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श्री गीत गोविन्दम
गीतगोविन्द प्रसिद्द कवि जयदेव की काव्य रचना है। गीतगोविन्द में श्रीकृष्ण की गोपिकाओं के साथ रासलीला, राधाविषाद वर्णन, कृष्ण के लिए व्याकुलता, उपालम्भ वचन, कृष्ण की श्रीराधा के लिए उत्कंठा, राधा की सखी द्वारा राधा के विरह संताप का वर्णन है। जयदेव का जन्म ओडिशा में भुवनेश्वर के पास केन्दुबिल्व नामक ग्राम में हुआ था। वे बंगाल के सेनवंश के अन्तिम नरेश लक्ष्मणसेन के आश्रित महाकवि थे। लक्ष्मणसेन के एक शिलालेख पर 1116 ई० की तिथि है अतः जयदेव ने इसी समय में गीतगोविन्द की रचना की होगी। ‘श्री गीतगोविन्द’ साहित्य जगत में एक अनुपम कृति है। इसकी मनोरम रचना शैली, भावप्रवणता, सुमधुर राग-रागिणी, धार्मिक तात्पर्यता तथा सुमधुर कोमल-कान्त-पदावली साहित्यिक रस पिपासुओं को अपूर्व आनन्द प्रदान करती हैं।
गीतगोविन्द वैष्णव सम्प्रदाय में अत्यधिक प्रचलित है। अतः 13वीं शताब्दी के मध्य से ही श्री जगन्नाथ मन्दिर में इसे नित्य सेवा के रूप में अंगीकार किया जाता रहा है। इस गीतिकाव्य के प्रत्येक प्रबन्ध में कवि ने काव्यफल स्वरूप सुखद, यशस्वी, पुण्यरूप, मोक्षद आदि शब्दों का प्रयोग करके इसके धार्मिक तथा दार्शनिक काव्य होने का भी परिचय दिया है।गीतगोविन्द का रास वर्णन श्रीमद्भागवत के वर्णन से साम्य रखता है; तथा श्रीमद्भागवत के स्कन्ध 10, अध्याय 40 में (10-40-17/22) अक्रूर स्तुति में जो दशावतार का वर्णन है, गीतगोविन्द के प्रथम सर्ग के स्तुति वर्णन से साम्य रखता है।
गीत गोविंदम, कृष्ण और गोपियों, विशेष रूप से राधा के बीच प्रेम का उत्सव मनाने वाली संस्कृत की गीतात्मक कविता, उड़ीसा के 12 वीं शताब्दी के भक्त-कवि जयदेव द्वारा लिखी गई है। इस कार्य का आधार श्रीमद्भगवतम (रसपंचाध्यायी के रूप में जाना जाता है) के 5 अध्याय ( 29 से 33 ) हैं, जो रासलीला की घटनाओं का वर्णन करते हैं, यमुना के तट पर हुआ महान नृत्य जहां प्रत्येक गोपी सोचती है कि कृष्ण उसके साथ हैं। हालाँकि, श्रीमद्भगवतम, विशेष रूप से राधा नाम की एक गोपी के बारे में बात नहीं करता है, हालांकि कुछ अन्य पुराणों में राधा को कृष्ण के ह्रदय के रूप में वर्णित किया गया है।
उपरोक्त विषय को गीत गोविंदम में इस सीमा तक विकसित किया गया है कि इसे ‘श्रृंगार महाकाव्य’ के रूप में जाना जाता है, जिसमें राधा और कृष्ण के बीच दिव्य प्रेम के संबंध में प्रमुख भावना श्रृंगार रस भावना है। मिलन की उमंग, विरह की व्यथा, अपनों के इंतजार के बेचैन पलों को संवेदनशीलता और काव्यात्मक उत्कृष्टता के साथ चित्रित किया गया है। पूरे काम को बारह अध्यायों ( सर्गों) में विभाजित किया गया है, प्रत्येक अध्याय में एक या एक से अधिक प्रबंध हैं।
कुल 24 प्रबंध हैं जिनमें से प्रत्येक में दोहे हैं जिन्हें अष्टपदी कहा जाता है, जो उस अष्टपदी के लिए विशिष्ट राग के साथ गाने हैं। गीत गोविंदम में कुल 24 अष्टपदी हैं। प्रत्येक अध्याय में संस्कृत कविता के विभिन्न छंदों में अष्टपदी के साथ मिले हुए एक या अधिक श्लोक हैं। कहा जाता है कि कवि-भक्त जयदेव अष्टपदी गाते थे और उनकी पत्नी पद्मावती संगीत पर नृत्य करती थीं। अष्टपदी को एक नृत्य नाटिका के रूप में चित्रित करने और प्रस्तुत करने के लिए कई नृत्यकला के कार्य हुए हैं।
गीतगोविन्द काव्य में जयदेव ने जगदीश का ही जगन्नाथ, दशावतारी, हरि, मुरारी, मधुरिपु, केशव, माधव, कृष्ण इत्यादि नामों से उल्लेख किया है। यह 24 प्रबन्ध (12 सर्ग) तथा 72 श्लोकों (सर्वांगसुन्दरी टीका में 77 श्लोक) युक्त परिपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें राधा-कृष्ण के मिलन-विरह तथा पुनर्मिलन को कोमल तथा लालित्यपूर्ण पदों द्वारा बाँधा गया है।
आखिर यह गीत गोविन्द प्रकट कैसे हुआ ? एक बार प्रभु प्रेरणा से जयदेव जी के ह्रदय में आया कि मैं प्रभु चरित्र मय एक नवीन पुस्तक बनाऊँ तब श्री गोविंद जी का अति सरस गीत “श्री गीतगोविंद” प्रकट हुआ।जब जयदेव गीत गोविन्द लिख रहे थे तो एक प्रसंग उन के हृदय में आया- “स्मर-गरल-खंडन, ममशिरसि मंड़न देहि पदपल्लवमुदाराम”, अर्थात भगवान राधा जी से कह रहे है – हे प्रिय ! कन्दर्प का विष खंडन करने वाला, और मेरे मस्तक का मेरे मस्तक का मंडल भूषण अपने चरण कमलों को मेरे सिर पर रखो’ लेकिन जयदेव जी को इस प्रसंग पर शंका हुई और इसे बीच में अधूरा छोड़ कर विचार करते हुए आप स्नान करने चले गए। जब वापिस आ कर देखा तो अचंभित रह गए की जैसा उन्होंने सोचा था वैसा ही श्लोक लिखा हुआ पाया । पत्नी से पूछा तो पत्नी ने बताया की आप खुद ही आए थे और इसे लिखकर वापिस स्नान करने चले गए। इस पर जयदेव जी समझ गए की स्वयं भगवान यह पंक्तियाँ लिख कर गए हैं।
श्री जयदेव गोस्वामी ने इस अप्राकृत या दिव्य प्रणय का सुन्दर वर्णन किया है । भगवान श्रीकृष्ण शक्तिमान हैं और श्रीमती राधिका रानी उनकी परा शक्ति हैं । श्री राधिका और श्रीकृष्ण की लीला शक्ति और शक्तिमान की लीला है । काम की गंध से रहित यह अप्राकृत और दिव्य प्रेम की लीला है । लौकिक प्रेम और दिव्य प्रेम दोनों के लक्षण अलग हैं । प्राकृत या लौकिक या भौतिक प्रेम लोहे के समान है और अलौकिक प्रेम या अप्राकृत या दिव्य प्रेम सोने के समान है । अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने की इच्छा को , इन्द्रियों को सुख देने की चाह को काम कहते हैं किन्तु श्री कृष्णेन्द्रिय प्रीति को विशुद्ध प्रेम कहते हैं ।
यदि हरिस्मरणे सरसं मनो
यदि विलास कलासु कुतूहलम ।
मधुर – कोमल – कान्त – पदावलीं
शृणु तदा जयदेव सरस्वतीं।।
अर्थात उन्होंने कहा है कि यदि श्री हरि की सुखद स्मृति की मन में इच्छा है अथवा यदि तुम प्रीतिपूर्वक हरि का स्मरण करने में मन को अनुरक्त करना चाहते हो और यदि उस लीलारस को आस्वादन करने का कौतुहल हो अर्थात यदि एकांतिक अभिलाषा हो अथवा श्रीहरि के विलास नैपुण्य को जानने का ह्रदय में कौतुहल हो तभी सुमधुर कोमलकांत पदावलीयुक्त जयदेव कृत अप्राकृत काव्य का श्रवण या पाठ करो अन्यथा इसका पाठ मत करो अर्थात अधिकारी भक्तजन ही इस दिव्य एवं पवित्र काव्य के श्रवण या पाठन के अधिकारी हैं क्योंकि अनाधिकारी व्यक्ति इस काव्य को पढ़कर सही अर्थ समझने के बजाय कुछ दूसरा ही अर्थ समझ लेंगे और जिसके फलस्वरूप उनका हित के बदले अनहित ही होगा । भगवान की दिव्य रास लीला को सामान्य मनुष्यों के प्रेम की भांति समझना अत्यंत नासमझी है । यह बात अभक्त नहीं समझ सकते । इसलिए जो भगवान् के प्रेमी भक्त जन हैं वे ही इस काव्य का श्रवण – पाठन करें । कहते हैं कि भगवान् जगन्नाथ को जयदेव रचित यह काव्य अत्यंत प्रिय है । भगवन जगन्नाथ को जयदेव के गीत गोविन्द से अधिक कोई भी अन्य काव्य प्रिय नहीं है । भगवन जगन्नाथ को नियमपूर्वक जयदेव रचित गीत गोविन्द सुनाया जाता है ।
एक बार एक माली की लड़की खेत में बेंगन तोड़ते हुए ‘गीत गोविन्द’ के पांचवे सर्ग की इस अष्टपदी को गा रही थी—
धीर समीरे यमुना तीरे वसति वने वनमाली ।
गोपीपीनपयोधरमर्दनचञ्चलकरयुगशाली ॥1॥
उसके मधुर गीत को सुनने के लिए भगवान जगन्नाथ उस लड़की के पीछे-पीछे घूमने लगे । उस समय भगवान ने अत्यंत महीन ढीली पोशाक धारण की हुई थी, जो कांटों में उलझ कर फट गई । लड़की का गाना खत्म होने पर जगन्नाथ जी मंदिर में पधारे तो उनके फटे वस्त्रों को देख कर पुरी का राजा, जो उनके दर्शन के लिए आया था, बड़ा आश्चर्यचकित हुआ ।
राजा ने पुजारियों से पूछा—‘ठाकुरजी के वस्त्र कैसे फट गए ? पुजारियों ने कहा—हमें तो कुछ मालूम नहीं, यह कैसे हुआ ?’
तब भगवान ने स्वयं सब बात पुजारी को स्वप्न में बता दी । राजा ने भगवान की ‘गीत गोविन्द’ के पदों को सुनने की रुचि जान कर उस बालिका को पालकी भेज कर बुलाया । उस बालिका ने भगवान के सामने नृत्य करते हुए उसी अष्टपदी को गाकर सुनाया । तब से राजा ने मंदिर में नित्य ‘गीत गोविन्द’ के गायन की व्यवस्था कर दी । साथ ही पुरी में ढिंढोरा पिटवा दिया कि चाहे कोई अमीर हो या गरीब; सभी ‘गीत गोविंद’ की अष्टपदियों का इस भाव से गायन करें कि स्वयं सुगल सरकार श्रीराधाकृष्ण इसे सुन रहे हैं । भक्त का प्रेम ईश्वर के लिए महापाश है, जिसमें बंधकर भगवान भक्त के पीछे-पीछे घूमते हैं । इस भगवत्प्रेम में न ऊंच है न नीच, न छोटा है न बड़ा । न मन्दिर है न जंगल । न धूप है न चैन । है तो बस प्रेम की पीड़ा; इसे तो बस भोगने में ही सुख है । यह प्रेम भक्त और भगवान दोनों को समान रूप से तड़पाता है ।
जगन्नाथपुरी के एक अन्य राजा ने श्रीकृष्ण-लीलाओं की पुस्तक बनवा कर उसका नाम भी ‘गीत गोविन्द’ रख दिया । राजा के चापलूस ब्राह्मण सब जगह यह प्रचार करने लगे कि यही असली ‘गीत गोविन्द’ है । असली पुस्तक का निर्णय करने के लिए दोनों ‘गीत गोविन्द’ की पुस्तकें भगवान जगन्नाथ जी के मंदिर में रख दी गईं । दूसरे दिन जब पट खुले तो भगवान ने राजा की पुस्तक दूर फेंक दी और जयदेव कृत ‘गीत गोविन्द’ की पुस्तक को अपनी छाती से चिपका रखा था ।
यह देख कर राजा समुद्र में डूबने चला । तब भगवान ने आकाशवाणी की कि तुम समुद्र में मत डूबो । तुम्हारी पुस्तक के बारह श्लोक जयगेव कृत ‘गीत गोविन्द’ के बारह सर्गों में लिखे जाएंगे; जिससे तुम्हारी प्रसिद्धि भी संसार में फैल जाएगी ।
ऐसा माना जाता है कि ‘गीत गोविन्द’ की अष्टपदियों का जो कोई नित्य पठन और गान करे, उसकी बुद्धि पवित्र और प्रखर होकर दिन-प्रतिदिन बढ़ती है । साथ ही इन अष्टपदियों का जहां प्रेम से गायन होता है, वहां उन्हें सुनने के लिए श्रीराधाकृष्ण अवश्य विराजते हैं और प्रसन्न होकर कृपा-वृष्टि करते हैं ।
भगवान जगन्नाथ जी का ही स्वरूप माने जाने वाले महाकवि जयदेव द्वारा रचित महाकाव्य ‘गीत गोविन्द’ की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है ? जिस पर रीझ कर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अपने हाथ से पद लिख कर उसे पूरा किया । जयदेव जी और उनकी पत्नी पद्मावती श्रीकृष्ण प्रेमरस में डूबे रहते थे । जयदेव जी को भगवान के दशावतारों के प्रत्यक्ष दर्शन हुए थे ।
श्री गीत गोविन्दम
प्रथम सर्गः
अथ प्रथम संदर्भः
प्रबंधः 1
सामोद – दमोदरः
मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुवः श्यामाः तमालद्रुमैः
नक्तंभीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे गृहं प्रापय।
इत्थं नन्दनिदेशतः चलितयोः प्रत्यध्वकुञ्जद्रुमं
राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रहः केलयः।।1।।
हे राधे ! समस्त दिशाएं घनघोर घटाओं से आच्छादित हो गयी हैं। वन वसुंधरा अर्थात वन की धरती श्यामल तमाल विटपावली की प्रतिच्छाया से अर्थात जंगल के वृक्षों की काली छाया से तिमिरयुक्ता अर्थात अंधकारमय हो गई है । भीरु स्वभाव वाले कृष्ण इस निशीथ ( अंधकार ) में एकाकी ( अकेले ) नहीं जा सकेंगे । अतः तुम इन्हे अपने साथ ही लेकर सदन ( घर ) में पहुँचो। श्री राधा जी सखी द्वारा उच्चरित इस वचन का समादर ( आदर ) करती हुई आनन्दातिशयता ( प्रसन्नता ) से विमुग्ध हो , पथ के पार्श्व ( पीछे ) में स्थित कुञ्ज तरुवरों ( वृक्षों ) की ओर अभिमुख हुईं और कालिंदी ( यमुना ) के किनारे उपस्थित होकर एकांत में केलि करने लगीं । श्री युगल माधुरी की यह रहस्यमयी लीला भक्तों के ह्रदय में स्फुरित होकर विजयी हो ।।1।।
गीतगोविन्द नामक इस प्रबन्ध में श्रीराधा-माधव की एकांत की प्रेममयी निकुञ्ज लीला का चित्रण किया गया है। रचनाकार महाकवि श्रीजयदेव गोस्वामी ने श्रीराधामाधव की स्मर केलि-लीला का वर्णन कर उन दोनों की सर्वश्रेष्ठता स्थापित की है। ग्रन्थ कृति के प्रारम्भ में श्रीकविराज जी ने तमालवृक्ष के तम:पुञ्ज द्वारा समाच्छादित कुञ्ज-भवन में श्रीराधा-माधव की प्रविष्टि का चित्रण किया है। परम प्रेयसी श्रीराधा अपनी सखी के वचनों का स्मरण कर श्रीकृष्ण को साथ लेकर कुञ्ज में प्रवेश कर जो सुख क्रीड़ाएँ करती हैं, उन्हीं को मंगला चरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ग्रन्थ का प्रतिपाद्य-तत्त्व श्रीराधामाधव की लीलामाधुरी है; अत: यह प्रबन्ध सभी के लिए मंगलदायी और कल्याणकारी है।
वाग्देवता चरितचित्रितचित्तसद्मा
पद्मावतीचरणचारणचक्रवर्ती।
श्रीवासुदेवरतिकेलिकथा समेतं
एतं करोति जयदेवकविः प्रबन्धम् ।।2।।
जिनके चित्त सदन में समस्त वाणियों के नियंता श्री कृष्ण की चरितावली सुचारु रूप से चित्रित हो रही है जो श्री राधा जी के चरण युगल प्राप्ति की लालसा में निरंतर नृत्य विधि के अनुसार निमग्न हो रहे हैं। ऐसे महाकवि जयदेव गोस्वामी श्री कृष्ण की कुञ्ज विहारादि सुरत लीला समन्वित इस गीत गोविन्द नाम के ग्रन्थ का प्रणयन कर भाव ग्राही भक्त जनों के उज्जवल भक्ति रस को उच्छलित कर रहे हैं।।2।।
यदि हरिस्मरणे सरसं मनः
यदि विलासकलासु कुतूहलम्।
मधुरकोमलकान्तपदावलिं
शृणु तदा जयदेवसरस्वतीम्॥3॥
हे श्रोताओं ! यदि श्री हरि के चरित्र का चिंतन करते हुए आप लोगों का मन सरस अनुराग मय होता है तथा उनकी रास विहारादि विलास कलाओं की सुचारु चातुर्यमयी चेष्टा के विषय में आपके ह्रदय में कौतुहल होता है तो मनोहर, सुमधुर , मृदुल और कमनीय कांति गुण वाले पद समूह युक्त कवि जयदेव की इस गीतावली को भक्ति भाव से श्रवण कर आनंद में निमग्न हो जाएं ।।3।।
वाचः पल्लवयत्युमापतिधरः सन्दर्भशुद्धिं गिरां
जानीते जयदेव एव शरणः श्लाघ्यो दुरूहद्रुतेः।
शृङ्गारोत्तरसत्प्रमेयरसनैः आचार्य गोवर्धन-
स्पर्धी कोऽपि न विश्रुतः श्रुतिधरो धोयी कविक्ष्मापतिः।।4।।
उमापतिधर नामक कोई विख्यात कवि अपनी वाणी को अनुप्रासादि अलंकार के द्वारा सुसज्जित करते हैं । शरण नाम के कवि अत्यंत क्लिष्ट पदों में कविता का विन्यास कर प्रशंसा के पात्र हुए हैं । सामान्य नायक नायिका के वर्णन में केवल श्रृंगार रस का उत्कर्ष वर्णन करने में गोवर्धन के समान दूसरा कोई कवि दृष्टि गोचर नहीं हुआ है । कविराज धोयी तो श्रुतिधर हैं। वे जो कुछ भी सुनते हैं कंठस्थ कर लेते हैं। जब ऐसे ऐसे महान कवि सर्व गुण संपन्न नहीं हो सके फिर जयदेव कवि का काव्य किस प्रकार सर्व गुण हो सकता है।।4।। ?
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गीतम १ | अष्टपदी-1
कीर्ति धवल
मालव रागेण रूप कतालेन गीयते
प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदम्
विहितवहित्रचरित्रमखेदं।
केशव! धृतमीनशरीर जय जगदीश हरे ॥१॥ ध्रुवं
हे केशव ! हे धृत मीन शरीर ! हे जगदीश्वर ! हे हरे ! नौका जैसे बिना किसी खेद के सहर्ष सलिल स्थित किसी वास्तु का उद्धार करती है वैसे ही आपने बिना किसी परिश्रम के निर्मल चरित्र के समान प्रलय जलधि में मत्स्य रूप में अवतीर्ण होकर वेदों को धारण कर उनका उद्धार किया है। हे मत्स्यवतारधारी श्री भगवान ! आपकी जय हो ! ।।1।।
क्षितिरतिविपुलतरे तव तिष्ठति पृष्ठे
धरणिधरणकिणचक्रगरिष्ठे
केशव! धृतकच्छपरूप
जय जगदीश हरे ॥२॥ध्रुवं
हे केशिनिषूदन ! हे जगदीश ! हे हरे ! आपने कूर्म रूप अंगीकार कर के अपने विशाल पृष्ठ के एक प्रान्त में पृथ्वी को धारण किया है जिस से आपकी पीठ व्रण के चिह्नों से गौरान्वित हो रही है । आपकी जय हो ॥२॥
वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना
शशिनि कलङ्ककलेव निमग्ना
केशव! धृत
सूकररूप जय जगदीश हरे ॥३॥ध्रुवं
हे जगदीश ! हे केशव ! हे हरे ! हे वराहरूपधारी ! जिस प्रकार चन्द्रमा अपने भीतर कलंक के सहित सम्मिलित रूप से दिखाई देता है । उसी प्रकार आपके दांतों के ऊपर पृथ्वी अवस्थित है ॥३॥
तव करकमलवरे नखमद्भुतशृङ्गं
दलित हिरण्यकशिपु तनुभृङ्गम्।
केशव! धृत नरहरिरूप जय जगदीश हरे ॥४॥ध्रुवं
हे जगदीश्वर ! हे हरे ! हे केशव ! आपने नृसिंह रूप धारण किया है । आपके श्रेष्ठ कर कमल में नख रुपी अद्भुत शृंग विद्यमान है । जिस से हिरण्यकशिपु के शरीर को आपने ऐसे विदीर्ण कर दिया जैसे भ्रमर पुष्प का विदारण कर देता है , आपकी जय हो ॥४॥
छलयसि विक्रमणे बलिमद्भुत वामन
पदनखनीरजनितजनपावन
केशव धृत वामनरूप जय जगदीश हरे ॥५॥ध्रुवं
हे सम्पूर्ण जगत के स्वामी ! हे श्री हरे ! हे केशव ! आप वामन रूप धारण कर तीन पग धरती की याचना की क्रिया से बलि राजा की वञ्चना कर रहे हैं। यह लोक समुदाय आपके पद – नख – स्थित सलिल से पवित्र हुआ है । हे अद्भुत वामन देव ! आपकी जय हो !।।5।।
क्षत्रियरुधिरमये जगदपगतपापं
स्नपयसि पयसि शमित भवतापम्
केशव! धृत भृगुपतिरूप जय जगदीश हरे ॥६॥ध्रुवं
हे जगदीश ! हे हरे ! हे केशि निषूदन ! आपने भृगु ( परशु राम ) रूप धारण कर क्षत्रिय कुल का विनाश करते हुए उनके रक्तमय सलिल से जगत को पवित्र का संसार का संताप दूर कर दिया है । हे भृगुपति रूप धारिन ! आपकी जय हो ।।6।।
वितरसि दिक्षु रणे दिक्पति कमनीयं
दशमुखमौलिबलिं रमणीयम्
केशव! धृत
रघुपतिरूप जय जगदीश हरे ॥७॥ध्रुवं
हे जगत स्वामिन श्री हरे ! हे केशि निषूदन ! आपने राम रूप धारण कर संग्राम में इन्द्रादि दिक्पालों को कमनीय और अत्यंत मनोहर रावण के किरीट भूषित शिरों की बलि दश दिशाओं में वितरित कर रहे हैं । हे रामस्वरूप ! आपकी जय हो !।।7।।
वहसि वपुषि विशदे वसनं जलदाभं
हलहतिभीतिमिलितयमुनाभम्
केशव! धृत
हलधररूप जय जगदीश हरे ॥८॥ध्रुवं
हे जगत स्वामिन ! हे केशि निषूदन ! हे हरे ! आपने बलदेवस्वरूप धारण कर अति शुभ गौर वर्ण होकर नवीन जलदाभ अर्थात नूतन मेघों की शोभा के सदृश नील वस्त्रों को धारण किया है । ऐसा लगता है , यमुना जी मानो आपके हलके प्रहार से भयभीत होकर आपके वस्त्र में छिपी हुई हैं । हे हलधर स्वरूप ! आपकी जय हो ।।8।।
निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं
सदय हृदय दर्शितपशुघातम्
केशव! धृत
बुद्धशरीर जय जगदीश हरे ॥९॥ध्रुवं
हे जगदीश्वर ! हे हरे ! हे केशि निषूदन ! आपने बुद्ध शरीर धारण कर सदय और सहृदय होकर यज्ञ विधानों द्वारा पशुओं की हिंसा देख कर श्रुति समुदाय की निंदा की है । आपकी जय हो ।।9।।
म्लेच्छनिवहनिधने कलयसि करवालं
धूमकेतुमिव किमपि करालं
केशव! धृत कल्किशरीर जय जगदीश हरे ॥१०॥ध्रुवं
हे जगदीश्वर ! हे श्री हरे ! हे केशि निसूदन ! आपने कल्कि रूप धारण कर म्लेच्छों का विनाश करते हुए धूमकेतु के समान भयंकर कृपाण को धारण किया है । आपकी जय हो ।।10।।
श्रीजयदेवकवेरिदमुदितमुदारं
शृणु सुखदं शुभदं भवसारम्
केशव! धृत दशविधरूप जय जगदीश हरे ॥११॥ध्रुवं
हे जगदीश्वर ! हे श्री हरे ! हे केशि निसूदन ! हे दशबिध रूपों को धारण करने वाले भगवन ! आप मुझ जयदेव कवि की औदार्यमयी , संसार के सार स्वरूप , सुख प्रद एवं कल्याण प्रद स्तुति को सुनें ।।11।।
इस प्रकार प्रथम प्रबंध में दशावतार स्तोत्र कीर्तिधवल नामक छंद है । प्रस्तुत प्रबंध में पारस्वर , मध्यमादि राग , आदि ताल , विलम्बित लय, माध्यमी रीति तथा श्रृंगार रस है। इसमें वासुदेव भगवान के यश का वर्णन है ।
इति श्री गीत गोविन्दे प्रथम संदर्भः
इति दशावतार कीर्तिधवलो नाम प्रथमः प्रबंधः ।
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अथ द्वितीय सन्दर्भः
द्वितीय प्रबंध
वेदानुद्धरते जगन्ति वहते भूगोलमुद्बिभ्रते
दैत्यं दारयते बलिं छलयते क्षत्रक्षयं कुर्वते।
पौलस्त्यं जयते हलं कलयते कारुण्यमातन्वते
म्लेच्छान्मूर्च्छयते दशाकृतिकृते कृष्णाय तुभ्यं नमः ।।1।।
वेदों का उद्धार करने वाले , चराचर जगत को धारण करने वाले , भूमण्डल का उद्धार करने वाले , हिरण्यकशिपु को विदीर्ण करने वाले , बलि को छलने वाले , क्षत्रियों का क्षय करने वाले , पौलस्त्य ( रावण ) पर विजय प्राप्त करने वाले , हल नामक आयुध को धारण करने वाले , करुणा का विस्तार करने वाले , म्लेच्छों का संहार करने वाले – इस दस प्रकार के शरीर धारण करने वाले हे श्रीकृष्ण ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।।12।।
गीतम 2 | अष्टपदी 2
गुर्ज्जरी राग निःसार तालाभ्यां गीयते
(गुर्जरी राग और निःसार ताल के साथ गाया जाता है )
श्रितकमलाकुचमंडल धृतकुण्डल हे
कलितललितवनमाल जय जय देव हरे ॥१॥ ध्रुवं
हे देव ! हे हरे ! हे कमला कुच मंडल बिहारी ! हे कुण्डल भूषण धारी ! हे ललित माला धर ! लक्ष्मी जी के वक्ष स्थल का आश्रय लेने वाले , कानों में कुण्डल तथा अतिशय मनोहर वनमाला धारण करने वाले आपकी जय हो ।।1।।
दिनमणिमण्डलमण्डन।
भवखण्डन हे मुनिजनमानसहंस॥
(जय जय देव हरे ) ॥२॥ ध्रुवं
हे देव ! हे हरे ! हे सूर्य मंडल को विभूषित करने वाले , भव बंधन का छेदन करने वाले, मुनि जनों के मानस सरोवर में विहार करने वाले हंस ! आपकी जय हो ! जय हो ।।2।।
कालियविषधरभञ्जन जनरञ्जन हे
यदुकुलनलिनदिनेश॥
(जय जय देव हरे ) ||३|| ध्रुवं
हे देव ! हे हरे ! विष धर कालिय नाम के नाग का मद चूर्ण करने वाले , निज जनों को आह्लादित करने वाले , हे यदुकुल रूप कमल के प्रभाकर ! आपकी जय हो ! जय हो ।।3।।
मधुमुरनरकविनाशन।
गरुडासन हे सुरकुलकेलिनिदान॥
(जय जय देव हरे ) ॥४॥ ध्रुवं
हे देव ! हे हरे ! हे मधुसूदन ! हे मुरारे ! हे नर कान्त कारी ! हे गरुड वाहन ! हे देवताओं के क्रीड़ा – विहार – निदान , आपकी जय हो ! जय हो ।।4।।
अमलकमलदललोचन।
भवमोचन हे त्रिभुवनभवननिदान॥
(जय जय देव हरे ) ॥५॥ ध्रुवं
हे देव ! हे हरे ! हे निर्मल कमल दाल के समान विशाल नेत्रों वाले , भव दुःख मोचन करने वाले , त्रिभुवन रूप भवन के आधार स्वरुप , आपकी जय हो ! जय जो ।।5।।
जनकसुता कृत भूषण ।
जितदूषण समरशमितदशकण्ठ॥
(जय जय देव हरे ) ॥६॥ ध्रुवं
हे देव ! हे हरे ! श्री रामावतार में सीताजी को विभूषित करने वाले , दूषण नामक राक्षस पर विजय प्राप्त करने वाले तथा यद्ध में दशानन रावण को वध कर शांत करने वाले ! आपकी जय हो ! जय हो ।।6।।
अभिनवजलधरसुन्दर|
धृत मन्दर श्रीमुखचन्द्रचकोर॥
(जय जय देव हरे ) ||७॥ ध्रुवं
हे नवीन जलधर के समान वर्ण वाले श्याम सुन्दर ! हे मंदराचल को धारण करने वाले ! श्री राधा रूप महालक्ष्मी के मुख चंद्र पर आसक्त रहने वाले चकोर स्वरुप ! हे हरे ! हे देव ! आपकी जय हो ! जय हो ।।7।।
तव चरणे प्रणता वयमिति भावय हे
कुरु कुशलं प्रणतेषु
जय जय देव हरे ।।8।। ध्रुवं
हे भगवान्! हम आपके चरणों में शरणागत हैं आप प्रेम भक्ति प्रदान कर अपने प्रति प्रणत जनों का कुशल विधान करें । हे देव ! हे हरे ! आपकी जय हो ! जय हो ।।8।।
श्रीजयदेवकवेरिदं कुरुते मुदं|
मङ्गलमुज्ज्वलगीति ॥
(जय जय देव हरे ) ॥9॥ ध्रुवं
श्री जयदेव कवि प्रणीत यह मनोहर , उज्जवल गीतिमय मंगलाचरण आपका आनंद वर्धन करे अथवा आपके गुणों के श्रवण कीर्तन करने वाले भक्त जनों को आनंद प्रदान करें । आपकी जय हो ! जय हो ।।9।।
पद्मापयोधरतटीपरिरंभलग्न-
काश्मीरमुद्रितमुरो मधुसूदनस्य|
व्यक्तानुरागमिव खेलदनङ्ग खेद-
स्वेदांबुपूरमनुपूरयतु प्रियं वः।।1।।
पद्मा श्री राधा जी के कुमकुम केसर छाप से चिन्हित वक्ष स्थल का आलिंगन करने से जिन श्री कृष्ण का वक्ष स्थल कुमकुम केसर के लाल रंग से अनुरञ्जित हो गया है , मानो श्री कृष्ण के ह्रदय में श्री राधा के प्रति जो प्रेम या अनुराग स्थित है वही रञ्जित हो कर अर्थात लाल रंग के रूप में व्यक्त होने लगा है , ( क्युकी प्रेम का रंग लाल होता है ) साथ ही कंदर्प क्रीड़ा के कारण स्वेद बिंदुओं से जिनका वक्ष स्थल परिलुप्त अर्थात ढक गया है ऐसे मधु सूदन का वक्ष स्थल आप सबका मनोरथ पूर्ण करे।।1।।
इति श्री गीत गोविन्दे द्वितीय संदर्भः
इति श्री गीत गोविन्दे द्वितीयः प्रबंधः
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अथ तृतीय संदर्भः
तृतीयः प्रबंधः
वसन्ते वासन्तीकुसुमसुकुमारैरवयवैः
भ्रमन्तीं कान्तारे बहुविहितकृष्णानुसरणां ।
अमन्दं कन्दर्पज्वरजनितचिन्ताकुलतया
वलत्पादां राधां सरसमिदमूचे सहचरी ॥1।।
किसी समय वसंत ऋतु की सुमधुर बेला में विरह वेदना से अत्यंत कातर होकर राधिका एक वन से दूसरे वन में श्री कृष्ण की खोज करने लगीं , माधवी लता के पुष्पों के समान उनके सुकुमार अंग बहुत थक गए। वे चिंता के कारण अत्यंत विकल हो उठीं , तभी कोई सखी उनको अनुराग भरी बातों से सम्बोधित करती हुई इस प्रकार कहने लगी।।1।।
गीतम 3 | अष्टपदी 3
वसंत राग यति तालभ्याम गीयते
बसंत राग और यति ताल में गाया जाता है
( सरस वसंत समय )
ललित-लवङ्गलता-परिशीलन-कोमल-मलयसमीरे।
मधुकर-निकर-करम्बित-कोकिल-कूजित-कुञ्जकुटीरे॥
विहरति हरिरिह सरसवसन्ते|
नृत्यति युवतिजनेन समं सखि|
विरहिजनस्य दुरन्ते ॥1॥ ध्रुवं
प्रिय सखी ! राधे ! हाय ! यह वसंत काल विरही जनों के लिए अत्यंत दुःख दायी है । देखो न इसके आगमन पर मलय समीर सुकोमल मनोज्ञ लताओं को पुनः पुनः आदर के साथ आलिंगन कर कैसी मनोहर शोभा प्रकट कर रहा है । देखो ! कुञ्ज कुटीरों में भ्रमरों के मंडराने से उत्पन्न गुञ्जार से तथा कोयलों की सुमधुर कुहू ध्वनि से दिग दिगंत परिपूरित हो गए हैं और वे श्री कृष्ण इस कुञ्ज कुटीर में किसी भाग्यवती युवती के साथ विहार कर रहे हैं और प्रेमोत्सव में मग्न होकर नृत्य भी कर रहे हैं ।।1।।
उन्मद-मदन-मनोरथ-
पथिक-वधूजन-जनित-विलापे।
अलिकुल-संकुल-कुसुम-समूह-
निराकुल-वकुल-कलापे॥ (विहरति…)॥2॥ ध्रुवं
प्रिय सखी ! प्रवास में गए हुए पतियों के विरह का अनुभव कर विरहिणियां केवल विलाप करती रहती हैं । तुम देखो तो ! इस वसंत ऋतु में मालती वृक्षों में पुष्पों को समा लेने के लिए कोई रिक्त स्थान ही नहीं है । राशि राशि बकुल पुष्प प्रफ्फुल्लित हो रहे हैं और इन पर श्रेणी बद्ध हो कर असंख्य भ्रमर गुञ्जार कर रहे हैं और उधर श्री कृष्ण युवतियों के साथ विहार तथा नृत्य कर रहे हैं । हाय ! कैसे धैर्य धारण करूँ।।2।।
मृगमद-सौरभ-रभस-वशंवद-
नवदलमाल-तमाले।
युवजन-हृदय-विदारण-मनसिज-
नखरुचि-किंशुकजाले॥ (विहरति…)॥3॥ ध्रुवं
तमाल वृक्षावली नूतन पल्लवों से विभूषित हो मानो कस्तूरी की भाँति चारों ओर सौरभ का विस्तार कर आमोदित हो रही है । देखो , देखो सखी ! इन प्रफुल्लित ढाक ( पलाश ) के पुष्पों की कान्ति कामदेव के नख के समान दिखाई दे रही है । ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मदन राज ने मानो युवक युवतियों के वक्ष स्थल को विदीर्ण कर दिया है ।।3।।
मदन-महीपति-कनकदण्डरुचि-
केसर-कुसुम-विकासे।
मिलित-शिलीमुख-पाटलपटल-
कृतस्मरतूण-विलासे॥ (विहरति…)॥4॥ ध्रुवं
अब वन के विकसित पुष्प – समुदाय ऐसे प्रतीत हो रहे हैं , मानो मदन राज के हेम दण्ड हैं और भ्रमरावलि से घिरे हुए नागकेसर के पुष्पसमूह ऐसे दिखाई दे रहे हैं मानो कामदेव के तूणीर हों ।।4।।
विगलित-लज्जित-जगदवलोकन-
तरुण-करुण-कृत-हासे।
विरहि-निकृन्तन-कुन्दमुखाकृति-
केतकि-दन्तुरिताशे॥ (विहरति…)॥5॥ ध्रुवं
अरी सखी ! वसंत के प्रताप से ऐसा प्रतीत होता है कि सम्पूर्ण जगत निर्लज्ज हो गया है । यह देख कर तरुण करुण पादप समूह अर्थात वृक्ष राज प्रफुल्लित सुमनों के व्याज से हंस रहे हैं । देखो , विरही जनों के ह्रदय को विदीर्ण करने के लिए बरछी की नोक के समान आकार वाले केतकी अर्थात केवड़ा के पुष्प चारों दिशाओं में प्रफुल्लित विकसित हो रहे हैं । इनके संयोग से दिशाएं भी प्रसन्न हो रही हैं ।।5।।
माधविका-परिमल-मिलिते
नवमालिकयाऽतिसुगन्धौ।
मुनिमनसामपिमोहनकारिणि
तरुणाकारणबन्धौ॥ (विहरति…)॥6॥ ध्रुवं
यह वसंत मास वासन्ती पुष्पों के मकरंद से अतिशय ललित और मनोहर हो रहा है तथा नव मालिका ( जूही ) पुष्पों की सुगंध से सुगन्धित हो रहा है । इस काल में तो मुनियों के मन में भी विकार उत्पन्न हो जाता है , वे मुग्ध हो उठते हैं । यह वसंत युवा वर्ग का अकारण बंधु है।।6।।
स्फुरदति-मुग्धलता-परिरंभण
-मुकुलित-पुलकित-चूते।
बृन्दावन-विपिने-परिसर-परिगत
-यमुनाजल-पूते॥ (विहरति…)॥7॥ ध्रुवं
हे सखी ! चपल मुक्ता लता के आलिंगन से युक्त मुकुलित ( मंजरियों से पूर्ण ) तथा रोमांचित आम्र वृक्षों से युक्त वृन्दाविपिन के सन्निकट प्रवाह माना यमुना के पावन जल में श्री हरि युवतियों के साथ परस्पर मिलित होकर विहार कर रहे हैं ।।7।।
श्रीजयदेवभणितमिदं उदयति
हरिचरणस्मृतिसारं।
सरस-वसन्त-समय-वनवर्णन-
मनुगत-मदनविकारम् (विहरति…)॥8॥ ध्रुवं
श्री जयदेव कवि द्वारा वर्णित श्री कृष्ण – विरह जनित उत्कण्ठिता श्री राधा के मदन विकार से संवलित इस वसंत समय की वन शोभा का चित्रण रूप यह सरस मङ्गल गीत अति उत्कृष्ट रूप से प्रकशित हुआ है । यह वासंतिक काल काम विकारों से अनुस्यूत है जो श्री हरि के चरण कमल की स्मृति को उदित कराता है ।।8।।
इति श्री गीत गोविन्दे तृतीय संदर्भः
इति श्री गीत गोविन्दे तृतीय प्रबंधः
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चतुर्थ सन्दर्भः
चतुर्थ प्रबंध
दरविदलितवल्ली चञ्चत्पराग-
प्रकटित-पटवासै-र्वासयन्काननानि ।
इह हि दहति चेतः केतकी-गन्ध-बन्धुः
प्रसरदसमबाण-प्राणवद्गन्धवाहः ॥1।।
हे सखी ! देखो , अर्द्ध प्रस्फुटित मल्लिकालता के मकरंद के श्वेत चूर्ण से वन स्थली श्वेत पटवास द्वारा समाच्छादित हो गई है । केतकी कुसुमों के सुगंध से मलय पवन आमोदित हो रह है । यह पवन कामदेव के बाण के समान उसका प्राण सखा वन विरही जनों के ह्रदय को दग्ध कर रहा है ।।1।।
अद्योतसंग – वसदभुजङ्ग – कवल – क्लेशादिवेशाचलं
प्रालेय – प्लवनेच्छयानुसरित श्रीखंडशैलानिलः ।
किञ्च स्निग्ध – रसाल – मौलि – मुकुलान्यालोक्य हर्षोदया-
दुन्मीलन्ति कुहुः कुहूरिति कलोत्तालाः पिकानां गिरः ।।2।।
अरी सखी ! सुना है श्रीखंडशैल ( मलय पर्वत ) में बहुत से सर्प निवास करते हैं , वहां का पवन भुजङ्गों के विष से निश्चित ही जर्जर हो गया है , इस से ऐसा लगता है की वह उस विष ज्वाला से जल कर हिम सलिल में स्नान करने के लिए हिमालय की ओर प्रवाहित होने लगा है ।देखो ! देखो ! सखी ! मधुर , मनोहर , स्निग्ध रसालमौलि मुकुलों ( मञ्जरियों ) को देख कर हर्ष से विभोर कोकिल कुहु कुहु की मधुर वाणी में उच्च स्वर से कूजन कर रही है ।।2।।
उन्मीलन्मधुगन्धलुब्धमधुपव्याधूतचूताङ्कुर-
क्रीडत्कोकिलकाकलीकलकलैरुद्गीर्णकर्णज्वराः ।
नीयन्ते पथिकैः कथं कथमपि ध्यानावधानक्षण-
प्राप्तप्राणसमासमागमरसोल्लासैरमी वासराः॥3।।
हे सखी ! देखो उन्मीलित आम्र मुकुल के पुष्प किञ्जल्क के मधु गंध के लुब्ध भ्रमरों से प्रकाशित मञ्जरियों पर कोयलें क्रीड़ा करती हुई कुहु कुहु रव से मधुर ध्वनि कर रही हैं और इस कोलाहल से विरही जनों को कर्ण ज्वर हो रहा है । वसंत ऋतु के वासरों में विरही जन अतिशय कठोर विरह यातना के कारण प्राण सम प्रेयसियों का चिंतन करने लगते हैं । तब उनके मुख मंडल के ध्यान से उनके समागम जनित आनंद के आविर्भूत हो जाने से क्षणिक सुख लाभ करते हुए वे अति कष्ट पूर्वक समय को अति वाहित करते हैं ।।3।।
अनेकनारीपरिरंभसंभ्रम-
स्फुरन्मनोहारि-विलास-लालसम्।
मुरारिमारादुपदर्शयन्त्यसौ
सखी समक्षं पुनराह राधिकाम् ॥1।।
बाद में राधा जी की सखी ने बड़ी चतुरता से श्री कृष्ण को खोज लिया। सखी ने देखा कि अति सान्निध्य में ही श्री कृष्ण गोप युवतियों के साथ प्रमोद विलास में निमग्न आदरातिशयता को प्राप्त कर रहे हैं। उन रमणियों के द्वारा आलिङ्गन की उत्सुकता दिखये जाने पर श्री कृष्ण के मन में मनोज्ञ मनोहर विलास की लालसा जाग उठी है । सखी आड़ में छिपकर अर्थात कुछ दूरी से राधा जी को दिखलाती हुई फिर से यह बोली ।।1।।
गीतम 4 | अष्टपदी 4
राम किरी रागेन यतिता लेन च गीयते
चन्दनचर्चित-नीलकलेबर-
पीतवसन-वनमालि।
केलिचल्न्मणि-कुण्डल-मण्डित-
गण्डयुग-स्मितशालि॥
हरिरिह मुग्धवधूनिकरे
विलासिनि विलसति केलिपरे
हरिरिह मुग्धवधूनिकरे॥1॥ ध्रुवं
हे विलासिनी श्री राधे ! देखो ! पीत वसन धारण किये हुए , अपने तमाल – श्यामल – अङ्गों में चन्दन को विलेपन करते हुए , केलि विलास परायण श्री कृष्ण इस वृंदा विपिन में मुग्ध वधुटियों के साथ परम आमोदित होकर विहार कर रहे हैं , जिसके कारण दोनों कानों में कुण्डल डोलायमान हो रहे हैं , उनके कपोल द्वय की शोभा अति अद्भुत है । मधुमय हास विलास के द्वारा मुख मंडल अद्भुत माधुर्य को प्रकट कर रहा है ।।1।।
पीनपयोधर-भार-भरेण
हरिं परिरभ्य सरागम्।
गोपवधूरनुगायति काचित् उदञ्चित-
पञ्चम-रागम्॥2॥ (हरिरिह…) ध्रुवं
देखो सखी ! वह गोपी प्रगाढ़ प्रेम के साथ श्री कृष्ण का आलिंगन करती हुई उनके साथ पंचम स्वर में गाने लगती है ।।2।।
कापि विलास-विलोल-विलोचन-
खेलन-जनित-मनोजम्।
ध्यायति मुग्धवधूरधिकं मधुसूदन-
वदन-सरोजम् ॥3॥ (हरिरिह…) ध्रुवं
देखो सखी ! श्री कृष्ण जिस प्रकार निज अभिराम मुख मंडल की श्रृंगार रस भरी चंचल नेत्रों की दृष्टि से कामिनियों के चित्त में मदन विकार करते हैं , उसी प्रकार यह एक वरांगना भी उस वादन कमल में संसक्त हो कर मकरंद पान की अभिलाषा से लालायित होकर उन श्री कृष्ण का ध्यान कर रही है ।।3।।
कापि कपोलतले मिलिता
लपितुं किमपि श्रुतिमूले।
चारु चुचुम्ब नितम्बवती
दयितं पुलकैरनुकूले ॥4॥ (हरिरिह…) ध्रुवं
वह देखो सखी ! एक गोपी ने अपने प्राण वल्लभ श्री कृष्ण के कर्ण में कोई रहस्य पूर्ण बात करने के बहाने जैसे ही कपोल अर्थात गालों के पास अपना मुख लाई। श्री कृष्ण उसके सरस अभिप्राय को समझ गए और रोमांचित हो उठे। पुलकित श्री कृष्ण को देख वह अपनी मनोकामना पूर्ण करने का अनुकूल अवसर जान उनके कपोलों ( गालों ) को परमानन्द में निमग्न हो प्रेम करने लगी ।।4।।
केलिकला-कुतुकेन च
काचिदमुं यमुनावनकूले।
मञ्जुल-वज्जुल- कुञ्ज गतं
विचकर्ष करेण दुकूले ॥5॥ (हरिरिह…) ध्रुवं
सखी ! देखो , श्री हरि जब मनोहर वेंत कुञ्ज गए थे तब कोई अधीर गोपी केलि कला कौतुहल से भर कर उनका पीताम्बर पकड़ कर उन्हें यमुना किनारे ले गयी और परिहास करने लगी ।।5।।
करतल – ताल – तरल – वलयावली –
कलित – कलस्वन – वंशे
रासरसे सहनृत्यपरा हरिणा
युवतिः प्रशंससे ।। (हरिरिह…) ।।6।। ध्रुवं
सखी श्री राधा जी से कहती है – रासलीला में श्री कृष्ण के साथ नृत्य करती किसी युवती के हाथों की ताली की तान के कारण और उसकी चूड़ियों की खनखनाहट तथा वंशीनाद से युक्त अद्भुत स्वर को देखकर श्रीहरि रास रस में आनंदित नृत्य परायणा उस युवती की जी भर कर प्रशंसा करने लगे ।।6।।
श्लिष्यति कामपि चुम्बति कामपि
कामपि रमयति रामाम्।
पश्यति सस्मित चारुतरामपरा
मनुगच्छति वामाम्॥7॥ (हरिरिह…)
श्री कृष्ण किसी गोपी का आलिंगन करते हैं , किसी के साथ विहार करते हैं किसी गोपी को निहार रहे हैं तो कहीं किसी मानिनी के पीछे – पीछे चल रहे हैं ।।7।।
श्री जयदेव – भणितमिदमद्भुत –
केशव – केलि – रहस्यं।
वृन्दावन – विपिन ललितं
वितनोतु शुभानि यशस्यं ।।
हरिरिह – मुग्ध – वधु निकरे….8।।
श्री जयदेव कवि द्वारा रचित यह अद्भुत मंगलमय ललित गीत सभी के यश का विस्तार करे । यह शुभ गीत श्री वृन्दावन के विपिन विहार में श्री राधा जी के विलास परीक्षण एवं श्री कृष्ण द्वारा की गयी अद्भुत रास क्रीड़ा के रहस्य से संबंधित है । यह गान वन बिहार जनित सौष्ठव को अभिवर्धित करने वाला है ।।8।।
विश्वेषामनुरञ्जनेन जनयन्नानन्दमिन्दीवर।
श्रेणीश्यामल-कोमलैःरूपनयन्नगैरनंगोत्सव ।।
स्वच्छन्दं व्रजसुंदरीभिरभितः प्रत्यंगमालिंगितः।
श्रृंगारः सखि मूर्त्तिमानिव मधौ मुग्धो हरिः क्रीडति ।।1।।
हे सखि ! इस वसंत काल में विलास रास में उन्मत्त श्रीकृष्ण मूर्तिमान श्रृंगार रस स्वरूप होकर विहार कर रहे हैं । वे इंदीवर कमल से भी अतीव अभिराम कोमल श्यामल अंगों से कंदर्प महोत्सव का संपादन कर रहे हैं । गोपियों की जितनी भी अभिलाषा है उस से भी कहीं अधिक उनकी अभिलाषाओं को अति अनुराग के साथ तृप्त कर रहे हैं किन्तु व्रज सुंदरियाँ विपरीत रस में आविष्ट उनको आलिंगित कर रही हैं ।।1।।
नित्योत्सङ्गव सद्भुजङ्गक वलक्लेशादिवेशाचलं
प्रालेय प्लवननेच्छयानु सरति श्रीखंड शैलानिलः ।
किञ्च स्निग्ध रसाल मौलि कुसुमान्यालोक्य हर्षोदया
दुन्मीलन्ति कुहूः कुहूरति कलोत्तालाः पिकानां गिरः।।2।।
रासोल्लासभरेण विभ्रम – भृतामाभीर – वाम भ्रुवा –
मभ्यरणे परिरभ्य निर्भरमुरः प्रेमान्ध्या राध्या।
साधु तदवदनं सुधा मयमिति व्याहृत्य गीतस्तुति –
व्याजादुद्भट चुम्बितः स्मितमनोहारी हरिः पातु वः।।3।।
जिस श्री कृष्ण के प्रेम में अंधी हो कर विमुग्ध राधा रास लीला के प्रेम में विह्वल हो कर गोपांगनाओं के समक्ष श्री कृष्ण का आलिंगन कर कहती हैं ,” अहा नाथ ! तुम्हारा वदनकमल अत्यंत सुन्दर है । कैसा विशाल वक्ष स्थल है , अनुपम सुधा राशि का आकर है । इस प्रकार स्तुति करती हैं । श्री राधा की ऐसी प्रेमासक्ति देख कर ह्रदय में स्वतः स्फूर्त आनंद के कारण जिस श्री कृष्ण का मुख कमल मनोहर हास्य भूषण से विभूषित हो गया था ऐसे श्री कृष्ण आप सबका मंगल विधान करें ।।3।।
इति श्री गीत गोविन्दे चतुर्थ प्रबंधः
इति श्रीगीतगोविन्दे शृङ्गारमहाकाव्ये श्रीकृष्णदासजयदेवकृतौ सामोददामोदरोनाम प्रथमःसर्गः
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द्वितीय सर्गः
अकलेश केशवः
पंचम संदर्भः
पंचम प्रबंधः
विहरति वने राधा साधारण – प्रणये हरौ
विगलित – निजोत्कर्षादीर्ष्यावशेन गतान्यतः
क्वचिदपि लताकुंजे गुंजनमधुव्रत – मंडली –
मुखर – शिखरे- लीना दीनाप्युवाच रहः सखीम।।1।।
समस्त गोपांगनाओं के साथ एक समान स्नेहमय श्री कृष्ण को वृंदा विपिन में विहार करते हुए देख कर अन्य गोपिकाओं की अपेक्षा अपना वैशिष्ट्य न होने से प्रणय – कोप के आवेश में वहां से दूर जा कर भ्रमर मंडली से गुंजित दूसरे लता कुञ्ज में श्री राधा छिप गयी एवं अति दीन हो कर गोपनीय बातों को भी सखी से कहने लगी।।1।।
गीतम ।। 5 ।। अष्टपदी 5
गुर्ज्जरी राग यतीतालाभ्यां गीयते
( गुर्जरी राग और यति ताल में गया जाता है )
सञ्चरदधर सुधा मधुर ध्वनि मुखरित मोहन वंशम
बलित दृगञ्चल चञ्चल मौलि कपोल विलोल वतंसं।
रासे हरिमिह विहित विलासं
स्मरति मनो मम कृत परिहासम ।।1।। ध्रुवं
सखी ! कैसे आश्चर्य की बात है कि इस शारदीय रासोत्सव में श्री कृष्ण मुझे छोड़ कर अन्य गोपियों के साथ कौतुक आमोद में विलास कर रहे हैं । फिर भी मेरा मन उनका बार – बार स्मरण कर रहा है । वे संचरण शील अपने मुखामृत को अपने कर कमल में स्थित वेणु में भर कर फुत्कार के साथ सुमधुर मुखर स्वरों में बजा रहे हैं । अपाङ्ग भंगी के द्वारा अपने मणिमय शिरोभूषण को चंचलता प्रदान कर रहे हैं , उनके कानों के आभूषण कपोल देश में दोलायमान हो रहे हैं । उनके इस श्याम रूप का , उनके हास – परिहास का मुझे बारम्बार स्मरण हो रहा है ।। 1।।
चन्द्रक चारु मयूर शिखंडक मंडल वलयित केशं ।
प्रचुर पुरंदर धनुरनुरञ्जित मेदुर मुदिर सुवेशं ।।
रासे हरिमिह ………………।।2।।ध्रुवं
अर्द्ध चंद्राकार से सुशोभित अति मनोहर मयूर पिच्छ से वेष्टित केश वाले तथा प्रचुर मात्रा में इन्द्रधनुषों से अनुरंजित नवीन जलधर पटल के समान शोभा धारण करने वाले श्री कृष्ण का मुझे अधिक स्मरण हो रहा है ।।2।।
गोप कदम्ब नितम्बवती मुख चुम्बन लम्भित लोभं।
बंधुजीव मधुराधर पल्लवमुल्लसित स्मित शोभम।।
रासे हरिमिह ………………।।3।।ध्रुवं
गोप ललनाओं के मुख कमल को प्रेम प्रदान करने की अभिलाषा से इस अनंग उत्सव में होने मुख को झुकाये उनका सुकुमार अधर पल्लव पुष्प के समान मनोहारी लाल वर्ण हो रहा है , स्फूर्ति युक्त मंद मुस्कान की अपूर्व शोभा उनके सुन्दर मुख मंडल में विस्तार प्राप्त कर रही है । ऐसे उन श्री कृष्ण का मुझे अत्यंत स्मरण हो रहा है ।।3।।
विपुल पुलक भुज पल्लव वलयित वल्लव युवति सहस्रं।
कर चरणोरसि मणिगण भूषण किरण विभिन्न तमिस्रं।।
रासे हरिमिह ………………।।4।।ध्रुवं
अतिशय रोमांच से भर कर अपने सुकोमल भुज पल्लव के द्वारा सहस्रों गोपिकाओं को समालिङ्गित करने वाले एवं कर , चरण और वक्ष स्थल में जड़ित मणिमय आभूषणों की करणों से दिशाओं को आलोकित करने वाले श्री कृष्ण का मुझे स्मरण हो रहा है ।।4।।
जलद पटल बलदिन्दु विनिन्दक चन्दन तिलक ललाटं ।
पीन पयोधर परिसर मर्दन निर्दय ह्रदय कवाटम।।
रासे हरिमिह ………………।।5।।ध्रुवं
अपने ललाट में मनोहर चन्दन के तिलक को धारण कर नवीन मंडल में विद्यमान चंचल चन्द्रमा की महती शोभा को पराभूत कर अनिर्वचनीय सुषमा को धारण करने वाले एवं गोपिकाओं को अपने सुविशाल सुदृढ़ वक्ष स्थल से सुखी करने में सतत अनुरक्त किवाड़ स्वरूप निर्दय ह्रदय श्री कृष्ण का मुझे बार बार स्मरण हो रहा है ।।5।।
मणिमय मकर मनोहर कुण्डल मंडित गण्डमुदारं।
पीतवसन मनुगत मुनि मनुज सुरसुरवर परिवारं।।
रासे हरिमिह ………………।।6।।ध्रुवं
जिनके कपोल युगल मणिमय मनोहर मकराकृति कुण्डलों के द्वारा सुशोभित हो रहे हैं , जिन्होंने कामिनी जनों मनोभिलाषा को पूर्ण करने में महान उदार भाव को धारण किया है । जिन पीताम्बरधारी श्री कृष्ण ने अपनी माधुरी का विस्तार कर के सुर , असुर , मुनि , मनुष्य आदि अपने श्रेष्ठ परिवार को प्रेम रस में सराबोर कर दिया है उन श्री कृष्ण का मुझे बरबस ही स्मरण हो रहा है ।।6।।
विशद कदम्ब तले मिलितं कलि कलुष भयं शमयन्तं ।
मामपि किमपि तरङ्गदनंगदृशा मनसा रम्यंतं।।
रासे हरिमिह ………………।।7।।ध्रुवं
विशाल एवं सुविकसित कदम्ब वृक्ष के नीचे मेरी प्रतीक्षा करने वाले विविध प्रकार के आश्वासन युक्त चाटु वचनों के द्वारा भय को दूर करने वाले , प्रबल अनंग रस के द्वारा चंचल नेत्रों से तथा नितांत स्पृहा युक्त मानस में मेरे साथ मन ही मन रमन करने वाले श्री कृष्ण का स्मरण कर मेरा ह्रदय विकल हो रहा है ।।7।।
श्री जयदेव भणितमतिसुन्दर मोहन मधुरिपु रूपं।
हरि चरण स्मरणं संप्रति पुण्यवतामनुरूपं ।।
रासे हरिमिह ………………।।8।।ध्रुवं
श्री जयदेव कवि ने संप्रति हरि चरण स्मृति रूप इस काव्य को भगवद भक्तिमान पुण्यशाली पुरुषों के लिए प्रस्तुत किया है जिसमें श्री कृष्ण के अतिशय सुन्दर मोहन रूप का वर्णन हुआ है । इसका आस्वादन मुख्य रस के आश्रय में रह कर ही किया जाना चाहिए ।।8।।
इति श्रीगीतगोविन्दे पञ्चमः संदर्भः ।
इति श्रीगीतगोविन्दे पञ्चमः प्रबंधः ।
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षष्टम प्रबंधः
षष्टम संदर्भः
गणयति गुणग्रामं भ्रामं भ्रमादपि नेहते
वहति च परितोषं दोषं विमुञ्चति दूरतः ।
युवतिषु वल्तृष्णे कृष्णे विहारिणी मां विना
पुनरपि मनो वामं कामं करोति करोमि किं।।1 ।।
सखी बोली , “श्री कृष्ण ने तुम्हे प्रत्याख्यान किया है फिर भी तुम क्यों उनके प्रेम में व्याकुल हो रही हो “?
प्रिय सखी के द्वारा इस प्रकार भर्त्सना किये जाने पर श्री राधा कहने लगीं , ” सखी ! मैं जानती हूँ कि श्री कृष्ण मुझे परित्याग कर दूसरी युवतियों के साथ अतिशय प्रेम के साथ विहार कर रहे हैं , यह देख कर भी उनके प्रति अनुराग दिखाना व्यर्थ है , फिर भी मैं क्या करूँ, उनके प्रति मेरी प्रबल आसक्ति किसी तरह से दूर नहीं होती है , मैं तो उनके गुणों कि गणना ही करती रहती हूँ । अपने उत्कर्ष का अनुभव कर आनंद में उन्मत्त हो जाती हूँ । भ्रम से भी मुझे उनके प्रति क्रोध नहीं होता उनके दोषों को देखे बिना ही संतोष का अनुभव करती हूँ ।।1।।
गीतम ।। 6 ।। अष्टपदी 6
मालव गौड़ रागेन एक ताली टालें च गीयते
( मालव राग तथा एकताली ताल के द्वारा यह गीत गया जाता है इसकी गति द्रुत है )
निभृत निकुंज गृहं गतया निशि रहसि निलीय वसंतं
चकित विलोकित सकल दिशा रति रभस भरेन हसन्तं ।।
सखि हे केशि मथन मुदारम।
रमय मया सह मदन मनोरथ भावितया सविकारम ।।1।। ध्रुवं ।।
राधा कहती हैं कि हे सखि ! वह केशि मथन श्री कृष्ण जो मदन संताप का शान्ति विधान करने में कभी अनुदार नहीं होते और जिनका मन मेरे प्रति अतिशय अनुराग के कारण विमोहित हुआ है । उनके साथ मेरा अनङ्ग विषयक मनोरथ कैसे सिद्ध होगा ? इसी भावना से मैं व्याकुल हो रही हूँ । अब तुम उनको मुझसे मिला दो । जो पूर्व संकेतानुसार अन्धकार से भरे हुए घने निकुंज गृह में आकर मैं उनके लिए कैसी उत्कंठित हो रही हूँ , उनके दर्शन न हो पाने से मुझमें कैसी तड़प है । इस कौतुक भाव के साथ निकुंज वन के गोपनीय स्थान में छिपकर देखने वाले वे कब आएंगे ? ऐसी चिंता में निमग्न जब थकित चकित नेत्रों से देखती थी तब मेरी कातरता को देखकर श्रृंगार रस से भरी हास्य सुधा से मुझको आनंदित करने वाले उदार तथा केशी नामक दैत्य का वध करने वाले श्री कृष्ण का मुझ काम केलि की इच्छा से परिपूर्ण अन्तः करण वाली तथा रति चेष्टाएं करने वाली के साथ अनङ्ग संबन्धीय मनोरथ सिद्ध कराओ ।।1।।
प्रथम समागम लज्जितया पटु चाटु शतैरनुकूलम ।
मृदु मधुर स्मित भाषितया शिथिलीकृत जघन दुकूलम ।।
सखि हे केशीमथनमुदारम…………।।2।। ध्रुवं
राधा कहती है कि हे सखि ! प्रथम बार मिलन में स्वभाव सुलभ लज्जा से मुझे युक्त देख कर मश्री कृष्ण ने मेरी लज्जा को दूर करने के प्रयास में अनेक प्रकार के चाटुकार पूर्ण अनुनय विनय रूप वचन परंपरा का प्रयोग किया . उनकी चाटुकारिता पूर्ण बातों से विमुग्ध होकर मैं कोमल और मधुर मुस्कान के साथ उनसे वार्तालाप करने लगी । उन श्री कृष्ण से मुझे मिला दो।।2।।
किसलय शयन निवेशितया चिरमुरसि ममैव शयानं ।
कृत परिरम्भण चुम्बनया परिरभ्य कृताधरपानं ।।
सखि हे केशीमथनमुदारम…………।।3।। ध्रुवं
मनोरम , नवीन एवं कोमल पल्लवों कि शय्या पर जिन्होंने मुझे विराजित कर मेरे ह्रदय पर बड़े उल्लसित हो कर शयन किया , मुझे आलिंगित किया , अनङ्ग रस से निमज्जित होते हुए मेरा परिरम्भण कर अधर सुधा रस का पान किया , उन श्री कृष्ण से मुझे मिला दो।।3।।
अलस लोचनया निमीलित पुलकावलि ललित कपोलं।
श्रमजल सकल कलेवरया वरमदन मदादति लोलम ।।
सखि हे केशीमथनमुदारम…………।।4।। ध्रुवं
जिनके साथ मदन – आमोद में अप्रत्याशित सुख से मेरी आँखें अलसा गयीं और मुंद गयीं , उस विलास सुख से श्री कृष्ण के कपोल युगल ने अत्यंत मनोज्ञ तथा ललित रूप धारण किया था , मदन आमोदजनित श्रम के कारण निःसृत स्वेद बिंदुओं से पूरित मेरा मनोहर वदन देख कर उस प्रबलतर मदन रस में मत्त होकर अनङ्ग रस का रसास्वादन करने वाले अति चंचल श्री कृष्ण से हे सखि ! मुझे अति शीघ्र मिला दो ।।4।।
कोकिल कलरव कूजितया जित मनसिज तंत्र विचारम ।
श्लथ कुसुमाकुल कुंतलया नखलिखित घन स्तनभारं।।
सखि हे केशीमथनमुदारम…………।।5।। ध्रुवं
जिन श्री कृष्ण के साथ मैं कोकिल के कलरव के समान कुहक उठी । हे सखि ! उन श्री कृष्ण से मुझे मिला दो ।।5।।
चरण रणित मणि नूपुरया परिपूरितं सुरत वितानं।
मुखर विश्रृंखल मेखलया सकच गृह चुम्बन दानं ।।
सखि हे केशीमथनमुदारम…………।।6।। ध्रुवं
हे सखी केलि क्रीड़ा के समय मेरे चरणों की मणि खचित नूपुरों की रुनझुन ध्वनि गूँज उठती थी , करघनी मुखरित हो कर क्रमानुसार विश्रंखलित हो गयी । हे सखी ! उस सुरत क्रीड़ा का विस्तार करने वाले श्री कृष्ण से मुझे मिला दो ।।6।।
रति सुख समय रसालसया दरमुकुलित नयन सरोजं ।
निःसह निपतित तनुलतया मधुसूदनमुदितमनोजं।।
सखि हे केशीमथनमुदारम…………।।7।। ध्रुवं
उनके साथ अतिशय अनङ्ग सुख के अनुभव से मैं अलसा गयी थी और श्री कृष्ण ने अपने नेत्र कमलों को सामान्य रूप से बंद कर लिए । इस प्रकार श्री राधा के मन में श्री कृष्ण की विदग्धता का अनुभव होने पर भी वह भी अनुरागिणी हो गयी , आज श्री राधा के मन में श्री हरि के साथ लीला विनोद करते हुए पूर्व अनुभूत विषय स्मरण होने से व्याकुल होकर सखी से कहने लगी की हे सखी ! उन श्री कृष्ण से मिला दो ।।7।।
श्रीजयदेव भणितमिदमतिशय मधुरिपु निधुवन शीलं।
सुखमुत्कण्ठित गोपवधू कथितं वितनोतु सलीलं ।।
सखि हे केशीमथनमुदारम…………।।8।। ध्रुवं
श्री जयदेव कवि द्वारा विरचित विरह से उत्कंठित नायिका द्वारा वर्णित श्री कृष्ण के प्रगाढ़ श्रृंगार विषयक सूरत वृत्तांत पढ़ने और सुनने वाले भागवत जनों का कल्याण वर्धन करे ।।8।।
हस्त स्रस्त विलास विलास वंशमनृजु भ्रुवल्लिमदवल्लवी
वृन्दोत्सारि दृगंत वीक्षितमति स्वेदार्द्र गण्डस्थलं।
मामुद्वीक्ष्य विलज्जित स्मित सुधा मुग्धाननं कानने
गोविन्दं व्रजसुन्दरीगण वृतं पश्यामि हृष्यामि च ।।1।।
श्री राधा सखी से कहती हैं कि देख सखी ! मैंने जब इस व्रज कानन ( जंगल ) में बृज सुंदरियों के साथ विराजमान श्री गोविन्द को देख कर हंसा और आनन्दित हुयी तब श्री कृष्ण लज्जा के कारण पसीना पसीना हो गए और उनके कपोल पसीने से भीग गए । मेरे सात्विक भावों को देखकर उनके भी सात्विक भाव उदय हो गए । लज्जा के कारण उनके हाथों से वंशी गिर पड़ी और उन्होंने अपने भौहों के इशारे से व्रज गोपिकाओं को दूर हटा दिया । उस समय उनका मुख मंडल मंद मुस्कान से अत्यंत मनोहर प्रतीत हुआ । इस प्रकार अपने प्रियतम को देख कर मैं अत्यंत परमानंदित हुयी । सखी ! ऐसे प्रियतम श्री कृष्ण से मैं कब मिलूंगी ? ।।1।।
दुरालोकः स्तोक स्तवक नवकाशोक लतिका
विकाशः कासारोपवन पवनोपि व्यथयति ।
अपि भ्राम्यदभृङ्गी रणित रमणीया न मुकुल
प्रसूतिश्चूतानां सखि शिखरिणीयं सुखयति।।2।।
सखि ! श्री कृष्ण के विरह में मेरा मन अब किसी भी प्रकार परितृप्त नहीं हो रहा है। देखो , इस विकसित अशोक की नयी लता की प्रफुल्ल शोभा मेरे नयनों का शूल बन गयी है । इस सरोवर के समीप स्थित उपवनों से आने वाली बयार भी मेरा अंग – अंग दुःखा रही है । चारों ओर भ्रमण करने वाले भौंरों के सुन्दर गुंजन से मनोज्ञ बने हुए वृक्षों के अग्रभाग में निकले हुए आमों के नए – नए बौरे भी मुझे सुखी नहीं करते ।।2।।
साकूत स्मितमाकुलाकूल गलद्धम्मिल्ल मुल्लासित
भ्रु वल्लीकमलीक दर्शित भुजामूलार्द्धदृष्टस्तनम।
गोपीनां निभृतं निरीक्ष्य गमिता कांक्षश्चिरं चिन्तय
न्नन्तर्मुग्ध मनोहरं हरतु वः क्लेशं नवः केशवः ।।3।।
अविवेकी मन को आकर्षित करने वाली गोपियों की साकूत मुस्कान का अपने ह्रदय में चिंतन कर के श्री कृष्ण ने उनके प्रति अपनी आकांक्षाओं को विनष्ट कर दिया है , अब राधा भाव से उल्लसित हो कर नवनवायमान रूप से चमत्कृत हो रहे हैं , ऐसे तरुण केशव आप सबके क्लेशों को विनष्ट करें ।।3।।
इति षष्टम संदर्भः – षष्टम प्रबंधः
इति श्रीगीतगोविन्दे शृङ्गारमहाकाव्ये श्रीकृष्णदासजयदेवकृतौ अक्लेशकेशवोनाम द्वितीयःसर्गः
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तृतीय सर्गः
मुग्ध मधुसूदनः
अथ सप्तमः संदर्भः
सप्तमः प्रबंधः
कंसारिरपि संसार वासना बंध श्रंखलां।
राधामाधाय हृदये तत्याज बृजसुंदरीः।।1।।
कंसारि श्रीकृष्ण ने श्रीराधा के पूर्व प्रणय का स्मरण कर उसे सर्वश्रेष्ठ प्रेम का सार अनुभव करते हुए संसार वासना के बंधन की श्रंखला रुपी श्री राधा को अपने ह्रदय में धारण कर अन्य बृजांगनाओं के प्रेम को अकिञ्चित कर जान कर उन सबका परित्याग कर दिया ।।1।।
इतस्ततस्तामनुसृत्य राधिकामनंग
बाण वृण खिन्न मानसः।
कृतानुतापः स कलिंदनंदिनी
तटांत कुञ्जे विषसाद माधवः ।।2
अनंगबाण से जर्ज्जरित श्री कृष्ण ‘ हाय ‘ मैंने श्रीराधा का परित्याग क्यों किया ? मेरा उनसे कैसे मिलन होगा ? इस प्रकार अनुतापयुक्त हो कर श्री कृष्ण श्री राधा की इधर – उधर खोज करने लगे । कहीं भी न मिलने पर यमुना के निकटवर्ती निकुंज में विषाद युक्त अर्थात दुखी हो कर पश्चाताप करने लगे ।।3।।
गीतम।।7।।अष्टपदी 7
गुर्जरी रागेन यति तालेन च गीयते
(गुर्जरी राग और यति ताल के साथ गाया जाता है )
मामियं चलिता विलोक्य वृतं वधु निचयेन।
सापराधतया मयापि न निवारिताति भयेन।।
हरि हरि हतादरतया गता सा कुपितेव ।।1।। ध्रुवं
वह श्रीराधा मुझे व्रजांगनाओं से परिवेष्टित अर्थात घिरा हुआ देख कर और अपने को उपेक्षित जानकर रुष्ट हो कर यहाँ से चली गयीं । अपने को अपराधी समझ कर भय के कारण मैं उसे रोकने का साहस भी न कर सका । वह कुपित हो कर यहाँ से चली गयीं ।।1।।
किं करिष्यति किं वदिष्यति सा चिरं विरहेण ।
किं धनेन किं जनेन किं मम जीवितेन ग्रहेण।।
हरि हरि हतादरतया……….।।2।।ध्रुवं
विरही श्री कृष्ण कहते हैं कि श्री राधा के वियोग में जो मुझ पर बीत रही है वही उस पर बीत रही होगी । वह कितनी आकुलता – व्याकुलता का अनुभव कर रही होगी ? इस वियोग जनित दुःख के अनुभव का कारण मेरा ही अपराध है । मेरे ही कारण उसे इतना कष्ट हो रहा है । जब उस से मिलूंगा तो न जाने वह कोप और ईर्ष्या आदि की अभिव्यक्ति कैसे करेगी? अपनी प्रिय सखी के निकट ‘ निर्दय ‘ , ‘ निष्ठुर ‘ कहकर मुझ पर अभियोग लगाएगी , न जाने क्या – क्या कहेगी ? उसके बाद मैं कहूंगा कि राधे ! तुम्हारे अभाव में धन , जन, गोधन और गृह सम्पदा सब कुछ तुच्छ प्रतीत होता है ।।2।।
चिन्तयामि तदाननं कुटिल भ्रु कोप भरेण।
शोणपद्ममिवोपरि भ्रमताकुलं भ्रमरेण।।
हरि हरि हतादरतया……….।।3।।ध्रुवं
श्री कृष्ण कह रहे हैं कि मुझे श्री राधा के मुख कमल का स्मरण हो रहा है । उनकी भौंहें क्रोध के कारण और अधिक कुटिल हो गयी होंगीं । कोप के भार से श्री राधा का गोरा और लाल मुखड़ा कुटिल कान्तिवाली भौंहों से उसी प्रकार सुशोभित हो रहा है जैसे लाल कमल के ऊपर मंडराते हुए काले भ्रमरों कि पंक्ति व्याप्त हो ।।3।।
तामहं हृदि संगतांनिशं भृशं रमयामि।
किं वनेअनुसरामि तामिह किं वृथा विलपामि
हरि हरि हतादरतया……………।।4।।ध्रुवं
विरह में अतिशय व्याकुल अंतर्मन में श्री राधा की स्फूर्ति होने पर श्री कृष्ण कहते हैं श्री राधा तो अहर्निश मेरे मन मंदिर में रहने वाली मेरी प्रियतमा हैं और अपनी हृदयस्थिता उन श्री राधा के साथ मैं अत्यधिक रमण करता रहता हूँ । वे मुझ से कभी वियुक्त होती ही नहीं वे तो हर पल मेरे ह्रदय देश में स्थित हैं फिर मैं क्यों उनके लिए व्यर्थ में ही विलाप कर रहा हूँ , क्यों उनको वन – वन ढूंढ़ता फिर रहा हूँ ।।4।।?
तन्वि खिन्नमसूयया हृदयं तवाकलयामि ।
तन्न वेद्यमि कुतो गतासि तेन ते अनुनयामि
हरि हरि हतादरतया……………।।5।।ध्रुवं
श्री कृष्ण श्री राधा की वियोगावस्था से अत्यंत व्याकुल हैं , उद्विग्न हैं । वे राधा जी को अपने सामने ही प्रकट अनुभव कर श्री राधा को तन्वि कह कर सम्बोधित कर के कहते हैं कि हे राधे ! मैंने तुम्हें छोड़ कर दूसरी बृजांगनाओं के साथ विहार किया । इसलिए तुम्हारा ह्रदय कलुषित हो गया । तुम्हारे ह्रदय में उत्कर्षता के कारण दूसरों के प्रति ईर्ष्या भर गयी है , दोषारोपण के कारण तुम्हारा ह्रदय खेदमय हो गया है । तुम यहाँ से अन्यत्र चली गयी हो , यदि मैं जानता कि तुम कहाँ गयी हो तो तुम्हारा पादस्पर्श कर के तुम्हें मना लेता , तुमसे क्षमा मांग लेता । मैं नहीं जनता कि तुम्हारे मान को , क्रोध को दूर करने के लिए कैसे अनुनय – विनय करूँ ।।5।।?
दृश्यसे पुरतो गतागतमेव मे विदधासि।
किं पुरेव ससम्भ्रमं परिरम्भणं न ददासि
हरि हरि हतादरतया……………।।6।।ध्रुवं
श्री कृष्ण कहते हैं कि हे प्रिय राधे ! तुम मेरे सामने से आती जाती दिखाई दे रही हो पर क्या कारण है कि पहले कि भांति अतिशय प्रेमोल्लास के कारण तुम मुझे ह्रदय से नहीं लगा रही हो ? श्री कृष्ण को श्री राधा के विरह के कारण हर जगह श्री राधा ही दिखाई दे रही हैं ।।6।।
क्षम्यतां कदापि तवेदृशं न करोमि ।
देहि सुंदरि दर्शनं मम मन्मथेन दुनोमि
हरि हरि हतादरतया……………।।7।।ध्रुवं
श्री कृष्ण कहते हैं हे सुंदरि ! हे राधे ! मेरे अपराधों को क्षमा करो । जो कुछ हो गे उसे भूल जाओ । अब भविष्य मे कभी ऐसा नहीं होगा । मुझे दर्शन दो । मैं तुम्हारा अत्यंत प्रिय हूँ । मेरी आँखों से ओझल मत हो । मुझे अपने दर्शन दो ।।7।।
वर्णितं जयदेवकेन हरेरिदं प्रवणेन ।
केन्दुविल्व समुद्रसंभव रोहिणी रमणेन
हरि हरि हतादरतया……………।।8।।ध्रुवं
कवि श्रीजयदेव जी ने अत्यंत विनयपूर्वक श्रीराधा जी के प्रति श्री कृष्ण के विरह विलाप का वर्णन किया है । समुद्र से जैसे चन्द्रमा का उद्भव होता है उसी प्रकार केंदुविल्व गाँव में जयदेव नामक कवि का आविर्भाव हुआ है । श्री जयदेव कवि का एक नाम पीयूषवर्षी है । पीयूषवर्षी चन्द्रमा का भी एक नाम है । रोहिणी रमण चन्द्रमा का ही नाम है । चन्द्रमा से जैसे सभी लोग आनंदित होते हैं उसी प्रकार इस गीत काव्य से भी सभी लोग आनंदित होंगे ।।8।।
हृदि विसलता – हारो नायं भुजङ्गम – नायकः
कुवलय – दल – श्रेणी कण्ठे न सा गरल – द्युतिः
मलयज – रजो नेदं भस्म – प्रिया – रहिते मयि
प्रहर न हर – भ्रान्त्या अनंग क्रुधा किमु धावासि ।।1।।
हे अनङ्ग ! क्या तुम मुझे चंद्रशेखर जानकर रोष भर कर कष्ट दे रहे हो ? तुम्हारी यह कैसी विषमता है ? मेरे ह्रदय में जो कुछ देख रहे हो , वह भुजङ्गराज वासु की नहीं है , यह तो मृणाल लता निर्मित हार है । कण्ठदेश में विष की नीलिमा नहीं है , नील कमल की माला है । यह प्रियाविहीन मेरी इस देह पर चिता भस्म नहीं , यह तो चन्दन का प्रियतमा के वियोगजनित संताप को दूर करने के लिए मलयज चन्दन का लेप लगाया है , जो सूखकर भस्म में परिणित हो गया है । मैं तो प्रिया के बिना वैसे ही निष्प्राण हो रहा हूँ; क्यों मेरे ऊपर प्रहार कर रहे हो ? ।।1।।
पाणौ मा कुरु चूत- शायकममुं मा चापमारोपय
क्रीड़ा- निर्जित – विश्व ! मूर्च्छित – जनाघातेन किं पौरुषं ।
तस्या एव मृगीदृशो मनसिज ! प्रेंगखत्कटाक्षाशुग-
श्रेणी – जर्जरितं मनागपि मनो नाद्यापि सन्धुक्षते ।।2।।
हे कंदर्प ! क्रीड़ा के छल से शरासन के बल पर समस्त विश्व को जीतने वाले , स्मर – ज्वर से पीड़ित अत्यंत दीनहीन जर्जरित मेरे जैसे व्यक्ति के ऊपर प्रहार करने से तुम्हारा कौन सा पराक्रम सिद्ध होगा ? तुम इस आम्रमञ्जरी के बाण को अपने हाथ में मत लो और यदि लेते भी हो तो उसे धनुष पे मत चढ़ाओ । देखो ! उस मृगनयना श्रीराधा के ही प्रसृमर कटाक्षों से जर्जरित मेरा मन अभी तक स्वस्थ नहीं हो पाया है । अतएव मदनविकार से मूर्च्छित उस पर प्रहार मत करो ।।2।।
(कामदेव ने मानो श्री कृष्ण से कहा – मेरे शरीर को जलाने वाला वह शिव तो शत्रु है ही परन्तु आप भी मेरे शासन का उल्लंघन करने वाले हैं अतः आप पर भी बाणों का अनुसंधान करूंगा । तब श्रीकृष्ण काम को उपालम्भ देते हुए कहते हैं कि – हे मनसिज ! अपने हाथ में आम के बौरों का बाण मत लो ।
कामदेव के पुष्पबाण 5 प्रकार के होते हैं –
1) आम्र मुकुल 2) अशोक पुष्प 3) मल्लिका पुष्प 4) माधवी पुष्प 5) बकुल पुष्प ( मौलश्री ))
भ्रूपल्लवो धनुरपाङ्ग – तरंगितानी
बाणा गुणः श्रवण – पालिरिति स्मरेण।
तस्यामनंग- जय – जङ्गम- देवताया-
मस्राणि निर्जित – जगन्ति किमर्पितानि।।3।।
अहो ! भ्रूपल्लव रुपी धनुष , अपाङ्ग – भंगिमा, तरङ्ग रुपी बाण , नयन अवधि श्रवण अर्थात धनुष की डोरी – इस सम्पूर्ण अमोघ अस्त्रविद्या के साधनरूपी उपकरणों को कामदेव ने सम्पूर्ण जगत को निर्विशेष रूप में जीत कर उन अस्त्रों की स्वामिनी , अपनी विजय की जङ्गम देवता श्री राधा को पुनः अर्पित कर दिया है ।।3।।
( श्री कृष्ण श्री राधा में काम बाण समूह का आरोपण करते हुए कहते हैं कि संसार को जीतने वाले अस्त्रों को कामदेव ने श्रीराधा में ही निक्षिप्त कर दिया है क्या ? श्री कृष्ण कहते हैं कि श्रीराधा अनङ्ग जयी जङ्गम देवता हैं । कामदेव तो जगद्विजय करने वाले चलते फिरते देवता हैं । श्रीराधा से ही अस्त्रों को उपलब्ध कर के कामदेव ने जगत जीता और पुनः उद्देश्य कि पूर्ति हो जाने पर उसी देवता को उन अस्त्रों को समर्पित कर दिया है । कामदेव का जगद्विजयी अस्त्र है – भ्रूपल्लव – धनुः । श्री राधा कि भौंहें नीली एवं स्निग्ध हैं । इसलिए उनमें भ्रूपल्लव का आरोप है और टेढ़ी होने से उनमें धनुष का आरोप है । श्रीराधा के ‘ अपाङ्ग तरङ्ग ‘ ही कामदेव के अपाङ्ग वीक्षण रुपी कटाक्षवेधक बाण हैं । बाण जिस प्रकार लक्ष्य का भेदन करते हैं उसी प्रकार श्रृद्धा ने भी मेरे मन को भेद डाला है ।)
भ्रूचापे निहितः कटाक्ष – विशिखो निर्मातु मर्मव्यथां
श्यामात्मा कुटिलः करोतु कबरी – भारो अपि मारोद्यमम्।
मोहन्ता वदयन्च तन्वि तनुतां विम्बाधरो रागवान
सद्वृत्तं स्तन – मण्डलं तव कथं प्राणैर्मम क्रीडति ।।4।।
हे छरहरी देहयष्टि वाले ( इकहरे बदन वाली ) राधे ! तुम्हारे भ्रू चाप से निक्षिप्त कटाक्ष बाण मेरे ह्रदय को निदारुण पीड़ा से पीड़ित करे , तुम्हारा श्यामल कुटिल केशपाश मेरा वध करने का उपक्रम करे , तुम्हारा यह बिंबफल के समान राग – रञ्जित अधर मुझमें मोह उदित करे किन्तु तुम्हारा यह सद्वृत्त मनोहर मंडलाकार उरस्थल सुचरित होकर क्रीड़ा के छल से मेरे प्राणों के साथ क्यों क्रीड़ा कर रहा है ।।4।।?
तानि स्पर्श – सुखानि ते च तरलाः स्निग्धा दृशोर्विभ्रमा-
स्तद्वक्त्राम्बुज – सौरभं स च सुधास्यन्दी गिरां वक्रिमा ।
सा विम्बाधर – माधुरीति विषया सङ्गेपि चेनमानसं
तस्यां लग्न समाधि हन्त विरह – व्याधिः कथं वर्द्धते।।5।।
एकांत में प्रिया का ध्यान करते हुए मैं इसके उसी सुविमल स्पर्शजनित सुख का अनुभव कर पुलकित हो रहा हूँ , उसके नयन युगल की चंचलता , सुस्निग्ध भंगिमा, विभ्रमता और दृष्टिक्षेप्ता मुझे संजीवित कर रही है , उसके मुखारविंद का सौरभ मुझे आप्लावित कर रहा है । उसकी उस अमृत निस्यंदी वचन परंपरा की वक्रिमा को श्रवण कर रहा हूँ । उसके बिंबफल सदृश मनोहर अधर का मधुर सुधारस का मैं आस्वादन कर रहा हूँ । उसमें समाधिस्थ मेरे मन की विषयासक्ति बनी हुयी है , फिर भी मुझमें विरह व्याधि की यातना अधिकाधिक रूप से क्यों बढ़ती जा रही है ।।5।।?
( भावना की प्रबलता से श्रीराधा के साथ विलास की स्फूर्ति होने पर अंतःकरण में बहती हुयी विरह – व्याधि की प्रतिकूलता का वर्णन करते हुए श्री कृष्ण कहते हैं – श्री राधा में मेरा मन समाधिस्थ हो गया है तथापि विरह मुझे क्यों सता रहा है ? क्योंकि विरह तो वहाँ होता है जहाँ खेद एवं वियोग होता है जबकि मेरा मन तो श्रीराधा में संलग्न है । मनः संयोग के अभाव में विरह माना जा सकता है परन्तु मन तो यहाँ संयुक्त है फिर भी विरह इसलिए है कि इन्द्रिय संयोग का अभाव है , विषयों के न रहने पर भी मन ही मन इन्द्रियसुख का अनुभव होने से उसे संयोग कहा जा सकता है परन्तु विरह बना हुआ होता है । मिलान में जो अनुभव होता था वही अनुभव विरह में हो रहा है । त्वचा से श्रीराधा के स्पर्शजनित पूर्वानुभूत सुख को ही अनुभव कर रहा हूँ , चक्षु से उसके प्रमाद नेत्रों की तरल प्रीती रसधार को देख रहा हूँ , नासिका से श्रीराधिका के मुखकमल के पूर्वानुभूत सौगंध का आघ्राण कर रहा हूँ तथैव बिंबफल सदृश अरुणिम सुकुमार अधराधर की मधुर सुधारस माधुरी में अवगाहन कर रहा हूँ । इस प्रकार पाँचों प्रकार के विषयों का सम्बन्ध मेरे साथ बना हुआ है तथापि न जाने क्यों विरहजनित समाधि बढ़ती जा रही है ?)
तिर्य्यक – कण्ठ – विलोल – मौलि – तरलोत्तम सस्य वंशोच्चरद
गीति – स्थान – कृतावधान ललना – लक्षैर्न संलक्षिताः ।
संमुग्धं मधुसूदनस्य मधुरे राधामुखेन्दौ सुधा –
सारे कंदलिताश्चिरं ददतु वः क्षेमं कटाक्षोर्म्मयः ।।6।।
त्रिभङ्ग भाव से अपनी ग्रीवा को बंकिम करने के कारण जिनका शिरोभूषण ( मुकुट ) एवं कुण्डल दोलायमान हो रहे हैं , लक्ष – लक्ष गोप – रमणियाँ वेणु – ध्वनि के सुदीप्त उच्चारण स्थान पर ध्यान लगायी हुयी उनके मध्य में स्थित श्री राधा के मनोहर तथा अमृतमय मुखारविंद को स्नेहातिशयता के कारण स्थिर दृष्टि से देखते हुए श्रीकृष्ण की कटाक्षपात राशि की उर्मियाँ आप सबका मङ्गल विधान करें ।।6।।
( तृतीय सर्ग के अंतिम श्लोक में कवि ने श्री राधा के वचनों को प्रमाणित किया है । गोपाङ्गनाओं के मध्य में अवस्थित श्रीकृष्ण को श्रीराधा दर्शन से भावानुभूति हुयी है उसी को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है । कवि ने पाठकों और श्रोताओं को आशीर्वाद प्रदान किया है कि मुग्ध – मधुसूदन आपका कल्याण करें ।)
इति श्री गीत गोविन्दे सप्तम प्रबंधः
इति श्रीगीतगोविन्दे शृङ्गारमहाकाव्ये श्रीकृष्णदासजयदेवकृतौ मुग्धमधुसूदनो नाम तृतीयः सर्गः
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चतुर्थः सर्गः
स्निग्ध मधुसूदनः
अथ अष्टमः संदर्भः
अष्टमः प्रबंधः
यमुना – तीर – वानीर – निकुञ्जे मंदमास्थितं।
प्राह – प्रेम – भरोदभ्रान्तं माधवं राधिका – सखी।।1।।
यमुना के तट पर स्थित वेतसी के निकुञ्ज में श्रीराधा प्रेम में विमुग्ध होकर विषण्ण ( विषाद ) चित्त से बैठे हुए श्रीकृष्ण से श्रीराधा की प्रिय सखी कहने लगी ।।1।।
( पूर्वराग में श्रीराधा ने अपनी सखी से श्रीकृष्ण मिलान की अभिलाषा व्यक्त की थी । तब वह सखी श्रीराधा को आश्वासन देकर श्रीकृष्ण के पास गयी तो देखा , उनका चित्त श्री राधा के प्रेम के आधिक्य के कारण उन्मत्त और उद्विग्न हो रहा था । श्री राधा की खोज करने पर भी जब वे नहीं मिलीं तो वे यमुना पुलिन पर विद्यमान वेतसी निकुञ्ज में निरुत्साहित और उदास हो कर बैठ गए ।)
गीतम 8-अष्टपदी 8
कर्णाट रागैक ताली तालाभ्यां गीयते
( यह आठवां प्रबंध कर्णाट राग तथा एकताली ताल से गाया जाता है । जब शिखिकण्ठ – नीलकण्ठ महादेव एक हाथ में कृपाण और दूसरे हाथ में एक विशाल गजदंत धारणकर दाहिने कंधे में रखकर चलते हैं , सुर – चारण आदि उनकी स्तुति करते हैं , ऐसे समय में कर्णाट राग प्रस्तुत होता है )
निन्दति चन्दनमिन्दु – किरणमनुविन्दति खेदधीरं।
व्याल – निलय – मिलनेन गरलमिव कलयति मलय – समीरं।।
सा विरहे तव दीना ।
माधव मनसिज – विशिख – भयादिव भावनया त्वयि लीना।।1।। ध्रुवं
हे माधव ! वह श्रीराधा आपके विरह में कातर होकर मदन – बाण के वर्षण के भय से भीत होकर उस मंद – संताप की शांति के लिए ध्यान – योग के द्वारा आपमें निमग्न होकर आपके शरणागत हुयी हैं । आपसे विच्युत होकर वह चन्दन को विनिन्दित करती करती हैं , चंद्र किरणों को देखकर उनकी देह दग्ध होने लगती है , मलय – समीरण भी उसके अङ्गों में संताप बढ़ा रहा है । विषधर सर्पों से परिवेष्टित चन्दन वृक्षों से प्रवाहित फुत्कार – मिश्रित होने के कारण मलय – समीर को भी गरल समान मान रही हैं।।1।।
( सखी श्रीकृष्ण के सन्निकट उनकी विरह वेदना सुनाती है । वह कहती है कि श्री राधा अत्यंत दुःखित है । वह आपका ध्यान करती हुयी आप में ही समाधिस्थ हो गयी है । बाण के भय से जैसे प्राणी रक्षार्थ दूसरे की शरण में चला जाता है , उसी प्रकार वह आपके शरणापन्न हुयी हैं क्योंकि आप कामस्वरूप हैं , आपके प्रसन्न होने पर किसी का भय नहीं रहता है । हे माधव ! आपके विरह में श्रीराधा की ऐसी स्थिति हो गयी है कि अपने शरीर में लगे हुए चन्दन की निंदा करती है क्योंकि यह चन्दन उनके लिए आह्लादकारी नहीं अपितु प्रदाह रूप है । चंद्र – किरणों को देखकर भी उनका ह्रदय प्रज्ज्वलित होने लगता है क्योंकि चन्द्रिका भी उनकी विरह अग्नि को उद्दीपित कर रही है । चन्दन वृक्ष के संपर्क से वह मलय – पवन को भी विष समान अनुभव करती है । मलयाचल के चन्दन वृक्षों से लिपटे हुए विषैले सर्पों की फुत्कारों से वायु दूषित हो गयी है ।)
अविरल – निपतित – मदन – शरादिव भवदवनाय विशालं ।
स्वहृदय – मर्माणि वर्म करोति सजल – नलिनी – दल – जलं।।
सा विरहे तव दीना ……….।।2।।ध्रुवं
ह्रदय पर अनवरत गिरते हुए कामबाणों से अपने ह्रदय के भीतर विराजमान आपकी रक्षा करने के लिए श्री राधा विशाल सजल कमल – पत्र – समूह को अपने ह्रदय के मर्मस्थल का कवच बना रही हैं ।।2।।
( श्रीकृष्ण का निरंतर ध्यान करने से श्रीराधा एकात्मकता को प्राप्त हो गयी हैं । यही सोचित करती हुयी सखी कहती है कि हे माधव ! आप श्रीराधा के ह्रदय में निरंतर विद्यमान हैं । कामदेव अपने बाणों को अजस्र रूप से छोड़ रहा है । उनके ह्रदय में बैठे कहीं आपको कोई कष्ट न हो जाये इसलिए अपने ह्रदय के मर्मस्थल को जलकणों के साथ बड़े – बड़े कमलदल – समूह से आवृत्त कर रही हैं , नलिन दल जाल को उसने ह्रदय में इसलिए धारण किया है कि उसके ह्रदय से कहीं आप निकल न जाएं । कामदेव का तूणीर अक्षय है – एक के बाद दूसरा बाण फेंका जा रहा है । हे माधव ! तुम्हारे विरह में वह निरुपाय होकर उपाय भी सोचती है तो क्या सोचती है ? कमल दल तो वैसे ही उसके बाण हैं और वह कवच कहाँ से होगा ? उसे अपना कवच बना कर अपना कष्ट और बढ़ा रही है ।)
कुसुम – विशिख – शर – तल्पमनल्प – विलास – कला – कमनीयं।
व्रतमिव तव परिरम्भ – सुखाय करोति कुसुम – शयनीयं।।
सा विरहे तव दीना ……….।।3।।ध्रुवं
हे माधव ! विविध विलासों से रमणीय कुसुम – शय्या श्रीराधा द्वारा रचाई जा रही है , जो कामदेव के बाणों की शय्या के समान प्रतीत हो रही है । आपके गाढ़ आलिङ्गन की प्राप्ति की आशा से वह कठोर – शरशय्या व्रत के अनुष्ठान का पालन कर रही है ।।3।।
( हे श्रीकृष्ण ! महान केलि – कला – विलासरूप पुष्प – शय्या की रचना आपके विरह में विदग्ध होकर श्रीराधा करती तो है पर वह सेज काम – शरों ( बाणों ) की सेज के समान ही है । उत्प्रेक्षा देते हुए सखी कहती है कि जैसे कोई व्यक्ति किसी बड़े सुख की प्राप्ति के लिए कोई व्रत करता है , उसी प्रकार श्रीराधा भी दुष्प्राप्य आपके आलिङ्गन – सुख की प्राप्ति के लिए दुष्कर शरशय्या व्रत की साधना कर रही है ।)
वहति च चलित – विलोचन – जलभरमानन – कमल मुदारं।
विधुमिव – विकट – विधुन्तुद – दन्त – दलन – गलितामृतधारं।।
सा विरहे तव दीना ……….।।4।।ध्रुवं
जैसे कराल राहु के दशन से संदशित होकर सुधांशु ( चन्द्रमा ) से पीयूषधारा स्रवित होती है , वैसे ही श्रीराधा के उत्कृष्ट मुखकमल के चंचल नेत्रों से अनवरत नयन – वारि विगलित हो रहा है ।।4।।
( सखी कह रही है – हे माधव ! आपके विरह में सन्तप्ता श्रीराधा के चञ्चल तथा विस्तृत नेत्रों से आंसुओं का तार टूट ही नहीं रहा है । ऐसा लग रहा है मानो भयंकर राहु ने अपने दांतों से चन्द्रमा को काट लिया हो और जिनसे अविरल अमृत की धारा प्रवाहित हो रही हो । श्रीराधा का मुख मानो कमल नहीं , चन्द्रमा हो और आँखों से बहते अश्रुबिंदु अमृत सरीखे हैं )
विलिखति रहसि कुरङ्ग – मदेन भवन्तम समशर – भूतं।
प्रणमति मकरमध्ये विनिधाय करे च शरं नवचूतं।।
सा विरहे तव दीना ……….।।5।।ध्रुवं
हे श्रीकृष्ण ! श्रीराधा एकांत में कस्तूरी से , तुम्हें साक्षात कंदर्प मान आम्रमञ्जरी का बाण धारण किये हुए तुम्हारी मोहिनी मूर्ति चित्रित करती हैं और वाहन स्थान पर मकर ( घड़ियाल ) बनाकर प्रणाम करती हैं ।।5।।
( जब श्रीराधा एकांत में बैठी होती हैं तो कस्तूरी के रस से आपका चित्र रचती हैं – कामदेव के रूप में , क्योंकि आपके अतिरिक्त चित्त – उन्मादकारी और कौन हो सकता हैं ? अथवा आप ही उसकी कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं । इसके पश्चात् आपके हाथ में काम का सबसे शक्तिशाली बाण – आम्रमञ्जरी को अंकित कर देती हैं । कामदेवता के रूप में आपको अभिलिखित कर वाहन के स्थान पर मकर बना देती हैं । पुनः काम – ताप से मुक्ति पाने के लिए आपको प्रणाम करती हैं , स्तवन करती हैं ।)
प्रतिपदमिदमपि निगदति माधव तव चरणे पतिता अहम् ।
त्वयि विमुखे मयि सपदि सुधानिधिरपि तनुते तनु राहं।।
सा विरहे तव दीना ……….।।6।।ध्रुवं
हे माधव ! ( उस मूर्ति के रूप में तुम्हें अङ्कित कर बार – बार प्रार्थना करती हैं ) – हे श्रीकृष्ण ! मैं आपके चरणों में पड़ती हूँ । देखो , जैसे ही तुम मुझसे विमुख हो जाते हो , यह अमृत कलश को धारण करने वाला चन्द्रमा भी मेरे शरीर पर दाह – वृष्टि करने लगता है।।6।।
( सखी कह रही है – हे श्रीकृष्ण ! श्रीराधा जहाँ – जहाँ भी जाती हैं , वहीं प्रत्येक पग – पग पर कहती हैं – मैं आपके चरणों में पड़ी हूँ , आप मुझसे विमुख न हों , आप जब कभी भी मुझसे असंतुष्ट होते हैं , उसी समय अमृत – निधि चन्द्रमा भी मेरे शरीर में दाह ही पैदा करता है। रस मञ्जरीकार ने ‘ माधव ‘ शब्द से श्रीराधा का तात्पर्य सांकेतिक करते हुए कहा है कि कृष्ण , ‘ मा ‘ शब्द से कही जाने वाली लक्ष्मी के धव अर्थ पति हैं । जब श्रीकृष्ण श्रीराधा के सन्निकट होते हैं तब सपत्नी लक्ष्मी भी श्रीराधा का कुछ बिगाड़ नहीं पातीं , पराङ्ग मुख होने पर तो लक्ष्मी का भाई चन्द्रमा श्रीराधा को अपनी बहन की सौत समझकर अत्यंत संतप्त करता है । )
ध्यान – लयेन पुरः परिकल्प्य भवन्तमतीव दुरापं ।
विलपति हसति विषीदति रोदति चंचति मुञ्चति तापं।।
सा विरहे तव दीना ……….।।7।। ध्रुवं
श्रीराधा तुम्हारे ध्यान में लीन हो कर तुम्हें प्रत्यक्ष रूप में कल्पित करके विच्छेद यंत्रणा से कभी विलाप करती हैं , कभी हर्ष प्रकाशित करती हैं तो कभी रोती हैं और कभी स्फूर्ति में आलिङ्गिता हो संताप का परित्याग करती हैं ।।7।।
( सखी कह रही है – हे श्रीकृष्ण ! अन्वेषण आदि के द्वारा आप श्रीराधा के द्वारा आप दुष्प्राप्य हो गए हैं , ध्यान में लीन होकर परिकल्पना करती हैं कि तुम उसके समीप ही हो । सम्मुख अनुभव होने पर चित्र बनाती है और चित्रलिखित तुम्हें देखने पर अपने निकट जान कर हँसने लगती हैं , मन में प्रसन्नता कि हिलोरें तरङ्गायित होने लगती हैं , लेकिन आपके द्वारा आलिङ्गन न किये जाने पर उनका उन्मादित अट्टहास क्रन्दन में बदल जाता है , तुम्हारी कल्पित प्रतिमूर्ति के तिरोहित होने पर पुनः आलिङ्गित करने का उपक्रम करती हैं । सोचती हैं , यदि श्रीकृष्ण मुझे देखेंगे तो मेरे वशवर्ती हो जायेंगे – इस आभास से अपनी छटपटाहट , छनछनाहट और संताप का परित्याग करती हैं ।)
श्रीजयदेव – भणितमिदमधिकं यदि मनसा नटनीयं।
हरि – विरहाकुल – वल्लव – युवति – सखी – वचनं पठनीयं।।
सा विरहे तव दीना ……….।।8।।ध्रुवं
श्रीराधा की प्रिय सखी द्वारा कथित और श्रीजयदेव द्वारा विरचित यह अष्टपदी मानस – मंदिर में अभिनय करने योग्य है और साथ ही हरि के विरह में व्याकुल श्रीराधा की सखी के वचन बार – बार पढ़ने योग्य है ।।8।।
(श्रीजयदेव कहते हैं कि तरुणी श्रीराधा श्रीकृष्ण के विरह में व्याकुल हैं । सखी ने श्रीकृष्ण के पास श्रीराधा के प्रणय का निवेदन किया है । ‘श्रीजयदेवभणितमिदमधिकं’ – इस वाक्यांश का अभिप्राय है कि श्रीजयदेव कवि की सम्पूर्ण उक्तियों में श्रीराधा की सखी की उक्ति ही सार – सर्वस्व है । यही वैष्णवों द्वारा भजनीय और आस्वादनीय है । )
आवासो विपिनायते प्रिय – सखी – मालापि जालायते
तापो अपि श्वसितेन दाव – दहन – ज्वाला – कलापायते ।
सापि त्वद्विरहेण हन्त हरिणी – रूपायते हा कथं
कंदर्पो अपि यमायते विरचयनशार्दुल – विक्रीड़ितं।।1।।
हे श्रीकृष्ण ! मेरी सखी श्रीराधा एक हिरणी की भांति आचरण करने लगी है , अपने आवास को तो उसने अरण्य मान लिया है , सखीवृन्द उसे किरात जाल सा भासता है , निज संतप्त निःश्वासों से अभिवर्धित शरीर का संताप दावानल – शिखा की भांति प्रतीत हो रहा है । हाय ! कंदर्प भी शार्दूल स्वरूप होकर क्रीड़ा करता हुआ उसके प्राणों का हनन करने का उपक्रम करते हुए यम बन गया है ।।1।।
इति श्री गीत गोविन्दे अष्टम प्रबंधः
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अथ नवमः प्रबंधः
अथ नवमः संदर्भः
गीतं।।9।। अष्टपदी 9
देशाख रागैक ताली तालाभ्यां गीयते ।
(यहाँ नवें प्रबंध का प्रारम्भ होता है । यह गीत देशराग तथा एकताली से गाया जाता है ।)
स्तन – विनिहितमपि हार मुदारम,
सा मनुते कृश – तनुरिव भारं
राधिका विरहे तव केशव ।।1।। ध्रुवं
केशव ! आपके विरह की अतिशयता के कारण श्रीराधा ऐसी कृश काया हो गयी है कि उरस्थल पर रखे हुए कमल पुष्पों की मनोहर माला को भी अपनी शारीरिक दुर्बलता के कारण भारस्वरूप समझ रही हैं।।1।।
सरस – मसृणमपि मलयज – पङ्कम
पश्यति विषमिव वपुषि सशङ्कं-
राधिका विरहे………।।2।।ध्रुवं
केशव ! विरह वियुक्ता वह श्रीराधा अपने शरीर में संलग्न सरस , कोमल एवं सुचिक्कण चन्दन – पंक को सशंकित होकर विष की भांति देख रही हैं।।2।।
( मलय चन्दन का लेप अत्यंत चिकना और अतिशय सरस होता है परन्तु वह समझती है कि विष से उसका लेपन किया गया है । श्रीकृष्ण की विरह व्यथा की व्याकुलता से सम्प्रति चन्दन – विलेपन श्रीराधा को सुखदायी न होकर दुखदायी हो रहा है ।)
श्वसित – पवनमनुपन – परिणाहं।
मदन – दहनमिव वहति सदाहं –
राधिका विरहे………।।3।।ध्रुवं
मदनानल की जवालाओं से संतप्त दीर्घ निःश्वास उनके शरीर को दग्ध किये जा रहे हैं , फिर भी वह उनका वहन कर रही हैं ।।3।।
( विरह – विच्छेद से अन्तः करण में संताप अति असहनीय हो गया है , उपचार करने के लिए गरम – गरम साँस छोड़ती हैं तो लगता है सारा शरीर धधक रहा है , मदन ही इस आग में धधक रहा है । )
दिशि – दिशि किरति सजल – कण – जालं।
नयन – नलिनमिव विदलितनालं –
राधिका विरहे………।।4।।ध्रुवं
मृणाल से विच्छिन्न होकर सजल कमलवत नयन कमल को चारों दिशाओं में विक्षिप्त कर अश्रुकण की वृष्टि कर रही हैं ।।4।।
( उसकी आँखें ऐसी लगती हैं जैसे कमल हों पर उस कमल का नाल विलगित हो गया है । आंसुओं से भरे नेत्र जलकणों से युक्त नीलकमलों के समान मनोहर लगते हैं । आंसुओं के तारों से दिशाएं आबद्ध हो जाती हैं , एक जाल सा तन जाता है , अवरुद्ध हो जाती हैं दिशाएं । आपके आगमन की प्रतीक्षा में चारों ओर देखती रहती हैं कि आप किसी दिशा से आते हुए दिखाई पड़ जाएं । नाल गल जाने पर जैसे कमल की स्थिति नहीं रहती , वैसे ही उनकी आँखें कहीं नहीं ठहरतीं । कहीं कोई आधार नहीं जिस पर वह अपनी दृष्टि टिका सकें ।)
त्यजति न पाणि – तलेन कपोलं।
बाल – शशिनमिव सायमलोलं।।
राधिका विरहे………।।5।।ध्रुवं
अरुणवर्ण के कर – कमल पर कपोल को संध्या समय में आकाश स्थित चन्द्रकला की शोभा के समान धारण किये एकांत में बैठी रहती हैं ।।5।।
( किंकर्तव्यविमूढ़ श्रीराधा जड़ सी हो गयी हैं । उनकी एक हथेली बराबर उनके गालों पर लगी रहती है , चिंतामग्न होने के कारण उसे छोड़ती नहीं । दिन किसी प्रकार निकल जाता है , पर क्या होगा जब रात आएगी , वह तो मेरे लिए एक युग के समान होगी । सायंकाल के चन्द्रमा के समान उनका मुख क्षीणकांति निस्तेज , शांत तथा हाथ से आधा ढका हुआ द्वितीया के चन्द्रमा के समान लगता है । संध्या जैसे बाल चन्द्रमा को टिकाये रहती है उसी प्रकार हथेली का कवच मानो उसे सुरक्षा प्रदान कर रहा है ।)
नयन – विषयमपि किसलय – तल्पं ।
कलयति विहित – हुताशवि – कल्पं-
राधिका विरहे………।।6।।ध्रुवं
मनोरम नवीन पल्लवों की शय्या को साक्षात रूप से विद्यमान देखकर भी उसे विभ्रम के कारण प्रदीप्त आग के समान मान रही हैं।।6।।
( विरह में श्रीराधा उद्विग्ना हो गयी हैं । सामने नए – नए लाल – लाल किसलयों से निर्मित शय्या को देखती हैं तो उसे लगता है जैसे चिता रची गयी हो , उस चिता में आग धधक रही है । प्रत्यक्ष में श्रीराधा को भ्रम हो रहा है क्योंकि उनकी आँखें आप में लगी हुयी हैं । अग्नि के समान ताम्र – वर्ण वाले नवीन पल्लवों से रचित शय्या में अग्नि का भ्रम हो रहा है उसे । सदृश वस्तु में ही सदृश वस्तु का संशय होता है । अग्नि ताम्रवर्ण का तथा संतापकारक होती है , किसलय भी ताम्रवर्ण का विरहणियों के लिए सन्तापकारी होता है। श्रीराधा को किसलय में आग का भ्रम हो रहा है । )
हरिरिति हरिरिति जपति सकामं।
विरह – विहित – मरणेव निकामं-
राधिका विरहे………।।7।।ध्रुवं
विरह के कारण उनका प्राण त्याग निश्चित सा हो गया है , श्रीराधा निरंतर ‘ श्रीहरि , श्रीहरि ‘ इस नाम का आपकी प्राप्ति की कामना से जप करती रहती हैं।।7।।
( श्रीराधा का विरहानल में दग्ध होने के कारण यह निश्चित सा ही हो गया है कि अब उसके प्राण बचेंगे नहीं । संसार से निराश तथा मुमुर्षु जन जैसे श्रीहरि का अहर्निश नाम जपते हैं , उसी प्रकार श्रीराधा भी आपकी प्राप्ति की अभिलाषा से श्रीहरि का नाम जपती रहती हैं । प्रणत – क्लेश – नाशन होने से श्रीकृष्ण हरि कहे जाते हैं । हरि – हरि जप करने से इस जन्म में ना सही , दूसरे जन्म में वे अवश्य ही प्रियतम के रूप में प्राप्त होंगे – इसी कामना को लेकर जप कर रहीं हैं )
श्रीजयदेव – भणितमिति गीतं ।
सुखयतु केशव – पदमुपनीतं।।
राधिका विरहे………।।8।।ध्रुवं
श्रीजयदेव प्रणीत यह गीत श्रीकृष्ण के चरणों में शरणागत हुए वैष्णवों का सुख विधान करे ।।8।।
(श्रीजयदेव के द्वारा नवें प्रबंध के रूप में श्रीहरि का यह गीत प्रस्तुत हुआ है । यह गीत ‘ भक्तजनों को सुख देगा ‘ , श्रीराधा की इस चित्त – भूमि का स्मरण सीधे केशव – चरणों में पहुंचेगा । इस गीत को कवि ने वैष्णवों के सानिध्य में गाया है ।)
सा रोमाञ्चति शीतकरोति विलपत्युत्कंपते ताम्यति
ध्यायत्युद्भ्रमति प्रमीलति पतत्युद्याति मूर्च्छत्यपि ।
एतावत्यतनु- ज्वरे वरतनुर्जीवेन्न किं ते रसा –
त्स्वरवैद्य- प्रतिम ! प्रसीदसि यदि त्यक्तो अन्यथा हस्तकः।।1।।
हे अश्विनीकुमार सदृश वैद्यराज श्रीकृष्ण ! वराङ्गना श्रीराधा विरह – विकार में विमोहित होकर कभी रोमाञ्चित होती हैं , कभी सिसकने लगती हैं , कभी चकित हो जाती हैं , कभी उच्च स्वर से विलाप करती हैं , कभी कम्पित होती हैं , कभी एकाग्रचित्त होकर तुम्हारा ध्यान करती हैं , क्रीड़ास्थलों में भ्रमण करती हैं , विषम विभ्रम के कारण विह्वल हो नेत्रों को निमीलित कर लेती है , कभी वसुधा पर गिर पड़ती है , पुनः उठकर चलने की तयारी में फिर मूर्च्छित हो गिर जाती है , उन्हें सन्निपात ज्वर हो गया है । यदि आप प्रसन्न होकर इस घोरतर मदन – विकार में उसे औषधि रूप रसामृत प्रदान करें , तो उन्हें प्राण दान मिलेगा । अन्यथा अब तो उनकी हाथों की चेष्टाएं भी समाप्त हो जायेंगीं – मर जायेंगीं वह ।।1।।
( वह श्रीराधा न केवल वाह्यवृत्ति से आप में अनुरक्त हैं अपितु सात्विक भाव से भी वह आप में ही जी रही हैं । सात्विक भाव से वह अनेक चेष्टाएं कर रही हैं । )
स्मरातुरां दैवत – वैद्य – हृद्य ! त्वदङ्गसंगामृतमात्रसाध्यं।
निवृत्त बाधां कुरुषे न राधामुपेन्द्र ! व्रजादपि दारुणो असि।।2।।
देववैद्य अश्विनीकुमारों से भी निपुण चिकित्सिक श्रीकृष्ण ! हे उपेंद्र ! अनंगताप से पीड़िता श्रीराधा एकमात्र आपके अंग – संयोग रूप औषधामृत से ही जीवन धारण कर सकती हैं । उस दुसाध्य रोग वाली श्रीराधा को इस मुमुर्षु दशा में यदि आप बाधा रहित नहीं बनाते हैं तो निश्चय ही आप वज्र से भी कठोर समझे जाएंगे ।।2।।
कंदर्प – ज्वर – संज्वरातुर – तनोराश्चर्य मस्याश्चिरं
चेतश्चन्दनचंद्रमः – कमलिनी – चिंतासु संताम्यति
किन्तु क्लान्तिवशेन शीतलतनुं त्वामेकमेव प्रियं
ध्यायन्तीं रहसि स्थिता कथमपि क्षीणां क्षणं प्राणिति ।।3।।
हे माधव ! कैसे आश्चर्य की बात है कि मदन – ज्वर के प्रबल संताप से समाकुला क्षीणांगी श्रीराधा चन्दन , चन्द्रमा और नलिनी आदि शीतोपचार के साधन का विचार करते ही संतप्त होने लगती हैं । अहो ! क्लान्ति के कारण वह दुर्बला शीतल तनु आपका ही एकांत में ध्यान करती हुयी किसी प्रकार कुछ क्षणों के लिए जी रही है ।।3।।
( हे माधव ! इस सन्निपात की अवस्था को प्राप्त हुयी वह आपसे मिलने की आकांक्षा से ही जी रही है , ज्वर को दूर करने वाले सारे उपाय व्यर्थ हो गए हैं । न चन्दन का लेप काम करता है , न चन्द्रमा की शीतल चांदनी और न ही कमलिनी ही । स्थिति तो ऐसी चरम सीमा पर पहुँच गयी है कि इन साधनों को सोचते हुए वह और अधिक जलने लगती हैं । ज्वर कभी – कभी चढ़ते – चढ़ते इतना थका देता है कि शरीर एकदम स्वेद के प्रभाव के कारण शीतल हो जाता है । वह विरहणी अपने अशांत मन में केवल तुम्हारा ही ध्यान करती है और विरह में क्षीण हो कर वह कातर विजातीय यंत्रणा में भी उस ध्यान के क्षण को उत्सव मानकर प्राण प्राप्त करती हैं । यदि आप यह सोचें कि वह इस समय कैसे जी रही है , कैसे सांस ले रही हैं तो उत्तर यही है कि आप ही उसके एकमात्र प्रियतम हैं , आपका शीतल वपु उसे स्पर्श करने के लिए प्राप्त हो जाये । इस प्रत्याशा में कुछ क्षणों तक जी रही हैं । यदि आप अविलम्ब नहीं मिले तो हो सकता है वह पुनः जीवित न मिले ।)
क्षणमपि विरहः पुरा न सेहे
नयन – निमीलन – खिन्नया यया ते ।
श्वसिति कथमसौ रसालशाखां
चिरविरहेण विलोक्य पुष्पिताग्रं।।4।।
जो एक क्षण के लिए भी आपके दर्शन में अंतराल डालने वाले निमेष – निमीलन को सह नहीं पाती थीं , वही श्रीराधा तुम्हारे इस दारुण विरह में सुललित सुपुष्पित आम्रवृक्ष के समक्ष ही इस दीर्घकालिक विरह में अवलोकन करते हुए कैसे जीवन अतिवाहित कर रही हैं – यह मैं नहीं समझ पा रही ।।4।।?
( हे कृष्ण ! इस से पूर्व श्रीराधा ने क्षण भर के लिए भी आपका वियोग नहीं सहा है । वह तो सदा – सर्वदा आपके पास रहती थीं । जब उनके नेत्रों के पलक गिरते थे तो उस समय भी उनको बड़ा कष्ट होता था – सोचती थीं ब्रह्मा ने यह पलक गिराने की प्रक्रिया क्यों बनाई है । आपके मुखावलोकन में जरा सी बाधा पड़ने पर भी जिनको अपार दुःख होता था , वह अब चिरकाल से इस विरह को रसाल की पुष्पिताग्रा शाखाओं को देख कर भी कैसे सह पा रही हैं ? कैसे उसकी सांसें चलती हैं ? हर डाल के सिरे पर बौर आ गए हैं , मंजरियाँ निकल आयी हैं । अतएव हे श्रीकृष्ण ! श्रीराधा से अविलम्ब मिलें ।)
वृष्टि – व्याकुल गोकुलावन – रसादुद्धृत्य गोवर्धनं
विभ्रदबल्लव – वल्लभिरधिकानंदाच्चिरं चुम्बितः
दर्पेणेव तदार्पिताधर – तटी – सिन्दूर – मुद्रांकितो
बाहुर्गोप तनोस्तनोतु भवतां श्रेयांसि कंसद्विषः।।5।।
जिन्होंने वारि – वर्षण ( बादलों की वर्षा ) से व्याकुल गोकुलवासियों की रक्षा के लिए इन्द्र से प्रतिस्पर्धा करते हुए गिरी गोवर्धन को ऊपर उठा कर धारण किया था , जो गोप युवतियों के द्वारा दीर्घकाल पर्यन्त अतिशय रूप से चुम्बित हुए थे , जिन पर गोप वधुओं के अधर स्थित कुंकुम और ललाट स्थित सिन्दूर अंकित हुआ था , वे कंस विध्वंसकारी , गोपतनुधारी श्रीकृष्ण की भुजाएं सबका मंगल करें ।।5।।
जिस शास्त्र के आदि , मध्य और अंत में मंगल होता है उस शास्त्र का प्रचुर प्रचार होता है । इस नियम के अनुसार कवि जयदेव ने ग्रन्थ के चतुर्थ सर्ग की समाप्ति पर आशीर्वादात्मक मंगलाचरण किया है कि श्रीकृष्ण की वे भुजाएं पाठकों और श्रोताओं का मंगल विधान करें ।
इति गीतगोविन्दे नवम संदर्भः | नवम प्रबंधः
इति श्रीगीतगोविन्दे शृङ्गारमहाकाव्ये श्रीकृष्णदासजयदेवकृतौ स्निग्धमधुसूदनोनाम चतुर्थः सर्गः
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पंचम सर्गः
आकांक्ष पुण्डरीकाक्षः
दशमः प्रबंधः
अथ दशमः संदर्भः
अहमिह निवसामि याहि राधा –
मनुनय मद्वचनेन चानयेथाः ।
इति मधु – रिपुणा सखी नियुक्ता
स्वयमिदमेत्य पुनर्जगाद राधां।।1।।
राधा – सखी की बात सुनकर श्रीकृष्ण बोले – मैं यहीं रहता हूँ , तुम श्रीराधा के पास जाओ और मेरे वचनों के द्वारा उनको अनुनय – विनय के साथ मनाकर यहाँ ले आओ । इस प्रकार मधुरिपु कृष्ण के द्वारा नियुक्त होकर वह सखी स्वयं श्रीराधा के पास आकर इस प्रकार से कहने लगी ।।1।।
( सखी से श्रीराधा की विषम आर्ति सुनकर अपनी आपराधिक भावना से बड़े लज्जित और भयभीत हुए तथा अपनी नित्य प्रेयसी श्रीराधा से मिलने के लिए अत्यंत उत्कंठित हुए किन्तु स्वयं वहां नहीं गए , सखी से अपना दुःख व्यक्त कर अनुनय विनय आदि के द्वारा श्रीराधा के कोप को दूर करने के लिए उसे भेजा । सखी से कहा कि तुम मेरी ओर से श्रीराधा जी से प्रार्थना करना और उसे जैसे – तैसे प्रसन्न कर के यहाँ ले आना । जब तक वे नहीं आती हैं तब तक मैं यहीं प्रतीक्षा करूंगा ।)
गीतम 10- अष्टपदी 10
देशीवराडीरागेण रूप कतालेन गीयते ।। प्रबंधः ।।
(यह प्रबंध देशीवराड़ी राग से तथा रूपक ताल से गाया जाता है ।)
( सुकेशी नायिका जब हाथों में कंकण , कानों में देवपुष्प लगाए हुए हाथ में चंवर लिए वीजन करती हुयी निज दयित के साथ विनोदन करती है तब देशीवराड़ी राग प्रस्तुत होता है ।
वहति मलय – समीरे मदनमुपनिधाय,
स्फुटति कुसुमनिकरे विरहि – ह्रदय – दलनाय
सखि! सीदति तव विरहे वनमाली ।।1।। ध्रुवं
सखि ! राधे ! राधे ! देखो , मदन – रस में सिक्त करने हेतु मलयानिल प्रवाहित हो रहा है , विरही जनों के ह्रदय को विदीर्ण करने वाला विविध कुसुम समूह प्रस्फुटित हो रहा है । ऐसे उस वसंत समय में श्रीकृष्ण सकाम होकर तुम्हारे विरह से दुखी हो रहे हैं ।।1।।
दहति शिशिरमयूखे मरणमनुकरोति।
पतति मदन – विशिखे विलपति विकलतरो अति ।।
सखि! सीदति तव………….।।2।।ध्रुवं
वे चंद्र किरणों से संदग्ध होकर मुमुर्षु प्रायः हो रहे हैं । वृक्षों से मदन – शर के सदृश पुष्पों के गिरने से उनका ह्रदय विद्ध हो गया है । ऐसी स्थिति में वे अति विकल होकर विलाप कर रहे हैं ।।2।।
ध्वनति मधुप – समूहे श्रवणमपिदधाति।
मनसि कलित – विरहे निशि निशि रुजमुपयाति –
सखि! सीदति तव………….।।3।।ध्रुवं
मधुकरों की गुञ्जार को सुनकर वे अपने कानों को हाथों से ढक लेते हैं । प्रत्येक रात्रि में तुमको पावेंगे सोचते हैं , किन्तु पाते नहीं ; अतएव दिन – प्रतिदिन विरह – व्यथा में विजातीय यंत्रणा को सहन करते हुए अधिकाधिक रुग्ण होते जा रहे हैं ।।3।।
वसति विपिन – विताने त्यजति ललित धाम ।
लुठति धरणि – शयने बहु विलपति तव नाम –
सखि! सीदति तव………….।।4।।ध्रुवं
वे अपने मनोहर शयन मंदिर का परित्याग कर के अरण्य में निवास करते हैं और भूमि शय्या पर लुंठित होते हुए बार – बार राधे ! राधे तुम्हारे ही नाम का उच्चारण करते हैं ।।4।।
रणति पिक समुदाय प्रति दिश मनुयाति।
हसति मनुज निचये विरहं पलपति नेति ।।
सखि! सीदति तव विरहे ………….।।5।।ध्रुवं
कोयल की कोयल की आवाज सुनकर वह पागलों की तरह इधर-उधर भागते हैं और जब लोग उन पर हंसते हैं तो वह विरह से इनकार करते हैं ।।।।
स्फुरति कलरव रावे स्मरति भणित मेव ।
तव रतिसुख विभवे बहु गणयति गुणमतीव।।
सखि! सीदति तव विरहे ………….।।6।।ध्रुवं
जब वह पक्षियों की मधुर आवाज सुनते हैं तो उन्हें आपके मीठे बोल याद आते हैं और वह आपके साथ मिलन के सुख को अपने मन में याद करते हैं।।6।।
त्वदभिधशुभमासं वदति नरि शृणोति ।
तमपि जपति सरसं परयुवतिषु न रतिमुपैती
सखि! सीदति तव विरहे ………….।।7।।ध्रुवं
यदि कोई आपके नाम वाले शुभ मास का नाम लेता है तो वह उसे सुनते हैं और बार-बार जप करते हैं। उन्हें दूसरी स्त्रियों में सुख नहीं मिलता।।7।।
भणति कवि – जयदेव इति विरह – विलसितेन।
मनसि रभस – विभवे हरिरुदयतु सुकृतेन –
सखि! सीदति तव………….।।8।।ध्रुवं
श्री जयदेव कवि द्वारा वर्णित श्रीकृष्ण की विरह – व्यथा से पूर्ण इस गान से जो सुकृति संचित होती है , उस सुकृति के फलस्वरूप जिन पाठकों का मन विरह के विलास में निरतिशय रूप से निमग्न हो गया है उनके ह्रदय में श्रीकृष्ण सम्यक रूप से उदय हों ।।5।।
इति श्री गीत गोविन्दे दशमः संदर्भः
इति श्री गीत गोविन्दे दशमः प्रबंधः
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एकादश प्रबंधः
एकादश संदर्भः
पूर्वं यत्र समं त्वया रतिपतेरासादिताः सिद्ध्य-
स्तस्मिन्नेव निकुंज – मन्मथ – महातीर्थे पुनर्माधवः।
ध्यायंस्त्वामनिशं जपन्नपि तवैवालाप – मंत्रावलीं
भूयस्त्वत्कुचकुम्भ – निर्भर परीम्भामृतं वाञ्छति।।1।।
राधे ! माधव ने पहले निकुंज रुपी महातीर्थ में तुम्हारे आलिङ्गन आदि मनोरथों की सिद्धि के लिए मन्मथ की सिद्धियां प्राप्त की थीं । उसी महातीर्थ में कामदेव की सिद्धियों के लिए सदैव तुम्हारा ध्यान करते हैं । तुम्हारे साथ किये गए वार्तालापवली मन्त्र को जपते हुए तुम्हारे गाढ़ालिंगन रुपी अमृतमोक्ष की पुनः – पुनः अभिलाषा कर रहे हैं ।।1।।
गीतम 11- अष्टपदी 11
गुर्जरी रागेण एकताली तालेन गीयते
यह ग्यारहवां प्रबंध गुर्जरी राग तथा एकताली ताल से गाया जाता है
रति – सुख – सारे गतमभिसारे मदन – मनोहर वेषम्।
न कुरु नितंबिनी ! गमन – विलम्बनमनुसर तं हृदयेशं।।
धीर समीरे यमुना तीरे वसति वने वनमाली ।
गोपी पीन पयोधर मर्दन चञ्चल कर युग शाली ।।1।। ध्रुवं
सुमंद मलय मारुत सेवित यमुना तीरवर्ती निकुंजवन में बैठकर वनमालाधारी ( श्रीकृष्ण ) गोपियों के उरमण्डल को निपीड़ित करने में चञ्चल शाली कर युगल से सुशोभित होकर प्रतीक्षा कर रहे हैं । प्रशस्त कटि प्रदेश वाली श्रीराधे ! रतिसुख के सारभूत संकेत स्थान में मदन के समान मनोहर वेष को धारण किये हुए हृदयवल्लभ श्रीकृष्ण के पास अभिसरण करो , अब विलम्ब मत करो ।।1।।
नाम – समेतं कृत – संकेतं वादयते मृदुवेणुं ।
बहु मनुते अतनु ते तनु – सङ्गतपवन – चलितमपि रेणुं।।
धीर समीरे यमुना तीरे……….।।2।।ध्रुवं
हे राधे ! तुम्हारे नाम का संकेत करते हुए वे कोमल वेणु बजा रहे हैं । तुम्हारे शरीर को सम्पृक्त करके वायु के साथ आये हुए बहुत अधिक धूलि – कणों के स्पर्श से स्वयं को अति सौभाग्यशाली मानकर उनका सम्मान कर रहे हैं ।।2।।
पतति – पतत्रे विचलति पत्रे शङ्कित – भवदुपयानं।
रचयति शयनं सचकित – नयनं पश्यति तव पन्थानं ।।
धीर समीरे यमुना तीरे……….।।3।।ध्रुवं
राधे ! श्रीकृष्ण अति उल्लास और अतिशय स्फूर्ति से शय्या का निर्माण कर रहे हैं और जैसे ही किसी पक्षी के वृक्ष पर बैठने से पत्ते चञ्चल होकर थोड़ा सा भी शब्द करने लगते हैं तो वे तुम्हारे आगमन के मार्ग का चकित दृष्टि से अवलोकन करने लगते हैं ।।3।।
मुखर मधीरं त्यज मंजीरं रिपुमिव केलिषु लोलम।
चल सखि ! कुंजं सतिमिर – पुंजं शीलय नील – निचोलं।।
धीर समीरे यमुना तीरे……….।।4।।ध्रुवं
सखि ! चलो कुंज की ओर चलें । चलने में मुखरित होने वाले , विलास केलि में अति चंचल होने वाले इन नूपुरों को तुम शत्रु के समान त्याग दो , तिमिर युक्त नीलवसन धारण कर लो ।।4।।
उरसि मुरारेरूपहित – हारे घन इव तरल – बलाके ।
तड़िदिव पीते ! रति – विपरीते राजसि सुकृत – विपाके ।।
धीर समीरे यमुना तीरे……….।।5।।ध्रुवं
हे विद्युत के समान पीतवर्णमयी राधे ! अपने कृतपुण्य के परिणामस्वरूप विपरीत रति में श्रीकृष्ण के मणिमय हार से सुशोभित उर स्थल के ऊपर ऐसे सुशोभित होओगी, जैसे मेघ के ऊपर चंचल बक – पंक्ति प्रकाशित हो रही है ।।5।।
विगलित – वसनं परिहृत – रसनं घटय जघन मपिधानं ।
किशलय – शयने पङ्कज – नयने निधिमिव हर्ष – निधानं ।।
धीर समीरे यमुना तीरे……….।।6।।ध्रुवं
हे इन्दीवरनयन राधे ! नवीन किसलय की शय्या पर तुम करधनी रहित होकर प्रियतम के प्रीतिविधान स्वरूप अपने निधि रत्न उरुओं को स्थापित कर दो ।।6।।
हरिरभिमानी रजनिरिदानीमियमपि याति विरामं।
कुरु मम वचनं सत्वर – रचनं पूरय मधुरिपु कामं –
धीर समीरे यमुना तीरे……….।।7।।ध्रुवं
इस समय श्रीकृष्ण अभिमानी हो रहे हैं , रात्रि का अवसान भी हो रहा है , अतएव मेरी बातों को स्वीकार करो और अविलम्ब चलकर मधुरिपु श्रीकृष्ण की अभिलाषा पूर्ण करो ।।7।।
श्रीजयदेवे कृत – हरि – सेवे भणति परम रमणीयं।
प्रमुदित – हृदयं हरिमतिसदयं नमत सुकृत – कमनीयं।।
धीर समीरे यमुना तीरे……….।।8।।ध्रुवं
हे साधुजन ! परम मनोहर काव्य – रचयिता , श्रीहरि – सेवी जयदेवकृत इस गीति से प्रमुदित ह्रदय , अतिशय सदय , परम मधुर , शोभन चरित तथा कमनीय गुणों से युक्त श्रीकृष्ण को प्रमुदित ह्रदय से नमस्कार करो ।।8।।
( इस अष्टपदी के अंत में कवि जयदेव कहते हैं कि हे भागवतजन ! श्रीकृष्ण की सेवा में सदैव तत्पर रहने वाले उन्होंने सुमधुर इस कथा – काव्य की रचना की है । अतः श्रीकृष्ण उन पर सदैव प्रसन्न रहते हैं । अपनी – अपनी स्फूर्ति के कारण जो सबकी कामना के विषय बने हुए हैं , ऐसे दया के सिंधु , परम रमणीय श्रीकृष्ण को आप सभी प्रमुदित ह्रदय से नमस्कार करें । )
विकिरति मुहुः कुश्वासानाशाः पुरो मुहुरीक्षते
प्रविशति मुहुः कुञ्जम गुञ्जन मुहुर्बहू ताम्यति ।
रचयति मुहुः शय्या पर्याकुलं मुहुरीक्षते
मदन – कदन – क्लान्तः कांते ! प्रियस्तव वर्तते ।।1।।
हे कामिनी ! तुम्हारे प्रिय श्रीकृष्ण मदन यंत्रणा से संतप्त होकर निकुंज – गृह में तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं । वे बार – बार दीर्घ श्वास लेते हुए चकित नेत्रों से चरों दिशाओं में देखते हैं । बार – बार अस्फुट शब्दों से विलाप करते हुए लताकुंज से बाहर आते हैं और पुनः उसमें प्रवेश करते हैं और आकुल होकर बार – बार तुम्हारा आगमन पथ देखते हैं ।।1।।
त्वद्वाम्येन समं समग्र मधुना तिग्मांशुरस्तं गतो
गोविन्दस्य मनोरथेन च समं प्राप्तं तमः सांद्रतां।
कोकानां करुणस्वनेन सदृशी दीर्घा मद्भयर्थना
तन्मुग्धे ! विफलं विलम्बनमसौ रम्यो अभिसार – क्षणः।।2।।
हे मुग्धे ! तुम्हारी प्रतिकूलता के साथ – साथ यह दिवाकर भी सम्पूर्ण रूप से अस्त हो गया । श्रीकृष्ण के मनोरथ के साथ ही अंधकार घना हो गया । विरह – विकल चक्रवाक पक्षी के रात्रिकाल में करुण स्वर निरंतर विलाप के समान मेरी अभ्यर्थना भी व्यर्थ हो गयी । मैं अति दीर्घकाल से करुण प्रार्थना कर रही हूँ । अब विलम्ब करना व्यर्थ है । अभिसार की रमणीय बेला उपस्थित है ।।2।।
आश्लेषादनु चुम्बादनु नखोल्लेखादनु स्वांतज –
प्रोद्बोधादनु सम्भ्रमादनु रतारम्भादनु प्रीतयोः ।
अन्यार्थं गतयोर्भ्रमान्मिलितयोः सम्भाषणैर्जानतो
र्दंपत्योरिह को न को न तमसि व्रीड़ाविमिश्रो रसः ।।3।।
इस निविड़ तिमिर में नायक – नायिका एक – दूसरे को प्राप्त करने हेतु खोज के लिए भ्रमण करते हुए अन्य नायक तथा नायिका के भ्रम से मिले हुए सम्भाषण के द्वारा एक दूसरे को पहचान लेने पर परस्पर आलिंगन के पश्चात् दोनों एक चमत्कारपूर्ण प्रीति का अनुभव करोगे । इस अंधकार में कौन सा रस प्राप्त नहीं होगा ? अतएव हे सुंदरी ! चलो , शीघ्रातिशीघ्र केलि कुञ्ज में चलें , भला ऐसे सुअवसर का क्या कभी त्याग किया जा सकता है ? ।।3।।
सभय – चकितं विन्यस्यन्तीं दृशौ तिमिरे पथि
प्रतितरू मुहुः स्थित्वा मन्दं पदानि वितन्वतीं।
कथमपि रहः प्राप्ता मंगैरनंग – तरङ्गिभिः
सुमुखि ! सुभगः पश्यन स त्वामुपैतु कृतार्थतां।।4।।
हे शोभने ! तिमिरमय पथ पर भय और चकित दृष्टि से देखती हुयी , तरुवरों के समीप खड़ी होकर पुनः शनैः – शनैः पग बढ़ाती हुयी , किसी प्रकार एकांत में पहुंची हुई , काम की तरंगों से कल्लोलित होती हुई तुम्हें देखकर सौभाग्यवान श्रीकृष्ण कृतकृत्य होंगे ।।4।।
राधा – मुग्ध – मुखारविंद – मधुपस्त्रैलोक्य – मौलि – स्थली
नेपथ्योचित – नील – रत्नमवनी – भारावतारान्तकः ।
स्वच्छन्दं व्रज – सुंदरी – जन – मनस्तोष प्रदोषोदयः
कंस – ध्वंसन – धूमकेतुरवतु त्वां देवकी – नन्दनः ।।5।।
जो श्रीराधा के मनोहर मुखारविंद का मधुपान करने में मधुस्वरूप हैं , जो त्रिभुवन के मुकुट मणि सदृश वृन्दावन धाम के इंद्रनीलमणिमय विभूषण सदृश हैं , जो अनायास प्रदोष की भाँति ब्रजसुंदरियों का संतोष विधान करने में समर्थ हैं , जो पृथ्वी के भार रुपी दैत्य दानवों का संहार करते हैं – ऐसे कंस – विध्वंस के धूमकेतु स्वरूप देवकीनंदन श्रीकृष्ण आप सबकी रक्षा करें ।।5।।
इति श्री गीत गोविन्दे एकादश प्रबंधः
इति श्रीगीतगोविन्दे शृङ्गारमहाकाव्ये अभिसारिकावर्णने साकांक्षपुण्डरीकाक्षो नाम पञ्चमः सर्गः
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षष्ठः सर्गः
धृष्ट – वैकुण्ठः
द्वादश प्रबंधः
द्वादशः संदर्भः
अथ तां गन्तुंशक्तां चिरमनुरक्तां लतागृहे दृष्ट्वा ।
तच्चरितं गोविन्दे मनसिजमंदे सखी प्राह।।1।।
श्रीकृष्ण के पास जाने में असमर्थ तथा चिरकाल से उनमें अनुरक्त श्रीराधा को लतागृह में देखकर मदन – विकार से आर्त गोविन्द ने सखी से कहा ।।1।।
( श्रीराधा श्रीकृष्ण के प्रति प्रबल अनुरागिणी होने पर भी विरह वेदना से जनित क्षीणता के कारण उनके सन्निकट अभिसार के लिए नहीं जा सकीं । प्रिय सखी लतागृह में राधिका को इस स्थिति में रख कर श्रीकृष्ण के निकट जाकर उनकी चेष्टाओं का वर्णन करती है । श्रीकृष्ण खिन्न चित्त से बैठे हैं । अतएव उनकी गति मंद पड़ गयी है। श्रीराधा श्री गोविन्द में अनुरक्त हैं।)
गीतम 12 | अष्टपदी 12
गुणकरी रागेण रूप कतालेन गीयते
यह बारहवाँ प्रबंध गुणकारी ताल तथा रूपक ताल द्वारा गाया जाता है ।
पश्यति दिशि – दिशि रहसि भवन्तं ।
तदधर – मधुर – मधूनि पिवन्तम ।।
नाथ हरे ! सीदति राधा आवासगृहे ।।1।। ध्रुवं
हे नाथ ! हे हरे ! श्रीराधा अपने आवास गृह में सीझ रही हैं , अत्यंत दुखी हो रही हैं , स्वाधर के मधुर सुधापान में सकुशल आपको मन ही मन सकल दिशाओं में देख रही हैं ।।1।।
( एकांत में बैठी श्री राधा प्रत्येक दिशाओं में अपनी भावना की तीव्र प्रबलता से सर्वत्र आपको देख रही है । सभी दिशाएं उनके लिए कृष्णमयी हो गयी हैं । लता गृह में आपके चरित्र की मधुर – मधुर बातों का वह सप्रेम श्रवण पान कर रही हैं । चिरकालीन प्रेम की प्रकृति ही ऐसी होती है कि मन और शरीर में तालमेल नहीं रहता , मन कुछ करना चाहता है , पर शरीर साथ नहीं देता । निढाल पड़ी हैं वह ।)
त्वदभिसरण – रभसेन वलंति ।
पतति पदानि कियंति चलन्ति।।
नाथ हरे ! सीदति ……….।।2।।ध्रुवं
श्रीराधा अपने अभिसरण के उत्साह से उत्सुक हो प्रसाधन आदि कार्यों में व्यस्त होती हुयी ज्यों ही कुछ कदम चलती हैं , त्यों ही गिर जाती हैं ।।2।।
विहित – विशद – विस – किसलय – वलया।
जीवति परमिह तव रति – कलया –
नाथ हरे ! सीदति ……….।।3।।ध्रुवं
विमल धवल मृणाल एवं नव – पल्लव विरचित वलय – समूह को पहने वह केवल आपके साथ रमण करने की इच्छा से जी रही हैं ।।3।।
( तुम्हारे प्रेम की विधि अभी भी उनके प्राणों में बसी है । तुम्हारे प्रेम का एक पूरा तंत्र प्राण की तंत्री में बज रहा है । अतिशय क्षीण और कृष होने पर भी आपके साथ रमण की इच्छा से आनंदित होकर उन्होंने अभी तक प्राणों को धारण कर रखा है । रमण ही उनके प्राण धारण का कारण है )
मुहरवलोकित – मण्डन – लीला ।
मधुरिपुरहमिति भावन – शीला –
नाथ हरे ! सीदति ……….।।4।।ध्रुवं
” मैं ही मधुरिपु हूँ ” इस प्रकार की भावनामयी होकर वह मुहुः मुहुः आपके आभूषणों और अलंकरणों को देखती हैं ।।4।।
( हे श्रीकृष्ण ! आपके साथ एकप्राण हो ” मैं ही मधुसूदन हूँ , मैं ही श्रीराधाप्राण श्रीकृष्ण हूँ , ऐसी भावना करती हुई स्वयं में आपका आरोपण कर लेती हैं, तद्रूप हो जाती हैं । ये मुकुट , कुण्डल , वनमाला आदि अलङ्कार श्रीराधा के साथ रमण करने योग्य हैं – इस भावना से पुनः – पुनः उन अलङ्कारों को धारण करती हैं । स्त्री योग्य आभूषणों को छोड़कर तुम्हारे विरह के दुःख से पुरुषायित सुरत योग्य आभूषणों को धारण करती हुई तदरूपता को प्राप्त हुई वह अपना समय बिताती हैं। वह माधव बन कर श्रीराधा का शृङ्गार देखती हैं )
त्वरितमुपैति न कथंभिसारं।
हरिरिति वदति सखी मनुवारं-
नाथ हरे ! सीदति ……….।।5।।ध्रुवं
बार – बार अपनी सखी से पूछती हैं – सखी ! श्रीकृष्ण अभिसरण के लिए शीघ्र क्यों नहीं आते।।5।। ?
श्लिष्यति चुम्बति जलधर – कल्पं।
हरिरूपगत इति तिमिरमनल्पं-
नाथ हरे ! सीदति ……….।।6।।ध्रुवं
जलधर के समान प्रतीत होने वाले घने अंधकार को ” हरि आ गए ” – ऐसा समझ कर आलिङ्गन करती हैं ।।6।।
( जब वह कुछ जलभरे मेघ के समान स्निग्ध नीलकांति वाले विपुल अंधकार को देखती हैं तो उन्हें लगता है – ” श्रीकृष्ण ! तुम आ गए हो ” और उस स्निग्ध अंधकार को वह अपने अंक में भर लेती हैं ।)
भवति विलम्बिनी विगलित – लज्जा ।
विलपति रोदति वासक – सज्जा –
नाथ हरे ! सीदति ……….।।7।।ध्रुवं
जब श्रीराधा को वाह्य ज्ञान होता है कि वह आप नहीं हैं , आप आने में देर कर रहे हैं , तो वह वासकसज्जा श्रीराधा लाज खोकर बिलखने लगती हैं , रोने लगती हैं ।।7।।
श्रीजयदेव – कवेरिद मुदितं ।
रसिकजनं तनुतामति मुदितं –
नाथ हरे ! सीदति ……….।।8।।ध्रुवं
श्री जयदेव कवि द्वारा रचित इस गान से रसिक जनों के ह्रदय में अतिशय हर्ष का उदय हो ।।8।।
विपुल – पुलक – पालिः स्फीत – सीत्कारमंत –
र्जनितजड़िमु काकु – व्याकुलं व्याहरन्ति ।
तव कितव ! विधायामंद – कंदर्प – चिन्तां
रस – जलनिधि – मग्ना ध्यानलग्ना मृगाक्षी ।।1।।
हे शठ ! अति रोमांच से युक्त , अंतर्जनित जड़ता एवं काकुध्वनि द्वारा स्पष्ट रूप से सीत्कार करती हुई वह मृगाक्षी राधिका आपके अतिशय तीव्र मदन – विकार के आवेश में आपके प्रेम – रस सागर में निमज्जित हो किसी प्रकार प्राण धारण करती हैं ।।1।।
( श्रीराधा के प्रेमोन्माद का वर्णन करते हुए सखी श्रीकृष्ण से कहती है कि हे शठ ! हे धूर्त ! हे कपटी ! वह मृगनयनी राधिका तुम्हारे रस – सिंधु में डूबती हुई ध्यान – परायण हो गयी है । उनके शरीर के रोम – रोम में आनंद हो गया है । आनंदशयिता के कारण वह विपुल रोमांचित हो गयी है और सिसकारती हुई अंतर – जाड्य के कारण कुछ – कुछ अस्फुट बोलती है )
अंगेष्वाभरणं करोति बहुशः पत्रे अपि संचारिणि
प्राप्तं त्वां परिशंकते वितनुते शय्यां चिरं ध्यायति ।
इत्याकल्प – विकल्प – तल्प – रचना – संकल्पलीला – शत –
व्यासक्तापि विना त्वया वर्तनुर्नैषा निशां नेष्यति ।।2।।
वरतनु श्रीराधा कई बार अपने अंगों में अलंकार धारण करती हैं , पत्तों के संचारित होने पर ” आप आ गए हैं ” इस प्रकार की परिशंका करती हैं , आपके लिए मृदु शय्या की रचना करती हैं , आपके आने में विलम्ब होने पर अधिक दुखी होती हैं । इस प्रकार अलंकरण , तल्परचना , प्रेमालाप , संकल्प आदि अनेक प्रकार की लीलाओं में आसक्त रहकर भी आपके विरह में वह रात्रि नहीं बिता पा रही हैं ।।2।।
किं विश्राम्यसि कृष्ण – भोगि – भवने भाण्डीर – भूमीरुहे ।
भ्रातर्याहि न दृष्टि – गोचराभितः सानंद – नंदास्पदं।।
राधाया वचनं तदध्वग – मुखानंदान्तिके गोपतो।
गोविन्दस्य जयति सायमतिथि – प्राशस्त्य – गर्भा गिरः ।।3।।
श्रीराधा ने सखी का विलम्ब देख कर श्री कृष्ण के समीप बहाना बनाकर एक दूती को भेजा । उस दूती ने सायंकाल पथिक वेश में श्रीकृष्ण के समीप आकर श्रीराधा के द्वारा दिए हुए इन संकेत वाक्यों को कहा – ” श्रीराधा के घर में अतिथि बनने पर उन्होंने मुझसे कहा कि हे भ्रात ! इस भाण्डीर वृक्ष के तले विश्राम क्यों कर रहे हो ? यहाँ तो श्रीकृष्ण ( काल ) सर्प रहता है । सामने ही दृष्टिगोचर होने वाले आनंदप्रद नंदालय में चले आओ । तुम वहां क्यों नहीं जा रहे हो ? ” कहीं उनके पिता श्रीनं महाराज इन बातों का भावार्थ समझ न लें , इसलिए श्रीकृष्ण उनसे गोपन करने के लिए श्रीराधा जी के द्वारा प्रेरित दूत को जो धन्यवाद दिया है , वे वाणियां जाययुक्त हों ।।3।।
( महाकवि श्रीजयदेव इस श्लोक के द्वारा आशीर्वाद देते हुए इस षष्टम सर्ग का उपसंहार करते हैं । सायंकाल के अतिथि की प्रशंसा से युक्त श्रीगोविन्द की वाणियों की जय हो। जय – जयकार से श्रीकृष्ण की सर्वोत्कृष्टता सिद्ध होती है ।)
इति श्रीगीतगोविन्दे द्वादशः संदर्भः । द्वादश प्रबंधः
इति श्रीगीतगोविन्दे महाकाव्ये वासकसज्जावर्णने धृष्ट – वैकुण्ठो नाम षष्ठः सर्गः ।
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सप्तमः सर्गः
नागर – नारायणः
त्रयोदशः प्रबंध
त्रयोदशः संदर्भः
अत्रान्तरे स कुलटा – कुल – वर्त्म – पात
सञ्जात – पातक इव स्फुट – लाञ्छन – श्रीः ।
वृन्दावनान्तरमदीपयदंशु – जालै-
र्दिक्सुंदरी – वदन – चन्दन – बिंदुरिन्दः ।।1।।
श्रीकृष्ण श्रीराधा के समीप जाने के लिए सोच ही रहे थे कि इतने में पूर्व दिशारूपी सुन्दर वधु के वदन कमल में चन्दन – बिंदु के समान कुछ ही दूरी पर जैसे अनाचारी स्त्री कुलधर्म का त्याग करने पर जिस विशेष रोग ( क्षय रोग ) भोग करती है , उसके चिह्न की भाँति अपने अंग में कलंक को धारण करते हुए सुस्निग्ध किरणों के द्वारा श्रीवृन्दावन धाम को अतिशय सुशोभित कर दिया ।।1।।
प्रसरति शशधर – बिम्बे विहित – विलम्ब च माधवे विधुरा ।
विरचित – विविध – विलापं सा परितापं चकोरोच्चैः ।।2।।
शशधर मण्डल पूर्ण रूप से उदित हो गया है , माधव आने में विलम्ब कर रहे हैं , इसीलिए श्रीराधा विरह में संतप्त होकर विविध प्रकार का उच्च – स्वर से विलाप करती हुयी बहुत अधिक परितापित होने लगी ।।2।।
( चन्द्रमा के उदित होते ही माधव के आने की आशा क्षीण होने लगी , अतएव श्रीराधा उनके विरह से बड़ी संतप्त हो गयीं ।)
गीतम 13 | अष्टपदी 13
मालवराग – यतितालाभ्यां गीयते
(यह तेरहवां प्रबंध मालव राग तथा यति ताल में गाया जाता है )
कथित – समये अपि हरिरहह न ययौ वनं।
मम विफलमिदंमलमपि रूप यौवनं ।।
यामि हे ! कमिह शरणं सखीजन – वचन – वंचिता ।।1।। ध्रुवं
मेरा अमल रूप – यौवन व्यर्थ ही है , क्योंकि संकेत – काल में हरि वन में नहीं आये । सखियों से वंचित अब मैं किसकी शरण में जाऊँ ।।1।।?
( विरह – वेदना की अतिशय तीव्रता का अनुभव करती हुयी श्रीराधा को अत्यंत संताप हो रहा है – सखी ! तुमने तो कहा था मैं उन्हें लेकर अभी आती हूँ , तुम यहीं रहो , पर तुमने भी मुझे प्रताड़ना दी है । चंद्रोदय से पहले यहाँ संकेत कुञ्ज में आने की बात थी , अब तो चन्द्रमा गगन में अधिकाधिक उठता जा रहा है , तुम्हारे झूठे आश्वासनों ने मुझे ठग लिया है । )
यदनुगमनाय निशि गहनमपि शीलितं।
तेन मम ह्रदयमिदंसमशर – कीलितं-
यामि हे ! कमिह…………।।2।।ध्रुवं
हाय ! जिनका अनुसरण करने के लिए मैं इतनी गहन निशा में इस बीहड़ वन में भी आ गयी और वही मेरे ह्रदय को कामबाणों से बेध कर रहा है । हाय ! मैं किसकी शरण में जाऊं ।।2।।?
मम मरणमेव वरमिति – वितथ – केतना ।
किमिति विषहामि विरहानलमचेतना-
यामि हे ! कमिह…………।।3।।ध्रुवं
यह शरीर धारण करना व्यर्थ है , मुझे मर जाना चाहिए । मैं अचेत हो रही हूँ , अब यह दुःसह विरहानल कैसे सहन करूँ।।3।।?
मामहह विधुरयति मधुर – मधु – यामिनी ।
कापि हरिमनुभवति कृत – सुकृत – कामिनी –
यामि हे ! कमिह…………।।4।।ध्रुवं
ओह ! यह कैसा दुर्भाग्य है मेरा । यह सुमधुर वसंत की रात्रि मुझको विरह – वेदना से अधीर कर रही है और उधर ऐसे समय में निश्चित ही कोई कामिनी अपने पुण्य के फलस्वरूप परम सुख से श्रीकृष्ण के साथ रतिसुख का अनुभव कर रही है ।।4।।
अहह कलयामि वलयादि – मणि – भूषणं।
हरि – विरह – दहन – वहनेन बहु – दूषणं –
यामि हे ! कमिह…………।।5।।ध्रुवं
हाय ! मणिजड़ित बलयादि आभूषण समुदाय मेरे विरहानल को उद्दीपित करा कर मुझे अशेष दुःख प्रदान कर रहा है । अतः यह तो दोषयुक्त ही प्रतीत हो रहा है ।।5।।
( आह ! सखी ! तुमने बड़ा छल किया । मैंने पुष्पों – पल्ल्वों , मणियों से सजे इतने आभूषणों से शरीर को सजाया , पर सभी हरि के विरह की आग में अनल सदृश हो प्रतीत हो रहे हैं । मदन की वेदना से शरीर विरहाग्नि में तप्त हो रहा है । अब ये आभूषण नहीं रहे , अभिशाप हो गए है क्योंकि प्रिय के अवलोकन का फल ही रमणियों का सौंदर्य एवं परिधान है ।)
कुसुम – सुकुमार – तनुमतनु – शर लीलया ।
स्रगपि हृदि हन्ति मामितिविषम – शीलया –
यामि हे ! कमिह…………।।6।।ध्रुवं
( दूसरे आभूषणों की तो बात ही क्या ) मेरे उर स्थल पर स्थित यह वनमाला अतिशय कोमल कुसुम से सुकुमार मेरे शरीर को भी काम – शर की भाँति विषम रूप से आघात प्रदान कर रही है ।।6।।
अहमिह निवासामि न गणित – वनवेतसा ।
स्मरति मधुसूदनो यामपि न चेतसा –
यामि हे ! कमिह…………।।7।।ध्रुवं
मैं यहाँ भयानक वेतस वन में भी निर्भय होकर श्रीकृष्ण के लिए बैठी हूँ , किन्तु कितने आश्चर्य की बात है कि वे मधुसूदन मुझे एक बार भी स्मरण नहीं करते ।।7।।
हरि – चरण – शरण – जयदेव – कवि – भारती।
वसतु हृदि युवतिरिव कोमल – कलावती –
यामि हे ! कमिह…………।।8।।ध्रुवं
कोमल वपु वाली मनोहर लावण्यवती कला समलंकृत युवती जैसे सुन्दर गुणों वाले युवकों के मन में सदा विराजमान रहती है , वैसे ही श्रीकृष्ण के चरणों के शरणागत श्रीजयदेव कवि द्वारा विरचित या सुललित गीति भक्तजनों के मन में सदा विराजमान हो ।।8।।
( जयदेव कवि कहते हैं कि उनके रक्षक एकमात्र श्रीकृष्ण के चरण ही हैं । उनसे अलग उनका और कोई रक्षक ही नहीं है । यह कविता भक्तों के ह्रदय में उसी प्रकार स्थान प्राप्त करे जिस प्रकार कोमल वपूवाली तथा श्रंगार आदि रसवर्धिनी छह कलाओं से विशिष्ट कोई सुंदरी अपने नायक के ह्रदय में विराजती है । जैसे लावण्य विभूषिता कोई नायिका अपने नायक के मन को अत्यधिक आनंद प्रदान किया करती है उसी प्रकार यह काव्य भक्तों के ह्रदय को भी आनंदित करे – यह कवि की कामना है ।)
तत्किं कामपि कामिनीमभिसृतः किं व कलाकेलिभि
र्बद्धो बंधुभिरंधकारिणि वनाभ्यर्णे किमुदभ्राम्यति।
कान्त ! क्लान्त्मना मनागपि पथि प्रस्थातु मेवाक्षमः
संकेतीकृत – मञ्जु – वञ्जुल – लता – कुञ्जे अपि यन्नागतः।।1।।
संकेत स्थल रूप में निर्दिष्ट मनोहर लता कुञ्ज में मेरे प्राण वल्लभ श्रीकृष्ण क्यों नहीं आये ? इसका क्या रहस्य है ? क्या वे किसी दूसरी कामिनी के साथ अभिसार करने चले गए ? क्या अपने सखाओं के साथ क्रीड़ा – आमोद में प्रमत्त हो निर्दिष्ट समय का उन्होंने अतिक्रमण कर दिया है ? क्या सघन वृक्षों की छाया में घोर अंधकार के कारण संकेत – स्थली न मिलने पर इधर – उधर भटक रहे हैं ? क्या मेरे विरह में अत्यंत क्लांत हो एक कदम भी चल पाने में असमर्थ हो गए हैं ।।1।।?
इति श्री गीत गोविन्दे त्रयोदशः प्रबंधः
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चतुर्दशः प्रबंध
अथ चतुर्दशः संदर्भः
हरिरमितचम्पकशेखर
अथागतं माधवमन्तरेण सखीमियं वीक्ष्य विषादमूकाम ।
विशंकमना रमितं कयापि जनार्दनं दृष्टवदेतदाह।।1।।
माधव के बिना सखी को आया देख विषण्ण चित्त से मौन धारण कर श्रीराधा आशंकित होकर सोचने लगीं – जनार्दन किसी और कामिनी के साथ रमण कर रहे हैं क्या ?।।1।।
गीतम 14| अष्टपदी 14
वसंतरागयतितालाभ्यां गीयते
(यह चौदहवां प्रबंध वसंत राग तथा यति ताल के द्वारा गाया जाता है )
समर – समरोचित – विरचित – वेशा,
दलित – कुसुम – दर विलुलित केशा ।
कापि मधुरिपुणा
विलसति युवतिरधिकगुणा।।1।। ध्रुवं
सखी ! मदन – समर के योग्य वेशभूषा का परिधान किये हुए और अनंग रस के आवेश में केश बंधन बिखर जाने के कारण कुसुम समूह विगलित होने से विमर्दित केशों वाली मुझसे भी अधिक गुणशालिनी कोई युवती मधुरिपु के साथ सुखपूर्वक निवास कर रही है ।।1।।
हरि – परिरम्भण – वलित – विकारा।
कुच – कलशोपरि तरलित – हारा ।।
कापि मधुरिपुणा ………….।।2।।ध्रुवं
श्रीकृष्ण का प्रगाढ़ रूप से आलिंगन करने पर मदन – विकार से विमोहित उसमें रोमांच आदि विकार उत्पन्न हो गए होंगे और उसके उरस्थल पर हार दोलायमान हो रहा होगा ।।2।।
विचलदल – कललितानन – चंद्रा।
तदधर – पान – रभस – कृत – तन्द्रा ।।
कापि मधुरिपुणा ………….।।3।। ध्रुवं
उसका मुखचन्द्र घुँघराली अलकावलियों से सुललित हो रहा होगा और श्रीकृष्ण की अधर – सुधा का पान करने की अतिशय लालसा के कारण नयन युगल आनंदपूर्वक निमीलित हो रहे होंगे ।।3।।
चञ्चल – कुण्डल – ललित – कपोला ।
मुखरित – रसन – जघन – गति – लोला ।।
कापि मधुरिपुणा ………….।।4।। ध्रुवं
कुण्डल – युगल चञ्चल होने पर उसके कपोल – तल की शोभा और भी बढ़ रही होगी , कटितट पर विराजमान मणिमय मेखला की क्षुद्र घंटिकाएँ उसके जघन स्थल पर आंदोलित होने के कारण सुमधुररूप से मुखरित हो रही होंगी ।।4।।
दयित – विलोकित – लज्जित – हसिता ।
बहुविध – कूजित – रति – रस – रसिता-
कापि मधुरिपुणा ………….।।5।। ध्रुवं
दयित श्रीकृष्ण के द्वारा अवलोकित होने पर वह लज्जित होती होगी , हंसती होगी , रतिकाल में रतिरसरसिता होकर कोकिल कलहंसादि के समान मदन विकार सूचक ‘ सीत्कार ‘ शब्द करती होगी ।।5।।
विपुल – पुलक – पृथु – वेपथु – भङ्गा।
श्वसति – निमीलित – विकसदनंगा-
कापि मधुरिपुणा ………….।।6।।ध्रुवं
अनंग रस से पुलकित हो उसके रोमांच एवं कम्प ही उसके तरंग के समान हैं । सघन निःश्वास एवं नेत्र निमीलन के द्वारा वह मदन – आवेश प्रकाशित करती होगी ।।6।।
श्रमजल – कण – भर – सुभग – शरीरा ।
परिपतितोरसि रति रण – धीरा।।
कापि मधुरिपुणा ………….।।7।।ध्रुवं
रतिरसनिपुण वह कामिनी सुरत – क्रीड़ा जन्य स्वेद की बूंदों से और भी सुन्दर लगती होगी , रतिक्रिया में धैर्य धारण करने वाली वह रति श्रम श्रान्ता श्रीकृष्ण के उरस्थल पर निपतिता होकर कितनी शोभा पा रही होगी ।।7।।
श्रीजयदेव – भणित – हरि – रमितं।
कलि – कलुष जनयतु परिशमितं –
कापि मधुरिपुणा ………….।।8।।ध्रुवं
कवि जयदेव द्वारा वर्णित यह हरि – रमण – विलास रूप रति क्रीड़ा सबका कलि – कल्मष अर्थात कामवासना को शांत करे ।।8।।
( गीतगोविन्द के इस चौदहवें प्रबंध का नाम हरिरमितचम्पकशेखर है । इस प्रबंध में विपरीत रति का वर्णन है । यह पाठकों और श्रोताओं के कलिदोषजन्य काम – विकार का प्रक्षालन करे । )
इति श्री गीत गोविन्दे चतुर्दशः संदर्भः | चतुर्दशः प्रबंधः
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पंचदशः प्रबंधः
पञ्चदशः संदर्भः
विरह – पाण्डु – मुरारि – मुखाम्बुजद्युतिरयं तिरयन्नपि वेदनां।
विधुरतीव तनोति मनोभुवः सुहृदये हृदये मदनव्यथां।।1।।
प्रिय सखी ! मेरे विरह में पाण्डु वर्ण हुए श्रीमुरारी के मुखकमल की कांति के समान धूसरित यह चन्द्रमा मेरी मनोव्यथा को तिरोहित कर कामदेव के सुहृद भूत मेरे ह्रदय में मदन – संताप की अभिवृद्धि कर रहा है ।।1।।
गीतम 15 | अष्टपदी 15
गुर्जरीरागैकतालीतालेन गीयते
(गीत – गोविन्द काव्य का यह पन्द्रहवां प्रबंध गुर्जरी राग तथा एकताली ताल से गाया जाता है )
समुदित – मदने रमणी – वदने चुम्बन – वलिताधरे ।
मृगमदतिलकं लिखति सपुलकं मृगमिव रजनीकरे।।
रमते यमुना – पुलिन – वने विजयी मुरारिरधुना।।1।। ध्रुवं
रतिरण में विजयी मधुरिपु यमुना – पुलिन के वन में प्रिया के साथ रमण कर रहे हैं , पुलकावलियों से पूर्ण काम की उद्दीपन – स्वरूपा उस रमणी के वदन में चन्द्रमण्डल के ऊपर मृगलान्छन की भांति कस्तूरी तिलक की रचना कर रहे हैं ।।1।।
घनचय – रुचिरे रचयति चिकुरे तरलित – तरुणानने।
कुरुबक – कुसुमं चपला – सुषमं रतिपति – मृग – कानने –
रमते यमुना – पुलिन वने ……………।।2।। ध्रुवं
मदन – मृग के विहार – कानन – स्वरूप उस युवति के मेघ – समूह के समान मनोहर कुंतल ( केशपाश ) हैं , जिससे उसका तरुण करुण आनन सतत उल्लसित होता है , उनमें वे कुरुवक कुसुम सन्निवेशित कर रहे हैं ।।2।।
घटयति सुधने कुच – युग – गगने मृगमद – रूचिरुषिते।
मणिसरममलं तारक – पटलं नख – पद – शशि – भूषिते ।।
रमते यमुना – पुलिन वने ……………।।3।।ध्रुवं
उस सुकेशी के गाढ़ नीलवर्णा कस्तूरी की धूलि से विलपित परस्पर नितांत सन्निहित विशाल उर युग मंडल रूप गगन जो अर्धचन्द्राकार परिशोभित है , उस पर निर्मल तारक – दल के समान मनोहर मणिमय हार को अर्पित कर रहे हैं ।।3।।
जित – विस – शकले मृदु – भुज – युगले करतल – नलिनी – दले।
रकत – वलयं मधुकर – निचयं वितरति हिम – शीतले।।
रमते यमुना – पुलिन वने ……………।।4।।ध्रुवं
सुकेशी , उरयुगलयुक्त उस रमणी के मृणाल दंड से भी सुशीतल भुजयुगल जिनमें उसके सुकुमार करतलरूपी नलिनी – दल सुशोभित हो रही है , उनमें वे भ्रमर – सदृश मरकतमय वलयरूपी कंगन धारण करा रहे हैं ।।4।।
रति – गृह – जघने विपुलापघने मनसिज – कनकासने।
मणिमय – रसनं तोरण – हसनं विकिरति कृत – वासने ।।
रमते यमुना – पुलिन वने ……………।।5।।ध्रुवं
सुगन्धित , विपुलतर कंदर्प के सुवर्ण – पीठ – स्वरूप के समान रतिग्रह तुल्य उस रमणी के कटि – स्थल में मणिमय मेखलारूपी मंगल तोरण धारण करा रहे हैं ।।5।।
चरण – किसलये कमला – निलये नख – मणिगण – पूजिते ।
बहिरपवर्णं यावक – भरणं जनयति हृदि योजिते ।।
रमते यमुना – पुलिन वने ……………।।6।।ध्रुवं
उस जानुनी के अरुण मनोहर श्री से संपन्न एवं मणियों से विभूषित पद – पल्लवों को मणियों से समलंकृत एवं लक्ष्मी के वासस्थल अर्थात अपने ह्रदय पर स्थापित करते हुए बड़े यत्न से आवरण – आच्छादन करते हुए जावक – रस से रञ्जित कर रहे हैं ।।6।।
रमयति सुभृशं कामपि सुदृशं खलहलधरसोदरे ।
किमफलमवसं चिरमिह विरसं वद सखी ! विटपोदरे।।
रमते यमुना – पुलिन वने ……………।।7।।ध्रुवं
हलधर के सहोदर , अविवेक की , गंवार , खल वे श्रीकृष्ण निश्चित रूप से किसी सुनयना का प्रगाढ़ आलिङ्गन कर उसके साथ रमण कर रहे हैं , तब सखी ! तुम्हीं बताओ , मैं इस लतानिकुञ्ज में कब तक विरस भाव से बैठी – बैठी प्रतीक्षा करती रहूँ ।।7।।
इस रस – भणने कृत – हरि – गुणने मधुरिपु – पद – सेवके।
कलि – युग – रचितं न वसतु दुरितं कविनृप जयदेवके ।।
रमते यमुना – पुलिन वने ……………।।8।।ध्रुवं
श्रंगार रस से परिपूर्ण श्रीकृष्ण की लीला – कथाओं का कीर्तन करने वाले , मधुसूदन के सेवक मुझ कविराज जयदेव में कलियुग आचरित दुरित दोष प्रकट न हों ।।8।।
( श्रीजयदेव इस अष्टपदी की संरचना में स्वयं को मधुरिपु के सेवकों में सर्वश्रेष्ठ मानकर यह प्रार्थना करते हैं कि इस गीति को सुनने वालों में कलियुग के दूषणीय चरित्र प्रविष्ट न हों । ‘ हरगुणने ‘ का तात्पर्य है कि श्रीहरि की कथाओं का अभ्यास करने वाले कविराज जयदेव । इस प्रबंध में आयी कवि की सभी उक्तियाँ रस की उद्दीपना करने वाली हैं । इस रस की अभिव्यक्ति से कलियुग के प्रभाव से तामसी चित्तवृत्तियाँ ह्रदय में प्रविष्ट नहीं हो पाती हैं । इस प्रबंध का नाम हरिरससमन्मथतिलक है , जिसे प्रबंधराज कहा गया है । यह द्रुत ताल एवं द्रुत लय से गाया जाता है । इसकी राग मल्हार है ।)
इति पञ्चदशः संदर्भः | इति पंचदशः प्रबंधः
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षोडशः प्रबंधः
षोडशः संदर्भः
नारायण मदनायास
नायातः सखि ! निर्दयो यदि शठस्त्वं दूति ! किं दूयसे ?
स्वच्छन्दं बहुवल्लभः स रमते , किं तत्र ते दूषणं ?
पश्याद्य प्रिय- सङ्गमाय दयितस्याकृष्यमाणं गुणै
रुत्कण्ठार्ती भरादिव स्फुटदिदं चेतः स्वयं यास्यति ।।1।।
सखि – हे सखि राधे ! वे नहीं आये ।
श्रीराधा – वे निर्दय , निष्ठुर , शठ यदि नहीं आये तो तुम दुःखी क्यों हो रही हो ?
सखी – वे बहुवल्लभा हैं , स्वच्छंदतापूर्वक रमण करते हैं ।
श्रीराधा – इसमें तुम्हारा क्या दोष है ? देखो , आज मेरा मन उस प्राणकान्त प्रियतम श्रीकृष्ण के गुणों से आकृष्ट होकर तथा उत्कंठा के भार से विदीर्ण होकर उनसे मिलने के लिए स्वयं ही जायेगा ।।1।।
गीतम 16 | अष्टपदी 16
देशवराडीरागेण रूपकतालेन गीयते
( गीतगोविन्द काव्य का यह सोलहवां प्रबंध देशवराड़ी राग और रूपक ताल में गाया जाता है )
अनिल – तरल – कुवलय – नयनेन।
तपसि न सा किसलय – शयनेन।।
सखि ! या रमिता वनमालिना ।। ध्रुवपदं।।1।।
पवन के द्वारा संचालित इंदीवर ( कमल ) के समान चंचल नयन वाले श्रीकृष्ण के द्वारा जो वरयुवती रमिता हुयी है , उसे किसलय शय्या पर शयन करने से किसी ताप का अनुभव नहीं हुआ होगा ।।1।।
विकसित – सरसिज – ललित – मुखेन ।
स्फुटति न सा मनसिज – विशिखेन –
सखि ! या रमिता ………….।।2।।ध्रुवं
प्रफुल्लित कमल के समान सुललित मुखवाले वनमाली श्रीकृष्ण के द्वारा जो सुंदरी संभुक्ता हुई है , उसे कंदर्प के विषम बाण कभी भेद नहीं सकते अथवा विलासकला – पराङ्गमुख केवल हास्य – परायण श्रीकृष्ण के साथ रमन न कर सकने वाली वह गोपी का काम के विषम बाणों से क्या बिद्ध नहीं होती ? अपितु होती ही है।।2।।
अमृत – मधुर – मृदुतर – वचनेन।
ज्वलति न सा मलयज – पवनेन।।
सखि ! या रमिता ………….।।3।।ध्रुवं
अति सुमधुर तथा कोमलतर वचन बोलने वाले श्रीकृष्ण से जो वनिता रमिता हुयी है , उसे मलय – पवन के संपर्क से कभी ज्वाला का अनुभव नहीं हो सकता ।।3।।
स्थल – जलरुह – रूचि – कर – चरणेन ।
लुठति न सा हिमकर किरणेन ।।
सखि ! या रमिता ………….।।4।।ध्रुवं
वनमाली श्रीकृष्ण के कर एवं चरण स्थल – कमल के समान कांतिमय एवं सुशीतल हैं , उनसे जो रमणी संयुक्ता हुई है , उसे चंद्र – किरणों से संतापित होकर पृथ्वी पर लुंठन नहीं करना पड़ता ।।4।।
सजल – जलद – समुदय – रुचिरेण।
दहति न सा हृदि विरह – दवेन ।।
सखि ! या रमिता ………….।।5।।ध्रुवं
वनमाली श्रीकृष्ण सजल – जलद – मंडल से भी मनोहर कांतिमय एवं सुकुमार हैं । उन श्रीकृष्ण के साथ जिस वरांगना ने रमण किया उसे दीर्घकालिक विरह के विषभार से कभी भी संदलित नहीं होना पड़ता ।।5।।
कनक – निकष – रूचि – शुचि – वसनेन।
श्वसिति न सा परिजन – हसनेन ।।
सखि ! या रमिता ………….।।6।।ध्रुवं
स्वर्ण – निकष ( कसौटी ) सदृश श्याम वर्ण वाले पवित्र पीत वस्त्र धारण करने वाले श्रीकृष्ण के द्वारा जो सौभाग्यशाली रमणी संयुक्ता हुयी है , उसे कभी भी परिजनों द्वारा उपहास का कारण बनकर दीर्घ निःश्वास नहीं लेने पड़ते ।।6।।
सकल – भुवन – जन – वर – तरुणेन।
वहति न सा रुजमति – करूणेन।।
सखि ! या रमिता ………….।।7।।ध्रुवं
अखिल जगत के तरुण – श्रेष्ठ , सुकुमार मनोहर रूप लावण्य – विशिष्ट श्रीकृष्ण के साथ रमण करने वाली नायिका अपने अंतःकरण में दारुण विरह – वेदना का अनुभव नहीं करती है क्योंकि वे अति करुण हैं ।।7।।
श्रीजयदेव – भणित – वचनेन ।
प्रविशतु हरिरपि हृदयमनेन।।
सखि ! या रमिता ………….।।8।।ध्रुवं
श्रीजयदेव कवि विरचित श्रीराधा के विलाप – वचनों के साथ श्रीहरि भी भक्तों के ह्रदय में प्रवेश करें ।।8।।
( जयदेव कवि द्वारा माधव के उद्देश्य से गाये गए इस प्रबंध से प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण ह्रदय में प्रवेश करें । किसके ह्रदय में ? श्रीराधा के ह्रदय में । साथ ही कारण – रंध्र द्वारा मेरे – कवि जयदेव के , इस प्रबंध के पाठकों के तथा श्रोताओं के भाव रुपी ह्रदय – कमल में भी प्रवेश करें । नागर नारायण हरि ह्रदय में अवस्थित हों ।
मनोभवानंदन चंदनानिल!
प्रसीद रे दक्षिण ! मुञ्च वामतां।
क्षणं जगत्प्राण ! विधाय माधवं ।
पुरो मम प्राणहरो भविष्यसि ।।1।।
हे कंदर्प को आनंद देने वाले मलयाचल के समीर ! दक्षिण ही बने रहो ! वामता का त्याग कर दो ! हे जगत के प्राणस्वरूप ! माधव को मेरे सामने कर तुम मेरे प्राण हर लेना ।।1।।
रिपुरिव सखी – संवासो अयं शिखीव हिमानिलो
विषमिव सुधा रश्मिर्यस्मिन दुनोति मनोगते ।
हृदयमदये तस्मिन्नेवं पुनर्वलते बलात् –
कुवलय – दृशां वामः कामो निकाम निरंकुशः।।2।।
हे सखि ! सखियों का सुखमय साथ , शत्रु के समान मेरे मन को शत्रु की भांति अनुभूत हो रहा है , सुशीतल सुमंद समीरण हुताशन के समान प्रतीत हो रहा है और सुधा – रश्मियाँ विष के समान मुझे कष्ट दे रही हैं , फिर भी मेरा ह्रदय बलात् उसी में लगा है , सत्य है , कुवलय सदृश कामिनियों के प्रति काम सर्वथा ही निरंकुश हुआ करता है ।।2।।
बाधां विधेहि मलयानिल ! पंचबाण !
प्राणान्गृहाण न गृहं पुनराश्रयिष्ये।
किं ते कृतांतभगिनी ! क्षमया तरङ्गे-
रँगानि सिञ्च मम शाम्यतु देहदाहः ।।3।।
हे मलयानिल ! तुम बाधाओं का विधान करो ! हे पंचबाण ! तुम मेरे प्राणों का हरण करो ! हे यमुने ! तुम यम की बहन हो , तुम क्यों मुझे क्षमा करोगी ? तुम तरङ्गों के द्वारा मुझे अभिषिक्त कर देना , जिससे मेरे देह का संताप सदा के लिए शांत हो जाये ।।3।।
प्रातर्नील – निचोलमच्युतमुर संवीत पीतांशुकं
राधायाश्चकितं विलोक्य हसति स्वैरं सखिमंडले।
ब्रीडाचंचलमञ्चलं नयनयोराधाय राधानने
स्मेरस्मेरमुखो अयमस्तु जगदानन्दाय नन्दात्मजः ।।4।।
प्रातः काल विभ्रम वश श्रीकृष्ण ने श्रीराधा जी का नील उत्तरीय वस्त्र धारण कर लिया , जिसे देख सखीमण्डल स्वच्छंदतापूर्वक हंसने लगा । उन्हें हँसता हुआ देखकर श्रीकृष्ण ने मंद मुस्कान के साथ सलज्ज होकर अपाङ्ग – भंगिमा से श्रीराधा के मुखारविंद के प्रति कटाक्षपात किया । ऐसे नंदनंदन श्रीकृष्ण जगत के लिए आनंद का विधान करें ।।4।।
इति श्री गीत गोविन्दे षोडश संदर्भः । षोडशः प्रबंधः
इस प्रकार नारायण मदनायास नाम का या सोलहवां प्रबंध समाप्त हुआ ।
इति श्रीगीतगोविन्दे शृङ्गारमहाकाव्ये वासकसज्जावर्णने नागर-नारायणो नाम सप्तमःसर्गः
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अष्टमः सर्गः
लक्ष्मीपति – रत्नावली
सप्तदशः प्रबंधः
सप्तदशः संदर्भः
( इस गीत गोविन्द काव्य के अष्टम सर्ग का नाम ” लक्ष्मीपति – रत्नावली” है । इसमें मेघराग है ।)
अथ कथमपि यामिनीं विनीय
स्मरशरजर्जरितापि सा प्रभाते ।
अनुनयवचनं वदन्तमग्रे
प्रणतमपि प्रियमाह साभ्यसूयं।।1।।
अतः पर श्रीराधा ने जैसे – तैसे वह रात बिताई। प्रातः काल होने पर श्रीकृष्ण उनको प्रणिपातपूर्वक सानुनय वचन से उनके रोष भरे मान को प्रशमित करने का प्रयास करने लगे , परन्तु श्रीराधा मदनबाणों से जर्जरित होने पर भी विरह वचनों से युक्त प्रियकांत श्रीकृष्ण को अपने निकट प्रणत भाव से समुपस्थित देखकर अतिशय ईर्ष्या भाव से उनको इस प्रकार कहने लगीं।।1।।
गीतम 17 | अष्टपदी 17
भैरवीरागयतितालाभ्यां गीयते
( गीत गोविन्द काव्य का यह सत्रहवाँ प्रबंध भैरव – राग तथा यति ताल से गाया जाता है )
रजनि – जनित – गुरु – जागर – राग – कषायितमलस – निमेषें।
वहति नयनमनुरागमिव स्फुटमुदित – रसाभिनिवेशं ।।
हरि हरि याहि माधव याहि केशव मा वद कैतववादं
तामनुसर सरसीरुहलोचन या तव हरति विषादं ।। ध्रुवं ।।1।।
हे हरि ! ( अपनी सुललित नयन – भंगिमा से अवलाओं के मन को हरण करने वाले ) मुझे खेद है । हे माधव ! जाओ ! हे केशव ! चले जाओ ! तुम झूठ मत बोलो ! जो तुम्हारे दुःख का हरण कर सकती है , तुम उसी के पास चले जाओ ! रात्रि में बहुत अधिक जागरण के कारण अलसतामय मंद – मंद निमीलित , रति रसावेश संयुक्त आरक्त नयन उस व्रजसुंदरी के प्रति प्रबलानुराग को अभी भी प्रकाशित कर रहे हैं ।।1।।
कज्जल – मलिन – विलोचन – चुम्बन – विरचित – नीलिम – रूपं।
दशन – वसनमारुणं तव कृष्ण ! तनोति तनोरनुरूपं।।
हरि हरि याहि माधव……………..।।2।।ध्रुवं
आपकी दशन – पंक्ति के वसन स्वरूप अरुण वर्ण के सुन्दर अधर व्रज युवतियों के काजल से अंजित नयनों के चुम्बन करने से कृष्ण वर्ण होकर आपके शरीर के अनुरूप ही कृष्णता को प्राप्त हो रहे हैं ।।2।।
वपुरनुहरति तव स्मर – संगर- खरनखरक्षत – रेखं।
रकत – शकल – कलित – कलधौत – लिपेरिव रति – जयलेखं ।।
हरि हरि याहि माधव……………..।।3।।ध्रुवं
आपका यह श्यामल शरीर कामकेलि के समय रतिरणनिपुणा कामिनी द्वारा रेखांकित हुआ है , ऐसा प्रतीत होता है , मानो मरकतमणिरूपी दीवार पर स्वर्ण लिपि से रति – जय – लेख अंकित कर दिया हो ।।3।।
चरणकमल गलदल लक्तक – सिक्तमिदं तव ह्रदयमुदारं ।
दर्शयतीव बहिर्मदन – द्रुम – नव – किसलय – परिवारं।।
हरि हरि याहि माधव……………..।।4।।ध्रुवं
आपके प्रशस्त ह्रदय पर वरांगना के चरण कमलों के अलक्तक रस से रञ्जित लोहित वर्ण चिह्न ऐसे प्रतीत हो रहे हैं , मानो आपके अन्तः करण में अवस्थित बद्धमूल मदन – वृक्ष के अरुण – वर्ण नूतन पल्लव बहार अभिव्यक्त हो रहे हैं ।।4।।
दशन – पदम् भवदधर – गतं मम जनयति चेतसि खेदं ।
कथयति कथमधुनापि मया सह तव वपुरेतदभेदं ।।
हरि हरि याहि माधव……………..।।5।।ध्रुवं
उस रमणी के आघात से आपके अधर क्षत हो रहे हैं , जिन्हें देख कर मेरे अन्तः करण में खेद उत्पन्न होता है और अब भी आप कहते हैं कि तुम्हारा शरीर मुझसे पृथक नहीं है , अभिन्न है ।।5।।
बहिरिव मलिनतरं तव कृष्ण मनो अपि भविष्यति नूनं ।
कथमथ वंच्यसे जनमनुगतमसमशरज्वरदूनं।।
हरि हरि याहि माधव……………..।।6।।ध्रुवं
हे कृष्ण ! जैसे तुम्हारा शरीर मलिन है , वैसे ही तुम्हारा मन भी अवश्य ही मलिन हो गया होगा । यदि ऐसा न होता तो मदन – शर से जर्जरित अपने अनुगत ( आश्रित ) जन की इस प्रकार वंचना न करते ।।6।।
( श्रीराधा खेद को प्राप्त होकर श्रीकृष्ण से कहती हैं – हे कृष्ण ! बाहर से तुम जितने काले हो , अंदर से तुम उससे भी अधिक काले हो । स्वभावतः उदार एवं उज्जवल मन मेरे प्रति इतनी उदासीनता कैसे बरत सकता है ? अपने ही अनुकूल , अपने ही आश्रितजन के साथ इतना छल , मेरी उपेक्षा कर परायी रमणी के साथ विलास , जो मलिन – मन होता है , वही अपने आश्रित जन के साथ छल कर सकता है ।श्रीकृष्ण ने राधा से कहा – राधे ! मुझ पर व्यर्थ ही शंका मत करो , मैं कभी भी तुम्हारी वञ्चना नहीं कर सकता । )
भ्रमति भवानवला – कवलाय वनेषु किमत्र विचित्रं।
प्रथयति पूतनिकैव वधू – वध – निर्दय – बाल – चरित्रं।।
हरि हरि याहि माधव……………..।।7।।ध्रुवं
आप अबलाओं का वध करने के लिए ही वन – वन में भ्रमण कर रहे हो , इसमें आश्चर्य ही क्या है ! बाल्य चरित्र में ही आपने पूतना का वध करके अपने निर्दय निष्ठुर स्वभाव का परिचय दिया है , नारीवध परायणता तो आपके चरित्र में है ही । ।7।।
श्रीजयदेव – भणित – रति – वञ्चित – खण्डित – युवति – विलापं ।
शृणुत सुधा – मधुरं विबुधा ! विबुधा लयतो अपि दुरापं ।।
हरि हरि याहि माधव……………..।।8।।ध्रुवं
हे विद्वानों ! श्रीजयदेव कवि द्वारा विरचित खण्डिता , रति वंचिता युवती श्रीराधा का अमृत से भी अधिक सुमधुर एवं सुरलोक में भी दुर्लभ विलाप का श्रवण करें । देवलोक में सर्वाधिक सुमधुर वास्तु अमृत है पर श्रीराधा के विलाप की तुलना में वह अमृत नगण्य है , इसे तो मनुष्य – तन से इस भौम जगत में ही प्राप्त किया जा सकता है । अतः जो विद्वान अमृत प्राप्ति के लिए सुरत की उपलब्धि के लिए लालायित रहते हैं उन्हें इस अतुलनीय भौम सुधा का पान अवश्य ही करना चाहिए ।।8।।
तवेदं पश्यन्त्यः प्रसरदनुरागं बहिरिव ।
प्रिया – पाद – लक्त – च्छुरितमरुणद्योति – हृदयँ ।।
ममाद्य प्रख्यातप्रणयभरभङ्गेन कितव।
त्वदालोकः शोकादपि किमपि लज्जां जनयति।।1।।
हे शठ ! आज प्रिय व्रजांगना के चरणों के अलक्तक रस में रञ्जित आपका अरुण द्युति से युक्त ह्रदय आपके ह्रदय स्थित प्रबल अनुराग को बाहर प्रकट कर रहा है , जिसे देखकर आपका मेरा चिर – प्रसिद्ध प्रणय विच्छेदित हो रहा है । इससे मेरे चित्त में शोक की अपेक्षा लज्जा ही अधिक उद्भूत हो रही है ।।1।।
अंतर्मोहन – मौलि – घूर्णन – चलन्मन्दार – विस्रंशन
स्तब्धाकर्षण – दृष्टिहर्षण – महामन्त्रः कुरङ्गी दृशां।
दृपयद्दानव – दूयमान – दिविषद – दुर्वार – दुःखापदां
भ्रंशः कंसरिपोहव्यापोअवतु वः श्रेयांसि वंशीरवः।।2।।
गोपियों के अंतःकरण को मोहने वाली , मौलि स्थित मणिमय किरीटों को घूर्णित करने वाली , चंचल मनोहर पुष्पों को विभ्रंशित करने वाली , दृप्त दानवों के द्वारा विदलित देवताओं के दुर्निवार दुःख को दूर करने वाली , कुरङ्गी नयनाओं के लिए स्तम्भन , आकर्षण एवं नेत्रों के हर्ष की अभिवृद्धि करने वाली वंशी ध्वनि आप सबके मंगलमय मार्ग के विघ्नों का नाश करे ।।2।।
( अन्तःकरणों का मोहित हो जाना मोहनत्व है । इस प्रकार मोहनत्व , वशीकरणत्व , स्तंभत्व , आकर्षणत्व , उच्चाटनत्व एवं मारणत्व के गुणों से युक्त होने के कारण वंशीध्वनि महामंत्र स्वरूप है । श्रीकृष्ण श्रीराधा के प्रगाढ़ मान को दूर करने के लिए षटसाधन संपन्न महामन्त्रस्वरूप वंशीध्वनि करने लगे । )
इति सप्तदशः संदर्भः | इति सप्तदशः प्रबंधः
इति श्रीगीतगोविन्दे शृङ्गारमहाकाव्ये खण्डितावर्णने विलक्षणलक्ष्मीपतिर्नाम अष्टमः सर्गः
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नवमः सर्गः
(मुग्ध – मुकुन्दः )
अष्टादशः प्रबंधः
अष्टादशः संदर्भः
तामथ मन्मथ – खिन्नां रति – रस – भिन्नां विषाद – सम्पन्नां।
अनुचिंतित – हरि – चरितां कलहांतरितामुवाच रहसि सखी ।।1।।
मदन बाण से प्रपीड़िता , रतिवंचिता, विषादयुक्ता , कलहान्तरिता , श्रृंगार रस से युक्त श्रीहरि के चरित्र के विषय में सतत चिंतन करने वाली श्रीराधा से सखी ने एकांत में कहा ।।1।।
गीतम 18 | अष्टपदी 18
गुर्जरीराग – यतितालाभ्यां गीयते
( गीत गोविन्द काव्य का प्रस्तुत अठारवाँ प्रबंध गुर्जरी राग तथा यति ताल के द्वारा गाया जाता है )
हरिरभिसरति वहति मधुपवने
किमपरमधिकसुखं सखि ! भवने।।1।।
माधवे मा कुरु मानिनी । मानमये ।। ध्रुवं ।।
हे मानिनी ! देखो , इस समय मंद – मंद वासंती समीर प्रवाहित हो रहा है , श्रीकृष्ण अभिसार के लिए तुम्हारे संकेत भवन में आ रहे हैं । हे सखि ! इससे अधिक बढ़ कर और सुख क्या हो सकता है।।1।। ?
ताल – फलादपि गुरुमतिसरसं
किं विफली कुरुषे कुच – कलशं?
माधवे ………………..।।2।।ध्रुवं
सुपक्व ताल फल से भी गुरुतर एवं अति रसपूर्ण इन उर युगलों को विफल क्यों कर रही हो ।।2।।?
कति न कथितमिदमनुपदमचिरं ।
मा परिहर हरिमतिशय – रुचिरं।।
माधवे ………………..।।3।।ध्रुवं
मैं तुम्हें कितनी बार कह रही हूँ कि तुम निरतिशय सुन्दर मनोहर श्रीहरि का परित्याग मत करो ।।3।।
किमति विषीदासि रोदिषि विकला ?
विहसति युवति सभा तव सकला।।
माधवे ………………..।।4।।ध्रुवं
तुम इतनी शोक विह्वल होकर क्यों रो रही हो ? तुम्हारे विकलता – प्रदर्शक इन हाव भावों को देखकर तुम्हारी प्रतिपक्षी युवतियाँ प्रमुदित हो रही हैं ।।4।।
सजल – नलिनीर्दल – शीलितशयने ।
हरिमवलोकय सफलय नयने ।।
माधवे ………………..।।5।।ध्रुवं
तुम सजल कमल के दल से रचित शीतल शय्या पर श्रीकृष्ण को प्रेम भरी दृष्टि से अवलोकन कर नयन – युगल को सफल बनाओ ।।5
जनयसि मनसि किमिति गुरुखेदं?
श्रणु मम वचनमनीहित भेदं।।
माधवे ………………..।।6।।ध्रुवं
तुम मन ही मन इतनी क्षुब्ध क्यों हो रही हो ? मेरी बात सुनो , मैं बिना किसी भेद के तुम से हित की बात कहती हूँ ।।6।।
हरिरूपयातु वदतु बहु – मधुरं ।
किमिति करोषि ह्रदयमतिविधुरं ।।
माधवे ………………..।।7।।ध्रुवं
श्रीहरि अपने निकट आने दो , सुमधुर बातें करने दो , क्यों ह्रदय को इतना अधिक दुःखी कर रही हो ।।7।।?
श्रीजयदेव – भणितमति – ललितं।
सुखयतु रसिकजनं हरि – चरितं ।।
माधवे ………………..।।8।।ध्रुवं
श्रीजयदेव कवि द्वारा विरचित अति सुललित श्रीकृष्ण – चरित – कथा रसिक जनों का सुख – वर्द्धन करे ।।8।।
स्निग्धे यत्परुषासि यत्प्रणमति – स्तब्धासि यद्रागिणी
द्वेषस्थासि यदुन्मुखे विमुखतां यातासि तस्मिन् – प्रिये ।
तद्युक्तं विपरीतकारिणी तव श्रीखंडचर्चा विषं
शीतांशुस्तपनो हिमं हुतवहः क्रीडामुदो यातनाः ।।1।।
राधे ! श्रीकृष्ण ने विविध विनय वचनों से अनुरोध किया और तुम अत्यंत कठोर बन गयीं । वे तुम्हारे निकट प्रणत हुए और तुमने उनकी ओर से मुख फेर कर उनकी उपेक्षा की , उन्होंने कितना प्रबल अनुराग दिखाया , तुम द्वेष कर रही हो । वे तुम्हारे प्रति उन्मुख हुए और तुम उनसे विमुख बानी रहीं । हे विपरीत – आचरण कारिणी ! इस आचरण – वैपरीत्य के कारण ही तुम्हें चन्दन – विलेपन विष की भाँति , स्निग्ध सुशीतल चंद्र प्रखर दिनकरसम , सुशीतल हिमकर हुताशनवत और रतिजनित हर्ष विषम यातना सदृश अनुभूत हो रहा है ।।1।।
सान्द्रानन्द – पुरन्दरादि – दिविषदवृन्दैर मंदादरा-
दानम्र मुकुटेंद्र नीलमणिभिः संदर्शितेन्दिन्दिरं ।
स्वच्छन्दं मकरंद – सुन्दर – गलन्मन्दाकिनी – मेदुरं
श्रीगोविन्दपदारविन्दमशुभस्कंदाय वन्दामहे ।।2।।
बलिराजा का गर्व खर्व होने से महान आनंद में निमग्न देवतागण बड़े आदर के साथ जिन चरणों में प्रतिबिंबित होने से जो चरण नीलकुवलय सदृश प्रतीत हुए , मकरंद के समान मनोहारिणी मन्दाकिनी जिन चरणों से अनायास ही स्वच्छंदतापूर्वक निःसृत हुई है , समस्त अशुभों का निराकरण करने वाले श्रीकृष्ण के उन श्रीचरणकमलों की हम वंदना करते हैं ।।2।।
इति अष्टादश संदर्भः | इति अष्टादशः प्रबंधः
इति श्रीगीतगोविन्दे शृङ्गारमहाकाव्ये खण्डितावर्णने मुग्धमुकुन्दो नाम नवमः सर्गः
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दशमः सर्गः
चतुरचतुर्भुजः
उन्नीसवां प्रबंध
ऊनविंश संदर्भः
अत्रान्तरे मसृण – रोष – वशामसीम –
निःश्वासनिः सहमुखीं सुमुखीमुपेत्य।
सव्रीडमीक्षितसखीवदनां प्रदोषे
सानंद गदगदपदम् हरिरित्युवाच ।।1।।
इसी समय दिवस का अवसान होने पर मसृण रोषमयी दीर्घ निःश्वासों को सहन करने में असमर्थ मलिन मुख वाली , लज्जापूर्वक सखी के मुख को देखने वाली सुवदना श्रीराधा के समीप आकर आनंद से उत्फुल्लित हुए श्रीहरि श्रीराधा से गदगद स्वर में कहने लगे ।।1।।
गीतम 19 | अष्टपदी 19
देशवराडीरागाष्टतालीतालाभ्यां गीयते
( गीतगोविन्द काव्य का यह उन्नीसवां प्रबंध देशवराडी राग तथा अष्टताली ताल में गाया जाता है )
वदसि यदि किञ्चिदपि दन्त – रूचि – कौमुदी
हरति दर – तिमिरमति धोरं ।
स्फुरदधर – शीधवे तव वदन – चन्द्रमा
रचयतु लोचन चकोरं।।1।।
प्रिये ! चारुशीले !
मुञ्च मयि मानमनिदानं।
सपदि मदनानलो दहति मम मानसं
देहि मुखकमल – मधुपानं । ध्रुवपदं।।
हे प्रिये ! हे सुन्दर स्वभावमयी राधे ! मेरे प्रति इस प्रकार अकारण मान का परिहार करो , मदनानल मेरे ह्रदय को दग्ध कर रहा है , मुझे अपने मुखकमल का मधुपान करने दो , यदि तुम मुझसे कुछ भी बात करोगी तो तुम्हारी दशन पंक्ति की किरणों की ज्योति से मेरा भय रुपी घोर अंधकार दूर हो जायेगा , तुम्हारा मुखचन्द्र मेरे नयन – चकोर को तुम्हारी अधर – सुधा का पान करने के लिए अभिलाषी बना दे ।।1।।
सत्यमेवासि यदि सुदति मयि कोपिनी देहि खरनयनशरघातं।
घटय भुजबन्धनं जनय रदखंडनं येन वा भवति सुखजातं ।।
प्रिये ……………..।।2।।ध्रुवं
हे शोभन – दन्ते ! यदि तुम यथार्थ में ही मुझ पर कुपित हो रही हो तो मुझ पर तीक्ष्ण नख – वाणों का आघात करो , अपने भुज बंधन में मुझे बाँध लो , जिस से तुम्हे सुख मिले वही करो । मैं अपराध योग्य हूँ , दंडनीय हूँ । अपने सुख के लिए मुझ पर किसी भी दंड का विधान करो ।।2।।
त्वमसि मम भूषणं त्वमसि मम जीवनं ,
त्वमसि मम भव – जलधि – रत्नं।
भवतु भवतीह मयि सतत मनुरोधिनी ,
तत्र मम हृदयमतियत्नं ।।
प्रिये ……………..।।3।।ध्रुवं
तुम ही मेरी भूषण स्वरूप हो , तुम ही मेरा जीवन हो , तुम ही मेरे संसार – समुद्र के रत्नस्वरूप हो , अब तुम ही सतत मेरे प्रति अनुरोधिनी बनी रहो । यही मेरा एकांतिक प्रयास है ।।3।।
नीलनलिनाभमपि तन्वि तव लोचनं धारयति कोकनद – रूपं।
कुसुमशरबाणभावेन यदि रंजयसि कृष्णमिदमेतदनुरूपं ।।
प्रिये ……………..।।4।।ध्रुवं
श्रीकृष्ण कह रहे हैं – राधे ! तुम्हारी आँखें तो स्वाभाविक ही नीलकमल के समान हैं , तुम अपने नेत्रों को नए – नए अनुराग – रंग में रंजित करने में सुनिपुण हो । अपने इन गुणों को उपकरण रूप में बना कर यदि मुझे अंगीकार करती हो तो मेरा जीवन चरित्रार्थ हो जायेगा पर अधुना तुम्हारे नेत्रों ने सहजता का परित्याग कर रक्त कमल की आरक्तता धारण कर ली है । ऐसा स्पष्ट हो रहा है कि कृष्णवर्ण की वस्तुओं को रक्त वर्ण की बना देने की तुम में सामर्थ्य है । अतएव तुम यदि इन कटाक्षरुपी मदन शरों से मुझे भेद दो , तब तो मैं समझूंगा कि तुमने विद्या का समुचित प्रयोग किया है । राधे , क्रोध न कर मुझसे प्रेम करो। यही तुम्हारी स्वाभाविकता है ।।4।।
स्फुरतु कुचकुम्भयोरुपरि मणिमञ्जरी रञ्जयतु तव – हृदयदेशं।
रसतु रसनापि तव घन – जघनमण्डले घोषयतु – मन्मथनिदेशं।।
प्रिये ……………..।।5।।ध्रुवं
तुम्हारे कुच – कुम्भ के ऊपर मणिमय मञ्जरी देदीप्यमान होकर तुम्हारे ह्रदय देश को सुशोभित करें , तुम्हारे परस्पर अविरल जानु युगल के ऊपर विराजमान काञ्चि कंदर्प के आदेश का उद्घोष करें ।।5।।
स्थल – कमलगंजनं मम ह्रदय – रंजनं जनित – रति – रङ्गपर भागं।
भ्रण मसृण वाणि करवाणि चरणद्वयं सरस – लसदलक्तकरागं ।।
प्रिये ……………..।।6।।ध्रुवं
हे सुमधुरवचने ! स्थल – कमल को पराजित करने वाले , मेरे ह्रदय की शोभा बढ़ाने वाले तुम्हारे ये चरण – युगल रतिकाल में कामोद्रेक को अभिवर्धित करने वाले हैं । तुम आदेश करो , ऐसे चरणों को मैं अलक्तक रास ( महावर ) से रंजित कर दूँ ।।6।।
स्मर – गरल – खंडनं मम शिरसि मंडनं देहि पद पल्लव मुदारं ।
ज्वलति मयि दारुणो मदन – कदनानलो हरतु तदुपाहितविकारं।।
प्रिये ……………..।।7।।ध्रुवं
हे प्रिये ! अपने मनोहर चरण किसलय को मेरे मस्तक पर आभूषण स्वरूप अर्पण कराओ । जिस से मुझे जर्जरित करने वाला यह अनङ्ग रूप गरल प्रशमित हो जाय , मदन यातना रूप निदारुण जो अनल मुझे संतप्त कर रहा है , उससे वह दाहजन्य उत्पन्न विकार भी शांत हो जाये ।।7।।
इति चटुल – चाटु – पटु – चारु मुरवैरिणो राधिकामधि वचन – जातं ।
जयति पद्मावती रमण जयदेव कवि भारती भणितमतिशातं।।
प्रिये ……………..।।8।।ध्रुवं
पद्मावती के प्रिय श्रीजयदेव कवि द्वारा विरचित राधिका को सम्बोधित करके श्रीकृष्ण द्वारा उक्त चाटुयुक्त सुकुमार , मान हरण में कुशल , मोहन माधुरी पूर्ण वचन समुदाय की जय हो ।।8।।
( इस प्रकार मुरवैरी श्रीकृष्ण की यह वचनावली जो श्रीराधा को अभिलिषित करके सर्वोत्कृष्ट रूप से प्रकाशित हुई है , वे सब प्रकार से जययुक्त हों । अपनी परम प्रेयसी श्रीराधा के मान – अपमान हेतु ये वाक्य समूह अति समर्थ एवं परम सुखप्रद हैं । इस मनोहर अष्टपदी में चतुर एवं प्रिय मीठी बातों का ही संकलन है , पद्मावती अर्थात श्रीराधा – श्रीकृष्ण के ऊपर विजयिनी हों और विजयी हों । भारती से भूषित , पद्मावती – पति जयदेव , इसी अष्टपद में कवि जयदेव की स्फूर्ति को श्रीकृष्ण ने जयदेव के वेश में स्वयं लिपिबद्ध किया है । यह गीत गीतगोविन्द का उनीसवाँ प्रबंध है , इस प्रबंध का नाम चतुर्भुजरागराजितचंद्रोद्योत है ।)
परिहर कृतातंके ! शंका त्वया सततं घन
स्तनजघनया क्रान्ते स्वान्ते परानवकाशिनी ।
विशति वितनोरन्यो धन्यो न को अपि ममान्तरं
प्रणयिनी ! परीरम्भारम्भे विधेहि विधेयताम।।1।।
दूसरी नायिका के प्रति मुझे आसक्त समझकर व्यर्थ की शंकाओं का परित्याग कर दो । परस्पर अविरल उर एवं उरुयुगल शालिनी हे प्रणयिनी राधे ! मेरे मन में किसी दूसरी नायिका के लिए अवकाश ही नहीं है । मदन के अतिरिक्त दूसरे किसी के प्रवेश करने का सौभाग्य नहीं है ।।1।।
मुग्धे विधेहि मयि निर्दय – दंतदंश
दोरवल्लि – बंध – निबिडस्तन – पीडनानि।
चंडी ! त्वमेव मुदमुञ्च न पंचबाण-
चांडाल – काण्ड – दलनादसवः प्रयांतु ।।2।।
हे विमुग्धे ! यदि मैं अपराधी हूँ तो मुझे दंड देने में विलम्ब क्यों कर रही हो ? दंड दो । हे कोपमयी ! मुझको कठोर दंड देकर तुम्हीं सुखी हो । ऐसे कठोर दंड से यदि मेरे प्राण निकल जाएं तो भले निकल जाएं परन्तु मदनरूप चांडाल के बाण प्रहार से मेरे प्राण न जाएं ।।2।।
शशिमुखि ! तव भाति भंगुर भ्रू ,
र्युवजनमोह – कराल कालसर्पी।
तदुदित – भय – भञ्जनाय यूनां
त्वदधर – सीधु – सुधैव सिद्धमंत्रः।।3।।
हे शशिमुखि ! तुम्हारी कुटिल भ्रूलता युवजन विह्वलकारी कराल कालजयी सर्पिणी के समान है । इससे उत्पन्न भय को भंजन हेतु तुम्हारे अधर से विलगित मदिरा सुधा ही एकमात्र सिद्ध मन्त्र स्वरूप है ।।3।।
व्यथयति वृथा मौनं तन्वि! प्रपंचय पंचमं ,
तरुणि मधुरालापैस्तापं विनोदय दृष्टिभिः ।
सुमुखि ! विमुखी भावं तावद्विमुञ्च न मुञ्च
मां स्वयमतिशयस्निग्धो मुग्धे । प्रियो अयमुपस्थितः।।4।।
हे कृशांगि ! तुम्हारा यह व्यर्थ मौन – अवलम्बन मुझे व्यथित कर रहा है । हे तरुणि ! पंचम स्वर का विस्तार करो । मधुर आलापों तथा कृपा अवलोकन के द्वारा मेरे संताप का विमोचन करो । हे सुमुखि ! अपनी विमुखता के भाव का परित्याग करो , मेरा त्याग नहीं । हे अविचारकारिणि ! तुमसे अतिशय स्नेह करने वाला तुम्हारा प्रिय यहाँ उपस्थित है ।।4।।
बंधूकद्युति – बांधवोअयंधरः स्निग्धो मधूकच्छवि-
चकास्ति नील – नलिन श्रीमोचने लोचनं ।
र्गण्डश्चण्डि ! नासाभ्येति तिल – प्रसून – पदवीं कुंदाभदन्ति !
प्रिये !
प्रायस्त्वन्मुख – सेवया विजयते विश्वं स पुष्पायुधः ।।5।।
हे प्रिये ! चंडि ! तुम्हारा अधर बंधूक पुष्प की भांति मनोहर अरुण वर्ण के हैं , तुम्हारे शीतल कपोल मधूक पुष्प की छवि धारण किये हैं , तुम्हारे लोचन इंदीवर की शोभा को तिरस्कृत कर रहे हैं , तुम्हारी नासिका तिल के फूल के समान है , तुम्हारे दशन कुंद पुष्प की भांति शुभ्र्वर्णीय हैं । हे प्रिय ! पुष्पायुध ने अपने पांच पुष्प रुपी बाणों के द्वारा तुम्हारे मुख की सेवा करके सरे संसार को जीत लिया है ।।5।।
दृशौ तव मदालसे वदनमिन्दु – संदीपनं
गतिर्जन – मनोरमा विजितरम्भ मुरुद्वयं ।
रतिस्तव कलावती रुचिरचित्रलेखे भुवा –
वहो विबुध – यौवतं वहसि तन्वि ! पृथ्वीगता ।।6।।
हे तन्वि ! आश्चर्य है कि धरणि तल में अवस्थिता होकर भी तुम स्वर्गस्था विद्याधरियों के समान प्रतीत हो रही हो , तुम्हारे नयन सिंधु मदालसा के मद से अलस हो रहे हैं। तुम्हारा वदन विवुध – रमणी इंदु संदीपनी के समान है। तुम्हारा गमन देववनिता मनोरमा के समान मनोहर है , तुम्हारे उरूद्वय ने सुरयोषिता रम्भा को भी पराजित कर दिया है । तुम्हारा रति – कौशल स्वर्गस्था कलावती के समान विविध कौशलयुक्ता है और तुम्हारे भ्रूयुगल चित्रलेखा के समान मनोहारी एवं विचित्र हैं ।।6।।
प्रीतिं वस्तनुतां हरिः कुवलयापीडेन सार्धं रणे
राधा – पीन – पयोधर – स्मरण कृतकुम्भेन सम्भेदवान।
यत्र स्विद्यति मीलति क्षण क्षिपते द्विपे तत्क्षणात
कंसस्यालमभूत जितं जितमिति व्यामोह – कोलाहलः ।।7।।
वे भगवान श्रीहरि सम्पूर्ण जगत का आनंद वर्द्धन करें ; जिन्हें कुवलयापीड हाथी के उत्तुंग कुम्भ को देखकर श्रीराधा के पीन पयोधरों का स्मरण हो आया , जो युद्धकाल में उसके स्पर्श मात्र से अनङ्ग रसावेश के कारण स्वेदपूर्ण हो पड़ा , पुनः जिनके नयन युगल निमीलित हो गए जिसे कंसपक्षीय जीत गए , जीत गए और अंततः उसको मार देने पर कृष्ण पक्ष जीत गए , जीत गए इस प्रकार का व्यामोह युक्त आनंद सूचक महाकोलाहल युक्त हुआ था ।।7।।
इति एकोनविंशः संदर्भः | उनीसवाँ प्रबंध समाप्त
इति श्रीगीतगोविन्दे शृङ्गारमहाकाव्ये राधावर्णने मुग्धमाधवो नाम दशमः सर्गः
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एकादश सर्गः
सामोद – दमोदरः
बीसवां प्रबंध
अथ विंशः संदर्भः
सुचिर मनुनयेन प्रीणयित्वा मृगाक्षीं
गतवति कृतवेशे केशवे कुञ्जशय्यां ।
रचित – रुचिर – भूषां दृष्टि मोषे प्रदोषे
स्फुरति निरवसादां कापि राधाम जगाद ।।1।।
मृगनयना श्रीराधा को चिरकाल तक अनुनय विनय से प्रसन्न करके श्रीकृष्ण चले आये और मोहनवेश धारणकर निकुंज मंदिर स्थित शय्या पर अवस्थित हो उनकी प्रतीक्षा लगे , इधर दृष्टि – आच्छादन कारिणी संध्या उपस्थित हुई तब विविध मनोहर अलंकार विभूषिता श्रीराधा से कोई सखी इस प्रकार कहने लगी ।।1।।
गीतम 20 | अष्टपदी 20
वसंतरागयतितालाभ्यां गीयते
( श्रीगीतगोविन्द काव्य का यह बीसवां प्रबंध वसंत राग तथा यति ताल में गाया जाता है )
विरचित – चाटु – वचन – रचनं चरणे रचित – प्रणिपातं।
सम्प्रति मञ्जुल – वञ्जुल – सीमनि केलि – शयनमनुयातं।।
मुग्धे ! मधु – मथनमनुगतमनुसर राधिके ! ।।1।। ध्रुवं
हे मुग्धे राधिके ! विविध प्रकार के चाटु वाक्यों के अनुनय विनय द्वारा तुम्हारे चरणों में विनत होने वाले श्रीकृष्ण इस समय मनोहर वेतस वन के लता कुञ्ज में केलि शय्या पर शयन कर रहे हैं , तुम उनके अनुगत होकर उनका अभिसरण करो ।।1।।
घन – जघन- स्तन – भार भरे ! दरमंथरचरणविहारं।
मुखरित – मणिमञ्जीरमुपैहि विधेहि मरालनिकारं।।
मुग्धे ……………..।।2।। ध्रुवं
हे परस्पर गुरु – गुरुतर उरस्थल और जानु युगल शालिनि राधे ! तुम ईषत मंद – मंथर गति से चरणों को विन्यस्त करते हुए मणिरचित नूपुरों से मनोहर शब्द करते हुए मराल – गमन की शोभा को भी पराजित करते हुए श्रीकृष्ण के समीप चलो ।।2।।
श्रणुरमणीयतरं तरुणीजनमोहन – मधु – रिपु – वरावं।
कुसुम – शरासन – शासन – वंदिनी पिकनिकरे भज भावं ।।
मुग्धे ……………..।।3।। ध्रुवं
तुम तरुणियों के मन – मोहक भ्रमरों ( श्रीकृष्ण ) के रमणीयतर सुमधुर वचनों का श्रवण करो । कंदर्प के सुमधुर आदेश का प्रचार करने वाले कोकिल समूह के गान में निज भावों को प्राप्त करो ।।3।।
अनिल – तरल – किसलय – निकरेण करेण लता निकुरम्बं।
प्रेरणमिव करभोरु ! करोति गतिम् प्रति मुञ्च विलम्बं।।
मुग्धे ……………..।।4।। ध्रुवं
हे करिशुण्ड सम रमणीय उरु युगल शालिनि ! पवन वेग से चञ्चल लता – समुदाय नए – नए पल्लवों द्वारा मानो तुम्हें संकेत करते हुए प्रेरित कर रहा है । अतः हे करभोरु ! अब जाने में विलम्ब मत करो ।।4।।
स्फुरित – मनंग – तरंग – वशादिव सुचित हरि – परिरम्भं।
पृच्छ मनोहर – हार – विमल – जलधारममुं कुचकुम्भं।।
मुग्धे ……………..।।5।। ध्रुवं
मनोहर हाररूपी विमल जलधाराओं से परिशोभित अनङ्ग – तरङ्ग के वशीभूत श्रीहरि के परिरम्भण के सूचक अपने इन प्रस्फुरित उरस्थल से ही पूछ कर देखो ।।5।।
अधिगतमरिवल – सखीभिरिदं तव वपुरपि रति – रण – सज्जम।
चण्डी ! रणित – रसना – रव – डिण्डिममभिसर सरस मलज्जम।।
मुग्धे ……………..।।6।। ध्रुवं
हे रतिरणनिपुणे ! हे चण्डी ! तुम्हारा यह शरीर रति – रण हेतु सुसज्जित हो रहा है । यह विलक्षणता तुम्हारी सखियों ने जान ली है । अतः लज्जा का परित्याग कर मणिमय मेखला के मनोहर सिंजन से डिण्डिम ध्वनि करती हुयी परमोत्साह के साथ अभिसरण हेतु गमन करो ।।6।।
स्मर – शर – सुभग – नखेन सखीमवलम्ब्य करेण सलीलं ।
चल वलय क्वणितैरवबोधय हरिमपि निजगतिशीलं।।
मुग्धे ……………..।।7।। ध्रुवं
तुम्हारे करकमल के रमणीय पञ्चनख रति – रणोपयोगी मदन के पंचबाण स्वरूप हैं , इनसे अपनी सखी का आश्रय करके तुम लीलापूर्वक चलो । प्रख्यात शीलमय श्रीहरि को भी अपने वलय की क्वणित ध्वनि से अवबोध करा दो ।।7।।
श्रीजयदेव – भणितमधरीकृत – हारमुदासितरामं।
हरि – विनिहित – मनसामधितिष्ठतु कंठतटीमविरामं।।
मुग्धे ……………..।।8।। ध्रुवं
श्रीजयदेव कथित यह गीत भूषण स्वरूप मनोहर हार तथा मनमोहिनी वरांगना को तिरस्कृत करने वाला है जिनका मन श्रीकृष्ण के प्रति समर्पित हो गया है , ऐसे भक्तों के कंठ में यह गीत अविरल रूप से विराजित हो ।।8।।
सा मां द्रक्ष्यति वक्ष्यति स्मरकथां प्रत्यङ्ग मालिंगनैः ।
प्रीतिं यास्यति रंस्यते सखि समागत्येति सञ्चिन्त्यं।।
स त्वां पश्यति वेपते पुलक यत्यानन्दति स्विद्यति।
प्रत्युद्गच्छति मूर्च्छति स्थिर तमः पुन्जे निकुंजेप्रियः ।।1।।
हे सखि ! तुम्हारे प्रियतम श्रीकृष्ण निकुंज में निविड़ अंधकार से आवृत्त हो चिंतातुर हो रहे हैं कि श्रीराधा कब आकर मुझे प्रीतिपूर्ण नेत्रों से देखेगी । मदन अभिलाषा सूचक रसपूर्ण बातें कहेगी । अंग – प्रत्यङ्ग का आलिंगन कर प्रसन्न होगी , रमण करेगी । इस प्रकार आपको प्रत्यक्ष कि भाँति देख रहे हैं , आवेश में कम्पित हो रहे हैं , विपुल पुलक और असीम आनंद से उत्फुल्ल हो रहे हैं । स्वेद से परिप्लुत हो रहे हैं , तुम्हें आया जान उठकर खड़े हो रहे हैं और प्रबल आनन्दावेश से मूर्छित हो रहे हैं ।।1।।
अक्ष्णोर्निक्षिपदंजनं श्रवणयोस्तापिच्छ गुच्छावलीं।
मूर्द्धिन श्यामसरोजदामकुचयोः कस्तूरिका – पत्रकं।।
धूर्त्तानामभिसार – सत्वर – हृदां विष्वङ्गनिकुञ्जे सखि ।
ध्वान्तं नील – निचोल – चारु सुदृशां प्रत्यङ्ग मालिङ्गति।।2।।
हे सखि ! देखो , निकुंज में चारों ओर घिरा हुआ अंधकार अभिसार में चंचलमना सुनयना कामिनियों का अञ्जन है , कानों में तमाल की गुच्छावली है , मस्तक पर विराजित श्याम – कमल की माला है , उर प्रदेश में विरचित कस्तूरि का चित्र बना है । रमणीयतर रूप से आवृत्त यह अंधकार नीले वसन से भी मनोहरतर आवरण रूप में धूर्तों के साथ अभिसार के उत्साह से युक्त रमणियों के प्रत्येक अंग – प्रत्यङ्ग को कैसे आलिंगित कर रहा है ?।।2।।
काश्मीर – गौर – वपुषा मभिसारिकाणा –
माबद्ध – रेखमभितो रूचि मंजरीभिः ।
एतत्तमालदल – नील – तमं तमिस्रं
तत्प्रेम – हेम – निकषोंपलतां तनोति ।।3।।
निकुंज में सर्वत्र प्रसरित तमाल वृक्ष के पत्र सदृश नीलतम , यह निविड़ अंधकार कुंकुम की भांति सुवर्ण – वर्णा गौर देहमयी अभिसारिका नायिकाओं के रमणीय आलोकरूपी मञ्जरी के रूप में इस प्रकार प्रतीयमान हो रहा है , मानो श्रीकृष्ण के प्रेम रूप स्वर्ण की निकष ( पाषाण ) हो ।।3।।
हारावली – तरल – काञ्चन – काञ्चि – दाम
मञ्जीर – कंकण – मणि – द्युति – दीपितस्य ।
द्वारे निकुञ्ज – निलयस्य हरिं विलोक्य
व्रीडावतीमथ सखीमियमित्युवाच ।।4।।
हारों के मध्य में विराजित धुकधुकी ( मणि ) से सुवर्णमयी काञ्ची ( करधनी ) से कुण्डलों तथा कंकणों में संलग्ना मणियों की कांति से निकुञ्ज वन समुद्भासित हो गया , वहाँ केलिगृह द्वार पर विद्यमान श्रीहरि को देखकर श्रीराधा लज्जावती हो गयीं , तभी सखी श्रीराधा से कहने लगी ।।4।।
इति श्री गीत गोविन्दे विंशः प्रबंधः
श्रीहरितालराजिजलधरविलसित नाम का यह बीसवाँ प्रबंध पूरा हुआ ।
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इकीसवाँ प्रबंध
इकीसवाँ सन्दर्भ |
गीतम 21 | अष्टपदी 21
वराडीरागरूपकतालाभ्यां गीयते
मञ्जुतर – कुञ्जतल – केलिसदने।
विलस रतिरभसहसितवदने ! ।।1।।
प्रविश राधे ! माधवसमीपमिह । ध्रुवं पदम् ।
हे राधे ! तुम्हारा वदन रतिजन्य उत्साह से अतिशय रस के साथ उत्फुल्लित हो रहा है , तुम इस मनोहर निकुञ्ज के केलिगृह में प्रवेश करो और माधव के समीप जाकर उनके साथ रमण करो ।।1।।
नव – भवदशोक- दल – शयन – सारे
विलस कुचकलशतरल हारे !
प्रविश…………….।।2।।ध्रुवं
प्रिय समागम सूचक कंपनमय उरस्थल में विराजित चंचल हार वाली राधे ! नूतनोद्धव अशोक – पत्रों में विरचित शय्या पर तुम प्रवेश करो और माधव के समीप जाकर उनके साथ रमण करो ।।2।।
कुसुमचय – रचित – शुचि – वासगेहे ।
विलस कुसुम – सुकुमार – देहे ।।
प्रविश…………….।।3।।ध्रुवं
कुसुम से भी मनोहर सुकुमार देह श्रीराधे ! कुसुम समूह से सुसज्जित पवित्र केलि – वास – भवन में तुम प्रवेश करो और माधव के समीप जाकर उनके साथ रमण करो ।।3।।
मृदुचल – मलय – पवन – सुरभि – शीते।
विलस मदन – शर – निकर – भीते ।।
प्रविश…………….।।4।।ध्रुवं
मदन के बाण समूह से भयभीत राधे ! तुम रति रस संबन्धीय सुललित गीत गा रही हो , तुम कोमल तथा चंचल मलय – पवन से प्रवाहित सुरभित तथा सुशीतल लता – केलि – गृह में प्रवेश करो और माधव के समीप जाकर उनके साथ रमण करो ।।4।।
वितत – बहु – वल्लि – नव – पल्लव – घने
विलस चिरमलस – पीनजघने !
प्रविश…………….।।5।।ध्रुवं
पीन जघन गुरु भार से सुमंद अलस गति का संपादन करने वाली श्रीराधे ! सुविस्तृत लताओं के नवीन पल्लवों के द्वारा निविड़तर रूप से आच्छादित इस लता – केलि निभृत निकुञ्ज में प्रवेश करो और माधव के समीप जाकर उनके साथ विलास करो ।।5।।
मधु – मुदित – मधुपकुल – कलित – रावे ।
विलस मदन – रस – सरस – भावे ।।
प्रविश…………….।।6।।ध्रुवं
मदन – रस से सरस अनुरागमयी राधे ! मधुपान में प्रमत्त भ्रमरों के कलनाद से निनादित निकुञ्ज गृह में प्रवेश करो और माधव के समीप जाकर उनके साथ रमण करो ।।6।।
मधुरतर – पिक – निकर – निनद – मुखरे।
विलस दशन – रूचि – रुचिर – शिखरे।।
प्रविश…………….।।7।।ध्रुवं
सुपक्व दाड़िम ( अनार ) के बीज एवं शिखर नामक मुक्ताओं के समान दशन पंक्तिमयी राधे ! कोकिलनिकर के मधुरतर कूजन – कलाप से मुखरित लता – वास गृह में तुम प्रवेश करो और माधव के समीप जाकर रमण करो ।।7।।
विहित – पद्मावती – सुख – समाजे।
कुरु मुरारे ! मङ्गलशतानि।
भणति जयदेव – कविराज – राजे ।।
प्रविश…………….।।8।।ध्रुवं
कविकुलाधिराज कवि जयदेव द्वारा श्रीराधा के विविध आनंद प्रसादन के लिए इस स्तुतिपरक गीति की रचना की गयी है । हे कृष्ण ! आप इसका श्रवण कर प्रसन्न होवें और इस जगत का अनन्तान्त मङ्गल विधान करें ।।8।।
( कवि जयदेव इस अष्टपदी को श्रीहरि चरणों में समर्पित करते हुए कहते हैं – हे मुरारे ! जयदेव कविराज के इस गीत को श्रवण कर आप सबका हजारों प्रकार से मङ्गल विधान करें । लक्ष्मी जी का एक नाम पद्मावती है , जयदेव की पत्नी का नाम भी पद्मावती है । पद्मावती के आराधक हैं जयदेव जो कविराजों में सर्वश्रेष्ठ हैं । अतः कविराजवर श्रीहरि से प्रार्थना करते हैं – हे मुरारे ! मैंने प्रसाद के अंतर में पद्मावती की प्रतिष्ठा की है , आपकी प्रसन्नता के लिए यह कविता की है , आप प्रसन्न होवें और हमारा शतशः मङ्गल करें । अथवा श्रीजयदेव स्वयं श्रीराधा से अनुरोध कर रहे हैं – जो लक्ष्मी की सारी सम्पदा , सारा सुख लेकर आज उपस्थित हैं , आप उन मुरारी के लिए सौ – सौ प्रकार के मङ्गल विधान करें । उनका मङ्गल तुम्हारे साथ रमण ही है । )
त्वां चित्तेन चिरं वहन्नयमतिश्रान्तो भृशं तापितः
कंदर्पेण च पातुमिच्छति सुधा – सम्बाध – विम्बाधरं।
अस्याकं तदलंकुरु क्षणमिह भ्रूक्षेप – लक्ष्मीलव-
क्रीते दास इवोपसेवित – पदाम्भोजे कुतः सम्भ्रमः ।।1।।
हे सुंदरि ! तुम्हारे सामने अवस्थित अनंगताप से संतप्त श्रीकृष्ण दीर्घ काल से तुमको मन ही मन धारण किये हुए अतिशय क्लांत हो गए हैं , वे तुम्हारे बिंबसम अधर की मधुर सुधा का पान करने के लिए लोलुप हो रहे हैं , तुम अभिलाषी प्रिय के अंक को अलंकृत करो । वे तुम्हारे कटाक्ष रूप विपुल वैभव के कणमात्र के क्षण भर पान करने के लिए चिर कृतज्ञ हो रहे हैं , उस कटाक्ष – विक्षेपरूपी मूल्य के द्वारा क्रीत दास की भांति तुम्हारे पदारविन्द के सेवक हो गए हैं , फिर सम्भ्रम क्यों ? कैसी घबराहट ।।1।।?
सा ससाध्वस – सानन्दं गोविन्दे लोललोचना ।
सिञ्जान – मञ्जु – मंजीरं प्रतिवेश निवेशनं।।2।।
श्रीराधा स्पृहायुक्त ह्रदय से अपने चञ्चल नेत्रों से श्रीगोविन्द का अवलोकन करती हुयी लज्जा और हर्ष से मणिमय नूपुरों से मनोहर शब्द करती हुयी निकुञ्ज गृह में प्रवेश करने लगीं ।।2।।
इति एकविंशः संदर्भः | इकीसवाँ प्रबंध समाप्त
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बाईसवाँ प्रबंध
बाईसवां सन्दर्भ
सानंद गोविंदराग श्रेणी कुसुमाभरण
गीतम 22 | अष्टपदी 22
वराड़ीरागयतितालाभ्यां गीयते
राधा – वदन – विलोकन – विकसित – विविध – विकार – विभङ्गम।
जलनिधिमिव विधु – मण्डल – दर्शन – तरलित – तुङ्ग – तरङ्गम।।1।।
हरिमेकरसं चिरंभिलषित – विलासं।
सा ददर्श गुरुहर्ष – वशंवद वदनमनंग – निवासं।। ध्रुवपदं।।
एकरस अर्थात राधाविषयक अनुराग से युक्त तथा चिरकाल से श्रीराधा के साथ विलास की अभिलाषा रखने वाले श्रीराधा – वदन अवलोकन जन्य हर्ष से प्रफुल्लित , श्रीकृष्ण रोमांच आदि विविध सात्विक मदन – विकार रूप भावों से युक्त हो रहे हैं । जिस प्रकार शशधर – मण्डल के दर्शन से समुद्र में उत्ताल – तरङ्ग समुदाय तरंगायित हो उठता है , उसी प्रकार काम – रस के समुद्र स्वरूप , भाव भंगिमा द्वारा मदन आसक्ति प्रकाशित करने वाले श्रीकृष्ण को श्रीराधा ने निकुञ्ज गृह में देखा ।।1।।
हारममलतर – तारमुरसि दधतं परिलम्ब्य विदूरं।
स्फुटतर फेन – कदम्ब – करंबित मिव यमुनाजल – पूरं।।
हरि …………………।।2।।ध्रुवं
श्रीहरि ने निज विमल उर स्थल पर निर्मल मुक्ताओं से रचित मनोहर हार का परिधान कर रखा है , जो उनके ह्रदय का बार – बार आलिङ्गन कर रहा है । ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो यमुना नदी का जल स्फुट रूप में विराजमान फेन समूह को धारण कर रहा है ।।2।।
श्यामल – मृदुल – कलेवर – मण्डलमधिगत – गौरदुकूलं ।
नील – नलिनमिव पीत – पराग – पटल – भर – वलयित – मूलं ।।
हरि …………………।।3।।ध्रुवं
श्रीहरि ने अपने श्यामल मृदुल कलेवर पर पीत वसन धारण किया है , ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो नीलपद्म सुवर्ण पर्ण के पराग – निलय से साङ्गोपाङ्ग सराबोर हो गया हो ।।3।।
तरल – दृगञ्चल – चलन – मनोहर – वदन – जनित – रति – रागं।
स्फुट – कमलोदर – खेलित – खञ्जन – युगमिव शरदि तडागम ।।
हरि …………………।।4।।ध्रुवं
जिन श्रीकृष्ण का मनोहर वदन शरद काल के निर्मल सरोवर में विकसित नील कमल की शोभा के समान है उस मुख पर चंचल नयनों की अपाङ्ग भंगिमा श्रीराधा के प्रति इस प्रकार मदन – अनुराग उद्दीप्त करा रही है , मानो कमल पर खञ्जन पक्षी क्रीड़ापरायण हो रहे हों ।।4।।
वदन – कमल – परिशीलन – मिलित – मिहिर – सम- कुण्डल – शोभं।
स्मित – रूचि – कुसुम – सुमुल्लसिताधर – पल्लव – कृत – रति – लोभं।।
हरि …………………।।5।।ध्रुवं
श्रीकृष्ण के वदन कमल की शोभा का परिशीलन करने के लिए अरुण वर्ण के सदृश लोहित वर्णीय मणिमय कुण्डल द्वय अति सुन्दर रूप से शोभा पा रहे हैं एवं रुचिर मंद – मंद हास्य प्रभा की कान्ति से युक्त होकर उल्लसित , स्फूर्तियुक्त अधर पल्लव श्रीराधा की रति लालसा को समुद्भूत करा रहे हैं ।।5।।
शशि – किरण – च्छुरितोदर – जलधर – सुन्दर – सुकुसुम – केशं ।
तिमिरोदित – विधुमंडल – निर्मलमलयज – तिलकनिवेशं।।
हरि …………………।।6।।ध्रुवं
कुसुमों से अलंकृत श्रीकृष्ण का केश – पाश चंद्र किरणों से अनुरञ्जित हो कर नवजलधर माला के समान प्रतीत हो रहा है , ललाट पर धारण किया चन्दन तिलक इस प्रकार शोभा पा रहा है , मानो निर्मल आकाश में अंधकार के मध्य पूर्ण विधुमंडल उदित हुआ हो ।।6।।
विपुल – पुलक – भर – दन्तुरितं रति – केलि – कलाभिरधीरं।
मणिगण – किरण – समूह – समुज्ज्वल – भूषण – सुभग – शरीरं।।
हरि …………………।।7।।ध्रुवं
श्रीराधा अवलोकन से श्रीकृष्ण का शरीर विपुल पुलकों से रोमान्चित हो रहा है , रति – केलि – विषयक विविध कथा मन में समुदित होने से वे अति धीर हो रहे हैं , श्रीविग्रह मणियों की किरणों से समुज्ज्वलित होकर अतीव मनोहर द्युति को धारण कर रहा है ।।7।।
श्रीजयदेवकवि – भणित – विभव – द्विगुणीकृत – भूषणभारं।
प्रणमत हृदि विनिधाय हरिं सुचिरं सुकृतोदय – सारं।।
हरि …………………।।8।।ध्रुवं
श्रीजयदेव कवि द्वारा विरचित विविध अलंकृत वाक्यरूप अलंकार से जिनके परिहित भूषण राशि की शोभा द्विगुणित हो गयी है , हे रसिक भक्तों ! कृत – पुण्यों के फलस्वरूप उन श्रीकृष्ण को ह्रदय में यत्न के साथ धारण कर आप उन्हें प्रणाम करें ।।8।।
( चिरकाल से संचित पुण्योदय के तत्वरूप श्रीकृष्ण को चित्त में धारण कर उन्हें प्रणाम कीजिये । बड़े पुण्यों से ऐसे श्रीकृष्ण मन में उदित होते हैं , वे श्रीराधा के संग से जुड़कर द्विगुणित भूषण के भार से श्रीराधा से जुड़कर द्विगुणित हो जाते हैं । ऐसे श्रीकृष्ण जिन्हें श्रीराधा निरंतर देख रही हैं , नित्यकाल के लिए ह्रदय में विराजमान हो जाएं । )
अति क्रम्यापांगं श्रवणपथपर्यन्तगमन-
प्रयासेनेवाक्ष्णोस्तरलतरतारं पतितयोः ।
तदानीं राधायाः प्रियतम – समालोकसमये
पपात स्वेदाम्बुप्रकर इव हर्षाश्रुनिकरः।।1।।
प्राणेश्वर के मिलान – क्षणों में श्रीराधा के अतृप्त नयन – युगल ने अपाङ्ग को अतिक्रमण कर श्रवण पथ पहुँचने का प्रयास किया । इस प्रयास में चंचल बने नेत्रों से पसीने के प्रसार के रूप में हर्ष ही अश्रु धारा बनकर प्रवाहित होने लगा ।।1।।
भजन्त्यस्तल्पान्तं कृत – कपट – कण्डूति – पिहित –
स्मितं याते गेहाद बहिरबहिताली – परिजने।
प्रियास्यं पश्यंत्याः स्मरशर – समाहूत – सुभगं
सलज्जा लज्जापि व्यगमदिव दूरं मृगदृशः ।।2।।
श्रीराधा की सुखभिलाषिणि सहचरियाँ कुरङ्ग नयना राधिका को केशव की शय्या पर उपवेशन करते देख सावधानी से कपट – कण्डूयन का बहाना करती हुयी हास्य संवरण पूर्वक निकुंज गृह से बाहर चली गयीं , तब स्मर परवशा श्रीराधा अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के मुखमण्डल का मनोहर कटाक्ष निक्षेप के द्वारा अवलोकन करने लगीं और उनकी लज्जा भी सलज्जभाव से वहां से दूर चली गयी ।।2।।
सानन्दं नन्दसूनुर्दिशतु मितपरं सम्पदं मन्दमन्दं
राधामाधाय बाह्वोर्विवरमनु दृढं पीडयन्प्रीति योगात ।
तुंगौ तस्या उरोजावतनु वर्तनोर्निगतौ मा सम भूतां
पृष्ठं निर्भिद्य तस्माद् बहिरिति वलित ग्रीव मालोक्यन्वः।।3।।
नन्द पुत्र श्रीकृष्ण ने श्रीराधा को मंद – मंद अपनी बाहों के अंतराल में रखा , प्रीतिपूर्वक उनका गाढ़ आलिंगन किया । पुनः ग्रीवा को घुमा कर ऐसे देखने लगे मानो श्रीराधा के उन्नत उर प्रदेश उनकी पीठ को भेदकर बाहर न निकल जाएं – ऐसे श्रीकृष्ण सभी का आनंद विधान करें ।।3।।
जयश्री – विन्यस्तैर्महित इव मंदार कुसुमैः
स्वयं सिंदूरेण द्विप – रण – मुदा मुद्रित इव ।
भुजापीड़ – क्रीड़ाहत – कुवलयापीड – करिणः
प्रकीर्णा सृग्बिन्दुर्जयति भुजदण्डो मुरजितः।।4।।
बाहु – युद्ध में कुवलयापीड नामक हस्ती को मार देने से रुधिर बिंदुओं से सुशोभित , हाथी के साथ युद्ध के उल्लास में सिन्दूर से चिह्नित , विजय – श्री द्वारा मन्दार पुष्पों से विभूषित मुरजित कृष्ण का विशाल भुज दंड जय जयकार को प्राप्त हो ।।4।।
सौन्दर्यैकनिधेरनंग – ललना – लावण्य – लीलाजुषो
राधाया हृदि पल्वले मनसिज क्रीड़ैकरंगस्थले
रम्योरोजसरोजखेलनरसित्वादात्मनः ख्यापय –
न्ध्यातुर्मानसराजहंसनिभतां देयान्मुकुंदो मुदं।।5।।
सौंदर्य की निधि , अनङ्ग ललना रति के सदृश लावण्यमयी श्रीराधा के ह्रदय सरोवर के मनोहर रङ्ग- स्थल उर – कमल पर क्रीड़ा परायण हुए एकाग्रचित्त , अपना ध्यान करने वालों के मानस राजहंस तत्व को ख्यापित करने वाले श्री मुकुंद आपको अपना आनंद प्रदान करें ।।5।।
बाईसवां सन्दर्भ समाप्त | बाईसवां प्रबंध समाप्त
श्रीगीतगोविंद के काव्य के इस बाइसवें प्रबंध का नाम ‘ सानंद गोविंदराग श्रेणी कुसुमाभरण’ है।
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द्वादशः सर्गः
( सुप्रीत – पीताम्बरः )
तेइसवां प्रबंध
त्रयोविंश सन्दर्भ
गतवति सखीवृन्देअमंदत्रपाभर – निर्भर –
स्मरशरशाकूतस्फीतस्मितस्नपिताधरां
सरसमनसं दृष्ट्वा राधा मुहुर्नवपल्लव –
प्रसवशयने निक्षिप्ताक्षीमुवाच हरिः प्रियां।।1।।
सखीवृन्द के लता – कुञ्ज से बाहर चले जाने पर अत्यधिक लज्जा से परिपूर्ण श्रीराधा कामदेव के वशीभूत हो गयीं । उनके अधरोष्ठ स्मित से सुशोभित हो गए , रतिक्रीड़ा के लिए अनुरागवती हो नव – पल्लवों एवं कुसुमों से रचित शय्या को पुनः – पुनः अवलोकन करने लगीं । अपनी प्रिया को ऐसा करते देख कर श्रीकृष्ण ने कहा ।।1।।
गीतम 23| अष्टपदी 23
विभासरागैकतालीतालाभ्यां गीयते ।। प्रबंधः ।।23
( गीतगोविन्द काव्य के इस 23वें प्रबंध को विलास राग तथा एक ताली ताल से गाया जाता है )
किसलय – शयन – तले कुरु कामिनि ! चरण – नलिन – विनिवेशं।
तव – पद – पल्लव – वैरि पराभवमिदमनुभवतु सुवेशं ।।1।।
क्षणमधुना नारायणमनुगतमनुसर राधिके ! ध्रुवपदं
हे कामिनि ! किसलयों से बनी शय्या पर अपने चरण – नलिन को न्यस्त करो । तुम्हारे पद – पल्लवों की वैरिणी यह शय्या अब पराभव का अनुभव करे । हे राधिके ! मुहूर्त – मात्र के लिए आप मुझ नारायण का अनुसरण करें ।।1।।
कर – कमलेन करोमि चरण – महमाग मितासि विदूरं।
क्षणमुपकुरु शयनोपरि मामिव नूपुरमनुगतिशूरं।।
क्षणमधुना ………………….।।2।।ध्रुवं
हे प्रिये ! आप बहुत दूर से चलकर आयी हैं । मैं अपने कर – कमलों से आपके चरणारविन्दों का संवाहन करता हूँ । अपने नूपुर का अनुसरण करने वाले मुझ शूर पर भी तुम इस शय्या के ऊपर क्षण भर उपकार करो ।।2।।
वदन – सुधानिधि – गलितंमृतमिव रचय वचन मनुकूलं।
विरहमिवापनयामि पयोधर – रोधकमुरसि दुकूलं।।
क्षणमधुना ………………….।।3।।ध्रुवं
हे राधे ! अपने मुख सुधानिधि से अमृततुल्य अनुकूल वचन कहिये । ।।3।।
प्रिय – परिरम्भण – रभस – वलितमिव पुलकितमति दुरवापं।
मदुरसि कुचकलशं विनिवेशय शोषय मनसिज – तापं।।
क्षणमधुना ………………….।।4।।ध्रुवं
हे प्रिये ! प्रियतम के परिरम्भण के लिए सन्नद्ध तथा हर्ष – रोमांच से पुलकित , दुष्प्राप्य इन उर युगलों को मेरे वक्षः स्थल पर रखकर मेरे मनसिज ताप को दूर कीजिये ।।4।।
अधर – सुधारसमुपनय भामिनि ! जीवय मृतमिव दासं।
त्वयि विनिहित – मनसं विरहानलदग्धपुषमविलासं।।
क्षणमधुना ………………….।।5।।ध्रुवं
हे भामिनि ! तुममें ही निविष्ट मन वाले , विरहानल से दग्ध , विलासरहित , मृतवत मुझ दास को अपनी अधर – सुधा – रस का पान कराकर जीवित करो ।।5।।
शशिमुखि ! मुखरय मणिरशनागुणमनुगुणकंठनिनादं।
श्रुति – युगले पिकरुतविकले पुर शमय चिरादवसादं।।
क्षणमधुना ………………….।।6।।ध्रुवं
हे विधुमुखी ! अपनी करधनी की मणियों को मुखरित करो , उसी के समान अपना कंठ निनाद करो , इस प्रकार की कोकिल ध्वनि से चिरकाल से अवसादित मेरे श्रुतियुगल को शमित करो ।।6।।
मामतिविफलरुषा विकलीकृतमवलोकितुमधुनेदं ।
मिलतिलज्जितमिव नयनं तव विरमविसृजसि रतिखेदं ।।
क्षणमधुना ………………….।।7।।ध्रुवं
हे मानमयी ! तुम अकारण ही मेरे प्रति अभिमान कर व्याकुल हो रही हो , देखो तुम्हारे लोचन द्वय मेरी ओर देखकर अर्द्धनिमीलित हो रहे हैं । अब तुम मेरे प्रति वान्या भाव का परित्याग करो ।।7।।
श्रीजयदेव – भणितमिदंनुपद – निगदितमधुरिपु – मोदं ।
जनयतु रसिकजनेषु मनोरम रतिरस भाव – विनोदं।।
क्षणमधुना ………………….।।8।।ध्रुवं
पद – पद पर मधुरिपु श्रीकृष्ण के आनंद विनोद का वर्णन करने वाले जयदेव कवि द्वारा रचित यह गीत रसिक जनों में मनोरम – रति – रस – भाव विनोद को उत्पन्न करे ।।8।।
प्रत्यूहः पुलकांकुरेण निविडाश्लेषे निमेषेण च
क्रीडाकूत – विलोकितेअधर – सुधापाने कथा – नर्मभिः ।
आनन्दाधिगमेन मन्मथ – कला – युद्धेअपि यस्मिन्नभू-
दुद्भुतः स तयोर्बभूव सुरतारम्भः प्रियं भावुकः।।1।।
तदन्तर उन दोनों का चिराकांक्षित अद्भुत , परम प्रिय सूरत – संग्राम आरम्भ हुआ । उस समय प्रगाढ़ आलिङ्गन में पुलकायमान होना यथार्थ प्रतीत हुआ , क्रीड़ा के अभिप्राय से देखने के समय निमेषपात भी विघ्नीभूत लगता था , अधर – सुधा पान करते हुए केलि – कथाएं भी कष्टदायिका अनुभूत हुईं , काम कला युद्ध में आनंद का अधिगम भी विघ्न सा ही प्रतीत हुआ ।।1।।
दोर्भ्यां संयमितः पयोधर – भरेणापीड़ितः पाणिजै
राविद्धो दशनैः क्षताधरपुटः श्रोणीतटेनाहतः।
हस्तेनानमितः कचेअधरसुधापानेन सम्मोहितः
कान्तः कामपि तृप्तिमाप तदहो कामस्य वामा गतिः ।।2।।
राधिका की बाहों से बंधे , उर प्रदेश के भार से दबे , पाणिज से बिद्ध किये गए , क्षत किये गए अधर वाले , कटि – तट से आहत , हाथों से केश पकड़ कर नमित किये गए , अधर – मधु – धारा से सम्मोहित प्रिय कांत श्रीकृष्ण किसी लोकोत्तर आनंद को प्राप्त हुए । इस प्रकार कामदेव की गति को अति कुटिल कहा गया है ।।2।।
मारांके रति – केलि – संकुल – रणारम्भे तया साहस –
प्रायं कान्तजयाय किञ्चिदुपरि प्रारम्भि यत्सम्भ्रमात ।
निष्पंदा जघनस्थली शिथिलता दोर्वल्लि रुत्कम्पितं
वक्षो मीलितमक्षि पौरुषरसः स्रीणां कुतः सिध्यति ।।3।।
सुरत – क्रीड़ा रुपी संग्राम के प्रारम्भ होने पर श्रीराधा ने काम – स्मर अभिनिवेश के कारण साहस से भर कर अपने कान्त पर विजय प्राप्त करने के लिए कुछ समय तक श्रीकृष्ण के वक्षस्थल पर सम्भ्रमपूर्वक जो रति आरम्भ की , उससे उनकी बाहें शिथिल हो गयीं , उर स्थल जोर – जोर से कांपने लगा , आँखें बंद हो गयीं – भला स्त्रियों का पौरुष – रस – अभिलाष कैसे सफल हो सकता है ? ।।3।।
तस्याः पाटल – पाणिजांकितमुरो निद्राकषाये दृशौ
निर्धोतोधर – शोणिमा विलुलिताः स्रस्तस्रजो मूर्धजाः ।
काञ्चीदाम दरश्लथाञ्चलमिति प्रातर्निखातै दृशौ –
रेभिः कामशरैस्तदद्भुतम भूत्पत्युर्मनः कीलितं।।4।।
श्रीराधा का उर – स्थल पाटल वर्ण का हो रहा था , निद्रा के आभाव से उसकी दृष्टि लाल – लाल हो रही थी , अधरों की लालिमा नष्ट हो गयी थी , केशों में ग्रथित पुष्पमाला कुम्हला गयी थी – इस प्रकार पांच बाण जो प्रातः काल श्रीकृष्ण के नेत्रों में थे , उनको श्रीराधा में देखकर श्रीकृष्ण का मन पुनः कामदेव के बाणों से कीलित हो गया ।।4।।
व्यालोलः केशपाशस्तरलितमलकैः स्वेदलोलौ कपोलौ
क्लिष्टा दृष्टाधरश्रीः कुचकलशरुचा हारिता हारयष्टिः ।
काञ्चीकाञ्चिदगताशां स्तनजघनपदम् पाणिनाच्छाद्यासद्यः
पश्यन्ति सत्रपा मां तदपि विलुलित स्रग्धरेयन्धिनोति।।5।।
जिनका केशपाश बिखर गया था , अलकावलि चंचल हो गयी थी , कपोलयुगल स्वेद से आर्द्र हो गये थे , अधर श्री की शोभा निरस्त हो गयी थी , उर युगल की शोभा से मुक्ता – हारावली पराजित हो गयी थी , करधनी की कांति हताश हो गयी थी , प्रातः ऐसी अवस्था पर क्लान्तश्रान्त श्रीराधा लज्जापूर्वक श्रीकृष्ण को देखती हुयी वह अपनी मुग्धकारिणी कांति से श्रीकृष्ण को आनंदकारिणी जान पड़ रही थीं ।।5।।
ईषन्मीलितदृष्टि मुग्धविलसत्सीत्कारधारावशा
दव्यक्ताकुलकेलिकाकुविकसद्दंतांशुधौताधरं।
शांतस्तब्धपयोधरं भृशपरिस्वङ्गात्कुरङ्गीदृशो
हर्षोत्कर्षविमुक्तनिः सहतनोर्धन्यो धयत्याननं ।।6।।
मृगनयनी श्रीराधा की आँखें कामकेलिजन्य आनन्दातिशय के कारण कुछ – कुछ बंद सी हो रही थीं , अन्य प्रकार के व्यापर को सह सकने में असमर्थ शरीरवाली हो गयी थीं , मुहुर्मुहुः सीत्कार करने के कारण और अव्यक्त तथा आकुल केलि – काकु ध्वनि विकार से विकसित दांतों की किरणों से उनके उर युगल शिथिल श्वासोच्छ्वास के कारण ईषत कम्पित हो रहे थे – इस प्रकार के मुखमण्डल को कोई पुण्यशाली ही देख सकता है ।।6।।
अथ सा निर्गतबाधा राधा स्वाधीनभर्तृका।
निजगाद रतिक्लान्तं कान्तं मण्डन वाञ्छया।।
अथ सहसा सुप्रीतं सुरतान्ते सा नितांत खिन्नांगी ।
राधा जगाद सादरमिदमानन्देन गोविन्दं।।7।।
जब स्वामी प्रीतिपरायण हो तब ही अपनी बात कहना साफ़ल्यपूर्ण होता है – यह नीति है । अतः श्रीराधा सस्मित गोविन्द से कहने लगीं ।।7।।
इति श्री गीत गोविन्दे त्रयोविंश सन्दर्भ | तेइसवां प्रबंध समाप्त
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चौबीसवाँ प्रबंध
चतुर्विंशः सन्दर्भः
गीतम 24| अष्टपदी 24
रामकरीरागयतितालाभ्यां गीयते
कुरु यदुनंदन ! चन्दनशिशिरतरेण कारेण पयोधरे
मृगमद – पत्रकमत्रमनोभवमङ्गलकलशसहोदरे ।।1।।
निजगाद सा यदुनन्दने क्रीड़ति हृदयानंदने ।। ध्रुवपदं।।
ह्रदय को आनंद प्रदान करने वाले यदुनंदन के साथ क्रीड़ा करती हुयी श्रीराधा ने कहा – हे यदुनंदन ! चन्दन से भी अति शीतल अपने हाथों से मनोभव के मङ्गल – कलश के समान मेरे उरस्थल पर मृगमद से पत्रक रचना कीजिये ।।1।।
अलिकुल – गञ्जन – संजनकं रतिनायक – शायक – मोचने ।
त्वदधर – चुम्बन – लंबित – कज्जलमुज्ज्वलय प्रियालोचने ।।
निज …………………….।।2।।ध्रुवं
हे प्रिये ! रतिनायक कामदेव के सायकों को छोड़ने वाली मेरी आँखों का काजल गलित हो गया है , अलि – कुल को भी तिरस्कृत करने वाले कज्जल को मेरी आँखों में उज्जवल कीजिये ।।2।।
हे मनोहरवेशधारिन !
नयन – कुरंग – तरंग – विकास – निरासकरे श्रुतिमंडले।
मनसिज – पाश विलासधरे शुभवेश निवेशय कुंडले।।
निज …………………….।।3।।ध्रुवं
भ्रमरचयं रचयन्तमुपरि रुचिरं सुचिरं मम सम्मुखे ।
जित – कमले विमले परिकर्मय नर्मजनककमलकं मुखे।।
निज …………………….।।4।।ध्रुवं
मनोहर और अमल कमलों को भी जीतने वाले विमल एवं रुचिर मेरे मुख पर नर्म परिहास जनक भ्रमरों की शोभा प्रकाशित करने वाले मेरे मुख पर आप सुन्दर अलकावली को गूंथिये ।।3।।-।।4।।
मृगमद – रस – वलितं ललितं कुरु तिलकमलिक – रजनीकरे ।
विहित – कलंक – कलं कमलानन ! विश्रमित – श्रमशीकरे।।
निज …………………….।।5।।ध्रुवं
हे कमललोचन ! रति के श्रम से उत्पन्न स्वेदबिन्दुओं से युक्त , मृग लांछन की शोभा धारण करने वाले अर्द्ध चंद्र के समान मेरे भाल पर मनोहर कस्तूरी से सुन्दर तिलक रचना कीजिये ।।5।।
मम रुचिरे चिकुरे कुरु मानद ! मनसिज – ध्वज – चामरे ।
रति – गलिते ललिते कुसुमानि शिखंडी – शिखंडक- डामरे।।
निज …………………….।।6।।ध्रुवं
हे मानद ! रतिकाल में शिथिल हुए कामदेव की ध्वजा के चामर के समान तथा मयूर – पुच्छ से भी मनोहर मेरे मनोहर केशों में कुसुम सजा दीजिये ।।6।।
सरस – घने जघने मम शम्बर – दारण – वारण – कंदरे ।
मणि – रसना – वसनाभरणानि शुभाशय ! वासय सुंदरे।।
निज …………………….।।7।।ध्रुवं
हे शोभन ह्रदय ! मेरी कामदेवरूपी मदोन्मत्त हाथी की कंदरा रुपी सरस , सुन्दर , सुभग , स्निग्ध , स्थूल कटि प्रदेश को मणि , करधनी , वस्त्र तथा आभूषणों से अलंकृत कीजिये ।।7।।
श्रीजयदेव – वचसि रुचिरे सदयं हृदयं कुरु मण्डने।
हरिचरण – स्मरणामृत – निर्मित – कलि – कलुष – ज्वर – खण्डने।।
निज …………………….।।8।।ध्रुवं
श्रीहरि के चरणों के स्मरणरूपी अमृत से कलि – कलुष ज्वर को विनष्ट करने वाली , कल्याणदायिनी , मनोहारिणी कवि जयदेव की वाणी को समलंकृत करने में अपने ह्रदय को सदय बनाएं ।।8।।
(यह वाणी हरि – चरणों के स्मरण का अमृत है जो कलिकाल के कलुषित ज्वर के रोष को शांत करने वाला है । हरि – चरण – स्मरण – अमृत ही सभी पापों का खंडन करने वाला है । यह अमृत ही कवि जयदेव की वाणी है । इस काव्य वर्षामृत की स्मृति ही सबका कल्याण करने वाली है ।)
रचय कुचयो पत्रश्चित्रं कुरुष्व कपोलयोः
घटय जघने कांचीं मुग्धस्रजा कबरीभरं ।
कलय वलय श्रेणीं पादौ पदे कुरूनपुरा-
विति निगदितः प्रीतः पीताम्बरो अपि तथा करोत ।।1।।
हे प्राण प्रिय ! आप मेरे उरस्थल पर पत्र रचना कीजिये । मेरे कपोलों पर चित्रावली रचना कीजिये , कटि प्रदेश को करधनी से सजा दीजिये । बालों में मनोहर कबरी बंधन कीजिये , हाथों में कंगन पहनाइए , पैरों में नूपुर पहना दीजिये । श्रीराधा ने इस तरह जो कुछ कहा , पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण ने प्रसन्न हो कर वैसा ही किया ।।1।।
यदगांधर्व – कलासु कौशलमनुध्यानं च यद्वैष्णवं
यच्छृङ्गार विवेक – तत्त्व – रचना – काव्येषु लीलायितं।
तत्सर्वं जयदेव पंडित – कवेः कृष्णैकतानात्मनः
सानन्दाः परिशोधयन्तु सुधियः श्रीगीतगोविन्दतः।।2।।
जो गांधर्व कलाओं में कौशल है , श्रीकृष्ण का जो ध्यान है , श्रृंगार रस का जो वास्तविक तत्व – विवेचन है , भगवद्लीला का जो काव्य में वर्णन है , उन सबको भगवन श्रीकृष्ण में एकाग्रचित्त रखने वाले विद्वान श्रीगीतगोविंद नामक काव्य से आनंदपूर्वक परिशोधन करें । अर्थात समझें और समझाएं ।।2।।
साध्वी माध्वीक ! चिंता न भवति भवतः शकरे कर्कशासि।
द्राक्षे द्रस्यन्ति के त्वाममृत ! मृतमसि क्षीर ! नीरं रसस्ते ।
माकंद ! क्रन्द कान्ताधर ! धर न तुलां गच्छ यच्छति भावं
यावच्छृङ्गार शुभमिव जयदेवस्य वैदग्ध्य वाचः ।।3।।
अरे माध्वीक ( द्राक्षासव ) ! तुम्हारा चिंतन ठीक नहीं है । हे शर्करे ( शक्कर ) ! तुम अति कर्कशा हो । हे द्राक्षे ! ( अंगूर ) तुम्हें कौन देखेगा ? हे अमृत ! तुम तो मृत तुल्य हो । हे दग्ध ! तुम्हारा स्वाद तो जल के समान है । हे माकंद ( पके आम ) ! तुम अब क्रंदन करो । हे कांता के अधर ! तुम अब पाताल चले जाओ , जब तक श्रंगार के सार सर्वस्व शुभमय कवि जयदेव की विदग्धतापूर्ण वाणी है , तुम्हारा कोई काम नहीं है ।।3।।
इत्थं केलिततीर्विहृत्य यमुनाकूले समं राधया
तद्रोमावलि – मौक्तिकावलि – युगे वेणी भ्रमं विभ्रति ।
तत्राह्लादि – कुच – प्रयागफलयोर्लिप्सावतोर्हस्त्या
व्यार्पाराः पुरुषोत्तमस्य ददतु स्फीतां मुदा सम्पदं ।।4।।
इस पारकर यमुना कूल पर श्रीराधा के साथ विविध केलि क्रीड़ाओं के द्वारा विहार करके श्रीराधा की रोमावली एवं मुक्तावली दोनों ही प्रयाग के संगम का भ्रम उत्पन्न कर रहे थे । उस प्रयाग के फल आह्लादकारी दोनों उर युगल हैं । उनको प्राप्त करने की इच्छा वाले पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण दोनों हस्त कमलों में समस्त व्यापार पाठ में और श्रोताओं को आनंदस्वरूप संपत्ति प्रदान करें ।।4।।
पर्यङ्कीकृत – नाग – नायक – फणा – श्रेणी मणीनां गजे
संक्रांत – प्रतिबिम्ब – संकलनया विभ्रदविभू – प्रक्रियां।
पादोम्भोरूहधारि – वारिधि सुतामक्ष्मां दिदृक्षुः शतैः
कायव्यूहमिवाचरन्नुपचितीभूतो हरिः पातु वः।।5।।
जिस नाग – नायक शेषराज को जिन्होंने अपनी शय्या बना रखा है , उसकी असंख्य फणों की मणियों में प्रतिबिंबित होने से जिनका विभुत्व विस्तार को प्राप्त कर रहा है , श्रीलक्ष्मीजी सदैव जिनके चरण कमलों का संवाहन करती हैं और जिन्हें वे सहस्र – सहस्र नेत्रों से देखना चाहती हैं , जो कायव्यूह की भांति अनेकों विग्रह – स्वरूपों में स्फीत हो रहे हैं , वे श्रीहरि आप सबकी रक्षा करें ।।5।।
त्वामप्राप्य मयि स्वयम्बरपरां क्षीरोद – तीरोदरे
शंके सुंदरि ! कालकूटमपिविमूढ़ो मृडानीपतिः
इत्थं पूर्वकथाभिरन्य मनसो विक्षिप्य वक्षोंचलं
पद्मायाः स्तनकोरकोपरि मिलन्नेत्रो हरिः पातु वः ।।6।।
हे सुन्दरि ! मूढ़ मृडानीपति रूद्र क्षीर सागर के तट पर जब तुम्हें प्राप्त नहीं कर सके , तब तुमने स्वयं मुझे वरण कर लिया । इस प्रकार पूर्ण कथा को मन में स्मरण कर के महापद्मरूपा श्री राधा के स्तन कोरक के ऊपर जिन्होंने नेत्र भर – भर कर दर्शन प्राप्त किये , वे श्रीहरि आप सबकी रक्षा करें ।।6।।
श्रीभोज – देव – प्रभवस्य रामा – देवीसुत श्रीजयदेवकस्य।
पराशरादिबंधुवर्गकण्ठे श्रीगीतगोविंदकवित्वमस्तु ।।7।।
श्रीभोजदेव से उत्पन्न रामदेवी के पुत्र श्रीजयदेव कवि द्वारा प्रस्तुत इस प्रबंध काव्य श्रीगीतगोविंद का काव्यत्व पराशर आदि प्रिय बंधुओं के कंठ में सुशोभित हो ।।7।।
(श्रीभोजदेव और श्रीरामदेवी ( श्रीराधादेवी ) के पुत्र श्रीजयदेव ने भगवान के प्रिय भक्तों पराशर आदि प्रिय मित्रों के कंठ में मुखरित विभूषित होने के लिए और प्रखरित होकर गगन में अनुगुंजित होने के लिए इस पदावली की रचना की है । रसरूप श्रीकृष्ण के स्मरण में अनोखे लीला चित्र भक्त हृदयों में सदैव सुशोभित रहें , प्रिय – प्रियतर – प्रियतम – प्राण सर्वस्व बन जावें ।)
इति चतुर्विंशति सन्दर्भः | चौबीसवाँ प्रबंध समाप्त
इति श्री जयदेव कृतौ गीत गोविन्दे सुप्रीत पीताम्बरो नाम द्वादशः सर्गः समाप्तः
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श्री जयदेव जी का जन्म “किन्दुबिल्व” नाम के ग्राम में हुआ भोजदेव इनके पिता और राधादेवी इनकी माता थी. ये ब्राह्मण कुल के थे. और वैराग्य तो ऐसा कि ग्रह त्याग के वन में भी एक वृक्ष के तले एक दिवस से ज्यादा नहीं ठहरते और निर्वाह के लिए केवल एक गुदड़ी थी और के कमंडलु था।
जयदेव जी द्वारा रचित “श्री गीतगोविन्द” काव्य के सम्पूर्ण अंगों का, नवो रसो का, सरसश्रृंगार का रत्नाकर समुद्र ही है.गीत गोविंद कि अष्ट पदियाँ जो कोई अभ्यास करता है उसकी बुद्धि को बढती है.जो सप्रेम गान करता है तो श्री राधा वल्लभ जी वहाँ सुनने के लिए प्रसन्न होकर प्रकट या गुप्त रूप से अवश्य ही आते है।
प्रसंग १- एक बार एक ब्राह्मण श्री जगन्नाथ को अपनी कन्या प्रतिज्ञापूर्वक देने को कह गया जब वह लडकी अवस्था में उस योग्य हुई तो उसको देने के लिए वह विप्र श्री जगन्नाथ जी के पास लाया प्रभु कि आज्ञा हुई कि जयदेव जी नामक भक्त मेरे ही स्वरुप है सो आप इसी क्षण ले जाके और मेरी आज्ञा उनसे उसको अपनी बेटी उन्ही को दे दो।
जयदेव जी उस ब्राह्मण की कन्या ने बोले तुम अपने योग्य और निर्वाह आदि को विचार करो और जैसा उचित है.वैसा करो ब्राह्मण अपनी कन्या को लेकर जहाँ कवी राज जयदेव जी बैठे हुए प्रभु का स्मरण कर रहे थे वही जाकर प्रार्थना करने लगे कि महाराज यह मेरी कन्या है और मै आपको अर्पण करता हूँ इसका कर ग्रहण कीजिये।
इन्होने कहा – जो अधिकारी हो और गृहस्थाश्रम का विस्तार करे उसे दीजिये .ब्राह्मण ने कहा – जो अपनी इच्छा से करता तो विभव विचार अवश्य करता परन्तु मै तो श्री जगन्नाथ जी कि आज्ञा से आपको कन्या दे रहा हूँ.पर इन्होने स्वीकार नहीं किया.तब ब्राह्मण ने अपनी अपनी कन्या से कहा कि तू इन्ही के पास बैठ रह क्योकि श्री जगन्नाथ जी की आज्ञा मुझसे टारी नहीं जाती. ऐसा कह कन्या को बिठलाकर ब्राह्मण चल दिए।
पद्मावती जी बोली – में तो पिता के देने से और प्रभु आज्ञा से आपको श्री जगन्नाथ ही जान अपना सर्वस्व न्यौछावर कर आपकी हो चुकी.तब कुटिया बनाकर रहने लगे।
एक बार प्रभु प्रेरणा से जयदेव जी के ह्रदय में आया कि मैं प्रभु चरित्र मय एक नवीन पुस्तक बनाऊँ तब श्री गोविंद जी का अति सरस गीत “श्री गीतगोविंद” प्रकट हुआ।जब जयदेव गीत गोविन्द लिख रहे थे तो एक प्रसंग उन के हृदय में आया- “स्मर-गरल-खंडन, ममशिरसि मंड़न देहि पदपल्लवमुदाराम”,
अर्थात भगवान राधा जी से कह रहे है – हे प्रिय ! कन्दर्प का विष खंडन करने वाला, और मेरे मस्तक का मेरे मस्तक का मंडल भूषण अपने चरण कमलों को मेरे सिर पर रखो’ लेकिन जयदेव जी को इस प्रसंग पर शंका हुई और इसे बीच में अधूरा छोड़ कर विचार करते हुए आप स्नान करने चले गए। जब वापिस आ कर देखा तो अचंभित रह गए की जैसा उन्होंने सोचा था वैसा ही श्लोक लिखा हुआ पाया । पत्नी से पूछा तो पत्नी ने बताया की आप खुद ही आए थे और इसे लिखकर वापिस स्नान करने चले गए। इस पर जयदेव जी समझ गए की स्वयं भगवान यह पंक्तियाँ लिख कर गए हैं।
प्रसंग २ – एक दिन एक माली कि बेटी बैगन के बारे में बैगन तोडती हुई श्री गीतगोविंद के पंचम सर्ग की कथा का एक पद गा रही थी – “ना कुरु नितम्बिनि गमन विलम्बनमनुसर तं ह्र्दयेशम् || धीर समीरे यमुना तीरे वसति वने वनमाली “
अर्थ – “दुति श्री राधिका जी से कहती है कि हे नितम्बिनि! अब गमन में विलम्ब मत करो उन प्राणप्रिया के समीप चलो वे वनमाली वन विषे यमुना के कूल में धीर समीर कुंज में बसते है” इसी पद को सुनते हुए उस माली कि सुता के पीछे-पीछे श्री जगन्नाथ जी निज अंग में झीना जामा पहिने फिरते डोलने लगे. और जब वह तान छेडती तो तब प्रेम मादकता से झूमते ‘बहुत अच्छा’ कहते थे।
जब कन्या घर चली गई तब बैगन के कंटको से झंगा फट गया फिर मंदिर आये पुजारी जी ने पट खोला तो देखा श्री जगन्नाथ जी के वस्त्र फटे है पांडा से पूंछा – पांडा जी ने कहा – हमें नहीं पता कैसे वस्त्र फटे ! तब प्रभु ने ही स्वयं जनाया- कि एक कन्या के बैगन की बारी में गाती थी.हम सुनते थे इससे वस्त्र फटे .हमको वह कथा अति प्रिय है. “अर्थात उसको बुलाके गवाओ” तब उस कन्या को लाए और उसने प्रभु को प्रसन्न किया।
प्रसंग ३ – जयदेव जी के आश्रम से गंगा जी अठारह कोस दूर थी परन्तु प्रभु कृपा से नित्य ही गंगा स्नान करते थे. जब इनका शरीर वृद्ध हो गया तब भी गंगा स्नान का नियम नहीं छोड़ा ऐसा प्रेम देख गंगा जी को दया लगी.इसलिए गंगा जी ने इन्हें रात्रि में आज्ञा दी कि अब वृद्ध शरीर से नित्य स्नान को मत जाईये इस हठ को छोड कर ध्यान ही से मेरा स्नान किया करो परन्तु बात नहीं मानी तब गंगा जी ने कहा कि देखो तुम्हारे आश्रम के निकट की नदी में ही मै आऊँगी उसी में स्नान किया करो।
जयदेव जी ने पूछा – मै कैसे जानू की आप आई हो ?
श्री गंगा जी ने कहा – देखो उसमे कमल नहीं है अब जब सुन्दर कमल के फूल देखो तो जानना कि मै आ गई हूँ .जयदेव जीने दूसरे दिन देखा तो तो दिव्य कमल फूले थे .और जल भी दिव्य गंगा जल के तुल्य अमल और मीठा था उसी में स्नान किया और पान किया .तभी से किन्दुबिल्व ग्राम में “जयदेई-गंगा” नाम से प्रसिद्ध है।
श्री जयदेव जी जगन्नाथ पुरी में वास करने लगे तब श्री जगन्नाथ जी ने इन्हें श्री राधामाधव जी का एक विशाल श्री विग्रह सेवा निमित्त प्रदान कर इन्हे वृंदावन चले जाने कि आज्ञा दी।
इस तरह जयदेव जी श्री विग्रह को लेकर श्री धाम वृंदावन आ गए और केशीघाट पर आकार निवास करने लगे.और भक्तो ने ठाकुर जी का एक बड़ा विशाल मंदिर का निर्माण करा दिया.औरंगजेब के आक्रमण के बाद राधामाधव जी का विग्रह जयपुर में सेवित होने लगा और वृंदावन में उस श्री राधामाधव जी का प्रतिभू विग्रह स्थापित किया गया।।
भगवान जगन्नाथ जी का ही स्वरूप माने जाने वाले महाकवि जयदेव द्वारा रचित महाकाव्य ‘गीत गोविन्द’ की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है ? जिस पर रीझ कर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अपने हाथ से पद लिख कर उसे पूरा किया । जयदेव जी और उनकी पत्नी पद्मावती श्रीकृष्ण प्रेमरस में डूबे रहते थे । जयदेव जी को भगवान के दशावतारों के प्रत्यक्ष दर्शन हुए थे ।
जब भगवान श्रीकृष्ण ने लिखा ‘गीत गोविन्द’ का अन्तिम चरण
एक दिन भावावेश में जयदेव जी ने देखा कि यमुना तीर पर कदम्ब के नीचे भगवान श्रीकृष्ण मुरली हाथ में लिए मुसकरा रहे हैं । तभी उनके मुख से यह गीत निकला—‘मेधैर्मेदुरमस्वरं वनभुव श्यामास्तमालद्रुमै’ ।
बस यहीं से ‘गीत गोविन्द’ काव्य का आरम्भ हो गया । इसमें प्रभु की श्रृंगार रस से पूरित ललित लीलाओं का वर्णन है । जयदेव जी जब ‘गीत गोविंद’ लिख रहे थे, तब एक बार उनके मन में श्रीराधिका के मान का प्रसंग आया । उसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी प्रिया के चरणकमलों को अपने मस्तक का भूषण बता कर प्रार्थना की कि इन्हें मेरे मस्तक पर रख दीजिए । इस भाव का पद जयदेव जी के हृदय में आया पर उसे मुख से कहते हुए तथा अपनी पत्नी पद्मावती द्वारा ग्रंथ में लिखाते हुए वे सोच-में पड़ गए कि इस गुप्त रहस्य को कैसे प्रकट किया जाए ? इस कारण कविता का अन्तिम चरण (पंक्ति) पूरा नहीं हो पा रहा था ।
जयदेव जी की पत्नी पद्मावती ने कहा–’अब स्नान का समय हो गया है, लिखना बन्द करके आप स्नान कर आएं ।’
जयदेव जी ने कहा–’पद्मा ! मैंने एक गीत लिखा है, पर इसका अन्तिम चरण ठीक नहीं बैठता । मैं क्या करुँ ?’
पत्नी ने कहा—‘इसमें घबराने की कौन-सी बात है, गंगा-स्नान से लौट कर शेष चरण लिख लीजियेगा ।’
पत्नी के स्नान के लिए जाने पर जोर देने पर वे गंगा-स्नान को चले गए । कुछ ही मिनटों बाद जयदेव का वेष धारण कर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण आए और बोले–’पद्मा ! जरा ‘गीत गोविन्द’ देना ।’
पद्मा ने आश्चर्यचकित होकर कहा–’आप स्नान करने गए थे न ? बीच से ही कैसे लौट आए ?’
महामायावी किन्तु भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण ने कहा–’रास्ते में ही अन्तिम चरण याद आ गया, इसी से लौट आया ।’
पद्मावती ने कलम और दवात ला दिए । जयदेव-वेषधारी भगवान ने ‘देहि मे पदपल्लवमुदारम्’ लिखकर कविता पूरी कर दी । फिर पद्मावती से जल मंगाकर स्नान किया और पद्मावती के हाथ का भोजन ग्रहण कर पलंग पर विश्राम करने लगे ।
पद्मावती भगवान की पत्तल में बचा प्रसाद पाने लगी । इतने में ही गंगा-स्नान करके जयदेव जी लौट आए । पति को इस प्रकार आते देखकर पद्मावती चौंक गयी । जयदेव भी पत्नी को भोजन करते देखकर आश्चर्यचकित हो गए ।
जयदेव ने पूछा–’पद्मा, आज तुम मुझे भोजन कराए बिना कैसे भोजन कर रही हो ?’
पद्मावती ने कहा–’यह आप क्या कह रहे हैं ? आप कविता का शेष चरण लिखने के लिए रास्ते से ही लौट आए थे । कविता पूरी करने के बाद अभी तो स्नान-पूजन के बाद भोजन करके आप लेटे थे ।’
जयदेव जी ने जाकर देखा, पलंग पर कोई नहीं सो रहा था । वे समझ गए आज अवश्य ही भक्तवत्सल भगवान की कृपा हुई है । फिर उन्होंने भगवान द्वारा लिखा कविता का शेष चरण देखा तो मन-ही-मन कहा–’यही तो मेरे मन में था, पर मैं संकोचवश लिख नहीं रहा था ।’
फिर वे दोनों हाथ उठा कर रोते-रोते पुकारने लगे—‘हे कृष्ण ! हे नंदनन्दन ! हे राधाबल्लभ ! हे ब्रजांगमाधव ! हे गोकुलरत्न ! हे करुणासिंधु ! हे गोपाल ! हे प्राणप्रिय ! आज किस अपराध से इस किंकर को त्याग कर केवल पद्मा का मनोरथ पूर्ण किया है ?’
इतना कहकर जयदेव जी पद्मावती की पत्तल से श्रीहरि का प्रसाद उठाकर खाने लगे । पद्मावती ने उन्हें अपनी जूठन खाने से रोका भी; पर प्रभु प्रसाद के लोभी जयदेव जी ने उसकी एक न सुनी ।
इस घटना के बाद जयदेव जी संकोच छोड़ कर उसी गीत को गाते हुए मस्त घूमा करते और उस गीत को सुनने के लिए नंदनन्दन उनके पीछे-पीछे छिपकर चलते रहते थे ।
भक्त का प्रेम ईश्वर के लिए महापाश है, जिसमें बंधकर भगवान भक्त के पीछे-पीछे घूमते हैं । इस भगवत्प्रेम में न ऊंच है न नीच, न छोटा है न बड़ा । न मन्दिर है न जंगल । न धूप है न चैन । है तो बस प्रेम की पीड़ा; इसे तो बस भोगने में ही सुख है । यह प्रेम भक्त और भगवान दोनों को समान रूप से तड़पाता है ।
एक बार एक माली की लड़की खेत में बेंगन तोड़ते हुए ‘गीत गोविन्द’ के पांचवे सर्ग की इस अष्टपदी को गा रही थी—
धीर समीरे यमुना तीरे वसति वने वनमाली ।
गोपीपीनपयोधरमर्दनचञ्चलकरयुगशाली ॥1॥
उसके मधुर गीत को सुनने के लिए भगवान जगन्नाथ उस लड़की के पीछे-पीछे घूमने लगे । उस समय भगवान ने अत्यंत महीन ढीली पोशाक धारण की हुई थी, जो कांटों में उलझ कर फट गई । लड़की का गाना खत्म होने पर जगन्नाथ जी मंदिर में पधारे तो उनके फटे वस्त्रों को देख कर पुरी का राजा, जो उनके दर्शन के लिए आया था, बड़ा आश्चर्यचकित हुआ ।
राजा ने पुजारियों से पूछा—‘ठाकुरजी के वस्त्र कैसे फट गए ?’
पुजारियों ने कहा—हमें तो कुछ मालूम नहीं, यह कैसे हुआ ?’
तब भगवान ने स्वयं सब बात पुजारी को स्वप्न में बता दी । राजा ने भगवान की ‘गीत गोविन्द’ के पदों को सुनने की रुचि जान कर उस बालिका को पालकी भेज कर बुलाया । उस बालिका ने भगवान के सामने नृत्य करते हुए उसी अष्टपदी को गाकर सुनाया । तब से राजा ने मंदिर में नित्य ‘गीत गोविन्द’ के गायन की व्यवस्था कर दी । साथ ही पुरी में ढिंढोरा पिटवा दिया कि चाहे कोई अमीर हो या गरीब; सभी ‘गीत गोविंद’ की अष्टपदियों का इस भाव से गायन करें कि स्वयं सुगल सरकार श्रीराधाकृष्ण इसे सुन रहे हैं ।
जगन्नाथपुरी के एक अन्य राजा ने श्रीकृष्ण-लीलाओं की पुस्तक बनवा कर उसका नाम भी ‘गीत गोविन्द’ रख दिया । राजा के चापलूस ब्राह्मण सब जगह यह प्रचार करने लगे कि यही असली ‘गीत गोविन्द’ है । असली पुस्तक का निर्णय करने के लिए दोनों ‘गीत गोविन्द’ की पुस्तकें भगवान जगन्नाथ जी के मंदिर में रख दी गईं । दूसरे दिन जब पट खुले तो भगवान ने राजा की पुस्तक दूर फेंक दी और जयदेव कृत ‘गीत गोविन्द’ की पुस्तक को अपनी छाती से चिपका रखा था ।
यह देख कर राजा समुद्र में डूबने चला । तब भगवान ने आकाशवाणी की कि तुम समुद्र में मत डूबो । तुम्हारी पुस्तक के बारह श्लोक जयगेव कृत ‘गीत गोविन्द’ के बारह सर्गों में लिखे जाएंगे; जिससे तुम्हारी प्रसिद्धि भी संसार में फैल जाएगी ।
ऐसा माना जाता है कि ‘गीत गोविन्द’ की अष्टपदियों का जो कोई नित्य पठन और गान करे, उसकी बुद्धि पवित्र और प्रखर होकर दिन-प्रतिदिन बढ़ती है । साथ ही इन अष्टपदियों का जहां प्रेम से गायन होता है, वहां उन्हें सुनने के लिए श्रीराधाकृष्ण अवश्य विराजते हैं और प्रसन्न होकर कृपा-वृष्टि करते हैं ।
भगवान जगन्नाथ जी का ही स्वरूप माने जाने वाले महाकवि जयदेव द्वारा रचित महाकाव्य ‘गीत गोविन्द’ की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है ? जिस पर रीझ कर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अपने हाथ से पद लिख कर उसे पूरा किया । जयदेव जी और उनकी पत्नी पद्मावती श्रीकृष्ण प्रेमरस में डूबे रहते थे । जयदेव जी को भगवान के दशावतारों के प्रत्यक्ष दर्शन हुए थे ।
गीत गोविन्द – The Spiritual Talks (the-spiritualtalks.com)
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