Krishna Uddhav samvad | कृष्ण उद्धव संवाद | उद्धव-गीता | उद्धव सन्देश
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जब श्री कृष्ण के इस लोक से प्रस्थान करने का समय आया तब इंद्र आदि देवता गण श्री कृष्ण के पास जाते हैं और उनसे वैकुंठ लौटने का अनुरोध करते हैं। भगवान कृष्ण ने उन्हें आश्वासन दिया कि वह अति शीघ्र अपनी लीला सम्पूर्ण कर अपने गोलोक धाम जाएंगे ।
भगवान कृष्ण अपने धाम जाने से पूर्व उद्धव को प्रवचन देते हैं। संक्षेप में श्री कृष्ण और उद्धव के मध्य यह संवाद भगवद गीता जैसा ही है। गीता में जहाँ अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करने तथा आत्म ज्ञान के विषय में समझाया गया है यहां उद्धव गीता में दार्शनिक सिद्धांतों को सौहार्दपूर्ण ढंग से समझाया गया है। उद्धव गीता भी उद्धव महाराज और श्री कृष्ण के बीच प्रश्न और उत्तर का संग्रह है। इसमें उद्धव महाराज अपने अनेको संशयों और संदेहों का समाधान श्री कृष्ण से पूछ रहे हैं और श्री कृष्ण उन प्रश्नों का अत्यंत सरल और तर्क पूर्ण उत्तर दे रहे हैं।
उद्धव बचपन से ही सारथी के रूप में श्रीकृष्ण की सेवा में रहे, किन्तु उन्होंने श्री कृष्ण से कभी न तो कोई इच्छा जताई और न ही कोई वरदान माँगा।
जब कृष्ण अपने अवतार काल को पूर्ण कर गो लोक जाने को तत्पर हुए, तब उन्होंने उद्धव को अपने पास बुलाया और कहा- “प्रिय उद्धव मेरे इस ‘अवतार काल’ में अनेक लोगों ने मुझ से वरदान प्राप्त किये , परन्तु तुमने कभी कुछ नही माँगा । किन्तु अब मेरे इस संसार से प्रस्थान का समय निकट आ गया है । अति शीघ्र ही मुझे अपनी लीला का समापन कर अपने धाम लौटना होगा। तुम मुझसे कुछ भी मांगो , मैं तुम्हे अवश्य ही वह देने को तत्पर हूँ ।”
परन्तु श्री कृष्ण के इतने अनुग्रह के बाद भी उद्धव ने स्वयं के लिए कुछ नही माँगा। वे तो केवल उन शंकाओ का समाधान चाहते थे जो उनके मन में कृष्ण की शिक्षाओं और उनके कृत्य को देखकर उठ रही थी ।
उन्होंने भगवान श्री कृष्ण से पूछा- ” भगवन! महाभारत के घटनाक्रम में अनेक बातें मैं समझ नहीं पाया। आपके ‘उपदेश’ अलग रहे, जबकि आपका व्यक्तिगत जीवन कुछ अलग दिखता रहा | क्या आप मुझे इसका कारण समझाकर मेरी ज्ञान पिपासा को शांत करेंगे?”
श्री कृष्ण बोले- मैंने ही तुम्हें यह अवसर प्रदान किया है। तुम बिना किसी संकोच के मुझसे अपने सभी संदेह पूछो मैं सत्य कहता हूँ उन सभी प्रश्नों का सत्यता पूर्ण उत्तर दूंगा।
उद्धव ने प्रथम प्रश्न किया – “हे कृष्ण, सबसे पहले मुझे यह बताइये कि सच्चा मित्र कौन होता है?”
कृष्ण ने कहा- “सच्चा मित्र वह है जो आवश्यकता पड़ने पर अपने मित्र की उसके द्वारा सहायता मांगने से पहले ही सहायता करे।”
उद्धव- ” तो हे कृष्ण! आप पांडवों के अत्यंत आत्मीय प्रिय मित्र थे। उन्होंने एक आपाद बांधव के रूप में सदा आप पर पूरा भरोसा किया। और आपने भी सदैव उनकी कई आपदाओं से रक्षा भी की। हे कृष्ण! आप महान ज्ञानी हैं। आप भूत ,वर्तमान और भविष्य के ज्ञाता हैं। किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है, तो आपको नहीं लगता कि आपने उस परिभाषा के अनुसार कार्य नही किया?
आपने धर्मराज युधिष्ठिर को द्यूत (जुआ) खेलने से रोका क्यों नही? चलो ठीक है कि आपने उन्हें नहीं रोका, लेकिन आपने भाग्य को भी धर्मराज के पक्ष में भी नहीं मोड़ा। आप चाहते तो युधिष्ठिर को जिता सकते थे। आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और यहाँ तक कि स्वयं को हारने के बाद तो रोक सकते थे।
उसके बाद जब उन्होंने अपने भाईयों को दांव पर लगाना आरम्भ किया, तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे। आपने वह भी नहीं किया । उसके बाद जब दुर्योधन ने पांडवों को सदैव अच्छे सौभाग्य वाला बताते हुए द्रौपदी को दााँव पर लगाने के लिए प्रेरित किया और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लोभ दिया, कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे। अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा आप द्यूत क्रीड़ा के पासे धर्मराज के अनकुूल कर सकते थे।
इसके स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया, जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो रही थी, तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया।
लेकिन आप यह यह दावा भी कैसे कर सकते हैं? उसे एक बलवान आदमी बालों से घसीटकर भरी सभा में लाता है, और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है। एक महिला का शील क्या बचा? आपने क्या बचाया?
अगर आपने संकट के समय में अपनों की सहायता नहीं की तो आपको आपाद-बांधव कैसे कहा जा सकता है? बताईए, आपने यदि संकट के समय ही सहायता नहीं की तो क्या लाभ ? क्या यही धर्म है?” इन प्रश्नों को पछूते-पूछते उद्धव का गला रुंध गया और उनकी आँखों से आाँसू बहने लगे।
(ये केवल उद्धव के प्रश्न नहीं हैं। महाभारत पढ़ते समय हर एक के मनोमस्तिष्क में ये सवाल उठते हैं! अतः उद्धव ने हम सब जान सामान्य लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण से उक्त प्रश्न किये; जिस से भविष्य में किसी को भी इस प्रकार के संदेह न हों )
भगवान श्रीकृष्ण मस्कुराते हुए बोले- “प्रिय उद्धव, यह सृष्टि का नियम है कि विवेकवान व्यक्ति ही सर्वथा विजयी होता है। उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं । यही कारण रहा कि दुर्योधन विजयी हुआ और धर्मराज पराजित हुए ।”
उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- “दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूत क्रीड़ा के लिए उपयोग किया। यही विवेक है।
धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई दुर्योधन के सामने यह प्रस्ताव रख सकते थे कि उनकी तरफ से मैं अर्थात उनका भ्राता कृष्ण द्यूत क्रीड़ा खेलेगा । जरा विचार करो कि अगर शकुनि और मैं खेलते तो कौन जीतता? पासे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार?
चलो इस बात को जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इस बात के लिए उन्हें क्षमा किया जा सकता है। लेकिन उन्होंने विवेक -शून्यता से एक और बड़ी गलती की और वह यह कि उन्होंने मुझसे प्रार्थना कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊँ , जब तक कि मुझे बुलाया न जाए। क्योंकि वे अपने दुर्भाग्य से खेल मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि मुझे पता चले कि वे जुआ खेल रहे हैं।
इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया। मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति नहीं थी। इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर प्रतीक्षा कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाये । भीम, अर्जुन , नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए । बस अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे।
अपने भाई के आदेश पर जब दुःशासन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटते हुए सभा-कक्ष में लाया, द्रौपदी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही। उसने उस सभा में उपस्थित अपने पति , अपने सभी आत्मीय जनों से सहायता के लिए पुकार लगाई परन्तु उसने मुझे याद नहीं किया। जब दुःशासन उसके वस्त्र खींचने लगा तब भी उसने मुझे नहीं पकुारा। तब भी उसे कहीं न कहीं उस विवेक हीन सभा से कुछ आशा थी कि संभवतः कोई विवेकवान पुरुष उसकी सहायता के लिए प्रस्तुत हो जाये।
उसकी बुद्धि तब जागतृ हुई, जब दुःशासन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारम्भ किया | जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर, ” हरि अभयम कृष्ण अभयम” की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा का अवसर मिला । जैसे ही मुझे पकुारा गया, मैं अविलम्ब पहुँच गया। अब इस स्थिति में मेरी गलती बताओ?”
उद्धव बोले– “कान्हा आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है ,किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई । क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ ?”
कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा- “इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे?”
कृष्ण मुस्कराये और बोले –“उद्धव इस सृष्टि में हर एक प्राणी का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है। व्यक्ति के कर्म ही उसके जीवन में होने वाली गतिविधियों का निर्धारण करते हैं। मैं न तो किसी व्यक्ति के कर्म फल को निर्धारित करता हूँ , और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूँ। मैं केवल एक ‘साक्षी’ हूँ। मैं सदैव अपने भक्त के समीप रहकर जो हो रहा है उसे देखता हूँ । यही ईश्वर का धर्म है।”
“वाह-वाह, बहुत अच्छा श्री कृष्ण! तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे समीप खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मों का निरीक्षण करते रहेंगे? हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे? आप चाहते क्या हैं कि हम भूल करते रहें? पाप की गठरी बााँधते रहें और उसका फल भुगतते रहें ? ” उलाहना देते हुए उद्धव ने पछूा ।
तब कृष्ण बोले- “उद्धव! तुम शब्दों के गहरे अर्थ को समझो। जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे समीप साक्षी के रूप में हर पल हूँ , तो क्या तुम कुछ भी गलत या बुरा कर सकोगे? तुम निश्चित रूप से कुछ भी बुरा नही कर सकोगे।
कृष्ण आगे कहते हैं कि ” जब तुम यह भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तब ही तुम मुसीबत में फंसते हो। धर्मराज का यह अज्ञान ही था कि उसने माना कि वह मेरी जानकारी के बिना जुआ खेल सकता है। अगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक के साथ हर समय साक्षी रूप में उपस्थित हूँ तो क्या खेल का रूप कुछ और नहीं होता?”
यह सुनकर उद्धव भक्ति से अभिभूत तथा मंत्र मुग्ध हो गये और बोले- “प्रभु कितना गहरा दर्शन है। कितना महान सत्य। ” प्रार्थना ” और ‘पूजा-पाठ’ से ईश्वर को अपनी सहायता के लिए बुलाना तो केवल हमारी भावना और विशवास है। परन्तु जैसे ही हम यह विश्वास करना आरंभ करते है कि ‘ईश्वर’ के मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता तब हमें साक्षी के रूप में उनकी उपस्थिति का आभास होने लगता है। भूल तब होती है, जब हम इसे भूलकर सांसारिक मोह माया में डूब जाते हैं।
संपूर्ण श्रीमद भागवद् गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी जीवन-दर्शन का ज्ञान दिया है।
सारथी का अर्थ है – मार्गदर्शक। अर्जुन के लिए सारथि बने श्रीकृष्ण वस्ततु: उसके मार्गदर्शक थे।
वह स्वयं की सामर्थ्य से यद्ध नहीं कर पा रहा था, लेकिन जैसे ही अर्जुन को परम साक्षी के रूप में भगवान कृष्ण का आभास हुआ वह ईश्वर की चेतना में विलय हो गया। यह अनुभूति थी एक शुद्ध, प्रवित्र , प्रेममय, आनंदित तथा सर्वोच्च चेतना की।
तत-त्वम-असि !
अर्थात वह तुम ही हो।
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🙏राधे राधे 🙏 धन्यवाद आपका बहुत बहुत आपने सभी लीलाये भगवानकी महिमा बहुत सुन्दर बताई है बहुत मन प्रफुलित होगया है
राधे राधे 🙏🙏 बहुत बहुत धन्यवाद! जान कर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि आप को प्रभु का लेख पसंद आया। हरे कृष्णा। ।