सोलहवाँ अध्याय | Sixteenth chapter
अष्टावक्र उवाच –
आचक्ष्व शृणु वा तात नानाशास्त्राण्यनेकशः।
तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणाद् ऋते॥१६.१॥
श्री अष्टावक्र कहते हैं – हे प्रिय, विद्वानों से सुनकर अथवा बहुत शास्त्रों के पढ़ने से तुम्हारी आत्म स्वरुप में वैसी स्थिति नहीं होगी जैसी कि सब कुछ उचित रीति से भूल जाने से ॥१॥
भोगं कर्म समाधिं वा कुरु विज्ञ तथापि ते।
चित्तं निरस्तसर्वा शा म–त्यर्थं रोचयिष्यति॥१६.२॥
कर्म भोग करो या समाधि में रहो पर चूँकि तुम विद्वान हो अतः तुम्हें चित्त की सभी आशाओं को शांत करना अत्यंत आनंदप्रद होगा ॥२॥
आयासात्सकलो दुःखी नैनं जानाति कश्चन।
अनेनैवोपदेशेन धन्यः प्राप्नोति निर्वृतिम्॥१६.३॥
प्रयत्न से ही सभी दुखी हैं पर कोई इसे जानता नहीं है । इस निष्पाप उपदेश से ही भाग्यवान व्यक्ति सभी वृत्तियों से रहित हो जाते हैं ॥३॥
व्यापारे खिद्यते यस्तु निमेषोन्मेषयोरपि।
तस्यालस्य धुरीणस्य सुखं नन्यस्य कस्यचित्॥१६.४॥
जिसको पलकों का खोलना और बंद करना भी कार्य लगता है उस परम आलसी के लिए ही सुख है अन्य किसी के लिए किसी भी प्रकार से नहीं ॥४॥
इदं कृतमिदं नेति द्वंद्वैर्मुक्तं यदा मनः।
धर्मार्थकाममोक्षेषु निरपेक्षं तदा भवेत्॥१६.५॥
यह करना चाहिए और यह नहीं जब मन इस प्रकार के द्वंद्वों से से मुक्त हो जाता है तब उसको धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की अपेक्षा (इच्छा) नहीं रहती ॥५॥
विरक्तो विषयद्वेष्टा रागी विषयलोलुपः।
ग्रहमोक्षविहीनस्तु न विरक्तो न रागवान्॥१६.६॥
न विषयों से द्वेष करने वाला विरक्त, न ही विषयों में आसक्त रागवान, वह तो निश्चय ही विषयों के ग्रहण और त्याग से विहीन है ॥६॥
हेयोपादेयता तावत्– संसारविटपांकुरः।
स्पृहा जीवति यावद् वै निर्विचारदशास्पदम्॥१६.७॥
जब तक (विषयों के) ग्रहण और त्याग की कामना रहती है तब तक संसार रूपी वृक्ष का अंकुर विद्यमान है, अतः विचारहीन अवस्था का आश्रय लो ॥७॥
प्रवृत्तौ जायते रागो निर्वृत्तौ द्वेष एव हि।
निर्द्वन्द्वो बालवद् धीमान् एवमेव व्यवस्थितः॥१६.८॥
प्रवृत्ति से आसक्ति और निवृत्ति से द्वेष उत्पन्न होता है अतः बुद्धिमान, बालक के समान निर्द्वंद्व होकर स्थित रहे ॥८॥
हातुमिच्छति संसारं रागी दुःखजिहासया।
वीतरागो हि निर्दुःखस्–तस्मिन्नपि न खिद्यति॥१६.९॥
विषय में आसक्त पुरुष दुःख से बचने के लिए संसार का त्याग करना चाहता है पर वह विरक्त ही सुखी है जो उन दुखों में भी खेद नहीं करता है ॥९॥
यस्याभिमानो मोक्षेऽपि देहेऽपि ममता तथा।
न च ज्ञानी न वा योगी केवलं दुःखभागसौ॥१६.१०॥
जो मोक्ष भी चाहता है और इस शरीर में आसक्ति भी रखता है, वह न ज्ञानी है और न योगी बल्कि केवल दुःख को प्राप्त करने वाला है ॥१०॥
हरो यद्युपदेष्टा ते हरिः कमलजोऽपि वा।
तथापि न तव स्वाथ्यं सर्वविस्मरणादृते॥१६– ११॥
यदि तुम्हारे उपदेशक साक्षात् शिव, विष्णु या ब्रह्मा भी हों तो भी सब कुछ विस्मरण किये बिना तुम आत्म स्वरुप को प्राप्त नहीं होगे ॥११॥