हंस उपनिषद् हिंदी अर्थ सहित | हंसोपनिषद | हंस उपनिषद् | Hansopanishad | Hansopanishad lyrics | Hans Upanishad hindi lyrics | Hans Upanishad with hindi meaning | Hansopanishad sanskrit lyrics
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गौतम उवाच-
भगवन्सर्वधर्मज्ञ सर्वशास्त्रविशारद।
ब्रह्मविद्याप्रबोधो हि केनोपायेन जायते ॥1
ऋषि गौतम ने (सनत्कुमार से) प्रश्न किया-
हे भगवन्! आप समस्त धर्मों के ज्ञाता और समस्त शास्त्रों के विशारद हैं। आप यह बताने की कृपा करें कि ब्रह्म विद्या किस उपाय द्वारा प्राप्त की जा सकती है ॥
सनत्कुमार उवाच-
विचार्य सर्वधर्मेषु मतं ज्ञात्वा पिनाकिनः।
पार्वत्या कथितं तत्त्वं शृणु गौतम तन्मम॥2
सनत्कुमार ने कहा-
हे गौतम! महादेव जी ने समस्त धर्मो (उपनिषदों) के मतों को विचार कर श्री पार्वती जी के प्रति जो भी कहा (व्याख्यान दिया) उसे तुम मुझसे सुनो ॥
अनाख्येयमिदं गुह्यं योगिने कोशसंनिभम्।
हंसस्याकृतिविस्तारं भुक्तिमुक्तिफलप्रदम् ॥3
यह गूढ़ रहस्य किसी अज्ञात ( अनाधिकारी ) से नहीं बताना चाहिए। योगियों के लिए तो यह (ज्ञान) एक कोश के समान है। हंस (परम आत्मा) की आकृति (स्थिति) का वर्णन भोग एवं मोक्षफल प्रदाता है।।
अथ हंसपरमहंसनिर्णयं व्याख्यास्यामः।
ब्रह्मचारिणे शान्ताय दान्ताय गुरुभक्ताय ।
हंसहंसेति सदा ध्यायन्॥4
जो गुरुभक्त सदैव हंस-हंस (सोऽहम्, सोऽहम्) का ध्यान करने वाला, ब्रह्मचारी, जितेन्द्रिय तथा शान्त मन:स्थिति (इन्द्रियों) वाला हो, उसके समक्ष हंस-परमहंस का रहस्य प्रकट करना चाहिए ॥
सर्वेषु देहेषु व्याप्तो वर्तते ।
यथा ह्यग्निः काष्ठेषु तिलेषु तैलमिव तं विदित्वा मृत्युमत्येति ॥5
जिस प्रकार तिल में तेल और काष्ठ में अग्नि संव्याप्त रहती है। उसी प्रकार समस्त शरीरों में व्याप्त होकर यह जीव ‘हंस-हंस’ इस प्रकार जप करता रहता है। इसे जानने के पश्चात् जीव मृत्यु से परे हो जाता है ॥
गुदमवष्टभ्याधाराद्वायुमुत्थाप्य स्वाधिष्ठानं त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य मणिपूरकं गत्वा अनाहतमतिक्रम्य विशुद्धौ प्राणान्निरुध्याज्ञामनुध्यायन्ब्रह्मरन्धं ध्यायन् त्रिमात्रोऽहमित्येव सर्वदा पश्यत्यनाकारश्च भवति ॥6
(हंस ज्ञान का उपाय-) सर्वप्रथम गुदा को खींचकर आधार चक्र से वायु को ऊपर उठा करके स्वाधिष्ठान चक्र की तीन प्रदक्षिणाएँ करे, तदुपरांत मणिपूरक चक्र में प्रवेश करके अनाहत चक्र का अतिक्रमण करे। इसके पश्चात् विशुद्ध चक्र में प्राणों को निरुद्ध करके आज्ञाचक्र का ध्यान करे, फिर ब्रह्मरंध्र का ध्यान करना चाहिए। इस प्रकार ध्यान करते हुए कि मैं त्रिमात्र आत्मा हूँ। योगी सर्वदा अनाकार ब्रह्म को देखता हुआ अनाकारवत् हो जाता है अर्थात् तुरीयावस्था को प्राप्त हो जाता है ॥
एषोऽसौ परमहंसो भानुकोटिप्रतीकाशो येनेदं सर्वं व्याप्तम् ॥7
वह परमहंस अनन्तकोटि सूर्य सदृश प्रकाश वाला है, जिसके प्रकाश से सम्पूर्ण जगत् संव्याप्त है ॥
तस्याष्टधा वृत्तिर्भवति।
पूर्वदले पुण्ये मतिः।
आग्नेये निद्रालस्यादयो भवन्ति ।
याम्ये क्रौर्ये मतिः।
नैर्ऋते पापे मनीषा।
वारुण्यां क्रीडा।
वायव्यां गमनादौ बुद्धिः ।
सौम्ये रतिप्रीतिः।
ईशान्ये द्रव्यादानम्।
मध्ये वैराग्यम्।
केसरे जाग्रदवस्था।
कर्णिकायां स्वप्नम्।
लिङ्गे सुषुप्तिः।
पद्मत्यागे तुरीयम्।
यदा हंसे नादो विलीनो भवति तत् तुरीयातीतम्॥8
उस (जीव भाव सम्पन्न) हंस की आठ प्रकार की वृत्तियाँ हैं। हृदय स्थित जो अष्टदल कमल है, उसके विभिन्न दिशाओं में विभिन्न प्रकार की वृत्तियाँ विराजती हैं। इसके पूर्व दल में पुण्यमति, आग्नेय दल में निद्रा और आलस्य आदि, दक्षिणदल में क्रूरमति, नैर्ऋत्य दल में पाप बुद्धि, पश्चिमदल में क्रीड़ा वृत्ति, वायव्य दल में गमन करने की बुद्धि, उत्तर दल में आत्मा के प्रति प्रीति, ईशान दल में द्रव्यदान की वृत्ति, मध्य दल में वैराग्य की वृत्ति, (उस अष्टदल कमल के) केसर (तन्तु) में जाग्रदवस्था, कर्णिका में स्वप्नावस्था, लिङ्ग में सुषुप्तावस्था होती है। जब वह हंस (जीव) उस पद्म का परित्याग कर देता है, तब तुरीयावस्था को प्राप्त होता है। जब नाद उस हंस में विलीन हो जाता है, तब तुरीयातीत स्थिति को प्राप्त होता है॥
अथो नाद आधाराद्ब्रह्मरन्ध्रपर्यन्तं शुद्धस्फटिकसंकाशः ।
स वै ब्रह्म परमात्मेत्युच्यते ॥9
इस प्रकार मूलाधार से लेकर ब्रह्मरंध्र तक जो नाद विद्यमान रहता है, वह शुद्ध स्फटिकमणि सदृश ब्रह्म है, उसी को परमात्मा कहते हैं ॥
अथ हंस ऋषिः ।
अव्यक्तगायत्री छन्दः ।
परमहंसो देवता।
हमिति बीजम् ।
स इति शक्तिः।
सोऽमिति कीलकम्॥10
इस प्रकार इस (अजपा मंत्र) का ऋषि हंस (प्रत्यगात्मा) हैं, अव्यक्त गायत्री छन्द है और देवता परमहंस (परमात्मा) है। ‘हं’ बीज और ‘सः’ शक्ति है। सोऽहम् कीलक हैं॥
षट्संख्यया अहोरात्रयोरेकविंशतिसहस्त्राणि षट्शतान्यधिकानि भवन्ति।
सूर्याय सोमाय निरञ्जनाय निराभासायातनुसूक्ष्म प्रचोदयादिति ॥11
अग्नीषोमाभ्यां वौषद् हृदयाह्यङ्गन्यासकरन्यासौ भवतः ॥12
एवं कृत्वा हृदयेऽष्टदले हंसात्मानं ध्यायेत् ॥13
इस प्रकार इन षट् संख्यकों द्वारा एक अहोरात्र (अर्थात् २४ घंटों) में इक्कीस हजार छ: सौ श्वास लिए जाते हैं। (अथवा गणेश आदि ६ देवताओं द्वारा दिन-रात्रि में २१,६०० बार सोऽहम् मंत्र का जप किया जाता है।) ‘सूर्याय सोमाय निरञ्जनाय निराभासाय अतनु सूक्ष्म प्रचोदयात् इति अग्नीषोमाभ्यां वौषट्’ इस मंत्र को जपते हुए हृदयादि अंगन्यास तथा करन्यास करे। तत्पश्चात् हृदय स्थित अष्टदल कमल में हंस (प्रत्यगात्मा) का ध्यान करे ॥
अग्नीषोमौ पक्षावोंकारः शिर उकारो बिन्दु स्त्रिणेत्रं मुखं रुद्रो रुद्राणी चरणौ।
द्विविधं कण्ठतः कुर्यादित्युन्मनाः अजपोपसंहार इत्यभिधीयते ॥14
अग्नि और सोम उस (हंस) के पक्ष (पंख) हैं, ओंकार सिर, बिन्दु सहित उकार (हंस का) तृतीय नेत्र है, मुख रुद्र है, दोनों चरण रुद्राणी हैं। इस प्रकार सगुण-निर्गुण भेद से-दो प्रकार से कण्ठ से नाद करते हुए, हंस रूप परमात्मा का ध्यान करना चाहिए। अतः नाद द्वारा ध्यान करने पर साधक को उन्मनी अवस्था प्राप्त हो जाती है। इस स्थिति को ‘अजपोपसंहार’ कहते हैं॥
एवं हंसवशात्तस्मान्मनो विचार्यते ॥15
समस्त भाव हंस के अधीन हो जाते हैं, अतः साधक मन में स्थित रहते हुए हंस का चिन्तन करता है।।
अस्यैव जपकोट्यां नादमनुभवति
एवं सर्वं हंसवशान्नादो दशविधो जायते ।
चिणीति प्रथमः ।
चिञ्चिणीति द्वितीयः।
घण्टानादस्तृतीयः ।
शङ्खनादश्चतुर्थम्।
पञ्चमस्तन्वीनादः ।
षष्ठस्तालनादः ।
सप्तमो वेणुनादः।
अष्टमो मृदङ्गनादः।
नवमो भेरीनादः।
दशमो मेघनादः ॥16
नवमं परित्यज्य दशममेवाभ्यसेत् ॥17
इसके (सोऽहम् मंत्र के) दस कोटि जप कर लेने पर साधक को नाद का अनुभव होता है। वह नाद दस प्रकार का होता है। प्रथम-चिणी, द्वितीय-चिञ्चिणी, तृतीय-घण्टनाद, चतुर्थ-शंखनाद, पंचम-तंत्री, षष्ठ-तालनाद, सप्तम-वेणुनाद, अष्टम-मृदङ्गनाद, नवम-भेरीनाद और दशम-मेघनाद होता है। इनमें से नौ का परित्याग करके दसवें नाद का अभ्यास करना चाहिए ॥
प्रथमे चिञ्चिणीगात्रं द्वितीये गात्रभञ्जनम्।
तृतीये खेदनं याति चतुर्थे कम्पते शिरः ॥18
पञ्चमे स्त्रवते तालु षष्ठेऽमृतनिषेवणम्।
सप्तमे गूढविज्ञानं परा वाचा तथाऽष्टमे ॥19
अदृश्यं नवमे देहं दिव्यं चक्षुस्तथाऽमलम्।
दशमं परमं ब्रह्म भवेद्ब्रह्मात्मसंनिधौ ॥20
इन नादों के प्रभाव से शरीर में विभिन्न प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं। प्रथम नाद के प्रभाव से शरीर में चिन-चिनी हो जाती है अर्थात् शरीर चिन-चिनाता है। द्वितीय से गात्र भंजन (अंगों में अकड़न) होती है, तृतीय से शरीर में पसीना आता है, चतुर्थ से सिर में कम्पन (कँप-कँपी) होती है, पाँचवें से तालु से सन्नाव उत्पन्न होता है, छठे से अमृत वर्षा होती है, सातवें से गूढ़ ज्ञान-विज्ञान का लाभ प्राप्त होता है, आठवें से परावाणी प्राप्त होती है, नौवें से शरीर को अदृश्य करने (अन्तर्धान करने) तथा निर्मल दिव्य दृष्टि की विद्या प्राप्त होती है और दसवें से परब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करके साधक ब्रह्म साक्षात्कार कर लेता है॥
तस्मिन्मनो विलीयते मनसि संकल्पविकल्पे दग्धं पुण्यपापे सदाशिवः शक्त्यात्मा सर्वत्रावस्थितः स्वयंज्योतिः शुद्धो बुद्धो नित्यो निरञ्जनः शान्तः प्रकाशत इति वेदानुवचनं भवतीत्युपनिषत् ॥21
जब मन उस हंस रूप परमात्मा में विलीन हो जाता है, उस स्थिति में संकल्प-विकल्प मन में विलीन हो जाते हैं तथा पुण्य और पाप भी दग्ध हो जाते हैं, तब वह हंस सदा शिवरूप, शक्ति (चैतन्य स्वरूप) आत्मा सर्वत्र विराजमान, स्वयं प्रकाशित, शुद्ध-बुद्ध, नित्य-निरञ्जन, शान्तरूप होकर प्रकाशमान होता है, ऐसा वेद का वचन है। इस रहस्य के साथ इस उपनिषद् का समापन होता है॥
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