हूँ; विपरीतानि – दुर्भाग्य; केशव – हे केशी असुर को मारने वाले, श्रीकृष्ण; न-न तो; च-भी; श्रेयः-कल्याण; अनुपश्यामि-पहले से देख रहा हूँ; हत्वा-वध करना; स्वजनम् -सगे संबंधी को; आहवे -यद्ध में।

 

हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता॥1.31॥

 

काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।

किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेनवा ॥1.32॥

 

न- न तो; काक्ष्ये -इच्छा करता हूँ; विजयं-विजय; कृष्ण-कृष्ण; न -न ही; च-उसी प्रकार से; राज्यम-राज्य; सुखानि-सुख; च-भी; किम्-क्या; राज्येन-राज्य द्वारा; गोविन्द-श्रीकृष्ण, जो इन्द्रियों को सुख प्रदान करते हैं और जो गायों से प्रेम करते हैं; भोगैः-सुख; जीवितेन-जीवन; वा-अथवा;

 

हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है?॥1.32॥

 

येषामर्थे काक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च

त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।॥1.33॥

 

येषाम्-जिनके; अर्थ-लिए; काडक्षितम्-इच्छित है; न:-हमारे द्वारा; राज्यम्-राज्य; भोगा:-सुख; सुखानि;-सुख; च-भी; ते–वे; इमे-ये; अवस्थिता:-स्थित; युद्धे- युद्धभूमि में; प्राणान्–जीवन को; त्यक्त्वा-त्याग कर; धनानि–धन; च-भी;

 

हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं॥1.33॥

 

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।

मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ॥1.34।।

 

आचार्याः-शिक्षक; पितरः-पितृगणः पुत्रा-पुत्र; तथा -उसी प्रकार; एव-वास्तव में; च-भी; पितामहाः-पितामह; मातुला:-मामा; श्वशुरा:-श्वसुर; पौत्रा:-पौत्र; श्याला:-साले; सम्बन्धिनः-वंशजी; तथा – उसी प्रकार से 

 

गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं ॥1.34॥

 

एतान्न हन्तुमिच्छामि नतोऽपि मधुसूदन।

अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥1.35॥

 

एतान्–ये सब; न-नहीं; हन्तुम् -वध करना; इच्छामि- मैं चाहता हूँ; घ्रतः-वध करने पर; अपि-भी; मधुसूदन– मधु नामक असुर का वध करने वाले, श्रीकृष्ण; अपि-तो भी; त्रै-लोक्य- राज्यस्य-तीनों लोकों का राज्य; हेतो:-के लिए; किम नु—क्या कहा जाए; मही-कृते—पृथ्वी के लिए;

 

हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?॥35॥

 

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।

पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः॥1.36॥

 

निहत्य-मारकर; धार्तराष्ट्रान्-धृतराष्ट्र के पुत्रों को; नः-हमारी; का -क्या; प्रीतिः-सुख; स्यात्-होगी; जनार्दन- हे जीवों के पालक, श्रीकृष्ण। पापम्-पाप; एव-निश्चय ही; आश्रयेत्-लगेगा; अस्मान्–हमें; हत्वा-मारकर; एतान्–इन सबको; आततायिन:-आततायियों को;

 

हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा॥1.36॥

 

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।

स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥1.37॥

 

तस्मात्-अतः; न-कभी नहीं; अर्हाः-योग्य; वयम्-हम; हन्तुम्- मारने के लिए; धृतराष्ट्रान्–धृतराष्ट्र के पुत्रों को; स्व-बान्धवान् -मित्रों सहित; स्व-जनम्-कुटुम्बियों को; हि-निश्चय ही; कथम्-कैसे; हत्वा-मारकर; सुखिनः-सुखी; स्याम-हम होंगे; माधव-योगमाया के स्वामी, श्रीकृष्ण।

 

अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?॥1.37॥

 

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।

कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥1.38॥

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मानिवर्तितुम्।

कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥1.39॥

 

यदि-अपि यद्यपि; एते -ये; न -नहीं; पश्यन्ति–देखते हैं; लोभ-लालच; उपहत-अभिभूत; चेतसः-विचार वाले; कुलक्षयकृतम्-अपने संबंधियों का वध करने में; दोषम्-दोष को; मित्रद्रोहे-मित्रों से विश्वासघात करने में; च-भी; पातकम्-पाप; कथम्-क्यों; न-नहीं; ज्ञेयम्-जानना चाहिए; अस्माभिः-हम; पापात्-पापों से; अस्मात्-इन; निवर्तितुम्-दूर रहना; कुलक्षय-वंश का नाश; कृतम्-हो जाने पर; दोषम्-अपराध; प्रपश्यदिभः-जो देख सकता है; जनार्दन -सभी जीवों के पालक, श्रीकृष्ण!

 

यद्यपि लोभ से अभिभूत विचारधारा के कारण वे अपने स्वजनों के विनाश या प्रतिशोध के कारण और अपने मित्रों के साथ विश्वासघात करने में कोई दोष नही देखते हैं। तथापि हे जनार्दन! जब हमें स्पष्टतः अपने बंधु बान्धवों का वध करने में अपराध दिखाई देता है तब हम ऐसे पापमय कर्म से क्यों न दूर रहें?।। 1.38-1.39 ।।

 

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।

धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥1.40॥

 

कुलक्षये-कुल का नाश; प्रणश्यन्ति–विनष्ट हो जाती हैं; कुलधर्माः-पारिवारिक परम्पराएं; सनातनाः-शाश्वत; धर्मेनष्टे-धर्म नष्ट होने पर; कुलम्-परिवार को; कृत्स्नम्- सम्पूर्ण; अधर्म:-अधर्म; अभिभवति–अभिभूत; उत–वास्तव में।

 

जब कुल का नाश हो जाता है तब इसकी कुल परम्पराएं भी नष्ट हो जाती हैं और कुल के शेष परिवार अधर्म में प्रवृत्त होने लगते हैं।।1.40।।

 

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।

स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः॥1.41॥

 

अधर्म-अधर्म; अभिभवात्-प्रबलता होने से; कृष्ण-श्रीकृष्ण; प्रदुष्यन्ति-अपवित्र हो जाती हैं; परिवार-कुल; स्त्रिय-परिवार की स्त्रियां; स्त्रीषू-स्त्रीत्व; दुष्टासु-अपवित्र होने से वार्ष्णेय-वृष्णिवंशी; जायते-उत्पन्न होती है; वर्णसङ्कर -अवांछित सन्तान।

 

अधर्म की प्रबलता के साथ हे कृष्ण! कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं और स्त्रियों के दुराचारिणी होने से हे वृष्णिवंशी! अवांछित संतानें जन्म लेती हैं।।1.41।।

 

सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।

पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥1.42॥

 

सड्करः-अवांछित बच्चे; नरकाय- नारकीय; एव-निश्चय ही; कुलघ्नानां–कुल का विनाश करने वालों के; कुलस्य–कुल के; च-भी; पतन्ति–गिर जाते हैं; पतिर:-पितृगण; हि-निश्चय ही; एषाम्-उनके; लुप्त-समाप्त; पिण्ड उदक क्रियाः-पिण्डदान एवं तर्पण की क्रिया।

 

अवांछित सन्तानों की वृद्धि के परिणामस्वरूप निश्चय ही परिवार और पारिवारिक परम्परा का विनाश करने वालों का जीवन नारकीय बन जाता है। जल तथा पिण्डदान की क्रियाओं से वंचित हो जाने के कारण ऐसे पतित कुलों के पित्तरों का भी पतन हो जाता है।।1.42।।

 

दोषैरेतैः कुलजानां वर्णसङ्करकारकैः।

उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः॥1.43॥

 

दोषैः-दुष्कर्मों से; एतैः-इन सब; कुलघ्नानां-अपने परिवार को नष्ट करने वालों का; वर्ण-सङ्कर अवांछित संतानों के; कारकैः-कारणों से; उत्साद्यन्ते- नष्ट हो जाते हैं; जाति-धर्माः-सामुदायिक और परिवार कल्याण की योजनाएँ; कुल-धर्माः-पारिवारिक परम्पराएँ; च-भी; शाश्वता:-सनातन।

 

अपने दुष्कर्मों से कुल परम्परा का विनाश करने वाले दुराचारियों के कारण समाज में अवांछित सन्तानों की वृद्धि होती है और विविध प्रकार की सामुदायिक और परिवार कल्याण की गतिविधियों का भी विनाश हो जाता है।।1.43।।

 

उत्सन्नकुलधार्माणां मनुष्याणां जनार्दन।

नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥1.44॥

 

उत्सन्न–विनष्ट; कुलधर्माणाम्-कुल या पारिवारिक परम्पराएं; मनुष्याणाम्-ऐसे मनुष्यों का; जनाद्रन–सभी जीवों के पालक, श्रीकृष्ण; नरके-नरक में; अनियतम्-अनिश्चितकाल; वासः-निवास; भवति–होता है; इति–इस प्रकार; अनुशुश्रुम – विद्वानों से मैंने सुना है।

 

हे जनार्दन! मैंने गुरुजनों से सुना है कि जो लोग कुल परंपराओं का विनाश करते हैं, वे अनिश्चितकाल के लिए नरक में डाल दिए जाते हैं।।1.44।।

 

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥1.45॥

 

अहो-ओह; बत-कितना; महत्-महान; पापम्-पाप कर्म; कर्तुम् -करने के लिए; व्यवसिता-निश्चय किया है; वयम्-हमने; यत्-क्योंकि; राज्यसुखलोभेने-राजसी सुख की इच्छा से; हन्तुम् – मारने के लिए; स्वजनम्-अपने सम्बन्धियों को; उद्यता:-तत्पर।

 

हा! शोक! हम लोग बुद्धिमान होकर भी कितना महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गए हैं॥1.45॥

 

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।

धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥1.46॥

 

यदि-यदि; माम्-मुझको; अप्रतीकारम्-प्रतिरोध न करने पर; अशस्त्रम्-बिना शास्त्र के; शस्त्र-पाणयः-वे जिन्होंने हाथों में शस्त्र धारण किए हुए हैं; धार्तराष्ट्राः-धृतराष्ट्र के पुत्र; रणे-युद्धभूमि में; हन्यु:-मार देते है; तत्-वह; मे–मेरे लिए; क्षेम-तरम् श्रेयस्कर; भवेत् होगा।

 

भावार्थ : यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा॥1.46॥

 

सञ्जय उवाच।

एवमुक्त्वार्जुनः सङ्खये रथोपस्थ उपाविशत्।

विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥1.47॥

 

संजयः उवाच-संजय ने कहा; एवम् उक्त्वा -इस प्रकार कहकर; अर्जुन:-अर्जुन; संङ्ख ये – युद्धभूमि में; रथ उपस्थे – रथ पर; उपाविशत्-बैठ गया; विसृज्य-एक ओर रखकर; स-शरम्-बाणों सहित; चापम्-धनुष; शोक-दुख से; संविग्र–व्यथित; मानसः-मन।

 

संजय ने कहा-इस प्रकार यह कह कर अर्जुन ने अपना धनुष और बाणों को एक ओर रख दिया और शोकाकुल चित्त से अपने रथ के आसन पर बैठ गया, उसका मन व्यथा और दुख से भर गया।।1.47।।

 

श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः। ॥1॥

 

 

 

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