ब्रह्मा जी के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति| ब्रह्मा जी के द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण द्वारा ब्रह्मा जी का मोह भंग| श्रीमदभागवतम दशम स्कंध , अध्याय 14| Brahma Ji ke dvara Shri Krishn Stuti| Shri Krishn Stuti| Krishna Stuti | Shri Krishna Stuti by Lord Brahma | Shri krishn Stuti in hindi | Shri Krishn Stuti Hindi Meaning | Shri krishn Stuti Hindi Lyrics | Brahmakrit Shri Krishna Stuti| ब्रह्मा कृत श्री कृष्ण स्तुति | Lord Krishna Stuti composed by Lord Brahma|Shri krishn Stuti Hindi Lyrics | Lord Krishna Stuti by Lord Brahma
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एक बार जब भगवान श्रीकृष्ण ग्वाल बालों के साथ गैया चराने वन में गए थे तो वे उन सबको बछड़ों सहित यमुना जी के पास ले आये। दिन अधिक चढ़ जाने के कारण सभी को भूख लगी थी। बछड़ों ने यमुना जी का पानी पिया। ग्वालबाल भगवान के साथ भोजन करने लगे। भगवान सब के बीच बैठकर अपनी विनोद भरी बातों से अपने साथी ग्वालबालों को हँसाते जा रहे थे और उन्हीं के साथ उनका जूठा खाना कहते जा रहे थे। तभी वहां ब्रह्मा जी भगवान से मिलने आये परन्तु वहां का दृश्य देख कर ब्रह्मा जी को लगा कि ये भगवान नहीं हो सकते। अगर ये भगवान होते तो ऐसे सभी का जूठा नहीं खाते। ऐसा सोच कर ब्रह्मा जी ने भगवान की परीक्षा लेने का विचार किया। उधर भोजन करते-करते ग्वालबाल भगवान की इस लीला में तन्मय हो गए। उसी समय उनके बछड़े हरी-हरी घास के लालच में बड़ी दूर निकल गए।
बछड़ों को वहां न पाकर ग्वाल बाल घबरा गए। भगवान ने कहा, “घबराओ मत! तुम सब भोजन करो मैं बछड़ों को लेकर आ जाता हूँ।” ब्रह्मा जी प्रभु के द्वारा अघासुर के मोक्ष पाने की घटना को देखकर आश्चर्य-चकित थे। उन्होंने सोचा भगवान श्रीकृष्ण की कोई और लीला भी देखनी चाहिए। ऐसा सोच कर ब्रह्मा जी पहले तो बछड़ों को ब्रह्म-लोक में ले आये, फिर जब भगवान बछड़ों को ढूँढने चले गए, तब ब्रह्मा जी ग्वालबालों को भी ब्रह्म-लोक ले आये।
भगवान श्रीकृष्ण बछड़े न मिलने पर यमुना जी के तट पर वापिस आ गए, परन्तु वहां ग्वालबालों को भी ना पाकर वह सोचने लगे कि भोजन करने के बाद सभी कहीं खेलने न चले गए हों, ऐसा सोचकर भगवान ने उनको चारों ओर ढूँढा परन्तु ग्वालबालों के भी न मिलने पर उन्होंने आखें बन्द करके ध्यान लगाया और वह समझ गए कि ये सब ब्रह्मा जी की करतूत है।
अब कुल जितने भी ग्वालबाल और बछड़े गायब हुए थे, भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं उतने ही ग्वालबाल और बछड़ों के रूप में बना लिए। सर्वात्मा भगवान स्वयं ही ग्वालबाल बन गए और स्वयं ही बछड़े बन गए। अपने आत्म-स्वरूप ग्वालबालों और अपने आत्म-स्वरूप बछड़ों के द्वारा स्वयं को घेर कर स्वयं के ही साथ अनेक प्रकार के खेल खेलते हुए ब्रज में प्रवेश किया। जिस ग्वालबाल के जो बछड़े थे, उन्हें उसी ग्वालबाल के रूप में उनके भिन्न-भिन्न घरों में चले गए। इसी तरह प्रतिदिन भगवान श्रीकृष्ण उन्हीं बछड़ों और ग्वालबालों के साथ वन में जाते और संध्या को अपने-अपने घरों में लौट जाते। इस प्रकार करते-करते एक वर्ष बीत गया।
तब तक ब्रह्मा जी ब्रह्म-लोक से ब्रज में लौट आये। उन्होंने देखा कि भगवान पहले की तरह ही ग्वालबालों के साथ क्रीड़ा कर रहे हैं। वह सोचने लगे कि गोकुल में जितने भी ग्वालबाल और बछड़े थे वो तो मेरी मायामयी शय्या पर सो रहें हैं- उनको तो मैंने अपनी माया से अचेत कर दिया था। वे तो अभी तक सचेत ही नहीं हुए हैं। फिर मेरी माया से मोहित ग्वालबाल और बछड़ों के अतिरिक्त ये उतने ही दूसरे बालक और बछड़े कहाँ से आ गये, जो एक साल से भगवान के साथ खेल रहे हैं?
ब्रह्मा जी ने आँखे बंद की और देखा वे कि वे सब ग्वालबाल और बछड़े और कोई नहीं, स्वयं श्रीकृष्ण ही हैं। यह अत्यन्त आश्चर्यमय दृश्य देखकर ब्रह्मा जी चकित रह गए। उनकी ग्यारहों इन्द्रियाँ क्षुब्ध एवं स्तब्ध रह गईं। ब्रह्मा जी उसी क्षण श्रीकृष्ण के चरणों में गिर पड़े और भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे। यह स्तुति श्रीमदभागवतम के दसवें स्कंध के अध्याय 14 में दी गयी है ।
ब्रह्मा जी भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करते हैं –
श्रीब्रह्मोवाच
नौमीड्य तेऽभ्रवपुषे तडिदम्बराय
गुञ्जावतंसपरिपिच्छलसन्मुखाय ।
वन्यस्रजे कवलवेत्रविषाणवेणु-
लक्ष्मश्रिये मृदुपदे पशुपाङ्गजाय ॥ १ ॥
“प्रभो! एकमात्र आप ही स्तुति करने योग्य हैं। मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ। आपका यह शरीर वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल है। इस पर स्थित बिजली के समान झिलमिल-झिलमिल करता हुआ पीताम्बर शोभा पाता है । आपके गले में घुँघची ( गुंजा ) की माला, कानों में मकराकृति कुण्डल तथा सिर पर मोर पंखों का मुकुट है। इन सबकी कान्ति से आपके मुख पर अनोखी छटा छिटक रही है। वक्षःस्थल पर लटकती हुई वनमाला और नन्ही-सी हथेली पर दही-भात का कौर। बगल में बेंत और सिंगी तथा कमर की फेंट में आपकी पहचान बताने वाली बाँसुरी शोभा पा रही है। आपके कमल-से सुकोमल परम सुकुमार चरण और यह गोपाल या गायें चराने वाले बालक का सुमधुर वेष। मैं और कुछ नहीं जानता। बस, मैं तो इन्हीं चरणों पर न्योछावर हूँ ॥ १ ॥
अस्यापि देव वपुषो मदनुग्रहस्य
स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि ।
नेशे महि त्ववसितुं मनसान्तरेण
साक्षात्तवैव किमुतात्मसुखानुभूते: ॥ २ ॥
“स्वयं-प्रकाश परमात्मन! आपका यह श्रीविग्रह ( रूप ) भक्तों की लालसा-अभिलाषा पूर्ण करने वाला है। यह आपकी चिन्मयी इच्छा का मूर्तिमान स्वरूप मुझ पर आपका साक्षात कृपा-प्रसाद है। मुझे अनुगृहीत करने के लिए ही अर्थात मुझ पर अपनी कृपा करने के लिए ही आपने अपना यह स्वरूप स्वयं प्रकट किया है। कौन कहता है कि आपका यह स्वरूप पंचभूतों या पंचतत्वों की रचना है? प्रभो! आपका यह स्वरूप तो अप्राकृत अर्थात प्रकृति से परे और शुद्ध सत्त्वमय है। मैं या और कोई समाधि लगाकर भी आपके इस सच्चिदानन्द-विग्रह की महिमा नहीं जान सकता। फिर आत्मानन्दानुभवस्वरूप साक्षात आपकी ही महिमा को तो कोई एकाग्र मन से भी कैसे जान सकता है।” ॥ २ ॥
ज्ञाने प्रयासमुदपास्य नमन्त एव
जीवन्ति सन्मुखरितां भवदीयवार्ताम् ।
स्थाने स्थिता: श्रुतिगतां तनुवाङ्मनोभि-
र्ये प्रायशोऽजित जितोऽप्यसि तैस्त्रिलोक्याम् ॥ ३ ॥
“प्रभो! जो लोग ज्ञान के लिए प्रयत्न न करके अपने स्थान में ही स्थित रहकर केवल सत्संग करते हैं और आपके प्रेमी संत पुरुषों के द्वारा हुई गायी हुई आपकी लीला- कथाओं का, जो उन लोगों के पास रहने से अपने-आप सुनने को मिलती है, शरीर, वाणी और मन से विनय पूर्वक सेवन करते हैं – यहाँ तक कि उसे ही अपना जीवन बना लेते हैं, उसके बिना जी ही नहीं सकते – प्रभो! यद्यपि आप पर त्रिलोकी में कोई कभी विजय नहीं प्राप्त कर सकता, फिर भी वे ( भक्त ) आप पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, आप उनके प्रेम के अधीन हो जाते हैं।” ॥ ३ ॥
श्रेय:सृतिं भक्तिमुदस्य ते विभो
क्लिश्यन्ति ये केवलबोधलब्धये ।
तेषामसौ क्लेशल एव शिष्यते
नान्यद् यथा स्थूलतुषावघातिनाम् ॥ ४ ॥
“भगवन! आपकी भक्ति सब प्रकार से कल्याण का मूलस्त्रोत – उद्गम है। जो लोग भक्ति छोड़कर केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिये श्रम करते हैं और दुःख भोगते हैं, उनको बस क्लेश-ही-क्लेश हाथ लगता है, और कुछ नहीं – जैसे थोथी भूसी कूटनेवाले को केवल श्रम ही मिलता है, चावल नहीं।” ॥ ४ ॥
पुरेह भूमन् बहवोऽपि योगिन-
स्त्वदर्पितेहा निजकर्मलब्धया ।
विबुध्य भक्त्यैव कथोपनीतया
प्रपेदिरेऽञ्जोऽच्युत ते गतिं पराम् ॥ ५ ॥
“हे अच्युत! हे अनन्त! इन लोकों में पहले भी बहुत-से योगी हुए हैं। जब उन्हें योगादि के द्वारा आपकी प्राप्ति न हुई, तब उन्होंने अपने लौकिक और वैदिक समस्त कर्म आपके चरणों में समर्पित कर दिये। उन समर्पित कर्मों से तथा आपकी लीला-कथा से उन्हें आपकी भक्ति प्राप्त हुई। उस भक्ति से ही आपके स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके उन्होंने बड़ी सुगमता से आपके परमपद की प्राप्ति कर ली।” ॥ ५ ॥
तथापि भूमन्महिमागुणस्य ते
विबोद्धुमर्हत्यमलान्तरात्मभि: ।
अविक्रियात् स्वानुभवादरूपतो
ह्यनन्यबोध्यात्मतया न चान्यथा ॥ ६ ॥
“हे अनन्त! आपके सगुण-निर्गुण दोनों स्वरूपों का ज्ञान कठिन होने पर भी निर्गुण स्वरूप की महिमा इन्द्रियों का प्रत्याहार करके अर्थात इन्द्रियों को वश में कर के शुद्ध अन्तःकरण से जानी जा सकती है। इन्द्रियों के विषयों का परित्याग करके आत्माकार अन्तःकरण का साक्षात्कार किया जाता है। यह आत्माकार घट-पट आदि रूप के समान जानने योग्य नहीं है, बल्कि आवरण का भंगमात्र है अर्थात हमारे ज्ञान पे जो अज्ञान का पर्दा पड़ा है उस परदे को हटाने का एक उपाय है। ‘यह ब्रह्म है’, ‘मैं ब्रह्म को जानता हूँ’ इस प्रकार ब्रह्म से साक्षात्कार नहीं होता , किन्तु स्वयं प्रकाश रूप से ही होता है” अर्थात जब हमारे अन्तः करण में ज्ञान का उदय होता है तभी उस ज्ञान के प्रकाश में ब्रह्म स्वयं प्रकाशित होता है ॥ ६ ॥
गुणात्मनस्तेऽपि गुणान् विमातुं
हितावतीर्णस्य क ईशिरेऽस्य ।
कालेन यैर्वा विमिता: सुकल्पै-
र्भूपांशव: खे मिहिका द्युभास: ॥ ७ ॥
“परन्तु भगवन! जिन समर्थ पुरुषों ने अनेक जन्मों तक परिश्रम करके पृथ्वी का एक-एक परमाणु, आकाश के हिमकण [ओस की बूँद] तथा आकाश में चमकने वाले नक्षत्र एवं तारों तक को गिन डाला है – उसमें भी भला, ऐसा कौन हो सकता है जो आपके सगुण स्वरूप के अनन्त गुणों को गिन सके? प्रभो! आप केवल संसार के कल्याण के लिये ही अवतीर्ण हुए हैं।” ॥ ७ ॥
तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो
भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम् ।
हृद्वाग्वपुर्भिर्विदधन्नमस्ते
जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ॥ ८ ॥
“सो भगवन! आपकी महिमा का ज्ञान कर पाना बड़ा ही कठिन है। इसलिये जो पुरुष क्षण-क्षण पर बड़ी उत्सुकता से आपकी कृपा का ही भली-भाँति अनुभव करता रहता है और प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ सुख या दुःख प्राप्त होता है उसे निर्विकार मन से भोग लेता है, एवं जो प्रेमपूर्ण हृदय, गद्गद वाणी और पुलकित शरीर से अपने को आपके चरणों में समर्पित करता रहता है – इस प्रकार जीवन व्यतीत करने वाला पुरुष ठीक वैसे ही आपके परम पद का अधिकारी हो जाता है, जैसे अपने पिता की सम्पत्ति का पुत्र!” ॥ ८ ॥
पश्येश मेऽनार्यमनन्त आद्ये
परात्मनि त्वय्यपि मायिमायिनि ।
मायां वितत्येक्षितुमात्मवैभवं
ह्यहं कियानैच्छमिवार्चिरग्नौ ॥ ९ ॥
“प्रभो! मेरी कुटिलता तो देखिये। आप अनन्त आदिपुरुष परमात्मा और मेरे-जैसे बड़े-बड़े मायावी भी आपकी माया के चक्र में हैं। फिर भी मैंने आप पर अपनी माया फैलाकर अपना ऐश्वर्य देखना चाहा!” ॥ ९ ॥
अत: क्षमस्वाच्युत मे रजोभुवो
ह्यजानतस्त्वत्पृथगीशमानिन: ।
अजावलेपान्धतमोऽन्धचक्षुष
एषोऽनुकम्प्यो मयि नाथवानिति ॥ १० ॥
” प्रभो! मैं आपके सामने हूँ ही क्या। क्या आग के सामने चिनगारी की भी कुछ गिनती है? भगवन! मैं रजोगुण से उत्पन्न हुआ हूँ। आपके स्वरूप को मैं ठीक-ठाक नहीं जानता। इसी से अपने को आपसे अलग संसार का स्वामी माने बैठा था। मैं अजन्मा जगत्कर्ता हूँ – इस मायाकृत मोह के घने अन्धकार से मैं अन्धा हो रहा था। इसलिये आप यह समझकर कि ‘यह मेरे ही अधीन है – मेरा भृत्य है, इस पर कृपा करनी चाहिए’, मेरा अपराध क्षमा कीजिये। ” ॥ १० ॥
क्वाहं तमोमहदहंखचराग्निवार्भू-
संवेष्टिताण्डघटसप्तवितस्तिकाय: ।
क्वेदृग्विधाविगणिताण्डपराणुचर्या-
वाताध्वरोमविवरस्य च ते महित्वम् ॥ ११ ॥
” मेरे स्वामी! प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी रूप आवरणों से घिरा हुआ यह ब्रह्माण्ड ही मेरा शरीर है। और आपके एक-एक रोम के छिद्र में ऐसे-ऐसे अगणित ब्रह्माण्ड उसी प्रकार उड़ते-पड़ते रहते हैं, जैसे झरोखे की जाली में से आने वाली सूर्य की किरणों में रज के छोटे-छोटे परमाणु उड़ते हुए दिखायी पड़ते हैं। कहाँ अपने परिमाण से साढ़े तीन हाथ के शरीर वाला अत्यन्त क्षुद्र मैं, और कहाँ आपकी अनन्त महिमा।” ॥ ११ ॥
उत्क्षेपणं गर्भगतस्य पादयो:
किं कल्पते मातुरधोक्षजागसे ।
किमस्तिनास्तिव्यपदेशभूषितं
तवास्ति कुक्षे: कियदप्यनन्त: ॥ १२ ॥
“वृत्तियों की पकड़ में न आने वाले परमात्मन! जब बच्चा माता के पेट में रहता है, तब अज्ञानवश अपने हाथ-पैर पीटता है; परन्तु क्या माता उसे अपराध समझती है या उसके लिये वह कोई अपराध होता है? ‘है’ और ‘नहीं है’ – इन शब्दों से कही जाने वाली कोई भी वस्तु ऐसी है क्या, जो आपकी कोख के भीतर न हो? ॥ १२ ॥
जगत् त्रयान्तोदधिसम्प्लवोदे
नारायणस्योदरनाभिनालात् ।
विनिर्गतोऽजस्त्विति वाङ्न वै मृषा
किन्त्वीश्वर त्वन्न विनिर्गतोऽस्मि ॥ १३ ॥
श्रुतियाँ कहती हैं कि जिस समय तीनों लोक प्रलयकालीन जल में लीन थे, उस समय उस जल में स्थित श्रीनारायण के नाभि कमल से ब्रह्मा का जन्म हुआ। उनका यह कहना किसी प्रकार असत्य नहीं हो सकता। तब आप ही बतलाइये, प्रभो! क्या मैं आपका पुत्र नहीं हूँ?”॥ १३ ॥
नारायणस्त्वं न हि सर्वदेहिना-
मात्मास्यधीशाखिललोकसाक्षी ।
नारायणोऽङ्गं नरभूजलायना-
त्तच्चापि सत्यं न तवैव माया ॥ १४ ॥
*”प्रभो! आप समस्त जीवों के आत्मा हैं। इसलिये आप नारायण [नार – जीव और अयन – आश्रय] हैं।
*आप समस्त जगत के और जीवों के अधीश्वर हैं, इसलिए भी नारायण [नार – जीव और अयन – प्रवर्तक] हैं।
*आप समस्त लोकों के साक्षी हैं, इसलिए भी नारायण [नार – जीव और अयन – जानने वाले] हैं।
*नर से उत्पन्न होने वाले जल में निवास करने के कारण जिन्हें नारायण [नार – जल और अयन – निवासस्थान] कहा जाता है, वे भी आपके एक अंश ही हैं। वह अंशरूप से दिखना भी सत्य नहीं हैं, आपकी माया ही है।” ॥ १४ ॥
तच्चेज्जलस्थं तव सज्जगद्वपु:
किं मे न दृष्टं भगवंस्तदैव ।
किं वा सुदृष्टं हृदि मे तदैव
किं नो सपद्येव पुनर्व्यदर्शि ॥ १५ ॥
“भगवन! यदि आपका विराट स्वरूप सचमुच उस समय जल में ही था तो मैंने उसी समय उसे क्यों नहीं देखा, जबकि मैं कमलनाल के मार्ग से उसे सौ वर्ष तक जल में ढूंढ़ता रहा? फिर मैंने जब तपस्या की, तब उसी समय मेरे हृदय में उसका दर्शन कैसे हो गया? और फिर कुछ ही क्षणों में वह पुनः क्यों नहीं दिखा , अंतर्ध्यान क्यों हो गया?” ॥ १५ ॥
अत्रैव मायाधमनावतारे
ह्यस्य प्रपञ्चस्य बहि: स्फुटस्य ।
कृत्स्नस्य चान्तर्जठरे जनन्या
मायात्वमेव प्रकटीकृतं ते ॥ १६ ॥
“माया का नाश करने वाले प्रभो! दूर की बात कौन करे – अभी इसी अवतार में आपने इस बाहर दिखने वाले जगत को अपने पेट में ही दिखला दिया, जिसे देखकर माता यशोदा चकित हो गयी थीं ॥ १६ ॥
यस्य कुक्षाविदं सर्वं सात्मं भाति यथा तथा ।
तत्त्वय्यपीह तत् सर्वं किमिदं मायया विना ॥ १७ ॥
इससे यही सिद्ध होता है कि यह सम्पूर्ण विश्व केवल आपकी माया-ही-माया है । जब आपके सहित यह सम्पूर्ण विश्व जैसा बाहर दिखता है वैसा ही आपके उदर में भी दिखा , तब क्या यह सब आपकी माया के बिना ही आप में प्रतीत हुआ? अवश्य ही यह आपकी लीला है॥ १७ ॥
अद्यैव त्वदृतेऽस्य किं मम न ते मायात्वमादर्शित-
मेकोऽसि प्रथमं ततो व्रजसुहृद्वत्सा: समस्ता अपि ।
तावन्तोऽसि चतुर्भुजास्तदखिलै: साकं मयोपासिता-
स्तावन्त्येव जगन्त्यभूस्तदमितं ब्रह्माद्वयं शिष्यते ॥ १८ ॥
“उस दिन की बात जाने दीजिये, आज की ही लीजिये। क्या आज आपने मेरे सामने अपने अतिरिक्त सम्पूर्ण विश्व को अपनी माया का खेल नहीं दिखलाया है? पहले आप अकेले थे। फिर सम्पूर्ण ग्वालबाल, बछड़े और छड़ी-छीके भी आप ही हो गये। उसके बाद मैंने देखा कि आपके वे सब रूप चतुर्भुज हैं और मेरे सहित सब-के-सब तत्त्व उनकी सेवा कर रहे हैं। आपने अलग-अलग उतने ही ब्रह्माण्डों का रूप भी धारण कर लिया था, परन्तु अब आप केवल अपरिमित अद्वितीय ब्रह्मरूप से ही शेष रह गये हैं ॥ १८ ॥
अजानतां त्वत्पदवीमनात्म-
न्यात्मात्मना भासि वितत्य मायाम् ।
सृष्टाविवाहं जगतो विधान
इव त्वमेषोऽन्त इव त्रिनेत्र: ॥ १९ ॥
जो लोग अज्ञानवश आपके स्वरूप को नहीं जानते, उन्हीं को आप प्रकृति में स्थित जीव के रूप में प्रतीत होते हैं और उन पर अपनी माया का परदा डालकर सृष्टि के सृजन के समय मेरे (ब्रह्मा) रूप से, पालन के समय अपने (विष्णु) रूप से और संहार के समय रुद्र के रूप में प्रतीत होते हैं।” ॥ १९ ॥
सुरेष्वृषिष्वीश तथैव नृष्वपि
तिर्यक्षु याद:स्वपि तेऽजनस्य ।
जन्मासतां दुर्मदनिग्रहाय
प्रभो विधात: सदनुग्रहाय च ॥ २० ॥
“प्रभो! आप सारे जगत के स्वामी और विधाता हैं। अजन्मा होने पर भी आप देवता, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और जलचर आदि योनियों में अवतार ग्रहण करते हैं, इसलिए कि इन रूपों के द्वारा दुष्ट पुरुषों का घमण्ड तोड़ दें और सत्पुरुषों पर अनुग्रह करें।” ॥ २० ॥
को वेत्ति भूमन् भगवन् परात्मन्
योगेश्वरोतीर्भवतस्त्रिलोक्याम् ।
क्व वा कथं वा कति वा कदेति
विस्तारयन्क्रीडसि योगमायाम् ॥ २१ ॥
“भगवन आप अनन्त परमात्मा और योगेश्वर हैं। जिस समय आप अपनी योगमाया का विस्तार करके लीला करने लगते हैं, उस समय त्रिलोकी में ऐसा कौन है, जो यह जान सके कि आपकी लीला कहाँ, किसलिये, कब और कितनी होती है।” ॥ २१ ॥
तस्मादिदं जगदशेषमसत्स्वरूपं
स्वप्नाभमस्तधिषणं पुरुदु:खदु:खम् ।
त्वय्येव नित्यसुखबोधतनावनन्ते
मायात उद्यदपि यत् सदिवावभाति ॥ २२ ॥
इसलिए यह सम्पूर्ण जगत स्वप्न के समान असत्य, अज्ञानरूप और दुःख-पर-दुःख देने वाला है। आप परमानन्द, परम ज्ञानस्वरूप एवं अनन्त हैं। यह जगत माया से उत्पन्न एवं विलीन होने पर भी इसमें आपकी सत्ता होने से सत्य के समान प्रतीत होता है।” ॥ २२ ॥
एकस्त्वमात्मा पुरुष: पुराण:
सत्य: स्वयंज्योतिरनन्त आद्य: ।
नित्योऽक्षरोऽजस्रसुखो निरञ्जन:
पूर्णाद्वयो मुक्त उपाधितोऽमृत: ॥ २३ ॥
“प्रभो! आप ही एकमात्र सत्य हैं। क्योंकि आप सबके आत्मा जो हैं। आप पुराण पुरुष होने के कारण समस्त जन्मादि विकारों से रहित हैं।
आप स्वयं प्रकाश है। इसलिये देश, काल और वस्तु – जो पर प्रकाश हैं – किसी प्रकार आपको सीमित नहीं कर सकते। आप उनके भी आदि प्रकाशक हैं। आप अविनाशी होने के कारण नित्य हैं। आपका आनन्द अखण्डित है। आपमें न तो किसी प्रकार का मल है और न अभाव। आप पूर्ण हैं , एक हैं। समस्त उपाधियों से मुक्त होने के कारण आप अमृतस्वरूप हैं ॥ २३ ॥
एवंविधं त्वां सकलात्मनामपि
स्वात्मानमात्मात्मतया विचक्षते ।
गुर्वर्कलब्धोपनिषत्सुचक्षुषा
ये ते तरन्तीव भवानृताम्बुधिम् ॥ २४ ॥
आपका यह ऐसा स्वरूप समस्त जीवों का ही अपना स्वरूप है। जो गुरु रूप सूर्य की सहायता से तत्त्वज्ञान रूप दिव्य दृष्टि प्राप्त करके उस दृष्टि से अपने स्वरूप के रूप में आपका साक्षात्कार कर लेते हैं, वे इस झूठे संसार-सागर को मानो पार कर जाते हैं।[संसार-सागर के झूठा होने के कारण इस को पार कर जाना भी अविचार-दशा की दृष्टि से ही है] ॥ २४ ॥
आत्मानमेवात्मतयाविजानतां
तेनैव जातं निखिलं प्रपञ्चितम् ।
ज्ञानेन भूयोऽपि च तत् प्रलीयते
रज्ज्वामहेर्भोगभवाभवौ यथा ॥ २५ ॥
जो पुरुष परमात्मा को आत्मा के रूप में नहीं जानते, उन्हें उस अज्ञान के कारण ही इस नाम रूपात्मक निखिल प्रपंच की उत्पत्ति का भ्रम हो जाता है अर्थात इस जगत रुपी प्रपंच की उत्पत्ति का भ्रम होता है । किन्तु ज्ञान होते ही इसका आत्यन्तिक प्रलय हो जाता है अर्थात इस भ्रम का अंत हो जाता है। जैसे रस्सी में भ्रम के कारण ही साँप की प्रतीति होती है अर्थात भ्रम वश रस्सी सांप लगती है और भ्रम के निवृत होते ही उसकी निवृति हो जाती है अर्थात भ्रम के दूर होते ही वह पुनः रस्सी लगने लगती है ॥ २५ ॥
अज्ञानसंज्ञौ भवबन्धमोक्षौ
द्वौ नाम नान्यौ स्त ऋतज्ञभावात् ।
अजस्रचित्यात्मनि केवले परे
विचार्यमाणे तरणाविवाहनी ॥ २६ ॥
संसार-सम्बन्धी बन्धन और उस बंधन से मोक्ष – ये दोनों ही नाम अज्ञान से ही कल्पित हैं। वास्तव में ये अज्ञान के ही दो नाम हैं। ये सत्य और ज्ञानस्वरूप परमात्मा से भिन्न अस्तित्व नहीं रखते। जैसे सूर्य में दिन और रात का भेद नहीं है, वैसे ही विचार करने पर अखण्ड चित्त स्वरूप शुद्ध आत्मतत्त्व में न तो बन्धन है और न मोक्ष ॥ २६ ॥
त्वामात्मानं परं मत्वा परमात्मानमेव च ।
आत्मा पुनर्बहिर्मृग्य अहोऽज्ञजनताज्ञता ॥ २७ ॥
भगवन! कितने आश्चर्य की बात है कि आप हैं अपने आत्मा, पर लोग आपको पराया मानते हैं। और शरीर आदि हैं पराये, किन्तु उनको आत्मा मान बैठते हैं और अपना समझने लगते हैं। और इसके बाद आपको कहीं अलग ढूंढ़ने लगते हैं। भला, अज्ञानी जीवों का यह कितना बड़ा अज्ञान है ॥ २७ ॥
अन्तर्भवेऽनन्त भवन्तमेव
ह्यतत्त्यजन्तो मृगयन्ति सन्त: ।
असन्तमप्यन्त्यहिमन्तरेण
सन्तं गुणं तं किमु यन्ति सन्त: ॥ २८ ॥
हे अनन्त! आप तो सबके अंतःकरण में ही विराजमान हैं। इसलिये सन्त लोग आपके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा है, उसका परित्याग करते हुए अपने भीतर ही आपको ढूंढ़ते हैं। क्योंकि यद्यपि रस्सी में साँप नहीं है, फिर भी उस प्रतीयमान साँप को मिथ्या निश्चय किये बिना अर्थात उस सच लगने वाले सांप को झूठा साबित किये बिना भला, कोई सत्पुरुष सच्ची रस्सी को कैसे जान सकता है? अपने भक्तजनों के हृदय में स्वयं स्फुरित होने वाले भगवन! आपके ज्ञान का स्वरूप और महिमा ऐसी ही है कि उससे अज्ञान रुपी कल्पित जगत का नाश हो जाता है ॥ २८ ॥
अथापि ते देव पदाम्बुजद्वय-
प्रसादलेशानुगृहीत एव हि ।
जानाति तत्त्वं भगवन् महिम्नो
न चान्य एकोऽपि चिरं विचिन्वन् ॥ २९ ॥
फिर भी जो पुरुष आपके युगल चरण कमलों का तनिक-सा भी कृपा-प्रसाद प्राप्त कर लेता है, उससे अनुगृहीत हो जाता है – वही आपकी सच्चिदानन्दमयी महिमा का तत्त्व जान सकता है। दूसरा कोई भी ज्ञान-वैराग्यादि साधन रूप अपने प्रयत्न से बहुत काल तक कितना भी अनुसन्धान करता रहे, वह आपकी महिमा का यथार्थ ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता ॥ २९ ॥
तदस्तु मे नाथ स भूरिभागो
भवेऽत्र वान्यत्र तु वा तिरश्चाम् ।
येनाहमेकोऽपि भवज्जनानां
भूत्वा निषेवे तव पादपल्लवम् ॥ ३० ॥
इसलिये भगवन! मुझे इस जन्म में, दूसरे जन्म में अथवा किसी पशु-पक्षी आदि के जन्म में भी ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो कि मैं आपके दासों में से कोई एक दास हो जाऊँ और फिर आपके चरणकमलों की सेवा करूँ ॥ ३० ॥
अहोऽतिधन्या व्रजगोरमण्य:
स्तन्यामृतं पीतमतीव ते मुदा ।
यासां विभो वत्सतरात्मजात्मना
यत्तृप्तयेऽद्यापि न चालमध्वरा: ॥ ३१ ॥
मेरे स्वामी! जगत के बड़े-बड़े यज्ञ सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर अब तक आपको पूर्णतः तृप्त न कर सके। परन्तु आपने ब्रज की गायों और ग्वालिनों के बछड़े एवं बालक बनकर उनके स्तनों का अमृत-सा दूध बड़े उमंग से पिया है। वास्तव में उन्हीं का जीवन सफल है, वे ही अत्यन्त धन्य हैं ॥ ३१ ॥
अहो भाग्यमहो भाग्यं नन्दगोपव्रजौकसाम् ।
यन्मित्रं परमानन्दं पूर्णं ब्रह्म सनातनम् ॥ ३२ ॥
अहो, नन्द आदि ब्रजवासी गोपों के धन्य भाग्य हैं। वास्तव में उनका अहोभाग्य है। क्योंकि परमानन्द स्वरूप सनातन परिपूर्ण ब्रह्म आप उनके अपने सगे-सम्बन्धी और सुहृद हैं ॥ ३२ ॥
एषां तु भाग्यमहिमाच्युत तावदास्ता-
मेकादशैव हि वयं बत भूरिभागा: ।
एतद्धृषीकचषकैरसकृत् पिबाम:
शर्वादयोऽङ्घ्य्रुदजमध्वमृतासवं ते ॥ ३३ ॥
हे अच्युत! इन ब्रजवासियों के सौभाग्य की महिमा तो अलग ही है । मन आदि ग्यारह इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवताओं के रूप में रहने वाले महादेव आदि हम लोग बड़े ही भाग्यवान हैं। क्योंकि इन ब्रजवासियों की मन आदि ग्यारह इन्द्रियों को प्याले बनाकर हम आपके चरण कमलों का अमृत से भी मीठा, मदिरा से भी मादक, मधुर मकरकन्द रस पान करते रहते हैं। जब उसका एक-एक इन्द्रिय से पान करके हम धन्य-धन्य हो रहे हैं, तब समस्त इन्द्रियों से उसका सेवन करने वाले ब्रजवासियों की तो बात ही क्या है ॥ ३३ ॥
तद् भूरिभाग्यमिह जन्म किमप्यटव्यां
यद् गोकुलेऽपि कतमाङ्घ्रिरजोऽभिषेकम् ।
यज्जीवितं तु निखिलं भगवान् मुकुन्द-
स्त्वद्यापि यत्पदरज: श्रुतिमृग्यमेव ॥ ३४ ॥
प्रभो! आपके प्रेमी ब्रजवासियों का सम्पूर्ण जीवन आपका ही जीवन है। आप ही उनके जीवन के एकमात्र सर्वस्व हैं। इस ब्रज के किसी वन में और विशेष करके गोकुल में किसी भी योनि में जन्म हो जाय, यही हमारे लिये बड़े सौभाग्य की बात होगी! क्योंकि यहाँ जन्म हो जाने पर आपके किसी-न-किसी प्रेमी के चरणों की धूलि अपने ऊपर पड़ ही जायगी। उनके चरणों की धूलि मिलना आपके ही चरणों की धूलि मिलना है और आपके चरणों की धूलि को तो श्रुतियाँ भी अनादि काल से अब तक ढूंढ़ ही रही हैं ॥ ३४ ॥
एषां घोषनिवासिनामुत भवान् किं देव रातेति न-
श्चेतो विश्वफलात् फलं त्वदपरं कुत्राप्ययन् मुह्यति ।
सद्वेषादिव पूतनापि सकुला त्वामेव देवापिता
यद्धामार्थसुहृत्प्रियात्मतनयप्राणाशयास्त्वत्कृते ॥ ३५ ॥
देवताओं के भी आराध्य देव प्रभो! इन ब्रजवासियों को इनकी सेवा के बदले में आप क्या फल देंगे? सम्पूर्ण फलों के फलस्वरूप! आपसे बढ़कर और कोई फल तो है ही नहीं, यह सोचकर मेरा चित्त मोहित हो रहा है। आप उन्हें अपना स्वरूप भी देकर उऋण नहीं कर सकते। क्योंकि आपके स्वरूप को तो उस पूतना ने भी अपने सम्बन्धियों – अघासुर, बकासुर आदि के साथ प्राप्त कर लिया, जिसका केवल वेश ही साध्वी स्त्री का था, पर जो हृदय से अत्यंत क्रूर थी। फिर, जिन्होंने अपने घर, धन, स्वजन, प्रिय, शरीर, पुत्र, प्राण और मन – सब कुछ आपके ही चरणों में समर्पित कर दिया है, जिनका सब कुछ आपके ही लिये है, उन ब्रजवासियों को भी वही फल देकर आप कैसे उऋण हो सकते हैं ॥ ३५ ॥
तावद् रागादय: स्तेनास्तावत् कारागृहं गृहम् ।
तावन्मोहोऽङ्घ्रिनिगडो यावत् कृष्ण न ते जना: ॥ ३६ ॥
हे सच्चिदानन्दस्वरूप श्यामसुन्दर! तभी तक राग-द्वेष आदि दोष चोरों के समान हमारा सर्वस्व अपहरण करते रहते हैं, तभी तक घर और हमारे सम्बन्धी कारावास की तरह सम्बन्ध के बन्धनों में बाँध कर रखते हैं और तभी तक मोह हमें पैरों में पड़ी बेड़ियों की तरह जकड़े रखता है – जब तक जीव आपका नहीं हो जाता ॥ ३६ ॥
प्रपञ्चं निष्प्रपञ्चोऽपि विडम्बयसि भूतले ।
प्रपन्नजनतानन्दसन्दोहं प्रथितुं प्रभो ॥ ३७ ॥
प्रभो! आप विश्व के बखेड़े और प्रपंच से सर्वथा रहित हैं, फिर भी अपने शरणागत भक्तजनों को अनन्त आनन्द का वितरण करने के लिए पृथ्वी में अवतार लेकर विश्व के समान ही लीला-विलास का विस्तार करते हैं ॥ ३७ ॥
जानन्त एव जानन्तु किं बहूक्त्या न मे प्रभो ।
मनसो वपुषो वाचो वैभवं तव गोचर: ॥ ३८ ॥
मेरे स्वामी! बहुत कहने की आवश्यकता नहीं – जो लोग आपकी महिमा जानते हैं, वे जानते रहें; मेरे मन, वाणी और शरीर तो आपकी महिमा जानने में सर्वथा असमर्थ हैं ॥ ३८ ॥
अनुजानीहि मां कृष्ण सर्वं त्वं वेत्सि सर्वदृक् ।
त्वमेव जगतां नाथो जगदेतत्तवार्पितम् ॥ ३९ ॥
सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप सबके साक्षी हैं। इसलिये आप सब कुछ जानते हैं। आप समस्त जगत के स्वामी हैं। यह सम्पूर्ण प्रपंच आप में ही स्थित है। आप से मैं और क्या कहूँ? अब आप मुझे स्वीकार कीजिये। मुझे अपने लोक में जाने की आज्ञा दीजिये। सबके मन-प्राण को अपनी रूप-माधुरी से आकर्षित करने वाले श्यामसुन्दर! आप यदुवंशरूपी कमल को विकसित करने वाले सूर्य हैं ॥ ३९ ॥
श्रीकृष्ण वृष्णिकुलपुष्करजोषदायिन्
क्ष्मानिर्जरद्विजपशूदधिवृद्धिकारिन् ।
उद्धर्मशार्वरहर क्षितिराक्षसध्रु-
गाकल्पमार्कमर्हन् भगवन्नमस्ते ॥ ४० ॥
प्रभो! पृथ्वी, देवता, ब्राह्मण और पशुरूप समुद्र की अभिवृद्धि करने वाले चन्द्रमा भी आप ही हैं। आप पाखण्डियों की धर्मरूप रात्रि का घोर अन्धकार नष्ट करने के लिये सूर्य और चन्द्रमा दोनों के ही समान हैं। पृथ्वी पर रहने वाले राक्षसों को नष्ट करने वाले आप चन्द्रमा, सूर्य आदि समस्त देवताओं के भी परम पूजनीय हैं। भगवन! मैं अपने जीवन भर, महाकल्प पर्यंत आपको नमस्कार ही करता रहूँ ॥ ४० ॥
श्रीशुक उवाच
इत्यभिष्टूय भूमानं त्रि: परिक्रम्य पादयो: ।
नत्वाभीष्टं जगद्धाता स्वधाम प्रत्यपद्यत ॥ ४१ ॥
श्री शुकदेवगोस्वामी कहते हैं – परीक्षित! संसार के रचयिता ब्रह्मा जी ने इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति की। इसके बाद उन्होंने तीन बार परिक्रमा करके उनके चरणों में प्रणाम किया और फिर अपने गंतव्य स्थान सत्यलोक में चले गये। ब्रह्माजी ने बछड़ों और ग्वालबालों को पहले ही यथास्थान पहुँचा दिया था ॥ ४१ ॥
ततोऽनुज्ञाप्य भगवान् स्वभुवं प्रागवस्थितान् ।
वत्सान् पुलिनमानिन्ये यथापूर्वसखं स्वकम् ॥ ४२ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा जी को विदा कर दिया और बछड़ों को लेकर यमुना जी के पुलिन पर आये, जहाँ वे अपने सखा ग्वालबालों को पहले छोड़ गये थे ॥ ४२ ॥
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