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अक्रूर जी द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति
अक्रूर जी द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | श्रीमद्भागवत महापुराणे दशम स्कन्धे चत्वारिंशोऽध्यायः | श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध के चालीसवें अध्याय में वर्णित अक्रूर जी द्वारा की गयी श्री कृष्ण स्तुति | Krishna stuti by Akroor ji given in 40th chapter of 10th canto of Shrimadbhagwatam| अक्रूर जी द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति हिंदी अर्थ सहित|
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अक्रूर उवाच
नतोऽस्म्यहं त्वाखिलहेतुहेतुं
नारायणं पूरुषमाद्यमव्ययं ।
यन्नाभिजातादरविंदकोशाद्
ब्रह्माऽऽविरासीद् यत एष लोकः ।।1।।
अक्रूर जी बोले – प्रभो ! आप प्रकृति आदि समस्त कारणों के परम कारण हैं । आप ही अविनाशी पुरुषोत्तम नारायण हैं तथा आपके ही नाभिकमल से उन ब्रह्माजी का आविर्भाव हुआ है , जिन्होंने इस चराचर जगत की सृष्टि की है । मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ ।।1।।
भूस्तोयमग्निः पवनः खमादि
र्महानजादिर्मन इन्द्रियाणि ।
सर्वेन्द्रियार्था विभुधाश्च सर्वे
ये हेतवस्ते जगतोऽङ्गभूताः ।।2।।
पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु , आकाश , अहंकार , महत्तत्व , प्रकृति , पुरुष , मन , इन्द्रिय , सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषय और उनके अधिष्ठातृ देवता – यही सब चराचर जगत और उसके व्यवहार के कारण हैं और ये सब के सब आपके ही अंगस्वरूप हैं ।।2।।
नैते स्वरूपं विदुरात्मनस्ते
ह्यजादयोऽनात्मतया गृहीता:।
अजोऽनुबद्ध: स गुणैरजाया
गुणात् परं वेद न ते स्वरूपं ।।3।।
प्रकृति और प्रकृति से उत्पन्न होने वाले समस्त पदार्थ ” इदं वृत्ति ” के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं , इसलिए ये सब अनात्मा हैं । अनात्मा होने के कारण जड़ हैं और इसलिए आपका स्वरूप नहीं जान सकते क्योंकि आप तो स्वयं आत्मा ही ठहरे । ब्रह्मा जी अवश्य ही आपके स्वरूप हैं परन्तु वे प्रकृति के गुण रजस से युक्त हैं , इसलिए वे भी आपकी प्रकृति का और उसके गुणों से परे का स्वरूप नहीं जानते ।।3।।
त्वां योगिनो यजन्त्यद्धा महापुरुषमीश्वरं।
साध्यात्मं साधिभूतं च साधिदैवं च साधवः ।।4।।
साधु योगी स्वयं अपने अंतःकरण में स्थित ‘ अंतर्यामी ‘ के रूप में , समस्त भूत – भौतिक पदार्थों में व्याप्त ‘ परमात्मा ‘ के रूप में और सूर्य , चंद्र , अग्नि आदि देवमंडल में स्थित ‘ इष्ट देवता ‘ के रूप में तथा उनके साक्षी महापुरुष एवं नियंता ईश्वर के रूप में साक्षात् आपकी ही उपासना करते हैं ।।4।।
त्रय्या च विद्यया केचित् त्वां वै वैतानिका द्विजाः ।
यजन्ते विततैर्य ज्ञैर्नानारूपामराख्यया ।।5।।
बहुत से कर्मकाण्डी ब्राह्मण कर्ममार्ग का उपदेश करने वाली त्रयी विद्या के द्वारा जो आपके इंद्रा , अग्नि आदि अनेक देववाचक नाम तथा वज्रहस्त , सप्तार्चि आदि अनेक रूप बतलाती है , बड़े – बड़े यज्ञ करते हैं और उनसे आपकी ही उपासना करते हैं ।।5।।
एके त्वाखिलकर्माणि संन्यस्योपशमं गताः
ज्ञानिनो ज्ञानयज्ञेन यजन्ति ज्ञानविग्रहं ।।6।।
बहुत से ज्ञानी अपने समस्त कर्मों का सन्यास कर देते हैं और शांत भाव में स्थित हो जाते हैं । वे इस प्रकार ज्ञानयज्ञ द्वारा ज्ञानस्वरूप आपकी ही आराधना करते हैं ।।6।।
अन्ये च संस्कृतात्मानो विधिनाभिहितेन ते
यजन्ति त्वन्मयास्त्वां वै बहुमूर्त्येकमूर्तिकं ।।7।।
और भी बहुत से संस्कार संपन्न अथवा शुद्धचित्त वैष्णवजन आपकी ही बतलायी गयी पांचरात्र आदि विधियों से तन्मय होकर आपके चतुर्व्यूह आदि अनेक और नारायण रूप एक स्वरूप की पूजा बतलाते हैं ।।7।।
त्वामेवान्ये शिवोक्तेन मार्गेण शिवरूपिणं ।
बह्वाचार्यविभेदेन भगवन् समुपासते ।।8।।
भगवन ! दूसरे लोग शिवजी के द्बारा बतलाये हुए मार्ग से , जिसके आचार्य भेद से अनेक अवांतर भेद भी हैं , शिवस्वरूप आपकी ही पूजा करते हैं ।।8।।
सर्व एव यजन्ति त्वां सर्वदेवमयेश्वरं ।
येऽप्यन्यदेवताभक्ता यद्यप्यन्यधियः प्रभो ।।9।।
स्वामिन ! जो लोग दूसरे देवताओं की भक्ति करते हैं और उन्हें आपसे भिन्न समझते हैं , वे सब भी वास्तव में आपकी ही आराधना करते हैं ; क्योंकि आप ही समस्त देवताओं के रूप में हैं और सर्वेश्वर भी हैं ।।9।।
यथाद्रिप्रभवा नद्यः पर्जन्यापूरिताः प्रभो ।
विशन्ति सर्वतः सिन्धुं तद्वत्त्वां गतयोऽन्ततः ।।10।।
प्रभो ! जैसे पर्वतों से सब ओर बहुत सी नदियाँ निकलती हैं और वर्षा के जल से भरकर घूमती – घामती समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं , वैसे ही सभी प्रकार के उपासना मार्ग घूम – घामकर देर – सबेर आपके ही पास पहुँच जाते हैं ।।10।।
सत्त्वं रजस्तम इति भवतः प्रकृतेर्गुणाः ।
तेषु हि प्राकृताः प्रोता आब्रह्मस्थावरादयः ।।11।।
प्रभो ! आपकी प्रकृति के तीन गुण हैं – सत्त्व , रज और तम । ब्रह्मा से लेकर स्थावर पर्यन्त सम्पूर्ण चराचर जीव प्राकृत हैं और जैसे वस्त्र सूतों से ओत-प्रोत रहते हैं वैसे ही ये सब प्रकृति के उन गुणों से ही ओत – प्रोत हैं ।
तुभ्यं नमस्तेस्त्वविषक्तदृष्टये
सर्वात्मने सर्वधियां च साक्षिणे ।
गुणप्रवाहोऽयंविद्यया कृतः
प्रवर्तते देवनृतिर्यगात्मसु ।।12।।
परन्तु आप सर्व स्वरूप होने पर भी उनके साथ लिप्त नहीं हैं । आपकी दृष्टि निर्लिप्त है क्योंकि आप समस्त वृत्तियों के साक्षी हैं । यह गुणों के प्रवाह से होने वाली सृष्टि अज्ञान मूलक है और वो देवता , मनुष्य , पशु – पक्षी आदि समस्त योनियों में व्याप्त है ; परन्तु आप उस से सर्वथा अलग हैं । इसलिए मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।।12।।
अग्निर्मुखं तेऽवनिरङ्घ्रिरीक्षणं
सूर्यो नभो नाभिरथो दिशः श्रुतिः ।
द्यौ: कं सुरेन्द्रास्तव बाह्वोऽर्णवाः
कुक्षिमर्रुत् प्राणबलं प्रकल्पितं।।13।।
अग्नि आपका मुख है । पृथ्वी चरण है । सूर्य और चन्द्रमा नेत्र हैं । आकाश नाभि है । दिशाएं कान हैं । स्वर्ग सिर है । देवेन्द्रगण भुजाएं हैं । समुद्र कोख है और यह वायु ही आपकी प्राण शक्ति के रूप में उपासना के लिए कल्पित हुयी है ।।13।।
रोमाणि वृक्षौषधयः शिरोरुहा
मेघाः परस्यास्थिनखानि तेऽद्रयः।
निमेषणं रात्र्यहनी प्रजापति
र्मेढ्रस्तु वृष्टिस्तव वीर्यमिष्यते ।।14
वृक्ष और औषधियां रोम हैं । मेघ सिर के केश हैं । पर्वत आपके अस्थि समूह और नख हैं । दिन और रात पलकों का खोलना और मींचना है । प्रजापति जननेन्द्रिय हैं और वृष्टि ही आपका वीर्य है ।।14।।
त्वय्यव्ययात्मन् पुरुषे प्रकल्पिता
लोकाः सपाला बहुजीवसंकुलाः ।
यथा जले संजिहते जलौकसो
ऽप्युदुम्बरे वा मशका मनोमये ।।15।।
अविनाशी भगवन ! जैसे जल में बहुत से जलचर जीव और गूलर के फलों में नन्हें – नन्हें कीट रहते हैं , उसी प्रकार उपासना के लिए स्वीकृत आपके मनोमय पुरुषरूप में अनेक प्रकार के जीव – जंतुओं से भरे हुए लोक और उनके लोकपाल कल्पित किये गए हैं ।।15।।
यानि यानीह रूपाणि क्रीड़नार्थं बिभर्षि हि ।
तैरामृष्टशुचो लोका मुदा गायन्ति ते यशः ।।16।।
प्रभो ! आप क्रीड़ा करने के लिए पृथ्वी पर जो – जो रूप धारण करते हैं , वे सब अवतार लोगों के शोक – मोह को धो – बहा देते हैं ; और फिर सब लोग बड़े आनंद से आपके निर्मल यश का गान करते हैं ।।16।।
नमः कारण मत्स्याय प्रलयाब्धिचराय च
हयशीर्ष्णे नमस्तुभ्यं मधुकैटभमृत्यवे ।।17।।
प्रभो ! आपने वेदों , ऋषियों , औषधियों और सत्यव्रत आदि की रक्षा – दीक्षा के लिए मत्स्य रूप धारण किया था और प्रलय के समुद्र में स्वछन्द विहार किया था ।आपने ही मधु और कैटभ नाम के असुरों का संहार करने के लिए हयग्रीव का अवतार ग्रहण किया था । मैं आपके उस रूप को भी नमस्कार करता हूँ ।।17।।
अकूपाराय बृहते नमो मन्दरधारिणे।
क्षित्युद्धारविहाराय नमः सूकरमूर्तये ।।18।।
आपने ही विशाल कच्छप रूप ग्रहण करके मंदराचल को धारण किया था , आपको मैं नमस्कार करता हूँ । आपने ही पृथ्वी की उद्धार की लीला करने के लिए वराह रूप स्वीकार किया था , आपको बार – बार मेरा नमस्कार है ।।18।।
नमस्तेऽद्भुतसिंहाय साधुलोक भयापह
वामनाय नमस्तुभ्यं क्रान्तत्रिभुवनाय च ।।19।।
प्रह्लाद जैसे साधुजनों का भय मिटाने वाले प्रभो ! आपके उस अलौकिक नृसिंह रूप को मैं नमस्कार करता हूँ । आपने वामन रूप ग्रहण करके अपने पगों से तीनों लोक नाप लिए थे , आपको मैं नमस्कार करता हूँ ।।19।।
नमो भृगूणां पतये दृप्तक्षत्रवनच्छिदे ।
नमस्ते रघुवर्याय रावणान्तकराय च ।।20।।
धर्म का उल्लंघन करने वाले घमंडी क्षत्रियों के वन का छेदन करने के लिए आपने भृगुपति परशुराम का रूप ग्रहण किया था । मैं आपके उस रूप को नमस्कार करता हूँ । रावण का नाश करने के लिए आपने रघुवंश में भगवान् राम के रूप से अवतार ग्रहण किया था । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।।20।।
नमस्ते वासुदेवाय नमः संकर्षणाय च
प्रद्युम्नायानिरुद्धाय सात्वतां पतये नमः ।।21।।
वैष्णव जनों तथा यदु – वंशियों का पालन – पोषण करने के लिए आपने ही अपने को वासुदेव , संकर्षण , प्रद्युम्न और अनिरुद्ध इस चतुर्व्यूह के रूप में प्रकट किया है । मैं आपको बार – बार नमस्कार करता हूँ ।।21।।
नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने
म्लेच्छप्रायक्षत्रहंत्रे नमस्ते कल्किरूपिणे ।।22।।
दैत्य और दानवों को मोहित करने के लिए आप शुद्ध अहिंसा – मार्ग के प्रवर्तक बुद्ध का रूप धारण करेंगे , मैं आपको नमस्कार करता हूँ और पृथ्वी के क्षत्रिय जब म्लेच्छप्राय हो जायेंगे तब उनका नाश करने के लिए आप ही कल्कि के रूप में अवतीर्ण होंगे । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।।22।।
भगवञ्जीवलोकोऽयं मोहितस्तव मायया ।
अहंमेत्यसद्ग्राहो भ्राम्यते कर्मवर्त्मसु ।।23।।
भगवन ! ये सब – के सब जीव आपकी ही माया से ही मोहित हो रहे हैं और इस मोह के कारण ही ‘ यह मैं हूँ और यह मेरा है ‘ इस झूठे दुराग्रह में फंसकर कर्म के मार्गों में भटक रह हैं ।।23।।
अहं चात्मात्मजागारदारार्थस्वजनादिषु ।
भ्रमामि स्वप्नकल्पेषु मूढः सत्यधिया विभो ।।24।।
मेरे स्वामी ! इसी प्रकार मैं भी स्वप्न में दिखने वाले पदार्थों के समान झूठे देह – गेह , पत्नी – पुत्र और धन – स्वजन आदि को सत्य समझकर उन्हीं के मोह में फँस रहा हूँ और भटक रहा हूँ ।।24।।
अनित्यानात्मदुःखेषु विपर्ययमतिर्ह्यहं
द्वन्दारामस्तमोविष्टो न जाने त्वाऽऽत्मनः प्रियं।।25।।
मेरी मूर्खता तो देखिये , प्रभो ! मैंने अनित्य वस्तुओं को नित्य , अनात्मा को आत्मा और दुःख को सुख समझ लिया । भला , इस उलटी बुद्धि की भी कोई सीमा है । इस प्रकार अज्ञानवश सांसारिक सुख – दुःख आदि द्वंद्वों में ही रम गया और यह बात बिलकुल भूल गया कि आप ही हमारे सच्चे प्यारे हैं ।।25।।
यथाबुधो जलं हित्वा प्रतिच्छिन्नं तदुद्भवैः ।
अभ्येति मृगतृष्णां वै तद्वत्त्वाहं पराङ्गमुखः ।।26।।
जैसे कोई अनजान मनुष्य के लिए तालाब पर जाये और उसे उसी से पैदा हुए सिवार आदि घासों से ढका देख कर ऐसा समझ ले कि यहाँ जल नहीं है , तथा सूर्य की किरणों में झूठ – मूठ प्रतीत होने वाले जल के लिए मृगतृष्णा की ओर दौड़ पड़े , वैसे ही मैं अपनी ही माया से छिपे रहने के कारण आपको छोड़ कर विषयों में सुख की आशा से भटक रहा हूँ ।।26।।
नोत्सहेऽहं कृपणधीः कामकर्महतं मनः ।
रोद्धुं प्रमाथि भिश्चाक्षैर्ह्रयमाणमितस्ततः ।।27।।
मैं अविनाशी अक्षर वास्तु के ज्ञान से रहित हूँ । इसी से मेरे मन में अनेक वस्तुओं की कामना और उनके लिए कर्म करने के संकल्प उठते ही रहते हैं , इसके अतिरिक्त ये इन्द्रियां भी जो बड़ी प्रबल एवं दुर्दमनीय हैं , मन को मथ – मथ कर बलपूर्वक इधर – उधर घसीट ले जाती हैं । इसीलिए इस मन को मैं रोक नहीं पाता।।27।।
सोऽहं तवाङ्घ्रयुपगतोऽस्म्यसतां दुरापं
तच्चाप्यहं भवदनुग्रह ईश मन्ये ।
पुंसो भवेद् यर्हि संसरणापवर्ग-
स्त्वय्यब्जनाभ सदुपासनया मतिः स्यात् ।।28।।
इस प्रकार भटकता हुआ मैं आपके उन चरणकमलों की छत्रछाया में आ पहुंचा हूँ , जो दुष्टों के लिए दुर्लभ हैं । मेरे स्वामी ! इसे भी मैं आपका कृपा प्रसाद ही मानता हूँ क्योंकि हे पद्मनाभ ! जब जीव के संसार से मुक्त होने का समय आता है , तब सत्पुरुषों की उपासना से चित्तवृत्ति आप में लगती है ।।28।।
नमो विज्ञानमात्राय सर्वप्रत्ययहेतवे ।
पुरुषेशप्रधानाय ब्रह्मणेऽनंतशक्त्ये ।।29।।
प्रभो ! आप केवल विज्ञान स्वरूप हैं , विज्ञान – घन हैं । जितनी भी प्रतीतियाँ होती हैं , जितनी भी वृत्तियाँ हैं , उन सबके आप ही कारण और अधिष्ठान हैं । जीव के रूप में एवं जीवों के सुख – दुःख आदि के निमित्त काल , कर्म , स्वभाव तथा प्रकृति के रूप में भी आप ही हैं तथा आप ही उन सबके नियंता भी हैं । आपकी शक्तियाँ अनंत हैं । आप स्वयं ब्रह्म हैं । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।।29।।
नमस्ते वासुदेवाय सर्वभूतक्षयाय च ।
हृषिकेश नमस्तुभ्यं प्रपन्नं पाहि मां प्रभो ।।30
प्रभो ! आप ही वासुदेव , आप ही समस्त जीवों के आश्रय ( संकर्षण ) हैं ; तथा आप ही बुद्धि और मन के अधिष्ठातृ – देवता हृषिकेश ( प्रद्युम्न और अनिरुद्ध ) हैं । मैं आपको बार – बार नमस्कार करता हूँ । प्रभो ! आप मुझ शरणागत की रक्षा कीजिये ।।30।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धेऽक्रूरस्तुतिर्नाम चत्वारिंशोऽध्यायः ।।40।।
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