Hans Gita with hindi meaning | हंस गीता हिंदी अर्थ सहित | हंस रूप से सनकादि को दिए हुए उपदेश का वर्णन | हंस गीता | Hans Gita | भगवान द्वारा हंस रूप में सनकादि ऋषियों को दिया गया ब्रह्म ज्ञान
Subscribe on Youtube:The Spiritual Talks
Follow on Pinterest: The Spiritual Talks
श्री भगवानुवाच
सत्वं रजस्तम इति गुणा बुद्धेर्न चात्मनः ।
सत्वे नान्य तमौ हन्यात सत्वं सत्वेन चैव हि।। 1
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं – प्रिय उद्धव ! सत्व , रज और तम – ये तीनों बुद्धि ( प्रकृति ) के गुण हैं , आत्मा के नहीं । सत्व के द्वारा रज और तम – इन दोनों गुणों पर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिए । तदनन्तर सत्व गुण की शांत वृत्ति के द्वारा उसकी दया आदि वृत्तियों को भी शांत कर देना चाहिए ।। 1
सत्वाद धर्मो भवेद वृद्धात पुंसो मद्भक्ति लक्षणः ।
सात्विको पासया सत्वं ततो धर्मः प्रवर्तते ।। 2
जब सत्व गुण की वृद्धि होती है , तभी जीव को मेरे भक्ति रूप स्वधर्म की प्राप्ति होती है । निरंतर सात्विक वस्तुओं का सेवन करने से ही सत्वगुण की वृद्धि होती है और तब मेरे भक्ति रूप स्वधर्म में प्रवृत्ति होने लगती है ।। 2
धर्मो रजस्तमो हन्यात सत्व वृद्धि रनुत्तमः।
आशु नश्यति तन्मूलो ह्यधर्म उभये हते।। 3
जिस धर्म के पालन से सत्व गुण की वृद्धि हो , वही धर्म श्रेष्ठ है । वह धर्म रजोगुण और तमोगुण को नष्ट कर देता है । जब वे दोनों नष्ट हो जाते हैं , तब उन्हीं के कारण होने वाला अधर्म भी शीघ्र ही मिट जाता है ।। 3
आगमोपः प्रजा देशः कालः कर्म च जन्म च ।
ध्यानम मंत्रोऽथ संस्कारो दशैते गुण हेतवः । 4
शास्त्र , जल , प्रजाजन , देश , समय , कर्म , जन्म , ध्यान , मंत्र और संस्कार – ये दस वस्तुएं यदि सात्विक हों तो सत्वगुण की , राजसिक हों तो रजोगुण की और तामसिक हों तो तमोगुण की वृद्धि करते हैं ।।4
तत्तत सात्विक मे वैषाम यद् यद् वृद्धाः प्रचक्षते ।
निन्दन्ति तामसं तत्तद राजसं तदुपेक्षितं ।।। 5
इनमें से शास्त्रज्ञ महात्मा जिनकी प्रशंसा करते हैं , वे सात्विक हैं , जिनकी निंदा करते हैं , वे तामसिक हैं और जिनकी उपेक्षा करते हैं , वे वस्तुएं राजसिक हैं ।
सात्विकान्येव सेवेत पुमान सत्व विवृद्धये ।
ततो धर्मस्ततो ज्ञानं यावत् स्मृतिर पोहनम ।।6
जब तक अपने आत्मा का साक्षात्कार तथा स्थूल – सूक्ष्म शरीर और उनके कारण तीनों गुणों की निवृत्ति न हो , तब तक मनुष्य को चाहिए कि सत्व गुण की वृद्धि के लिए सात्विक शास्त्र आदि का ही सेवन करे ; क्योंकि उस से धर्म की वृद्धि होती है और धर्म की वृद्धि से अन्तः करण शुद्ध होकर आत्म तत्व का ज्ञान होता है ।
वेणु संघर्ष जो वह्निर्दग्ध्वा शाम्यति तद्वनं
एवं गुण व्यत्य यजो देहः शाम्यति तत्क्रियः।। 7
बांसों की रगड़ से आग पैदा होती है और वह उनके सारे वन को जला कर शांत हो जाती है । वैसे ही यह शरीर गुणों के वैषम्य से उत्पन्न हुआ है । विचार द्वारा मंथन करने पर इस से ज्ञानाग्नि प्रज्ज्वलित होती है और वह समस्त शरीरों एवं गुणों को भस्म करके स्वयं भी शांत हो जाती है । 7
उद्धव उवाच
विदन्ति मर्त्याः प्रायेण विषयान पद्मा पदाम ।
तथापि भुंजते कृष्ण तत कथं श्वखराजवत।। 8
उद्धव जी ने पूछा – भगवन ! प्रायः सभी मनुष्य इस बात को जानते हैं कि विषय विपत्तियों के घर हैं ; फिर भी वे कुत्ते , गधे और बकरे के समान दुःख सहन करके भी उन्हीं को ही भोगते रहते हैं । इसका क्या कारण है ?
श्री भगवानुवाच
अहमित्यन्यथाबुद्धिः प्रमत्तस्य यथा हृदि ।
उत्सर्पति रजो घोरं ततो वैकारिकं मनः ।। 9
भगवान् श्री कृष्ण ने कहा – प्रिय उद्धव ! जीव जब अज्ञानवश अपने स्वरूप को भूलकर ह्रदय से सूक्ष्म – स्थूलादि शरीरों में अहं बुद्धि कर बैठता है – जो कि सर्वथा भ्रम ही है – तब उसका सत्व प्रधान मन घोर रजोगुण की ओर झुक जाता है । 9
रजो युक्तस्य मनसः संकल्प सविकल्पकः ।
ततः कामो गुण ध्यानाद दुःसह स्याद्धि दुर्मते।। 10
बस , जहाँ मन में रजोगुण की प्रधानता हुई कि उसमें संकल्प – विकल्पों का ताँता बांध जाता है । अब वह विषयों का चिंतन करने लगता है और अपनी दुर्बुद्धि के कारण काम के फंदे में फंस जाता है , जिस से फिर छुटकारा पाना बहुत ही कठिन है । 10
करोति कामवशगः कर्माण्य विजितेन्द्रियः ।
दुःखो दर्काणि सम्पश्यन रजोवेग विमोहितः ।। 11
अब वह अज्ञानी काम वश अनेकों प्रकार के कर्म करने लगता है और इन्द्रियों के वश हो कर , यह जान कर भी कि इन कर्मों का फल दुःख ही है , उन्हीं को करता है , उस समय वह रजोगुण के तीव्र वेग से अत्यंत मोहित रहता है ।। 11
रजस्तमोभ्यां यदपि विद्वान विक्षिप्तधिः पुनः ।
अतन्द्रितो मनो युंजन दोष दृष्टिर्न सज्जते ।। 12
यद्यपि विवेकी पुरुष का चित्त्त भी कभी – कभी रजोगुण और तमोगुण के वेग से विक्षिप्त होता है ; इसलिए वह बड़ी सावधानी से अपने चित्त को एकाग्र करने की चेष्टा करता रहता है , जिस से उसकी विषयों में आसक्ति नहीं होती ।। 12
अप्रमत्तो अनुयुञ्जीत मनो मय्यर्पयञ्छनैः ।
अनिर्विण्णो यथाकालम जितश्वासो जितासनः ।। 13
साधक को चाहिए कि आसन और प्राण वायु पर विजय प्राप्त कर अपनी शक्ति और समय के अनुसार बड़ी सावधानी से धीरे – धीरे मुझ में अपना मन लगावे और इस प्रकार अभ्यास करते समय अपनी असफलता देखकर तनिक भी ऊबे नहीं , बल्कि और भी उत्साह से उसी में जुड़ जाये ।। 13
एतावान योग आदिष्टो मच्छिष्यैः सनकादिभिः ।
सर्वतो मन आकृष्य मय्यद्धा वेश्यते यथा ।। 14
प्रिय उद्धव ! मेरे शिष्य सनकादि परमर्षियों ने योग का यही स्वरूप बताया है कि साधक अपने मन को सब ओर से खींचकर विराट आदि में नहीं , साक्षात मुझ में ही पूर्ण रूप से लगा दें ।। 14
उद्धव उवाच
यदा त्वं सनकादिभ्यो येन रूपेण केशव ।
योगमादिष्टवानेतद रूप मिच्छामि वेदितुं ।। 15
उद्धव जी ने कहा – श्री कृष्ण ! आपने जिस समय , जिस रूप से , सनकादि परमर्षियों को योग का आदेश दिया था , उस रूप को जानना चाहता हूँ ।। 15
श्री भगवानुवाच
पुत्र हिरण्य गर्भस्य मानसाः सनकादयः ।
पपृच्छु पितरं सूक्षाम योगस्यै कांतिकीं गतिम् ।। 16
भगवान श्री कृष्ण ने कहा – प्रिय उद्धव ! सनकादि परमर्षि ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं । उन्होंने एक बार अपने पिता से योग की सूक्ष्म अंतिम सीमा के सम्बन्ध में इस प्रकार प्रश्न किया था ।
सनकादय ऊचुः
गुणेष्वा विशते चेतो गुणाश्चेतसि च प्रभो ।
कथ मन्योन्य संत्यागो मुमुक्षुरति तितीर्षोः ।। 17
सनकादि परमर्षियों ने पूछा – पिताजी ! चित्त गुणों अर्थात विषयों में घुस ही रहता है और गुण भी चित्त की एक – एक वृत्ति में प्रविष्ट रहते ही हैं । अर्थात चित्त और गुण आपस में मिले – जुले ही रहते हैं । ऐसी स्थिति में जो पुरुष इस संसार सागर से पार हो कर मुक्ति पद प्राप्त करना चाहता है , वह इन दोनों को एक – दूसरे से अलग कैसे कर सकता है ?
श्री भगवानुवाच
एवं पृष्टो महादेवः स्वयं भूर्भूत भावनः।
ध्याय मानः प्रश्न बीजं नाभ्या पद्यत कर्मधीः ।। 18
भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं – प्रिय उद्धव ! यद्यपि ब्रह्मा जी सब देवताओं के शिरोमणि , स्वयंभू और प्राणियों के जन्म दाता हैं । फिर भी सनकादि परमर्षियों के इस प्रकार पूछने पर ध्यान कर के भी वे इस प्रश्न का मूल कारण न समझ सके ; क्योंकि उनकी बुद्धि कर्म प्रवण थी ।। 18
स माम चिन्त्यद देवः प्रश्न पारतितीर्षया
तस्याहं हंसरूपेण सकाशम गमं तदा।। 19
उद्धव ! उस समय ब्रह्मा जी ने इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए भक्ति भाव से मेरा चिंतन किया । तब मैं हंस का रूप धारण कर के उनके सामने प्रकट हुआ ।
दृष्ट्वा मां त उपवृज्य कृत्वा पादाभि वन्दनं
ब्रह्माण मग्रतः कृत्वा पपृच्छु को भवानिति ।। 20
मुझे देखकर सनकादि ब्रह्माजी को आगे कर के मेरे पास आये और उन्होंने मेरे चरणों की वंदना करके मुझसे पूछा कि ‘ आप कौन हैं ‘?
इत्यहं मुनिभिः पृष्टस्तत्व जिज्ञासु भिस्तदा ।
यदवोचमहं तेभ्यस्त दुद्धव निबोध मे।। 21
प्रिय उद्धव ! सनकादि परमार्थ तत्व के जिज्ञासु थे ; इसलिए उनके पूछने पर उस समय मैंने जो कुछ कहा वह तुम मुझसे सुनो ।
वस्तुनो यद्य नानात्व मात्मनः प्रश्न ईदृशः।
कथं घटेत वो विप्रा वक्तुर्वा में क आश्रयः।। 22
‘ ब्राह्मणों ! यदि परमार्थ रूप वास्तु नानात्व से सर्वथा रहित है , तब आत्मा के सम्बन्ध में आप लोगों का ऐसा प्रश्न कैसे युक्तिसंगत हो सकता है ? अथवा मैं यदि उत्तर देने के लिए बोलूं भी तो किस जाति, गुण , क्रिया और सम्बन्ध आदि का आश्रय ले कर उत्तर दूँ ?
पंचात्म केषु भूतेषु समानेषु च वस्तुतः ।
को भवानिति वः प्रश्नो वाचारंभो ह्यनर्थकः।। 23
देवता , मनुष्य , पशु , पक्षी आदि सभी शरीर पंच – भूतात्मक होने के कारण अभिन्न ही हैं और परमार्थ रूप से भी अभिन्न हैं । ऐसी स्थिति में ‘ आप कौन हैं ‘ ? आप लोगों का यह प्रश्न ही केवल वाणी का व्यव्हार है । विचार पूर्वक नहीं है , अतः निरर्थक है ।
मनसा वचसा दृष्टया गुह्यते अनयैर पीन्द्रियैः।
अहमेव न मत्तो अन्य दिति बुध्य ध्वमञ्जसा ।। 24
मन से , वाणी से , दृष्टि से तथा अन्य इन्द्रियों से भी जो कुछ ग्रहण किया जाता है , वह सब मैं ही हूँ , मुझसे भिन्न और कुछ नहीं है । यह सिद्धांत आप लोग तत्व – विचार के द्वारा समझ लीजिये । 24
गुणेष्वा विशते चेतो गुणाश्चेतसी च प्रजाः ।
जीवस्य देह उभयं गुणाश्चेतो मादात्मनः ।। 25
पुत्रों ! यह चित्त चिंतन करते – करते विषयाकार हो जाता है और विषय चित्त में प्रविष्ट हो जाते हैं , यह बात सत्य है , तथापि विषय और चित्त ये दोनों ही मेरे स्वरूप भूत जीव के देह हैं – उपाधि हैं । अर्थात आत्मा का चित्त और विषय के साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है । 25
गुणेषु चावि शचित्तं भीक्ष्णं गुण सेवया।
गुणाश्च चित्त प्रभवा मद्रूप उभयं त्यजेत ।। 26
इसलिए बार – बार विषयों का सेवन करते रहने से जो चित्त विषयों में आसक्त हो गया है और विषय भी चित्त में प्रविष्ट हो गए हैं । इन दोनों को अपने वास्तविक से अभिन्न मुझ परमात्मा का साक्षात्कार करके त्याग कर देना चाहिए ।। 26
जाग्रत स्वप्नः सुषुप्तं च गुणतो बुद्धि वृत्तयः ।
तासां विलक्षणो जीवः साक्षित्वेन विनिश्चितः ।। 27
जाग्रत , स्वप्न और सुषुप्ति – ये तीनों अवस्थाएं सत्वादि गुणों के अनुसार होती हैं और बुद्धि की वृत्तियाँ हैं , सच्चिदानंद का स्वभाव नहीं । इन वृत्तियों का साक्षी होने के जीव उनसे विलक्षण है। यह सिद्धांत श्रुति , युक्ति और अनुभूति से युक्त है ।।
यर्हि संसृति बंधो अयमात्मनो गुण वृत्तिदः।
मयि तुर्ये स्थितो जह्यात त्यागस्तद गुण चेतसाम।। 28
क्योंकि बुद्धि वृत्तियों के द्वारा होने वाला यह बंधन ही आत्मा में त्रिगुणमयी वृत्तियों का दान करता है । इसलिए तीनों अवस्थाओं से विलक्षण और उनमें अनुगत मुझ तुरीय तत्व में स्थित होकर इस बुद्धि के बंधन का परित्याग कर दे । तब विषय और चित्त दोनों का युगपत त्याग हो जाता है ।। 28
अहंकार कृतं बन्ध मात्मनो अर्थ विपर्ययम ।
विद्वान निर्विद्य संसार चिंताम तुर्ये स्थितस्त्यजेत।। 29
यह बंधन अहंकार की ही रचना है और यही आत्मा के परिपूर्णतम सत्य , अखंड ज्ञान और परमानन्द स्वरूप को छिपा देता है । इस बात को जान कर विरक्त हो जाये और अपने तीन अवस्थाओं में अनुगत तुरीय स्वरूप में हो कर संसार की चिंता छोड़ दे ।। 29
यावन्ना नार्थधीः पुंसो न निवर्तेत युक्तिभिः ।
जागर्त्यपि स्वपन्नज्ञः स्वप्ने जागरणं यथा । 30
जब तक पुरुष की भिन्न – भिन्न पदार्थों में सत्यत्व बुद्धि , अहम् बुद्धि और मम बुद्धि युक्तियों के द्वारा निवृत्त नहीं हो जाती , तब तक वह अज्ञानी यद्यपि जागता है तथापि सोया हुआ सा रहता है – जैसे स्वप्नावस्था में जान पड़ता है कि मैं जाग रहा हूँ ।
असत्वा दात्मनो अन्येषां भावानां तत्कृता भिदा।
गतयो हेतवाश्चास्य मृषा स्वप्न दृशो यथा ।। 31
आत्मा से अन्य देह आदि प्रतीयमान नाम – रूपात्मक प्रपंच का कुछ भी अस्तित्व नहीं है । इसलिए उनके कारण होने वाले वर्णाश्रमादि भेद , स्वर्गादि फल और उनके कारण भूत कर्म – ये सब के सब इस आत्मा के लिए वैसे ही मिथ्या हैं ; जैसे स्वप्न दर्शी पुरुष के द्वारा देखे हुए सब के सब पदार्थ । 31
यो जागरे बहिरनुक्षण धर्मिणो ऽर्थान
भुङ्क्ते समस्तकरणैर्हृदि ततसदृक्षान
स्वप्ने सुषुप्त उपसंहरते स एकः
स्मृत्यन्वायत्त्री गुण वृत्ति दृगिंद्रियेशः ।। 32
जो जाग्रत अवस्था में समस्त इन्द्रियों के द्वारा बाहर दिखने वाले सम्पूर्ण क्षण भंगुर पदार्थों को अनुभव करता है और स्वप्नावस्था में ह्रदय में ही जाग्रत में देखे हुए पदार्थों के समान ही वासनामय विषयों का अनुभव करता है और सुषुप्ति अवस्था में उन सब विषयों को समेत कर उनके लय को भी अनुभव करता है , वह एक ही है , जाग्रत अवस्था के इन्द्रिय , स्वप्नावस्था के मन और सुषुप्ति की संस्कारवती बुद्धि का भी वही स्वामी है । क्योंकि वह त्रिगुणमयी तीनों अवस्थाओं का साक्षी है । ‘ जिस मैंने स्वप्न देखा , जो मै सोया , वही मैं जाग रहा हूँ ‘- इस स्मृति के बल पर एक ही आत्मा का समस्त अवस्थाओं में होना सिद्ध हो जाता है ।। 32
एवं विमृश्य गुणतो मनसस्त्रयवस्था
मन्मायया मयि कृता इति निष्चितार्थः ।
संछिद्य हार्द मनु मानस दुक्ति तीक्ष्ण
ज्ञानसिना भजत माखिल संशयाधिम।। 33
ऐसा विचार कर मन की ये तीनों अवस्थाएं गुणों के द्वारा मेरी माया से मेरे अंश स्वरूप जीव में कल्पित की गयी है और आत्मा में ये नितांत असत्य हैं, ऐसा निश्चय कर के तुम लोग अनुमान , सत्पुरुषों द्वारा किये गए उपनिषदों के श्रवण और तीक्ष्ण ज्ञान खड्ग के द्वारा सकल संशयों के आधार अहंकार का छेदन कर के ह्रदय में स्थित मुझ परमात्मा का भजन करो । 33
ईक्षेत विभ्रम मिदं मनसो विलासं
दृष्टं विनष्ट मतिलोलमलातचक्रम ।
विज्ञानमेकमुरुधेव विभाति माया
स्वप्नस्त्रिधा गुणविसर्गकृतो विकल्पः ।। 34
यह जगत मन का विलास हैं , दिखने पर भी नष्टप्राय है, अलात चक्र के समान चंचल है और भ्रम मात्र है – ऐसा समझें । ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित एक ज्ञान स्वरूप आत्मा ही अनेक सा प्रतीत हो रहा है । यह स्थूल शरीर इन्द्रिय और अन्तः करण रूप तीन प्रकार का विकल्प गुणों के परिणाम की रचना है और स्वप्न के समान माया का खेल है , अज्ञान से कल्पित है ।
दृष्टि ततः प्रति निवर्त्य निवृत्त तृष्ण
सतूष्णीं भवेन्निज सुखानुभवो निरीहः।
संदृश्यते क्व च यदीदम वस्तु बुद्ध्या
त्यक्तं भ्रमाय न भवेत् स्मृतिरानिपातात।। 35
इसलिए उस देहादि रूप दृश्य से दृष्टि हटाकर तृष्णा रहित इन्द्रियों के व्यापर से हीन और निरीह होकर आत्मानंद के अनुभव में मग्न हो जाये । यद्यपि कभी – कभी आहार आदि के समय यह देहादिक प्रपंच देखने में आता है , तथापि यह पहले ही आत्म वस्तु से अतिरिक्त और मिथ्या समझ कर छोड़ा जा चुका है । केवल इसलिए वह पुनः भ्रान्ति मूलक मोह उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकता । देहपात पर्यन्त केवल संस्कार मात्रा उसकी प्रतीति होती है ।
देहम च नश्वरमवस्थित मुत्थिम वा
सिद्धो न पश्यति यतो ऽध्यगमत स्वरूपं
दैवादपेतमुत दैववषादुपेतं
वासो यथा परिकृतं मदिरा मदान्धः ।। 36
जैसे मदिरा पीकर उन्मत पुरुष यह नहीं देखता कि मेरे द्वारा पहना हुआ वस्त्र शरीर पर है या गिर गया , वैसे ही सिद्ध पुरुष जिस शरीर से उसने अपने स्वरूप का साक्षात्कार किया है , वह प्रारब्ध वश खड़ा है , बैठा है या दैव वश कहीं गया या आया है – नश्वर शरीर सम्बन्धी इन बातों पर दृष्टि नहीं डालता । 36
देहोऽपि दैव वशगः खलु कर्म यावत्
स्वारंभकं प्रति समीक्षित एव सासुः।
तं सप्रपंचमधिरूढ़समाधियोगः
स्वाप्नं पुनर्न भजते प्रतिबुद्धवस्तुः।। 37
प्राण और इन्द्रियों के साथ यह शरीर भी प्रारब्ध के अधीन है । इसलिए अपने आरम्भक ( बनाने वाले ) कर्म जब तक हैं , तब तक उनकी प्रतीक्षा करता ही रहता है । परन्तु आत्म वस्तु का साक्षात्कार करने वाला तथा समाधि पर्यन्त योग में आरूढ़ पुरुष स्त्री , पुत्र , धन आदि प्रपंच के सहित उस शरीर को कभी स्वीकार नहीं करता , अपना नहीं मानता , जैसे जगा हुआ पुरुष स्वप्नावस्था के शरीर आदि को । 37
मय्यैत दुक्तं वो विप्रा गुह्यं यत सांख्ययोगयोः।
जानीत माऽऽगतं यज्ञं युष्मद्धर्म विवक्षया ।। 38
सनकादि ऋषियों ! मैंने तुमसे जो कुछ कहा है , वह सांख्य और योग दोनों का गोपनीय रहस्य है । मैं स्वयं भगवान हूँ , तुम लोगों को तत्व ज्ञान का उपदेश करने के लिए ही यहाँ आया हूँ , ऐसा समझो ।। 38
अहं योगस्य सांख्यस्य सत्यस्यर्तस्य तेजसः
परायणं द्विज श्रेष्ठाः श्रियः कीर्तेर्दमस्य च ।। 39
विप्रवरों ! मैं योग , सांख्य , सत्य , ऋत ( मधुर भाषण ) , तेज , श्री , कीर्ति और दम ( इन्द्रियनिग्रह ) – इन सबका परम गति – परम अधिष्ठान हूँ ।। 39
मां भजंति गुणाः सर्वे निर्गुणं निर्पेक्षकम ।
सुहृदं प्रियमात्मानं साम्या संगादयो ऽगुणाः ।। 40
मैं समस्त गुणों से रहित हूँ और किसी कि अपेक्षा नहीं रखता । फिर भी साम्य , असंगता आदि सभी गुण मेरा ही सेवन करते हैं , मुझमें ही प्रतिष्ठित हैं ; क्योंकि मैं सबका हितैषी , सुहृद , प्रियतम और आत्मा हूँ । सच पूछो तो उन्हें गुण कहना भी ठीक नहीं है , क्योंकि वे सत्वादि गुणों के परिणाम नहीं हैं और नित्य हैं ।। 40
इति मे छिन्न संदेहा मुनयः सनकादयः
सभा जयित्वा परया भक्त्या गृणत संस्तवैः ।। 41
प्रिय उद्धव ! इस प्रकार मैंने सनकादि मुनियों के संशय मिटा दिए । उन्होंने परम भक्ति से मेरी पूजा की और स्तुतियों द्वारा मेरी महिमा का गान किया ।। 41
तैरहं पूजितः सम्यक संस्तुतः परमर्षिभिः ।
प्रत्येयाय स्वकं धाम पश्यतः परमेष्ठिनः ।। 42
जब उन परमर्षियों ने भली – भाँति मेरी पूजा और स्तुति कर ली , तब मैं ब्रह्मा जी के सामने ही अदृश्य हो कर अपने धाम में लौट आया ।
Be a part of this Spiritual family by visiting more spiritual articles on:
For more divine and soulful mantras, bhajan and hymns:
Subscribe on Youtube: The Spiritual Talks
For Spiritual quotes , Divine images and wallpapers & Pinterest Stories:
Follow on Pinterest: The Spiritual Talks
For any query contact on:
E-mail id: thespiritualtalks01@gmail.com
each word needs a vast explanation in simple words