Surdas Bhramar Geet – Part 4 | सूरदास भ्रमर गीत | सूरदास द्वारा रचित भ्रमर गीत | भ्रमर गीत | Bhramar Geet | गोपियों द्वारा उद्धव को उपदेश | गोपियों और उद्धव के मध्य संवाद | Surdas Bhramargeet | सूरदास का भ्रमरगीत | Bhramar geet in Hindi | Bhramar Geet Lyrics with Hindi Meaning | Bhramar Geet Saar – Surdas | भ्रमरगीत सार के पदों की व्याख्या | Surdas Bhramar Geet | Bhramar Geet by Soordas | Bhramar Geet Composed by Soordas | Bhramar Gita | उद्धव द्वारा गोपियों को ज्ञान का उपदेश | सूरदास का भ्रमर गीत | भ्रमर गीता | भ्रमर गीत हिंदी लिरिक्स | भ्रमर गीत हिंदी अर्थ सहित | Gopi Bhramar Geet | भ्रमर गीतम | भ्रमर गीता | गोपी भ्रमर गीत | गोपी भ्रमर गीता | भ्रमर गीत हिंदी लिरिक्स
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राग नट
मधुबनियाँ लोगनि को पतिआय?
मुख औरै अंतर्गत औरै पतियाँ लिखि पठवत हैं बनाय॥
ज्यों कोइलसुत काग जिआवत भाव-भगति भोजनहिं खवाय।
कुहकुहाय आए बसंत ऋतु, अंत मिलै कुल अपने जाय॥
जैसे मधुकर पुहुप-बास लै फेरि न बूझै वातहु आय।
सूर जहाँ लौं स्यामगात हैं तिनसों क्यों कीजिए लगाय?॥९१॥
इसमें गोपियों ने मथुरा वालों के प्रति कटाक्ष किया है और उद्धव से बताया कि मथुरा के रहने वाले तो सभी अविश्वसनीय हैं लेकिन जो श्याम वर्ण वाले उद्धव , अक्रूर और श्री कृष्ण हैं वे विशेष रूप से धोखेबाज हैं ।
हे उद्धव ! मथुरा वालों का कौन विश्वास करे ? ये बड़े धोखेबाज होते हैं , इनके मुख में कुछ होता है और मन में कुछ और अर्थात ये मनसा , वाचा एक नहीं हैं । इनकी कथनी और करनी में अंतर है। ये बनावटी और झूठी चिट्ठियां लिख कर भेजा करते हैं । इनके कपट का नमूना तो इस प्रकार है जैसे कौआ कोयल के बच्चे को प्रेमपूर्वक भोजन खिलाकर जीवित रखता है , उनका बड़े प्यार से पोषण करता है लेकिन बसंत आगमन के समय वह कोयल का बच्चा कूकने लगता है और अंततः अपने कोयल कुल में जा कर मिल जाता है फिर उसे कौए की याद नहीं रह जाती। श्री कृष्ण ने भी ऐसा ही किया । बेचारे नन्द और यशोदा ने इनका बचपन में पालन – पोषण किया लेकिन जब बड़े हुए अर्थात जब यौवनावस्था को प्राप्त हुए तो जाकर अपने कुल तथा वंश वासुदेव और देवकी में मिल गए और नन्द – यशोदा को भूल गए । जिस प्रकार भ्रमर पुष्प की सुगंध ग्रहण करने के बाद , पुष्पों के मकरंद और परआग का रास लेने के बाद फिर उनसे बात भी नहीं करता । उसी प्रकार श्री कृष्ण ने हमारे प्रेम का रास लेने के पश्चात् हमें याद भी नहीं किया । सूर के शब्दों में गोपियों का उद्धव से कथन है की जहाँ तक श्याम वर्ण की बात है इनसे प्रेम सम्बन्ध कभी भी नहीं करना चाहिए क्योंकि ये श्रीकृष्ण , अक्रूर और उद्धव सभी अविश्वसनीय हैं ।
राग नट
हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर जो? समाचार कछु पाए?
इक अति चतुर हुते पहिले ही, अरु करि नेह दिखाए।
जानी बुद्धि बड़ी, जुवतिन को जोग सँदेस पठाए॥
भले लोग आगे के, सखि री! परहित डोलत धाए।
वे अपने मन फेरि पाइए जे हैं चलत चुराए॥
ते क्यों नीति करत आपुन जे औरनि रीति छुड़ाए?
राजधर्म सब भए सूर जहँ प्रजा न जायँ सताए॥९२॥
गोपियों के पास श्री कृष्ण ने योग – सन्देश भेजा है । इस से अब गोपियों के मन में किसी भी प्रकार की शंका नहीं रह गयी है कि श्री कृष्ण राजनीति के चतुर खिलाड़ी हैं । प्रस्तुत पद में उनके दांव पेंचों का संकेत किया गया है ।
हे सखियों ! जरा देखो तो श्री कृष्ण अब राजनीति शास्त्र के ज्ञाता हो गए और मथुरा जाते ही ऐसे छल और कपटपूर्ण व्यवहार करने लगे। क्यों सखियों ! जो बात उद्धव जी कह रहे हैं क्या उन्हें तुम सबों ने कुछ समझा अर्थात राजनीति शास्त्र पढ़ने के बाद उन्होंने जो बातें उद्धव द्वारा भेजी हैं क्या वे तुम्हारी समझ में कुछ आयीं ? क्या तुम्हें उनके राजनीति विशारद होने और इस प्रकार योग सन्देश भेजने का कुछ समाचार मिला ? एक तो श्री कृष्ण पहले ही बहुत चतुर थे , दूसरे गोपियों से जो प्रेम व्यवहार किया उसमें भी अपनी चतुराई दिखाई । आशय यह है कि वे बनते बड़े होशियार हैं लेकिन जो काम किया उसमें उनकी अज्ञानता ही झलकती है । उनकी बुद्धि का परिचय तो इसी में मिल गया कि उन्होंने ब्रज की युवतियों को योग साधना का सन्देश भिजवाया है । भला युवतियां योग की साधना कैसे कर सकती हैं ? युवतियां और योग दोनों में कितना अंतर है ? क्या ऐसे सन्देश के द्वारा श्री कृष्ण की अज्ञानता प्रकट नहीं होती ? अरी सखी ! पहले के लोग कितने भले और सज्जन होते थे जो दूसरों के के लिए बराबर घूमते – फिरते थे और एक कृष्ण को देखो जो दूसरे के मन को चोरी किये फिरते हैं । नीति तो यही है कि गोपियों अपने वे मन मिल जाएं जिन्हें श्री कृष्ण चुराए फिर रहे हैं और देना ही नहीं चाहते हैं। जो दूसरों की मर्यादा और रीति को समाप्त करने में लगे हैं वे नीति और धर्म का पालन क्यों करने लगे अर्थात जो गोपियों को प्रेम मार्ग से हटा कर के योग मार्ग पर लगाने का प्रयत्न करते हैं वे नीति को स्वयं कैसे ग्रहण करेंगे । वे क्या नीति और धर्म का पालन करते होंगे जो दूसरे को अच्छी नीति से हटाकर बुरु नीति पर लगाना चाहते हैं । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि राजधर्म अर्थात राजा का धर्म और कर्त्तव्य तो वहीँ देखा जाता है जहाँ प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट न हो । जहाँ राजा के धर्म से प्रजा दुखी है , उसे राजधर्म की सच्ची संज्ञा नहीं दी जा सकती ।92
राग नट
जोग की गति सुनत मेरे अंग आगि बई।
सुलगि सुलगि हम रही तन में फूँक आनि दई॥
जोग हमको भोग कुब्जहिं, कौने सिख सिखई?
सिंह गज तजि तृनहिं खंडत सुनी बात नई॥
कर्मरेखा मिटति नाहीं जो बिधि आनि ठई।
सूर हरि की कृपा जापै सकल सिद्धि भई॥९३॥
उद्धव द्वारा बार – बार योग की रीतियों को सुनकर गोपियाँ नाराज हो जाती हैं और कहने लगती हैं कि हे उद्धव ! तुम्हारी इस योग चर्चा से तो हमारे अंग में आग लग गयी ।
व्याख्या – हे उद्धव ! तुम्हारी इन योग रीतियों को , योग साधना विषयक इन बातों को तो सुनते ही हम लोगों के अंग – प्रत्यंग में आग लग गयी । हमारा अंग – अंग वियोग के ताप से जलने लगा । हम तो वियोगाग्नि से पहले ही धीरे – धीरे सुलगती रहीं किन्तु तुमने तो आकर योग – चर्चा रुपी फूंक से उस आग को और उदीप्त कर दिया । तुम हमारे लिए तो योग साधन का सन्देश देते हो और कुब्जा को भोग की ओर प्रवृत्त करते हो । यह शिक्षा तुम्हे किसने दी ? आज एक नयी बात सुनने को मिल रही है वह यह कि सिंह हाथी को छोड़ कर तिनके तोड़ रहा है । ठीक इसी प्रकार गोपियों को योग साधना की ओर प्रवृत्त करना भी असंभव है – प्रकृति के विरुद्ध है । हे उद्धव ! ब्रह्मा ने जो भाग्य की रेखाएं बनाई हैं वे मिटती नहीं अर्थात भाग्य में जो लिखा है उसे भोगना ही है । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि भगवान की कृपा जिस पर होती है उसे समस्त सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है ।
राग धनाश्री
ऊधो! जान्यो ज्ञान तिहारो।
जानै कहा राजगति-लीला अंत अहीर बिचारो॥
हम सबै अयानी, एक सयानी कुबजा सों मन मान्यो।
आवत नाहिं लाज के मारे, मानहु कान्ह खिस्यान्यो[१]॥
ऊधो जाहु बाँह धरि ल्याओ सुन्दरस्याम पियारो।
ब्याहौ लाख, धरौं[२] दस कुबरी, अंतहि कान्ह हमारो॥
सुन, री सखी! कछू नहिं कहिए माधव आवन दीजै।
जबहीं मिलैं सूर के स्वामी हाँसी करि करि लीजै॥९४॥
गोपियाँ उद्धव के ज्ञान की आलोचना करती हुयी श्री कृष्ण के व्यवहारों की निंदा कर रही हैं और उन्हें यह विश्वास है कि अहीर होने के नाते श्रीकृष्ण मथुरा की राजनीति को क्या समझें ? इसमें गोपियों के उपहास और व्यंग्य के अंतर्गत उनकी संवेदनशीलता और कृष्ण के प्रति सहज अनुरक्ति का भाव अन्तर्निहित है ।
हे उद्धव ! अब तुम्हारे ज्ञान को हमने समझ लिया । तुम्हारी चतुराई पकड़ ली । यह निर्गुण ज्ञान जो तुम हम सबको दे रहे हो वह श्री कृष्ण द्वारा भेजा गया नहीं है । यह सब तुमने स्वयं सोच समझ कर हमारे समक्ष रखा है । हमारा कृष्ण तो अंततः अहीर ही है । भोला – भाला , अज्ञानी । वह इस प्रकार की राजनीति को क्या समझे । तुम्हारी दृष्टि में हम सभी गोपियाँ अज्ञानी थीं और एक मात्र कुब्जा ही चतुर और बुद्धिमान थी इसी कारण श्री कृष्ण ने हमें छोड़ कर चतुर कुब्जा का वरण किया । लगता है कुब्जा से प्रेम करने पर उन्हें दुःख हुआ । वे अत्यंत लज्जित हैं क्योंकि कुब्जा से प्रेम तो तुमने करवाया था और उन्हें इस जाल में फंसा दिया । अब वे अपनी इस गलती को अनुभव कर के लज्जित हैं इसलिए यहाँ मुँह नहीं दिखाना चाहते लेकिन उद्धव जी आप प्रिय श्याम सुन्दर के हाथ को पकड़ कर हमारे पास ले आवें हम उनकी इस भूल की कुछ भी निंदा नहीं करेंगी । वे भले ही लाखों विवाह कर लें । एक नहीं 10 कुबरी ले आएं। हमें इसका लेशमात्र भी दुःख नहीं है क्योंकि हम सब यह जानती हैं कि अंततः श्री कृष्ण हमारे ही हैं । यहाँ गोपियों के एकनिष्ठ प्रेम भाव का निरूपण है । गोपियाँ इसके पश्चात् अपनी सखियों से कहने लगीं – हे सखी ! सुनो अभी तो श्री कृष्ण को आने दो , उन्हें कुछ मत कहो । हाँ, जब वे यहाँ आ जाएं तो इस अज्ञानता का बोध करने के लिए उनसे कुछ हंसी – मजाक करके अपने मन को अंतुष्ट कर लेना ।
राग केदारो
उर में माखनचोर गड़े।
अब कैसहु निकसत नहिं ऊधो! तिरछे ह्वै जो अड़े॥
जदपि अहीर जसोदानंदन तदपि न जात छड़े।
वहाँ बने जदुबंस महाकुल हमहिं न लगत बड़े॥
को बसुदेव, देवकी है को, ना जानैं औ बूझैं।
सूर स्यामसुन्दर बिनु देखें और न कोऊ सूझैं॥९५॥
श्री कृष्ण की त्रिभंगी मुद्रा के प्रति गोपियों का ऐसा अनुराग है कि उसे किसी प्रकार विस्मृत नहीं किया जा सकता । अपनी यह विवशता गोपियाँ उद्धव जी को बतला रही हैं ।
गोपियाँ श्री कृष्ण के त्रिभंगी रूप का ध्यान ह्रदय से न निकलने का कारन उद्धव से बताती हुई कह रही हैं – हे उद्धव ! हमारे ह्रदय में मक्खन चोर श्री कृष्ण का त्रिभंगी रूप ऐसा गड़ गया है , ऐसा चुभ गया है जो निकालने पर भी किसी प्रकार नहीं निकल पा रहा है । आशय यह है कि वे टेढ़े ढंग से ह्रदय में अड़ गए हैं ( त्रिभंगी रूप में – तीन जगह से टेढ़े रूप में ह्रदय में धंसे हैं , सीधी वस्तु में टेढ़ी वस्तु – वह भी यदि तीन जगह से टेढ़ी हो – अटक जाये तो उसे निकालना अति कठिन बात है । उसी प्रकार सरल ह्रदय में त्रिभंगी मूर्ति ऐसी अड़ गयी है कि उसे निकाला कैसे जाये ? यद्यपि आपके कथनानुसार वे यशोदा के पुत्र और अहीर हैं फिर भी हमारा उनसे ऐसा प्रेम है कि उन्हें छोड़ते नहीं बनता । हमारे लिए वे सब कुछ हैं आप भले ही उन्हें साधारण मानें । मथुरा में जाकर वे भले ही महान यदुवंश के राजा बन गए हों लेकिन उनका यह गौरवपूर्ण पद हमें अच्छा नहीं लगता । हमें तो उनका वह अहीर जाति का ही रूप मोहक है । हम सब यह नहीं जानतीं और नहीं समझतीं कि वसुदेव और देवकी कौन हैं ? हम उन्हें नन्द और यशोदा के पुत्र के रूप में ही देखती हैं । श्री कृष्ण का यही रूप हम लोगों के ह्रदय में बस गया है । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हे उद्धव ! हमें श्याम सुन्दर के रूप को देखे बिना अन्य कुछ भी दिखाई नहीं देता । हमें उनके बिना कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है । 95
राग सारंग
गोपालहिं कैसे कै हम देति?
ऊधो की इन मीठी बातन निर्गुन कैसे लेति?
अर्थ, धर्म, कामना सुनावत सब सुख मुकुति-समेति।
जे व्यापकहिं बिचारत बरनत निगम कहत हैं नेति॥
ताकी भूलि गई मनसाहू देखहु जौ चित चेति।
सूर स्याम तजि कौन सकत है, अलि, काकी गति एति॥९६॥
गोपियाँ उद्धव को सुनती हुयी कह रही हैं कि उद्धव की इन मीठी बातों में पड़ कर कौन गोपाल की उपासना अर्थात सगुणोपासना को छोड़ सकता है ? गोपियाँ किसी भी रूप में सगुणोपासना का त्याग निर्गुणोपासना के लिए नहीं कर सकतीं ।
गोपियाँ परस्पर कह रही हैं – हे सखी ! हम सब गोपाल को कैसे दे सकती हैं ? और उद्धव की इन चापलूसी भरी मीठी – मीठी बातों पड़ कर गोपाल को देकर अर्थात उनकी उपासना को छोड़ कर कौन निर्गुण ब्रह्म की उपासना को ग्रहण करेगा ? अरी सखी ! जो उद्धव मुक्ति सहित धर्म, अर्थ और काम की साधना से सब सुखों की प्राप्ति की बात करते हैं और जो ब्रह्म की व्यापकता पर सदैव विचार करते हैं और उसका निरूपण करते फिरते हैं जिसे वेद नेति – नेति ( अर्थात जिसका अंत नहीं है जो अनंत है ) कहते हैं , उनकी भी बुद्धि यदि विचार करके देखे तो चकरा जाती है । वे निर्गुण ब्रह्म के सम्बन्ध में कुछ नहीं कह पाते हैं । अतः ऐसी दशा में श्री कृष्ण को छोड़ने में कौन समर्थ हो सकता है । सूर के शब्दों में गोपिया उद्धव से कह रही हैं कि हे भ्रमर ( उद्धव ) ! किसकी इतनी गति या क्षमता हैं जो उस निर्गुण के लिए अपने सगुन गोपाल को त्याग दे ।
राग गौरी
उपमा एक न नैन गही।
कबिजन कहत कहत चलि आए सुधि करि करि काहू न कही॥
कहे चकोर, मुख-बिधु बिनु जीवन; भँवर न, तहँ उड़ि जात।
हरिमुख-कमलकोस बिछुरे तें ठाले क्यों ठहरात?
खंजन मनरंजन जन जौ पै, कबहुँ नाहिं सतरात।
पंख पसारि न उड़त, मंद ह्वै समर-समीप बिकात॥
आए बधन ब्याध ह्वै ऊधो, जौ मृग, क्यों न पलाय?
देखत भागि बसै घन बन में जहँ कोउ संग न धाय॥
ब्रजलोचन बिनु लोचन कैसे? प्रति छिन अति दुख बाढ़त।
सूरदास मीनता कछू इक, जल भरि संग न छाँड़त॥९७॥
इस पद में गोपियों का कथन है कि उनके नेत्रों के सम्बन्ध में जो भी उपमाएं दी गयीं वे सब की सब अनुपयुक्त और झूठी हैं । इसका कारण बताती हुयी कह रही हैं।
गोपियों के कथनानुसार नेत्रों की एक भी उपमा उपयुक्त प्रतीत नहीं हुयी । हमारे नेत्रों ने कवियों द्वारा दी गयी किसी भी उपमा को ग्रहण नहीं किया । किसी भी उपमान को उपयुक्त नहीं समझा । यद्यपि परम्परानुसार कविगण नेत्रों की उपमाएं देते चले आये हैं किन्तु विचारपूर्वक किसी भी कवि ने नेत्रों के उपयुक्त उपमान नहीं चुना । कवियों ने इन नेत्रों की उपमा चकोर पक्षी से दी है लेकिन यदि यह चकोर होते तो श्री कृष्ण के चंद्र मुख के बिना जीवित कैसे रहते ? चकोरों का तो जीवन चंद्र रस पान के आधार पर चलता है , इसके बिना वे जीवित नहीं रहते , अतः सिद्ध है कि चकोर उपमान भी नेत्रों के लिए ठीक नहीं है । नेत्रों की उपमा भ्रमर से दी जाती है , किन्तु ये भ्रमर होते तो श्री कृष्ण के कमल मुख पर मंडराते रहते और उनके चले जाने पर वहीं उड़ कर चले जाते , पर ये तो यहीं हैं , भला श्री कृष्ण के कमल मुख कोश के अभाव में यहाँ क्यों ठहरते ? यहाँ क्यों स्थिर बने रहते ? अब निश्चित हो गया है कि ये भ्रमर भी नहीं हैं और भ्रमर की जो उपमा इन नेत्रों के सम्बन्ध में दी गयी है वह गलत है । लोग नेत्रों की उपमा खंजन पक्षी से देते हैं । इस आधार पर यदि ये लोगो का मनोरंजन करने वाले खंजन पक्षी हैं और ये कभी नाराज नहीं होते , सदैव प्रसन्न रहते हैं तो श्री कृष्ण के जाने पर पंख फैला कर वहीं ये उड़ क्यों नहीं जाते और उन्हें प्रसन्न क्यों नहीं करते ? ये तो शिथिल होकर काम के निकट बिक जाते हैं – काम के वशीभूत हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि इन में काम का प्रभाव बना रहता है । अतः इन्हें खंजन पक्षी कहना सर्वथा निराधार है । इन्हें मृग की भी उपमा दी जाती है किन्तु ये मृग होते तो जो बधिक रूप उद्धव वध करने के लिए अर्थात अपने निर्गुण ज्ञान की नीरस और कठोर वाणी से प्रहार करने के लिए यहाँ आये हैं उन्हें देख कर ये भाग क्यों नहीं गए क्यूंकि मृग तो बधिकों को देखकर ही ऐसे सघन वन में भाग जाते हैं जहाँ कोई उनके पीछे पहुंच नहीं पाता। इन्हें लोचन भी कैसे कहा जाये क्योंकि यह बृजलोचन श्री कृष्ण के दर्शन के बिना भी जीवित हैं और प्रत्येक क्षण इनका दुःख बढ़ रहा है । सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि इन नेत्रों में कुछ मछली का गुण अवश्य है । एकमात्र मीनत्व ही इनमें बचा है क्योंकि जल भर कर भी ये उसे छोड़ते नहीं , सदैव आंसुओं से भरे रहते हैं । अर्थात जिस प्रकार मीन कभी जल का साथ नहीं छोड़ता ठीक मीन के गुणों वाले हमारे नेत्र भी सदैव जल से भरे रहते हैं ।
राग गौरी
हरिमुख निरखि निमेख बिसारे।
ता दिन तें मनो भए दिगंबर इन नैनन के तारे॥
घूँघट-पट छांड़े बीथिन महँ अहनिसि अटत उघारे।
सहज समाधि रूपरुचि इकटक टरत न टक तें टारे॥
सूर, सुमति समुझति, जिय जानति, ऊधो! बचन तिहारे।
करैं कहा ये कह्यो न मानत लोचन हठी हमारे॥९८॥
इसमें श्री कृष्ण के रूपाकर्षण में मुग्ध गोपियों के नेत्रों का वर्णन किया गया है । गोपियों के हठी नेत्र बहुत प्रयास करने पर भी श्री कृष्ण के सौन्दर्याकर्षण से मुक्त नहीं हो पाते। वे टकटकी बाँध कर निरंतर उन्हीं को देखा करते हैं । गोपियाँ अपने हठी नेत्रों की इस विवशता का उल्लेख उद्धव से कर रही हैं ।
हे उद्धव ! हमारे ये नेत्र श्री कृष्ण के मुख सौंदर्य को देखते ही अपनी पलकों को गिराना भूल गए । ये श्री कृष्ण के मुख सौंदर्य को निर्निमेष देखा करते हैं । ऐसा लगता है कि इन नेत्रों के तारे ( पुतलियां ) उसी दिन से पलक रुपी वस्त्रों को त्याग कर मानो दिगंबर साधु हो गए हों क्योंकि जिस दिन से श्री कृष्ण को देखा है इन नेत्रों कि पुतलियां बंद नहीं होती , ये लज्जा-मर्यादा को भी भूल गए हैं और घूंघट रुपी वस्त्रों को त्याग कर सर्वथा गलियों में दिन रात घूमा करते हैं । ये श्री कृष्ण के सौन्दर्यानुराग में सहज रूप से योगियों की भांति समाधिस्थ हो गये हैं और टकटकी बाँध कर एकटक अर्थात निर्निमेष उन्हें देखा करते हैं , बहुत हटाने पर भी ये अपनी टकटकी बांधने की इस मुद्रा से हटते नहीं । हे उद्धव ! हम अपनी अच्छी बुद्धि से तुम्हारी बातों को समझती हैं और मन में अनुभव भी करती हैं लेकिन क्या करें भी तो क्या करें ये हमारे हठी नेत्र हमारा कहना ही नहीं मानते । ये श्री कृष्ण के सौंदर्य में इस प्रकार मग्न रहते हैं कि किसी की भी बात इन्हें अच्छी नहीं लगती ।
राग सारंग
दूर करहु बीना कर धरिबो।
मोहे मृग नाही रथ हाँक्यो, नाहिंन होत चंद को ढरिबो॥
बीती जाहि पै सोई जानै कठिन है प्रेम-पास को परिबो।
जब तें बिछुरे कमलनयन, सखि, रहत न नयन नीर को गरिबो॥
सीतल चंद अगिनि सम लागत कहिए धीर कौन बिधि धरिबो।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिनु सब झूठो जतननि को करिबो॥९९॥
इसमें राधा की वियोगावस्था का एक मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया गया है । राधा की वियोग पीड़ा को दूर करने के लिए किसी सखी ने हाथ में वीणा लेकर बजाना आरम्भ किया । वीणा की मधुर ध्वनि सुन कर चन्द्रमा के रथ के मृग मोहित हो गए और रात्रि बड़ी हो गयी । राधा को रात्रि के बढ़ जाने से बहुत कष्ट हुआ । अतः वह अपनी सखी से निवेदन कर रही है कि वह अपने हाथ की वीणा को दूर रखे उसे न बजाये ।
वियोगिनी राधा अपनी सखी से कह रही है कि हे सखी ! तुम अपने हाथ में वीणा मत धारण करो । उसे हटा दो अर्थात इस वीणा से मधुर ध्वनियाँ मत निकाल क्योंकि इसकी मधुर ध्वनियों को सुनकर चन्द्रमा के रथ में जुता हुआ मृग मोहित हो गया है और इस से रथ का चलना बंद हो गया तथा चन्द्रमा भी अस्त नहीं हो रहा अर्थात इसके कारण रात्रि बढ़ गयी है । रात्रि का बढ़ना वियोगिनियों के लिए अत्यंत कष्टप्रद होता है । हे सखी ! जिस पर बीतता है वही इस कष्ट को जानता है , वस्तुतः प्रेम के पाश में पड़ना बहुत ही दुखदायी होता है । ईश्वर करे कोई प्रेम जाल में न फंसे । हमारी दशा तो यह है कि जब से श्री कृष्ण से वियोग हुआ है हमारे नेत्रों से अश्रुपात बंद नहीं होता । हे सखी ! मुझे तो इस वियोग में शीतल चन्द्रमा भी अग्नि के समान तापदायक लगता है । अतः तुम्हीं बताओ ऐसी विषम स्थिति में किस प्रकार धैर्य धारण करें। सूरदास के शब्दों में राधा अपनी सखी से कह रही है कि तुम हमें सुख पहुंचाने के लिए बहुत प्रयत्न कर रही हो लेकिन श्री कृष्ण के दर्शन के बिना ये सभी प्रयत्न निरर्थक और बेकार हैं । इनसे किसी भी प्रकार का सुख नहीं मिल सकता।
राग जैतश्री
अति मलीन बृषभानुकुमारी।
हरि-स्रमजल अंतर-तनु भीजे ता लालच न धुआवति सारी।
अधोमुख रहति उरध नहिं चितवति ज्यों गथ हारे थकित जुआरी।
छूटे चिहुर, बदन कुम्हिलाने, ज्यों नलिनी हिमकर की मारी॥
हरि-सँदेस सुनि सहज मृतक भईं, इक बिरहिनि दूजे अलि जारी।
सूर स्याम बिनु यों जीवति हैं ब्रजबनिता सब स्यामदुलारी॥१००॥
इसमें वियोगिनी राधा की मार्मिक दशा का वर्णन किया गया है । राधा एक तो वियोग की व्यथा से संतप्त थी ही । दूसरे उद्धव ने योग सन्देश की चर्चा से उसे और जला दिया । इसी बात को लेकर गोपियाँ परस्पर चर्चा कर रही हैं ।
अरी सखी ! राधा तो अत्यंत मलिन दिखती है श्री कृष्ण के सात्विक प्रेमोद्रेक स्वेद से उसका ह्रदय और तन दोनों ही भीग गया है । इसके कारण उसकी साड़ी मैली हो गयी है और वह अपनी साड़ी इस लालच में धुलवा नहीं रही कि इसमें श्री कृष्ण के सात्विक स्वेद की गंध मिली है जो प्रेम के कारण अत्यंत प्रिय है और साड़ी धुलवाने पर वह गंध चली जाएगी । वह सदैव अपन मुख को नीचे किये बैठी रहती है , ऊपर की और देखती ही नहीं । उसकी ऐसी दशा को देख कर लगता है कि जैसे कोई जुआरी जुएं में अपनी पूँजी हार कर उदासीन बैठा हो । श्रृंगार न करने के कारण राधा के बाल बिखरे हुए हैं । इसका मुख कुम्हलाया दिखाया पड़ता है । ऐसे मुख को देखकर लगता है कि जैसे कमलिनी तुषार पड़ने पर जल गयी हो । (कमल या कमलिनी पर जब तुषार का प्रभाव पड़ता है तो उसका सौंदर्य भी नष्ट हो जाता है ) वह श्री कृष्ण के वियोग में पहले ही संतप्त थी , दूसरे जब उद्धव द्वारा श्री कृष्ण का योग साधना का सन्देश सुना तो सहज ही मृतक तुल्य हो गयी । सूर के शब्दों में ऐसी दशा केवल राधा की नहीं बल्कि श्री कृष्ण की सभी प्रिय गोपियाँ वियोग की ऐसी दारुण पीड़ा को सहती हुयी जीवित रह रही हैं ।
राग मलार
ऊधो! तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेहतगा तें, नाहिंन मन अनुरागी॥
पुरइनि-पात रहत जल-भीतर ता रस देह न दागी।
ज्यों जल माँह तेल की गागरि बूँद न ताके लागी॥
प्रीति-नदी में पावँ न बोस्यो, दृष्टि न रूप परागी।
सूरदास अबला हम भोरी गुर चींटी ज्यों पागी॥१०१॥
इस पद में गोपियाँ उद्धव की नीरसता और शुष्कता के सम्बन्ध में व्यंग्य गर्भित शैली में कह रही हैं कि सचमुच उद्धव जी ही सबसे भाग्यशाली हैं जो किसी से प्रेम करना नहीं जानते ।
हे उद्धव ! तुम्हीं सबसे अच्छे और भाग्यशाली हो जो समस्त प्रेम सूत्रों और बंधनों से अनासक्त और दूर हो और किसी में भी तुम्हारा मन अनुरक्त नहीं है । तात्पर्य यह है कि तुम अत्यंत अभागे हो जो प्रेम रस को नहीं समझते क्योंकि जीवन में सबसे महान प्रेम ही है । तुम्हारी दशा तो उस कमल पत्र की भांति है जिसने जल के भीतर रहते हुए भी जल से अपने शरीर में दाग नहीं लगाया अर्थात कमल पत्र पर जल का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा । आशय यह है कि तुम रहते तो श्री कृष्ण के निकट हो लेकिन उनके प्रेम से सदैव अनासक्त रहे । यही नहीं , जैसे जल में तेल की गगरी को डुबोया जाये तो उस पर जल की एक बूँद भी ठहर नहीं पाती । उसी प्रकार तुम्हारा मानस भी तेल की गगरी की भांति है जिस पर प्रेम की एक बूँद नहीं रूकती अर्थात तुम प्रेम को लेशमात्र भी नहीं समझते । तुम प्रेम के सम्बन्ध में क्या जानो जब कि तुमने कभी न तो प्रेम की नदी में अपने पाँव को निमज्जित किया और न श्री कृष्ण के सौंदर्य पराग में तुम्हारी दृष्टि ही अनुरक्त हुयी । सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि सबसे पगली और भोली भाली हम अबलाएं ही हैं जो गुड़ और चींटी की भांति श्री कृष्ण की रूप माधुरी में चिपट गयीं ।
राग मलार
ऊधो! यह मन और न होय।
पहिले ही चढ़ि रह्यो स्याम-रँग छुटत न देख्यो धोय॥
कैतव-बचन छाँड़ि हरि हमको सोइ करैं जो मूल।
जोग हमैं ऐसो लागत है ज्यों तोहि चंपक फूल॥
अब क्यों मिटत हाथ की रेखा? कहौ कौन बिधि कीजै?
सूर, स्याममुख आनि दिखाओ जाहि निरखि करि जीजै॥१०२॥
उद्धव निर्गुण की चर्चा के द्वारा गोपियों का मन बदलना चाहते हैं किन्तु गोपियाँ अपनी विवशता व्यक्त करते हुए कहती हैं कि उनका मन तो पहले से ही श्याम वर्ण में रंग चुका है अतः अब इस मन पर दूसरा प्रभाव नहीं पड़ सकता क्योंकि श्याम वर्ण अर्थात कृष्ण वर्ण पर कोई और रंग नहीं चढ़ सकता ।
हे उद्धव ! यह मन दूसरा नहीं हो सकता है । इस पर किसी अन्य का प्रभाव नहीं पड़ सकता क्योंकि तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म के उपदेश के पूर्व इस पर श्याम रंग अर्थ कृष्ण का प्रगाढ़ प्रेम चढ़ चुका है और हमने भली – भांति धोकर देख लिया कि वह किसी प्रकार भी नहीं छूट रहा है । आशय यह है कि हमारा मन श्री कृष्ण के प्रेम में इतना रंग गया है कि उसे बदलना संभव नहीं । उसे तुम चाहो भी तो निर्गुणोपासना कि ओर उन्मुख नहीं कर सकते । तुम्हें इसमें सफलता नहीं मिलेगी और श्री कृष्ण से यह अवश्य कह देना कि वह ऐसे छल – कपट की वाणी को छोड़ कर अर्थात योग सन्देश को न भेज कर केवल वास्तविक प्रेम की ही बातें हम लोगों के साथ करें । वे मूल प्रेम तत्व को भूल कर छल कपट की बातें करने लग गए हैं । हमारे लिए इस प्रकार का व्यवहार उन्हें शोभा नहीं देता । हे भ्रमर ( उद्धव ) ! हमें तो तुम्हारा योग उसी प्रकार लगता है जैसे तुम्हें चंपा का पुष्प ( भ्रमर चंपा के पुष्प के पास नहीं जाता , उसके प्रति उसका किसी भी प्रकार का लगाव नहीं है ) . अब हमारी हस्त रेखा को कौन मिटा सकता है ? अर्थात भाग्य में तो श्याम का वियोग लिखा है और उसी की पीड़ा में जीवन को समाप्त करना है । अब दूसरी दिशा में या अन्य मार्ग पर कैसे जा सकती हैं ? तुम्हीं बताओ कि इस रेखा को मिटाने का क्या उपाय है ? सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! यदि तुम हमें जीवित रखना चाहते हो तो श्री कृष्ण के मुख का दर्शन करा दो जिसे देख कर इन निकलते हुए प्राणों की रक्षा हो सके।
राग गौड़
ऊधो! ना हम बिरही, ना तुम दास।
कहत सुनत घट प्रान रहत हैं, हरि तजि भजहु अकास॥
बिरही मीन मरत जल बिछुरे छाँड़ि जियन की आस।
दास-भाव नहिं तजत पपीहा बरु सहिं रहत पियास॥
प्रगट प्रीति दसरथ प्रतिपाली प्रीतम के बनवास।
सूर स्याम सों दृढ़ब्रत कीन्हों मेटि जगत-उपहास॥१०३॥
इस पद में गोपियों का कथन है कि सच्चे अर्थों में वे न तो विरहिणी हैं और न उद्धव जी श्री कृष्ण के सच्चे दास हैं । इसका कारण वे आगे उल्लेख कर रही हैं ।
हे उद्धव ! सच्चे अर्थ में न हम विरहिणी हैं और न तुम श्री कृष्ण के सेवक हो क्योंकि जब तुम यह कहते हो कि श्री कृष्ण को छोड़ कर निर्गुण ब्रह्म की उपासना करो तो इसे सुन कर भी हमारे शरीर में प्राण बने रहते हैं – निकल नहीं जाते । अर्थात यदि हम सब में श्री कृष्ण के प्रति सच्चा प्रेम होता तो ऐसी बातें सुनते ही शरीर से प्राण निकल जाते और यदि तुम श्री कृष्ण के सच्चे दास होते तो उन्हें छोड़ कर निर्गुण ब्रह्म का गुणगान न करते । सच्ची विरहणी तो मछलियां हैं जो जल के न मिलने पर जीने की आशा छोड़ देती हैं अर्थात जल विहीन होने पर वे एक क्षण के लिए भी जीवित नहीं रहती । सच्चा दास तो पपीहा है जो चाहे प्यासा भले रह जाये लेकिन बादल के प्रति अपना दास भाव नहीं त्यागता। वह दास वृत्ति को बनाये हुए उसी से याचना करता है और प्यास के कष्ट को सहन करता है । सच्च एप्रैम का निर्वाह तो राजा दशरथ ने किया जिन्होंने अपने प्रियतम श्री राम के वन जाते ही अपने प्राणों को त्याग दिया । पुत्र प्रेम में प्राणों का मोह नहीं किया । इन सबों की तुलना में हम सब का प्रेम एक दिखावा मात्र है । यद्यपि संसार के उपहास और मर्यादा की चिंता न कर के हमने श्री कृष्ण के प्रति सच्चे प्रेम का दृढ़ संकल्प ले लिया किन्तु यह संकल्प सच्चे प्रेम को प्रभावित न कर सका । हम सब का यह संकल्प पूरा न हो सका । और उनके वियोग में आज भी जीवित हैं । हमें मर जाना चाहिए था ।103
राग सोरठ
ऊधो! कही सो बहुरि न कहियो।
जौ तुम हमहिं जिवायो चाहौ अनबोले ह्वै रहियो॥
हमरे प्रान अघात होत हैं, तुम जानत हौ हाँसी।
या जीवन तें मरन भलो है करवट लैबो कासी॥
जब हरि गवन कियौ पूरब लौं तब लिखि जोग पठायो।
यह तन जरिकै भस्म ह्वै निबर्यौ बहुरि मसान जगायो॥
कै रे! मनोहर आनि मिलायो, कै लै चलु हम साथे।
सूरदास अब मरन बन्यो है, पाप तिहारे माथे॥१०४॥
उद्धव द्वारा बार – बार निर्गुणोपासना पर बल देने के कारण गोपियाँ क्रुद्ध हो गयीं और कहने लगीं कि अब वे दुबारा निर्गुण ज्ञान की चर्चा न करें अन्यथा ठीक न होगा। गोपियों का मन उद्धव की अनर्गल बातों को सुनते – सुनते ऊब गया अतः अब उनमें सहनशीलता की क्षमता नहीं रह गयी ।
हे उद्धव ! जो तुमने निर्गुण ज्ञान विषयक बहुत सी बातें अभी तक कही हैं , अब दुबारा उन्हें मत कहना , क्योंकि ऐसी बातों को सुनना अब हमारे लिए असहनीय है । हाँ , यदि तुम हमें जीवित रखना चाहते हो तो चुप हो कर बैठो । ज्यादा मत बोलो । तुम्हारे इन निर्गुण की बातों से हमारे ह्रदय में मर्मान्तक चोट पहुँचती है लेकिन तुम्हारे लिए यह हंसी ठिठोली जैसा है । अब तो इस जीवन से अच्छा तो मरना ही है । मर जाना ही अच्छा है लेकिन वियोग की पीड़ा में निरंतर जल – जल कर जीवित रहना अच्छा नहीं है । अतः हम काशी जा कर अपने शरीर को आरे से चिरवा लेंगे। जब तक श्री कृष्ण ब्रज मंडल में रहते रहे तब तक योग की एक भी बात उन्होंने नहीं की लेकिन जब वे पूर्व की ओर मथुरा गए तभी से लिख – लिख कर योग का संदेसा भेजने लगे । लेकिन उन्हें जानना चाहिए कि उनके जाते ही वियोगाग्नि में यह शरीर भस्म होकर ही रहा । इस पर भी हमें और जलाने के लिए अपना यह योग सन्देश उद्धव के द्वारा भिजवाया । ऐसी स्थिति में हे उद्धव ! या तो तुम उन्हें लाकर हम सब को उनसे मिलाओ । उनका दर्शन कराओ या तुम हमें अपने साथ मथुरा ही ले चलो। इन दोनों में यदि कोई बात नहीं मानते तो जान लो हमारा मरना निश्चित है और मर जाने पर यह पाप तुम्हारे ही सर लगेगा । तुम्हें ही इस पाप को भोगना पड़ेगा ।
राग सारंग
ऊधो! तुम अपनो जतन करौ।
हित की कहत कुहित की लागै, किन बेकाज ररौ?
जाय करौ उपचार आपनो, हम जो कहत हैं जी की।
कछू कहत कछुवै कहि डारत, धुन देखियत नहिं नीकी।
साधु होय तेहि उत्तर दीजै तुमसों मानी हारि।
याही तें तुम्हैं नँदनंदनजू यहाँ पठाए टारि॥
मथुरा बेगि गहौ इन पाँयन, उपज्यौ है तन रोग।
सूर सुबैद बेगि किन ढूँढ़ौ भए अर्द्धजल जोग॥१०५॥
बार – बार निर्गुण ब्रह्म का प्रतिनिधित्व करने पर गोपियाँ उद्धव से क्रुद्ध हो कर उनका उपहास करती हैं और कहती हैं कि लगता है कि हे उद्धव ! अब तुम विक्षिप्तावस्था को प्राप्त हो गए हो क्योंकि तुम जितनी बातें करते हो वे तुम्हारे पागलपन को ही व्यंजित करती हैं । उत्तम यही होगा कि तुम शीघ्र यहाँ से निकल जाओ और किसी अनुभवी वैद्य से अपने मन और तन का उपचार कराओ ।
हे उद्धव ! अब हम समझ गयी हैं कि तुम पुरे विक्षिप्त हो चुके हो । तुम इस से बचने के लिए कुछ प्रयत्न करो । तुम जिस निर्गुण की बात हमारे हित के लिए करते हो वह हमें बुरी लगती है , तथापि क्यों इसकी रट लगाए घूम रहे हो । क्यों हमारी इच्छा के विरुद्ध निर्गुण का उपदेश दे रहे हो ? हम तुम्हें ह्रदय से सलाह दे रही हैं कि तुम जाकर कहीं अपनी चिकित्सा कराओ क्योंकि तुम कहना कुछ चाहते हो और कह कुछ और डालते हो । अतः तुम्हारा रंग – ढंग हमें कुछ अच्छा नहीं दिखाई पड़ता । आशय यह है कि तुम्हारे लक्षण बुरे ही दिखाई पड़ रहे हैं । यदि कोई सज्जन और समझदार पुरुष हो तो उसकी बातों का उत्तर भी दिया जाये । तुम जैसे विक्षिप्तों से तो हम सब अपनी हार स्वीकार करती हैं । लगता है तुम्हारे पागलपन से ऊब कर ही श्री कृष्ण ने वह से हटा कर तुम्हें हम लोगों के पास भेजा है । हमारी सलाह तो यह है कि तुम इन्ही पांवों से शीघ्र मथुरा लौट जाओ क्योंकि तुम्हारे तन में कोई अत्यंत भयंकर रोग अर्थात सन्निपात हो गया है । अब उत्तम यही होगा कि तुम शीघ्र ही किसी अनुभवी वैद्य को ढूंढ लो क्योंकि तुम मरणासन्न हो गए हो । तुम्हारी दशा तो अब अर्घ्य जल देने के योग्य हो गयी है । जैसे शव को दाह के पूर्व जल देते हैं ठीक उसी प्रकार तुम भी अब उसी अवस्था को प्राप्त कर चुके हो ।
राग सोरठ
ऊधो! जाके माथे भोग।
कुबजा को पटरानी कीन्हों, हमहिं देत वैराग॥
तलफत फिरत सकल ब्रजबनिता चेरी चपरि सोहाग।
बन्यो बनायो संग सखी री! वै रे! हंस वै काग॥
लौंडी के घर डौंड़ी बाजी स्याम राग अनुराग।
हाँसी, कमलनयन-संग खेलति बारहमासी फाग॥
जोग की बेलि लगावन आए काटि प्रेम को बाग।
सूरदास प्रभु ऊख छाँड़ि कै चतुर चिचोरत आग॥१०६॥
इस पद में गोपियाँ श्री कृष्ण और कुब्जा के परस्पर प्रेम का उपहास कर रही हैं और उद्धव से कह रही हैं कि दोनों की जोड़ी भगवान ने अच्छी मिलाई है। यही भाग्य का चक्र है कि पटरानी दासी हो गयी है और दासी पटरानी बन बैठी ।
हे उद्धव ! जिसके मस्तक पर जो भाग्य की रेखाएं लिखी होती हैं उन्हें कौन मिटा सकता है ? आशय यह है कि भाग्यशालिनी तो आज कुब्जा है जिसे श्री कृष्ण ने पटरानी बना दिया और हम सबों को वैराग्य कि शिक्षा देते फिर रहे हैं । आज बेचारी ब्रजबालायें उनके वियोग में तड़प रही हैं और उनकी निष्ठुरता तो देखिये कि दासी कुब्जा को एक बार में बिना सोचे समझे सौभाग्यवती बना दिया । गोपियाँ सखियों से परस्पर कह रही हैं , अरी सखी ! दोनों का साथ तो बना बनाया है । बहुत उचित जोड़ा है । श्री कृष्ण यदि हंस हैं तो वह कुब्जा कौआ है । भला कभी हंस और कौए का साथ हुआ है फिर भी यहाँ तो हंस और कौए दोनों में अत्यंत मेल हो गया । बलिहारी ! आज कुब्जा जैसे दासी का क्या कहना , वह श्याम के प्रेम में अनुरक्त है । काले – कलूटे पर मोहित है । इसी कारण उसके घर में प्रसन्नता के नगाड़े बज रहे हैं । अरी सखी ! हंसी तो इस बात कि है वह दासी श्री कृष्ण के साथ अब बारहमासी फाग खेल रही है । लोग वर्ष में एक बार होली की ख़ुशी मनाते हैं परन्तु कुब्जा तो सदैव होली के उल्लास में मग्न रहती है । पुनः गोपियाँ उद्धव से कहने लगीं – हे उद्धव ! आप तो प्रेम के बाग को काट कर अर्थात श्री कृष्ण के लिए हम लोगों के ह्रदय में जो प्रेम की धारा बह रही है उसे दूर कर के योग की लता ( योग साधना ) का बीजारोपण करने आये हैं । प्रेम की जगह योग साधना की ओर प्रवृत्त करने के प्रयोजन से यहाँ पधारे हैं किन्तु क्या तुम नहीं जानते कि जो बहुत चतुर बनते हैं । तात्पर्य यह है कि आप बनते बहुत बुद्धिमान हैं लेकिन प्रेम के महत्व की अवहेलना कर के नीरस निर्गुण ब्रह्म के ज्ञान का महत्त्व बखानते फिरते हैं । गोपियों के कथनानुसार उद्धव बुद्धिहीन हैं ।
राग सारंग
ऊधो! अब यह समुझ भई।
नँदनंदन के अंग अंग प्रति उपमा न्याय दई॥
कुंतल, कुटिल, भँवर, भरि भाँवरि मालति भुरै लई।
तजत न गहरु कियो कपटी जब जानी निरस गई॥
आनन-इंदुबरन-सँमुख तजि करखे तें न नई।
निरमोही नहिं नेह, कुमुदिनी अंतहि हेम हई॥
तन घनस्याम सेइ निसिबासर, रटि रसना छिजई।
सूर विवेकहीन चातक-मुख बूँदौ तौ न सई॥१०७॥
गोपियों ने प्रस्तुत पद में परंपरागत गृहीत उपमानों की निष्ठुरता का उल्लेख तर्क संगत ढंग से किया है ।
हे उद्धव ! श्री कृष्ण के अंग – प्रत्यंग के लिए उपयुक्त उपमानों की कुटिलता और निष्ठुरता का रहस्य अब समझ में आया अर्थात जो उनके अंगों के लिए चुन – चुन कर के उपमान इकट्ठे किये गए हैं उनकी प्रकृतिगत विशेषताओं पर विचार कीजिये । पहले घुंघराले बालों को लीजिये – इनकी उपमा भौरों से दी जाती है किन्तु भौंरे कितने कुटिल होते हैं । वे पहले तो मालती के चारों ओर बड़े प्यार से मंडराते हैं और उसे मोहित करते हैं , फिर क्या है उसके समस्त मकरंद को पीने के बाद जब देखा कि इसमें रस नहीं रह गया तो उसे त्यागने में किंचित देरी नहीं की और उसे छोड़कर अन्यत्र चले गए । यह भौंरों की कुटिलता का एक ज्वलंत उदाहरण है । इसी प्रकार श्री कृष्ण के मुख की उपमा चन्द्रमा चन्द्रमा से दी जाती है लेकिन चन्द्रमा कितना कठोर है यह उसके प्रेम में मुग्ध कुमुदनियों की दशा से जाना जा सकता है । बेचारी कुमुदनी तो चांद्रायण के सौंदर्य से इतनी मोहित हुयी कि हटाने और खींचने से भी नहीं हटी लेकिन उस निष्ठुर चन्द्रमा में मोह कहाँ था उसने अंततः उसे पाले से मार दिया । इसी प्रकार बेचारे चातक ने तो दिन – रात बादल के प्रेम में अर्थात स्वाति नक्षत्र की बूंदों के लिए रटते – रटते अपनी जिह्वा क्षीण कर दी – घिस डाली लेकिन निष्ठुर और अज्ञानी बादल ने उसके मुख में एक भी बूँद नहीं डाली । बेचारे चातक ने बिना विचारे बादल के लिए अपने जीवन को उत्सर्ग कर दिया लेकिन विवेकहीन बदल को किंचित भी दया नहीं आयी । यही दशा गोपियों की रही । वे श्री कृष्ण के अंग – प्रत्यंग के आकर्षण में फांसी रहीं लेकिन अंत में श्री कृष्ण ने उनके साथ धोखा किया ।
राग धनाश्री
ऊधो! हम अति निपट अनाथ।
जैसे मधु तोरे की माखी त्यों हम बिनु ब्रजनाथ॥
अधर-अमृत की पीर मुई, हम बालदसा तें जोरी।
सो तौ बधिक सुफलकसुत लै गयो अनायास ही तोरी॥
जब लगि पलक पानि मीड़ति रही तब लगि गए हरि दूरी।
कै निरोध निबरे तिहि अवसर दै पग रथ की धूरी॥
सब दिन करी कृपन की संगति, कबहुँ न कीन्हों भोग।
सूर बिधाता रचि राख्यो है, कुबजा के मुख-जोग॥१०८॥
इस पद में गोपियाँ उद्धव से अपने दैन्य भाव को प्रदर्शित कर रही हैं। गोपियों के निराश मन का यह अत्यंत कारुणिक और ह्रदय विदारक चित्र है । गोपियों को बहुत बड़ी आशा थी कि वे श्री कृष्ण के जिस मधुर अधरामृत को संचित कर रही हैं उसका भविष्य में उपभोग करेंगी , लेकिन मन की मन में ही रह गयी और उस अधरामृत की अधिकारिणी कुब्जा बन बैठी ।
हे उद्धव ! अब हम सब सर्वथा अनाथ हो गयीं । इस समय हम तो श्री कृष्ण के बिना उस मधुमक्खी की भांति तड़प रही हैं और मारी – मारी फिर रही हैं जिसका मधु का छत्ता तोड़ लिया गया हो , जैसे मधुमक्खियां बहुत समय तक अपने मधु का संग्रह अपने मधु छत्ते में करती हैं उसी प्रकार हु सब भी बचपन से श्री कृष्ण के अधरामृत के आनंद का संग्रह करती रहीं और सोचा था कि समय आने पर इस अधरामृत को ग्रहण करेंगी लेकिन यह सुखद संयोग प्राप्त ना हो सका और हम उसके अभाव में मरती रहीं क्योंकि उस अधरामृत रुपी मधु छत्ते को बहेलिया रुपी अक्रूर अचानक तोड़ कर उठा ले गए । आशय यह है कि अचानक अक्रूर जी ब्रज पधारे और हमारे प्रिय श्री कृष्ण और बलराम के बहाने से रथ पर बैठा कर मथुरा ले गए । जब तक हम सब अपनी पलकों को हाथों से मीचती रहीं और सोते से जाग्रत अवस्था में आयीं तब तक श्री कृष्ण बहुत दूर निकल चुके थे । हम सब उनके पीछे दौड़कर उन्हें रोकने कि बहुत बड़ी चेष्टा की लेकिन अक्रूर जी रथ के पहियों की धूल उड़ाते हुए निकल भागे , उनकी धूल में हम श्री कृष्ण को देख ना सकीं – अंततः निराश होकर लौट आयीं , हमने तो सदैव कंजूसों जैसा व्यवहार किया और कभी भी श्री कृष्ण के उस सुख को भोगा नहीं , उसे छिपाती रहीं और खर्च करने में कतराती रहीं लेकिन भाग्य की बात कौन जानता है ? सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि जिस सुख को संग्रह किया आज उस ब्रह्मा ने उसे कुब्जा के भाग्य में रच दिया और उसे कुब्जा के उपयुक्त समझा गया और उसकी अधिकारिणी वह बन बैठी ।
राग सोरठ
ऊधो! ब्रज की दसा बिचारौ।
ता पाछे यह सिद्धि आपनी जोगकथा बिस्तारौ॥
जेहि कारन पठए नँदनंदन सो सोचहु मन माहीं।
केतिक बीच बिरह परमारथ जानत हौ किधौं नाहीं॥
तुम निज[१] दास जो सखा स्याम के संतत निकट रहत हौ।
जल बूड़त अवलम्ब फेन को फिरि फिरि कहा गहत हौ॥
वै अति ललित मनोहर आनन कैसे मनहिं बिसारौं।
जोग जुक्ति औ मुक्ति बिबिध बिधि वा मुरली पर वारौं॥
जेहि उर बसे स्यामसुंदर घन क्यों निर्गुन कहि आवै।
सूरस्याम सोइ भजन बहावै जाहि दूसरो भावै॥१०९॥
गोपियाँ उद्धव की योग – चर्चा से ऊब कर अंततः कहने लगीं कि उद्धव को पहले ब्रज की दशा पर विचार करना चाहिए तब अपने निर्गुण ब्रह्म का उपदेश देना चाहिए । आश्चर्य है कि उद्धव इतना भी नहीं जानते कि गोपियों की मनः स्थिति और योग साधना की स्थिति में कितना अंतर है ? वे उद्धव से निवेदन कर रही है कि वे दोनों स्थितियों पर पहले विचार करें तब अपने अध्यात्म चिंतन का प्रसार करें ।
हे उद्धव ! पहले तुम ब्रजवासियों की मानसिक दशा पर विचार करो कि वे तुम्हारी योग साधना के उपयुक्त हैं या नहीं । फिर इसके पश्चात् सिद्धिदायिनी अपनी योग कथा का विस्तारपूर्वक विवेचन करें और जिस लिए अर्थात जिस योग साधना का प्रचार करने के लिए श्री कृष्ण ने तुम्हें यहाँ भेजा है उसके सम्बन्ध में अपने मन में विचार करो उसे यहाँ बताने की आवश्यकता नहीं हैं । तुम स्वयं विवेकशील पुरुष हो यदि नंदनंदन ने साग्रह हमें योग मार्ग पर प्रवृत्त करने के उद्देश्य से भेजा है तो कम से कम हम सब की वियोगावस्था को तो तुम देख ही रहे हो , उचित और अनुचित का विचार तो प्रत्यक्ष देखकर ही कर सकते हो । तुम्हें पता है कि नहीं जरा सोचो , वियोग और अध्यात्म चर्चा में कितना अंतर है ? तुम तो श्री कृष्ण के खास सेवक हो और सदैव उनके पास रहते हो फिर भी उनके विचारों को समझ नहीं सके हो । क्या सचमुच उन्होंने तुम्हें हमको योग साधना में प्रवृत्त करने के लिए भेजा है या तुम बिना उनके वास्तविक विचारों को समझे इस प्रकार बकते चले जा रहे हो । भला , जो पानी में डूब रहा हो उसे फेन के सहारे बचने का क्या उपदेश दे रहे हो ? क्या डूबता व्यक्ति पानी के बुलबुले को पकड़ कर अपनी रक्षा कर सकता है ? आशय यह है कि जो वियोग व्यथा के सागर में डूब रहा हो क्या उसे अध्यात्म चिंतन की बातों से संतोष प्राप्त हो सकता है ? हे उद्धव ! यह कैसे संभव है कि हम सब श्री कृष्ण के सुन्दर मुख को मन से भुला दें । उनके मुख सौंदर्य की याद कैसे जा सकती है ? हम लोग तो योग की युक्तियों अर्थात योग की साधनाओं और अनेक प्रकार के मोक्षानन्द को तो श्री कृष्ण की मधुर मुरली के आनंद पर न्योछावर कर देती हैं अर्थात जो सुख श्री कृष्ण के वेणु वादन से मिलता था वह इस योग साधना और मुक्ति में कहाँ ? भला जिसके ह्रदय में अभिन्न रूप से श्याम सुन्दर निवास कर रहे हों तुम्हीं बताओ निर्गुण ब्रह्म उसके ह्रदय में कैसे समा सकता है ? सूरदास के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि उस भजन को तो वह दूर कर देता है उस भजन को तो वह पसंद नहीं करता । वह उसके लिए व्यर्थ है जिसे अपने इष्टदेव के अतिरिक्त दूसरा प्रिय हो अर्थात जो भजन किसी दूसरे इष्टदेव की ओर आकर्षित करता है उसे वह दूर फेंक देता है उधर दृष्टि नहीं डालता । तात्पर्य यह है कि हम सब श्री कृष्ण कि अनन्य उपासिका हैं और तुम्हरे निर्गुण भजन करने में सर्वथा असमर्थ हैं ।
राग सारंग
ऊधो! यह हित लागै काहे?
निसिदिन नयन तपत दरसन को तुम जो कहत हिय-माहे॥
नींद न परति चहूं दिसि चितवति बिरह-अनल के दाहै।
उर तेँ निकसि करत क्यों न सीतल जो पै कान्ह यहाँ है॥
पा लागों ऐसेहि रहन दे अवधि-आस-जल-थाहै।
जनि बोरहि निर्गुन-समुद्र में, फिरि न पायहौ चाहे॥
जाको मन जाही तेँ राच्यो तासों बनै निबाहे।
सूर कहा लै करै पपीहा एते सर सरिता हैं?॥११०॥
उद्धव गोपियों को यह शिक्षा दे रहे हैं कि ब्रह्म घट – घट में व्याप्त है और श्री कृष्ण भी निर्गुण ब्रह्म के रूप में सबके ह्रदय में उपस्थित हैं । गोपियाँ इस बात को मानने के लिए सहमत नहीं हैं और निर्गुण ब्रह्म और कृष्ण के अंतर को स्पष्ट कर रही हैं ।
हे उद्धव ! तुम्हारी निर्गुण ब्रह्म विषयक बातें किस लिए रुचिकर लग सकती हैं अर्थात तुम्हारी बातें हमें बिलकुल रुचिकर नहीं लगतीं , यद्यपि तुम हमारे हित में कहते हो लेकिन तुम्हारी बात हम कैसे मानें क्योंकि श्री कृष्ण के दर्शन के बिना हमारे नेत्र तो दिन रात संतप्त रहते हैं लेकिन तुम्हारी यह धारणा है कि वे ह्रदय में ही हैं । हमारे ऊपर इन बातों का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता बल्कि स्थिति यह है कि श्री कृष्ण कि वियोगग्नि कि जलन में हमें नींद नहीं लगती और चारों तरफ देखती रहती हैं और यदि श्री कृष्ण यहाँ इस ह्रदय में निर्गुण ब्रह्म के रूप में हैं तो निकल कर हमारी वियोगाग्नि को शीतल क्यों नहीं करते ? हम तुम्हारे पैरों पर गिर रहे हैं , तुमसे अनुनय विनय कर रहे हैं कि हमें श्री कृष्ण के आने की आशा रूपी गहराई में पड़े रहने दो । हमें श्री कृष्ण के आने की आशा में जो सुख है वह तुम्हारे घट – घट वासी निर्गुण ब्रह्म में नहीं । अतः तुम अपने निर्गुण ब्रह्म के समुद्र में हमें मत डुबाओ । श्री कृष्ण से वियुक्त करके निर्गुण ब्रह्म के अद्वैत सिद्धांत में हमें मत फंसाओ नहीं तो तुम ढूंढ़ने पर भी पुनः हमें नहीं पा सकोगे । हमारा स्वतन्त्र अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। हे उद्धव ! सत्य तो यह है कि जिसका मन जिस से जुड़ जाता है , जिस पर अनुरक्त होता है उसके साथ प्रेम निर्वाह करना ही पड़ता है । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि पपीहे के लिए इतने तालाबों और नदियों का जल है लेकिन बिना स्वाति के जल के वह इसे लेकर क्या करे ? इस से उसके किस प्रयोजन की सिद्धि होगी । उसी प्रकार हम लोगों का मन तो श्री कृष्ण के प्रेम में अनुरक्त है अतः तुम्हारे निर्गुण से हमें क्या लाभ होगा ?
राग सारंग
ऊधो! ब्रज में पैठ करी।
यह निर्गुन, निर्मूल गाठरी अब किन करहु खरी॥
नफा जानिकै ह्याँ लै आए सबै बस्तु अकरी।
यह सौदा तुम ह्वाँ लै बेंचौ जहाँ बड़ी नगरी॥
हम ग्वालिन, गोरस दधि बेंचौ, लेहिं अबै सबरी।
सूर यहाँ कोउ गाहक नाहीं देखियत गरे परी॥१११॥
इस पद में गोपियाँ उद्धव को निर्गुण ब्रह्म विषयक सिद्धांतों का विक्रय करने वाले एक व्यापारी के रूप में कल्पित करके उनका उपहास कर रही हैं । समस्त पद में व्यंजना बलित शब्दावली प्रयुक्त है ।
निर्गुण ब्रह्म की निःसारता पर विचार करती हुई गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हे उद्धव ! तुमने तो अब ब्रज में अपनी दुकान खोल ली है । अतः ऐसे समय तुम अपनी इस निर्गुण और निर्मूल गठरी को ( निर्गुण अर्थात जिसमें किसी प्रकार का गुण ही न हो और निर्मूल अर्थात जिस व्यापर में किसी प्रकार कि पूँजी न लगी हो – बेच कर दाम क्यों नहीं ले लेते ?) आशय यह है कि तुम्हारे इस निर्गुण ब्रह्म का प्रभाव ब्रज में किसी पर भी नहीं पड़ेगा और इसके गुणों की तुम जितनी प्रशंसा करते हो वह सब व्यर्थ हो जाएगी । तुम इसे यहाँ यह सोच कर लाये हो कि इस से बहुत लाभ कमाएंगे किन्तु तुम्हारे निर्गुण का यह सौदा बड़ा मंहगा है , यहाँ के लोग इसे नहीं खरीद सकते । हाँ तुम यदि बड़े नगर अर्थात मथुरा जैसी महानगरी में इसे बेचो तो तुम्हें अवश्य सफलता मिलेगी क्योंकि इस सौदे के अच्छे ग्राहक अर्थात निर्गुण ज्ञान के पारखी कुब्जा और कृष्ण वहीँ मिल सकते हैं । हम सब इतना कीमती और मंहगा सौदा खरीदने में असमर्थ हैं क्योंकि हम सब दूध दही जैसे सामान्य सौदे बेचती हैं । यदि तुम्हारे पास दूध – दही हो तो ले आओ , सब का सब खरीद लेंगी । आशय यह है कि जो दूध दही बेचने वाली स्त्रियां हैं , उन्हें निर्गुण ज्ञान की शिक्षा देना कहाँ तक उचित है ? सूर के शब्दों में गोपियों का उद्धव के प्रति कथन है कि हे उद्धव ! तुम्हारे इस माल का यहाँ कोई ग्राहक नहीं है । फिर भी ऐसा लगता है कि तुम इसे बलात हमारे गले मढ़ना चाहते हो । अर्थात हमारी इच्छा के विरुद्ध तुम जबरदस्ती हमें निर्गुण मार्ग पर लाना चाहते हो ।
राग सारंग
गुप्त मते की बात कहौ जनि कहुँ काहू के आगे।
कै हम जानैं कै तुम, ऊधो! इतनो पावैं माँगे॥
एक बेर खेलत बृँदाबन कंटक चुभि गयो पाँय।
कंटक सों कंटक लै काढ्यो अपने हाथ सुभाय॥
एक दिवस बिहरत बन-भीतर मैं जो सुनाई भूख।
पाके फल वै देखि मनोहर चढ़े कृपा करि रूख॥
ऐसी प्रीति हमारी उनकी बसते गोकुल-बास।
सूरदास प्रभु सब बिसराई मधुबन कियो निवास॥११२॥
गोपियाँ उद्धव से अपनी पूर्व स्मृतियाँ बता रही हैं । इस पद में गोपियाँ अपना दैन्य भाव और आत्मीयता व्यक्त कर रही हैं । श्री कृष्ण और उद्धव की अभिन्नता जान कर ही गोपियाँ उद्धव के प्रति अपना विश्वास प्रकट कर रही हैं । उन्हें यह आशा है कि उद्धव श्री कृष्ण से इन मधुर स्मृतियों कि चर्चा करेंगे और इसे सुन कर कदाचित वे मथुरा से लौट आएं ।
हे उद्धव ! आज हम तुम्हारे समक्ष श्री कृष्ण विषयक कुछ गुप्त प्रसंग का कथन करना चाहेंगीं किन्तु आपसे निवेदन है कि इसे किसी के भी समक्ष कहियेगा नहीं । हे उद्धव ! इस बात को हम जाने या आप , कोई तीसरा व्यक्ति न जानने पावे । आपसे इस विषय में हमारी इतनी ही मांग है । हमें विश्वास है कि आप हमारी इच्छा पूर्ती करने की कृपा करेंगे । एक प्रसंग यों है कि एक बार वृन्दावन में खेलते समय हमारे पैरों में कांटे चुभ गए । श्री कृष्ण ने उन काँटों को एक काँटा ले कर सहज रूप से निकाल दिया । उनकी यह संवेदनशीलता आज भी आँखों के सामने है । इसी प्रकार एक दिन वन में विचरण करते समय हमें भूख लग गयी जब इसकी चर्चा हमने श्री कृष्ण से की तो वे शीघ्र ही सुन्दर और पके हुए फलों को देखकर वृक्ष पर चढ़ गए और उन्हें तोड़कर हमें लेकर दिया । जब वे गोकुल में रहते थे तब हमारी उनके साथ कितनी प्रगाढ़ मित्रता थी । आज मथुरा में बस कर उन्होंने वह मित्रता और पुराण सम्बन्ध सब भुला दिया । यह समय का परिवर्तन ही है और क्या कहा जाये ?
राग सारंग
मधुकर! राखु जोग की बात।
कहि कहि कथा स्यामसुंदर की सीतल करु सब गात॥
तेहि निर्गुन गुनहीन गुनैबो सुनि सुंदरि अनखात।
दीरघ नदी नाव कागद की को देख्यो चढ़ि जात?
हम तन हेरि, चितै अपनो पट देखि पसारहि लात।
सूरदास वा सगुन छाँड़ि छन जैसे कल्प बिहात॥११३॥
गोपियाँ उद्धव के निर्गुण सिद्धांत को बिलकुल भी सुनना नहीं चाहतीं । उनका कथन है कि निर्गुण की चर्चा से उनकी वियोग व्यथा कैसे दूर हो सकती है । वे कृष्ण के सगुण रूप के बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रहना चाहतीं । उनके लिए तो सगुण के बिना एक क्षण कल्प के समान बीतता है ।
हे उद्धव ! तुम अपनी यह निर्गुण ब्रह्म-विषयक बातें दूर रखो । हमें तुम्हारी योग साधना की बातें अच्छी नहीं लगतीं । हाँ यदि तुम कुछ कहना चाहते हो तो श्री कृष्ण की मधुर कथा कह कर हमारे शरीर को शीतल कर दो । श्री कृष्ण की मधुर चर्चा से हमारा संतप्त शरीर आनंद से भर जायेगा । उस गुणहीन ब्रह्म को गुणयुक्त बनाने से ब्रज की सभी सुंदरियाँ क्रुद्ध हो जाती हैं । अतः यही अच्छा होगा कि उस गुणहीन का प्रशस्ति गान अब अधिक ना करो । उद्धव जी ! भला यह तो बताओ कि कागज की नाव द्वारा विशाल नदी को पार नहीं किया जा सकता । उसी प्रकार निस्सार निर्गुण सिद्धांतों को जो कागज की नाव के सदृश हैं जानकार वियोग व्यथा की विशाल नदी को कैसे पार सकते हैं ? पहले आप हमारी ओर देखिये । हमारी दशा पर विचार कीजिये अर्थात हमारी क्षमता और शक्ति की सीमा को समझिये । पुनः अपने वस्त्र की सीमा को देखकर पैर फैलाइये अर्थात अपने निर्गुण ब्रह्म की क्षमता समझ कर ही तुम्हें अपने पैर फैलाने चाहिए । तुम्हें जानना चाहिए कि क्या तुम्हारा निर्गुण ब्रह्म हम भोली-भाली ब्रज बालाओं के दुःख को दूर करने में समर्थ हो सकता है । यदि वह समर्थ नहीं है तो तुम्हरा यह प्रयास निरर्थक है । अपनी क्षमता के आधार पर ही यह प्रयास करना चाहिए । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि हे उद्धव ! हमें तो उस सगुण श्री कृष्ण के दर्शन के बिना एक – एक क्षण एक – एक कल्प के समान बीतता है । उनके बिना समय काटे नहीं कटता ।
राग बिलावल
ऊधो! तुम अति चतुर सुजान।
जे पहिले रँग रंगी स्यामरँग तिन्हैं न चढ़ै रँग आन॥
द्वै लोचन जो विरद किए स्रुति गावत एक समान।
भेद चकोर कियो तिनहू में बिधु प्रीतम, रिपु भान॥
बिरहिनि बिरह भजै पा लागों तुम हौ पूरन-ज्ञान।
दादुर जल बिनु जियै पवन भखि, मीन तजै हठि प्रान॥
बारिजबदन नयन मेरे पटपद कब करिहैं मधुपान?
सूरदास गोपीन प्रतिज्ञा, छुवत न जोग बिरान॥११४॥
गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि रूचि की विभिन्नता के कारण एक ही वस्तु लोगों को भिन्न – भिन्न प्रतीत होती है । अतः सगुण श्री कृष्ण के प्रेम में अनुरक्त होने के कारण उन्हें उद्धव का निर्गुण ब्रह्म किसी भी रूप में अच्छा और रुचिकर नहीं लगता ।
हे उद्धव ! तुम तो अत्यंत प्रवीण और ज्ञानी प्रतीत होते हो । मूढ़ हो तो उसके सम्बन्ध में कुछ कहा भी जा सकता है लेकिन तुम्हारी चतुराई और ज्ञान के बारे में अविश्वास कैसे किया जाये ? अतः तुम जैसे चतुर और ज्ञानी से स्पष्ट रूप से कह रही हैं कि जिस पर श्याम रंग चढ़ जाता है उस पर दूसरा रंग नहीं चढ़ सकता । आशय यह है कि जो श्री कृष्ण के प्रगाढ़ प्रेम सूत्र में बंध चुका है वह दूसरे के प्रेम से कैसे प्रभावित हो सकता है ? क्या तुम्हें यह विदित नहीं कि उपनिषद और वेदादि में सूर्य और चन्द्रमा ईश्वर के दो नेत्रों के रूप में मान्य हैं और वे इनका इसी रूप में यश गाने और इन दोनों के महत्व का निरूपण समान रूपेण करते हैं । फिर भी रूचि भेद के कारण चकोर पक्षी ने दोनों को भिन्न – भिन्न माना है अर्थात उसने चन्द्रमा को अपना प्रियतम समझा और सूर्य को शत्रु । इसी प्रकार तुम्हारे चरण पकड़ती हैं हम विरहिणी तो अपने वियोग को ही अच्छा समझती हैं । तुम तो पूर्ण ज्ञानी हो इस कारण हमारे विरह के महत्त्व को समझते हो । आशय है कि तुम्हारी निर्गुणोपासना से अच्छा तो यही है कि हम सब श्री कृष्ण के वियोग में ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर दें। हे उद्धव ! प्रेमोपासक भी भिन्न – भिन्न कोटि के होते हैं । जैसे जल से प्रीति रखने वाला मेढक उसके अभाव में मरता नहीं और हवा पीकर जीवित रहता है लेकिन मेढक की तुलना में मछलियों की स्थिति भिन्न है । वे जल के ना रहने पर हठ पूर्वक अपने प्राण त्याग देती हैं । व्यंजना यह है कि तुम अपने उपास्य के आभाव में भले ही जीवित रहो लेकिन हम सब श्री कृष्ण के बिना जीवित नहीं रह सकतीं । हे उद्धव ! सच बताओ हमारे इन भ्रमर रुपी नेत्रों को श्री कृष्ण के कमलवत मुख के मधुपान ( सौंदर्य रस के आस्वादन ) का सुयोग कब प्राप्त होगा ? कब उनका दर्शन होगा ? सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि उन्होंने संकल्प कर लिया है कि प्रेम साधना में रत इस पराये योग साधना को वे किसी भी प्रकार स्पर्श नहीं करेंगी । आशय यह है कि जो श्री कृष्ण कि अनन्य भाव से उपासिका हैं वे निर्गुण ब्रह्म की साधना को कैसे ग्रहण कर सकती हैं ।
राग बिलावल
ऊधो! कोकिल कूजत कानन।
तुम हमको उपदेस करत हौ भस्म लगावन आनन॥
औरों सब तजि, सिंगी लै लै टेरन, चढ़न पखानन।
पै नित आनि पपीहा के मिस मदन हनत निज बानन॥
हम तौ निपट अहीरि बावरी जोग दीजिए ज्ञानिन।
कहा कथत मामी के आगे जानत नानी नानन॥
सुन्दरस्याम मनोहर मूरति भावति नीके गानन।
सूर मुकुति कैसे पूजति[१] है वा मुरली को तानन?॥११५॥
गोपियाँ उद्धव से स्पष्ट संकेत कर रही हैं कि दोनों की परिस्थितियों में कितना अंतर है । वे उद्धव की अज्ञानता से दुखित होकर कहती हैं कि एक ओर तो कोयल बसंतागमन की घोषणा कर रही है दूसरी ओर वे भस्म लगाने की बात कर रहे हैं । प्रकृति क्या कह रही है , इसे भी तो समझें ।
हे उद्धव ! जरा कोयल की कूक पर तो ध्यान दीजिये। वह वन में कूकती हुयी बसंत की सूचना दे रही है और तुम हमें निर्गुण ब्रह्मोपासना का उपदेश दे कर मुख पर भस्म लगाने का आग्रह कर रहे हो । तुम इतने अज्ञानी हो कि प्रकृति के भी स्वर को नहीं पहचान पा रहे हो । आशय यह है कि बसंत के अवसर पर मुँह पर अबीर गुलाल लगाना चाहिए किन्तु तुम उसकी जगह मुख पर राख लगाने की बात कर रहे हो । यही नहीं और सभी साज – श्रृंगार को छोड़कर पर्वत की शिलाओं पर बैठ कर योगियों की सी मुद्रा में तुम सिंगी – बाजा फूंकने पर बल दे रहे हो लेकिन इस साधना को ग्रहण करने में हम सब असमर्थ हैं क्योंकि इधर पपीहा की पी – पी की आवाज को सुन कर श्री कृष्ण की स्मृति जग जाती है । सत्य तो यह है कि हम लोग बिलकुल मूर्ख और अहीरनी हैं । आपके निर्गुण ब्रह्म की बातों को क्या समझें ? अरे निर्गुण ज्ञान की बातों का उपदेश तो आप ज्ञानियों को दीजिये । व्यंजना यह है कि ज्ञानी श्री कृष्ण और परम विदुषी कुब्जा दोनों ही इसका मर्म जान सकते हैं , उन्हीं को यह ज्ञान दीजिये । इसकी पात्रता हम में नहीं है । हम सब अच्छे से जानती हैं यह योग सन्देश कृष्ण ने नहीं भेजा है । वह कब से योगी बन बैठा ? अरे उसकी तो हम नस – नस जानती हैं । तुम उसके योगी होने की चर्चा हमारे सामने क्यों कर रहे हो ? तुम्हारी इस प्रकार की बातें तो उस कहावत को चरित्रार्थ कर रही हैं जिसमें मामी के सामने नानी और नाना की चर्चा की जाये । भला यह बताओ कि नाना – नानी क्या नहीं जानते जो मामी के आगे कह रहे हो ? तात्पर्य यह है कि कल तो वह हम सब का दूध – दही चुराता रहा और आज वह योग – साधना की बातें करने लगा । सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि उद्धव ! हमें तो श्री कृष्ण की मनोहारिणी मूर्ति और उनके सुन्दर गीत ही अच्छे लगते हैं । क्या श्री कृष्ण की मधुर वंशी की ध्वनि के आनंद की समता तुम्हारा मुक्ति जनित आनंद कभी कर सकता है ? तात्पर्य यह है कि हम सब के लिए तो मुरली की ध्वनि का सुख मुक्ति से अधिक बढ़कर है ।
राग सारंग
ऊधो, हम अजान मतिभोरी।
जानति हैं ते जोग की बातें नागरि नवल किसोरी॥
कंचन को मृग कौनै देख्यौ, कोनै बाँध्यो डोरी?
कहु धौं, मधुप! बारि मथि माखन कौने भरी कमोरी?
बिन ही भीत चित्र किन काढ्यो, किन नभ बाँध्यो झोरी?
कहौ कौन पै कढ़त कनूकी जिन हठि भूसी पछोरी॥
यह ब्यवहार तिहारो, बलि बलि! हम अबला मति थोरी।
निरखहिं सूर स्याम-मुख चंदहि अँखिया लगनि-चकोरी॥११६॥
गोपियों के कथनानुसार योग की साधना भोली – भाली अहीर की अबलाओं के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है । मतिहीन ब्रज की इन अबलाओं के लिए निर्गुण ब्रह्म की उपासना का उपदेश स्वर्ण मृग को डोरी से बाँधने के समान असंभव है ।
हे उद्धव ! आप जो योग की चर्चा कर रहे हैं उसे हम अज्ञानी गोपियाँ क्या समझें ? अरे योग की बातें तो जो चतुर नवल किशोरियां हैं वे समझती हैं । तुम बलात इसे हमारे गले मढ़ रहे हो किन्तु तुम्हें इसमें सफलता नहीं मिलेगी । यह तो बताओ कि किसने सोने का मृग देखा है और उसे किसने डोरी में बाँधा है अर्थात जैसे सोने के मृग को देखा नहीं जा सकता और न उसे बांधा जा सकता है उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म को न आँखों से देखा जा सकता है और न उसे अपने वश में किया जा सकता है । सोने का मृग तो मारीच के रूप में सीता ने देखा था , लेकिन वह असत्य और मायावी था , उसे राम ने न पकड़ा न बांधा । वह तो मायामृग मारीच था । उद्धव जी यह तो बताओ कि किसने पानी को मथकर मक्खन निकाला और उसे अपनी मटकी में भरा है ? तात्पर्य यह है कि जैसे पानी से मथकर मक्खन नहीं निकाला जा सकता उसी प्रकार तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म से सगुण श्री कृष्ण जैसा आनंद नहीं प्राप्त किया जा सकता । क्या कभी किसी ने बिना दीवाल या बिना आधार के चित्र बनाया है ? अर्थात शून्य भित्ति पर चित्र रचना नहीं की जा सकती – यह असंभव है । इसी प्रकार किसने आकाश को झोली में बाँध कर रखा है ? क्या अनंत आकाश भी एक छोटी सी झोली में समा सकता है ? आशय यह है कि जैसे एक छोटी सी झोली में अनंत आकाश को बाँध कर नहीं रखा जा सकता उसी तरह गोपियाँ अपनी छोटी सी बुद्धि के द्वारा अनंत और अपार निर्गुण ब्रह्म के सम्बन्ध में कैसे विचार कर सकती हैं ? और निराकार की उपासना तो उसी प्रकार है जैसे बिना आधार के चित्र रचना । तुम जो हठपूर्वक हम अबलाओं को योग साधना की ओर प्रवृत्त कर रहे हो उसमें तुम्हें कैसे सफलता मिल सकती है ? भला यह तो बताओ किसने बलात भूसी को फटक कर अन्न के कणों को प्राप्त किया है अर्थात जैसे निःसार निर्गुण ब्रह्म वास्तविक आनंद की प्राप्ति संभव नहीं । तुम्हारे ऐसे अटपटे और विचित्र व्यव्हार पर हम बुद्धिहीन अबलाएं बलिहारी हैं । आशय यह है कि तुम्हारे ऐसे व्यवहार पर ( अबलाओं को निर्गुण ब्रह्म की साधना पर प्रवृत्त करने के कार्य कलाप पर ) हम अत्यंत दुखित हैं । सूर के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि हे उद्धव ! हमारी आंखें तो श्याम सुन्दर के चंद्र मुख को उसी लगन से देखा करती हैं जैसे चकोरी बहुत तन्मयता के साथ चन्द्रमा की और देखती रहती है ।
राग गौरी
ऊधो! कमलनयन बिनु रहिए।
इक हरि हमैं अनाथ करि छाँड़ी दुजे बिरह किमि सहिए?
ज्यों ऊजर खेरे की मूरति को पूजै, को मानै?
ऐसी हम गोपाल बिनु उधो! कठिन बिथा को जानै?
तन मलीन, मन कमलनयन सों मिलिबे की धरि आस।
सूरदास स्वामी बिन देखे लोचन मरत पियास॥११७॥
गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि कमल नेत्र श्री कृष्ण के बिना एक क्षण भी जीवित रहना उनके लिए संभव नहीं क्योंकि वियोग की पीड़ा गोपियों के लिए असहनीय है ।
हे उद्धव ! अब तो कमल नेत्र श्री कृष्ण के बिना रह रहे हैं । उनके दर्शन से वंचित हमारे जीवन के क्षण कैसे बीत रहे हैं इसे कौन जानता है ? एक तो श्री कृष्ण ने हमें छोड़ दिया । उन्होंने हमारी कोई सुध नहीं ली । दूसरे वियोग – व्यथा को कैसे सहन करें ? वियोग भी हमें जीवित नहीं रहने दे रहा है । हमारी तो वह दशा है जैसे उजड़े गाँव में मूर्ति होती है । वहां मूर्ति की कौन पूजा करता है ? कौन उसका सम्मान करता है ? आशय यह है कि जब से श्री कृष्ण इस ब्रज मंडल को छोड़ कर गए हैं । यह उजड़े गाँव कि भांति प्रतीत होता है और मूर्ति की भांति यहाँ अब हमें न कोई मानने वाला है न कोई सम्मान देने वाला । हे उद्धव ! हमारी इस कठिन व्यथा को गोपाल के बिना कौन जान सकता है? श्री कृष्ण के बिना हमारा तन मलिन रहता है । हमारे तन में सौंदर्य भी क्षीण हो चुका है। आशय यह है कि कभी शृंगारादि का अवसर नहीं मिलता । सदैव वियोग की पीड़ा में हम सब संग्रस्त रहती हैं । केवल मन में एक आशा उनके दर्शन की बनी रहती है । यह विश्वास आज भी बना है कि कभी कमल नेत्र श्री कृष्ण से हमारी भेंट होगी । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि स्वामी कृष्ण के दर्शन की पिपासा में हमारे नेत्र मरते रहते हैं । इन नेत्रों की व्याकुलता श्री कृष्ण के दर्शन के अभाव के कारण निरंतर बढ़ती रहती है ।
राग सारंग
ऊधो! कौन आहि अधिकारी?
लै न जाहु यह जोग आपनो कत तुम होत दुखारी?
यह तो वेद उपनिषद मत है महापुरुष ब्रतधारी।
हम अहीरि अबला ब्रजबासिनि नाहिंन परत सँभारी॥
को है सुनत, कहत हौ कासों, कौन कथा अनुसारी?
सूर स्याम-सँग जात भयो मन अहि केंचुलि सी डारी॥११८॥
गोपियों को दुःख है कि उद्धव यह भी नहीं जानते कि इस योग साधना का कौन अधिकारी है । वे उद्धव के बार – बार आग्रह करने पर क्रुद्ध हो जाती हैं और उन्हें फटकार बताती हुयी स्पष्ट शब्दों में इसे ग्रहण करने से मना कर देती हैं ।
हे उद्धव ! आश्चर्य नहीं है कि आप यह भी नहीं जानते कि इस योग साधना का कौन अधिकारी है ? आशय यह है कि आप उसे योगोपदेश दीजिये जो इसके मर्म को समझता हो । अतः हम सब इसे ग्रहण करने में असमर्थ हैं । तुम अपने इस योग को यहाँ से ले क्यों नहीं जाते और इसे ग्रहण न करने पर तुम दुखित क्यों हो रहे हो ? अरे यह तो अपनी इच्छा की बात है । यदि हम तुम्हारे योग को नहीं पसंद करतीं तो तुम्हें दुखित नहीं होना चाहिए और न किसी प्रकार के अपमान का अनुभव ही करना चाहिए । हे उद्धव ! वेद और उपनिषदों का भी यही विचार है कि योग साधना महापुरुष और साधक जन ही करते हैं । वे ही इसके अधिकारी हैं । हम सब अहीरनी तो ब्रज की रहने वाली अबला हैं । अज्ञानी और अबोध हैं । हम इस योग साधन के गुरुतम भाव को कैसे संभाल सकती हैं ? यह हमसे संभल नहीं पा रहा है । हम सब इसके सर्वथा अनुपयुक्त हैं । तुम तो अधिकारी और अनधिकारी कि पहचान न रखते हुए बार – बार हमें योगोपदेश दे रहे हो किन्तु यहाँ तुम्हारी बातों को कौन सुन रहा है और तुम इसे किसको सुना रह हो ? किसे अपना उपदेश दे रहे हो ? और यह कौन सी कथा का प्रसंग तुमने छेड़ दिया है । तात्पर्य है कि तुम्हारी जिन बातों में ब्रजवासियों की बिलकुल रूचि नहीं है उनका प्रसंग छेड़ना अच्छा नहीं है । हमारा मन तो श्याम सुन्दर के साथ ही चला गया । अब तुम्हारे योग का चिंतन करने वाला मन हमारे पास कहाँ है ? और उस मन ने इस शरीर को उसी प्रकार छोड़ दिया जिस प्रकार सर्प बिना किसी मोह के केंचुल छोड़ कर चला जाता है । तात्पर्य यह है कि अब बिना मन के यह निर्जीव शरीर पड़ा है । जब मन ही नहीं है तो तुम्हारी बातों को कौन सुनेगा ?
राग जैतश्री
ऊधो! जो तुम हमहिं सुनायो।
सो हम निपट कठिनई करिकै या मन कोँ समुझायो॥
जुगुति जतन करि हमहुँ ताहि गहि सुपथ पंथ लौँ लायो।
भटकि फिर्यो बोहित के खग ज्योँ, पुनि फिरि हरि पै आयो॥
हमको सबै अहित लागति है तुम अति हितहि बतायो।
सर-सरिता-जल होम किये तें कहा अगिनि सचु पायो?
अब वैसो उपाय उपदेसौं जिहि जिय जात जियायो।
एक बार जौ मिलहिं सूर प्रभु कीजै अपनो भायो॥११९॥
इस पद में गोपियाँ अपने मन की विवशता का उल्लेख बहुत ही मनोवैज्ञानिक ढंग से कर रही हैं । उद्धव को गोपियाँ असंतुष्ट नहीं करना चाहतीं और उनकी योग साधना को भी स्वीकार करती हैं लेकिन वे अपने मन को नियंत्रित नहीं कर पातीं । मन इस योग साधना को किसी भी रूप में ग्रहण नहीं करना चाहता । यही गोपियों की विवशता है ।
हे उद्धव ! तुमने जो योग साधना की बातें बतायीं उन्हें हमने सहर्ष स्वीकार किया और उन बातों को बड़ी कठिनाई के साथ मन को भी समझाया । यद्यपि मन इसे ग्रहण नहीं कर रहा था । किन्तु हमने बार – बार उसे इस मार्ग पर चलने के लिए विवश किया । यही नहीं , बड़ी युक्ति और यत्न के साथ उसे पकड़ कर योग मार्ग तक पहुंचाया । योग साधना के लिए बाध्य किया है परन्तु वह जहाज के पक्षी की भांति इस मार्ग को देखकर भटकता रहता है । उसे कहीं शरण नहीं मिलती और अंत में विवश होकर उसी जहाज पर लौट आता है । हमारा मन भी जहाज के पक्षी की भांति एक मात्र श्री कृष्ण की शरण में ही संतोष प्राप्त करता है । यद्यपि तुमने हमारे हित की बातें बतायीं । तुमने योग साधना की चर्चा हमारे कल्याण के लिए की लेकिन अपने मन की विवशता के कारण तुम्हारी ये हितकारी बातें हमें अहितकर प्रतीत होती हैं । हमें यह रुचिकर नहीं लगतीं। तुम्हारी ये हितकर बातें उसी प्रकार अच्छी नहीं लगतीं जैसे यदि कोई तालाब और नदियों के जल से होम करें तो अग्नि को उस से सुख नहीं मिलता । आशय यह है कि हव्य सामग्री के बिना जल द्वारा होम करने पर अग्नि को सुख नहीं मिलता । जल की शीतलता से तो अग्नि बुझ जाती है क्योंकि अग्नि और जल प्रकृतिगत विरोध है । अब वही उपाय बताएं । उसी उपाय का उपदेश दें । जिस से श्री कृष्ण के वियोग में इन निकलते प्राणों को हम जीवित कर सकें । इन प्राणों की रक्षा कर सकें । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि यदि एक बार श्री कृष्ण का दर्शन हो जाये तो वे उद्धव की सभी अभीष्ट बातों का पालन करेंगीं । आशय यह है कि श्री कृष्ण के दर्शन के लिए वे योग साधना के बंधन को भी स्वीकार कर लेंगीं ।
राग सारंग
ऊधो! जोग बिसरि जनि जाहु।
बाँधहु गाँठि कहूँ जनि छूटै फिरि पाछे पछिताहु॥
ऐसी बस्तु अनूपम मधुकर मरम न जानै और।
ब्रजबासिन के नाहिं काम की, तुम्हरे ही है ठौर॥
जो हरि हित करि हमको पठयो सो हम तुमको दीन्हीं।
सूरदास नरियर ज्यों विष को करै बंदना कीन्हीं॥१२०॥
इस पद में गोपियों ने तीखे व्यंग्य भरे शब्दों में उद्धव के योग का उपहास किया है । यहाँ गोपियाँ उद्धव को समझा रही हैं कि इस बात को गाँठ बाँध के रखो ।
हे उद्धव ! तुम यहाँ योग और ज्ञान जैसी बहुमूल्य वस्तु लेकर पधारे हो अतः इसे गाँठ बाँध रखो । यह योग कहीं छूट न जाये । योग जैसी अमूल्य वस्तु के गिर जाने पर तुम्हारी बहुत बड़ी हानि हो जाएगी । अतः इसे दृढ़तापूर्वक गाँठ बाँध लो । कहीं खुलने न पाए अन्यथा पछताना पड़ेगा । यदि यह गाँठ खुल गयी और इसमें सुरक्षित बहुमूल्य योग कहीं खो गया तो आपका सर्वस्व चला जायेगा । तुम्हारी इस अनुपम और बहुमूल्य वस्तु अर्थात योग का मर्म जानने वाला यहाँ कोई नहीं है । अतः वह यदि किसी को मिल भी जाये तो वह कौड़ी के बराबर भी उसका मूल्य नहीं आंक पायेगा । कहने का आशय यह है कि यह ब्रजवासियों के लिए किसी भी काम की वस्तु नहीं है । यह तुम्हें ही जंचती है । तुम्हारे निकट ही इसे स्थान मिल सकता है । इसका मूल्य तुम जैसे ज्ञानी ही कर सकते हो । तुम इसे मथुरा के मर्मज्ञों ( कृष्ण और कुब्जा आदि को ) दिखाओ । वे ही इसे ग्रहण करेंगे । इस बहुमूल्य योग को श्री कृष्ण ने बड़ी कृपा करके हमारे पास भेजा है । अब उनकी भेजी हुयी वस्तु को हम आपको भेंट कर रही हैं । व्यंजना यह है कि श्री कृष्ण ने जिस निष्ठुरता के साथ हमारे पास योग का यह सन्देश भेजा है उसकी जितनी निंदा की जाये कम है । हम इसे तुम्हें वापस कर रही हैं और कह देना कि यह हमें स्वीकार्य नहीं है । सूरदास के शब्दों में उद्धव के प्रति गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! तुम जो यह योग रुपी विषैला नारियल लाये हो उसे दूर से ही प्रणाम करते बनता है । आशय यह है कि विषैला नारियल किसी काम का नहीं होता । वह केवल पूजा के कार्यों में ही प्रयुक्त हो सकता है । उसी प्रकार तुम्हारा यह योग गोपियों के किसी काम का नहीं है क्योंकि इसे ग्रहण करने पर प्राणस्वरूप श्री कृष्ण से वंचित होना पड़ेगा जो हमें वांछनीय नहीं है । हाँ यह योगियों के बड़े काम की वस्तु सिद्ध होगी ।
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