मुकुंदमाला स्तोत्र

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मुकुंदमाला स्तोत्र

 

 

 

 

राजा कुलशेखर भगवान के परम भक्तों में एक हैं । वे भगवान विष्णु की दिव्य प्रियतमा , श्री के द्वारा प्रस्थापित वैष्णव संप्रदाय , श्री संप्रदाय से जुड़े थे । राजा कुलशेखर द्वारा रचित मुकुन्दमाला स्तोत्र – परम ईश्वर भगवान कृष्ण , उनके भक्तों और उनकी लीलाओं के पवित्र स्थलों के गुणगान में लिखे गए गीतों का एक सर्वाधिक प्रसिद्ध स्तोत्र है । राजा कुलशेखर ने भगवान कृष्ण की प्रसन्नता के लिए श्लोकों की माला के रूप में इस ग्रन्थ की कल्पना की थी । यह समस्त वैष्णव सम्प्रदायों के लिए दीर्घकाल से अत्यंत प्रिय ग्रन्थ रहा है । एक बार जब राजा कुलशेखर अपने महल के कक्ष में सो रहे थे तो उन्हें भगवान कृष्ण का तेजोमय तथा स्पष्ट दर्शन हुआ । जागने पर वे भक्तिवश समाधिस्थ हो गए और उन्हें यह पता ही नहीं चला कि सुबह कब हो गयी ? राजकीय गायक और मंत्रीगण सदा की भांति उन्हें जगाने के लिए उनकी ड्योढ़ी पर आये किन्तु कुछ समय तक प्रतीक्षा करने पर कोई उत्तर न पाकर अनिच्छा से उनके कक्ष में प्रवेश करने का साहस जुटाया । तब राजा की समाधि टूटी और उन्होंने उन सभी को अपने कृष्ण दर्शन की बात बताई । उसी दिन से उनकी शासन करने की रूचि घटती गई । उन्होंने अपना अदिकांश उत्तरदायित्व मंत्रियों को सौंप दिया और स्वयं भगवान की भक्ति में लग गए । कुछ वर्षों बाद उन्होंने सिंहासन त्याग दिया और श्रीरंगम चले गए , जहाँ वे रंगनाथ के कृष्ण अर्चाविग्रह और उनके उत्कृष्ट भक्तों की संगती में रहते रहे । मुकुंद माला स्तोत्र कृष्ण के प्रति राजा कुलशेखर की सहज भक्ति और अन्य सभी के साथ अपने सौभाग्य को बाँटने की उत्सुकता है ।

 

 

 

Mukund Mala Stotra

 

 

 

श्रीवल्ल्भेति वरदेति दयापरेति

भक्त प्रियेति भवलुण्ठन कोविदेति ।

नाथेति नाग शयनेति जगन्निवासे

त्यालापिनं प्रतिदिनं कुरु मां मुकुंद ।।1।।

 

हे मेरे स्वामी मुकुंद ! कृपा कर के आप मुझे अपने नामों का निरंतर कीर्तन करने वाला बनने दीजिये , जिससे मैं आपको इस तरह सम्बोधित कर सकूं – श्रीवल्लभ ( जो लक्ष्मी को अत्यंत प्रिय हैं ) , वरद ( जो वर देने वाले हैं ) , दयापर ( जो अहैतुक रूप से दयालु हैं ) , भक्तप्रिय ( जो अपने भक्तों को अति प्रिय हैं ) , भव – लुंठन – कोविद ( जो जन्म – मृत्यु के चक्कर को समाप्त करने में दक्ष हैं ) , नाथ ( परमेश्वर ) , जगन्निवास ( ब्रह्माण्ड के आश्रय ) तथा नाग – शयन ( नाग शय्या पर लेटने वाले ) 1

 

जयतु जयतु देवो देवकीनन्दनोअयं

जयतु जयतु कृष्णो वृष्णिवंशप्रदीपः ।

जयतु जयतु मेघश्यामलः कोमलाङ्गो

जयतु जयतु पृथ्वीभारनाशो मुकुन्दः ।।2।।

 

श्रीमती देवकी देवी के पुत्र के रूप में विख्यात पुरुषोत्तम भगवान् की जय हो । वृष्णि वंश के उज्जवल प्रकाश भगवन कृष्ण की जय हो । उन भगवन की जय हो , जिनके कोमल शरीर का रंग नवीन बादल के श्यामल वर्ण जैसा है । उन भगवन मुकुंद की जय हो , जो पृथ्वी के भार को हटाने वाले हैं । 2

 

मुकुंद मूध्-र्ना प्रणिपत्य याचे 

भवन्तमेकान्तमियन्तमर्थम् ।

अविस्मृतिस्त्वच्चरणारविन्दे

भावे भावे मे अस्तु भवत्प्रसादात।।3।।

 

हे भगवान् मुकुंद ! मैं आपके समक्ष नतमस्तक हूँ और आपसे आदरपूर्वक याचना करता हूँ कि आप मेरी इस एक इच्छा को पूरा करें कि मैं अपने प्रत्येक भावी जन्म में आपके चरणकमलों का सदा ही स्मरण करता रहूँ और उन्हें कभी न भूलूँ। 3

 

नाहं वन्दे तव चरणयोर्द्वन्द्वमद्वंद्वहेतोः

कुम्भीपाकं गुरुमपि हरे नारकं नापनेतुं।

रम्यारामामृदुतनुलता नंदने नापि रन्तुं

भावे भावे ह्रदयभवने भावयेयं भवन्तं।।4।।

 

हे भगवान् हरि ! मैं न तो भौतिक संसार के द्वैतों से , न ही कुम्भीपाक नरक के दारुण कष्टों से अपने आपको बचाये जाने के लिए आपके चरण कमलों की वंदना कर रहा हूँ । न ही मेरा उद्देश्य नंदनकानन में निवास करने वाली कोमल त्वचा वाली सुंदरियों का भोग करना है । मैं तो आपके चरणकमलों पर इसलिए प्रार्थना करता हूँ कि मैं जन्म – जन्मांतर अपने ह्रदय के अन्तर्भाग में एकमात्र आपका स्मरण कर सकूं । 4

 

नास्था धर्मे न वसुनिचये नैव कामोपभोगे

यद्भाव्यं तद्भवतु भगवन्पूर्वकर्मानुरूपं।

एतत्प्रार्थ्यं मम बहु मतं जन्मजन्मान्तरे अपि

त्वत्पादाम्भोरूहयुगगता निश्चला भक्तिरस्तु ।।5।।

 

हे प्रभु ! मेरी अनुरक्ति न तो धर्म में है , न ही धन संचय करने में और न ही इन्द्रिय तृप्ति में । ये सब मेरे विगत कर्मो के अनुसार अनिवार्यतः आते हैं , तो आएं किन्तु मैं इस अत्यंत मनवांछित वरदान के लिए प्रार्थना करता हूँ कि जन्म – जन्मांतर आप मुझे अपने दोनों चरण कमलों की अचल भक्ति संपन्न करने दें । 5

 

दिवि वा भुवि वा ममास्तु वासो

नरके वा नरकान्ताक प्रकामं।

अवधीरित शारदार विन्दौ

चरणौ ते मरणे अपि चिन्तयामि ।।6।।

 

नरकासुर का वध करने वाले हे प्रभु ! आप जहाँ भी चाहें – देवलोक , मनुष्यलोक या नरक में – मुझे निवास दें । मेरी एकमात्र यही विनती है कि मृत्यु के समय मैं आपके उन युगल चरणकमलों का स्मरण कर सकूं , जिनका सौंदर्य शरत्कालीन कमल को चुनौती देने वाला है ।6।

 

 

Mukundamala Stotra

 

 

चिन्तयामि हरिमेव सन्ततं

मंदहासमुदिताननाम्बुजं।

नन्दगोपतनयं परात्परं

नारदादिमुनिवृन्दवंदितं ।।7।।

 

मैं सदैव भगवान् हरि का चिंतन करता हूँ , जिनके कमल समान प्रसन्न मुखमण्डल में मृदु मुस्कान बनी रहती है । यद्यपि वे नन्द गोप के पुत्र हैं , वे परम पूर्ण सत्य भी हैं , जो नारद जैसे महान मुनियों द्वारा पूजित हैं । 7

 

करचरणसरोजे कांतिमन्नेत्रमीने

श्रममुषि भुजवीचिव्याकुले अगाधमार्गे ।

हरिसरसि विगाह्यापीय तेजोजलौघं

भवमरूपरिखिन्नः क्लेशमद्य त्यजामि ।।8।।

 

भौतिक अस्तित्व रुपी मरुस्थल ने मुझे थका दिया है किन्तु आज मैं भगवान् हरि रुपी झील में गोता लगाकर और उनके तेज रुपी अगाध जल का मुक्त भाव से पान करके सारे कष्टों को एक ओर फेंक दूंगा । भगवान् के हाथ पाँव उस झील में खिले कमल हैं और उनकी चमकीली आँखें मछलियाँ हैं । उस झील का जल समस्त थकान को मिटाने वाला है और वह भगवान् के हाथों द्वारा उत्पन्न लहरों से उद्वेलित रहता है । उसकी धारा अथाह गहरी बहती है । 8

 

सरसिजनयने सशङ्खचक्रे

मुरभिदि मा विरमस्व चित्त रन्तुम ।

सुखतरमपरं न जातु जाने 

हरिचरणस्मरणामृतेन तुल्यं।।9।।

 

हे मन ! तुम उन कमल सदृश नेत्र वाले तथा शंख एवं चक्र धारण करने वाले मुर राक्षस के संहारक के विषय में चिंतन करने से मिलने वाले आनंद को प्राप्त करने से कभी रुकना नहीं । वस्तुतः मुझे अन्य ऐसी कोई वस्तु ज्ञात नहीं है , जो भगवान् हरि के दैवी चरणों का ध्यान करने जैसा अगाध आनंद देने वाली हो । 9

 

माभीर्मन्दमनो विचिन्त्य बहुधा यामीश्चिरं यातना 

नैवामी प्रभवन्ति पापरिपवः स्वामी ननु श्रीधरः ।

आलस्यं व्यपनीय भक्तिसुलभं ध्यायस्व नारायणं

लोकस्य व्यसनापनोदनकरो दासस्य किं न क्षमः ।।10।।

 

अरे मूर्ख मन ! तुम यमराज द्वारा दी जाने वाली यातनाओं के बारे में बार बार सोचना बंद करो । तुम्हारे शत्रु , जो तुम्हारे द्वारा किये गए पापों के कर्मफल हैं , भला तुम्हें कैसे छू सकते हैं ? क्या तुम्हारे स्वामी परमेश्वर नहीं हैं , जो लक्ष्मी देवी के पति हैं ? तुम सारा संकोच दूर करके अपने विचारों को उन भगवन नारायण पर एकाग्र करो , जिन्हें भक्तिमय सेवा द्वारा आसानी से प्राप्त किये जा सकते हैं । सम्पूर्ण संसार के कष्टों को दूर करने वाले भला अपने दास के लिए क्या नहीं कर सकते ? 10

 

भवजलधिगतानां द्वन्द्ववाताहतानां

सुतदुहितृ कलत्र त्राण भारार्दितानां।

विषमविषयतोये मज्जतामप्लवानां

भवति शरणमेको विष्णुपोतो नराणां।।11।।

 

जन्म – मृत्यु के इस विस्तृत सागर में भौतिक द्वंद्वों के झोंके लोगों को उड़ाए ले जा रहे हैं । जब वे इन्द्रियलिप्तता के विषम जल में थपेड़े खाते रहते हैं और उनकी सहायता के लिए कोई नाव नहीं रहती , तो वे अपने पुत्रों , पुत्रियों तथा पत्नियों को बचाने की आवश्यकता के कारण अत्यंत दुःखी रहते हैं । उन्हें केवल विष्णु रुपी नाव ही बचा सकती है । 11

 

भवजलधिमगाधं दुस्तरं निस्तरेयं

कथमहमिति चेतो मा स्म गाः कातरत्वं।

सरसिजदृशि देवे तारकी भक्तिरेका 

नरकाभिदि निषण्णा तारयिष्यत्यवश्यं।।12।।

 

हे मन ! तुम यह सोच कर मत व्यग्र हो कि मैं इस भौतिक अस्तित्व वाले संसार रुपी अगाध तथा दुर्लंघ्य सागर को कैसे पार कर सकूंगा ? तुम्हें यदि कोई बचा सकता है , तो वह भक्ति है । यदि तुम इस भक्ति को नरकासुर के विनाशकर्ता कमलनयन भगवान को अर्पित कर सको , तो यह भक्ति तुम्हें निश्चित रूप से समुद्र के उस पार ले जाएगी । 12 

 

 

Mukunda Mala Stotra

 

 

तृष्णातोये मदनपवनोद्धूतमोहोर्मिमाले  

दारावर्ते तनयसहजग्राहसङ्घाकुले च ।

संसाराख्ये महति जलधौ मज्जतां नस्रिधामन्

पादाम्भोजे वरद भवतो भक्तिनावं प्रयच्छ ।।13।।

 

हे तीनों लोकों के स्वामी ! हम इस संसार रुपी अगाध सागर में डूब रहे हैं , जो भौतिक लालसाओं रुपी जल से भरा हुआ है , जिसमें मोह रुपी अनेक लहरें उठ रही हैं , जो वासना रुपी हवाओं के द्वारा विलोड़ित है । इस सागर में पत्नी रुपी भंवर है और हमारे पुत्र तथा भ्राता रुपी शार्कों तथा अन्य समुद्री दैत्यों के विशाल झुण्ड हैं । हे समस्त वरों के दाता ! कृपा करके अपने चरणकमल रुपी भक्ति की नाव पर मुझे स्थान दें । 13

 

पृथ्वी रेणुरणुः पयांसि कणिकाः फल्गुः स्फुलिङ्गो लघु –

स्तेजो निःश्वसनं मरुत्तनुतरं रन्ध्रं सुसूक्ष्मं नभः ।

क्षुद्रा रूद्रपितामहप्रभृतयः कीटाः समस्ताः सुरा

दृष्टि यत्र स तारको विजयते श्रीपादधूलीकणः।।14।।

 

एक बार अपने रक्षक के दर्शन पा लेने के बाद सारी पृथ्वी धूलकण सदृश बन जाती है , समुद्र का सारा जल मात्र बूँदें बन जाता है , अग्नि क्षुद्र चिंगारी बन जाती है , वायु हल्की आह बन कर रह जाती है और विस्तृत आकाश एक लघु छिद्र बन जाता है । रूद्र तथा पितामह ब्रह्मा जैसे महान देवता तुच्छ बन जाते हैं और सारे देवता छोटे छोटे कीटों के समान लगने लगते हैं । निःसंदेह , अपने प्रभु के चरणों की धूल का एक कण सभी को जीत लेता है । 14

 

हे लोकाः शृणुत प्रसूतिमरणव्याधेश्चिकित्सामिमां

योगज्ञाः समुदाहरन्ति मुनयो यां याज्ञवल्क्यादयः।

अंतर्ज्योतिरमेयमेकममृतं कृष्णाख्यमापीयतां

तत्पीतं परमौषधं वितनुते निर्वाणमात्यन्तिकम्।।15।।

 

अरे लोगों ! जन्म और मृत्यु के रोग के लिए यह उपचार सुनो । यह कृष्ण का नाम है । इसकी संस्तुति याज्ञवल्क्य तथा अन्य ज्ञानी पटु योगियों ने की है । यह असीम नित्य आंतरिक प्रकाश सर्वश्रेष्ठ औषधि है , क्योंकि पीने पर यह पूर्ण तथा चरम मोक्ष देने वाली है । जरा इसे पियो तो । 15

 

हे मर्त्याः परमं हितं शृणुत वो वक्ष्यामि संक्षेपतः

संसारार्णवमापदूर्मिबहुलं सम्यक्प्रविश्य स्थिताः ।

नानाज्ञानमपास्य चेतसि नमो नारायणायेत्यमुं

मन्त्रं सप्रणवं प्रणामसहितं प्रावर्त्यध्वं मुहुः ।।16।।

 

हे मरणशील मनुष्यों , तुम लोगों ने अपने आपको संसार – सागर में पूर्णतया डुबो कर रखा है , जो विपत्ति रुपी लहरों से पूरित है । कृपया सुनो , जैसे मैं तुम लोगों को संक्षेप में बता रहा हूँ कि अपने परम लाभ को किस तरह प्राप्त किया जाये । तुम लोग ज्ञान प्राप्त करने के विविध प्रयासों को ताक में रख कर ॐ नमो नारायणाय मंत्र का निरंतर जप करना तथा भगवान को सिर झुका कर प्रणाम करना प्रारम्भ कर दो । 16

 

नाथे नः पुरुषोत्तमे त्रिजगतामेकाधिपे चेतसा 

सेव्ये स्वस्य पदस्य दातरि परे नारायणे तिष्ठति ।

यं कञ्चितपुरुषाधमं कतिपयग्रामेशमाल्पार्थदं 

सेवायै मृगयामहे नरमहो मूढा वराका वयं ।।17।।

 

हमारे स्वामी भगवान् नारायण , जो अकेले तीनों लोकों में शासन करते हैं , जिनकी सेवा ध्यान में की जा सकती है और जो अपने निजी धाम में प्रसन्नतापूर्वक सबों को स्थान देते हैं , वे हमारे समक्ष प्रकट हैं । फिर भी हम कुछ गाँवों के किसी छोटे स्वामी की , ऐसे निम्न पुरुष की , जो हमे छोटा पुरुस्कार दे सकता है , सेवा करने की याचना करते हैं । हाय ! हम कितने मूढ़ हैं ! 17

 

 

SHri Mukund Mala Stotram with hindi meaning

 

 

बद्धेनाञ्जलिना नतेन शिरसा गात्रैः सरोमोद्गमैः 

कण्ठेन स्वरगद्गदेन नयनेनोद्गीर्णबाष्पाम्बुना ।

नित्यं त्वच्चरणारविन्दयुगलध्यानामृतास्वादिना-

मस्माकं सरसीरुहाक्ष सततं सम्पद्यतां जीवितं ।।18।।

 

हे कमलनयन भगवान् ! कृपया हमारे जीवन का भरण – पोषण करें , क्योंकि हम आपके चरण कमलों के ध्यान रुपी अमृत का निरंतर आस्वाद ले रहे हैं ; हमारी हथेलियां स्तुति के लिए जुडी हुई हैं , हम नतमस्तक हैं , हर्ष में हमारे शरीर के सारे रोम खड़े हैं , भावुकता से हमारी वाणी रुद्ध है और हमारे नेत्रों से आंसू बह रहे हैं । 18

 

यत्कृष्णप्रणिपातधूलिधवलं तद्वर्ष्म तद्वै शिरस्ते 

नेत्रे तमसोज्झिते सुरुचिरे याभ्यां हरिर्दृश्यते ।

सा बुद्धिर्विमलेन्दुशङ्खधवला या माधवध्यायिनी 

साजिह्वामृतवर्षिणी प्रतिपदं या स्तौति नारायणं ।।19।।

 

जो सिर भगवान कृष्ण के सामने झुकने से लगी धूल से धवल है , वही सर्वोच्च है । वे आँखें सर्वाधिक सुन्दर हैं , जिन्होंने भगवान हरि का दर्शन करने के बाद अंधकार को त्याग दिया है । वह बुद्धि जो भगवान् माधव पर एकाग्र रहती है , वह उसी तरह विमल है , जिस तरह चन्द्रमा या शङ्ख का उज्जवल तेज होता है और वह जीभ अमृत वर्षा करती है , जो निरंतर भगवान् नारायण की महिमा का गान करती है । 19 

 

जिह्वे कीर्तय केशवं मुररिपुं चेतो भज श्रीधरं

पाणिद्वन्द्व समर्चायाच्युतकथाः श्रोत्रद्वय त्वं श्रणु ।

कृष्णं लोकय लोचनद्वय हरेर्गच्छाङ्घ्रियुग्मालयं 

जिघ्र घ्राण मुकुन्दपादतुलसीं मूर्धन्नमाधोक्षजं।।20।।

 

हे जीभ , तुम भगवान् केशव के यश का गुणगान करो । हे मन , तुम मुर के शत्रु की पूजा करो । हे हाथों , तुम श्रीपति की सेवा करो । हे कानों , तुम भगवान अच्युत की कथाएं सुनो । हे आँखों , तुम श्रीकृष्ण को निहारो । हे पांवों , तुम भगवान हरि के मंदिर जाओ । हे नाक , तुम भगवान मुकुंद के चरणों पर चढ़ी तुलसी मंजरियों को सूँघो । हे सिर , तुम भगवान अधोक्षज को नमन करो । 20

 

आम्नायाभ्यासनान्यरण्यरुदितं वेद वृतान्यन्वहं

मेदश्छेदफलानि पूर्तविधयः सर्वं हुतं भस्मनि।

तीर्थानामवगाहनानि च गजस्नानं विना यत्पद-

द्वन्द्वाम्भोरूहसंस्मृति विजयते देवः स नारायणः ।।21।।

 

भगवान् नारायण की जय हो ! उनके चरणकमलों के स्मरण के बिना शास्त्रों का पाठ यों ही अरण्यरोदन जैसा है , वेदों द्वारा आदिष्ट कठिन व्रतों का नियमित रूप से पालन करना शरीर का मोटापा कम करने की विधि के अलावा और कुछ नहीं है । निर्दिष्ट पुण्य कर्मों को संपन्न करना मानो राख में आहुतियां डालना है और विभिन्न पवित्र स्थानों में स्नान करना गजस्नान के समान है । 21

 

मदन परिहर स्थितिं मदीये

मनसि मुकुंद पदारविन्दधाम्नि।

हरनयनकृशानुना कृशो असि

स्मरसि न चक्रपराक्रमं मुरारेः।।22।।

 

हे कामदेव ! तुम मेरे मन में बने अपने आवास को छोड़ दो , क्योंकि अब वह भगवान मुकुंद के चरणकमलों का निवासस्थान है । तुम पहले ही शिव की प्रचंड चितवन से भस्म किये जा चुके हो , तो फिर तुम भगवान मुरारी के चक्र की शक्ति को क्यों भूल गए ? 22 

 

नाधे धातरि भोगिभोगशयने नारायणे माधवे

देवे देवकिनन्दने सुरवरे चक्रायुधे शार्ङ्गिणी।

लीलाशेषजगत्प्रपंचजठरे विश्वेश्वरे श्रीधरे

गोविन्दे कुरु चित्तवृत्तिमचलामन्यैस्तु किं वर्तनैः।।23।।

 

हे मनुष्यों , अपने एकमात्र स्वामी तथा पालनकर्ता भगवान का चिंतन करो , जो नारायण तथा माधव कहलाते हैं और जो अनंत नाग के शरीर पर शयन करते हैं । वे देवकी के लाड़ले पुत्र , देवताओं के नायक तथा गौओं के स्वामी हैं । वे शङ्ख तथा शार्ङ्ग धनुष धारण करते हैं । वे लक्ष्मी के पति हैं तथा उन समस्त ब्रह्माण्डों के नियंता हैं , जिन्हें लीला के रूप में वे अपने उदार से प्रकट करते हैं । तुम उनके अतिरिक्त अन्य किसी के बारे में सोचकर क्या पाओगे ? 23

 

मा द्राक्षं क्षीण पुण्यान् – क्षणमपि भवतो भक्तिहीनान् – पदाब्जे  

मा श्रौषं श्राव्यबन्धं तव चरितमपास्यान्यदाख्यानजातम्

मा स्मार्षं माधव त्वामपि भुवनपते चेतसापह्नवानान्।

मा भूवं त्वत्सपर्याव्यतिकररहितो जन्मजन्मान्तरे अपि।।24।।

 

हे माधव , आप उन लोगों पर मेरी दृष्टि भी न जाने दें , जिनके पुण्यकर्म इतने क्षीण हो चुके हैं कि उन्हें आपके चरणकमलों में कोई अनुरक्ति नहीं है । कृपया आप मुझे अपनी लीलाओं के बारे में सुनने से ध्यान न हटाने दें , जिससे कि मैं अन्य कथाओं में रूचि लेने लगूँ। हे ब्रह्माण्ड के स्वामी ! मैं उन लोगों पर ध्यान न दूँ , जो आपके विषय में चिंतन करने से दूर रहना चाहते हैं और आप मुझे कभी भी जन्म – जन्मांतर अपनी तुच्छ से भी तुच्छ सेवा करने में असमर्थ न बनने दें । 24

 

 

मुकुंद माला स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित

 

 

मज्जन्मनः फलमिदं मधुकैटभारे

मत्प्रार्थनीयमदनुग्रह एष एव।

त्वद्भृत्यभृत्यपरिचारकभृत्यभृत्य-

भृत्यस्य भृत्य इति मां स्मर लोकनाथ ।।25।।

 

हे मधु और कैटभ के शत्रु , हे ब्रह्माण्ड के स्वामी , मेरे जीवन की पूर्णता तथा मुझ पर आप जो सर्वाधिक अभिलिषित दया दिखा सकते हैं , वह यही होगी कि आप मुझे अपने दास के दास के दास के दास के दास के दास का दास मानें । 25

 

तत्त्वं ब्रुवाणानि परं परस्तान्

मधु क्षरन्तीव मुदावहानि।

प्रावर्तय प्राभलिरस्मि जिह्वे 

नामानि नारायण गोचराणि।।26।।

 

मेरी प्रिय जीभ , मैं हाथ जोड़कर तुम्हारे सम्मुख खड़ा हूँ और तुम से भगवान नारायण के नाम गाकर सुनाने के लिए प्रार्थना करता हूँ । परम पूर्ण सत्य का बखान करने वाले ये नाम अति आनंद प्रदान करते हैं , मानो उनसे शहद टपक रहा हो । 26

 

नमामि नारायणपादपङ्कजं

करोमि नारायणपूजनं सदा 

वदामि नारायणनामनिर्मलं 

स्मरामि नारायणतत्त्वमव्ययम्।।27।।

 

मैं प्रतिक्षण शीश झुका कर नारायण के चरणकमलों को नमस्कार करता हूँ , नारायण की पूजा करता हूँ । मैं नारायण के शुद्ध नाम का उच्चारण करता हूँ और नारायण रुपी अचूक परम सत्य का ध्यान करता हूँ । 27

 

श्रीनाथ नारायण वासुदेव 

श्रीकृष्ण भक्तप्रिय चक्रपाणे ।

श्रीपद्मनाभाच्युत कैटभारे 

श्रीराम पद्माक्ष हरे मुरारे ।।28।।

 

अनंत वैकुण्ठ मुकुंद कृष्ण 

गोविन्द दामोदर माधवेति ।

वक्तुं समर्थो अपि न वक्ति कश्चिद् 

अहो जनानां व्यसनाभिमुख्यम् ।। 29

 

हे श्रीनाथ , नारायण , वासुदेव , दिव्य कृष्ण ! हे अपने भक्तों के दयालु मित्र ! हे चक्रपाणि , पद्मनाभ , अच्युत , कैटभारि , राम , पद्माक्ष , हरि , मुरारि ! हे अनंत , वैकुण्ठ , मुकुंद , कृष्ण , गोविन्द , दामोदर , माधव ! यद्यपि सारे लोग आपको ( यों ) पुकार सकते हैं किन्तु वे चुप रहते हैं । देखो न , वे अपने ही संकट के लिए कैसे उत्सुक हैं ! 29

 

भक्तापायभुजाङ्गगारूडमणिस्त्रैलोक्यरक्षामणिर्गोपी

लोचनचातकाम्बुदमणिः सौंदर्यमुद्रामणिः।

यः कान्तामणिरुक्मिणीघनकुचद्वन्द्वैकभूषामणिः

श्रेयो देवशिखामणिर्दिशतु नो गोपालचूड़ामणिः ।।30।।

 

अपने पंखों पर भगवद्भक्तों को ले जाने वाले गरुड़ की पीठ पर सवार वे ( कृष्ण ) मणि हैं । वे वह चमत्कारी मणि हैं , जो तीनों लोकों की रक्षा करने वाला है । वे मणि सदृश बादल हैं , जो गोपियों के चातक ( पपीहा ) सदृश नेत्रों को आकृष्ट करने वाले हैं और वे उन सबों के बीच मानितुल्य हैं , जो बहुत ही भद्रता पूर्वक भावभंगिमा दिखते हैं । वे उन महारानी रुक्मिणी के विपुल स्तनों पर एकमात्र मणिजटित आभूषण हैं , जो स्वयं ही प्रेयसियों की मणिरूपा हैं । समस्त देवताओं के चूड़ामणि स्वरूप , गोपों में सर्वश्रेष्ठ , वे हमें परम आशीष प्रदान करें । 30

 

शत्रुच्छेदैकमन्त्रं सकलमुपनिषद्वाक्यसम्पूज्यमन्त्रं 

संसारोच्छेदमन्त्रं समुचिततमसः सङ्घ निर्याण मन्त्रम्।

सर्वेश्वर्यैकमन्त्रं व्यसनभुजगसन्दष्टसंत्राणमन्त्रं  

जिह्वे श्रीकृष्णमन्त्रं जप जप सततं जन्म साफल्य मन्त्रम्।।31।।

 

हे जीभ , तुम कृपया श्रीकृष्ण के नामों से रचे गए मंत्र का निरंतर जप करो । यह समस्त शत्रुओं का विनाश करने के लिए एकमात्र मंत्र है । यह मंत्र उपनिषदों के प्रत्येक शब्द द्वारा पूजित है , यह मंत्र संसार को समूल नष्ट करता है , यह मंत्र अज्ञान के सारे अंधकार को भगाता है । यह अनंत ऐश्वर्य प्राप्त करने , सांसारिक क्लेश रुपी विषैले सांप द्वारा डसे गए लोगों को अच्छा करने और इस संसार में जन्म को सफल  बनाने वाला मंत्र है । 31 

 

 

राजा कुलशेखर द्वारा रचित मुकुंद माला स्तोत्र

 

 

व्यामोहप्रशमौषधं मुनिमनोवृत्तिप्रवृत्त्यौषधं

दैत्येन्द्रार्तिकरौषधं त्रिभुवने संजीवनैकौषधम्।

भक्तात्यन्तहितौषधं भव भय प्रध्वंसनैकौषधं

श्रेयःप्राप्तिकरौषधं पिबः मनः श्रीकृष्णदिव्यौषधम्।।32।। 

 

मेरे मन ! तुम कृपया श्रीकृष्ण की महिमा रुपी दिव्य औषधि का पान करो । यह मोह रुपी रोग को ठीक करने , मुनियों को अपने मन को ध्यान में लीन करने के लिए प्रोत्साहित करने तथा बलशाली दैत्यों को यातना देने के लिए परिपूर्ण औषधि है । यह तीनों लोकों को पुनः जीवनदान देने और भगवान के भक्तों को असीम वर प्रदान करने के लिए एकमात्र औषधि है । वस्तुतः यह एकमात्र औषधि है , जो किसी के भी भौतिक अस्तित्व के भय को नष्ट कर सकती है तथा उसे परम कल्याण की प्राप्ति करा सकती है । 32

 

कृष्ण त्वदीयपदपङ्कजञ्चरान्त-

मद्यैव मे विशतु मानसराजहंसः।

प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः 

कण्ठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते ।।33।।

 

हे भगवान कृष्ण , इस समय मेरे मन रुपी राजहंस को अपने चरणकमल के डंठल के जाल में प्रवेश करने दें । मृत्यु के समय जब मेरा गला कफ , वात तथा पित्त से अवरुद्ध हो जायेगा , तब मेरे लिए आपका स्मरण करना कैसे संभव हो सकेगा ? 33

 

चेतश्चिन्तय कीर्तयस्व रसने नम्रीभव त्वं शिरो 

हस्तावञ्जलिसम्पुटं रचयतं वन्दस्व दीर्घं वपुः ।

आत्मन् संश्रय पुण्डरीकनयनं नागाचलेन्द्रस्थितं 

धन्यं पुण्यतमं तदेव परमं दैवं हि सत्सिद्धये।।34।।

 

हे मन , उन कमलनयन भगवान् का चिंतन करो , जो पर्वताकार अनंत नाग पर लेते हुए हैं । हे जीभ , तुम उनकी महिमा का गान करो । हे सिर , तुम उनके समक्ष झुको । ओ हाथों , अपनी हथेलियां जोड़ कर उनकी प्रार्थना करो । हे शरीर , तुम उन्हें दंडवत प्रणाम करो । हे हृदय , उनकी पूर्ण शरण लो । वे परमेश्वर ही सर्वोच्च विग्रह हैं । एकमात्र वे ही पूर्ण मंगलकारी और परम विशुद्धकारी हैं। वे ही शाश्वत सिद्धि के प्रदायक हैं । 34

 

शृण्वञ्जनार्दनकथाकीर्तनानि

देहे न यस्य पुलकोद्-गमरोमराजिः।

नोत्पद्यते नयनयोर्विमलाम्बुमाला 

धिक् तस्य जीवितमहो पुरुषाधमस्य।।35।।

 

जो व्यक्ति भगवान जनार्दन की लीलाओं तथा उनके यशस्वी गुणों का वर्णन सुनता है , किन्तु जिसके शरीर में हर्ष से रोमांच नहीं होता तथा जिसकी आँखों में शुद्ध प्रेम के अश्रुओं का प्रवाह नहीं होता – ऐसा व्यक्ति निस्संदेह अत्यंत निम्न स्तर का धूर्त है । उसका जीवन कितना गर्हित है ! 35

 

अन्धस्य मे हृतविवेकमहाधनस्य 

चौरैः प्रभो बलिभिरिन्द्रियनामधेयैः ।

मोहान्धकूपकुहरे विनिपातितस्य 

देवेश देहि कृपणस्य करावलम्बम्।।36।।

 

हे प्रभु ! मेरी इन्द्रियों रुपी शक्तिशाली चोरों ने मेरी सर्वाधिक मूल्यवान संपत्ति , मेरा विवेक चुराकर मुझे अँधा कर दिया है और मुझे मोह के गहरे अंधकूप में फेंक दिया है । हे देवाधिदेव ! अपना हाथ बढ़ाएं और इस दुष्टात्मा को बचा लें । 36

 

इदं शरीरं परिणामपेशलं

पतत्यवश्यं शतसन्धिजर्जरम्।

किमौषधं पृच्छसि मूढ़ दुर्मते

निरामयं कृष्णरसायनं पिब ।।37।।

 

इस शरीर का सौंदर्य क्षणिक है और बुढ़ापे में जब इसके सैंकड़ों जोड़ ऐंठ जाएँगे , तो इसकी मृत्यु होनी निश्चित है । तो फिर मोहग्रस्त मूर्ख ! तू क्यों दवा मांग रहा है ? बस , कृष्णामृत ग्रहण कर , जो अचूक उपचार है । 37

 

आश्चर्यमेतद्धि मनुष्यलोके

सुधां परित्यज्य विषं पिबन्ति ।

नामानि नारायणगोचराणि  

त्यक्त्वान्यवाचः कुहकाः पठन्ति ।।38।।

 

मानव समाज का सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि लोग न सुधरने पर इतने अड़े हुए हैं कि वे नारायण के नामों के जीवनदायी अमृत को छोड़कर अन्य सब कुछ बोल कर विषपान कर लेते हैं । 38

 

त्यजन्तु बान्धवाः सर्वे निन्दन्तु गुरवो जनाः ।

तथापि परमानन्दो गोविन्दो मम जीवनम् ।।39।।

 

चाहे मेरे सारे कुटुम्बीजन मेरा परित्याग कर दें और मेरे वरिष्ठजन मेरी निंदा करें , फिर भी परम आनंदमय गोविन्द मेरे प्राणाधार बने हुए हैं । 39

 

 

Mukunda Mala Stotram - mukundamālā stōtram

 

 

सत्यं ब्रवीमि मनुजाः स्वयमूर्ध्व बाहुर्यो 

यो मुकुन्द नरसिंह जनार्दनेति।

जीवो जपत्यनुदिनं मरणे रणे वा 

पाषाणकाष्ठसदृशाय ददात्य भीष्टम्।।40।।

 

हे मनुष्यों ! मैं अपनी भुजाएँ ऊँची उठाकर सत्य वचन कह रहा हूँ । जो भी मर्त्य प्राणी मुकुन्द , नृसिंह तथा जनार्दन नामों का नित्य प्रति जप करता है , वह चाहे युद्ध में हो या मृत्यु के समक्ष हो , अपनी सर्वाधिक अभीष्ट आकांक्षाओं को पत्थर या काठ के टुकड़े जैसा मानने लगेगा । 40

 

नारायणाय नम इत्यमुमेव मन्त्रं 

संसारघोरविषनिर्हरणाय नित्यम्।

शृण्वन्तु भव्यमतयो यतयो अनुरागाद्

उच्चैस्तरामुपदिशारम्यहमूर्ध्वबाहुः।।41।।

 

मैं अपनी भुजाएँ उठाकर उच्च स्वर में यह दयापूर्ण सलाह यथासंभव जोर से पुकारकर दे रहा हूँ – यदि सन्यासी लोग भीषण विषाक्त भौतिक जीवन से उबरना चाहते हैं , तो उन्हें इतना सद्ज्ञान होना चाहिए कि वे ॐ नमो नारायणाय मंत्र का निरंतर श्रवण करें ।।41।।

 

चित्तं नैव निवर्तते क्षणमपि श्रीकृष्णपादाम्बुजान्  

निन्दन्तु प्रियबान्धवा गुरूजना गृह्णन्तु मुञ्चन्तु वा ।

दुर्वादं परिघोषयन्तु मनुजा वंशे कलङ्को अस्तु वा 

तादृक्प्रेमधरानुरागमधुना मत्ताय मानं तु मे।।42।।

 

मेरा मन क्षण भर के लिए भी श्रीकृष्ण के चरणकमलों से विमुख नहीं हो सकता , चाहे मेरे प्रियजन तथा अन्य सम्बन्धी मेरी निंदा करें , चाहे मेरे वरिष्ठजन मुझे स्वीकारें या त्याग दें , सामान्यजन मेरे विषय में दुष्प्रचार करें , भले ही मेरे कुल की प्रतिष्ठा कलंकित हो । मुझ जैसे पागल व्यक्ति के लिए यही सम्मान पर्याप्त है कि ईश्वर के प्रेम की इस बाढ़ का अनुभव करूँ , जो मेरे प्रभु के प्रति आकर्षण का अनुराग लाने वाली है । 42

 

कृष्णो रक्षतु नो जगत्-त्रय गुरुः कृष्णं नमध्वं सदा 

कृष्णेनाखिलशत्रवो विनिहताः कृष्णाय तस्मै नमः ।

कृष्णादेव समुत्थितं जगदिदं कृष्णस्य दासो अस्म्यहं 

कृष्णे तिष्ठति विश्वमेतदखिलं हे कृष्ण रक्षस्व माम् ।।43।।

 

तीनों लोकों के गुरु , कृष्ण हमारी रक्षा करें । कृष्ण के समक्ष सदा शीश झुकाएँ। कृष्ण ने हमारे समस्त शत्रुओं का वध किया है । कृष्ण को हमारा नमस्कार है । कृष्ण से ही यह जगत अस्तित्व में आया है । मैं कृष्ण का दास हूँ । यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड कृष्ण के भीतर स्थित है । हे कृष्ण ! कृपा करके मेरी रक्षा करें । 43

 

हे गोपालक हे कृपाजलनिधे हे सिन्धुकन्यापते 

हे कंसान्तक हे गजेंद्र करुणापारीण हे माधव ।

हे रामानुज हे जगत्-त्रयगुरो हे पुण्डरीकाक्ष मां

हे गोपीजननाथ पालय परं जानामि न त्वं विना।।44।।

 

हे गोपालक ! हे करुणासिन्धु ! हे सागरकन्या लक्ष्मी के पति ! हे कंस के संहारक ! हे गजेंद्र के करुणामय उद्धारक ! हे माधव ! हे बलराम के अनुज ! हे तीनों लोकों के गुरु ! हे गोपियों के कमलनयन प्रभु ! मैं अन्य किसी को आपसे बढ़कर महान नहीं जानता। कृपया मेरी रक्षा करें । 44

 

 

श्री मुकुन्दमाला स्तोत्रम

 

 

दारा वाराकरवरसुता ते तनूजो विरिञ्चिः 

स्तोता वेदस्तव सुरगणा भृत्यवर्गः प्रसादः ।

मुक्तिर्माया जगदविकलं तावकी देवकी ते 

माता मित्रं बलरिपुसुतस्तत्त्वदन्यं न जाने ।।45।।

 

आपकी सुन्दर सी पत्नी सागर की पुत्री हैं और आपके पुत्र ब्रह्माजी हैं । वेद आपके वंदीजन ( चारण ) हैं , देवतागण आपके दास हैं और मोक्ष आपका वरदान है , जबकि यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड आपकी चमत्कारी शक्ति का प्रदर्शन है । श्रीमती देवकी आपकी माता हैं और इंद्रपुत्र अर्जुन आपके सखा हैं । इसलिए मुझे आपके आलावा अन्य किसी में कोई रूचि नहीं है । 45

 

प्रणाममीशस्य शिरः फलं विदु-

स्तदर्चनं प्राणफलं दिवौकसः ।

मनः फलं तद्गुणतत्त्वचिन्तनं

वचः फलं तद्गुणकीर्तनं बुधाः ।।46।।

 

स्वर्गलोक के चतुर निवासी जानते हैं कि सिर की पूर्णता भगवान को दंडवत प्रणाम करने , प्राण की पूर्णता भगवान की पूजा करने , मन की पूर्णता उनके दिव्य गुणों के बारे में विस्तार से मनन करने तथा वाणी की पूर्णता उनके गुणों के यश का कीर्तन करने में है ।।46

 

श्रीमन्नाम प्रोच्य नारायणाख्यं

के न प्रापुर्वाञ्छितं पापिनो अपि।

हा नः पूर्वं वाक्-प्रवृत्ता न तस्मिं-

स्तेन प्राप्तं गर्भ वासादि दुःखम्।।47।।

 

क्या कभी ऐसा हुआ है कि पापी से पापी व्यक्ति की , जिसने कभी उच्च स्वर से नारायण के शुभ नाम का उच्चारण किया हो , इच्छाएं पूरी न हुयी हों ? किन्तु हाय ! हमने कभी भी उस तरह से अपनी वाक्-शक्ति का प्रयोग नहीं किया ; इसलिए हमें गर्भ में रहने जैसे कष्ट भोगने पड़े । 47

 

ध्यायन्ति ये विष्णुमनन्तमव्ययं

हृत्पद्ममध्ये सततं व्यवस्थितम् ।

समाहितानां सतताभयप्रदं

ते यान्ति सिद्धिं परमां तु वैष्णवीम्।।48।।

 

असीम तथा अव्यय विष्णु , जो हृदय रुपी कमल में सदैव विद्यमान रहते हैं , उन लोगों को निर्भीकता प्रदान करते हैं , जो अपनी बुद्धि को उन पर स्थिर करते हैं । जो भक्त उनका ध्यान रखते हैं , वे वैष्णवों की सर्वोच्च सिद्धि को प्राप्त करेंगे । 48

 

तत्त्वं प्रसीद भगवन्कुरु मय्यनाथे 

विष्णो कृपां परमकारुणिकः खलु त्वम्।

संसारसागरनिमग्नमनन्त दीन-

मुद्धर्तुमर्हसि हरे पुरुषोत्तमो असि।।49।।

 

हे परमेश्वर ! हे विष्णु ! आप परम दयालु हैं । अतः अब आप मुझ पर प्रसन्न हों और इस असहाय प्राणी को अपनी कृपा प्रदान करें । हे अनन्त भगवान् , भवसागर में डूब रहे इस दुखियारे को आप उबार लें । हे भगवान् हरि ! आप ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । 49

 

क्षीरसागरतरङ्गशीकरा-

सारतारकितचारुमूर्तये।

भोगिभोगशयनीयशायिने

माधवाय मधुविद्विषे नमः ।।50।।

 

मधु दैत्य के शत्रु , भगवान माधव को नमस्कार है । शेषनाग की शय्या पर लेटा हुआ उनका सुन्दर रूप क्षीर सागर की तरंगों से उठने वाले छींटों से सुशोभित है । 50

 

अलमलमलमेका प्राणिनां पातकानां

निरसनविषये या कृष्ण कृष्णेति वाणी ।

यदि भवति मुकुन्दे भक्तिरानन्दसान्द्रा

करतलकलिता सा मोक्षसाम्राज्यलक्ष्मीः ।। 51 

 

‘ कृष्ण – कृष्ण ‘ ये शब्द स्वयं में समस्त जीवों के पापों से छुटकारा पाने के लिए पर्याप्त हैं । जो व्यक्ति अत्यधिक आनंद से युक्त भगवान् मुकुन्द की भक्ति मे संलग्न है , वह अपनी हथेली में मोक्ष , सांसारिक प्रभाव तथा संपत्ति के उपहार धारण करता है । 51

 

यस्य प्रियौ श्रुतिधरौ कविलोकवीरौ 

मित्रौ द्विजन्मवरपद्मशरावभूताम्।

तेनाम्बुजाक्षचरणाम्बुजषट्पदेन 

राज्ञा कृता कृतिरियं कुलशेखरेण।।52।।

 

यह ग्रन्थ राजा कुलशेखर द्वारा रचा गया , जो कमलनेत्र भगवान के चरणकमलों में मधुमक्खी के समान है । राजा के दो प्रिय मित्र ब्राह्मण जाति के अति सुन्दर कमल के दो नालों के समान हैं , जो कवि समुदाय के नायकों के रूप में विख्यात कुशल वैदिक पंडित हैं । 52

 

मुकुन्दमालां पठतां नराणाम 

शेषसौख्यं लभते न कः स्वित् ।

समस्तपापक्षयमेत्य देही

प्रयाति विष्णोः परमं पदं तत्।।53।।

 

इस मुकुन्दमाला का पाठ करने वालों में ऐसा कौन है , जिसे पूर्ण सुख प्राप्त नहीं होगा ? जो भी देहधारी जीव इन स्तुतियों का उच्चारण करता है , उसके सारे पापफल समूल नष्ट हों जाते हैं और वह सीधे भगवान विष्णु के परम धाम को जाता है । 53 

 

 

 

 

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