रैदास के पद अर्थ सहित | संत रविदास | संत रैदास | संत रैदास के पद | संत रविदास के पद
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रैदास के पद अर्थ सहित
रैदास नाम से विख्यात संत रविदास का जन्म सन् 1388 और निर्वाण सन् 1518 में बनारस में हुआ, ऐसा माना जाता है। रविदास या रैदास 15वीं से 16वीं शताब्दी के दौरान भक्ति आंदोलन के एक भारतीय रहस्यवादी कवि-संत थे। वे गुरु के रूप में सम्मानित एक कवि, समाज सुधारक और आध्यात्मिक व्यक्ति थे। रविदास के भक्ति छंदों को गुरु ग्रंथ साहिब के नाम से जाने जाने वाले सिख धर्मग्रंथों में शामिल किया गया था।मध्ययुगीन साधकों में रैदास का विशिष्ट स्थान है। कबीर की तरह रैदास भी संत कोटि के कवियों में गिने जाते हैं। मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा जैसे दिखावों में रैदास का ज़रा भी विश्वास न था। रैदास का प्रभु बाहर कहीं किसी मंदिर या मस्ज़िद में नहीं विराजता वरन् उसके अपने अंतस में सदा विद्यमान रहता है। यही नहीं, वह हर हाल में, हर काल में उससे श्रेष्ठ और सर्वगुण संपन्न है। रैदास के पदों में भगवान की अपार उदारता, कृपा और उनके समदर्शी स्वभाव का वर्णन है। रैदास कहते हैं कि भगवान ने तथाकथित निम्न कुल के भक्तों को भी सहज-भाव से अपनाया है और उन्हें लोक में सम्माननीय स्थान दिया है। रैदास व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं और आपसी भाईचारे को ही सच्चा धर्म मानते थे। रैदास ने अपनी काव्य-रचनाओं में सरल, व्यवहारिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है, जिसमें अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और उर्दू-फारसी के शब्दों का भी मिश्रण है। रैदास को उपमा और रूपक अलंकार विशेष प्रिय रहे हैं। सीधे-सादे पदों में संत कवि ने हृदय के भाव बड़ी सफ़ाई से प्रकट किए हैं। इनका आत्मनिवेदन, दैन्य भाव और सहज भक्ति पाठक के हृदय को उद्वेलित करते हैं। रैदास के चालीस पद सिखों के पवित्र धर्मग्रंथ ‘गुरुग्रंथ साहब’ में भी सम्मिलित हैं।
अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग-अंग बास समानी।।
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।।
प्रभु जी, तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।
प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा।।
प्रभु! मेरे मन में जो आपके नाम की रट लग गई है, वह कैसे छूट सकती है? अब मैं आपका परम भक्त हो गया हूँ। जिस तरह चंदन के संपर्क में रहने से पानी में उसकी सुगंध फैल जाती है, उसी प्रकार मेरे तन मन में आपके प्रेम की सुगंध व्याप्त हो गई है। अगर आप आकाश में छाए काले बादल के समान हो, तो मैं जंगल में नाचने वाला मोर हूँ। जैसे बरसात में उमड़ते बादलों को देखकर मोर खुशी से नाचता है, उसी प्रकार मैं आपके दर्शन को पा कर खुशी से मुग्ध हो रहा हूँ। और जैसे चकोर पक्षी सदा चंद्रमा की ओर ताकता रहता है उसी भाँति मैं भी सदा आपके प्रेम को पाने के लिए तरसता रहता हूँ। हे प्रभु! अगर आप दीपक हो तो मैं उस दिए की बाती, जो सदा आपके प्रेम में जलता है। और प्रभु आप मोती हो तो मैं उसमें पिरोया हुआ धागा हूँ। आपका और मेरा मिलन सोने और सुहागे के मिलन के समान पवित्र है। जैसे सुहागे के संपर्क से सोना शुद्ध हो जाता है, उसी तरह मैं आपके संपर्क से शुद्ध हो जाता हूँ। हे प्रभु! आप स्वामी हो और मैं आपका दास हूँ।
[जब साधक यह प्रार्थना करते हैं हमारा मन भगवान के भजन में लगे, तब रैदास जी के ये पद बताते हैं कि रैदास जी का भजन निरंतर चलता है, और यह उनसे छूट नहीं सकता। उनके हृदय से राम नाम की रट निकलती रहती है। रैदास जी कहते हैं, हे प्रभु, तुम चंदन हो और मैं पानी हूँ। जिस तरह पानी में चंदन के घिसे जाने पर पानी सुवासित हो जाता है, उसी तरह मैं भी आपका सान्निध्य पाकर चेतन हो गया हूं। यदि आप बादल या उपवन हैं तो मैं मोर हूँ, यदि आप चंद्रमा हैं तो मैं आपको लगातार निहारने वाला वाला चकोर पक्षी हूँ। यदि आप दीपक हैं तो मैं उसमें दिन-रात जलने वाली बाती हूँ। यदि आप मोती हैं तो मैं उसमें पिरोया गया धागे के समान हूँ। हम दोनों का संबंध सोने में सुहागा है। हे भगवन ! आप मेरे स्वामी हैं और मैं आपका दास हूँ। मैं आपकी ऐसी भक्ति चाहता हूँ।]
अबिगत नाथ निरंजन देवा।
मैं का जांनूं तुम्हारी सेवा।। टेक।।
बांधू न बंधन छांऊँ न छाया, तुमहीं सेऊँ निरंजन राया।।१।।
चरन पताल सीस असमांना, सो ठाकुर कैसैं संपटि समांना।।२।।
सिव सनिकादिक अंत न पाया, खोजत ब्रह्मा जनम गवाया।।३।।
तोडूँ न पाती पूजौं न देवा, सहज समाधि करौं हरि सेवा।।४।।
नख प्रसेद जाकै सुरसुरी धारा, रोमावली अठारह भारा।।५।।
चारि बेद जाकै सुमृत सासा, भगति हेत गावै रैदासा।।६।।
रैदास का मानना है कि ईश्वर सर्वदा और सब में व्याप्त होते हुए भी बुद्धि से परे हैं । ‘ जिसके विषय में कुछ सोचा और कहा नहीं जा सकता है ‘ उसको भला किस प्रकार कि भक्ति से प्राप्त किया जा सकता है ? उसे प्राप्त करने के सेवा भाव को मैं भला , सहज , साधारण भक्त कैसे जान सकता हूँ ? ऐसे भगवान् को संसार के किसी भी प्रकार के संबंधों में बांधकर प्राप्त नहीं किया जा सकता है क्योंकि वह निस्सीम है । उसे सिमा में रखने की , सीमित बनाने की बात हास्यास्पद ही है । ब्रह्माण्ड के कण – कण में व्याप्त अलख निरंजन को तो सेवा भाव की सहजता से ही प्राप्त किया जा सकता है । जो आकाश से पातळ तक फैला हुआ है , जिसकी व्यापकता अनंत है , ऐसे ईश्वर को दृष्टि में , भृकुटि के मध्य में कैसे स्थापित किया जा सकता है ? जिसके गुणों का गान करने में भगवान शंकर और सनक आदि ऋषि – मुनि भी हार गए , अंत नहीं पा सके । स्वयं ब्रह्म देवता को भी कई जनम लेना पड़ा । ऐसे ब्रह्म को भक्त रैदास दिखावे की भक्ति अर्थात बेलपत्र चढ़ाकर , पत्थर पूज कर , वाह्य आडम्बर कर के नहीं बल्कि नाम जप की सहज सेवा करके प्राप्त करना चाहते हैं । जिसके नाखून के पसीने से गंगा की धरा निकली हो , जिसके रोएं – रोएं में अठारह पुराण समाये हों , चारों वेद जिसके मुँह से सांस के रूप में निकले हों , उसके गुणों का गान करके ही भक्त रैदास अपनी भक्ति को पूर्ण मानते हैं ।
ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै।
गरीब निवाजु गुसाईआ मेटा माथै छत्रु धरै।।
जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै।
नीचउ ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै।।
नामदेव कबीरू तिलोचनु सधना सैनु तरै।
कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरिजीउ ते सभै सरै॥
हे प्रभु! आपके बिना कौन कृपा करने वाला है अर्थात कोई नहीं। आप गरीब तथा दिन-दुखियों पर दया करने वाले हैं। आप ही ऐसे कृपालु स्वामी हैं जो मुझ जैसे अछूत और नीच के माथे पर राजाओं जैसा छत्र रख दिया। आपने मुझे राजाओं जैसा सम्मान प्रदान किया है। मैं तो अभागा हूँ। मुझ पर आपकी असीम कृपा हुई है। हे स्वामी आपने मुझ जैसे नीच प्राणी को इतना उच्च सम्मान प्रदान किया है। आपकी दया से कबीर जैसे जुलाहे, त्रिलोचन जैसे सामान्य, सधना जैसे कसाई और सैन जैसे नाई संसार से तर गए। उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया। हे संतों, सुनो! हरि जी सब कुछ काटने में समर्थ हैं। उनके लिए कुछ भी असाध्य नहीं है।
नरहरि चंचल मति मोरी।
कैसैं भगति करौ रांम तोरी।। टेक।।
तू कोहि देखै हूँ तोहि देखैं, प्रीती परस्पर होई।
तू मोहि देखै हौं तोहि न देखौं, इहि मति सब बुधि खोई।।१।।
सब घट अंतरि रमसि निरंतरि, मैं देखत ही नहीं जांनां।
गुन सब तोर मोर सब औगुन, क्रित उपगार न मांनां।।२।।
मैं तैं तोरि मोरी असमझ सों, कैसे करि निसतारा।
कहै रैदास कृश्न करुणांमैं, जै जै जगत अधारा।।३।।
रैदास कहते हैं की मन बड़ा चंचल होता है । इसको स्थिर कर पाना उसी प्रकार असंभव है जिस प्रकार वायु को मुट्ठी में बंद करके रखना । इसलिए हे भगवान राम ! आप की भक्ति किस प्रकार से करूँ ? अर्थात मन को बस में किये बिना ईश्वर की भक्ति असंभव है । प्रेम का सामान्य नियम है कि ” तू जिसे देखता है , वह भी तुम्हे देखता है “. इसीलिए कहा जाता है कि पूर्ण समर्पण का नाम ही प्रेम है । प्रेम एकांगी नहीं होता , यदि होता भी है तो सफल नहीं होता । रैदास कहते हैं कि हे ईश्वर ! तुम मेरा सभी प्रकार से कल्याण करने वाले हो किन्तु यदि मैं तुम्हारे प्रति सेवा भाव न रखूं तो यह विचारधारा सभी प्रकार से मूर्खतापूर्ण है । इसमें सभी प्रकार से अज्ञानता दिखाई पड़ती है । ईश्वर संसार के सभी प्राणियों में विद्यमान है किन्तु जो अज्ञानी हैं वे देखते हुए भी इस सत्य को समझ नहीं पाते । ईश्वर संसार के सभी प्राणी मात्र का कल्याण और उपकार किया है किन्तु सभी इतने स्वार्थी और मूर्ख हैं कि उसे भूल गए हैं अर्थात ईश्वर सभी प्रकार के गुणों से पूर्ण होता है , किन्तु जीव माया के बंधन में फंसे रहकर सभी प्रकार के दुर्गुणों में लिप्त है । रैदास का मानना है कि मेरे और तुम्हारे के बीच के अंतर को समाप्त किये बिना इस संसार के बंधनों से मुक्ति नहीं मिल सकती । एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण की कृपा ही वह आधार है जिसे प्राप्त किये बिना संसार के जीवों को मुक्ति कदापि नहीं मिल सकती । अर्थात जब तक यह संसार कृष्णमय नहीं हो जायेगा तब तक एक दूसरे के बीच मोह , माया का जो बंधन है वह टूट नहीं सकेगा और सभी जीव ब्रह्ममय होकर एक – दूसरे में उस ब्रह्म की छाया नहीं देख सकेंगे ।
पीआ राम रसु पीआ रे॥
पीआ राम रसु पीआ रे॥
भरि भरि देवै सुरति कलाली, दरिआ दरिआ पीना रे।
पीवतु पीवतु आपा जग भूला, हरि रस मांहि बौराना रे॥
दर परि बिसरि गयौ रैदास, जनमनि सद मतवारी रे।
पलु पलु प्रेम पियाला चालै, छूटे नांहि खुमारी रे॥
मैं राम नाम रूपी रस पी रहा हूँ। सुरति-कलाली मुझे राम रस से भर-भर कर प्याला दे रही है। और मैं इस रस का इतना पान किया है मानो दरिया का दरिया पीता गया हूँ। इस हरि नाम रस को पीते-पीते मैं अपने अहंकार और जग को भूलकर खो गया हूँ। रैदास कहते हैं कि इस रस को पीने से मैं इस जगत के बंधन को भूलकर जन्मों-जन्मों के लिए उस सच्ची ख़ुमारी में मस्त हो गया हूँ। लगातार प्रेम-रस का प्याला पीया जा रहा है, और इसकी ख़ुमारी ऐसी है कि उतरती नहीं है।
राम बिन संसै गाँठि न छूटै।
कांम क्रोध मोह मद माया, इन पंचन मिलि लूटै।। टेक।।
हम बड़ कवि कुलीन हम पंडित, हम जोगी संन्यासी।
ग्यांनी गुनीं सूर हम दाता, यहु मति कदे न नासी।।१।।
पढ़ें गुनें कछू संमझि न परई, जौ लौ अनभै भाव न दरसै।
लोहा हरन होइ धँू कैसें, जो पारस नहीं परसै।।२।।
कहै रैदास और असमझसि, भूलि परै भ्रम भोरे।
एक अधार नांम नरहरि कौ, जीवनि प्रांन धन मोरै।।३।।
रैदास कहते हैं कि भगवान राम की कृपा के बिना मन में व्याप्त संदेह का बंधन नहीं टूट सकता । मनुष्य के मन में व्याप्त कामना , क्रोध , लोभ , अहंकार , प्रेमासक्ति या सभी पाँचों मिलकर उसकी भक्ति भावना को नष्ट कर डालते हैं । जिसके कारण मनुष्य के मन में पैदा होने वाले इन भावों का कभी नाश नहीं हो पाता । जिसके विषय में वे हमेशा सोचा करते हैं कि हम सबसे बड़े कवि हैं , सबसे उच्च कुल में पैदा हुए हैं , सबसे बड़े ज्ञानी हैं , हम योगी और सन्यासी हैं , ज्ञानी , गुणवान , शूरवीर तथा दानी भी हम ही हैं । मन में जब तक सहजता की भावना , ईश्वर के प्रति भक्ति की भावना नहीं जगती , तब तक वेदों , पुराणों का ज्ञान भी व्यर्थ हो जाता है – उचित – अनुचित की समझ नहीं हो पाती क्योंकि बिना पारस के स्पर्श कभी भी लोहा सोना नहीं हो सकता । रैदास जी कहते हैं कि व्यक्ति के मन कि मूर्खता के कारण मन में व्याप्त संदेह सब कुछ भुला देता है । ईश्वर की भक्ति का एकमात्र आधार राम का नाम है जो भक्त रैदास के जीवन का प्राण रुपी धन है अर्थात जिसकी आत्मा में ईश्वर समाया हुआ है , उसे उसकी भक्ति – भावना पर विश्वास है उसके मन में किसी प्रकार का संशय न होने के कारण सहजता से इस संसार से मुक्ति मिल जाती है । उसके लिए तो राम का नाम ही सबसे बड़ा धन है , सबसे बड़ी सफलता है ।
रे चित चेति चेति अचेत काहे
रे चित चेति चेति अचेत काहे, बालमीकौं देख रे।
जाति थैं कोई पदि न पहुच्या, राम भगति बिसेष रे।। टेक।।
षट क्रम सहित जु विप्र होते, हरि भगति चित द्रिढ नांहि रे।
हरि कथा सूँ हेत नांहीं, सुपच तुलै तांहि रे।।१।।
स्वान सत्रु अजाति सब थैं, अंतरि लावै हेत रे।
लोग वाकी कहा जानैं, तीनि लोक पवित रे।।२।।
अजामिल गज गनिका तारी, काटी कुंजर की पासि रे।
ऐसे द्रुमती मुकती कीये, क्यूँ न तिरै रैदास रे।।३।।
(राग सोरठी)
रैदास जी संसार के मनुष्यों को वाल्मीकि के माध्यम से समजह्ते हुए कहते हैं कि मन में फैली हुयी वर्ण भेद की बुराइयों को मिटाकर , सभी जीवों को ईश्वर का अंश समझना चाहिए । ऊंची जाति का होने से ही कोई परम पद अर्थात ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता , उसके लिए राम की भक्ति की आवश्यकता पड़ती ही है । षट्चक्र भेदन की साधना करने वाले ब्राह्मण होकर भी यदि मन में भगवान् की भक्ति की भावना नहीं है तथा जिसे भगवन के गुणों का ज्ञान नहीं है उसे अधम जाति का समझना चाहिए । ऐसे लोग सभी प्राणियों से शत्रुता का भाव रखते हैं उनके मन में भेद – भाव भरा होता है । अज्ञानी लोग तो वैसे भी नहीं जानते कि तीनों लोकों का निर्माण स्वयं ईश्वर ने ही किया है तथा पशु और नीच समझे जाने वाले अजामिल , गज और गणिका का उद्धार भी उसी ईश्वर ने ही किया है , गजराज को ग्रह से मुक्ति दिलाई और ग्रह को परमपद प्रदान किया । रैदास जी का कहना है कि ऐसे अधमों को यदि ईश्वर कि कृपा प्राप्त हुयी है और उन्हें संसार के कष्टों से मुक्ति मिल गयी है तो उन्हें भगवन कि कृपा क्यों नहीं प्राप्त होगी ? जब संसार के सभी पापियों का उद्धार ईश्वर ने किया है तो रैदास को भी मुक्ति अवश्य मिलेगी ।
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