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नागपत्नी द्वारा किये गये इस स्तोत्र का जो त्रिकाल संध्या के समय पाठ करता है, वह सब पापों से मुक्त हो अन्ततोगत्वा श्रीहरि के धाम में चला जाता है। उसे इहलोक में श्रीहरि की भक्ति प्राप्त होती है और अन्त में वह निश्चय ही श्रीकृष्ण का दास्य-सुख पा जाता है। वह श्रीहरि का पार्षद हो सालोक्य आदि चतुर्विध मुक्तियों को करतलगत कर लेता है।
॥मूलपाठ ॥
॥ सुरसोवाच ॥
हे जगत्कान्त मे कान्तं देहि मानं च मानद ।
पतिः प्राणाधिकः स्त्रीणां नास्ति बन्धुश्च तत्परः ॥ १७ ॥
सुरसा बोली– हे जगदीश्वर! आप मुझे मेरे स्वामी को लौटा दीजिये। दूसरों को मान देने वाले प्रभो! मुझे भी दान दीजिये। स्त्रियों को पति प्राणों से भी बढ़कर प्रिय होता है। उनके लिये पति से बढ़कर दूसरा कोई बन्धु नहीं है ॥ १७ ॥
सकलभुवननाथ प्राणनाथं मदीयं
न कुरु वधमनन्त प्रेमसिन्धो सुबन्धो ।
अखिलभुवनबन्धो राधिकाप्रेमसिन्धो
पतिमिह कुरु दानं मे विधातुर्विधातः ॥ १८ ॥
नाथ! आप देवेश्वरों के भी स्वामी, अनन्त प्रेम के सागर, उत्तम बन्धु, सम्पूर्ण भुवनों के बान्धव तथा श्री राधिका जी के लिये प्रेम के समुद्र हैं। अतः मेरे प्राणनाथ को वध न कीजिये। आप विधाता के भी विधाता हैं। इसलिये यहाँ मुझे पतिदान दीजिये ॥ १८ ॥
त्रिनयनविधिशेषाः षण्मुखश्चास्यसंघैः
स्तवनविषयजाड्यात्स्तोतुमीशा न वाणी ।
खलु निखिलवेदाःस्तोतुमन्येऽपि देवाः
स्तवनविषयशक्ताः सन्ति सन्तस्तवैव ॥ १९ ॥
त्रिनेत्रधारी महादेव के पाँच मुख हैं; ब्रह्मा जी के चार और शेषनाग के सहस्र मुख हैं; कार्तिकेय के भी छः मुख हैं; परंतु ये लोग भी अपने मुख-समूहों द्वारा आपकी स्तुति करने में जड़वत हो जाते हैं। साक्षात सरस्वती भी आपका स्तवन करने में समर्थ नहीं हैं ॥ १९ ॥
कुमतिरहमधिज्ञा योषितां क्वाधमा वा
क्व भुवनगतिरीशश्चक्षुषोऽगोचराऽपि ।
विधिहरिहरशेषैः स्तूयमानश्च यस्त्वम
तनुमनुजमीशं स्तोतुमिच्छामि तं त्वाम् ॥ २० ॥
सम्पूर्ण वेद, अन्यान्य देवता तथा संत-महात्मा भी आपकी स्तुति के विषय में शक्तिहीनता का ही परिचय देते हैं। कहाँ तो मैं कुबुद्धि, अज्ञ एवं नारियों में अधम सर्पिणी और कहाँ सम्पूर्ण भुवनों के परम आश्रय तथा किसी के भी दृष्टिपथ में न आने वाले आप परमेश्वर! जिनकी स्तुति ब्रह्मा, विष्णु और शेषनाग करते हैं, उन मानव-वेषधारी आप नराकार परमेश्वर की स्तुति मैं करना चाहती हूँ, यह कैसी विडम्बना है? ॥ २० ॥
स्तवनविषयभीता पार्वती कस्य पद्मा श्रुति
गणजनयित्री स्तोतुमीशा न यं त्वाम् ।
कलिकलुषनिमग्ना वेदवेदाङ्गशास्त्र श्रवण
विषयमूढा स्तोतुमिच्छामि किं त्वाम् ॥ २१ ॥
पार्वती, लक्ष्मी तथा वेदजननी सावित्री जिनके स्तवन से डरती हैं और स्तुति करने में समर्थ नहीं हो पातीं; उन्हीं आप परमेश्वर का स्तवन कलिकलुष में निमग्न तथा वेद-वेदांग एवं शास्त्रों के श्रवण में मूढ़ स्त्री मैं क्यों करना चाहती हूँ, यह समझ में नहीं आता ॥ २१ ॥
शयानो रत्नपर्यङ्के रत्नभूषणभूषितः ।
रत्नभूषणभूषाङ्गो राधावक्षसि संस्थितः ॥ २२ ॥
आप रत्नमय पर्यंक पर रत्ननिर्मित भूषणों से भूषित हो शनय करते हैं। रत्नालंकारों से अलंकृत अंगवाली राधिका के वक्षःस्थल पर विराजमान होते हैं ॥ २२ ॥
चन्दनोक्षितसर्वाङ्गः स्मेराननसरोरुहः ।
प्रोद्यत्प्रेमरसाम्भोधौ निमग्नः सततं सुखात् ॥ २३ ॥
आपके सम्पूर्ण अंग चन्दन से चर्चित रहते हैं, मुखारविन्द पर मन्द मुस्कान की प्रभा फैली होती है। आप उमड़ते हुए प्रेमरस के महासागर में सदा सुख से निमग्न रहते हैं ॥ २३ ॥
मल्लिकामालतीमालाजालैः शोभितशेखरः ।
पारिजातप्रसूनानां गन्धामोदितमानसः ॥ २४ ॥
आपका मस्तक मल्लिका और मालती की मालाओं से सुशोभित होता है। आपका मानस नित्य निरन्तर पारिजात पुष्पों की सुगन्ध से आमोदित रहा करता है ॥ २४ ॥
पुंस्कोकिलकलध्वानैर्भ्रमरध्वनिसंयुतैः ।
कुसुमेषु विकारेण पुलकाङ्कितविग्रहः ॥ २५ ॥
कोकिल के कलरव तथा भ्रमरों के गुंजारव से उद्दीपित प्रेम के कारण आपके अंग उठी हुई पुलकावलियों से अलंकृत रहते हैं ॥ २५ ॥
प्रियाप्रदत्तताम्बूलं भुक्तवान्यः सदा मुदा ।
वेदा अशक्ता यं स्तोतुं जडीभूता विचक्षणाः ॥ २६ ॥
जो सदा प्रियतमा के दिये हुए ताम्बूल का सानन्द चर्वण करते हैं; वेद भी जिनकी स्तुति करने में असमर्थ हैं तथा बड़े-बड़े विद्वान भी जिनके स्तवन में जड़वत हो जाते हैं ॥ २६ ॥
तमनिर्वचनीयं च किं स्तौमि नागवल्लभा ।
वन्देऽहं त्वत्पदाम्भोजं ब्रह्मेशशेषसेवितम् ॥ २७ ॥
उन्हीं अनिर्वचनीय परमेश्वर का स्तवन मुझ-जैसी नागिन क्या कर सकती है? मैं तो आपके उन चरणकमलों की वन्दना करती हूँ, जिनका सेवन ब्रह्मा, शिव और शेष करते हैं ॥ २७ ॥
लक्ष्मीसरस्वतीदुर्गा जाह्नवी वेदमातृभिः ।
सेवितं सिद्धसंघैश्च मुनीन्द्रैर्मनुभिः सदा ॥ २८ ॥
जिनकी सेवा सदा लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, गंगा, वेदमाता सावित्री, सिद्धों के समुदाय, मुनीन्द्र और मनु करते हैं ॥ २८ ॥
निष्कारणायाखिलकारणाय
सर्वेश्वरायापि परात्पराय ।
स्वयंप्रकाशाय परावराय
परावराणामधिपाय ते नमः ॥ २९ ॥
आप स्वयं कारणरहित हैं, किंतु सबके कारण आप ही हैं। सर्वेश्वर होते हुए भी परात्पर हैं स्वयंप्रकाश, कार्य-कारणस्वरूप तथा उन कार्य-कारणों के भी अधिपति हैं। आपको मेरा नमस्कार है ॥ २९ ॥
हे कृष्ण हे कृष्ण सुरासुरेश
ब्रह्मेश शेषेश प्रजापतीश ।
मुनीश मन्वीश चराचरेश
सिद्धीश सिद्धेश गणेश पाहि ॥ ३० ॥
हे श्रीकृष्ण! हे सच्चिदानन्दघन! हे सुरासुरेश्वर! आप ब्रह्मा, शिव, शेषनाग, प्रजापति, मुनि, मनु, चराचर प्राणी, अणिमा आदि सिद्धि, सिद्ध तथा गुणों के भी स्वामी हैं ॥ ३० ॥
धर्मेश धर्मीश शुभाशुभेश
वेदेश वेदेष्वनिरूपितश्च ।
सर्वेश सर्वात्मक सर्वबन्धो
जीवीश जीवेश्वर पाहि मत्प्रभुम् ॥ ३१ ॥
मेरे पति की रक्षा कीजिये, आप धर्म और धर्मी के तथा शुभ और अशुभ के भी स्वामी हैं। सम्पूर्ण वेदों के स्वामी होते हुए भी उन वेदों का आपका अच्छी तरह निरूपण नहीं हो सका है। सर्वेश्वर! आप सर्वस्वरूप तथा सबके बन्धु हैं। जीवधारियों तथा जीवों के भी स्वामी हैं। अतः मेरे पति की रक्षा कीजिये ॥ ३१ ॥
इत्येवं स्तवनं कृत्वा भक्तिनम्रात्मकन्धरा ।
विधृत्य चरणाम्भोजं तस्थौ नागेशवल्लभा ॥ ३२ ॥
इस प्रकार स्तुति करके नागराजवल्लभा सुरसा भक्तिभाव से मस्तक झुका श्रीकृष्ण के चरणकमलों को पकड़कर बैठ गयी ॥ ३२ ॥
नागपत्नीकृतं स्तोत्रं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः ।
सर्वपापात्प्रमुक्तस्तु यात्यन्ते श्रीहरेः पदम् ॥ ३३ ॥
नागपत्नी द्वारा किये गये इस स्तोत्र का जो त्रिकाल संध्या के समय पाठ करता है, वह सब पापों से मुक्त हो अन्ततोगत्वा श्रीहरि के धाम में चला जाता है ॥ ३३ ॥
इह लोके हरेर्भक्तिमन्ते दास्यं लभेद्ध्रुवम् ।
लभते पार्षदो भूत्वा सालोक्यादिचतुष्टयम् ॥ ३४ ॥
उसे इहलोक में श्रीहरि की भक्ति प्राप्त होती है और अन्त में वह निश्चय ही श्रीकृष्ण का दास्य-सुख पा जाता है। वह श्रीहरि का पार्षद हो सालोक्य आदि चतुर्विध मुक्तियों को करतलगत कर लेता है ॥ ३४ ॥
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