गरुड़ पुराण में वर्णित श्री विष्णु पंजर स्तोत्र | श्रीविष्णुपञ्जरस्तोत्रम् हिन्दी अर्थ सहित | ॥श्रीविष्णुपञ्जरस्तोत्रम्॥ Shri Vishnu Panjara Stotram| ShriVishnuPanjaraStotram| विष्णु पंजर स्तोत्र| आरोग्य और सौभाग्य की प्राप्ति के लिए प्रतिदिन करें श्रीविष्णुपञ्जरस्तोत्रम् का पाठ | जीवन में धर्म,अर्थ , काम ओर मोक्ष की सिद्धि के लिए करें “विष्णुपंजर स्तोत्र” का पाठ| शुभ दिनों , विशेष पर्वों , एकादशी आदि के दिन विष्णुपंजरस्तोत्र का पाठ करने से मिलता है विशेष फल |
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श्रीविष्णुपञ्जरस्तोत्रम् एक वैदिक स्तोत्र है जो भगवान विष्णु की महिमा का वर्णन करता है। इस स्तोत्र में भगवान विष्णु के अनेक नामों का जिक्र है। इसे पढ़ने से मन की शांति मिलती है। एकादशी तिथि पर भगवान विष्णु का स्मरण मात्र ही इच्छाओं को पूरा करने वाला माना गया है। यह विष्णु पञ्जर स्तोत्र के नाम से भी प्रसिद्ध है। माना जाता है कि, इसके प्रभाव से ही माता रानी ने भी रक्तबीज व महिषासुर जैसे राक्षसों का अंत किया था। यह विष्णु पंजर स्तोत्र गरुण पुराण से संगृहीत है। इसमें भगवान विष्णु ओर रूद्र भगवान के बीच हुयी वार्ता के अंश हैं। पञ्जर का अर्थ है कवच अर्थात ये एक रक्षा स्त्रोत है जिसका प्रत्येक एकादशी को पाठ करना चाहिए। विष्णुसहस्त्रनाम के साथ शुभ दिनों , विशेष पर्वों , एकादशी आदि के दिन विष्णुपंजरस्तोत्र का पाठ अवश्य करना चाहिए । जीवन में धर्म,अर्थ काम ओर मोक्ष की सिद्धि के लिए एकादशी आदि पुण्य तिथियों पर उपवास रख कर भगवान नारायण के दिव्य “विष्णु सहस्त्रनाम”ओर “विष्णुपंजर स्त्रोत” का पाठ अवश्य करना चाहिए । वामनपुराण के अध्याय १७ में भी यही विष्णु पंजर स्तोत्र प्राप्त होता है। यहाँ श्रीगरुड़पुराण आचारकाण्ड अध्याय १३ में वर्णित पञ्जर दिया है। इससे पूर्व अग्निपुराण और श्रीब्रह्माण्डपुराण अन्तर्गत विष्णुपञ्जरम् दिया गया है। इस विष्णुपञ्जर नामक स्तुति का जो मनुष्य भक्तिपूर्वक जप करता है, वह सदा अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में सफल होता है।
श्रीविष्णुपञ्जरस्तोत्रम् हिन्दी अर्थ सहित
हरिरुवाच ।
प्रवक्ष्याम्यधुना ह्येतद्वैष्णवं पञ्जरं शुभम् ।
श्रीहरि ने पुनः कहा-हे रुद्र ! अब मैं विष्णुपञ्जर नामक स्तोत्र कहता हूँ। यह स्तोत्र (बड़ा ही) कल्याणकारी है। उसे सुनें-
नमोनमस्ते गोविन्द चक्रं गृह्य सुदर्शनम् ॥ १॥
प्राच्यां रक्षस्व मां विष्णो ! त्वामहं शरणं गतः ।
हे गोविन्द ! आपको नमस्कार है। आप सुदर्शनचक्र लेकर पूर्व दिशा में मेरी रक्षा करें। हे विष्णो! मैं आपकी शरण में हूँ।
गदां कौमोदकीं गृह्ण पद्मनाभ नमोऽस्त ते ॥ २॥
याम्यां रक्षस्व मां विष्णो ! त्वामहं शरणं गतः ।
हे पद्मनाभ! आपको मेरा नमन है। आप अपनी कौमोदकी गदा धारणकर दक्षिण दिशा में मेरी रक्षा करें।
हलमादाय सौनन्दे नमस्ते पुरुषोत्तम ॥ ३॥
प्रतीच्यां रक्ष मां विष्णो ! त्वामह शरणं गतः ।
हे विष्णो! मैं आपकी शरण में हूँ। हे पुरुषोत्तम! आपको मेरा प्रणाम है। आप सौनन्द नामक हल लेकर पश्चिम दिशा में मेरी रक्षा करें।
मुसलं शातनं गृह्य पुण्डरीकाक्ष रक्ष माम् ॥ ४॥
उत्तरस्यां जगन्नाथ ! भवन्तं शरणं गतः ।
हे विष्णो! मैं आपको शरण में हूँ। हे पुण्डरीकाक्ष! आप शातन नामक मुसल हाथ में लेकर उत्तर दिशा में मेरी रक्षा करें।
खड्गमादाय चर्माथ अस्त्रशस्त्रादिकं हरे ! ॥ ५॥
नमस्ते रक्ष रक्षोघ्न ! ऐशान्यां शरणं गतः ।
हे जगन्नाथ! मैं आपकी शरण में हूँ। हे हरे ! आपको मेरा नमस्कार है। आप खड्ग, चर्म (ढाल) आदि अस्त्र-शस्त्र ग्रहणकर ईशानकोण में मेरी रक्षा करें।
पाञ्चजन्यं महाशङ्खमनुघोष्यं च पङ्कजम् ॥ ६॥
प्रगृह्य रक्ष मां विष्णो आग्न्येय्यां रक्ष सूकर ।
हे दैत्यविनाशक मैं आपकी शरण में हूँ। हे यज्ञवराह (महावराह)! आप पाञ्चजन्य नामक महाशङ्ख और अनुघोष (अनुबोध) नामक पद्य ग्रहणकर अग्निकोण में मेरी रक्षा करें।
चन्द्रसूर्यं समागृह्य खड्गं चान्द्रमसं तथा ॥ ७॥
नैर्ऋत्यां मां च रक्षस्व दिव्यमूर्ते नृकेसरिन् ।
हे विष्णो! मैं आपकी शरण में हूँ। आप मेरी रक्षा करें। हे दिव्य-शरीर भगवान् नृसिंह ! आप सूर्य के समान देदीप्यमान और चन्द्र के समान चमत्कृत खड्ग को धारणकर नैऋत्यकोण में मेरी रक्षा करें।
वैजयन्तीं सम्प्रगृह्य श्रीवत्सं कण्ठभूषणम् ॥ ८॥
वायव्यां रक्ष मां देव हयग्रीव नमोऽस्तु ते ।
हे भगवान् हयग्रीव! आपको प्रणाम है।’ आप वैजयन्ती माला तथा कण्ठ में सुशोभित होनेवाले श्रीवत्स नामक आभूषण से विभूषित होकर वायुकोण में मेरी रक्षा करें।
वैनतेयं समारुह्य त्वन्तरिक्षे जनार्दन ! ॥ ९॥
मां रक्षस्वाजित सदा नमस्तेऽस्त्वपराजित ।
हे जनार्दन! आप वैनतेय गरुड पर आरूढ होकर अन्तरिक्ष में मेरी रक्षा करें। हे अजित ! हे अपराजित ! आपको सदैव मेरा प्रणाम है।
विशालाक्षं समारुह्य रक्ष मां त्वं रसातले ॥ १०॥
अकूपार नमस्तुभ्यं महामीन नमोऽस्तु ते ।
करशीर्षाद्यङ्गुलीषु सत्य त्वं बाहुपञ्जरम् ॥ ११॥
कृत्वा रक्षस्व मां विष्णो नमस्ते पुरुषोत्तम ।
हे कूर्मराज! आपको नमस्कार है। हे महामीन! आपको नमस्कार है। हे सत्यस्वरूप महाविष्णो! आप अपनी बाहु को पञ्जर (रक्षक)- जैसा स्वीकार करके हाथ, सिर, अङ्गुली आदि समस्त अङ्ग-उपाङ्ग से युक्त मेरे शरीर की रक्षा करें। हे पुरुषोत्तम! आपको नमस्कार है।
एतदुक्तं शङ्कराय वैष्णवं पञ्जरं महत् ॥ १२॥
पुरा रक्षार्थमीशान्याः कात्यायन्या वृषध्वज ।
हे वृषध्वज! मैंने प्राचीन काल में सर्वप्रथम भगवती ईशानी कात्यायनी की रक्षा के लिये इस विष्णुपञ्जर नामक स्तोत्र को कहा था।
नाशायामास सा येन चामरान्महिषासुरम् ॥ १३॥
दानवं रक्तबीजं च अन्यांश्च सुरकण्टकान् ।
एतज्जपन्नरो भक्त्या शत्रून्विजयते सदा ॥ १४॥
इसी स्तोत्र के प्रभाव से उस कात्यायनी ने स्वयं को अमर समझने वाले महिषासुर, रक्तबीज और देवताओं के लिये कण्टक बने हुए अन्यान्य दानवों का विनाश किया था। इस विष्णुपञ्जर नामक स्तुति का जो मनुष्य भक्तिपूर्वक जप करता है, वह सदा अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में सफल होता है।
॥इति श्रीगारुडे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डेविष्णुपञ्जरस्तोत्रं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥
इस प्रकार श्रीगरुड़पुराण आचारकाण्ड अध्याय १३ में वर्णित विष्णु पंजर स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ।
श्रीविष्णुपञ्जरस्तोत्रम् अर्थ सहित
हरिरुवाच ।
प्रवक्ष्याम्यधुना ह्येतद्वैष्णवं पञ्जरं शुभम् ।
नमोनमस्ते गोविन्द चक्रं गृह्य सुदर्शनम् ॥ १॥
श्रीहरि ने पुनः कहा-हे रुद्र ! अब मैं विष्णुपञ्जर नामक स्तोत्र कहता हूँ। यह स्तोत्र (बड़ा ही) कल्याणकारी है। उसे सुनें-हे गोविन्द ! आपको नमस्कार है। आप सुदर्शनचक्र लेकर – ॥ १॥
प्राच्यां रक्षस्व मां विष्णो ! त्वामहं शरणं गतः ।
गदां कौमोदकीं गृह्ण पद्मनाभ नमोऽस्त ते ॥ २॥
पूर्व दिशा में मेरी रक्षा करें। हे विष्णो! मैं आपकी शरण में हूँ। हे पद्मनाभ! आपको मेरा नमन है। आप अपनी कौमोदकी गदा धारणकर – ॥ २॥
याम्यां रक्षस्व मां विष्णो ! त्वामहं शरणं गतः ।
हलमादाय सौनन्दे नमस्ते पुरुषोत्तम ॥ ३॥
दक्षिण दिशा में मेरी रक्षा करें। हे विष्णो! मैं आपकी शरण में हूँ। हे पुरुषोत्तम! आपको मेरा प्रणाम है। आप सौनन्द नामक हल लेकर – ॥ ३॥
प्रतीच्यां रक्ष मां विष्णो ! त्वामह शरणं गतः ।
मुसलं शातनं गृह्य पुण्डरीकाक्ष रक्ष माम् ॥ ४॥
पश्चिम दिशा में मेरी रक्षा करें। हे विष्णो! मैं आपकी शरण में हूँ। हे पुण्डरीकाक्ष! आप शातन नामक मुसल हाथ में लेकर – ॥ ४॥
उत्तरस्यां जगन्नाथ ! भवन्तं शरणं गतः ।
खड्गमादाय चर्माथ अस्त्रशस्त्रादिकं हरे ! ॥ ५॥
उत्तर दिशा में मेरी रक्षा करें। हे जगन्नाथ ! मैं आपकी शरण में हूँ। हे हरे ! आपको मेरा नमस्कार है। आप खड्ग, चर्म (ढाल) आदि अस्त्र-शस्त्र ग्रहणकर – ॥ ५॥
नमस्ते रक्ष रक्षोघ्न ! ऐशान्यां शरणं गतः ।
पाञ्चजन्यं महाशङ्खमनुघोष्यं च पङ्कजम् ॥ ६॥
ईशानकोण में मेरी रक्षा करें। हे रक्षोघ्न ! आपको नमस्कार है । मैं आपकी शरण में हूँ। हे दैत्यविनाशक ! मैं आपकी शरण में हूँ। आप पाञ्चजन्य नामक महाशङ्ख और अनुघोष (अनुबोध) नामक पद्य ग्रहणकर – ॥ ६॥
प्रगृह्य रक्ष मां विष्णो आग्न्येय्यां रक्ष सूकर ।
चन्द्रसूर्यं समागृह्य खड्गं चान्द्रमसं तथा ॥ ७॥
हे यज्ञवराह (महावराह)! अग्निकोण में मेरी रक्षा करें। हे विष्णो! मैं आपकी शरण में हूँ। आप मेरी रक्षा करें। आप सूर्य के समान देदीप्यमान और चन्द्र के समान चमत्कृत खड्ग को धारणकर – ॥ ७॥
नैर्ऋत्यां मां च रक्षस्व दिव्यमूर्ते नृकेसरिन् ।
वैजयन्तीं सम्प्रगृह्य श्रीवत्सं कण्ठभूषणम् ॥ ८॥
हे दिव्य-शरीर भगवान् नृसिंह ! नैऋत्यकोण में मेरी रक्षा करें। आप वैजयन्ती माला तथा कण्ठ में सुशोभित होनेवाले श्रीवत्स नामक आभूषण से विभूषित होकर – ॥ ८॥
वायव्यां रक्ष मां देव हयग्रीव नमोऽस्तु ते ।
वैनतेयं समारुह्य त्वन्तरिक्षे जनार्दन ! ॥ ९॥
हे भगवान् हयग्रीव! वायुकोण में मेरी रक्षा करें। आपको मेरा प्रणाम है। हे जनार्दन! आप वैनतेय गरुड पर आरूढ होकर अन्तरिक्ष में – ॥ ९॥
मां रक्षस्वाजित सदा नमस्तेऽस्त्वपराजित ।
विशालाक्षं समारुह्य रक्ष मां त्वं रसातले ॥ १०॥
मेरी रक्षा करें। हे अजित ! हे अपराजित ! आपको सदैव मेरा प्रणाम है। हे विशालाक्ष ! रसातल ( पाताल ) में स्थित होकर मुझ शरणागत की रक्षा करो ॥ १०॥
अकूपार नमस्तुभ्यं महामीन नमोऽस्तु ते ।
करशीर्षाद्यङ्गुलीषु सत्य त्वं बाहुपञ्जरम् ॥ ११॥
हे कूर्मराज! आपको नमस्कार है। हे महामीन! आपको नमस्कार है। आप अपनी बाहु को पञ्जर (रक्षक)- जैसा स्वीकार करके हाथ, सिर, अङ्गुली आदि समस्त अङ्ग-उपाङ्ग से युक्त मेरे शरीर की – ॥ ११॥
कृत्वा रक्षस्व मां विष्णो नमस्ते पुरुषोत्तम ।
एतदुक्तं शङ्कराय वैष्णवं पञ्जरं महत् ॥ १२॥
रक्षा करें। हे सत्यस्वरूप महाविष्णो! हे पुरुषोत्तम! आपको नमस्कार है। इस प्रकार हे शंकर मैंने यह विष्णु पंजर स्तोत्र व्यक्त किया ॥ १२॥
पुरा रक्षार्थमीशान्याः कात्यायन्या वृषध्वज ।
नाशायामास सा येन चामरान्महिषासुरम् ॥ १३॥
हे वृषध्वज! मैंने प्राचीन काल में सर्वप्रथम भगवती ईशानी कात्यायनी की रक्षा के लिये इस विष्णुपञ्जर नामक स्तोत्र को कहा था।इसी स्तोत्र के प्रभाव से उस कात्यायनी ने स्वयं को अमर समझने वाले महिषासुर का नाश – ॥ १३॥
दानवं रक्तबीजं च अन्यांश्च सुरकण्टकान् ।
एतज्जपन्नरो भक्त्या शत्रून्विजयते सदा ॥ १४॥
रक्तबीज और देवताओं के लिये कण्टक बने हुए अन्यान्य दानवों का विनाश किया था। इस विष्णुपञ्जर नामक स्तुति का जो मनुष्य भक्तिपूर्वक जप करता है, वह सदा अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में सफल होता है॥ १३॥
॥इति श्रीगारुडे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डेविष्णुपञ्जरस्तोत्रं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥
इस प्रकार श्रीगरुड़पुराण आचारकाण्ड अध्याय १३ में वर्णित विष्णु पंजर स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ।
श्री विष्णु पंजर स्तोत्र संस्कृत लिरिक्स
॥हरिरुवाच॥
प्रवक्ष्याम्यधुना ह्येतद्वैष्णवं पञ्जरं शुभम्।
नमोनमस्ते गोविन्द चक्रं गृह्य सुदर्शनम् ॥१॥
प्राच्यां रक्षस्व मां विष्णो !त्वामहं शरणं गतः।
गदां कौमोदकीं गृह्ण पद्मनाभ नमोऽस्त ते॥२॥
याम्यां रक्षस्व मां विष्णो !त्वामहं शरणं गतः।
हलमादाय सौनन्दे नमस्ते पुरुषोत्तम॥ ३॥
प्रतीच्यां रक्ष मां विष्णो !त्वामह शरणं गतः।
मुसलं शातनं गृह्य पुण्डरीकाक्ष रक्ष माम्॥४॥
उत्तरस्यां जगन्नाथ !भवन्तं शरणं गतः।
खड्गमादाय चर्माथ अस्त्रशस्त्रादिकं हरे !॥५॥
नमस्ते रक्ष रक्षोघ्न !ऐशान्यां शरणं गतः।
पाञ्चजन्यं महाशङ्खमनुघोष्यं च पङ्कजम्॥६॥
प्रगृह्य रक्ष मां विष्णो आग्न्येय्यां रक्ष सूकर।
चन्द्रसूर्यं समागृह्य खड्गं चान्द्रमसं तथा॥७॥
नैरृत्यां मां च रक्षस्व दिव्यमूर्ते नृकेसरिन्।
वैजयन्तीं सम्प्रगृह्य श्रीवत्सं कण्ठभूषणम्॥८॥
वायव्यां रक्ष मां देव हयग्रीव नमोऽस्तु ते।
वैनतेयं समारुह्य त्वन्तरिक्षे जनार्दन !॥९॥
मां रक्षस्वाजित सदा नमस्तेऽस्त्वपराजित।
विशालाक्षं समारुह्य रक्ष मां त्वं रसातले॥१०॥
अकूपार नमस्तुभ्यं महामीन नमोऽस्तु ते।
करशीर्षाद्यङ्गुलीषु सत्य त्वं बाहुपञ्जरम्॥११॥
कृत्वा रक्षस्व मां विष्णो नमस्ते पुरुषोत्तम।
एतदुक्तं शङ्कराय वैष्णवं पञ्जरं महत्॥१२॥
पुरा रक्षार्थमीशान्याः कात्यायन्या वृषध्वज।
नाशायामास सा येन चामरान्महिषासुरम्॥१३॥
दानवं रक्तबीजं च अन्यांश्च सुरकण्टकान्।
एतज्जपन्नरो भक्त्या शत्रून्विजयते सदा॥१४॥
॥इति श्रीगारुडे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डेविष्णुपञ्जरस्तोत्रं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥
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