जय राम सदा सुखधाम हरे

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जय राम सदा सुखधाम हरे

 

 

यह स्तुति माता सीता के अग्नि परीक्षा के साथ पुनः अग्नि से प्रकट होने पर श्री ब्रह्मा जी द्वारा की गयी। उस समय माता सीता जी सहित प्रभु श्री का दर्शन करने ब्रह्माजी और समस्त देवता आये। उस समय जगतपिता श्री ब्रह्मा जी ने बड़े ही पलकित भाव से प्रभु श्री राम जी की स्तुति की। यह वही स्तुति है। इसका वर्णन श्री तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस के लंकाकांड के १११ वें छंद में किया है।

 

जय राम सदा सुखधाम हरे।

रघुनायक सायक चाप धरे।।

भव बारन दारन सिंह प्रभो।

गुन सागर नागर नाथ बिभो।।1।।

 

हे नित्य सुखधाम और (दु:खों को हरने वाले) हरि! हे धनुष-बाण धारण किए हुए रघुनाथजी! आपकी जय हो। हे प्रभो! आप भव (जन्म-मरण) रूपी हाथी को विदीर्ण करने के लिए सिंह के समान हैं। हे नाथ! हे सर्वव्यापक! आप गुणों के समुद्र और परम चतुर हैं।।1।।

 

तन काम अनेक अनूप छबी।

गुन गावत सिद्ध मुनींद्र कबी।।

जसु पावन रावन नाग महा।

खगनाथ जथा करि कोप गहा।।2।।

 

आपके शरीर की अनेकों कामदेवों के समान, परंतु अनुपम छवि है। सिद्ध, मुनीश्वर और कवि आपके गुण गाते रहते हैं। आपका यश पवित्र है। आपने रावणरूपी महासर्प को गरुड़ की तरह क्रोध करके पकड़ लिया ।।2।।

 

जन रंजन भंजन सोक भयं।

गतक्रोध सदा प्रभु बोधमयं।।

अवतार उदार अपार गुनं।

महि भार बिभंजन ग्यानघनं।।3।।

 

हे प्रभो! आप सेवकों को आनंद देने वाले, शोक और भय का नाश करने वाले, सदा क्रोधरहित और नित्य ज्ञान स्वरूप हैं। आपका अवतार श्रेष्ठ, अपार दिव्य गुणों वाला, पृथ्वी का भार उतारने वाला और ज्ञान का समूह है।।3।।

 

अज ब्यापकमेकमनादि सदा।

करुनाकर राम नमामि मुदा।।

रघुबंस बिभूषन दूषन हा।

कृत भूप बिभीषन दीन रहा।।4।।

 

(किंतु अवतार लेने पर भी) आप नित्य, अजन्मा, व्यापक, एक (अद्वितीय) और अनादि हैं। हे करुणा की खान श्रीरामजी! मैं आपको बड़े ही हर्ष के साथ नमस्कार करता हूँ। हे रघुकुल के आभूषण! हे दूषण राक्षस को मारने वाले तथा समस्त दोषों को हरने वाले! विभीषण दीन था, उसे आपने (लंका का) राजा बना दिया ।।4।।

 

गुन ग्यान निधान अमान अजं।

नित राम नमामि बिभुं बिरजं।।

भुजदंड प्रचंड प्रताप बलं।

खल बृंद निकंद महा कुसलं।।5।।

 

हे गुण और ज्ञान के भंडार! हे मानरहित! हे अजन्मा, व्यापक और मायिक विकारों से रहित श्रीराम! मैं आपको नित्य नमस्कार करता हूँ। आपके भुजदंडों का प्रताप और बल प्रचंड है। दुष्ट समूह के नाश करने में आप परम निपुण हैं ।।5।।

 

बिनु कारन दीन दयाल हितं।

छबि धाम नमामि रमा सहितं।।

भव तारन कारन काज परं।

मन संभव दारुन दोष हरं।।6।।

 

हे बिना ही कारण दीनों पर दया तथा उनका हित करने वाले और शोभा के धाम! मैं श्रीजानकीजी सहित आपको नमस्कार करता हूँ। आप भवसागर से तारने वाले हैं, कारणरूपा प्रकृति और कार्यरूप जगत् दोनों से परे हैं और मन से उत्पन्न होने वाले कठिन दोषों को हरने वाले हैं ।।6।।

 

सर चाप मनोहर त्रोन धरं।

जरजारुन लोचन भूपबरं।।

सुख मंदिर सुंदर श्रीरमनं।

मद मार मुधा ममता समनं।।7।।

 

आप मनोहर बाण, धनुष और तरकस धारण करने वाले हैं। (लाल) कमल के समान रक्तवर्ण आपके नेत्र हैं। आप राजाओं में श्रेष्ठ, सुख के मंदिर, सुंदर, श्री (लक्ष्मीजी) के वल्लभ तथा मद (अहंकार), काम और झूठी ममता के नाश करने वाले हैं ।।7।।

 

अनवद्य अखंड न गोचर गो।

सबरूप सदा सब होइ न गो।।

इति बेद बदंति न दंतकथा।

रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा।।8।।

 

आप अनिन्द्य या दोषरहित हैं, अखंड हैं, इंद्रियों के विषय नहीं हैं। सदा सर्वरूप होते हुए भी आप वह सब कभी हुए ही नहीं, ऐसा वेद कहते हैं। यह (कोई) दंतकथा (कोरी कल्पना) नहीं है। जैसे सूर्य और सूर्य का प्रकाश अलग-अलग हैं और अलग नहीं भी है, वैसे ही आप भी संसार से भिन्न तथा अभिन्न दोनों ही हैं ।।8।।

 

कृतकृत्य बिभो सब बानर ए।

निरखंति तवानन सादर ए।।

धिग जीवन देव सरीर हरे।

तव भक्ति बिना भव भूलि परे।।9।।

 

हे व्यापक प्रभो! ये सब वानर कृतार्थ रूप हैं, जो आदरपूर्वक ये आपका मुख देख रहे हैं। (और) हे हरे! हमारे (अमर) जीवन और देव (दिव्य) शरीर को धिक्कार है, जो हम आपकी भक्ति से रहित हुए संसार में (सांसारिक विषयों में) भूले पड़े हैं ।।9।।

 

अब दीन दयाल दया करिऐ।

मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ।।

जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ।

दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ।।10।।

 

हे दीनदयालु! अब दया कीजिए और मेरी उस भेद उत्पन्न करने वाली बुद्धि को हर लीजिए, जिससे मैं विपरीत कर्म करता हूँ और जो दु:ख है, उसे सुख मानकर आनंद से विचरता हूँ ।।10।।

 

खल खंडन मंडन रम्य छमा।

पद पंकज सेवित संभु उमा।।

नृप नायक दे बरदानमिदं।

चरनांबुज प्रेम सदा सुभदं।।11।।

 

आप दुष्टों का खंडन करने वाले और पृथ्वी के रमणीय आभूषण हैं। आपके चरणकमल श्री शिव-पार्वती द्वारा स‍ेवित हैं। हे राजाओं के महाराज! मुझे यह वरदान दीजिए कि आपके चरणकमलों में सदा मेरा कल्याणदायक (अनन्य) प्रेम हो ।।11।।

 

बिनय कीन्हि चतुरानन प्रेम पुलक अति गात।

सोभासिंधु बिलोकत लोचन नहीं अघात।।

 

इस प्रकार ब्रह्माजी ने अत्यंत प्रेम-पुलकित शरीर से विनती की। शोभा के समुद्र श्रीरामजी के दर्शन करते-करते उनके नेत्र तृप्त ही नहीं होते थे।॥

 

 

काण्ड – लंकाकांड, दोहा संख्या -१११

 

 

 

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