जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाही ।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।
कबीर दास जी कहते हैं कि जब मेरे अंदर अहंकार था अर्थात मैं था, तब मेरे ह्रदय में हरि ( ईश्वर ) का वास नहीं था। और अब मेरे ह्रदय में हरि ( ईश्वर ) का वास है तो मैं अर्थात अहंकार नहीं है। जब से मैंने गुरु रूपी दीपक को पाया है तब से मेरे अंदर का अंधकार खत्म हो गया है। अर्थात जब मैं अपने अहंकार में डूबा था तब प्रभु को न देख पाता था लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अन्धकार मिट गया – ज्ञान की ज्योति से अहंकार जाता रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया। कहने का तात्पर्य ये है कि जब तक मन में अहंकार था तब तक ईश्वर का साक्षात्कार न हुआ। जब अहम समाप्त हुआ तभी प्रभु मिले। जब ईश्वर का साक्षात्कार हुआ तब अहम स्वत: नष्ट हो गया। ईश्वर की सत्ता का बोध तभी हुआ जब अहंकार गया। प्रेम में द्वैत भाव नहीं हो सकता । प्रेम की संकरी पतली गली में एक ही समा सकता है – अहम् या परम ! परम की प्राप्ति के लिए अहम् का विसर्जन आवश्यक है।