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चौराष्टकम प्रेम और भक्ति से पूर्ण एक सुंदर प्रार्थना है, जिसकी रचना भगवान कृष्ण के परम भक्त बिल्व मंगल ठाकुर ने की है। इस प्रार्थना में उन्होंने श्री कृष्ण को चोर की उपाधि दी है और उनकी तुलना एक सर्वश्रेष्ठ चोर से की है जो अपने भक्तों के दुःख , कष्ट , पाप , धन , ऐश्वर्या सब चुरा लेते हैं और इसके बदले में अपने भक्तों को मोक्ष , स्वयं की अनंतकालीन भक्ति और प्रेम प्रदान करते हैं । कहते हैं कि जब जीव को भक्ति प्राप्त होती है तभी जीव को प्रभु की प्राप्ति होती है और उसे परमगति मिलती है । बिना भक्ति के सद्गति मिलना अति दुर्लभ है । जिस जन्म में जीव को भक्ति की प्राप्ति होती है वही उसका आखिरी जन्म होता है क्योंकि भक्ति प्राप्त होने के बाद जीव को सिवाय प्रभु के कुछ और चाहिए ही नहीं होता , केवल और केवल प्रभु ही उसका अंतिम आश्रय होते हैं । इस भौतिक जगत की वस्तुओं , प्रलोभनों , इच्छाओं से उसका दूर दूर तक कोई नाता नहीं होता । उसे तो केवल और केवल अपने प्रभु से प्रेम होता है और उसे केवल वही चाहिए होते हैं । तो ऐसे जीव को मोक्ष कैसे न प्राप्त हो । इसीलिए कहते हैं कि जब जीव पर प्रभु की असीम कृपा होती तब वे उसे अपनी भक्ति प्रदान करते हैं ।
पुरुषोत्तम मास या अधिक मास या मलमास एक विशेष महीना है जो लगभग हर 3 साल में आता है। यह मास भगवान श्रीकृष्ण को अत्यंत प्रिय है। हरे कृष्ण महामंत्र का जाप, व्रत, दान और शास्त्रों का श्रवण इस माह में अपार आध्यात्मिक लाभ देता है। ऐसा माना जाता है कि श्री भगवत गीता के 15वें अध्याय का पाठ और चौराष्टकम और जगन्नाथष्टकम का पाठ करने से भक्तों के पिछले जन्मों के सभी पाप धुल जाते हैं।
व्रजे प्रसिद्धं नवनीतचौरं
गोपाङ्गनानां च दुकूलचौरम् ।
अनेकजन्मार्जितपापचौरं
चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि ॥ १॥
मैं उन चोरों में सर्वश्रेष्ठ चोर को प्रणाम करता हूँ जो व्रज में माखनचोर के नाम से विख्यात है और जो गोपियों के वस्त्र चुराता है तथा जो उनकी शरण में आने वालों के अनेक जन्मों के पापों को चुराता है।।1।।
I offer obeisances to that foremost of thieves – who is famous in Vraja as the butter-thief and He who steals the gopis’ clothes, and who, for those who take shelter of Him, steals the sins which have been accrued over many lifetimes.
श्रीराधिकाया हृदयस्य चौरं
नवाम्बुदश्यामलकान्तिचौरम् ।
पदाश्रितानां च समस्तचौरं
चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि ॥ २॥
मैं चोरों में सबसे सर्वश्रेष्ठ चोर को प्रणाम करता हूँ – जो श्रीमती राधिका के हृदय को चुरा लेता है, जो एक मेघ की श्यामल चमक को चुरा लेता है और जो अपने चरणों का आश्रय लेने वालों के सभी पापों और कष्टों को चुरा लेता है।।2
I offer obeisances to the foremost of thieves – who steals Srimati Radhika’s heart, who steals the dark luster of a fresh raincloud, and who steals all the sins and sufferings of those who take shelter of His feet.
अकिञ्चनीकृत्य पदाश्रितं यः
करोति भिक्षुं पथि गेहहीनम् ।
केनाप्यहो भीषणचौर ईदृग्-
दृष्टःश्रुतो वा न जगत्त्रयेऽपि ॥ ३॥
वे अपने समर्पित भक्तों की श्री को चुरा लेते हैं और उनको कंगाल और भटकते, बेघर भिखारियों में बदल देते हैं – अहा! ऐसा खूंखार चोर तीनों लोकों में न कभी देखा और न ही सुना।।३
( किन्तु उसके बदले में वे स्वयं को अपने भक्त को अर्पण कर देते है , अपने भक्त के आधीन हो जाते हैं और अपने भक्त को अविरल भक्ति और प्रेम प्रदान करते हैं । इसके साथ ही अपने भक्त को निर्मल , अचल , अटल सुयश , कीर्ति , मान – सम्मान , प्रतिष्ठा देते हैं कि सदा के लिए प्रभु के भक्तों का नाम अजर –अमर हो जाता हैं । जब – जब प्रभु का नाम लिया जाता है उनके भक्तों का नाम बरबस ही ह्रदय , मन और जिह्वा पे आ जाता है । वे स्वयं के नाम से अधिक अपने भक्तो का नाम लेने से , उनका संग करने से प्रसन्न होते हैं । वे सदा अपने भक्तों क पीछे – पीछे चलते हैं । श्री से भी अधिक वे अपने भक्तो को प्रेम करते हैं । ऐसा कौन सा प्रभु का भक्त हुआ है आज तक जिसका नाम आदर और सम्मान के साथ न लिया जाता हो । प्रभु और उनके भक्तों की महिमा गाते – गाते तो युग बीत जाएंगे परन्तु उनकी महिमा का , उनकी असीम कृपा का कोई अंत नहीं ।)
He turns His surrendered devotees into paupers and wandering, homeless beggars – aha! such a fearsome thief has never been seen or heard of in all the three worlds.
यदीय नामापि हरत्यशेषं
गिरिप्रसारान् अपि पापराशीन् ।
आश्चर्यरूपो ननु चौर ईदृग्
दृष्टः श्रुतो वा न मया कदापि ॥ ४॥
उनके नाम का उच्चारण मात्र ही पापों के पहाड़ रुपी राशि को साफ कर देता है – ऐसा आश्चर्यजनक रूप से अद्भुत चोर मैंने कहीं नहीं देखा या सुना है! 4
The mere utterance of His name purges one of a mountain of sins – such an astonishingly wonderful thief I have never seen or heard of anywhere!
धनं च मानं च तथेन्द्रियाणि
प्राणांश्च हृत्वा मम सर्वमेव ।
पलायसे कुत्र धृतोऽद्य चौर
त्वं भक्तिदाम्नासि मया निरुद्धः ॥ ५॥
हे चोर! मेरा धन, मेरा मान, मेरी इन्द्रियाँ, मेरा जीवन और मेरा सर्वस्व हरकर, तू कहाँ भाग सकता है? मैंने तुम्हें अपनी भक्ति की रस्सी से पकड़ लिया है।।5
O Thief! Having stolen my wealth, my honor, my senses, my life and my everything, where can You run to? I have caught You with the rope of my devotion.
छिनत्सि घोरं यमपाशबन्धं
भिनत्सि भीमं भवपाशबन्धम् ।
छिनत्सि सर्वस्य समस्तबन्धं
नैवात्मनो भक्तकृतं तु बन्धम् ॥ ६॥
आप यमराज के भयानक फंदे को काटते हैं, आप भौतिक अस्तित्व के भयानक फंदे को काटते हैं और आप सभी के भौतिक बंधन को काटते हैं लेकिन आप अपने स्वयं के प्रेमी भक्तों द्वारा बांधी गई गांठ को काटने में असमर्थ हैं।।6
You cut the terrible noose of Yamaraja, You sever the dreadful noose of material existence, and You slash everyone’s material bondage, but You are unable to cut the knot fastened by Your own loving devotees.
मन्मानसे तामसराशिघोरे
कारागृहे दुःखमये निबद्धः ।
लभस्व हे चौर! हरे! चिराय
स्वचौर्यदोषोचितमेव दण्डम् ॥ ७॥
हे मेरा सब कुछ चुराने वाले! हे चोर! आज मैंने अपने अज्ञान रूपी घोर अन्धकार से अत्यन्त भयानक हृदय रूपी कारागार में आपको बन्दी बनाया है और आप वहाँ बहुत काल तक अपने चोरी के अपराध का उचित दण्ड भोगते रहेंगे ।।7
O stealer of my everything! O Thief! Today I have imprisoned You in the miserable prison-house of my heart which is very fearful due to the terrible darkness of my ignorance, and You will remain there for a very long time, receiving appropriate punishment for Your crimes of thievery!
कारागृहे वस सदा हृदये मदीये
मद्भक्तिपाशदृढबन्धननिश्चलः सन् ।
त्वां कृष्ण हे! प्रलयकोटिशतान्तरेऽपि
सर्वस्वचौर! हृदयान् न हि मोचयामि ॥ ८॥
हे कृष्ण, मेरे सर्वस्व के चोर! मेरी भक्ति का फंदा सदा कसता रहता है, इसलिए तुम मेरे हृदय रूपी कारागृह में निवास करते रहोगे क्योंकि मैं तुम्हें करोड़ों कल्पों तक मुक्त नहीं करूंगा।।8
O Krsna, thief of my everything! The noose of my devotion remaining forever tight, therefore You will continue to reside in the prison-house of my heart because I will not release You for millions of eon.
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