जटायु कृत राम स्तोत्रम | जटायु कृत श्री राम स्तोत्र | Jatayu Kruta Shri Rama Stotram | जटायु कृत श्री राम स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित | श्रीमदध्यात्मरामायणे अरण्यकाण्डेऽष्टमे सर्गे जटायुकृतश्रीरामस्तोत्रं| श्रीमद अध्यात्म रामायण के अरण्य काण्ड के अष्टम सर्ग में वर्णित जटायु कृत श्री राम स्तोत्र | श्री राम स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित | जटायु द्वारा श्री राम की स्तुति
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यह श्री राम स्तोत्र श्रीमद अध्यात्म रामायण के अरण्य काण्ड के अष्टम सर्ग में जटायु द्वारा श्री राम की स्तुति के रूप में कहा गया है । जो पुरुष इस जटायु कृत इस श्रीराम स्तोत्र को एकाग्रचित्त से सुनता, लिखता अथवा पढ़ता है, उसका सदा कल्याण होता है और वह श्री भगवान् के सारूप्य को प्राप्त कर परमधाम विष्णुलोक को जाता है ।
|| जटायुकृतं रामस्तोत्रम् ||
जटायुरुवाच
अगणितगुणमप्रमेयमाद्यं
सकलजगत्स्थितिसंयमादिहेतुम् ।
उपरमपरमं परात्मभूतं सततमहं
प्रणतोऽस्मि रामचन्द्रम् ॥ १॥
जटायु बोला-जो अगणित गुणशाली हैं, अप्रमेय हैं, जगत्के आदिकारण हैं तथा उसकी स्थिति और लय आदि के हेतु हैं, उन परम शान्तस्वरूप परमात्मा श्रीरामचन्द्रजी की मैं निरन्तर वन्दना करता हूँ॥१॥
निरवधिसुखमिन्दिराकटाक्षं
क्षपितसुरेन्द्रचतुर्मुखादिदुःखम् ।
नरवरमनिशं नतोऽस्मि रामं
वरदमहं वरचापबाणहस्तम् ॥ २॥
जो असीम आनन्दमय और श्रीकमलादेवी के कटाक्ष के आश्रय हैं तथा जो ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवगणों का दुःख दूर करनेवाले हैं, उन धनुष-बाणधारी वरदायक नरश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी को मैं अहर्निश प्रणाम करता हूँ॥ २ ॥
त्रिभुवनकमनीयरूपमीड्यं
रविशतभासुरमीहितप्रदानम् ।
शरणदमनिशं सुरागमूले
कृतनिलयं रघुनन्दनं प्रपद्ये ॥ ३॥
जो त्रिलोकी में सबसे अधिक रूपवान् हैं, सबके स्तुत्य हैं, सैकड़ों सूर्यो के समान तेजस्वी हैं तथा वाञ्छित फल देनेवाले हैं, उन शरणप्रद और रागाश्रित हृदय में रहनेवाले श्रीरघुनाथजी को मैं अहर्निश प्रणाम करता हूँ॥३॥
भवविपिनदवाग्निनामधेयं
भवमुखदैवतदैवतं दयालुम् ।
दनुजपतिसहस्रकोटिनाशं
रवितनयासदृशं हरिं प्रपद्ये ॥ ४॥
जिनका नाम संसाररूप वन के लिये दावानल के समान है, जो महादेव आदि देवताओं के भी पूज्य देव हैं तथा जो सहस्रों करोड़ दानवेन्द्रों का दलन करनेवाले और श्रीयमुनाजी के समान श्यामवर्ण हैं, उन दयामय श्रीहरि को मैं प्रणाम करता हूँ॥४॥
अविरतभवभावनातिदूरं
भवविमुखैर्मुनिभिः सदैव दृश्यम् ।
भवजलधिसुतारणाङ्घ्रिपोतं
शरणमहं रघुनन्दनं प्रपद्ये ॥ ५॥
जो संसार में निरन्तर वासना रखनेवालों से अत्यन्त दूर हैं और संसार से उपराम मुनिजनों के सदैव दृष्टि गोचर रहते हैं तथा जिनके चरणरूप पोत (जहाज) संसार सागर से पार करनेवाले हैं, उन रघुनाथजी की मैं शरण लेता हूँ॥ ५॥
गिरिशगिरिसुतामनोनिवासं
गिरिवरधारिणमीहिताभिरामम् ।
सुरवरदनुजेन्द्रसेविताङ्घ्रिं
सुरवरदं रघुनायकं प्रपद्ये ॥ ६॥
जो श्रीमहादेव और पार्वतीजी के मन-मन्दिर में निवास करते हैं, जिनकी लीलाएँ अति मनोहारिणी हैं तथा देव और असुरपतिगण जिनके चरणकमलों की सेवा करते हैं, उन गिरिवरधारी सुखदायक रघुनायक की में शरण लेता हूँ॥६॥
परधनपरदारवर्जितानां
परगुणभूतिषु तुष्टमानसानाम् ।
परहितनिरतात्मनां सुसेव्यं
रघुवरमम्बुजलोचनं प्रपद्ये ॥ ७॥
जो परधन और परस्त्री से सदा दूर रहते हैं तथा पराये गुण और परायी विभूति को देखकर प्रसन्न होते हैं, उन निरन्तर परोपकार परायण महात्माओं से सुसेवित कमलनयन श्रीरघुनाथजी की मैं शरण लेता हूँ॥७॥
स्मितरुचिरविकासिताननाब्ज
मतिसुलभं सुरराजनीलनीलम् ।
सितजलरुहचारुनेत्रशोभं
रघुपतिमीशगुरोर्गुरुं प्रपद्ये ॥ ८॥
जिनका मुखकमल मनोहर मुसकान से विकसित हो रहा है, जो भक्तों के लिये अति सुलभ हैं, जिनके शरीर की कान्ति इन्द्रनीलमणि के समान सुन्दर नीलवर्ण है तथा जिनके मनोहर नेत्र श्वेत कमल की-सी शोभावाले हैं, उन श्रीगुरु महादेवजी के परम गुरु श्रीरघुनाथजी की मैं शरण लेता हूँ॥ ८॥
हरिकमलजशम्भुरूपभेदात्त्वमिह
विभासि गुणत्रयानुवृत्तः ।
रविरिव जलपूरितोदपात्रेष्व
मरपतिस्तुतिपात्रमीशमीडे ॥ ९॥
हे प्रभो ! जल से भरे हुए पात्रों में जैसे एक ही सूर्य प्रतिबिम्बित होता है वैसे ही सत्त्व, रज और तम-इन तीनों गुणों की वृत्ति के कारण आप ही विष्णु, ब्रह्मा और महादेव रूप से भासित होते हैं। हे ईश ! आप देवराज इन्द्र की भी स्तुति के पात्र हैं, मैं आपकी स्तुति करता हूँ॥९॥
रतिपतिशतकोटिसुन्दराङ्गं
शतपथगोचरभावनाविदूरम् ।
यतिपतिहृदये सदा विभातं
रघुपतिमार्तिहरं प्रभुं प्रपद्ये ॥ १०॥
आपका दिव्य शरीर सैकड़ों करोड़ कामदेवों से भी सुन्दर है, सैकड़ों मार्गों में फँसे हुए लोगों से आप अत्यन्त दूर हैं और यतीश्वरों के हृदय में आप सदा ही भासमान हैं। ऐसे आप आर्तिहर प्रभु रघुपति की मैं शरण लेता हूँ॥ १०॥
इत्येवं स्तुवतस्तस्य
प्रसन्नोऽभूद्रघूत्तमः ।
उवाच गच्छ भद्रं ते
मम विष्णोः परं पदम् ॥ ११॥
जटायु के इस प्रकार स्तुति करने पर श्रीरघुनाथजी उस पर प्रसन्न होकर बोले-‘ हे जटायु ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम मेरे परमधाम विष्णुलोक को जाओ’ ॥ ११॥
श्रृणोति य इदं स्तोत्रं
लिखेद्वा नियतः पठेत् ।
स याति मम सारूप्यं
मरणे मत्स्मृतिं लभेत् ॥ १२॥
जो पुरुष मेरे इस स्तोत्र को एकाग्रचित्त से सुने, लिखे अथवा पढ़े, वह मेरा सारूप्य-पद प्राप्त करता है और मरते समय उसे मेरा स्मरण होगा ॥ १२ ॥
इति राघवभाषितं तदा
श्रुतवान् हर्षसमाकुलो द्विजः ॥
रघुनन्दनसाम्यमास्थितः
प्रययौ ब्रह्मसुपूजितं पदम् ॥ १३॥
पक्षिराज जटायु ने रघुनाथजी का यह कथन बड़े हर्ष से सुना और उन्हीं के समान रूप धारणकर ब्रह्मा आदि लोकपालों से पूजित परमधाम को चला गया ॥ १३ ॥
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे अरण्यकाण्डेऽष्टमे सर्गे जटायुकृतश्रीरामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
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