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Contents
विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
01-07 भगवान की विभूति और योगशक्ति का कथन तथा उनके जानने का फल
08-11 फल और प्रभाव सहित भक्तियोग का वर्णन
12-18 अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति तथा विभूति और योगशक्ति को कहनेके लिए प्रार्थना
19-42 भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन
01-07 भगवान की विभूति और योगशक्ति का कथन तथा उनके जानने का फल
श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ৷৷10.1৷৷
श्रीभगवान् उवाच-आनन्दमयी भगवान् ने कहा; भूयः-पुनः एव-नि:संदेह; महाबाहो-बलिष्ठ भुजाओं वाला, अर्जुन; शृणु–सुनो; मे–मेरा; परमम् – दिव्य; वचः-उपदेश; यत्-जो; ते-तुमको; अहम्-मैं; प्रीयमाणाय–प्रिय विश्वस्थ मित्र; वक्ष्यामि-कहता हूँ; हितकाम्यया-तुम्हारे कल्याण के लिए।
आनन्दमयी श्री भगवान बोले – हे महाबाहु अर्जुन! अब आगे मेरे सभी दिव्य , परम रहस्यमयी और प्रभावयुक्त उपदेशों को पुनः सुनो। चूंकि तुम मेरे प्रिय सखा हो और मुझमे अत्यंत प्रेम रखते हो इसलिए मैं तुम्हारे कल्याणार्थ इन्हें तुम्हारे समक्ष प्रकट करूँगा॥10.1॥
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥10.2॥
न–कभी नहीं; मे–मेरे; विदुः–जानना; सुरगणाः–देवतागणः प्रभवम् – उत्पत्ति; न–कभी नहीं; महाऋषयः–महान ऋषि; अहम्–मैं; आदि:-मूल स्रोत; हि–नि:संदेह; देवानाम्–स्वर्ग के देवताओं का; महाऋषीणाम्–महान ऋर्षियों का; च–भी; सर्वशः–सभी प्रकार से।
मेरी उत्पत्ति को अर्थात् लीला से प्रकट होने को न देवता गण जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदिकारण हूँ॥10.2॥
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥10.3॥
यः–जो; माम्–मुझे; अजम्–अजन्मा; अनादिम्–जिसका कोई आदि न हो, जो आदि रहित हो एवं सबका कारण हो; च–भी; वेत्ति–जानता है; लोक–ब्रह्माण्ड; महाईश्वरम्–परम स्वामी; असम्मूढः–मोहरहित; सः–वह; मर्त्येषु–मनुष्यों में; सर्वपापैः–समस्त पापकर्मो से; प्रमुच्यते–मुक्त हो जाता है।
वह जो मुझको अजन्मा अर्थात् वास्तव में जन्मरहित, अनादि और समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी और सम्पूर्ण लोकों का महान् ईश्वर तत्त्व के रूप में जानता है अर्थात दृढ़ता से मानता है , वह मनुष्यों में ज्ञानवान् जानकार है और ऐसा ज्ञानी मनुष्य संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है॥10.3॥
(अनादि उसको कहते हैं जो आदि रहित हो एवं सबका कारण हो)
बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥10.4॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥10.5॥
बुद्धिः–बुद्धि; ज्ञानम्–ज्ञान; असम्मोहः–विचारों की स्पष्टता; क्षमा–क्षमाः सत्यम्–सत्यता; दमः–इन्द्रियों पर संयम; शमः–मन का निग्रह; सुखम्–आनन्द; दु:खम्–दुख; भवः–जन्म; अभावः–मृत्यु; भयम्–भय; च–और; अभयम्–निर्भीकता; एव–भी; च–और; अहिंसा–अहिंसा; समता–समभाव; तुष्टि:-सन्तोष; तपः–तपस्या; दानम्–दान; यश:-कीर्ति; अयश:-अपकीर्ति; भवन्ति–होना; भावाः–गुण; भूतानाम्–जीवों की; मत्तः–मुझसे; एव–निश्चय ही; पृथक् विधा:-भिन्न–भिन्न गुण।
बुद्धि या निश्चय करने की शक्ति, यथार्थ ज्ञान, विचारों की स्पष्टता , क्षमा, सत्य, इंद्रियों को वश में करना , मन पर नियंत्रण , सुख, दुःख, जन्म , मृत्यु , भय, अभय , अहिंसा, समता, संतोष , तप , दान, यश, अपयश – ऐसे ये प्राणियों के नाना प्रकार के ( बीस ) भाव मुझसे ही उत्पन्न होते हैं॥10.4-10.5॥
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥10.6॥
महाऋषयः–महर्षिः सप्त–सात; पूर्वे–पहले; चत्वारः–चार; मनवः–मनुः तथा—भी; मत् भावाः–मुझसे उत्पन्न; मानसाः–मन से; जाता:-उत्पन्न; येषाम्–जिनकी; लोके–संसार में; इमा:-ये सब; प्रजाः–लोग।
सप्त महर्षिगण और उनसे भी पूर्व में होने वाले चार सनकादि तथा स्वयं भू आदि चौदह मनु– ये सब–के–सब मेरे मेरे मन से अर्थात मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं और मेरे समान प्रभाव वाले अर्थात ईश्वरीय सामर्थ्य से युक्त मुझमें भाव और श्रद्धा भक्ति रखने वाले हैं , जिस मनु और महर्षियों की रची हुई ये चर और अचर रूप सब प्रजाएँ लोक में प्रसिद्ध हैं अर्थात संसार में निवास करने वाले सभी जीव उनसे उत्पन्न हुए हैं॥10.6॥
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥10.7॥
एताम्–इन; विभूतिम्–वैभवों; योगम्–दिव्य शक्ति; च–भी; मम–मेरा; यः–जो कोई; वेत्ति–जानता है; तत्त्वतः–वास्तव में; सः–वे; अविकम्पेन –निश्चित रूप से; योगेन–भक्ति से; युज्यते–एक हो जाता है; न–कभी नहीं; अत्र–यहाँ; संशयः–शंका।
जो मनुष्य मेरी इस परमैश्वर्य रूप विभूति को और योगशक्ति को तत्त्व से जानता है अर्थात वास्तविक रूप से जान लेता है और दृढ़ता पूर्वक मानता है , वह निश्चल और अविचल भक्तियोग से युक्त हो जाता है और मुझमें एकीकृत हो जाता है – इसमें कुछ भी संशय नहीं है॥10.7॥
(जो कुछ दृश्यमात्र संसार है वह सब भगवान की माया है और एक वासुदेव भगवान ही सर्वत्र परिपूर्ण है, यह जानना ही तत्व से जानना है)
08-11 फल और प्रभाव सहित भक्तियोग का वर्णन
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ৷৷10.8৷৷
अहम्–मैं; सर्वस्य–सभी का; प्रभवः–उत्पत्ति का कारण; मत्तः–मुझसे; सर्वम्–सब कुछ; प्रवर्तते–उत्पन्न होती हैं; इति–इस प्रकार; मत्वा–जानकर; भजन्ते–भक्ति करते हैं; माम्–मेरी; बुधाः–बुद्धिमान; भावसमन्विताः–श्रद्धा और भक्ति के साथ।
मैं वासुदेव ही संपूर्ण जगत् की उत्पत्ति का मूल कारण हूँ – इस समस्त सृष्टि का उद्गम हूँ और मुझसे ही सब जगत् चेष्टा करता है अर्थात मुझसे ही सारा संसार प्रवृत्त हो रहा है और विकास को प्राप्त हो रहा है । सभी वस्तुएं मुझसे ही उत्पन्न होती हैं । इस प्रकार समझकर और जान कर अर्थात मुझे मान कर मुझ एक ईश्वर में ही श्रद्धा – प्रेम रखते हुए श्रद्धा – भक्ति और दृढ़ विश्वास से युक्त बुद्धिमान् भक्तजन मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजते हैं और सब प्रकार से मेरी ही शरण होते हैं ॥10.8॥
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥10.9॥
मत् चित्ता:-मुझमें मन को स्थिर करने वाले; मत् गतप्राणा:-जो अपना जीवन मुझे समर्पित करते हैं; बोधयन्तः–भगवान के दिव्य ज्ञान से प्रकाशित; परस्परम्–एक दूसरे से; कथयन्तः–वार्तालाप करते हुए; च–और; माम्–मेरे विषय में; नित्यम्–सदैव; तुष्यन्ति–संतुष्ट होते हैं; च–और; रमन्ति–आनन्द भोगते हैं; च–भी।
निरंतर मुझमें मन लगाने वाले अर्थात मुझमें ही अपना चित्त स्थिर करने वाले और मुझमें ही अपने प्राणों को अर्पण करने वाले अर्थात मुझ वासुदेव के लिए ही अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पण और समर्पित करने वाले भक्तजन आपस में मेरे गुण और प्रभाव को जानते हुए मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा , मेरे गुणों और प्रभाव का कथन करते हुए ही अर्थात एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते हुए , मेरे विषय में वार्तालाप करते हुए और मेरी महिमा का गान करते हुए अत्यंत आनन्द और संतोष की अनुभूति करते हैं और निरंतर संतुष्ट रहते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण करते हैं तथा मुझ से ही प्रेम करते हैं ॥10.9॥
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥10.10॥
तेषाम्–उनको; सतत–युक्तानाम्–सदैव तल्लीन रहने वालों को; भजताम्–भक्ति करने वालों को; प्रीतिपूर्वकम्–प्रेम सहित; ददामि–मैं देता हूँ; बुद्धियोगम्–दिव्य ज्ञान; तम्–वह; येन–जिससे; माम्–मुझको; उपयान्ति–प्राप्त होते हैं; ते – वे।
उन निरंतर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करने वाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग अर्थात बुद्धि योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं अर्थात जिनका मन सदैव मेरी प्रेममयी भक्ति में एकीकृत हो जाता है, मैं उन्हें दिव्य ज्ञान प्रदान करता हूँ जिससे उनको मेरी प्राप्ति हो जाती है ॥10.10॥
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥10.11॥
तेषाम् उनके लिए; एव–केवल; अनुकम्पा–अर्थम् विशेष कृपा करने के लिए; अहम्–मैं; अज्ञान–जम्–अज्ञानता का कारण; तमः–अंधकार; नाशयामि–दूर करता हूँ; आत्म–भाव–उनके हृदयों में; स्थ:-निवास; ज्ञान–ज्ञान के; दीपेन–दीपक द्वारा; भास्वता–प्रकाशित।
हे अर्जुन! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए उनके अंतःकरण – उनके स्वरूप में स्थित हुआ और रहने वाला मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अंधकार को प्रकाशमय तत्त्वज्ञानरूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ अर्थात उन पर करुणा और कृपा करने के लिए ही मैं उनके हृदयों में वास करता हूँ और ज्ञान के प्रकाशमय दीपक द्वारा अंधकार जनित अज्ञान को नष्ट करता हूँ।॥10.11॥
12-18 अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति तथा विभूति और योगशक्ति को कहनेके लिए प्रार्थना
अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥10.12॥
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥10.13॥
अर्जुनःउवाच–अर्जुन ने कहा; परम्–परम; ब्रह्म–सत्य; परम्–परम; धाम–लोक; पवित्रम्–शुद्ध; परमम् – सर्वोच्च; भवान्–आप; पुरुषम्–पुरुष; शाश्वतम् – सनातन; दिव्यम्–दिव्य; आदि देवम्–आदि स्वामी; अजम्–अजन्मा; विभुम् – सर्वोच्च; आहुः–कहते हैं; त्वाम्–आपको; ऋषयः–ऋषिगण; सर्वे – सभी; देव–ऋषिः–देवताओं के ऋषि; नारदः–नारद; तथा – और; असितः–असित; देवलः–देवल; व्यासः–व्यास; स्वयम्–स्वयं; च – और; एव–निश्चय ही; ब्रवीषि–आप बता रहे हैं; मे–मुझको।
अर्जुन बोले– आप परम ब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष, देवों के भी आदिदेव, अजन्मा , अविनाशी भगवान् विभु ( सर्वव्यापी ) और महानतम हैं । ऐसा आपको समस्त ऋषिगण– देवर्षि नारद, असित , देवल ऋषि तथा महर्षि व्यास भी कहते हैं और आप भी मेरे प्रति कहते हैं अर्थात अब आप स्वयं भी मुझे यही सब बता रहे हैं ॥10.12-10.13॥
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥10.14॥
सर्वम्–सब कुछ; एतत्–इस; ऋतम्–सत्य; मन्ये–मैं स्वीकार करता हूँ; यत्–जिसका; माम्–मुझे वदसि–तुम कहते हो; केशव–केशी नामक असुर का दमन करने वाले, श्रीकृष्ण; न –कभी नहीं; हि–निश्चय ही; ते–आपके; भगवन्–परम भगवान; व्यक्तिम्–व्यक्तित्व; विदुः–जान सकते हैं; देवाः–देवतागण; न–न तो; दानवाः–असुर।
हे केशव! जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं अर्थात आप जो कुछ भी मुझ से कह रहे हैं , मैं यह सब पूर्णतया सत्य मानता हूँ। हे भगवन्! आपके लीलामय स्वरूप ( आपके प्रकट होने को ) अर्थात आपके वास्तविक स्वरूप को न तो दानव जानते हैं और न देवता ही॥10.14॥
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥10.15॥
स्वयम्–स्वयं; एव–वास्तव में; आत्मना–अपने आप; आत्मानम्–अपने को; वेत्थ–जानते हो; त्वम्–आप; पुरूष–उत्तम–परम व्यक्तित्व; भूत–भावन–सभी जीवों के उद्गम; भूत ईश–सभी जीवों के स्वामी; देव–देव–सभी देवताओं के स्वामी; जगत्–पते–ब्रह्माण्ड के स्वामी।
हे भूतभावन ( भूतों को उत्पन्न करने वाले/ सभी जीवों के उदगम् ) ! हे भूतेश ( भूतों के ईश्वर/ सभी जीवों के स्वामी ) ! हे देवदेव ( देवों के देव) ! हे जगत्पते ( जगत् के स्वामी / ब्रह्माण्ड नायक ) ! हे पुरुषोत्तम! वास्तव में आप स्वयं ही अपने आप से अपने आप को जानते हैं अर्थात आप अकेले ही अपनी अचिंतनीय शक्ति से स्वयं को जानने वाले हो।॥10.15॥
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥10.16॥
वक्तुम्- वर्णन करना; अर्हसि–कृपा करे; अशेषेण–पूर्णरूप से; दिव्याः–अलौकिक; हि–वास्तव में; आत्म–तुम्हारा अपना; विभूतयः–ऐश्वर्य; याभि:-जिनके द्वारा; विभूतिभिः–ऐश्वर्य से; लोकान्–समस्त लोकों को; इमान्–इन; त्वम्–आप; व्याप्य–व्याप्त होकर; तिष्ठसि – स्थित हैं।
इसलिए आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियों को संपूर्णता से कहने में समर्थ हैं, जिन विभूतियों द्वारा आप इन सब लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं अर्थात आप कृपया विस्तारपूर्वक मुझे अपने दिव्य ऐश्वर्यों से अवगत कराएँ जिनके द्वारा आप समस्त संसार में व्याप्त होकर उनमें रहते हों।॥10.16॥
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् ।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥10.17॥
कथम्–कैसे; विद्याम् अहम्–मैं जान सकूँ; योगिन्–योगमाया के स्वामी; त्वाम्–आपको; सदा–सदैव; परिचिन्तयन–चिन्तन करना; केषु–किस; च–भी; भावेषु–रूपों मे; चिन्त्य:असि–आपका चिन्तन कर; भगवन्–परम सत्ता; मया मेरे द्वारा।
हे योगेश्वर! मैं किस प्रकार निरंतर चिंतन करता हुआ आपको जानूँ और हे भगवन्! आप किन–किन भावों में मेरे द्वारा चिंतन करने योग्य हैं? अर्थात मैं आपको ज्यादा अच्छे से कैसे जान सकता हूँ और कैसे आपका मधुर चिन्तन कर सकता हूँ। हे परम पुरुषोत्तम भगवान! ध्यानावस्था के दौरान मैं किन–किन रूपों और किन–किन भावों में आपका स्मरण और चिंतन करूँ ?॥10.17॥
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥10.18॥
विस्तरेण- विस्तार से; आत्मन:-अपनी; योगम्–दिव्य महिमा; विभूतिम्–ऐश्वर्य; च–भी; जनार्दन–जीवों के पालन कर्ता, श्रीकृष्ण; भूयः–पुनः; कथय–वर्णन करें; तृप्तिः–संतोष; हि–क्योंकि; श्रृण्वतः–सुनते हुए; न अस्ति–नहीं है; मे–मेरी; अमृतम्–अमृत।
हे जनार्दन! अपनी योगशक्ति को और विभूति को फिर भी विस्तारपूर्वक कहिए क्योंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती और सुनने की उत्कंठा बनी ही रहती है अर्थात मुझे पुनः अपनी दिव्य महिमा, वैभवों और अभिव्यक्तियों के संबंध में विस्तृत रूप से बताएँ। मैं आपकी अमृत वाणी को सुनकर कभी तृप्त नहीं हो सकता।॥10.18॥
‘19-42 भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन
श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥10.19॥
श्रीभगवान् उवाच–आनन्दमयी भगवान ने कहा; हन्त–हाँ; ते–तुमसे; कथयिष्यामि–मैं वर्णन करूँगा; दिव्याः–दिव्य; हि–निश्चय ही; आत्म–विभूतयः–मेरे दिव्य ऐश्वर्यः प्राधान्यतः–प्रमुख रूप से; कुरुश्रेष्ठ–कुरुश्रेष्ठ; न–नहीं; अस्तिहै; अनतः–सीमा; विस्तरस्य–अनंत महिमा; मे–मेरी।
श्री भगवान बोले– हे कुरुश्रेष्ठ! अब मैं जो मेरी दिव्य विभूतियाँ हैं, उनको तेरे लिए प्रधानता से ( संक्षेप में ) कहूँगा अर्थात अब मैं तुम्हें अपनी दिव्य महिमा का प्रमुखता से वर्णन करूँगा ; क्योंकि मेरे विस्तार का और इस वर्णन का कहीं भी कोई अंत नहीं है॥10.19॥
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥10.20॥
अहम्–मैं; आत्मा आत्मा; गुडाकेश–निद्रा को वश में करने वाला, अर्जुन, सर्वभूत–समस्त जीव; आशयस्थित:-हृदय में स्थित; अहम्–मैं; आदि:-आदि ; च–भी ; मध्यम्–मध्य; च–भी; भूतानाम् – समस्त जीवों का; अन्तः–अंत; एव–निश्चय ही; च–भी।
हे गुडाकेश ( नींद को जीतने वाले अर्जुन ) ! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूँ तथा संपूर्ण भूतों ( जीवों ) का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूँ॥10.20॥
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् ।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥10.21॥
आदित्यानाम्–आदिति के बारह पुत्रों में; अहम्–मैं हूँ; विष्णु:-भगवान विष्णु; ज्योतिषाम् – समस्त प्रकाशित होने वाले पदार्थों में; रविः–सूर्य; अंशुमान्–किरणों वाला; मरीचिः–मरीचि, मरूताम्–मरूतों में; अस्मि–हूँ; नक्षत्राणाम्–तारों में; अहम्–मैं हूँ; शशि–चन्द्रमा।
मैं अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु ( वामन ) और प्रकाशमान वस्तुओं या ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य हूँ तथा मैं उनचास मरुतों (वायुदेवताओं) का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चंद्रमा हूँ॥10.21॥
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।
इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥10.22॥
वेदानाम् – वेदों में; साम–वेदः–सामवेद; अस्मि–हूँ; देवानाम्–देवताओं में; अस्मि–हूँ; वासवः–स्वर्ग के देवताओं का राजा इन्द्र; इन्द्रियाणाम् इन्द्रियों में; मनः–मन; च–और; अस्मि–हूँ; भूतानाम्–जीवों में; अस्मि–हूँ; चेतना–जीवन दायिनी शक्ति।
मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में स्वर्ग का राजा इंद्र हूँ, इंद्रियों में मन हूँ और भूत प्राणियों ( जीवों ) की चेतना अर्थात् जीवन–शक्ति हूँ॥10.22॥
रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् ।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ॥10.23॥
रुद्राणाम् – समस्त रुद्रों में; शङ्करः –शिव भगवान; च–और; अस्मि–हूँ; वित्त ईश:-देवताओं की धन संपदा का कोषाध्यक्ष; यक्षरक्षसाम्–यक्षों तथा राक्षसों में; वसूनाम्–वसुओं में; पावकः–अग्नि; च–भी; अस्मि–हूँ; मेरू:-मेरू पर्वत; शिखरिणाम्–पर्वतों में; अहम्–मैं हूँ।
मैं ग्यारह रुद्रों में शंकर हूँ और यक्ष तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूँ। मैं आठ वसुओं में अग्नि हूँ और शिखरवाले पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूँ॥10.23॥
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ॥10.24॥
पुरोधासाम्–समस्त पुरोहितों में; च–भी; मुख्यम्–प्रमुख; माम्–मुझको; विद्धि–जानो; पार्थ–पृथापुत्र अर्जुन; बृहस्पतिम्–बृहस्पति; सेनानीनाम्–समस्त सेनानायकों में से; अहम्–मैं हूँ; स्कन्दः–कार्तिकेय; सरसाम्–समस्त जलाशयों मे; अस्मि–मैं हूँ; सागरः–समुद्र।
हे पार्थ ! समस्त पुरोहितों में प्रमुख बृहस्पति मुझको जान – मेरा स्वरूप समझ। सेनापतियों में स्कंद ( कार्तिकेय ) और सभी जलाशयों में समुद्र मैं हूँ ॥10.24॥
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥10.25॥
महा ऋषीणाम्–महर्षियों में; भृगुः–भृगुः अहम्–मैं हूँ; गिराम्–वाणी में; अस्मि–हूँ; एकम् अक्षरम्–ओम; यज्ञानाम्–यज्ञों में; जप–यज्ञः–भगवान के दिव्य नामों के जाप का यज्ञ; अस्मि–मैं हूँ; स्थावराणाम्–जड़ पदार्थों में; हिमालयः–हिमालय पर्वत।।
मैं महर्षियों में भृगु और शब्दों ( ध्वनियों या वाणियों ) में एक अक्षर अर्थात् ओंकार हूँ। सब प्रकार के यज्ञों में जपयज्ञ अर्थात यज्ञों में जपने वाला पवित्र नाम हूँ और स्थिर रहने वालों ( अचल पदार्थों ) में हिमालय पर्वत हूँ॥10.25॥
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥10.26॥
अश्वत्थः–बरगद का वृक्ष; सर्ववृक्षाणाम् – सारे वृक्षों में; देवऋषीणाम् – समस्त स्वर्ग के देवर्षियों में; च–तथा; नारदः–नारद; गन्धर्वाणाम्–गन्धर्वलोक के वासियों में; चित्ररथ:-चित्ररथ; सिद्धानाम्–सिद्धि प्राप्त संतों में; कपिल:मुनि:-कपिल मुनि।
समस्त वृक्षों में मैं ( अश्वत्थ ) पीपल का वृक्ष हूँ और देव ऋषियों में मैं नारद हूँ, गंधर्वों में मैं चित्ररथ और सिद्ध पुरुषों में मैं कपिल मुनि हूँ।
॥10.26॥
उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्धवम् ।
एरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् ॥10.27॥
उच्चैःश्रवसम्–श्रवा नाम का अश्व ; अश्वानाम् – अश्वों में; विद्धि– जानो, समझो , मानो; माम् – मुझे; अमृतउद्धवम् – समुद्र मन्थन से उत्पन्न अमृत; ऐरावतम्–ऐरावत; गज इन्द्राणाम्–गर्वित हाथियों में; नराणाम्–मनुष्यों में; च–तथा; नर अधिपम्–राजा।।
अश्वों में मुझे समुद्र मंथन के समय अमृत के साथ उत्पन्न होने वाला उच्चैःश्रवा नामक अश्व जानो , श्रेष्ठ हाथियों में मुझे गर्वित ऐरावत नामक हाथी समझो और मनुष्यों में राजा मुझे ही जानो अर्थात मेरी ही विभूति समझो ॥10.27॥
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक् ।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥10.28॥
आयुधानाम्–शास्त्रों में; अहम्–मैं हूँ; वज्रम्–वज्रः धेनूनाम्–गायों में; अस्मि–हूँ; काम–धुक्–कामधेनू गाय; प्रजनः–सन्तान, उत्पत्ति का कारण; च–तथा; अस्मि–हूँ; कन्दर्पः–कामदेव; सर्पाणाम्–सर्पो में; अस्मि–हूँ; वासुकि:-वासुकि।
मैं शस्त्रों में वज्र और धेनुओं ( गौओं ) में कामधेनु हूँ। शास्त्रोक्त रीति से सन्तान की उत्पत्ति का हेतु कामदेव हूँ और सर्पों में सर्पराज वासुकि हूँ॥10.28॥
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥10.29॥
अनन्तः–अनन्त; च–भी; अस्मि–हूँ; नागानाम्–फणों वाले सर्पो में; वरुण:-जलचरों के देवता; यादसाम्–समस्त जलचरों में; अहम्–मैं हूँ; पितृणाम् – पितरों में; अर्यमा–अर्यमा; च–भी; अस्मि–हूँ; यमः–मृत्यु का देवता; संयमताम्–समस्त नियमों के नियंताओं में और; अहम्–मैं हूँ।
मैं नागों में अनंत ( शेषनाग ) और जलचरों का अधिपति वरुण देव हूँ और पितरों में अर्यमा नामक पितर तथा समस्त नियमों के नियंताओं में अर्थात शासन करने वालों में यमराज मैं हूँ॥10.29॥
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम् ।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ॥10.30॥
प्रहलादः–प्रह्लाद; च–भी; अस्मि–हूँ; दैत्यानाम्–असुरों में; काल:-काल; कलयताम्–दमनकर्ताओं में काल; अहम्–मैं हूँ; मृगाणाम्–पशुओं में; च–तथा; मृग इन्द्रः–सिंह; अहम्–मैं हूँ; वैनतेयः–गरुड़; च–भी; पक्षिणाम्–पक्षियों में।
मैं दैत्यों में प्रह्लाद और गणना करने वालों का काल अर्थात समय (क्षण, घड़ी, दिन, पक्ष, मास आदि में जो समय है वह मैं हूँ) हूँ तथा पशुओं में मृगराज सिंह और पक्षियों में गरुड़ हूँ॥10.30॥
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥10.31॥
पवन:-वायुः पवताम्–पवित्र करने वालों में; अस्मि–हूँ; रामः–श्रीराम; शस्त्रभृताम्–शस्त्रधारियों में; अहम्–मैं; झषाणाम् – मछलियों में; मकर:-मगर; च–भी अस्मि–हूँ; स्रोतसाम्–बहती नदियों में; अस्मि–हूँ; जाह्नवी–गंगा नदी।
पवित्र करने वालों में मैं वायु और शस्त्रधारियों ( शस्त्र चलाने वालों में ) मैं भगवान श्रीराम हूँ, मछलियों ( जलीय जीवों / जलचरों ) में मगर और बहती नदियों ( बहते स्रोतों ) में गंगा हूँ।
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥10.32॥
सर्गाणाम् – सम्पूर्ण सृष्टियों का; आदिः–प्रारम्भ; अन्तः–अन्त; च–तथा; मध्यम्–मध्य; च–भी; एव–निसंदेह; अहम्–मैं हूँ; अर्जुन–अर्जुन; अध्यात्मविद्या–आध्यात्मज्ञान; विद्यानाम्–विद्याओं में; वादः–तार्किक, निष्कर्ष; प्रवदताम्–तर्को में; अहम्–मैं हूँ।
हे अर्जुन! मुझे समस्त सृष्टियों का आदि, मध्य और अंत जानो। सभी विद्याओं में मैं आध्यात्म विद्या हूँ और सभी तर्कों का मैं तार्किक निष्कर्ष हूँ अर्थात परस्पर शास्त्रार्थ करने वालों का वाद (तत्त्व–निर्णय के लिये किया जाने वाला वाद ) हूँ ॥10.32॥
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्वः सामासिकस्य च ।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥10.33॥
अक्षराणाम्–सभी अक्षरों में; अ–कारः–आरम्भिक अक्षर; अस्मि–हूँ; द्वन्द्वः–द्वन्द्व समास; सामासिकस्य–सामासिक शब्दों में; च–तथा; अहम्–मैं हूँ; एव–केवल ही; अक्षयः–अनन्त; काल–समय; धाता–सृष्टाओं में; अहम्–मैं; विश्वतः मुखः– ब्रह्मा।
मैं वर्णमाला के सभी अक्षरों में प्रथम अक्षर ‘ अकार ‘ हूँ और व्याकरण के समासों में द्वंद्व नामक समास हूँ। अक्षयकाल ( शाश्वत काल ) अर्थात् काल का भी महाकाल और सृष्टाओं में सबका धारण–पोषण करने वाला सब ओर मुखवाला विश्वतोमुख – ‘ विराट्स्वरूप ‘ –धाता ( ब्रह्मा ) भी मैं ही हूँ॥10.33॥
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥10.34॥
मृत्युः–मृत्यु; सर्व–हर:-सर्वभक्षी; च–भी; अहम्–मैं हूँ; उद्धवः–मूल; च–भी; भविष्यताम्–भावी अस्तित्वों में; कीर्तिः–यश; श्री:-समृद्वि या सुन्दरता; वाक्–वाणी; च–और; नारीणाम्–स्त्रियों जैसे गुण; स्मृतिः–स्मृति, स्मरणशक्ति; मेधा–बुद्धि; धृतिः–साहस; क्षमा – क्षमा।
मैं सबका नाश करने वाली – सबका हरण करने वाली सर्वभक्षक मृत्यु और भविष्य में उत्पन्न होने वाले भावी अस्तित्वों की उत्पत्ति का मूल कारण हूँ तथा स्त्रियों में कीर्ति , श्री ( समृद्धि ) , वाणी , स्मृति, बुद्धि , साहस और क्षमा हूँ॥10.34॥
(कीर्ति आदि ये सात देवताओं की स्त्रियाँ और स्त्रीवाचक नाम वाले गुण भी प्रसिद्ध हैं, इसलिए दोनों प्रकार से ही भगवान की विभूतियाँ हैं)
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥10.35॥
बृहत् साम–बृहत्साम; तथा – भी; साम्नाम्–सामवेद के स्रोत में; गायत्री – गायत्री मंत्र; छन्दसाम्–समस्त छन्दों में; अहम्–मैं हूँ; मासानाम्–बारह महीनों में; मार्गशीर्ष:-नवम्बर दिसम्बर का महीना; अहम्–मैं; ऋतूनाम्–सभी ऋतुओं में; कुसुम आकर:-वसन्त।
सामवेद के गीतों में और गायन करने योग्य श्रुतियों ( गेय मन्त्रों ) में मुझे बृहत्साम और छन्दों में मुझे गायत्री मन्त्र समझो। मैं बारह मासों में मार्ग शीर्ष और छह ऋतुओं में पुष्प खिलाने वाली वसन्त ऋतु हूँ॥10.35॥
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ॥10.36॥
द्यूतम्–जुआ; छलयताम् छलियों में; अस्मि–हूँ; तेजः–दीप्ति; तेजस्विनाम् तेजस्वियों में; अहम्–मैं हूँ; जयः–विजय; अस्मि–हूँ; व्यवसाय:-दृढ़ संकल्प; अस्मि–हूँ; सत्त्वम्–सात्विक भाव; वताम्–गुणियों में; अहम्–मैं हूँ।
मैं छल करने वालों अर्थात समस्त छलियों में जुआ ( द्यूत ) हूँ और तेजस्वियों में तेज अर्थात प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव हूँ। मैं जीतने वालों की अर्थात विजेताओं की विजय हूँ, निश्चय करने वालों का निश्चय अर्थात संकल्पकर्ताओं का संकल्प और सात्त्विक पुरुषों का सात्त्विक भाव अर्थात धर्मात्माओं का धर्म हूँ॥10.36॥
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥10.37॥
वृष्णीनाम्–वृष्णि वंशियों में; वासुदेवः–वासुदेव के पुत्र, श्रीकृष्ण; अस्मि–हूँ; पाण्डवानाम्–पाण्डवों में; धनंजयः–धन और वैभव का स्वामी, अर्जुन; मुनीनाम्–मुनियों में; अपि–भी; अहम्–मैं हूँ; व्यासः–वेदव्यास; कवीनाम्–महान विचारकों में; उशना–शुक्राचार्यः कविः–विचारकों में।
वृष्णिवंशियों में मैं वासुदेव ( कृष्ण ) अर्थात् मैं स्वयं तेरा सखा, पाण्डवों में मैं धनञ्जय ( अर्जुन ) अर्थात् तू, मुनियों में वेदव्यास और महान कवियों में शुक्राचार्य कवि भी मैं ही हूँ॥10.37॥
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् ।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ॥10.38॥
दण्ड:-दण्ड; दमयताम्–अराजकता को रोकने वाले साधनों के बीच; अस्मि–हूँ; नीतिः–सदाचार; अस्मि–हूँ; जिगीषताम्–विजय की इच्छा रखने वालों में; मौनम्–मौन; च–और; एव–भी; अस्मि–हूँ; गुह्यानाम्–रहस्यों में : ज्ञानम्–ज्ञान; ज्ञानवताम्–ज्ञानियों में; अहम्–मैं हूँ।
मैं दमन करने वालों का दंड ( शक्ति ) हूँ अर्थात अराजकता को रोकने वाले साधनों के बीच न्यायोचित दण्ड, विजय की इच्छा रखने वालों में उनकी उपयुक्त नीति हूँ, गुप्त रखने योग्य गोपनीय भावों या रहस्यों में मौन हूँ और ज्ञानियों का तत्त्वज्ञान मैं ही हूँ॥10.38॥
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥10.39॥
यत्–जो; च–और; अपि – भी; सर्वभूतानाम्–समस्त जीवों में; बीजम् – जनक बीज; तत्–वह; अहम्–मैं हूँ; अर्जुन–अर्जुन; न–नहीं; तत्–वह; अस्ति है; विना–रहित; यत्–जो; स्यात्–हो; मया – मुझसे; भूतम्–जीव; चर अचरम्–चर अचर।।
हे अर्जुन! जो समस्त भूतों की उत्पत्ति का बीज ( कारण ) है, वह भी मैं ही हूँ अर्थात मैं सम्पूर्ण प्राणियों का जनक बीज हूँ क्योंकि ऐसा चर और अचर कोई भी भूत या प्राणी नहीं है, जो मुझसे रहित हो अर्थात् चर–अचर सब कुछ मैं ही हूँ॥10.39॥
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप ।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥10.40॥
न–न तो; अन्तः–अन्त; अस्ति–है; मम–मेरी; दिव्यानाम्–दिव्य; विभूतीनाम–अभिव्यक्तियाँ, वैभव , ऐश्वर्य ; परन्तप–शत्रु विजेता अर्जुन; एषः–यह सब; तु–लेकिन; उद्देशतः–केवल एक भाग; प्रोक्तः–घोषित करना; विभूते:-वैभवों का; विस्तरः–विशद वर्णन; मया–मेरे द्वारा।
हे परंतप! मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अंत नहीं है, मैंने अपनी विभूतियों का यह विस्तार तो तेरे लिए संक्षेप से कहा है अर्थात यह मेरी अनन्त महिमा का संकेत मात्र है।॥10.40॥
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥10.41॥
यत् यत्–जो जो; विभूति–शक्ति; मत्–युक्त; सत्त्वम्–अस्तित्व; श्रीमत्–सुन्दर; ऊर्जितम्–यशस्वी; एव–भी; वा–अथवा; तत्–तत्–वे सब; एव–निःसंदेह; अवगच्छ–जानो; त्वम्–तुम; मम–मेरे; तेजोअंशसम्भवम्–तेज के अंश की अभिव्यक्ति;
जो–जो भी विभूतियुक्त ( ऐश्वर्ययुक्त ) , कांतियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु या प्राणी है, उस–उस को तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जान अर्थात तुम जिसे सौंदर्य, ऐश्वर्य या तेज के रूप में देखते हो उसे मेरे से उत्पन्न किन्तु मेरे तेज का स्फुलिंग मानो॥10.41॥
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥10.42॥
अथवा–या; बहुना–विस्तृत; एतेन–इसके द्वारा; किम्–क्या; ज्ञातेन–तब–तुम्हारे जानने योग्य; अर्जुन–अर्जुन; विष्टभ्य–व्याप्त होना और रक्षा करना; अहम्–मैं; इदम्–इस; कृत्स्नम् – सम्पूर्ण; एक–एक; अंशेन–अंश; स्थित:-स्थित हूँ; जगत्–सृष्टि में।
हे अर्जुन! इस प्रकार बहुत जानने से तेरा क्या प्रायोजन है अर्थात इस प्रकार बहुत–सी बातें जानने की या इस प्रकार के विस्तृत ज्ञान की क्या आवश्यकता है? मैं इस संपूर्ण जगत् को अपनी योगशक्ति के एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ अर्थात केवल इतना समझ लो कि मैं अपने एक अंश मात्र से सकल सृष्टि में व्याप्त होकर उसे धारण करता हूँ॥10.42॥
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम दशमोऽध्यायः ॥10॥
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