ब्रह्मा जी द्वारा भगवान की स्तुति अर्थ सहित

ब्रह्मा जी द्वारा भगवान की स्तुति अर्थ सहित | Brahma ji dvara bhagvan ki stuti | Prayer of Lord by Lord Brahma with hindi meaning | श्रीमदभागवतम के तृतीय स्कंध नवम अध्याय में वर्णित ब्रह्मा जी द्वारा की गयी भगवन की स्तुति | Stuti by Lord Brahma in third canto ninth chapter of Shrimadbhagvatam 

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ब्रह्मा जी द्वारा भगवान की स्तुति अर्थ सहित

 

ब्रम्होवाच

ज्ञातोसि मे द्य सुचिरान्ननु देह भाजां

न ज्ञायते भगवतो गतिरित्य वद्यं।

नान्यत्वदस्ति भगवन्नपि तन्न शुद्धं

माया गुण व्यति कराद्य दुरुर्विभासि।।1।।

 

ब्रह्मा जी ने कहा – प्रभो ! आज बहुत समय के बाद मैं आपको जान सका हूँ । अहो ! कैसे दुर्भाग्य की बात है कि देहधारी जीव आपके स्वरूप को नहीं जान पाते । भगवन ! आपके सिवा और कोई वस्तु नहीं है । जो वस्तु प्रतीत होती है , वह भी स्वरूपतः सत्य नहीं है , क्योंकि माया के गुणों के क्षुभित होने के कारण केवल आप ही अनेक रूपों में प्रतीत हो रहे हैं ।।1।।

 

रूपं यदेतदव बोध रसो दयेन 

शश्वन्निवृत्ततमसः सदनुग्रहाय ।

आदौ गृहीतमवतारशतैक बीजं

यन्नाभि पद्म भवना दहमा विरासं।।2।।

 

देव ! आपकी चित शक्ति के प्रकाशित रहने के कारण अज्ञान आपसे सदा ही दूर रहता है । आपका यह रूप जिसके नाभिकमल से मैं प्रकट हुआ हूँ , सैंकड़ों अवतारों का मूल कारण है । इसे आपने सत्पुरुषों पर कृपा करने के लिए ही पहले – पहल प्रकट किया है । ।2।।

 

नातः परं परम यद्भवतः स्वरूप –

मानन्द मात्रम विकल्पम विद्ध वर्चः।

पश्यामि विश्व सृजमेकम विश्व मातमान्

भूतेन्द्रियात्मकमदस्त उपाश्रितो स्मि ।।3।।

 

परमात्मन ! आपका जो आनंदमात्र , भेदरहित , अखंड तेजोमय स्वरूप , उसे मैं इससे भिन्न नहीं समझता । इसलिए मैंने विश्व की रचना करने वाले होने पर भी विश्वातीत आपके इस अद्वितीय रूप की ही शरण ली है । यही सम्पूर्ण भूत और इन्द्रियों का अनुष्ठान है ।।3।।

 

तद्वा इदं भुवन मंगल मंगलाय

ध्याने स्म नो दर्शितं त उपासकानां।

तस्मै नमो भगवतेनुविधेम तुभ्यं

यो नादृतो नरकभाग्भिरसत्प्रसङ्गैः ।।4।।

 

हे विश्वकल्याणमय ! मैं आपका उपासक हूँ , आपने मेरे हित के लिए ही मुझे ध्यान में अपना यह रूप दिखलाया है। जो पापात्मा विषयासक्त जीव हैं , वे ही इसका अनादर करते हैं । मैं तो आपको इसी रूप में बार – बार नमस्कार करता हूँ ।।4।।

 

ये तु त्वदीय चरणाम्बुज कोशगन्धं

जिघ्रन्ति कर्णविवरैः श्रुतिवातनीतं

भक्त्या गृहीतचरणः परया च तेषां

नापैषि नाथ हृदयाम्बुरु हात्स्वपुंसां ।।5।।

 

मेरे स्वामी ! जो लोग वेदरूप वायु से लायी हुई आपके चरण रूप कमल कोश की गंध को अपने कर्ण पुटों से ग्रहण करते हैं , उन अपने भक्तजनों के ह्रदय कमल से आप कभी दूर नहीं होते ; क्योंकि वे पराभक्तिरूप डोरी से आपके पादपद्मों को बाँध लेते हैं ।।5।।

 

तावद्भयं द्रविणगेहसुहृन्निमित्तं

शोकः स्पृहा परिभवो विपुलश्च लोभः ।

तावन्ममेत्यसदवग्रह आर्तिमूलं 

यावन्न तेङ्घ्रिमभयं प्रवृणीत लोकः ।।6।।

 

जब तक पुरुष आपके अभयप्रद चरणारविन्दों का सहारा नहीं लेता , तभी तक उसे धन , घर और बंधुजनों के कारन प्राप्त होने वाले भय , शोक , लालसा , दीनता और अत्यंत लोभ आदि सताते हैं और तभी तक उसे मैं – मेरेपन का दुराग्रह रहता है , जो दुःख का एकमात्र कारण है।।6।।

 

दैवेन ते हतधियो भवतः प्रसङ्गात्

सर्वाशुभोपशमनाद्विमुखेन्द्रिया ये ।

कुर्वन्ति कामसुखलेशलवाय दीना

लोभाभिभूतमनसोकुशलानि शश्वत ।।7।।

 

जो लोग सब प्रकार के अमंगलों को नष्ट करने वाले आपके श्रवण कीर्तनादि प्रसंगों से इन्द्रियों को हटाकर लेशमात्र विषय सुख के लिए दीं और मन ही मन लालायित हो कर निरंतर दुष्कर्म में लगे रहते हैं , उन बेचारों की बुद्धि दैव ने हर ली है ।।7।।

 

क्षुत्तृट्त्रिधातुभिरिमा मुहरर्द्यमानाः

शीतोष्ण वातवर्षैरितरेतराच्च।

कामाग्निनाच्युत रुषा च सुदुर्भरेण

सम्पश्यतो मन उरुक्रम सीदते मे।।8।।

 

अच्युत ! उरुक्रम ! इस प्रजा को भूख – प्यास , वात , पित्त , कफ , सर्दी , गर्मी , हवा और वर्षा से परस्पर एक – दूसरे से तथा कामाग्नि और दुःसह क्रोध से बार – बार कष्ट उठाते देख कर मेरा मन बड़ा खिन्न होता है ।।8।।

 

यावत्पृथक्त्वमिदमात्मन इन्द्रियार्थ

मायाबलं भगवतो जन ईश पश्येत् ।

तावन्न संसृतिरसौ प्रतिसंक्रमेत

व्यर्थापि दुःखनिवहं वहती क्रियार्था।।9।।

 

स्वामिन ! जब तक मनुष्य इन्द्रिय और विषय रुपी माया के प्रभाव से आप से अपने को भिन्न देखता है , तब तक उसके लिए इस संसार चक्र की निवृत्ति नहीं होती यद्यपि यह मिथ्या है , तथापि कर्मफल भोग का क्षेत्र होने के कारण उसे नाना प्रकार के दुखों में डालता रहता है ।।9।।

 

अहन्यापृतार्तकरणा निशि निःशयाना

नानामनोरथधिया क्षणभग्ननिद्राः ।

दैवाहतार्थरचना ऋषयोपि देव

युष्मत्प्रसङ्गविमुखा इह संसरन्ति।।10।।

 

देव ! औरों की तो बात ही क्या – जो साक्षात् मुनि हैं , वे भी यदि आपके कथा प्रसंग से विमुख रहते हैं तो उन्हें संसार चक्र में फंसना पड़ता है । वे दिन में अनेक प्रकार के व्यापारों के कारण विक्षिप्त चित्त रहते हैं , रात्रि में निद्रा में अचेत पड़े रहते हैं ; उस समय भी तरह – तरह के मनोरथों के कारण क्षण – क्षण में उनकी नींद टूटती रहती है तथा दैववश उनकी अनर्थ सिद्धि के सब उद्योग भी विफल होते रहते हैं ।।10।।

 

त्वं भावयोगपरिभावितहृत्सरोज

आस्से श्रुतेक्षितपथो ननु नाथ पुंसां ।

यद्यद्धिया त उरुगाय विभावयन्ति

तत्तद्वपुः प्रणयसे सदनुग्रहाय ।।11।।

 

नाथ ! आपका मार्ग केवल गुणश्रवण से ही जाना जाता है । आप निश्चय ही मनुष्यों के भक्तियोग के द्वारा परिशुद्ध हुए ह्रदय कमल में निवास करते हैं । पुण्यश्लोक प्रभो ! आपके भक्तजन जिस – जिस भावना से आपका चिंतन करते हैं , उन साधु पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिए आप वही – वही रूप धारण कर लेते हैं ।।11।।

 

नातिप्रसीदति तथोपचितो पचारै

राराधितः सुरगणैर्हृदि बद्धकामैः ।

यत्सर्वभूतदययासदलभ्ययैको

नानाजनेष्ववहितः सुहृदंतरात्मा।।12।।

 

भगवन ! आप एक हैं तथा सम्पूर्ण प्राणियों के अन्तःकरणों में स्थित उनके परम हितकारी अंतरात्मा हैं । इसलिए यदि देवतालोग भी ह्रदय में तरह – तरह की कामनाएं रख कर भाँति – भाँति की विपुल सामग्रियों से आपका पूजन करते हैं , तो उस से आप उतने प्रसन्न नहीं होते जितने सब प्राणियों पर दया करने से होते हैं किन्तु वह सर्वभूत दया असत पुरुषों को अत्यंत दुर्लभ है।।12।।

 

पुंसामतो विविधकर्मभिरध्वराद्यै

र्दानेन चोग्रतपसा व्रतचर्यया च ।

आराधनं भगवतस्तव सत्क्रियार्थो

धर्मोर्पितः कर्हिचचिद्ध्रियते न यत्र ।।13।।

 

जो कर्म आपको अर्पण कर दिया जाता है उसका कभी नाश नहीं होता – वह अक्षय हो जाता है । अतः नाना प्रकार के कर्म – यज्ञ , दान , कठिन तपस्या और व्रतादि के द्वारा आपकी प्रसन्नता प्राप्त करना ही मनुष्य का सबसे बड़ा कर्मफल है , क्योंकि आपकी प्रसन्नता होने पर ऐसा कौन सा फल है जो सुलभ नहीं हो जाता ।।13।।

 

शश्वतस्वरूपमहसैव निपीतभेद

मोहाय बोधधिषणाय नमः परस्मै ।

विश्वोद्भवस्थितिलयेषु निमित्तलीला-

रासाय ते नम इदं चकृमेश्वराय ।।14।।

 

आप सर्वदा अपने स्वरूप के प्रकाश से ही प्राणियों के भेद – भ्रम रूप अंधकार का नाश करते रहते हैं तथा ज्ञान के अधिष्ठान साक्षात् परम पुरुष हैं ; मैं आपको नमस्कार करता हूँ । संसार की उत्पत्ति , स्थिति और संहार के निमित्त से जो माया की लीला होती है , वह आपका ही खेल है , अतः आप परमेश्वर को मैं बार – बार नमस्कार करता हूँ ।।14।।

 

यस्यावतारगुणकर्मविडम्बनानि

नामानि येसुविगमे विवशा गृणन्ति ।

ते नैकजन्मशमलं सहसैव हित्वा

संयान्त्यपावृतमृतं तमजं प्रपद्ये ।।15।।

 

जो लोग प्राण त्याग करते समय आपके अवतार , गुण और कर्मों को सूचित करने वाले देवकीनंदन , जनार्दन , कंसनिकन्दन आदि नामों का विवश हो कर भी उच्चारण करते हैं , वे अनेकों जन्मों के पापों से तत्काल छूट कर मायादि आवरणों से रहित हो कर ब्रह्म पद को प्राप्त कर लेते हैं । आप नित्य अजन्मा हैं , मैं आपकी शरण लेता हूँ ।।15।।

 

यो वा अहं च गिरिशश्च विभुः स्वयं च

स्थित्युद्भवप्रलयहेतव आत्ममूलं ।

भित्त्वा त्रिपाद्ववृध एक उरुप्ररोह

स्तस्मै नमो भगवते भुवनद्रुमाय ।।16।।

 

भगवन ! इस विश्ववृक्ष के रूप में आप ही विराजमान हैं । आप ही अपनी मूलप्रकृति को स्वीकार करके जगत की उत्पत्ति , स्थिति और प्रलय के लिए मेरे , अपने और महादेव जी के रूप में तीन प्रधान शाखाओं में विभक्त हुए हैं और फिर प्रजापति एवं मनु आदि शाखा – प्रशाखाओं के रूप में फैलकर बहुत विस्तृत हो गए हैं । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।।16।।

 

लोको विकर्मनिरतः कुशले प्रमत्तः

कर्मण्ययं त्वदुदिते भवदर्चने स्वे।

यस्तावदस्य बलवानिह जीविताशां

सद्यश्छिनत्त्यनिमिषाय नमोस्तु तस्मै ।।17।।

 

भगवन ! आपने अपनी आराधना को ही लोकों के लिए कल्याणकारी स्वधर्म बताया है , किन्तु वे इस और से उदासीन रह कर सर्वदा विपरीत ( निषिद्ध ) कर्मों में लगे रहते हैं । ऐसी प्रमाद की अवस्था में पड़े हुए इन जीवों की जीवन आशा को जो सदा सावधान रहकर बड़ी शीघ्रता से काटता रहता है , वह बलवान काल भी आपका ही रूप है ; मैं उसे नमस्कार करता हूँ ।।17।।

 

यस्माद्विभेम्यहमपि द्विपरार्धधिष्ण्य-

मध्यासितः सकललोकनमस्कृतं यत्।

तेपे तपो बहुसवोवरुरुत्समान –

स्तस्मै नमो भगवतेधिमखाय तुभ्यं ।।18।।

 

यद्यपि मैं सत्यलोक का अधिष्ठाता हूँ जो दो परार्ध पर्यन्त रहने वाला और समस्त लोकों का वंदनीय है , तो भी आपके उस काल रूप से डरता हूँ । उससे बचने और आपको प्राप्त करने के लिए ही मैंने बहुत समय तक तपस्या की है ।।18।।

 

तिर्यङ्गमनुष्यविबुधादिषु जीवयोनि-

ष्वामात्मेच्छयात्मकृतसेतुपरीप्सया यः।

रेमेनिरस्तरतिरप्य वरुद्धदेह –

स्तस्मै नमो भगवते पुरुषोत्तमाय ।।19।।

 

आप पूर्णकाम हैं , आपको किसी विषय सुख की इच्छा नहीं है , तो भी आपने अपनी बनाई हुई धर्म मर्यादा की रक्षा के लिए पशु – पक्षी , मनुष्य और देवता आदि जीव योनियों में अपनी ही इच्छा से शरीर धारण कर अनेकों लीलाएं की हैं । ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवान को मेरा नमस्कार है ।।19।।

 

योविद्ययानुपहतोपि दशार्धवृत्त्या

निद्रामुवाह जठरीकृतलोकयात्रः।

अन्तर्जलेहि कशिपुस्पर्शानुकूलां

भीमोर्मिमालिनी जनस्य सुखं विवृण्वन् ।।20।।

 

प्रभो ! आप अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष और अभिनिवेश – पाँचों में से किसी के भी अधीन नहीं हैं ; तथापि इस समय जो सरे संसार को अपने उदर में लीन कर भयंकर तरंग मालाओं से विक्षुब्ध प्रलयकालीन जल में अनंत विग्रह की कोमल शय्या पर शयन कर रहे हैं , वह पूर्वकल्प की कर्म परंपरा से श्रमित हुए जीवों को विश्राम देने के लिए ही है ।।20।।

 

यन्नाभिपद्म भवनादह मासमीड् य

लोकत्रयोपकरणो यदनुग्रहेण।

तस्मै नमस्त उदरस्थभवाय योग

निद्रावसानविकसन्नलिनेक्षणाय।।21।।

 

आपके नाभिकमल रूप भवन से मेरा जन्म हुआ है । यह सम्पूर्ण विश्व आपके उदर में समाया हुआ है । आपकी कृपा से ही मैं त्रिलोकी की रचना रूप उपकार में प्रवृत्त हुआ हूँ । इस समय योगनिद्रा का अंत हो जाने के कारण आपके नेत्रकमल विकसित हो रहे हैं , आपको मेरा नमस्कार है । ।21।।

 

सोयम समस्तजगतां सुहृदेक आत्मा

सत्त्वेन यन्मृडयते भगवान् भगेन।

तेनैव मे दृशमनुस्पृश ताद्यथाहं

स्रक्ष्यामि पूर्ववदिदं प्रणत प्रियोसौ ।।22।।

 

आप सम्पूर्ण जगत के एकमात्र सुहृद और आत्मा हैं तथा शरणागतों पर कृपा करने वाले हैं । अतः अपने जिस ज्ञान और ऐश्वर्य से आप विश्व को आनंदित करते हैं , उसी से मेरी बुद्धि को भी युक्त करें – जिससे मैं पूर्व कल्प के समान इस समय भी जगत की रचना कर सकूं ।।22।।

 

एष प्रपन्नवरदो रमयाऽऽत्मशक्त्या 

यद्यतकरिष्यति गृहीतगुणावतारः ।

तस्मिन् स्वविक्रममिदं सृजतोपि चेतो

युञ्जीत कर्मशमलं च यथा विजह्याम्।।23।।

 

आप भक्तवांछाकल्पतरु हैं । अपनी शक्ति लक्ष्मी जी सहित अनेकों गुणवतार लेकर आप जो – जो अद्भुत कर्म करेंगे , मेरा यह जगत की रचना करने का उद्यम भी उन्हीं में से एक है । अतः इसे रचते समय आप मेरे चित्त को प्रेरित करें – शक्ति प्रदान करें , जिससे मैं सृष्टिरचना विषयक अभिमान रूप मल से दूर रह सकूं ।।23।।

 

नाभि हृदादिः सतोम्भसि यस्य पुंसो

विज्ञानशक्तिरहमासमनन्तशक्तेः।

रूपं विचित्रमिदमस्य विवृण्वतो मे

मा रीरिषीष्ट निगमस्य गिरां विसर्गः ।।24।।

 

प्रभो ! इस प्रलयकालीन जल मे शयन करते हुए आप अनंतशक्ति परम पुरुष के नाभिकमल से मेरा प्रादुर्भाव हुआ है और मैं हूँ भी आपकी ही विज्ञान शक्ति ; अतः इस जगत के विचित्र रूप का विस्तार करते समय आपकी कृपा से मेरी वेदरूप वाणी का उच्चारण लुप्त न हो ।।24।।

 

सोसावदभ्रकरुणो भगवान् विवृद्ध-

प्रेमस्मितेन नयनाम्बुरूहं विजृम्भन्।

उत्थाय विश्वविजयाय च नो विषादं

माध्व्या गिरापनयतात्पुरुषः पुराणः ।।25।।

 

आप अपार करुणामय पुराण पुरुष हैं । आप परम प्रेममयी मुस्कान के सहित अपने नेत्र कमल खोलिये और शेषशय्या से उठकर विश्व के उद्भव के लिए अपनी सुमधुर वाणी से मेरा विषाद दूर कीजिये ।।25।।

 

 

 

 

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ब्रह्मा जी द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति ( श्रीमदभागवतम )

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