Devshayani Ekadashi

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Mar 11, 2022 #Devshayani Ekadashi, #Devshayani Ekadashi Vrat Katha, #Hari Shayani Ekadashi, #Harishayani Ekadashi, #Harishayani Ekadashi Vrat Katha, #Padmanabha Ekadashi, #Padmanabha Ekadashi vrat katha, #Shayani Ekadashi, #Shayani Ekadashi Vrat Katha, #एकादशी, #एकादशी का व्रत क्यों रखा जाता है? एकादशी व्रत के पीछे वैज्ञानिक कारण, #एकादशी का व्रत क्यों रखें, #एकादशी के दिन व्रत के भोजन में शामिल करें ये चीजें, #एकादशी के व्रत में न हो जाए कोई भूल, #एकादशी व्रत कथा, #एकादशी व्रत का फल, #एकादशी व्रत का महत्त्व, #एकादशी व्रत के लाभ, #एकादशी व्रत पूजन विधि, #देवशयनी एकादशी, #देवशयनी एकादशी का फल, #देवशयनी एकादशी का महत्त्व, #देवशयनी एकादशी व्रत कथा, #देवशयनी एकादशी व्रत पूजन विधि, #पद्मनाभा एकादशी, #पद्मनाभा एकादशी का फल, #शयनी एकादशी, #शयनी एकादशी का फल, #शयनी एकादशी व्रत कथा, #सब पापों को हरने वाली देवशयनी एकादशी, #हरि शयनी एकादशी, #हरिशयनी एकादशी, #हरिशयनी एकादशी का फल, #हरिशयनी एकादशी का महत्त्व, #हरिशयनी एकादशी व्रत कथा, #हरिशयनी एकादशी व्रत के लाभ
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Devshayani ekadashi vrat katha

 

 

 

आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को देवशयनी एकादशी कहते हैं।  इस दिन से भगवान विष्णु का चार महीने के लिए शयन काल शुरू हो जाता है। इस दिन जो भी भक्त श्रद्धा भाव से भगवान विष्णु को सुलाते हैं और फिर योगनिद्रा से उठाते हैं तो उन पर भगवान विष्णु की विशेष कृपा प्राप्त होती है। इसी दिन से चातुर्मास भी शुरू हो जाता है। पुराणों में इस एकादशी को सौभाग्य प्रदान करने वाली एकादशी बताया गया है। इस तरह भगवान विष्णु को सुलाएं। शास्त्रों में बताया गया है कि देवशयनी एकादशी को व्रत रहना चाहिए, ऐसा करने बैकुंठ धाम की प्राप्ति होती है। भगवान विष्णु के विग्रह को पंचामृत से स्नान करवाकर, धूप दीप आदि से पूजन कर यथाशक्ति सोनाचांदी की शय्या या नया बिछौना बिछाकर भगवान को सजाकर, जागरण करके पूजा करनी चाहिए। ध्यान रहे कि पीले रंग का रेशमी कपड़ा बिछाकर शयन करवाना चाहिए। देवशयनी एकादशी का व्रत करने से सभी प्रकार के कष्टों से मुक्ति मिलती है।

 

 

देवशयनी एकादशी से होते हैं चातुर्मास आरम्भ , चातुर्मास में नहीं होते हैं मांगलिक कार्य

 

देवशयनी एकादशी से अगले चार महीने तक मांगलिक कार्य नहीं होंगे। चतुर्मास ध्यान, जप, तप, दान, साधना के लिए विशेष रहेगा। कार्तिक शुक्ल की एकादशी को देवउठनी एकादशी पर चतुर्मास संपन्न होंगे और शुभ काम शुरू किए जा सकेंगे।  राजा बलि के यहां जाते हैं श्रीहरि इस एकादशी को देवशयनी, हरिशयनी एकादशी और पद्मनाभा एकादशी भी कहते हैं। इस दिन भगवान विष्णु क्षीर सागर में शयन करते हैं। मान्यता है कि भगवान इस दिन से चार मास तक पाताल में राजा बलि के द्वारा पर निवास करके कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को लौटते हैं। इसीलिए आषाढ़ी शुक्ल पक्ष की एकादशी कोदेवशयनीऔर कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी कोप्रबोधिनीअथवादेवउठनीएकादशी कहते हैं। इन चार महीने में विवाह संस्कार, गृह प्रवेश सहित अन्य मांगलिक कार्य बंद हो जाते हैं। 

 

 

देवशयनी एकादशी कथा 

 

युधिष्ठिर ने पूछा:भगवन् ! आषाढ़ के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है?उसका नाम और विधि क्या है?यह बतलाने की कृपा करें।

 

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम ‘शयनी’ है। मैं उसका वर्णन करता हूँ । वह महान पुण्यमयी, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करने वाली, सब पापों को हरने वाली तथा उत्तम व्रत है । आषाढ़ शुक्ल पक्ष में ‘शयनी एकादशी’ के दिन जिन्होंने कमल पुष्प से कमललोचन भगवान विष्णु का पूजन तथा एकादशी का उत्तम व्रत किया है, उन्होंने तीनों लोकों और तीनों सनातन देवताओं का पूजन कर लिया । ‘हरिशयनी एकादशी’ के दिन मेरा एक स्वरुप राजा बलि के यहाँ रहता है और दूसरा क्षीर सागर में शेषनाग की शैय्या पर तब तक शयन करता है, जब तक आगामी कार्तिक की एकादशी नहीं आ जाती, अत: आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक मनुष्य को भली भाँति धर्म का आचरण करना चाहिए । जो मनुष्य इस व्रत का अनुष्ठान करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है, इस कारण यत्न पूर्वक इस एकादशी का व्रत करना चाहिए । एकादशी की रात में जागरण करके शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान विष्णु की भक्ति पूर्वक पूजा करनी चाहिए । ऐसा करने वाले पुरुष के पुण्य की गणना करने में चतुर्मुख ब्रह्माजी भी असमर्थ हैं ।

 

कथाओं के अनुसार, सतयुग में मांधाता नाम का एक चक्रवर्ती राजा राज्य करता था। एक बार उसके राज्य में तीन साल तक वर्षा नहीं हुई, जिसकी वजह से राज्य में भंयकर अकाल पड़ गया। अकाल की वजह से चारो ओर त्रासदी का माहौल बन गया। राज्य के लोगों के अंदर धार्मिक भावनाएं कम होने लगीं। प्रजा ने राजा के पास जाकर अपना दर्द बताया, जिससे राजा भी चिंतित थे। राजा मांधाता को लगता था कि आखिर ऐसा कौन-सा पाप हो गया है, जिसकी सजा हमारे राज्य को ईश्वर दे रहा है। इस संकट से मुक्ति पाने के लिए राजा अपनी सेना के साथ ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम पहुंचे। ऋषिवर ने उनको यहां आने का कारण पूछा। तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा कि हे ऋषिवर, मैंने हमेशा से पूरा निष्ठा से धर्म का पालन किया है, फिर मेरे राज्य की ऐसी हालत क्यों है। कृपया करके मुझे इसका समाधान दें। अंगिरा ऋषि ने कहा कि यह सतयुग है, यहां छोटे से पाप का भी बड़ा दंड मिलता है। अंगिरा ऋषि ने राजा को आषाढ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करने को कहा। महर्षि ने कहा कि इस व्रत का फल जरूर मिलेगा और इसके प्रभाव से तुम्हारा संकट से भी निकल आएगा। महर्षि अंगिरा के निर्देश का पालन करते हुए राजा अपनी राजधानी वापस आ गए और उन्होंने चारों वर्णों सहित देवशयनी एकादशी का व्रत पूरा किया, जिसके बाद राज्य में मूसलाधार वर्षा हुई।

 

राजन् ! जो इस प्रकार भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले सर्वपापहारी एकादशी के उत्तम व्रत का पालन करता है, वह जाति का चाण्डाल होने पर भी संसार में सदा मेरा प्रिय रहनेवाला है । जो मनुष्य दीपदान, पलाश के पत्ते पर भोजन और व्रत करते हुए चौमासा व्यतीत करते हैं, वे मेरे प्रिय हैं । चौमासे में भगवान विष्णु सोये रहते हैं, इसलिए मनुष्य को भूमि पर शयन करना चाहिए । सावन में साग, भादों में दही, क्वार में दूध और कार्तिक में दाल का त्याग कर देना चाहिए । जो चातुर्मास में ब्रह्मचर्य का पालन करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है । राजन् ! एकादशी के व्रत से ही मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है, अत: सदा इसका व्रत करना चाहिए । कभी भूलना नहीं चाहिए । ‘शयनी’ और ‘बोधिनी’ के बीच में जो कृष्णपक्ष की एकादशियाँ होती हैं, गृहस्थ के लिए वे ही व्रत रखने योग्य हैं – अन्य मासों की कृष्णपक्षीय एकादशी गृहस्थ के रखने योग्य नहीं होती । शुक्लपक्ष की सभी एकादशी करनी चाहिए ।

 

देवशयनी एकादशी का फल 

 

जो इस प्रकार भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले सर्वपापहारी एकादशी के उत्तम व्रत का पालन करता है, वह जाति का चाण्डाल होने पर भी संसार में सदा मेरा प्रिय रहनेवाला है । देवशयनी एकादशी के व्रत से ही मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है, अत: सदा इसका व्रत करना चाहिए । कभी भूलना नहीं चाहिए । जो मनुष्य इस व्रत का अनुष्ठान करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है, इस कारण यत्नपूर्वक इस एकादशी का व्रत करना चाहिए । ऐसा करने वाले पुरुष के पुण्य की गणना करने में चतुर्मुख ब्रह्माजी भी असमर्थ हैं । देवशयनी एकादशी का व्रत महान पुण्यमय, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करने वाला , सब पापों को हरने वाला तथा उत्तम व्रत है । आषाढ़ शुक्ल पक्ष में ‘शयनी एकादशी’ के दिन जिन्होंने कमल पुष्प से कमललोचन भगवान विष्णु का पूजन तथा एकादशी का उत्तम व्रत किया है, उन्होंने तीनों लोकों और तीनों सनातन देवताओं का पूजन कर लिया ।

 

देवशयनी एकादशी में क्या करें क्या न करें 

 

जो मनुष्य दीपदान, पलाश के पत्ते पर भोजन और व्रत करते हुए चौमासा व्यतीत करते हैं, वे मेरे प्रिय हैं । चौमासे में भगवान विष्णु सोये रहते हैं, इसलिए मनुष्य को भूमि पर शयन करना चाहिए । सावन में साग, भादों में दही, क्वार में दूध और कार्तिक में दाल का त्याग कर देना चाहिए । जो चातुर्मास में ब्रह्मचर्य का पालन करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है । एकादशी की रात में जागरण करके शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान विष्णु की भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए । ऐसा करनेवाले पुरुष के पुण्य की गणना करने में चतुर्मुख ब्रह्माजी भी असमर्थ हैं । 

एकादशी व्रत का महत्त्व 

 

एकादशी को भगवान श्री विष्णु को समर्पित दिन माना जाता है। प्रत्येक एकादशी तिथि का एक अलग महत्व है और प्रत्येक एकादशी तिथि पर विष्णु की पूजा की जाती है। एकादशी तिथि हर महीने में दो बार आती है, एक कृष्ण पक्ष में और एक शुक्ल पक्ष में। इस प्रकार एक वर्ष में कम से कम 24 एकादशी होती हैं। हिन्दू पंचांग के अनुसार प्रत्येक माह की 11वीं तिथि को एकादशी कहते हैं। एकादशी  भगवान विष्णु को समर्पित एक दिन माना जाता है। एक महीने में दो पक्ष होने के कारण दो एकादशी आती हैं, एक शुक्ल पक्ष की और दूसरी कृष्ण पक्ष की। इस प्रकार एक वर्ष में कम से कम 24 एकादशी हो सकती हैं, लेकिन अधिक मास (अतिरिक्त महीने) के मामले में यह संख्या 26 भी हो सकती है।

 

दोनों पक्षों की एकादशी समान रुप से कल्याण करने वाली है । इसमें शुक्ल और कृष्ण का भेद नहीं करना चाहिए । यदि उदय काल में थोड़ी सी एकादशी, मध्य में पूरी द्वादशी और अन्त में किंचित् त्रयोदशी हो तो वह ‘त्रिस्पृशा एकादशी’ कहलाती है । वह भगवान को बहुत ही प्रिय है । यदि एक ‘त्रिस्पृशा एकादशी’ को उपवास कर लिया जाय तो एक हजार एकादशी व्रतों का फल प्राप्त होता है तथा इसी प्रकार द्वादशी में पारण करने पर हजार गुना फल माना गया है । अष्टमी, एकादशी, षष्ठी, तृतीय और चतुर्दशी – ये यदि पूर्व तिथि से विद्ध हों तो उनमें व्रत नहीं करना चाहिए । परवर्तिनी तिथि से युक्त होने पर ही इनमें उपवास का विधान है । पहले दिन में और रात में भी एकादशी हो तथा दूसरे दिन केवल प्रात: काल एक दण्ड एकादशी रहे तो पहली तिथि का परित्याग करके दूसरे दिन की द्वादशी युक्त एकादशी को ही उपवास करना चाहिए । यह विधि मैंने दोनों पक्षों की एकादशी के लिए बतायी है । एकादशी तिथि के लिए उदया तिथि मान्य होती है। वैष्णवों को योग्य द्वादशी मिली हुई एकादशी का व्रत करना चाहिए। त्रयोदशी आने से पूर्व व्रत का पारण करें।

 

जो मनुष्य एकादशी को उपवास करता है, वह वैकुण्ठ धाम में जाता है, जहाँ साक्षात् भगवान गरुड़ध्वज विराजमान रहते हैं । जो मानव हर समय एकादशी के माहात्म्य का पाठ करता है, उसे हजार गौदान के पुण्य का फल प्राप्त होता है । जो दिन या रात में भक्तिपूर्वक इस माहात्म्य का श्रवण करते हैं, वे नि:संदेह ब्रह्महत्या आदि पापों से मुक्त हो जाते हैं । एकादशी के समान पापनाशक व्रत दूसरा कोई नहीं है । हिंदू धर्म में एकादशी का बहुत अधिक महत्व होता है। इस दिन विधि- विधान से भगवान विष्णु की पूजा- अर्चना होती है।  

 

एकादशी व्रत को सबसे कठिन व्रतों में से एक माना गया है। इसलिए एकादशी व्रत में नियम और अनुशासन का विशेष ध्यान रखना चाहिए। इसके साथ ही व्रत का पारण भी शुभ मुहूर्त में करना चाहिए। एकादशी व्रत में पारण का विशेष महत्व दिया गया है। मान्यता है कि विधि पूर्वक व्रत का पारण न करने से इस व्रत का पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं होता है।

 

इस दिन विधिपूर्वक भगवान नारायण की पूजा करनी चाहिए । जैसे नागों में शेषनाग, पक्षियों में गरुड़ तथा देवताओं में श्रीविष्णु श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण व्रतों में एकादशी तिथि श्रेष्ठ है ।

 

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजेन्द्र ! बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञों से भी मुझे उतना संतोष नहीं होता, जितना एकादशी व्रत के अनुष्ठान से होता है ।

 

एकादशी की रात्रि में रात्रि जागरण का विशेष महत्त्व है । अतः बंधु बांधवों के साथ या उनके अभाव में स्वयं ही भजन कीर्तन , नाम संकीर्तन और मन्त्र जाप करते हुए रात्रि जागरण करना चाहिए । एकादशी की रात में जागरण करके शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान विष्णु की भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए । ऐसा करनेवाले पुरुष के पुण्य की गणना करने में चतुर्मुख ब्रह्माजी भी असमर्थ हैं । 

 

देवशयनी एकादशी पूजा विधि

 

देवशयनी एकादशी व्रत रखने वालों एक दिन पहले यानी दशमी तिथि की रात्रि से ही व्रत के नियमों का पूर्ण रूप से पालन करना चाहिए। दशमी के दिन शाम में सूर्यास्त के बाद भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए और रात्रि में भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए सोना चाहिए। अगले दिन सूर्योदय से पहले जागकर दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर स्नानादि करके शुद्ध व स्वच्छ धुले हुए वस्त्र धारण करके श्री विष्‍णु का ध्यान करना चाहिए। अगर संभव हो तो पानी में गंगा जल मिलाकर उस पानी से नहाना चाहिए। इस पूजा के लिए विष्णु भगवन की मूर्ति या चित्र के सामने दीपक जलाकर व्रत का संकल्प लेकर कलश स्थापना करनी चाहिए। फिर कलश को लाल वस्त्र से बांधकर उसकी पूजा करें। भगवान विष्णु की प्रतिमा रखकर उसे स्नानादि से शुद्ध करके नया वस्त्र पहनाएं। तत्पश्चात धूप-दीप आदि से विधिवत भगवान श्री विष्णु की पूजा-अर्चना तथा आरती करें तथा नैवेद्य और फलों का भोग लगाकर प्रसाद वितरण करें। श्री विष्णु को अपने सामर्थ्य के अनुसार पुष्प, ऋतु फल, नारियल, पान, सुपारी, लौंग, बेर, आंवला आदि अर्पित करें। एकादशी की रात्रि में भजन-कीर्तन करते हुए समय व्यतीत करें। पूरे दिन निराहार रहे तथा सायंकाल कथा सुनने के पश्चात फलाहार करें। पारण वाले या दूसरे दिन ब्राह्मणों को भोजन तथा दान-दक्षिणा देकर खुद को बाद पारण करना चाहिए। एकादशी के दीपदान करने का बहुत महत्व है। अत: इस दिन दीपदान अवश्य करें। इस व्रत के पुण्य प्रभाव से व्यक्ति तपस्वी तथा विद्वान होकर पुत्रादि पाकर अपार धन-संपत्ति का मालिक बनता है।

 

 

Harishayani ekadashi

 

 

एकादशी का व्रत क्यों रखा जाता है? 

एकादशी व्रत के पीछे वैज्ञानिक कारण 

 

एकादशी हर 15 दिन में एक बार आती है। यह वह समय होता है जब शरीर एक विशेष चक्र से गुजरता है। इस समय शरीर को भोजन की कोई खास जरूरत नहीं रहती या यूं कहें कि बाकी दिनों की अपेक्षा सबसे कम होती है। इस काल में शरीर हल्का और शुद्ध होना चाहता है। ऊर्जा अंतर्मुखी होकर बहना चाहती है।

 

हर 15 दिन बाद होने वाली व्रत की यह शृंखला शरीर की कोशिकाओं पर ही नहीं, बल्कि डीएनए तक पर प्रभाव डालकर अनेक असाध्य बीमारियों से बचाव करते हैं और शरीर की उम्र बढ़ाती है। ऐसे में किया गया उपवास शारीरिक, मानसिक, भावात्मक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को बढ़ा देता है। यह उपवास करने का सबसे उचित समय होता है जो हमें प्रकृति से जोड़कर अंतर्मुखी करने में मदद करता है।

 

एकादशी व्रत कैसे प्रारंभ हुआ?

 

भगवती एकादशी कौन है, इस संबंध में पद्म पुराण में कथा है कि एक बार पुण्यश्लोक धर्मराज युधिष्ठिर को लीला पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण ने समस्त दुःखों, त्रिविध तापों से मुक्ति दिलाने, हजारों यज्ञों के अनुष्ठान की तुलना करने वाले, चारों पुरुषार्थों को सहज ही देने वाले एकादशी व्रत करने का निर्देश दिया। एकादशी व्रत-उपवास करने का बहुत महत्व होता है। साथ ही सभी धर्मों के नियम भी अलग-अलग होते हैं। खास कर हिंदू धर्म के अनुसार एकादशी व्रत करने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को दशमी के दिन से ही कुछ अनिवार्य नियमों का पालन करना चाहिए।

 

एकादशी व्रत-उपवास के नियम

एकादशी व्रत के दिन क्या करें क्या न करें 

 

एकादशी का व्रत दसवीं तिथि के सूर्यास्त के बाद से शुरू होकर एकादशी के अगले दिन सूर्योदय तक रहता है। इसमें खाने-पीने की कई चीजों का ध्यान रखना भी जरूरी होता है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार एकादशी का पूर्ण लाभ लेने के लिए व्रत के नियमों का सख्ती से पालन करना चाहिए। एकादशी व्रत का नियम कुछ कठोर होता है। यह व्रत कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा से रख सकता है।एकादशी के व्रत में दशमी के दिन से ही ब्रह्मचार्य व्रत का पूर्ण रूप से पालन करना चाहिए। एकादशी का व्रत भगवान विष्णु को समर्पित है। इस दिन भगवान विष्णु की पूजा की जाती है और उन्हें प्रसन्न करने के लिए उन्हें धूप, फल, फूल, दीप, पंचामृत आदि अर्पित करते हैं। व्रत के दौरान क्रोध और द्वेष भावना नहीं रखनी चाहिए।

 

द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को मिष्ठान्न, दक्षिणा देना चाहिए। क्रोध नहीं करते हुए मधुर वचन बोलना चाहिए। इस व्रत को करने से जीवन के सारे कष्ट समाप्त हो जाते हैं, और उपवास करने वाला दिव्य फल प्राप्त करता है।

 

 

एकादशी के दिन क्या खाएं क्या न खाएं 

 

इस व्रत में अन्न नहीं खाया जाता।  इस दिन चावल बिलकुल भी नहीं खाने चाहिए तथा चने या चने के आटे से बनी चीज से भी परहेज करना चाहिए। इस दिन शहद खाने से भी बचना चाहिए। एकादशी का व्रत-उपवास करने वालों को दशमी के दिन से ही मांस, लहसुन, प्याज, मसूर की दाल आदि निषेध वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। रात्रि को पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए तथा भोग-विलास से दूर रहना चाहिए। 

 

एकादशी के व्रत का भोजन 

 

एकादशी के व्रत में अन्न खाना मना होता है। कुछ लोग एकादशी का व्रत निर्जला करते हैं, जिसे निर्जला एकादशी के नाम से जाना जाता है। वहीं, शास्त्रों के अनुसार एकादशी के दिन इन वस्तुओं और मसालों का प्रयोग व्रत के दौरान कर सकते हैं- एकादशी के व्रत में ताजे फल, मेवे, चीनी, कुट्टू, नारियल, जैतून, दूध, अदरक, काली मिर्च, सेंधा नमक, आलू, साबूदाना, शकरकंद आदि खा सकते हैं। एकादशी व्रत का भोजन सात्विक होना चाहिए। एकादशी के दिन व्रतधारी व्यक्ति को गाजर, शलजम, गोभी, पालक, इत्यादि का सेवन नहीं करना चाहिए। केला, आम, अंगूर, बादाम, पिस्ता इत्यादि अमृत फलों का सेवन करें। प्रत्येक वस्तु प्रभु को भोग लगाकर तथा तुलसीदल छोड़कर ग्रहण करना चाहिए।

 

कैसे करें देवशयनी एकादशी का व्रत

पूजा विधि

 

एकादशी तिथि के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान व ध्यान करने के बाद स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए। इसके बाद पूजा की तैयारियां शुरू कर दें और व्रत का संकल्प लें। इसके बाद भगवान कृष्ण की मूर्ति या चित्र पर गंगाजल से छिड़काव करें और रोली व अक्षत से टीका करें। इसके बाद देशी घी का दीपक जलाएं और फूलों से मंदिर को सजाएं। इस एकादशी पर भगवान कृष्ण की पूजा करने का भी विधान है। कृष्णजी को माखन-मिश्री अच्छी लगती है इसलिए उनको यही भोग लगाएं। धूप-दीप से भगवान की पूजा करने के बाद विष्णु सहस्रनाम का पाठ करना उत्तम रहेगा। इसके बाद तुलसी पूजन करें। दिन भर मन को शांत रखकर भगवान का स्मरण करते रहें और हो सके तो गीता पाठ कर लें । शाम के समय श्रीकृष्ण की फिर से पूजा करें और भोग लगाएं। इसके बाद भोग को सभी में बांट दें।अगले दिन पूजा-पाठ और दान-दक्षिणा देकर ब्राह्मणों को घर पर बुलाकर भोजन करवाएं और फिर खुद पारण करें।

 

भगवान को केवल सात्विक चीजें ही अर्पित करें। ऐसा माना जाता है कि तुलसी के बिना भगवान विष्णु भोग स्वीकार नहीं करते हैं। इस दिन भगवान विष्णु के साथ-साथ मां लक्ष्मी की भी पूजा करनी चाहिए। पूजा के बाद आरती करें और भगवान से प्रर्थना करें। तत्पश्चात् पूजा स्थल को गंगा के जल की कुछ बूंदें डालकर पवित्र कर लेना चाहिये और तदुपरांत भगवान् नारायण का षोडशोपचार विधि से पूजन, अर्चन और स्तवन करना चाहिये। षोडशोपचार यानी सोलह प्रकार के उपचार के क्रियान्वयन को भगवान् की पूजा का षोडशोपचार पूजन कहा जाता है। इसमें सोलह प्रकार की चीजों का प्रयोग किया जाता है जो इस प्रकार हैं:

 

पहला उपचार यानी देवता का आवाहन।
दूसरा उपचार यानी देवता को आसन देना।
तीसरा उपचार यानी पाद प्रक्षालन।
चौथा उपचार यानी अर्घ्य देना।
पांचवां उपचार यानी आचमन या मुख प्रक्षालन।
छठवां उपचार यानी स्नान यानी देवता पर जल चढ़ाना।
सातवां उपचार यानी देवता को वस्त्र देना।
आठवां उपचार यानी देवता को उपवस्त्र अर्थात् जनेऊ देना।
नौवां उपचार यानी देवता को गंध या चंदन देना।
दसवां उपचार यानी पुष्प अर्पित करना।
ग्यारहवां उपचार यानी धूप अर्पित करना।
बारहवां उपचार यानी दीप अर्पित करना।
तेरहवां उपचार नैवेद्य अर्पित करना।
चौदहवां उपचार यानी देवता को नमन करना।
पंद्रहवां उपचार यानी परिक्रमा करना।
सोलहवां उपचार यानी मंत्रपुष्प अर्पित करना।

 

इस प्रकार षोडशोपचार विधि से भगवान् नारायण का पूजन करके उनसे अपने अपराधों के क्षमा याचना करनी चाहिये। रात में दीपों का दान करना चाहिये और यदि संभव हो तो पूरी रात जागरण करते हुए भगवान् नारायण का पाठ करते रहें। इस अवसर पर विष्णुसहस्रनाम का पाठ बहुत फल देने वाला माना गया है। इस प्रकार अगले दिन प्रात: पुन: पूजन आदि करके दान और भोजन आदि से योग्य पात्रों को संतुष्ट करके स्वयं भी सात्विक भोजन कर लेना चाहिये। 

 

 

 

 

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