shri krishna govind hare murai

श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव मंत्र लाभ | भगवान श्रीकृष्ण का अत्यंत प्रभावशाली मंत्र | Lord Krishna Mantra | Shri Krishna Govind Hare Murari | SHri Krishna Govind Hare Murari He Nath Narayan Vasudeva

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shri krishna govind hare murai

 

 

 

“श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव”

 

यह महा मन्त्र है । इसमें अन्तर्निहित अर्थ के ज्ञान सहित इसका जाप करना चहिये ।

 

श्री – शाब्दिक अर्थ है शुभ, और नामों से पहले एक सम्मानजनक शीर्षक के रूप में प्रयोग किया जाता है। विष्णु की पत्नी लक्ष्मी का भी उल्लेख कर सकते हैं, क्योंकि उनका बीज मंत्र श्रीम है।भाग्य का प्रतीक है, “श्री” का अर्थ है लक्ष्मी जिसका अर्थ भाग्य या भाग्य भी है। तो जो इस नाम का पाठ करता है वह भी लक्ष्मी की तरह भाग्यशाली होता है।

 

कृष्ण – हे प्रभु ! आप सभी के मन को आकर्षित करने वाले हैं , अतः आप मेरा मन भी अपनी और आकर्षित कर अपनी भक्ति सेवा की दिशा में सुदृढ़ कीजिये ।

 

गोविन्द – गौओं तथा इन्द्रियों की रक्षा करने वाले भगवान ! आप मेरी इन्द्रियों की रक्षा करें भगवान ! आप मेरी इन्द्रियों को स्वयं में लीन करें ।

 

हरे – हे दुखहर्ता ! मेरे दुखों का भी हरण करें ।

 

मुरारी- हे मुरे राक्षस के शत्रु ! मुझमें बसे हुए काम -क्रोध रूपी राक्षसों का नाश कीजिये ।

 

हे- किसी को संबोधित करने के लिए।

 

नाथ- आप नाथ हैं और मैं अनाथ । मुझ अनाथ का भाव आप नाथ के साथ जुड़ा रहे ।

 

नारायण- मैं नर हूँ आप नारायण हैं । आपको पाप्त करने के लिए आपके आदर्श पर मैं तपस्या में रत रहूँ ।

 

वासुदेव- वसु का अर्थ है प्राण । मेरे प्राण की रक्षा करें । मैंने अपना मन आपके चरणों में अर्पित कर दिया है ।

 

” श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी, है नाथ नारायण वासुदेवा। ” इस महामंत्र का जप अत्यंत पुण्यदायी है।

 

 

 

 

 

 

स मंत्र का जप उसी प्रकार करना चाहिए जैसे एक शिशु अपनी माता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए रोता है।

 

जीवन में आई मुसीबतों और कष्टों से उबरने के लिए भगवान श्रीकृष्ण का यह बहुत ही सरल, अद्भुत, चमत्कारिक और प्रभावी मंत्र है। इस महामंत्र का जाप करने से भगवान श्रीकृष्ण बिल्कुल उसी तरह मदद को दौड़े आते हैं जैसे द्रौपदी के लिए दौड़े आये थे या मीराबाई की रक्षा के लिए समय समय पर आये थे या गजेंद्र की ग्राह से रक्षा के लिए दौड़े आये या फिर प्रहलाद की हिरण्यकश्यप के अत्याचारों से रक्षा के लिए सदैव उपस्थित थे । 

 

“श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव” मंत्र में सभी श्री कृष्णा के ही नाम हैं। एक भक्त की प्रभु के लिए पुकार है। अपने नामों का उच्चारण सुनते ही प्रभु सीधे अपने भक्तों के पास दौड़े चले आते हैं। प्रभु अपने नामो से कभी अलग नहीं होते। वह सदैव अपने पवित्र नामों में विराजमान रहते हैं। जरुरत है तो बस उन्हें सच्चे ह्रदय से पुकारने की। प्रभु का एक एक नाम अमृत की बूँद के सामान है। आप कोई भी नाम सच्ची श्रद्धा , प्रेम , निष्ठा और दृढ विश्वास से लीजिये और वो नाम आपको प्रभु से मिलाने को तत्पर हो जायेगा। ईश्वर तो वो माँ है जिसे आप प्रेम करे या न करे पर वो आपको प्रेम करना कभी नहीं छोड़ते । जैसे एक माँ हमेशा अपने बच्चे का भला चाहती है फिर चाहे ब्बच्चा माँ से प्र्रेम करे या नहीं। बच्चा माँ के पास हो या दूर वह सदैव उसके भलाई के विषय में ही सोचती है। सदैव अपने बच्चे को सही मार्ग दिखाने का प्रयत्न करती है।

 

यदि बच्चा गलती से गलत मार्ग में भटक गया हो तो एक सच्चे पथ प्रदर्शक की भांति उसे सही मार्ग पर लेन का यत्न करती है। ठीक वैसे ही ईश्वर भी सदैव हमारे भले के विषय में ही सोचते हैं। हमे सदमार्ग पर लाने के लिए यत्नशील रहते हैं। चाहे हम उन्हें प्रेम करे या नहीं, उन्हें याद करे या नहीं वह सदैव हमें याद रखते हैं। सदा हमारे साथ रहते हैं। पर हम ही उनसे दूर हो जाते हैं। अपना हाथ उनसे छुड़ा लेते हैं। लेकिन जिस प्रकार बच्चा अपने को समझदार समझ कर , बड़ा समझ कर माँ बाप से अपना हाथ छुड़ा लेता है  , परन्तु मुसीबत में पड़ने पर अपने माता पिता को ही याद करता है और उसके माता पिता उसे उस मुसीबत से निकालने के लिए सब कुछ भूल कर दौड़े चले आते हैं।

 

ठीक उसी प्रकार प्रभु भी हैं। भले ही हमने अपने प्रभु का हाथ छोड़ दिया हो , परन्तु मुसीबत पड़ने पर जब हम आर्त भाव से प्रभु को पुकारते हैं तो वह अवश्य आते हैं हमारी सहायता करने। समस्या ये है कि मनुष्य अत्यंत स्वार्थी है। मुसीबत पड़ने , कोई इच्छा पूरी करने हेतु भले ही वो ईश्वर को याद करता है परन्तु समस्या का हल मिलते ही पुनः अपनी ही दुनिया में मग्न हो जाता है। यही जीव की सबसे बड़ी भूल है कि वो ईश्वर को भूल जाता है। उनके साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध को भूल जाता है। एक प्रभु के साथ ही तो हमारा सम्बन्ध सत्य है , शाश्वत है, नित्य है । इस जीवन के सम्बन्ध तो बनते और बिगड़ते रहते हैं। नया जीवन नए सम्बन्धी। इन्हीं सम्बन्धो की जाल में ये जीव न जाने कबसे फंसा है। न वो इस बात से अवगत है कि ये जगत , इस जगत के सम्बन्ध सब क्षणिक है । न जाने आज तक हमने कितने जन्म लिए, कितने सम्बन्धी हम पीछे छोड़ आये, कितने जन्म और लेंगे , कितने नए सम्बन्ध बनाएंगे, कब तक इस मिलने और बिछड़ने कि प्रक्रिया में भाग लेंगे। कब इस जीवन मरण के चक्र का अंत होगा । कब हम अपने वास्तविक सम्बन्ध से अवगत होंगे। कब हम अपने वास्तविक निवास स्थान जा पाएंगे। कब हम अपनी वास्तविक स्थिति से परिचित होंगे । कि जीव ये शरीर नहीं एक आत्मा है ।

 

आत्मा ही उसकी वास्तविक पहचान है । और ये आत्मा उस परमात्मा का अंश है। और इस आत्मा को तृप्ति अंततः उस परमात्मा में विलीन हो कर ही मिलेगी न कि इस मिथ्या जगत की मिथ्या पूर्ण इच्छाओ की पूर्ती करने से मिलेगी। हम हमेशा अतृप्त रहते हैं । एक इच्छा पूर्ण करते ही दूसरी इच्छा का जन्म हो जाता है । ऐसा क्यों होता है। क्युकी जीव कुवह तलाश रहा है। वह अपनी ख़ुशी तलाश रहा है । अज्ञानता वश वह इन सांसारिक वस्तुओ में क्षणिक सुख का अनुभव करता है परन्तु उसकी आत्मा तृप्त नहीं होती। क्योकि आत्मा को सिर्फ परमात्मा की ही आस होती है , उसी की भूख और उसी की प्यास होती है। 

 

ये मंत्र , ये जाप, ये विधियां, ये सैंकड़ो विधियां क्यों हैं। केवल और केवल हमे हमारे वास्तविक अस्तित्व की पहचान करने के लिए हैं। हमे हमारे वास्तविक शाश्वत प्रेमी हमारे प्रभु से मिलाने के लिए हैं । कितने ही गुरु, साधु, संत, वेद , पुराण, योगी जन हमे यह समझाने का प्रयास कर रहे हैं। कि शायद कोई विधि, शायद कोई मंत्र , शायद कोई नाम हमारे भीतर वो प्रेरणा जाग्रत कर दे , हमारे मन के भीतर ज्ञान का प्रकाश प्रकाशित कर दे , प्रभु प्रेम कि लौ जगा दे और हम भी अपने वास्तविक धाम जा सके जहाँ न जाने कितने ही प्रभु प्रेमी जिन्होंने समय पर स्वयं को पहचाना और वे वहां  जा सके। 

 

हम भी प्रयत्न करें कि ये हमारा आखिरी जीवन हो। हम अपनी वास्तविक पहचान कर पाएं । प्रभु के प्रति अपने खोये हुए, भूले हुए प्रेम और सम्बन्ध को जाग्रत कर पाएं । और ऐसा केवल और केवल प्रभु नाम से ही संभव है। प्रभु का नाम वो साबुन हैं जो हमारी आत्मा पे चढ़े हुए कई जन्मो के मैल को धो देता हैं और हमारी आत्मा अपने अखंड स्वरुप से अवगत होती है। वही होता हैं आत्मा ज्ञान , स्वयं कि स्वयं से पहचान। आत्मा कि परमात्मा से पहचान। 

 

तो आप भी ज्यादा से ज्यादा प्रभु का नाम लेना शुरू कीजिये। कोई भी नाम जो आप हर समय ले सकते हैं। जिसको लेने के लिए आपको याद न रखें पड़े बल्कि वो स्वयं हर पल आपके मन, जिह्वा और ह्रदय में चलता रहे। 

 

जय श्री कृष्णा 

 

 

 

 

 

 

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