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कर्मयोग ~ अध्याय तीन
01-08 ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की आवश्यकता
09-16 यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता तथा यज्ञ की महिमा का वर्णन
17-24 ज्ञानवानऔर भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता
25-35 अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा
36-43 पापके कारणभूत कामरूपी शत्रु को नष्ट करने का उपदेश
कर्मयोग ~ अध्याय तीन
01-08 ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की आवश्यकता
अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥3 .1।।
अर्जुनः उवाच-अर्जुन ने कहा; ज्यायसी-श्रेष्ठ; चेत्–यदि; कर्मण-कर्मफल से; ते – आप ; मता-मानना; बुद्धि-बुद्धि; जनार्दन – जीवों का पालन करने वाले, श्रीकृष्ण; तत्-तब; किम-क्यों; कर्मणि-कर्मः घोर–भयंकर; मम्-मुझे; नियोजयसि-लगाते हो; केशव-केशी नामक राक्षस का वध करने वाले, श्रीकृष्ण।
अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आप बुद्धि ( ज्ञान ) को कर्म से श्रेष्ठ मानते हैं तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?॥3 .1॥
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुध्दिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।3.2।।
व्यामिश्रेण-तुम्हारे अनेकार्थक शब्दों से ; इव-मानो; वाक्येन-वचनों से; बुद्धिम् – बुद्धि; मोहयसि–मैं मोहित हो रहा हूँ; इव-मानो; मे -मेरी; तत्-उस; एकम्-एकमात्र; वद-अवगत कराए; निश्चित्य-निश्चित रूप से; येन-जिससे; श्रेयः-अति श्रेष्ठ, अहम्-मैं; आप्नुयाम्-प्राप्त कर सकूं।
आपके अनेकार्थक उपदेशों से मेरी बुद्धि भ्रमित ( मोहित ) हो गयी है अर्थात आपके मिले हुए वचनों से मैं मोहित हो रहा हूँ। कृपया मुझे निश्चित रूप से कोई एक ऐसा मार्ग बताएँ जो मेरे लिए सर्वाधिक लाभदायक हो जिससे मैं कल्याणको प्राप्त हो जाऊँ ।। 3 .2।।
श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥3 .3।।
श्रीभगवान् उवाच-परम कृपालु भगवान ने कहा; लोके-संसार में; अस्मिन्-इस; द्वि-विधा-दो प्रकार की; निष्ठा-श्रद्धा; पुरा-पहले; प्रोक्ता-वर्णित; मया-मेरे द्वारा, श्रीकृष्ण; अनघ-निष्पाप; ज्ञानयोगेन-ज्ञानयोग के मार्ग द्वारा; सांख्यानाम्-वे जो चिन्तन या ज्ञान में रुचि रखते हैं; कर्मयोगेन-कर्म योग के द्वारा; योगिनाम्-योगियों का।
परम कृपालु भगवान ने कहा, हे निष्पाप अर्जुन! मैं पहले ही ज्ञानोदय की प्राप्ति के दो मार्गों का वर्णन कर चुका हूँ। ज्ञानयोग उन मनुष्यों के लिए है जिनकी रुचि चिन्तन में होती है और कर्मयोग उनके लिए है जिनकी रुचि कर्म करने में होती है।।3 .3।।
( श्री कृष्ण कहते हैं कि इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा (साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम ‘निष्ठा’ है।) मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से (माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का नाम ‘ज्ञान योग’ है, इसी को ‘संन्यास’, ‘सांख्ययोग’ आदि नामों से कहा गया है।) और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से (फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम ‘निष्काम कर्मयोग’ है, इसी को ‘समत्वयोग’, ‘बुद्धियोग’, ‘कर्मयोग’, ‘तदर्थकर्म’, ‘मदर्थकर्म’, ‘मत्कर्म’ आदि नामों से कहा गया है।) होती है॥3 .3॥
न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥3 .4।।
न-नहीं; कर्मणाम् – कर्मों के; अनारम्भात्-विमुख रहकर; नैष्कर्म्यम्-कर्मफलों से मुक्ति; पुरुषः-मनुष्य; अष्नुते–प्राप्त करता है; न-नहीं; च-और; संन्यसनात्-त्याग से; एव-केवल; सिद्धिम्- सफलता; समधि गच्छति–पा लेता है।
न तो कोई केवल कर्म से विमुख रहकर कमर्फल से मुक्ति पा सकता है और न केवल शारीरिक संन्यास लेकर ज्ञान में सिद्धावस्था प्राप्त कर सकता है अर्थात मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता (जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्था का नाम ‘निष्कर्मता’ है।) को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है॥4॥
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।3.5।।
न-नहीं; हि- निश्चित ही, निःसंदेह ; कश्चित्-कोई; क्षणम्-क्षण के लिए; अपि-भी; जातु-सदैव; तिष्ठति-रह सकता है; अकर्म-कृत बिना कर्म; कार्यते – कर्म करने के लिए; हि- निश्चय ही; अवशः बाध्य होकर; कर्म-कर्म; सर्वः-समस्त; प्रकृति-जैः-प्रकृति के गुणों से उत्पन्न; गुणैः-गुणों के द्वारा।
निश्चित ही कोई भी मनुष्य किसी भी काल में एक क्षण के लिए भी अकर्मा ( बिना कर्म किये ) नहीं रह सकता। वास्तव में सभी प्राणी प्रकृति द्वारा उत्पन्न तीन गुणों के द्वारा पर-वश होकर कर्म करने के लिए बाध्य होते हैं ॥3 .5॥
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।3.6।।
कर्म-इन्द्रियाणि – कर्मेन्द्रियों के घटक; संयम्य-नियंत्रित करके; यः-जो; आस्ते-रहता है; मनसा-मन में; स्मरन्–चिन्तन; इन्द्रिय-अर्थात-इन्द्रिय विषय; विमूढ आत्मा-भ्रमित जीव; मिथ्या आचार:-ढोंग; सः-वे; उच्यते-कहलाते हैं।
जो अपनी कर्मेन्द्रियों के बाह्य घटकों को तो नियंत्रित करते हैं लेकिन मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हैं, वे निःसन्देह स्वयं को धोखा देते हैं और पाखण्डी कहलाते हैं। अर्थात जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है।।3.6।।
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।3.7।।
यः-जो; तु–लेकिन; इन्द्रियाणि-इन्द्रियाँ; मनसा-मन से; नियम्य–नियन्त्रित करना; आरम्भते-प्रारम्भ करता है; अर्जुन-अर्जुन; कर्म इन्द्रियैः-कर्म इन्द्रियों द्वारा; कर्म-कर्मयोग; असक्तः-आसक्ति रहित; सः-विशिष्यते-वे श्रेष्ठ हैं।
हे अर्जुन! लेकिन वे मनुष्य जो मन से अपनी ज्ञानेन्द्रियों को नियंत्रित करते हैं और कर्मेन्द्रियों से आसक्ति रहित होकर (निष्काम भाव से) अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है अर्थात कर्म में संलग्न रहते हैं, वे ही वास्तव में श्रेष्ठ हैं ।।3.7।।
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।3.8।।
नियतं – निर्धारित; कुरु-निष्पादन; कर्म-वैदिक कर्तव्य; त्वं-तुम; कर्म-कर्म करना; ज्यायः-श्रेष्ठ; हि-निश्चय ही; अकर्मणः-निष्क्रिय रहने की अपेक्षा; शरीर-शरीर का; यात्रा-पालन पोषण; अपि-भी; च-भी; ते – तुम्हारा; प्रसिद्धयेत्-संभव न होना; अकर्मण:-निष्क्रिय।
इसलिए तुम्हें शास्त्रविधिसे नियत किये हुए निर्धारित वैदिक कर्म करने चाहिए क्योंकि निष्क्रिय रहने की अपेक्षा अर्थात कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म का त्याग करने से तुम्हारे शरीर का भरण पोषण ( शरीर-निर्वाह ) संभव नहीं होगा ।।3.8।।
09-16 यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता तथा यज्ञ की महिमा का वर्णन
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ॥3 .9॥
यज्ञ-अर्थात-यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्म; कर्मणः-कर्म के अतिरिक्त ; अन्यत्र-अन्यथा, दूसरे ; लोक:-भौतिक संसार; अयम्-यह; कर्मबन्धनः-किसी के कर्मों के बन्धन; तत्-वह; अर्थम्-के लिए; कर्म-कर्म; कौन्तेय-कुन्तिपुत्र, अर्जुन; मुक्तसङ्गगः-आसक्ति रहित; समाचर-ध्यान से कार्य करना।
परमात्मा के लिए यज्ञ या कर्त्तव्य पालन के निमित्त किए जाने वाले कर्मों के अतिरिक्त दूसरे ही कर्मों में लगा हुआ यह मुनष्य कर्मों से बँधता है और इस प्रकार के कर्म भौतिक संसार में बंधन का कारण बनते हैं। इसलिए हे कुन्ति पुत्र! भगवान के सुख के लिए और फल की आसक्ति के बिना अर्थात आसक्ति-रहित होकर उस यज्ञ के लिये ही अपने नियत कर्तव्य-कर्म करो ।।3.9।।
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥3 .10॥
सह-के साथ; यज्ञाः-यज्ञों; प्रजाः-मानव जाति; सृष्ट्वा-सृजन करना; पुरा–आरम्भ में; उवाच-कहा; प्रजापतिः-ब्रह्मा; अनेन-इससे; प्रसविष्यध्वम्-अधिक समृद्ध होना; एषः-इन; वः-तुम्हारा; अस्तु-होगा; इष्टकामधुक-सभी वांछित पदार्थं प्रदान करने वाला;।
सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा ने मानव जाति को उनके नियत कर्तव्यों सहित जन्म दिया और कहा “इन यज्ञों का धूम-धाम से अनुष्ठान करने पर तुम्हें सुख समृद्धि प्राप्त होगी और इनसे तुम्हें सभी वांछित वस्तुएँ प्राप्त होंगी ” ।।3 .10।।
( प्रजापति ब्रह्माजी ने सृष्टि या कल्प के आदि काल में कर्तव्य-कर्मों के विधान सहित प्रजा-( मनुष्य आदि ) की रचना करके उनसे (प्रधानतया मनुष्यों से) कहा कि तुम लोग इस यज्ञ ( कर्तव्य ) के द्वारा वृद्धि को प्राप्त करो और वह कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञ तुम लोगों को कर्तव्य-पालन की आवश्यक सामग्री और इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो।)
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥3 .11॥
देवान्–स्वर्ग के देवताओं को; भावयता–प्रसन्न होंगे; अनेन–इन यज्ञों से; ते–वे; देवाः-स्वर्ग के देवता; भावयन्तु-प्रसन्न होंगे; वः-तुमको; परस्परम–एक दूसरे को; भावयन्तः-एक दूसरे को प्रसन्न करते हुए; श्रेयः-समृद्ध; परम-सर्वोच्च; अवाप्स्यथ–प्राप्त करोगे।
अपने कर्तव्य-कर्म के द्वारा तुम्हारे द्वारा सम्पन्न किए गए यज्ञों से देवता प्रसन्न होंगे अर्थात उन्नत होंगे और ( फलस्वरूप ) वे देवता लोग अपने कर्तव्य के द्वारा तुम लोगों को उन्नत करें अर्थात प्रसन्न करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत और प्रसन्न करते हुए मनष्यों और देवताओं के मध्य सहयोग के परिणामस्वरूप तुम लोग परम ( सर्वोच्च ) कल्याण को प्राप्त हो जाओगे और सभी को सुख समृद्धि प्राप्त होगी।।3.11।।
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुतस्तेन एव सः ॥3 .12॥
इष्टान्–वांछित; भोगान्–जीवन की आवश्यकताएं , जीवन निर्वाह ; हि-निश्चय ही; व:-तुम्हें; देवा:-स्वर्ग के देवता; दास्यन्ते – प्रदान करेंगे; यज्ञभाविता:-यज्ञ कर्म से प्रसन्न होकर; तैः-उनके द्वारा; दत्तान्–प्रदान की गई वस्तुएँ; अप्रदाय–अर्पित किए बिना; एभ्यः-इन्हें; यः-जो; भुङ्क्ते सेवन करता है; स्तेनः-चोर; एव–निश्चय ही; सः-वे।
तुम्हारे द्वारा सम्पन्न यज्ञों से तुष्ट और प्रसन्न होकर देवता( बिना मांगे ) ही इच्छित भोग एवं जीवन निर्वाह और कर्त्तव्य पालन के लिए वांछित आवश्यक वस्तुएँ और सामग्री प्रदान करते रहेंगे किन्तु जो उन देवताओं से प्राप्त भोगों और सामग्री को उनको अर्पित किए बिना या दूसरों की सेवा में लगाए बिना ( दूसरों में बांटे बिना ) स्वयं ही उपभोग करते हैं या केवल अपने ही शरीर और इन्द्रियों को तृप्त करते हैं , वे वास्तव में चोर ही हैं।।3.12।।
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥3 .13।।
यज्ञशिष्ट – यज्ञ में अर्पित भोजन के अवशेष; अशिनः-सेवन करने वाले; सन्तः-संत लोग; मुच्यन्ते–मुक्ति पाते हैं; सर्व-सभी प्रकार के; किल्बिशैः-पापों से; भुञ्जते–भोगते हैं; ते-वे; तु–लेकिन; अघम्-घोर पाप; पापा:-पापीजन; ये-जो; पचन्ति-भोजन बनाते हैं; आत्मकारणात्-अपने सुख के लिए।
यज्ञ से बचे हुए अन्न ( यज्ञ में अर्पित भोजन के अवशेष ) अर्थात पहले यज्ञ में अर्पित करने के पश्चात भोजन ग्रहण करने वाले या यज्ञ के भोग का सेवन करने वाले श्रेष्ठ पुरुष ( आध्यात्मिक मनोवत्ति वाले जो भक्त ) सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण या अपनी इन्द्रिय तृप्ति करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे पापी लोग तो वास्तव में पाप को ही खाते हैं या पाप ही अर्जित (भक्षण ) करते हैं ।।3.13।।
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥3 .14॥
अन्नात्-अन्न पदार्थ; भवन्ति–निर्भर होता है; भूतानि-जीवों को पर्जन्यात्-वर्षा से; अन्न खाद्यान्न सम्भवः-उत्पादन; यज्ञात्-यज्ञ सम्पन्न करने से; भवति–सम्भव होती है। पर्जन्य:-वर्षा; यज्ञः-यज्ञ का सम्पन्न होना; कर्म-निश्चित कर्त्तव्य से; समुद्भवः-उत्पन्न होता है।
सभी लोग अन्न पर निर्भर हैं अर्थात सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं और अन्न वर्षा से उत्पन्न होता हैं, वर्षा यज्ञ का अनुष्ठान करने से होती है और यज्ञ निर्धारित कर्मों का पालन करने से सम्पन्न या उत्पन्न होता है।।3 .14।।
कर्म ब्रह्योद्भवं विद्धि बह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं। ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥3 .15॥
कर्म-कर्त्तव्यः ब्रह्म-वेदों में; उद्भवम्-प्रकट; विद्धि-तुम्हें जानना चाहिए; ब्रह्म-वेद; अक्षर-अविनाशी परब्रह्म से; समुद्भवम् – साक्षात प्रकट हुआ; तस्मात्-अतः; सर्व-गतम् – सर्वव्यापी; ब्रह्म-भगवान; नित्यम्-शाश्वत; यज्ञ-यज्ञ में ; प्रतिष्ठितम्-स्थित रहना।
वेदों में सभी जीवों के लिए कर्म निश्चित किए गए हैं अर्थात कर्म या कर्त्तव्य वेद से उत्पन्न हुए हैं और वेद साक्षात अविनाशी परब्रह्म भगवान से प्रकट हुए हैं। परिणामस्वरूप सर्वव्यापक परम अक्षर परमात्मा सभी यज्ञ कर्मों ( यज्ञ ) में नित्य व्याप्त या स्थित रहते हैं।।3 .15।।
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥3 .16।।
एवम्-इस प्रकार; प्रवर्तितम्-कार्यशील होना; चक्रम-चक्र; न-नहीं; अनुवर्तयति-पालन करना; इह-इस जीवन में; यः-जो; अघ आयुः-पापपूर्ण जीवन, पापमय जीवन ; इन्द्रिय आरामः-इन्द्रियों का सुख; मोघम्-व्यर्थ; पार्थ-पृथापुत्र अर्जुनः सः-वे; जीवति-जीवित रहता है।
हे पार्थ! जो मनुष्य वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ कर्म के चक्र का पालन करने के अपने दायित्व का निर्वाहन नहीं करते अर्थात इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टि चक्र के अनुकूल नहीं चलता ( अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता ) वे केवल पापमय जीवन जीते हैं और पाप ही अर्जित करते हैं, वे केवल अपनी इन्द्रियों की तृप्ति और भोगों में रमण करने के लिए ही जीवित रहते हैं, वास्तव में उनका जीवन व्यर्थ ही है ऐसा पापायु मनुष्य व्यर्थ ही जीता है ।।3.16।।
17-24 ज्ञानवानऔर भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।3.17।।
यः-जो; तु-लेकिन; आत्म-रतिः-अपनी आत्मा में ही रमण करना; एव-निश्चय ही; स्यात्-रहता है; आत्म-तृप्तः-आत्म संतुष्टि; च-तथा; मानव:-मनुष्य; आत्मनि-अपनी आत्मा में; एव-निश्चय ही; च-और; सन्तुष्ट:-सन्तुष्ट; तस्य-उसका; कार्यम्-कर्त्तव्य; न-नहीं; विद्यते-रहता।
लेकिन जो मनुष्य आत्मानंद में स्थित रहते हैं अर्थात अपने-आप में ही रमण करने वाले , अपनी आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो उनके लिए कोई निश्चित रूप से कोई कर्त्तव्य नहीं रहता।।3.17।।
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥3 .18॥
न-कभी नहीं; एव-वास्तव में; तस्य-उसका; कृतेन – कर्त्तव्य का पालन; अर्थ:-प्राप्त करना; न-न तो; अकृतेन- कर्त्तव्य का पालन न करने से; इह-यहाँ; कश्चन-जो कुछ भी; न – कभी नहीं; च-तथा; अस्य-उसका; सर्वभूतेषु-सभी जीवों में; कश्चित्-कोई; अर्थ-आवश्यकता; व्यपाश्रयः-निर्भर होना।
ऐसी आत्मलीन आत्माओं को अपने कर्तव्य का पालन करने या उनसे विमुख होने से कुछ पाना या खोना नहीं होता और न ही उन्हें अपनी निजी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्य जीवों पर निर्भर रहने की आवश्यकता होती है। अर्थात उस (कर्मयोगसे सिद्ध हुए) महापुरुष का इस संसार में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता।।3.18।।
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।3.19।।
तस्मात्-अतः; असक्तः-आसक्ति रहित; सततम्-निरन्तर; कार्यम्-कर्त्तव्यं; कर्म-कार्य; समाचर-निष्पादन करना; असक्तो:-आसक्तिरहित; हि-निश्चय ही; आचरन्-निष्पादन करते हुए; कर्म-कार्य; परम-सर्वोच्च भगवान; आप्नोति–प्राप्त करता है; पुरुषः-पुरुष, मनुष्य।
इसलिये तू निरन्तर आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्मका भलीभाँति आचरण कर; क्योंकि आसक्तिरहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है ।।3.19।।
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥3 .20।।
कर्मणा-निर्धारित कर्त्तव्यों का पालन करना; एव-केवल; हि-निश्चय ही; संसिद्धिम् – पूर्णता; आस्थिताः-प्राप्त करना; जनक आदयः-राजा जनक तथा अन्य राजा; लोक संङ्ग्रहम् – सामान्य लोगों के या समाज के कल्याण के लिए; एव अपि-केवल; सम्पश्यत्-विचार करते हुए; कर्तुम्- निष्पादन करना; अर्हसि-तुम्हें चाहिए।
राजा जनक आदि ज्ञानीजन ( महापुरुष ) भी आसक्ति रहित निर्धारित कर्त्तव्य कर्मों का पालन करने के कारण ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं , इसलिए तथा समाज के कल्याण के लिए और अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए भी तू अपने निर्धारित कर्त्तव्य कर्म का पालन करने के ही योग्य है अर्थात तुझे अपने नियत कर्म का निष्पादन करना ही चाहिए ॥3 .20॥
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥3 .21॥
यत्-यत्-जो-जो; आचरित-करता है; श्रेष्ठ:-उत्तम; तत्-वही; तत्-केवल वही; एव–निश्चय ही; इतरः-सामान्य; जनः-व्यक्ति; सः-वह; यत्-जो कुछ; प्रमाणम्-आदर्श; कुरुते-करता है; लोकः-संसार; तत्-उसके; अनुवर्तते–अनुसरण करता है।
श्रेष्ठ पुरुष ( महापुरुष ) जो-जो आचरण या कर्म करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण या कर्म करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण या आदर्श प्रस्तुत करता है, समस्त संसार ( सामान्य मनुष्य- जन समुदाय ) उसी के अनुसार बरतने लग जाता है अर्थात उसी का अनुसरण करने लगता है।।3.21।।
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥3 .22॥
न-नहीं; मे–मुझे; पार्थ-पृथापुत्र अर्जुन; अस्ति-है; कर्तव्यम्-निर्धारित कर्त्तव्य; त्रिषु तीनों में; लोकेषु-लोकों में; किञ्चन-कोई; न-कुछ नहीं; अनवाप्तम्-अप्राप्त; अवाप्तव्यम्-प्राप्त करने योग्य ; वर्त-संलग्न रहते हैं; एव-निश्चय ही; च–भी; कर्मणि-नियत कर्त्तव्य।
हे पार्थ! तीनों लोकों में मेरे लिए न तो कोई कर्म निश्चित है अर्थात न तो कुछ कर्त्तव्य है , न ही मुझे किसी पदार्थ का अभाव है अर्थात न कोई प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है और न ही मुझ में कुछ पाने की अपेक्षा है फिर भी मैं निश्चित कर्म करता हूँ अर्थात अपने कर्तव्य-कर्म में ही लगा रहता हूँ ।।3.22।।
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥3 .23॥
यदि – यदि; हि-निश्चय ही; अहम्–मैं; न-नहीं; वर्तेयम्-इस प्रकार संलग्न रहता हूँ; जातु-सदैव; कर्मणि-नियत कर्मों के निष्पादन में; अतन्द्रितः सावधानी से; मम-मेरा; वर्त्म- मार्ग का; अनुवर्तन्ते–अनुसरण करेंगे; मनुष्या:-सभी मनुष्य; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; सर्वश:-सभी प्रकार से।
यदि मैं सावधानी पूर्वक नियत कर्त्तव्य कर्म नहीं करता या नियत कर्मों के निष्पादन में इस प्रकार संलग्न न रहूँ तो हे पार्थ! सभी लोगों ने निश्चित रूप से सभी प्रकार से मेरे मार्ग का ही अनुसरण किया होता।।3 .23।।
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥3 .24॥
उत्सीदेयुः नष्ट हो जाएंगें; इमे – ये सब; लोका:-लोक; न–नहीं; कुर्याम्-मैं करूँगा; कर्म-नियत कर्त्तव्य; चेत्- यदि; अहम्-मैं; संकरस्य असभ्य जन समुदाय; च-तथा; कर्ता-उत्तरदायी; स्याम्-होऊँगा; उपहन्याम् – विनाश करने वाला; इमाः-इन सब; प्रजाः-मानव जाति का।
यदि मैं अपने निर्धारित कर्म नहीं करूँ तब ये सभी लोक और मनुष्य नष्ट – भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरता ( असभ्य जन समुदाय ) का करने वाला होऊँ तथा संसार में उत्पन्न होने वाली अराजकता के लिए उत्तरदायी होता और इस प्रकार से मानव जाति या सम्पूर्ण प्रजा का विनाश करने वाला कहलाऊंगा।।3 .24।।
25-35 अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।3.25।।
सक्ताः-आसक्त; कर्मणि-नियत कर्तव्य; अविद्वांसः-अज्ञानी; यथा-जिस प्रकार से; कुर्वन्ति-करते है; भारत-भरतवंशी, अर्जुन ; कुर्यात्-करना चाहिए ; विद्वान-बुद्धिमान; तथा – उसी प्रकार से; असक्तः-अनासक्त; चिकीर्षुः-इच्छुक; लोकसंग्रहम्-लोक कल्याण के लिए।
हे भरतवंशी! जैसे अज्ञानी लोग फल की आसक्ति की कामना से कर्म करते हैं अर्थात कर्म में आसक्त होकर कर्म करते हैं , उसी प्रकार बुद्धिमान मनुष्यों को लोगों को उचित मार्ग की ओर चलने के लिए प्रेरित करने हेतु अर्थात लोक कल्याण के लिए अनासक्त रहकर या आसक्तिरहित कर्म करना चाहिए॥3 .25॥
न बुध्दिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङगिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन्।।3.26।।
न-नहीं; बुद्धिभेदम् – बुद्धि में मतभेद; जनयेत् – उत्पन्न होना चाहिए; अज्ञानाम्-अज्ञानियों का; कर्म-संङ्गिनाम्-कर्म-फलों में आसक्त; जोषयेत्-प्रेरित करना चाहिए; सर्व-सारे; कर्माणि-कर्म; विद्वान्–ज्ञानवान व्यक्ति; युक्तः-प्रबुद्ध, समाचरन्-आचरण करते हुए।
परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुए तत्वज्ञ ज्ञानी महापुरुष तथा ज्ञानवान मनुष्यों को चाहिए कि वे शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानी लोगों को जिनकी आसक्ति सकाम कर्म करने में रहती है, उन्हें कर्म करने से रोक कर उनकी बुद्धि में भ्रम या कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करें अपितु स्वयं ज्ञानयुक्त होकर शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उन अज्ञानी लोगों को भी अपने नियत कर्म करने के लिए प्रेरित करे या उनसे भी वैसे ही करवाए॥3 .26॥
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।3.27।।
प्रकृतेः-प्राकृत शक्ति का; क्रियमाणानि–क्रियान्वित करना; गुणैः-तीन गुणों द्वारा; कर्माणि-कर्म; सर्वशः-सभी प्रकार के; अहङ्कार-विमूढ-आत्मा-अहंकार से मोहित होकर स्वंय को शरीर मानना; कर्ता-करने वाला; अहम्-मैं; इति–इस प्रकार; मन्यते-सोचता है।
वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं; परन्तु अहंकार से मोहित अन्तःकरण वाला अज्ञानी मनुष्य ‘मैं कर्ता हूँ’ , ऐसा मानता है ।।3.27।।
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥3 .28॥
तत्ववित्-सत्य को जानने वाला; तु–लेकिन; महाबाहो-विशाल भुजाओं वाला; गुण-कर्म-गुणों और कर्मों से; विभागयोः-भेद; गुणा:-मन और इन्द्रियों आदि के रूप में प्रकृति के तीन गुण; गुणेषु–इन्द्रिय विषयों के बोध के रूप में प्रकृति के गुण; वर्तन्ते-लगे रहते हैं; इति–इस प्रकार; मत्वा-जानकर; न-कभी नहीं; सज्जते-आसक्त होते हैं।
हे महाबाहु अर्जुन! तत्त्वज्ञानी ( सत्य को जानने वाले महापुरुष ) आत्मा को गुणों ( गुण विभाग ) और कर्मों ( कर्म विभाग ) से भिन्न समझते हैं। वे जानते हैं कि ‘ मन और इन्द्रियों आदि के रूप में केवल प्रकृति के तीन गुण ही हैं जो इन्द्रिय विषयों में संचालित होते हैं अर्थात वे यह जानते हैं की गुण ही गुणों में बरत रहे हैं और ऐसा जान कर वे उनमें नहीं फंसते।।3 .28।।
[गुण विभाग और कर्म विभाग (त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पाँच महाभूत और मन, बुद्धि, अहंकार तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और शब्दादि पाँच विषय- इन सबके समुदाय का नाम ‘गुण विभाग’ है और इनकी परस्पर की चेष्टाओं का नाम ‘कर्म विभाग’ है।) के तत्व (उपर्युक्त ‘गुण विभाग’ और ‘कर्म विभाग’ से आत्मा को पृथक अर्थात् निर्लेप जानना ही इनका तत्व जानना है।) को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता। ॥28॥]
प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्।।3.29।।
प्रकृतेः-भौतिक शक्ति; गुण–प्रकृति के गुण; सम्मूढाः-भ्रमित; सज्जन्ते-आसक्त हो जाते हैं; गुण-कर्मसु-कर्म फलों में; तान्–उन; अकृत्स्नविद्:-अज्ञानी पुरुष; मन्दान्–अल्पज्ञानी; कृत्स्नवित्- ज्ञानी पुरुष; न-नहीं; विचालयेत्–विचलित करना चाहिए।
जो अज्ञानी मनुष्य प्रकृति के गुणों के प्रभाव से अत्यंत मोहित होकर कर्मों और उनके फलों में आसक्त रहते हैं अर्थात फल प्राप्ति की कामना के साथ ही अपने कर्म करते हैं , लेकिन बुद्धिमान पुरुष जो इस परम सत्य को जानते हैं, उन्हें ऐसे अज्ञानी लोगों को जिनका ज्ञान अल्प होता है विचलित नहीं करना चाहिए ॥3 .29॥
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥3 .30॥
मयि–मुझमें; सर्वाणि-सब प्रकार के ; कर्माणि-कर्म को; सन्यस्य-पूर्ण त्याग करके; अध्यात्मचेतसा-भगवान में स्थित होने की भावना; निराशी:-कर्म फल की लालसा से रहित, निर्ममः-स्वामित्व की भावना से रहित; भूत्वा-होकर; युध्यस्व-लड़ो; विगत-ज्वरः-मानसिक ताप के बिना।
अपने समस्त कर्मों को मुझको अर्पित करके और परमात्मा के रूप में निरन्तर मेरा ध्यान करते हुए अर्थात मुझमें स्थित होकर कामना, ममता , संताप, स्वार्थ , स्वामित्व की भावना और कर्म फल की लालसा से रहित होकर अपने मानसिक दुखों को त्याग कर युद्ध करो।।3 .30।।
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥3 .31॥
ये-जो; मे – मेरे; मतम्-उपदेशों को; इदम्-इन; नित्यम्-निरन्तर; अनुतिष्ठन्ति–अनुपालन करना; मानवाः-मुनष्यों को ; श्रद्धावन्तः-श्रद्धा-भक्ति सहित; अनसूयन्तः-दोष दृष्टि से मुक्त होकर; मुच्यन्ते – मुक्त हो जाते हैं; ते – वे; अपि-भी; कर्मभिः-कर्म के बन्धनों से।
जो मनुष्य अगाध श्रद्धा और भक्ति के साथ मेरे इन उपदेशों का सदा अनुपालन और अनुसरण करते हैं और दोष दृष्टि से परे या रहित रहते हैं, वे सम्पूर्ण कर्मों के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।।3 .31।।
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥3 .32॥
ये-जो; तु–लेकिन; एतत्-इस; अभ्यसूयन्तः-दोषारोपण; न-नहीं; अनुतिष्ठन्ति–अनुसरण करते हैं; मे-मेरा; मतम्-उपदेश; सर्वज्ञान-सभी प्रकार का ज्ञान; विमूढान्-भ्रमित; तान्–उन्हें; विद्धि-जानो; नष्टान्–नाश होता है; अचेतसः-विवेकहीन।
किन्तु जो मेरे उपदेशों में दोष ढूंढते हैं अर्थात मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं , उन ज्ञान से वंचित और विवेकहीन मूर्खों को तू मोहित , भ्रमित और नष्ट हुआ ही समझ अर्थात इन सिद्धान्तों की उपेक्षा करने से वे अपने विनाश का कारण बनते हैं॥3 .32॥
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥3 .33॥
सदृशम् – तदानुसार; चेष्टते-कर्म करता है; स्वस्याः -अपने; प्रकृतेः-प्रकृति के गुणों का; ज्ञानवान् – बुद्धिमान; अपि – यद्यपि; प्रकृतिम्-प्रकृति को; यान्ति–पालन करते हैं; भूतानि–सभी जीव; निग्रहः-दमन; किम्-क्या; करिष्यति-करेगा।
बुद्धिमान लोग भी अपनी प्रकृति ( स्वभाव और गुणों ) के अनुसार कार्य करते हैं क्योंकि सभी जीव अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से प्रेरित होते हैं, फिर किसी को दमन से क्या प्राप्त हो सकता है॥3 .33॥
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥3 .34।।
इन्द्रियस्य – इन्द्रिय का; इन्द्रियस्य अर्थ — इन्द्रियों के विषयों में; राग-आसक्ति; द्वेषौ-विमुखता; व्यस्थितौ- स्थित; तयोः-उनके; न – कभी नहीं; वशम् – नियंत्रित करना; आगच्छेत्—आना चाहिए; तौ-उन्हें; हि-निश्चय ही; अस्य-उसके लिए; परिपन्थिनौ – शत्रु।
इन्द्रियों का इन्द्रिय विषयों के साथ स्वाभाविक रूप से राग ( आसक्ति ) और द्वेष ( विमुखता ) होता है किन्तु मनुष्य को इनके वशीभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि ये आत्म कल्याण के मार्ग के अवरोधक और शत्रु हैं॥3 .34॥
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥3 .35॥
श्रेयान्-अति श्रेष्ठ; स्वधर्म:-अपने निजी कर्त्तव्य; विगुणः-दोषयुक्त; परधर्मात्-अन्यों के नियत कार्यों की अपेक्षा; स्व अनुण्ठितात्–निपुणता के साथ; स्वधर्मे-अपने निश्चित कर्त्तव्यों से; निधनम्-मृत्युः श्रेयः-उत्तम; परधर्म:-अन्यों के लिए नियत कर्त्तव्य; भयआवहः-भयावह।
अपने नियत कार्यों को दोष युक्त सम्पन्न करना अन्य के निश्चित कार्यों को समुचित ढंग से करने से कहीं अधिक श्रेष्ठ होता है। वास्तव में अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मरना दूसरों के जोखिम से युक्त भयावह मार्ग का अनुसरण करने से श्रेयस्कर होता है॥3.35॥
36-43 पापके कारणभूत कामरूपी शत्रु को नष्ट करने का उपदेश
अर्जुन उवाच।
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥3 .36॥
अर्जुनः उवाच-अर्जुन ने कहा; अथ–तव; केन-किस के द्वारा; प्रयुक्तः-प्रेरित; अयम्-कोई; पापम्-पाप; चरति-करता है। पुरुषः-व्यक्ति; अनिच्छन्–बिना इच्छा के; अपि -यद्यपि ; वार्ष्णेय-वृष्णि वंश से संबंध रखने वाले, श्रीकृष्ण; बलात्-बलपूर्वक; इव-मानो; नियोजितः-संलग्न होना।
अर्जुन ने कहा! हे वृष्णिवंशी श्रीकृष्ण! इच्छा न होते हुए भी मनुष्य पापजन्य कर्मों की ओर क्यों प्रवृत्त होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसे बलपूर्वक पाप कर्मों में लगाया जाता है अर्थात यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलपूर्वक लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है॥3 .36॥
श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥3 . 37।।
श्री-भगवान् उवाच-श्रीभगवान् ने कहा; कामः-काम-वासना; एषः-यह; क्रोधः-क्रोध; एषः-यह; रजो-गुण-रजस गुण; समुद्भवः-उत्पन्न; महा-अशनः-सर्वभक्षी; महापाप्मा-महान पापी; विद्धि-समझो; एनम् -इसे; इह-भौतिक संसार में; वैरिणम्-सर्वभक्षी शत्रु।
परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं- काम वासना जो रजोगुण के सम्पर्क में आने से उत्पन्न होती है और बाद में क्रोध का रूप धारण कर लेती है, इसे भोगों से कभी न अघाने वाले महान पापी के रूप में संसार का सर्वभक्षी शत्रु समझो।॥3 .37॥
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥3 .38॥
धूमेन- धुएं से; आवियते-आच्छादित हो जाती है; वहिन:-अग्नि; यथा—जिस प्रकार; आदर्श:-दर्पण; मलेन-धूल से; च-भी; यथा – जिस प्रकार; उलबेना –गर्भाशय द्वारा; आवृतः-ढका रहता है, अप्रकट ; गर्भ:-भ्रूण; तथा – उसी प्रकार; तेन–काम से; इदम् – यह; आवृतम्-आवरण है।
जैसे अग्नि धुएँ से ढकी रहती है, दर्पण धूल से आवृत रहता है तथा भ्रूण गर्भाशय से ढका रहता है, उसी प्रकार से कामनाओं के कारण मनुष्य के ज्ञान पर आवरण पड़ा रहता है।॥3 .38॥
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥3 . 39॥
आवृतम्-आच्छादित होना; ज्ञानम्-ज्ञान; एतेन–इससे; ज्ञानिन–ज्ञानी पुरुष; नित्यवैरिणा-कट्टर शत्रु द्वारा; कामरूपेण-कामना के रूप में; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; दुष्पूरेण- संतुष्ट न होने वाली; अनलेन-अग्नि के समान; च-भी।
हे कुन्ती पुत्र! इस प्रकार ज्ञानी पुरुष का ज्ञान भी अतृप्त कामना रूपी नित्य शत्रु से आच्छादित रहता है जो कभी संतुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है।॥3 .39॥
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥3 .40॥
इन्द्रियाणि-इन्द्रियाँ; मन:-मन; बुद्धिः-बुद्धि; अस्य-इसका; अधिष्ठानम्-निवासस्थान; उच्यते-कहा जाता है; एतैः-इनके द्वारा; विमोहयति–मोहित करती है; एषः-यह काम-वासना; ज्ञानम्- ज्ञान को; आवृत्य-ढक कर; देहिनम्-देहधारी को।
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके ( कामना के ) निवासस्थान कहे जाते हैं जिनके द्वारा ही यह काम वासना देहधारियों के ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करती है। ॥3 .40॥
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥3 .41॥
तस्मात्- इसलिए; त्वम्-तुम; इन्द्रियाणि-इन्द्रियों को; आदौ–प्रारम्भ से; नियम्य-नियंत्रित करके; भरत-ऋषभ-भरतवंशियों में श्रेष्ठ, अर्जुन; पाप्मानम्-पाप; प्रजहि-वश में करो; हि-निश्चय ही; एनम्-इस; ज्ञान-ज्ञान; विज्ञान-वास्तविक बोध; नाशनम्- विनाशक।
इसलिए हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ! प्रारम्भ से ही इन इन्द्रियों को नियंत्रण में रखकर इस ज्ञान और आत्मबोध का नाश करने वाले महान पापी ( काम ) कामना रूपी शत्रु को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल अर्थात नष्ट कर डाल ॥3 .41॥
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥3 .42॥
इन्द्रियाणि-इन्द्रियाँ; पराणि-बलवान; आहु:-कहा जाता है; इन्द्रियेभ्यः-इन्द्रियों से श्रेष्ठ; परम – सर्वोच्च; मनः-मन; मनस:-मन की अपेक्षा; तु–लेकिन; परा-श्रेष्ठ; बुद्धिः-बुद्धि; यः-जो; बुद्धेः-बुद्धि की अपेक्षा; परत:-अधिक श्रेष्ठ; तु-किन्तुः सः-वह आत्मा।
इन्द्रियां ( स्थूल शरीर) से परे ( श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म ) हैं। इन इन्द्रियों से परे मन है, मन से भी परे बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त परे और सर्वोच्च है वह है आत्मा ॥3 .42॥
एवं बुद्धः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रु महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥3 .43॥
एवम्-इस प्रकार से; बुद्धेः-बुद्धि से; परम- श्रेष्ठ; बुद्ध्वा-जानकर; संस्तभ्य-वश में करके; आत्मानम्- आत्मा (इन्द्रिय, मन और बुद्धि); आत्मना-बुद्धि द्वारा; जहि-वध करना, दमन करना , मार डालना ; शत्रुम्-शत्रु का; महाबाहो-महाबलशाली; कामरूपम्-कामना रूपी; दुरासदम्- दुर्जेय, अजेय।
इस प्रकार हे महाबाहु! आत्मा को लौकिक बुद्धि से परे अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ जानकर अपनी इन्द्रिय, मन और बुद्धि पर संयम रखो अर्थात बुद्धि के द्वारा आत्मा ( मन ) को वश में कर के आत्मज्ञान द्वारा कामरूपी दुर्जेय शत्रु का दमन करो ॥3 .43॥
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥3॥
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