रैदास के दोहे अर्थ सहित | रैदास के दोहे | संत रैदास के दोहे | संत रविदास के दोहे
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रैदास नाम से विख्यात संत रविदास का जन्म सन् 1388 और निर्वाण सन् 1518 में बनारस में हुआ, ऐसा माना जाता है। रविदास या रैदास 15वीं से 16वीं शताब्दी के दौरान भक्ति आंदोलन के एक भारतीय रहस्यवादी कवि-संत थे। वे गुरु के रूप में सम्मानित एक कवि, समाज सुधारक और आध्यात्मिक व्यक्ति थे। रविदास के भक्ति छंदों को गुरु ग्रंथ साहिब के नाम से जाने जाने वाले सिख धर्मग्रंथों में शामिल किया गया था।मध्ययुगीन साधकों में रैदास का विशिष्ट स्थान है। कबीर की तरह रैदास भी संत कोटि के कवियों में गिने जाते हैं। मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा जैसे दिखावों में रैदास का ज़रा भी विश्वास न था। रैदास का प्रभु बाहर कहीं किसी मंदिर या मस्ज़िद में नहीं विराजता वरन् उसके अपने अंतस में सदा विद्यमान रहता है। यही नहीं, वह हर हाल में, हर काल में उससे श्रेष्ठ और सर्वगुण संपन्न है। रैदास के पदों में भगवान की अपार उदारता, कृपा और उनके समदर्शी स्वभाव का वर्णन है। रैदास कहते हैं कि भगवान ने तथाकथित निम्न कुल के भक्तों को भी सहज-भाव से अपनाया है और उन्हें लोक में सम्माननीय स्थान दिया है। रैदास व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं और आपसी भाईचारे को ही सच्चा धर्म मानते थे। रैदास ने अपनी काव्य-रचनाओं में सरल, व्यवहारिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है, जिसमें अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और उर्दू-फारसी के शब्दों का भी मिश्रण है। रैदास को उपमा और रूपक अलंकार विशेष प्रिय रहे हैं। सीधे-सादे पदों में संत कवि ने हृदय के भाव बड़ी सफ़ाई से प्रकट किए हैं। इनका आत्मनिवेदन, दैन्य भाव और सहज भक्ति पाठक के हृदय को उद्वेलित करते हैं। रैदास के चालीस पद सिखों के पवित्र धर्मग्रंथ ‘गुरुग्रंथ साहब’ में भी सम्मिलित हैं।
1.रैदास कहै जाकै हदै रहे रैन दिन राम।
2.रैदास हमारौ राम जी, दशरथ करि सुत नाहिं।
3.रैदास इक ही बूंद सो, सब ही भयो वित्थार।
4.रैदास हमारो साइयां, राघव राम रहीम।
5.रैदास जन्म के कारनै होत न कोए नीच।
6.रैदास जन्मे कउ हरस का, मरने कउ का सोक।
7.रैदास जीव कूं मारकर कैसों मिलहिं खुदाय।
8.रैदास मदुरा का पीजिए, जो चढ़ै उतराय।
9.रैदास न पूजइ देहरा, अरु न मसजिद जाय।
10.रैदास प्रेम नहिं छिप सकई, लाख छिपाए कोय।
11.रैदास सोई सूरा भला, जो लरै धरम के हेत।
12.रैदास स्रम करि खाइहिं, जौं लौं पार बसाय।
13.सब घट मेरा साइयाँ, जलवा रह्यौ दिखाइ।
14.साधु संगति पूरजी भइ, हौं वस्त लइ निरमोल।
15.सौ बरस लौं जगत मंहि, जीवत रहि करू काम।
16.ऊँचे कुल के कारणै, ब्राह्मन कोय न होय।
17.करम बंधन में बन्ध रहियो, फल की ना तज्जियो आस
18.कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
19.कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
20.रविदास जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच।
21.मन चंगा तो कठौती में गंगा।
22.काम क्रोध माइआ मद मतसर इन पंचहु मिलि लूटे।
23.माटी को पुतरा कैसे नचतु है। देखै सुनै बोलै दउरिओ फिरत है।
24.रैदास कहै जाकै हदै, रहे रैन दिन राम।
25.हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस।
26.जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
27.ऐसा चाहो राज में, जहाँ मिले सबन को अन्न।
28.रैदास ब्राह्मण मति पूजिए, जए होवै गुन हीन।
29.राधो क्रिस्न करीम हरि, राम रहीम खुदाय।
30.प्रेम पंथ की पालकी, रैदास बैठियो आय।
31.पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत।
32.नीचं नीच कह मारहिं, जानत नाहिं नादान।
33.मुसलमान सों दोस्ती, हिंदुअन सों कर प्रीत।
34.मुकुर मांह परछांइ ज्यौं, पुहुप मधे ज्यों बास।
35.माथे तिलक हाथ जपमाला, जग ठगने कूं स्वांग बनाया।
36.मस्जिद सों कुछ घिन नहीं, मंदिर सों नहीं पिआर।
३७।मंदिर मसजिद दोउ एक हैं इन मंह अंतर नाहि।
38.जो ख़ुदा पच्छिम बसै तौ पूरब बसत है राम।
39.जिह्वा सों ओंकार जप, हत्थन सों कर कार।
40.जिह्वा भजै हरि नाम नित, हत्थ करहिं नित काम।
41.जात पांत के फेर मंहि, उरझि रहइ सब लोग।
42.जनम जात मत पूछिए, का जात अरू पात।
43.जब सभ करि दोए हाथ पग, दोए नैन दोए कान।
44.हिंदू पूजइ देहरा मुसलमान मसीति।
45.गुरु ग्यांन दीपक दिया, बाती दइ जलाय।
46.धन संचय दुख देत है, धन त्यागे सुख होय।
47.देता रहै हज्जार बरस, मुल्ला चाहे अजान।
48.ब्राह्मण खतरी बैस सूद रैदास जनम ते नांहि।
49.बेद पढ़ई पंडित बन्यो, गांठ पन्ही तउ चमार।
50.अंतर गति राँचै नहीं, बाहरि कथै उजास।
51.जा देखे घिन उपजै, नरक कुंड मेँ बास।
52.मन ही पूजा मन ही धूप।
53.कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
54.रहिमन निज संपति बिना, कोउ न बिपति सहाय।
55.ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन।
56.एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
57.गुरु मिलीया रविदास जी दीनी ज्ञान की गुटकी।
58.रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं।
59.वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।
60.हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा।
61.मुकुर मांह परछांइ ज्यौं, पुहुप मधे ज्यों बास।
रैदास कहै जाकै हदै, रहे रैन दिन राम।
सो भगता भगवंत सम, क्रोध न व्यापै काम।।
संत रविदास के मतानुसार जिस हृदय में दिन-रात बस राम के नाम का ही वास रहता है, ऐसा भक्त स्वयं राम के समान होता है। राम नाम की ऐसी माया है कि इसे दिन-रात जपने वाले लोगों को न तो स्वयं गुस्सा आता है और न ही दूसरों के गुस्से से वो विचलित होते हैं।
रैदास हमारौ राम जी, दशरथ करि सुत नाहिं।
राम हमउ मांहि रहयो, बिसब कुटंबह माहिं॥
रैदास कहते हैं कि मेरे आराध्य राम दशरथ के पुत्र राम नहीं हैं। जो राम पूरे विश्व में, प्रत्येक घर−घर में समाया हुआ है, वही मेरे भीतर रमा हुआ है।
रैदास इक ही बूंद सो, सब ही भयो वित्थार।
मुरखि हैं तो करत हैं, बरन अवरन विचार॥
रैदास कहते हैं कि यह सृष्टि एक ही बूँद का विस्तार है अर्थात् एक ही ईश्वर से सभी प्राणियों का विकास हुआ है; फिर भी जो लोग जात-कुजात का विचार अर्थात् जातिगत भेद−विचार करते हैं, वे नितांत मूर्ख हैं।
रैदास हमारो साइयां, राघव राम रहीम।
सभ ही राम को रूप है, केसो क्रिस्न करीम॥
रैदास कहते हैं कि राघव, रहीम, केशव, कृष्ण, करीम आदि में प्रभु राम का ही रूप झलकता है। वही प्रभु राम उनका आराध्य है।
रैदास जन्म के कारनै होत न कोए नीच।
नर कूं नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच॥
जन्म के कारण कोई भी मनुष्य छोटा नहीं होता है। मनुष्य के तुच्छ कर्मों का पाप ही उसे छोटा बनाता है॥
रैदास जन्मे कउ हरस का, मरने कउ का सोक।
बाजीगर के खेल कूं, समझत नाहीं लोक॥
रैदास कहते हैं कि जन्म के समय कैसा हर्ष और मृत्यु पर कैसा दुःख! यह तो ईश्वर की लीला है। संसार इसे नहीं समझ पाता।जिस प्रकार लोग बाज़ीगर के तमाशे को देखकर हर्षित और दुःखी होते हैं, उसी प्रकार ईश्वर भी संसार में जन्म−मृत्यु की लीला दिखाता है। अतः ईश्वर के इस विधान पर हर्षित अथवा दुःखी नहीं होना चाहिए।
रैदास जीव कूं मारकर कैसों मिलहिं खुदाय।
पीर पैगंबर औलिया, कोए न कहइ समुझाय॥
रैदास कहते हैं कि जीव को मारकर भला ख़ुदा की प्राप्ति कैसे हो सकती है, यह बात कोई भी पीर, पैगंबर या औलिया किसी को क्यों नहीं समझाता?
रैदास मदुरा का पीजिए, जो चढ़ै उतराय।
नांव महारस पीजियै, जौ चढ़ै उतराय॥
रैदास कहते हैं कि मदिरा का सेवन करने से क्या लाभ जिसका नशा चढ़ता है और शीघ्र ही उतर जाता है? इसकी जगह राम नाम रूपी महारस का पान करो। इसका नशा यदि एक बार चढ़ जाता है तो फिर कभी नहीं उतरता।
रैदास न पूजइ देहरा, अरु न मसजिद जाय।
जह−तंह ईस का बास है, तंह−तंह सीस नवाय॥
रैदास कहते हैं कि ईश्वर की पूजा करने के लिए न तो मैं मंदिर जाता हूँ और न ही मस्जिद। मैं वहीं सिर झुकाता हूँ जहाँ ईश्वर का निवास है।
रैदास प्रेम नहिं छिप सकई, लाख छिपाए कोय।
प्रेम न मुख खोलै कभऊँ, नैन देत हैं रोय॥
रैदास कहते हैं कि प्रेम कोशिश करने पर भी छिप नहीं पाता, वह प्रकट हो ही जाता है। प्रेम का बखान वाणी द्वारा नहीं हो सकता प्रेम को तो आँखों से निकले हुए आँसू ही व्यक्त करते हैं।
रैदास सोई सूरा भला, जो लरै धरम के हेत।
अंग−अंग कटि भुंइ गिरै, तउ न छाड़ै खेत॥
रैदास कहते हैं कि वही शूरवीर श्रेष्ठ होता है जो धर्म की रक्षा के लिए लड़ते−लड़ते अपने अंग−प्रत्यंग कटकर युद्धभूमि में गिर जाने पर भी युद्धभूमि से पीठ नहीं दिखाता।
रैदास स्रम करि खाइहिं, जौं लौं पार बसाय।
नेक कमाई जउ करइ, कबहुं न निहफल जाय॥
रैदास कहते हैं कि जब तक सामर्थ्य हो, मनुष्य को ईमानदारी से कमाकर खाना चाहिए जो मनुष्य ईमानदारी और शुद्ध भाव से कमाता है, वह कभी निष्फल नहीं जाता है।
सब घट मेरा साइयाँ, जलवा रह्यौ दिखाइ।
रैदास नगर मांहि, रमि रह्यौ, नेकहु न इत्त उत्त जाइ॥
प्रत्येक शरीर में प्रभु का वास है। सभी जगह उसी का जलवा है। रैदास कहते हैं कि वह इस नगर रूपी मन में पूरी तरह रमा हुआ है।इससे बाहर वह बिल्कुल इधर−उधर नहीं जा सकता है।
साधु संगति पूरजी भइ, हौं वस्त लइ निरमोल।
सहज बल दिया लादि करि, चल्यो लहन पिव मोल॥
रैदास कहते हैं कि साधु−संगति के धन को मैंने अनमोल वस्तु के रूप में प्राप्त कर लिया है। इस सत्संग से प्राप्त चेतन शक्ति को अपने हृदय में समाहित करके मैं अपने पीव को प्राप्त करने चला हूँ।।
सौ बरस लौं जगत मंहि, जीवत रहि करू काम।
रैदास करम ही धरम हैं, करम करहु निहकाम॥
रैदास कहते हैं कि मनुष्य को संसार में सौ वर्ष तक जीवित रहने की इच्छा के लिए निरंतर निष्काम कर्म करते रहना चाहिए कर्म करना ही मनुष्य−धर्म है।
ऊँचे कुल के कारणै, ब्राह्मन कोय न होय।
जउ जानहि ब्रह्म आत्मा, रैदास कहि ब्राह्मन सोय॥
मात्र ऊँचे कुल में जन्म लेने के कारण ही कोई ब्राह्मण नहीं कहला सकता जो ब्रहात्मा को जानता है, रैदास कहते हैं कि वही ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी है।
करम बंधन में बन्ध रहियो, फल की ना तज्जियो आस।
कर्म मानुष का धर्म है, सत् भाखै रविदास ।।
अर्थात् कर्म हमारा धर्म है और फल हमारा सौभाग्य। इसलिए हमें हमेशा कर्म करते रहना चाहिए और कर्म से मिलने वाले फल की आशा भी नहीं छोड़नी चाहिए।
कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।।
अर्थात् ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अहंकार-शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि लघु शरीर की पिपीलिका (चींटी) इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है। इसी प्रकार अहंकार त्याग कर, विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है।
कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।
चारो वेद के करे खंडौती ।जन रैदास करे दंडौती।।
अर्थात् राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है।
रविदास जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच।
नकर कूं नीच करि डारी है, ओछे करम की कीच।।
अर्थात् कोई भी व्यक्ति छोटा या बड़ा अपने जन्म के कारण नहीं बल्कि अपने कर्म के कारण होता है। व्यक्ति के कर्म ही उसे ऊंचा या नीचा बनाते हैं। इसलिए, वे सभी को समान भाव से रहने की शिक्षा देते थे।
मन चंगा तो कठौती में गंगा।
अर्थात् यदि मन पवित्र है और जो अपना कार्य करते हुए, ईश्वर की भक्ति में तल्लीन रहते हैं उनके लिए उससे बढ़कर कोई तीर्थ-स्नान नहीं है। इस दोहे में रविदास जी कहना चाहते है कि जिसका मन पवित्र होता है, उसके बुलाने पर मां गंगा भी एक कठौती में भी आ जाती हैं। यहां पर कठौती से मतलब चमड़ा भिगोने के लिए पानी से भरे पात्र से है।
काम क्रोध माइआ मद मतसर इन पंचहु मिलि लूटे।
इन पंचन मेरो मनु जू बिगारिओ।।
अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, अहंकार और ईर्ष्या मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु हैं जो मनुष्य के चरित्र व आचरण दोनों को नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं। इसलिए इनसे हमेशा दूर ही रहना चाहिए।
माटी को पुतरा कैसे नचतु है। देखै सुनै बोलै दउरिओ फिरत है।
जब कछु पावै तब गरबु करत है। माइआ गई तब रोवनु लगत है।।
अर्थात् शरीर यानी माटी का यह पुतला नाचता-दौड़ता फिरता रहता है। कुछ मिल जाता है, तो वह गर्वीला हो जाता है और माया खत्म होते ही रोने लगता है। उनका कहना है कि शरीर तो भौतिक वस्तु है, उसे तो एक न एक दिन नष्ट हो ही जाना है। इसलिए हमें इस पर अभिमान न कर अपने अंतस् को निखारना चाहिए।
रैदास कहै जाकै हदै, रहे रैन दिन राम।
सो भगता भगवंत सम, क्रोध न व्यापै काम।।
अर्थात् जिसके ह्र्दय में रात-दिन राम समाये रहते हैं, ऐसा भक्त राम के समान है। उस पर न तो क्रोध का असर होता है और न ही काम-भावना उस पर हावी हो सकती है।
हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस।
ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रविदास।।
अर्थात् हरि के समान बहुमूल्य हीरे को छोड़ कर अन्य की आशा करने वाले अवश्य ही नरक जाएंगे। यानि प्रभु-भक्ति को छोड़ कर इधर-उधर भटकना व्यर्थ है।
जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
अर्थात् जिस तरह केले के पेड़ के तने को छीला जाये तो पत्ते के नीचे पत्ता, फिर पत्ते के नीचे पत्ता और अंत में पूरा पेड़ खत्म हो जाता है लेकिन कुछ नहीं मिलता। उसी प्रकार इंसान भी जातियों में बाँट दिया गया है। इन जातियों के विभाजन से इन्सान अलग-अलग बंट जाता है। अंत में, इन्सान भी खत्म हो जाते हैं लेकिन यह जाति खत्म नहीं होती है। इसलिए रविदास जी कहते हैं कि जब तक ये जाति-प्रथा खत्म नहीं होगी, तब तक इन्सान एक-दूसरे से जुड़ नहीं सकता है।
ऐसा चाहो राज में, जहाँ मिले सबन को अन्न।
छोटा-बड़ो सभ सम बसै, रैदास रहै प्रसन्न।।
प्रस्तुत पद में रैदास जी समाज के सभी वर्ग के लोगों के प्रति समान भाव से हितकारी एवं सुखी राज्य की कामना करते हैं। स्पष्टीकरण : कवि संत रैदास इस पद के माध्यम से समाज के सभी वर्ग के लोगों के लिए चाहें वह छोटा हो या बड़ा एक ऐसे राज्य की कामना करते हैं जहाँ सभी सुखी हों, जहाँ सभी को अन्न मिले, जिसमें कोई भूखा-प्यासा न रहे, जहाँ कोई छोटा-बड़ा न होकर एक समान हो। ऐसे राज्य से रैदास को प्रसन्नता होती है।
रैदास ब्राह्मण मति पूजिए, जए होवै गुन हीन।
पूजिहिं चरन चंडाल के, जउ होवै गुन प्रवीन॥
रैदास कहते हैं कि उस ब्राह्मण को नहीं पूजना चाहिए जो गुणहीन हो । गुणहीन ब्राह्मण की अपेक्षा गुणवान चांडाल के चरण पूजना श्रेयस्कर है।
राधो क्रिस्न करीम हरि, राम रहीम खुदाय।
रैदास मोरे मन बसहिं, कहु खोजहुं बन जाय॥
रैदास कहते हैं कि राधा, कृष्ण, करीम, हरि, राम, रहीम, ख़ुदा−सभी एक ही ईश्वर के रूप मेरे मन में निवास करते हैं । फिर भला इन्हें बाहर वन में क्यों खोजूँ!
प्रेम पंथ की पालकी, रैदास बैठियो आय।
सांचे सामी मिलन कूं, आनंद कह्यो न जाय॥
रैदास कहते हैं कि वे प्रेम−मार्ग रूपी पालकी में बैठकर अपने सच्चे स्वामी से मिलने के लिए चले हैं। उनसे मिलने की चाह का आनंद ही निर्वचनीय है, तो उनसे मिलकर आनंद की अनुभूति का तो कहना ही क्या!
पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत।
रैदास दास पराधीन सौं, कौन करैहै प्रीत॥
हे मित्र! यह अच्छी तरह जान लो कि परीधीनता एक बड़ा पाप है। रैदास कहते हैं कि पराधीन व्यक्ति से कोई भी प्रेम नहीं करता है। सभी उससे घृणा करते हैं।
नीचं नीच कह मारहिं, जानत नाहिं नादान।
सभ का सिरजन हार है, रैदास एकै भगवान॥
मनुष्य ही दूसरे मनुष्य को छोटा समझकर उसे सताता है । रैदास कहते हैं कि नादान मनुष्य यह नहीं जानता कि सभी मनुष्यों को जन्म देने वाला एक ही ईश्वर है।
मुसलमान सों दोस्ती, हिंदुअन सों कर प्रीत।
रैदास जोति सभ राम की, सभ हैं अपने मीत॥
हमें मुसलमान और हिंदुओं दोनों से समान रूप से दोस्ती और प्रेम करना चाहिए । दोनों के भीतर एक ही ईश्वर की ज्योति प्रकाशित हो रही है। सभी हमारे−अपने मित्र हैं।
मुकुर मांह परछांइ ज्यौं, पुहुप मधे ज्यों बास।
तैसउ श्री हरि बसै, हिरदै मधे रैदास॥
जिस प्रकार दर्पण में परछाई और पुष्प में सुगंध का वास होता है, रैदास कहते हैं कि उसी प्रकार हृदय में ही श्रीहरि का निवास है।
माथे तिलक हाथ जपमाला, जग ठगने कूं स्वांग बनाया।
मारग छाड़ि कुमारग उहकै, सांची प्रीत बिनु राम न पाया॥
ईश्वर को पाने के लिए माथे पर तिलक लगाना और माला जपना केवल संसार को ठगने का स्वांग है । प्रेम का मार्ग छोड़कर स्वांग करने से ईश्वर की प्राप्ति नहीं होगी। सच्चे प्रेम के बिना परमात्मा को पाना असंभव है।
मस्जिद सों कुछ घिन नहीं, मंदिर सों नहीं पिआर।
दोए मंह अल्लाह राम नहीं, कहै रैदास चमार॥
न तो मुझे मस्जिद से घृणा है और न ही मंदिर से प्रेम है। रैदास कहते हैं कि वास्तविकता यह है कि न तो मस्जिद में अल्लाह ही निवास करता है और नही मंदिर में राम का वास है।
मंदिर मसजिद दोउ एक हैं इन मंह अंतर नाहि।
रैदास राम रहमान का, झगड़उ कोउ नाहि॥
मंदिर और मस्जिद दोनों एक हैं। इनमें कोई ख़ास फ़र्क नहीं है। रैदास कहते हैं कि राम−रहमान का झगड़ा व्यर्थ है । दोनों धर्म−स्थलों में एक ही ईश्वर निवास करता है।
जो ख़ुदा पच्छिम बसै तौ पूरब बसत है राम।
रैदास सेवों जिह ठाकुर कूं, तिह का ठांव न नाम॥
रैदास कहते हैं कि यदि ख़ुदा पश्चिम में है तो राम पूरब दिशा में निवास करता है । किंतु मैं उस ईश्वर की पूजा करता हूँ जिसका न तो कोई स्थान है और न कोई नाम है।
जिह्वा सों ओंकार जप, हत्थन सों कर कार।
राम मिलिहि घर आइ कर, कहि रैदास विचार॥
हे मनुष्य! तू अपनी वाणी से ओंकार का जाप और हाथों से कर्म कर। रैदास कहते हैं कि प्रभु राम स्वयं तुझसे मिलने तेरे घर आएँगे।
जिह्वा भजै हरि नाम नित, हत्थ करहिं नित काम।
रैदास भए निहचिंत हम, मम चिंत करेंगे राम॥
मैं अपनी वाणी से नित्य नाम-स्मरण और अपने हाथों से कर्म करता हूँ। रैदास कहते हैं कि इस प्रकार मैं सभी चिंताओं से निश्चिंत हो गया हूँ क्योंकि मेरी चिंता करने वाले तो प्रभु राम हैं।
जात पांत के फेर मंहि, उरझि रहइ सब लोग।
मानुषता कूं खात हइ, रैदास जात कर रोग॥
अज्ञानवश सभी लोग जाति−पाति के चक्कर में उलझकर रह गए हैं । रैदास कहते हैं कि यदि वे इस जातिवाद के चक्कर से नहीं निकले तो एक दिन जाति का यह रोग संपूर्ण मानवता को निगल जाएगा।
जनम जात मत पूछिए, का जात अरू पात।
रैदास पूत सब प्रभु के, कोए नहिं जात कुजात॥
रैदास कहते हैं कि किसी की जाति नहीं पूछनी चाहिए क्योंकि संसार में कोई जाति−पाँति नहीं है। सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान हैं। यहाँ कोई जाति, बुरी जाति नहीं है।
जब सभ करि दोए हाथ पग, दोए नैन दोए कान।
रैदास प्रथक कैसे भये, हिन्दू मुसलमान॥
रैदास कहते हैं कि जब सभी मनुष्यों के एक समान दो−दो हाथ−पैर, नेत्र और कान हैं तो हिंदू और मुसलमान कैसे एक-दूसरे से भिन्न हुए?
हिंदू पूजइ देहरा मुसलमान मसीति।
रैदास पूजइ उस राम कूं, जिह निरंतर प्रीति॥
हिंदू मंदिरों में पूजा करने के लिए जाते हैं और मुसलमान ख़ुदा की इबादत करने के लिए मस्जिदों में जाते हैं। दोनों ही अज्ञानी हैं । दोनों को ही ईश्वर के प्रति सच्चा प्रेम नहीं है। रैदास कहते हैं कि मैं जिस राम की आराधना करता हूँ, उसके प्रति मेरी सच्ची प्रीति है।
गुरु ग्यांन दीपक दिया, बाती दइ जलाय।
रैदास हरि भगति कारनै, जनम मरन विलमाय॥
सद्गुरु ने मुझे भक्ति रूपी बाती से युक्त ज्ञान का दीपक प्रदान किया । रैदास कहते हैं कि परमात्मा की भक्ति के कारण ही मैं जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त हो गया।
धन संचय दुख देत है, धन त्यागे सुख होय।
रैदास सीख गुरु देव की, धन मति जोरे कोय॥
धन का सीमा से अधिक संचय दुख देता है। अधिक धन की कामना त्यागकर ही वास्तविक सुख की प्राप्ति होती है। अतः सभी गुरुओं की यही शिक्षा है कि कोई भी सीमा से अधिक धन का संचय न करे।
देता रहै हज्जार बरस, मुल्ला चाहे अजान।
रैदास खोजा नहं मिल सकइ, जौ लौ मन शैतान॥
रैदास कहते हैं कि मुल्ला चाहे लगातार हज़ार वर्षों तक अजान देता रहे किंतु जब तक उसके भीतर शैतान रहेगा, तब तक खोजने पर भी उसे ख़ुदा न मिल सकेगा।
ब्राह्मण खतरी बैस सूद रैदास जनम ते नांहि।
जो चाहइ सुबरन कउ पावइ करमन मांहि॥
कोई भी मनुष्य जनम से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र नहीं होता। यदि कोई मनुष्य उच्च वर्ण को प्राप्त करना चाहता है तो वह केवल सुकर्म से ही उसे प्राप्त कर सकता है। सुकर्म ही मानव को ऊँचा और दुष्कर्म ही नीचा बनाता है।
बेद पढ़ई पंडित बन्यो, गांठ पन्ही तउ चमार।
रैदास मानुष इक हइ, नाम धरै हइ चार॥
सब मनुष्य एक समान हैं किंतु उसके चार नाम (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र) रख दिए हैं, जैसे वेद पढ़ने वाला मनुष्य पंडित (ब्राह्मण) और जूता गाँठने वाला मनुष्य चर्मकार (शूद्र) कहलाता है।
अंतर गति राँचै नहीं, बाहरि कथै उजास।
ते नर नरक हि जाहिगं, सति भाषै रैदास॥
मनुष्य कितना अज्ञानी है! वह शरीर की बाहरी स्वच्छता और वेश−भूषा पर ध्यान देता है और मन की पवित्रता पर दृष्टि नहीं डालता। रैदास सत्य ही कहते हैं−ऐसे मनुष्य निश्चय ही नरक लोक जाएँगे।
जा देखे घिन उपजै, नरक कुंड मेँ बास।
प्रेम भगति सों ऊधरे, प्रगटत जन रविदास।।
रविदास जी कहते है की जिस रविदास को देखने से लोगो को घृणा आती थी, जिनका निवास नर्क कुंद के समान था। ऐसे रविदास का ईश्वर की भक्ति में लीन हो जाना सच में फिर से उनकी मनुष्य के रूप में उत्पत्ति हो गयी है।
मन ही पूजा मन ही धूप।
मन ही सेऊं सहज स्वरूप।।
इस दोहे में रविदास जी कहते है कि भगवान हमेशा एक स्वच्छ और निर्मल मन में निवास करते हैं। यदि आपके मन में किसी प्रकार का बेर, लालच या द्वेष नहीं है तो आपका मन भगवान का मंदिर, दीपक और धूप के समान है। इस प्रकार के लोगों में ही भगवान हमेशा निवास करते हैं।
रहिमन निज संपति बिना, कोउ न बिपति सहाय।
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सकै बचाय।।
संत रविदास जी कहते हैं कि मुश्किल परिस्थिति व्यक्ति की सहायता कोई नहीं करता है। उस समय उसके द्वारा कमाई गई दौलत या सम्पति ही उसके लिए सबसे मददगार होती है। ठीक उसी प्रकार सूर्य भी तालाब का पानी सूख जाने पर पर कमल को सूखने से नहीं बचा सकता है।
ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन।
पूजिए चरण चंडाल के जो होवे गुण प्रवीन।।
इस दोहे में संत रविदास जी कहना चाहते हैं कि किसी को सिर्फ़ इसलिए नहीं पूजना चाहिए कि वह किसी पूजनीय पद पर है। यदि उस व्यक्ति में उस पद के अनुसार पूजनीय गुण नहीं है तो उसे नहीं पूजना चाहिए। यदि कोई ऐसा व्यक्ति है जो किसी पूजनीय पद पर तो नहीं है, पर उसमें पूजनीय गुण है तो उसे अवश्य ही पूजना चाहिए।
एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अगाय।।
संत रविदास जी कहते हैं कि सभी कामों को यदि हम एक साथ शुरू करते हैं तो हमें कभी उनमें सफलता नहीं मिलती है। ठीक उसी प्रकार यदि किसी पेड़ की एक एक टहनी और पति को सींचा जाये और उसकी जड़ को सुखा छोड़ दिया जाये तो वह पेड़ कभी फ़ल नहीं दे पायेगा।
गुरु मिलीया रविदास जी दीनी ज्ञान की गुटकी।
चोट लगी निजनाम हरी की महारे हिवरे खटकी।।
रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं।
तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।
हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा।
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।
मुकुर मांह परछांइ ज्यौं, पुहुप मधे ज्यों बास।
तैसउ श्री हरि बसै, हिरदै मधे रैदास॥
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