Narada Bhakti Sutra | नारदभक्तिसूत्रम् | नारदभक्तिसूत्र | नारद भक्ति सूत्र | Narad Bhakti sutra | Narada Bhakti sutram | Narad Bhakti Sutras | Bhakti Sutras of Narada | Narad Bhakti sutra with hindi meaning | नारद भक्ति सूत्र हिंदी अर्थ सहित |
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नारदभक्तिसूत्रम्
विष्णुस्तोत्राणि
अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः ॥१॥
अब हम भक्ति की व्याख्या करेंगे । 1
सा त्वस्मिन परमप्रेमरूपा ॥२॥
वह ( भक्ति ) ईश्वर के प्रति परम प्रेम रूपा है । 2
अमृतस्वरूपा च ॥३॥
और अमृतस्वरूपा भी है । 3
यल्लब्ध्वा पुमान्सिद्धो भवत्यमृतो भवति तृप्तो भवति ॥४॥
जिसको ( परम प्रेमस्वरूपा और अमृतस्वरूपा भक्ति को ) पाकर मनुष्य सिद्ध हो जाता है , अमर हो जाता है ( और ) तृप्त हो जाता है । 4
यत्प्राप्य ना किञ्चिद्वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति ॥५॥
जिस के ( प्रेमस्वरूपा भक्ति के ) प्राप्त होने पर मनुष्य न किसी वस्तु की इच्छा करता है , न शोक करता है , न द्वेष करता है , न किसी वस्तु में आसक्त होता है और न उसे ( विषय भोगों की प्राप्ति में ) उत्साह होता है । 5
यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवत्यात्मारामो भवति ॥६॥
जिसको ( परम प्रेम स्वरूपा भक्ति को ) जान कर ही मनुष्य उन्मत्त हो जाता है , स्तब्ध शांत हो जाता है ( और ) आत्माराम बन जाता है । 6
सा न कामयमाना निरोधरूपत्वात॥७॥
वह ( प्रेमा भक्ति ) कामनायुक्त नहीं है ; क्योंकि वह निरोध स्वरूपा है । 7
निरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यासः ॥८॥
लौकिक और वैदिक ( समस्त ) कर्मों के त्याग को निरोध कहते हैं । 8
तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च ॥९॥
उस प्रियतम भगवान में अनन्यता और उसके प्रतिकूल विषय में उदासीनता को भी निरोध कहते हैं । 9
अन्याश्रयाणां त्यागोऽनन्यता ॥१०॥
( अपने प्रियतम भगवान् को छोड़कर ) दूसरे आश्रयों के त्याग का नाम अनन्यता है । 10
लोकवेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषूदासीनता च ॥११॥
लौकिक और वैदिक कर्मों में भगवान के अनुकूल कर्म करना ही उसके प्रतिकूल विषयों में उदासीनता है । 11
भवतु निश्चयदाढ्यादूर्ध्वं शास्त्ररक्षणम् ॥१२॥
( विधि निषेध से अतीत अलौकिक प्रेम प्राप्त करने का मन में ) दृढ निश्चय हो जाने के बाद भी शास्त्र की रक्षा करनी चाहिए । अर्थात भगवद्नुकूल शास्त्रोक्त कर्म करने चाहिए । 12
अन्यथा पातित्यशङ्कया ॥१३॥
नहीं तो गिर जाने की सम्भावना है । 13
लोकोऽपि तावदेव भोजनादिव्यापारस्त्वाशरीरधारणावधि ॥१४॥
लौकिक कर्मों को भी तब तक ( वाह्य ज्ञान रहने तक ) विधिपूर्वक करना चाहिए पर भोजनादि कार्य जब तक शरीर रहेगा होते रहेंगे । 14
तल्लक्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात॥१५॥
अब नाना मतों के अनुसार उस भक्ति के लक्षण कहते हैं । 15
पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्यः ॥१६॥
पराशरनंदन श्री व्यास जी के मतानुसार भगवान् की पूजा आदि में अनुराग होना भक्ति है । 16
कथादिष्विति गर्गः ॥१७॥
श्री गर्गाचार्य जी के मत से भगवान् की कथा आदि में अनुराग होना ही भक्ति है । 17
आत्मरत्यविरोधेनेति शाण्डिल्यः ॥१८॥
शांडिल्य ऋषि के मत में आत्मरति के अविरोधी विषय में अनुराग होना ही भक्ति है । 18
नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति ॥१९॥
परन्तु देवर्षि नारद के ( हमारे ) मत में अपने सब कर्मों को भगवान के अर्पण करना और भगवान का थोड़ा सा भी विस्मरण होने में परम व्याकुल होना ही भक्ति है ।
अस्त्येवमेवम् ॥२०॥
ठीक ऐसा ही है । 20
यथा व्रजगोपिकानाम् ॥२१॥
जैसे व्रजगोपियों की ( भक्ति ) 21
तत्रापि न माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः ॥२२॥
इस अवस्था में भी ( गोपियों में ) माहात्म्य ज्ञान की विस्मृति का अपवाद नहीं है । 22
तद्विहीनं जाराणामिव ॥२३॥
उसके बिना ( भगवान को भगवान जाने बिना किया जाने वाला ऐसा प्रेम ) जारों के ( प्रेम के ) समान है । 23
नास्त्येव तस्मिंस्तत्सुखसुखित्वम् ॥२४॥
उसमें ( जार के प्रेम में ) प्रियतम के सुख से सुखी होना नहीं है । 24
सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्योऽप्यधिकतरा ॥२५॥
वह ( प्रेमरूपा भक्ति ) तो कर्म , ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठतर है । 25
फलरूपत्वात॥२६॥
क्योंकि ( वह भक्ति ) फलरूपा है । 26
ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद्दैन्यप्रियत्वाच्च ॥२७॥
ईश्वर का भी अभिमान से द्वेष भाव है और दैन्य से प्रिय भाव है । 27
तस्या ज्ञानमेव साधनमित्येके ॥२८॥
उसका ( भक्ति का ) साधन ज्ञान ही है । किन्हीं ( आचार्यों ) का ऐसा मत है । 28
अन्योऽन्याश्रयत्वमित्यन्ये ॥२९॥
दूसरे ( आचार्यों ) का मत है कि भक्ति और ज्ञान परस्पर एक दूसरे के आश्रित हैं । 29
स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमारः ॥३०॥
ब्रह्मकुमारों के ( सनत्कुमारादि और नारद के ) मत से भक्ति स्वयं फलरूपा है । 30
राजगृहभोजनादिषु तथैव दृष्टत्वात॥३१॥
राजगृह और भोजनादि में ऐसा ही देखा जाता है । 31
न तेन राजपरितोषः क्षुधशान्तिर्वा ॥३२॥
न उससे ( जान लेने मात्र से ) राजा की प्रसन्नता होगी , न क्षुधा मिटेगी । 32
तस्मात्सैव ग्राह्या मुमुक्षुभिः ॥३३॥
अतएव ( संसार के बंधन से ) मुक्त होने की इच्छा रखने वालों को भक्ति ही ग्रहण करनी चाहिए । 33
तस्याः साधनानि गायन्त्याचार्याः ॥३४॥
आचार्यगण उस भक्ति के साधन बतलाते हैं । 34
तत्तु विषयत्यागात्सङ्गत्यागाच्च ॥३५॥
वह ( भक्ति – साधन ) विषय त्याग और संग त्याग से संपन्न होता है । 35
अव्यावृत्तभजनात्१२ ॥३६॥
अखंड भजन से ( भक्ति का साधन ) संपन्न होता है । 36
लोकेऽपि भगवद्गुणश्रवणकीर्तनात॥३७॥
लोक समाज में भी भगवद्गुण श्रवण और कीर्तन से ( भक्ति – साधन ) संपन्न होता है । 37
मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद्वा ॥३८॥
परन्तु ( प्रेम भक्ति की प्राप्ति का साधन मुख्यतया ( प्रेमी ) महापुरुषों की कृपा से अथवा भगवत्कृपा के लेशमात्र से होता है । 38
महत्सङ्गस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च ॥३९॥
परन्तु महापुरुषों का संग दुर्लभ , अगम्य और अमोघ है । 39
लभ्यतेऽपि तत्कृपयैव ॥४०॥
उस ( भगवान ) की कृपा से ही ( महापुरुषों का ) संग भी मिलता है । 40
तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात॥४१॥
क्योंकि भगवान में और उनके भक्त में भेद का अभाव है । 41
तदेव साध्यतां तदेव साध्यताम् ॥४२॥
( अतएव ) उस ( महत्सङ्ग ) की ही साधना करो , उसी की साधना करो । 42
दुःसङ्गः सर्वथैव त्याज्यः ॥४३॥
दुःसंग का सदैव ही त्याग करना चाहिए । 43
कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशबुद्धिनाशसर्वनाशकारणत्वात॥४४॥
क्योंकि वह ( दुःसंग ) काम , क्रोध , मोह , स्मृतिभ्रंश , बुद्धि नाश एवं सर्वनाश का कारण है । 44
तरङ्गायिता अपीमे सङ्गात्समुद्रायन्ति ॥४५॥
ये ( कामक्रोधादि ) पहले तरङ्ग की तरह ( क्षुद्र आकार में ) आकार भी ( दुःसंग से विशाल ) समुद्र का आकार धारण कर लेते हैं । 45
कस्तरति कस्तरति मायां यः सङ्गं त्यजति यो महानुभावं सेवते निर्ममो भवति ॥४६॥
( प्रश्न ) कौन तरता है ? ( दुस्तर ) माया से कौन तरता है ? ( उत्तर ) जो सब संगों का परित्याग करता है , जो महानुभावों की सेवा करता है और जो ममता रहित होता है । 46
यो विविक्तस्थानं सेवते, यो लोकबन्धमुन्मूलयति निस्त्रैगुण्यो भवति, यो योगक्षेमं त्यजति ॥४७॥
जो निर्जन स्थान में निवास करता है , जो लौकिक बंधनों को तोड़ डालता है , जो तीनों गुणों से परे हो जाता है और जो योग तथा क्षेम का परित्याग कर देता है । 47
यः कर्मफलं त्यजति, कर्माणि संन्यस्यति ततो निर्द्वन्द्वो भवति ॥४८॥
जो कर्मफल का त्याग करता है , कर्मों का भी त्याग करता और तब सब कुछ त्याग कर जो निर्द्वन्द्व हो जाता है । 48
यो वेदानपि सन्न्यस्यति, केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते ॥४९॥
जो वेदों का भी भली भाँति परित्याग कर देता है और जो अखण्ड , असीम भगवत्प्रेम प्राप्त कर लेता है । 49
स तरति स तरति लोकांस्तारयति ॥५०॥
वह तरता है , वह तरता है , वह लोगों को तार देता है । 50
अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् ॥५१॥
प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है । 51
मूकास्वादनवत॥५२॥
गूँगे के स्वाद की तरह । 52
प्रकाश्यते क्वापि पात्रे ॥५३॥
किसी विरले योग्य पात्र में ( प्रेमी भक्त में ) ऐसा प्रेम प्रकट भी होता है । 53
गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम् ॥५४॥
यह प्रेम गुणरहित है , कामना रहित है , प्रतिक्षण बढ़ता रहता है , विच्छेद रहित है , सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर है और अनुभव रूप है । 54
तत्प्राप्य तदेवावलोकयति, तदेव शृनोति, तदेव भाषयति, तदेव चिन्तयति ॥५५॥
इस प्रेम को पाकर प्रेमी इस प्रेम को ही देखता है , प्रेम को ही सुनता है , प्रेम का ही वर्णन करता है और प्रेम का ही चिंतन करता है । 55
गौणी त्रिधा गुणभेदादार्तादिभेदाद्वा ॥५६॥
गौणी भक्त गुण भेद से अथवा आर्तादि भेद से तीन प्रकार की होती है । 56
उत्तरस्मादुत्तरस्मात्पूर्वपूर्वा श्रेयाय भवति ॥५७॥
( उनमें ) उत्तर – उत्तर – क्रम से पूर्व – पूर्व – क्रम की भक्ति कल्याणकारिणी होती है । 57
अन्यस्मात्सौलभ्यं भक्तौ ॥५८॥
अन्य सबकी अपेक्षा भक्ति सुलभ है । 58
प्रमाणान्त्रस्यानपेक्षत्वात्स्वयं प्रमाणत्वात॥५९॥
क्योंकि भक्ति स्वयं प्रमाण रूप है , इसके लिए अन्य प्रमाण की आवश्यकता है । 59
शान्तिरूपात्परमानन्दरूपाच्च ॥६०॥
भक्ति शान्तिरूपा और परमानन्दरूपा है । 60
लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात॥६१॥
लोकहानि की चिंता ( भक्त को ) नहीं करनी चाहिए , क्योंकि वह ( भक्त ) अपने आपको और लौकिक , वैदिक ( सब प्रकार के ) कर्मों को भगवान के अर्पण कर चुका है । 61
न तत्सिद्धौ लोकव्यवहारो हेयः किन्तु फलत्यागस्तत्साधनं च कार्यमेव ॥६२॥
( परन्तु ) जब तक भक्ति में सिद्धि न मिले तब तक लोकव्यवहार का त्याग नहीं करना चाहिए , किन्तु फल त्याग कर ( निष्काम भाव से ) उस भक्ति का साधन करना चाहिए । 62
स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्रं न श्रवणीयम् ॥६३॥
स्त्री , धन , नास्तिक और बैरी का चरित्र नहीं सुनना चाहिए । 63
अभिमानदम्भादिकं त्याज्यम् ॥६४॥
अभिमान , दम्भ आदि का त्याग करना चाहिए । 64
तदर्पिताखिलाचारः सन्कामक्रोधाभिमानादि तस्मिन्नेव करणीयम् ॥६५॥
सब आचार भगवान् के अर्पण कर चुकने पर यदि काम , क्रोध , अभिमानादि हों तो उन्हें भी उस ( भगवान ) के प्रति ही करना चाहिए । 65
त्रिरूपभङ्गपूर्वकं नित्यदास्यनित्यकाञ्ताभजनात्मकं प्रेम कार्यं प्रेमैव कार्यम् ॥६६॥
तीन ( स्वामी , सेवक और सेवा ) रूपों को भङ्ग कर नित्य दास भक्ति से या नित्य कान्ता भक्ति से प्रेम ही करना चाहिए । 66
भक्ता एकान्तिनो मुख्याः ॥६७॥
एकांत ( अनन्य ) भक्त ही श्रेष्ठ है । 67
कण्ठावरोधरोमाञ्चाश्रुभिः परस्परं लपमानाः पावयन्ति कुलानि पृथिवीं च ॥६८॥
ऐसे अनन्य भक्त कण्ठावरोध , रोमाञ्च और अश्रुयुक्त नेत्र वाले होकर परस्पर सम्भाषण करते हुए अपने कुलों को और पृथ्वी को पवित्र करते हैं । 68
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि सुकर्मीकुर्वन्ति कर्माणि सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि ॥६९॥
ऐसे भक्त तीर्थों को सुतीर्थ , कर्मों को सुकर्म और शास्त्रों को सत्- शास्त्र कर देते हैं । 69
तन्मयाः ॥७०॥
( क्योंकि ) वे तन्मय हैं । 70
मोदन्ते पितरो नृत्यन्ति देवताः सनाथाश्चेयं भूर्भवति ॥७१॥
( ऐसे भक्तों का आविर्भाव देखकर ) पितरगण प्रमुदित होते हैं , देवता नाचने लगते हैं और यह पृथ्वी सनाथा हो जाती है । 71
नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेदः ॥७२॥
उनमें ( भक्तों में ) जाति , विद्या , रूप , कुल , धन और क्रिया आदि का भेद नहीं है । 72
यतस्तदीयाः ॥७३॥
क्योंकि ( सब भक्त ) उनके ( भगवान के ) ही हैं । 73
वादो नावलम्ब्यः ॥७४॥
( भक्त को ) वाद – विवाद नहीं करना चाहिए । 74
बाहुल्यावकाशत्वादनियतत्वाच्च ॥७५॥
क्योंकि ( वाद – विवाद में ) बाहुल्य का अवकाश है और वह अनियत है । 75
भक्तिशास्त्राणि मननीयानि तद्बोधककर्माणि करणीयानि ॥७६॥
( प्रेमा भक्ति की प्राप्ति के लिए ) भक्ति शास्त्र का मनन करते रहना चाहिए और ऐसे कर्म भी करने चाहिए जिनसे भक्ति की वृद्धि हो । 76
सुखदुःखेच्छालाभादित्यक्ते काले प्रतीक्षमाणे क्षणार्धमपि व्यर्थं न नेयम् ॥७७॥
सुख , दुःख , इच्छा , लाभ आदि का ( पूर्ण ) त्याग हो जाये ऐसे काल की बाट देखते हुए आधा क्षण भी ( भजन बिना ) व्यर्थ नहीं बताना चाहिए । 77
अहिंसासत्यशौचदयास्तिक्यादि चारित्र्याणि परिपालनीयानि ॥७८॥
( प्रेमा भक्ति के साधक को ) अहिंसा , सत्य , शौच , दया , आस्तिकता आदि आचरणीय सदाचारों का भलीभाँति पालन करना चाहिए । 78
सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तैर्भगवानेव भजनीयः ॥७९॥
सब समय , सर्वभाव से निश्चिन्त होकर ( केवल ) भगवान् का ही भजन करना चाहिए । 79
स कीर्त्यमानः शीघ्रमेवाविर्भवत्यनुभावयति भक्तान॥८०॥
वे भगवान ( प्रेमपूर्वक ) कीर्तित होने पर शीघ्र ही प्रकट होते हैं और भक्तों को अपना अनुभव करा देते हैं । 80
त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी भक्तिरेव गरीयसी ॥८१॥
तीनों ( कायिक , वाचिक , मानसिक ) सत्यों में ( अथवा तीनों कालों में सत्य भगवान की ) भक्ति ही श्रेष्ठ है , भक्ति ही श्रेष्ठ है । 81
गुणमाहात्म्यास्क्तिरूपासक्तिपूजासक्तिस्मरणासक्तिदास्यासक्तिसख्यासक्तिवात्सल्यासक्तिकान्तासक्तिआत्मनिवेदनासक्तितन्मयासक्तिपरमविरहासक्तिरूपैकधाप्येकादशधा भवति ॥८२॥
यह प्रेमरूपा भक्ति एक होकर भी १। गुणमाहात्म्यसक्ति , २। रूपसक्ति , ३। पूजासक्ति , ४। स्मरणसक्ति , ५। दास्यासक्ति , ६। सख्यासक्ति , ७। कान्तासक्ति , ८। वात्सल्यासक्ति , ९। आत्मनिवेदनासक्ति १०। तन्मयासक्ति और परमविरहासक्ति – इस प्रकार से ग्यारह प्रकार की होती है । 82
इत्येवं वदन्ति जनजल्पनिर्भया एकमताः कुमारव्यासशुकशाण्डिल्यगर्गविष्णुकौण्डिल्यचेषोद्धवारुणिबलिहनूमद्विभीषणादयो भक्ताचार्याः ॥८३॥ ॥
कुमार ( सनत्कुमार आदि ) , वेदव्यास , शुकदेव , शांडिल्य , गर्ग , विष्णु , कौण्डिन्य , शेष , उद्धव , आरुणि , बलि , हनुमान , विभीषण आदि भक्ति तत्त्व के आचार्यगण लोकों की निंदा – स्तुति का कुछ भी भय नहीं कर ( एकमत ) से ऐसा ही कहते हैं ( कि भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है ) 83
य इदं नारदप्रोक्तं शिवानुशासनं विश्वसिति श्रद्धत्ते स भक्तिमान्भवति स प्रेष्ठं लभते स प्रेष्ठं लभते इति ॥८४॥
जो इस नारदोक्त शिवानुशासन में विश्वास और श्रद्धा करते हैं , वे प्रियतम को पाते हैं , वे प्रियतम को पाते हैं । 84
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