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नारायण अथर्वशीर्ष हिंदी अर्थ सहित / ॐ नमो नारायणाय
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पञ्चमहापातकों एवं उपपातकों से मुक्ति तथा वेदपाठ फल प्राप्ति हेतु करें इस शीर्ष का पाठ
श्री नारायण अथर्वशीर्ष ब्रह्म विद्या का पाठ करने से व्यक्ति निष्पाप हो जाता है और अंत में नारायण को प्राप्त कर लेता है। इसके पाठ से चारो वेदों के पाठ का फल मिलता है। इस नारायण अथर्वशीर्ष का पाठ करने से पञ्चमहापातकों ( पांच महा पापों ) एवं उपपातकों ( लघु पापों ) से मुक्ति मिल जाती है तथा वेदों के पाठ का फल भी प्राप्त होता है ।
नर = जीव, जीवों के समूह को नार कहते हैं। जीव समूह का जो आश्रय (अधिष्ठाता) है उसे नारायण कहते हैं। परब्रह्म परमात्मा भगवान् विष्णु का द्वितीय नाम नारायण है। ऋक्, यजु, साम, अथर्व इन चारों वेदों का जो सार तत्व है, अर्थात् इन चारों वेदों में नारायण की जो महत्ता प्रतिपादित है, उसी तत्व का विवेचन “नारायण अथर्वशीर्ष” में है। इस श्रुति भाग में नारायण से ही जगत् की उत्पत्ति आदि बताई गई है। अष्टाक्षर मन्त्र “ॐ नमो नारायणाय” का उपदेश भी इसी अथर्वशीर्ष में किया गया है।
इस नारायणाथर्वशीर्ष के पाठ से चारों वेदों के पाठ का फल प्राप्त होता है तथा समस्त कल्मष (पाप) जलकर भस्म हो जाते हैं ।

प्रातःकाल इस श्रुति का पाठ करने वाले साधक का रात्रिकाल में हुए पाप का नाश हो जाता है। सायंकाल में इसका पाठ करने वाला मनुष्य दिन में किये हुए पाप का नाश कर डालता है। सायंकाल और प्रातःकाल दोनों समय पाठ करने वाला साधक पूर्व का पापी हो तो भी निष्पाप हो जाता है। दोपहर के समय भगवान् सूर्य की ओर मुख करके पाठ करने वाला मानव पाँच महापातकों और उपपातकों से सर्वथा मुक्त हो जाता है। सम्पूर्ण वेदों के पाठ का पुण्यलाभ करता है। वह भगवान् श्रीनारायण का सायुज्य प्राप्त कर लेता है; जो इस प्रकार जानता है, वह श्रीमन्नारायण का सायुज्य प्राप्त कर लेता है ।

(प्रथमः खण्डः
नारायणात् सर्वचेतनाचेतनजन्म)
ॐ अथ पुरुषो ह वै नारायणोऽकामयत प्रजाः सृजेयेति ।
नारायणात्प्राणो जायते । मनः सर्वेन्द्रियाणि च ।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी ।
नारायणाद् ब्रह्मा जायते । नारायणाद् रुद्रो जायते ।
नारायणादिन्द्रो जायते । नारायणात्प्रजापतिः प्रजायन्ते ।
नारायणाद् द्वादशित्या रुद्रा वसवः सर्वाणि च छन्दांसि।
नारायणादेव समुत्पद्यन्ते । नारायणे प्रवर्तन्ते । नारायणे प्रलीयन्ते ॥
एतदृग्वेदशिरोऽधीते ।।1।।
सनातन पुरुष भगवान् नारायण ने संकल्प किया- ‘मैं जीवों का सृजन करूँ।’ (अतः उन्हीं नारायण से सबकी उत्पत्ति हुई है।) नारायण से ही प्राण उत्पन्न होता है, उन्हीं से मन और सम्पूर्ण इन्द्रियाँ प्रकट होती हैं। आकाश, वायु, तेज, जल तथा सम्पूर्ण विश्व को धारण करने वाली पृथ्वी-इन सबकी नारायणसे ही उत्पत्ति होती है। नारायण से ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं। नारायण से रुद्र प्रकट होते हैं। नारायण से इन्द्र की उत्पत्ति होती है। नारायण से प्रजापति उत्पन्न होते हैं। नारायण से ही बारह आदित्य प्रकट हुए हैं। ग्यारह रुद्र, आठ वसु और सम्पूर्ण छन्द (वेद) नारायण से ही उत्पन्न होते हैं, नारायण की ही प्रेरणा से वे अपने अपने कार्य में नियोजित होते हैं और नारायण में ही लीन हो जाते हैं। यह ऋग्वेदीय श्रुति का कथन है ।
(द्वितीयः खण्डः
नारायणस्य सर्वात्मत्वम्)
ॐ । अथ नित्यो नारायणः । ब्रह्मा नारायणः । शिवश्च नारायणः ।
शक्रश्च नारायणः । द्यावापृथिव्यौ च नारायणः ।
नारायणः । दिशश्च नारायणः । ऊर्ध्वंश्च नारायणः ।
अधश्च नारायणः । अन्तर्बहिश्च नारायणः । नारायण एवेदं सर्वम् ।
यद्भूतं यच्च भव्यम् । निष्कलो निरञ्जनो निर्विकल्पो निराख्यातः
शुद्धो देव एको नारायणः । न द्वितीयोऽस्ति कश्चित् । य एवं वेद ।
स विष्णुरेव भवति स विष्णुरेव भवति ॥
एतद्यजुर्वेदशिरोऽधीते ।।2।।
भगवान् नारायण ही नित्य हैं। ब्रह्मा नारायण हैं। शिव भी नारायण हैं। इन्द्र भी नारायण हैं। काल भी नारायण हैं। दिशाएँ भी नारायण हैं। विदिशाएँ (नैऋत्य आदि) भी नारायण हैं। ऊपर भी नारायण हैं। नीचे भी नारायण हैं। भीतर और बाहर भी नारायण हैं। जो कुछ हो चुका है तथा जो कुछ हो रहा है और जो भी कुछ होने वाला है, यह सब भगवान् नारायण ही हैं। एकमात्र नारायण ही निष्कलंक, निरंजन, निर्विकल्प, अनिर्वचनीय एवं विशुद्ध देव हैं, उनके सिवा दूसरा कोई नहीं है। जो इस प्रकार जानता है, वह विष्णु सदृश हो जाता है, वह विष्णु सदृश हो जाता है। यह यजुर्वेदीय श्रुति प्रतिपादित करती है ।

(तृतीयः खण्डः
नारायणाष्टाक्षरमन्त्रः "ॐ नमो नारायणाय" )
ओमित्यग्रे व्याहरेत् । नमो इति पश्चात् । नारायणायेत्युपरिष्टात् ।
ओमित्येकाक्षरम् । नमो इति द्वे अक्षरे । नारायणायेति पञ्चाक्षराणि ।
एतद्वै नारायणस्याष्टाक्षरं पदम् ।
यो ह वै नारायणस्याष्टाक्षरं पदमध्येति । अनपब्रुवस्सर्वमायुरेति ।
विन्दते प्राजापत्यं रायस्पोषं गौपत्यम् ।
ततोऽमृतत्वमश्नुते ततोऽमृतत्वमश्नुत इति । य एवं वेद ॥
एतत्सामवेदशिरोऽधीते ।।3।।
सर्वप्रथम “ॐ” इस प्रणव का उच्चारण करें, तत्पश्चात् “नमः” का, अन्त में “नारायणाय” पद का उच्चारण करें। ॐ यह एक अक्षर, नमः ये दो अक्षर नारायणाय यह पांच अक्षर हैं। “ॐ नमो नारायणाय” पद भगवान् नारायण का अष्टाक्षर मन्त्र है । निश्चय ही जो मनुष्य भगवान् नारायण के इस अष्टाक्षर मन्त्र का जप करता है, वह उत्तम कीर्ति से युक्त होकर सम्पूर्ण आयु तक जीवित रहता है। जीवों का आधिपत्य, धन की वृद्धि, गौ आदि पशुओं का स्वामित्व- ये सब भी उसे प्राप्त होते हैं। उसके बाद वह अमृतत्व को प्राप्त करता है, अमृतत्व को प्राप्त होता है (अर्थात् भगवान् नारायण के अमृतमय परमधाम में जाकर परमानन्द का अनुभव करता है ) । यह सामवेदीय श्रुति का वचन है ।
(चतुर्थः खण्डः
नारायणप्रणवः)
प्रत्यगानन्दं ब्रह्मपुरुषं प्रणवस्वरूपम् । अकार उकार मकार इति ।
तानेकधा समभरत्तदेतदोमिति ।
यमुक्त्वा मुच्यते योगी जन्मसंसारबन्धनात् ।
ॐ नमो नारायणायेति मन्त्रोपासकः । वैकुण्ठभुवनलोकं गमिष्यति ।
तदिदं परं पुण्डरीकं विज्ञानघनम् । तस्मात्तटिदाभमात्रम् ।
ब्रह्मण्यो देवकीपुत्रो ब्रह्मण्यो मधुसूदनः ।
ब्रह्मण्यः पुण्डरीकाक्षो ब्रह्मण्यो विष्णुरच्यत इति ।
सर्वभूतस्थमेकं नारायणम् । कारणरूपमकार परं ब्रह्म ॐ ।
एतदथर्वशिरोयोऽधीते ।।4।।
आत्मानन्दमय ब्रह्मपुरुष का स्वरूप प्रणव है; ‘अ’ ‘उ’ ‘म’- ये उसकी मात्राएँ हैं । ये अनेक हैं; इनका ही सम्मिलित रूप ‘ॐ’ इस प्रकार हुआ है । इस प्रणव का जप करके योगी जन्म-मृत्युरूप संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है । ‘ ॐ नमो नारायणाय’ इस मन्त्र की उपासना करने वाला साधक वैकुण्ठधाम में जाता है । वह वैकुण्ठधाम विज्ञानघन कमलवत् है; अतः इसका स्वरूप परम प्रकाशमय है। देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण ब्रह्मण्य (ब्राह्मणप्रिय) हैं । भगवान् मधुसूदन ब्रह्मण्य हैं । पुण्डरीक (कमल) के समान नेत्र वाले भगवान् विष्णु ब्रह्मण्य हैं। अच्युत ब्रह्मण्य हैं। सम्पूर्ण भूतों में स्थित एक नारायण ही कारण पुरुष हैं। वे ही कारण रहित परब्रह्म हैं। इस प्रकार अथर्ववेदीय श्रुति प्रतिपादित करती है।
विद्याऽध्ययनफलम् ।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति ।
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ।
तत्सायंप्रातरधीयानोऽपापो भवति ।
माध्यन्दिनमादित्याभिमुखोऽधीयानः
पञ्चमहापातकोपपातकात् प्रमुच्यते ।
सर्व वेद पारायण पुण्यं लभते ।
नारायणसायुज्यमवाप्नोति नारायण सायुज्यमवाप्नोति ।
य एवं वेद ।।5।। इत्युपनिषत् ॥
प्रातःकाल इस श्रुति का पाठ करने वाले साधक का रात्रिकाल में हुए पाप का नाश हो जाता है। सायंकाल में इसका पाठ करने वाला मनुष्य दिन में किये हुए पाप का नाश कर डालता है। सायंकाल और प्रातःकाल दोनों समय पाठ करने वाला साधक पूर्व का पापी हो तो भी निष्पाप हो जाता है। दोपहर के समय भगवान् सूर्य की ओर मुख करके पाठ करने वाला मानव पाँच महापातकों और उपपातकों से सर्वथा मुक्त हो जाता है। सम्पूर्ण वेदों के पाठ का पुण्यलाभ करता है। वह भगवान् श्रीनारायण का सायुज्य प्राप्त कर लेता है; जो इस प्रकार जानता है, वह श्रीमन्नारायण का सायुज्य प्राप्त कर लेता है ।
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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(चतुर्थः खण्डः
नारायणप्रणवः)
प्रत्यगानन्दं ब्रह्मपुरुषं प्रणवस्वरूपम् । अकार उकार मकार इति ।
तानेकधा समभरत्तदेतदोमिति ।
यमुक्त्वा मुच्यते योगी जन्मसंसारबन्धनात् ।
ॐ नमो नारायणायेति मन्त्रोपासकः । वैकुण्ठभुवनलोकं गमिष्यति ।
तदिदं परं पुण्डरीकं विज्ञानघनम् । तस्मात्तटिदाभमात्रम् ।
ब्रह्मण्यो देवकीपुत्रो ब्रह्मण्यो मधुसूदनः ।
ब्रह्मण्यः पुण्डरीकाक्षो ब्रह्मण्यो विष्णुरच्यत इति ।
सर्वभूतस्थमेकं नारायणम् । कारणरूपमकार परं ब्रह्म ॐ ।
एतदथर्वशिरोयोऽधीते ।।4।।