Kanakdhara Stotram with hindi meaning | श्री कनकधारा स्तोत्रम् | Kanak Dhara Strotam in Sanskrit / Hindi | सदा संपन्न और वैभवशाली रखता है श्री कनकधारा स्तोत्र | श्री कनकधारा स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित | अपार धन-संपदा के लिए पढ़ें कनकधारा स्तोत्र | Kanakadhara Stotram In Hindi |
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कनकधारा स्तोत्र की रचना आदिगुरु शंकराचार्य जी ने की थी। कनकधारा का अर्थ होता है स्वर्ण की धारा, कहते हैं कि इस स्तोत्र के द्वारा माता लक्ष्मी को प्रसन्न करके उन्होंने सोने की वर्षा कराई थी। सिद्ध मंत्र होने के कारण कनकधारा स्तोत्र का पाठ शीघ्र फल देनेवाला और दरिद्रता का नाश करनेवाला है। इसके नित्य पाठ से धन सम्बंधित सभी प्रकार के अवरोध दूर होते हैं और महालक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है। यदि आप धन की इच्छा रखते है और आर्थिक तंगी से परेशान भी है या घर में धन रुक नहीं पा रहा है तो नियमित रूप से श्री कनकधारा स्तोत्र का पाठ करे निश्चित ही आपकी समस्याएं दूर हो जाएंगी। पुराणों में कनकधारा यंत्र एवं स्तोत्र चमत्कारिक वर्णन मिलता है। एक बार शंकराचार्य किसी ब्राह्मणी के घर भिक्षाटन के लिए गए उस समय उस ब्राह्मणी के पास भिक्षा देने के लिए कुछ भी नहीं था ऐसा जानकर शंकराचार्य ने इस स्तोत्र का पाठ किया पाठ करते ही स्वर्ण मुद्रा की वर्षा होने लगी ( यह पौराणिक कथा है ) उसी समय से यह स्तोत्र कनकधारा स्तोत्र के नाम से जाना जाने लगा। यदि आप अचूक धन करना चाहते है तो कनकधारा स्तोत्र का पाठ प्रतिदिन श्रद्धा और विशवास के साथ करे निश्चित ही मनोवांछित धन लाभ होगा ।
अङ्ग हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती
भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम् ।
अङ्गीकृताखिलविभूतिरपाङ्गलीला
माङ्गल्यदास्तु मम मङ्गलदेवतायाः ।।1।।
जैसे भ्रमरी अधखिले पुष्पों से अलंकृत तमाल के वृक्ष का आश्रय लेती है, उसी प्रकार जो श्रीहरि के रोमांच से सुशोभित श्री लक्ष्मी जी की कटाक्ष लीला श्रीअंगों पर निरंतर पड़ती रहती है तथा जिसमें सम्पूर्ण ऐश्वर्य का निवास है, वह सम्पूर्ण मंगलों की अधिष्ठात्री देवी भगवती महालक्ष्मी की कटाक्षलीला मेरे लिए मंगलदायिनी हो।।1।।
मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः
प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि ।
माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या
सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः ॥2॥
जैसे भ्रमरी महान कमल दल पर मँडराती रहती है, उसी प्रकार जो मुरारी श्रीहरि के मुखारविंद की ओर बार – बार प्रेमपूर्वक जाती है और लज्जा के कारण लौट आती है , समुद्र कन्या श्री लक्ष्मी की वह मनोहर मुग्ध दृष्टिमाला मुझे धन संपत्ति प्रदान करे।।2।।
विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्ष
मानन्द हेतु रधिकं मुरविद्विषोऽपि ।
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्द्ध
मिन्दोवरोदर सहोदरमिन्दिरायाः ।।3।।
जो संपूर्ण देवताओं के अधिपति इंद्र के पद का वैभव-विलास देने में समर्थ है, मुर के शत्रु श्रीहरि को भी अधिकाधिक आनंद प्रदान करने वाली है तथा जो नीलकमल के भीतरी भाग के समान मनोहर जान पड़ती है, उन लक्ष्मीजी के अधखुले नेत्रों की दृष्टि क्षण भर के लिए मुझ पर थोड़ी सी अवश्य पड़े।।3।।
आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्द
मानन्दकन्दम निमेषमनङ्गतन्त्रम्।
आकेकर स्थित कनी निकपक्ष्म नेत्रं
भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः।।4।।
शेषशायी भगवान विष्णु की धर्मपत्नी श्री लक्ष्मीजी के नेत्र हमें ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हों, जिनकी पुतली तथा भौहें प्रेम के वशीभूत हो अधखुले हों , किंतु साथ ही निर्निमेष (अपलक) नयनों से देखने वाले आनंदकंद श्री मुकुन्द को अपने निकट पाकर कुछ तिरछी हो जाती हैं।।4।।
बाह्यन्तरे मधुजित: श्रितकौस्तुभै या
हारावलीव हरिनीलमयी विभाति।
कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला
कल्याणमावहतु मे कमलालयाया:।।5।।
जो भगवान मधुसूदन के कौस्तुभमणि-मंडित वक्षस्थल में इंद्रनीलमयी हारावली-सी सुशोभित होती है तथा उनके भी मन में प्रेम का संचार करने वाली है, वह कमल-कुंजवासिनी कमला की कटाक्षमाला मेरा कल्याण करे।।5।।
कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभा
रेर्धाराधरे स्फुरति या तडिदंगनेव्।
मातु: समस्त जगतां महनीय
मूर्तिभद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनाया:।।6।।
जैसे मेघों की घटा में बिजली चमकती है, उसी प्रकार जो कैटभशत्रु श्रीविष्णु के काली मेघमाला के श्यामसुंदर वक्षस्थल पर प्रकाशित होती है, जिन्होंने अपने आविर्भाव से भृगुवंश को आनंदित किया है तथा जो समस्त लोकों की जननी है, उन भगवती लक्ष्मी की पूजनीया मूर्ति मुझे कल्याण प्रदान करे।।6।।
प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत्प्रभावान्
माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन।
मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्धं
मन्दालसं च मकरालयकन्यकायाः ।।7।।
समुद्र कन्या कमला की वह मंद, अलस, मंथर और अर्धोन्मीलित दृष्टि, जिसके प्रभाव से कामदेव ने मंगलमय भगवान मधुसूदन के हृदय में प्रथम बार स्थान प्राप्त किया था, यहाँ मुझ पर पड़े।।7।।
दद्याद् दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारा –
मस्मिन्नकिञ्चनविहङ्गशिशौ विषण्णे।
दुष्कर्मघर्ममपनीय चिराय दूरं
नारायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाहः ।।8।।
भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी का नेत्र रूपी मेघ दयारूपी अनुकूल पवन से प्रेरित हो दुष्कर्म रूपी घाम (धनागम विरोधी अशुभ प्रारब्ध) को चिरकाल के लिए दूर हटाकर विषाद रूपी धर्मजन्य ताप से पीड़ित मुझ दीन रूपी चातक पर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करे।।8।।
इष्टा विशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र –
दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते।
दृष्टिः प्रहृष्टकमलोदरदीप्तिरिष्टां
पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः ।।9।।
विशिष्ट बुद्धि वाले मनुष्य जिनके प्रीति पात्र होकर जिस दया दृष्टि के प्रभाव से स्वर्ग पद को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं, पद्मासना पद्मा की वह विकसित कमल-गर्भ के समान कांतिमयी दृष्टि मुझे मनोवांछित पुष्टि प्रदान करे।।9।।
गीर्देवतेति गरुडध्वजसुन्दरीति
शाकम्भरीति शशिशेखरवल्लभेति।
सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै
तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै।।10।।
जो सृष्टि लीला के समय वाग्देवता (ब्रह्मशक्ति) के रूप में विराजमान होती है तथा प्रलय लीला के काल में शाकम्भरी (भगवती दुर्गा) अथवा चन्द्रशेखर वल्लभा पार्वती (रुद्रशक्ति) के रूप में अवस्थित होती है, त्रिभुवन के एकमात्र पिता भगवान नारायण की उन नित्य यौवना प्रेयसी श्रीलक्ष्मीजी को नमस्कार है।।10।।
श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै
रत्यै नमोऽस्तु रमणीयगुणार्णवायै।
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै
पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै ।।11।।
हे माता ! शुभ कर्मों का फल देने वाली श्रुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों की सिंधु रूपा रति के रूप में आपको नमस्कार है। कमल वन में निवास करने वाली शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुष्टि रूपा पुरुषोत्तम प्रिया को नमस्कार है।।11।।
नमोऽस्तु नालीकनिभाननायै
नमोऽस्तु दुग्धोदधिजन्मभूत्यै।
नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै
नमोऽस्तु नारायणवल्लभायै ।।12।।
कमल वदना कमला को नमस्कार है। क्षीरसिंधु सम्भूता श्रीदेवी को नमस्कार है। चंद्रमा और सुधा की सगी बहन को नमस्कार है। भगवान नारायण की वल्लभा को नमस्कार है।।12।।
सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि
साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि।
त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि
मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये ।।13।।
कमल सदृश नेत्रों वाली माननीय माँ! आपके चरणों में की हुयी वंदना संपत्ति प्रदान करने वाली , संपूर्ण इंद्रियों को आनंद देने वाली , साम्राज्य देने में समर्थ और सारे पापों को हर लेने के लिए सर्वथा उद्यत हैं, वे सदा मुझे अवलम्बन दें । मुझे आपकी चरणवन्दना का शुभ अवसर सदा प्राप्त होता रहे।।।13।।
यत्कटाक्षसमुपासनाविधिः
सेवकस्य सकलार्थसम्पदः।
संतनोति वचनाङ्गमानसै –
स्त्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे ।।14।।
जिनके कृपा कटाक्ष के लिए की गई उपासना उपासक के लिए संपूर्ण मनोरथों और संपत्तियों का विस्तार करती है, श्रीहरि की हृदयेश्वरी उन्हीं आप लक्ष्मी देवी का मैं मन, वाणी और शरीर से भजन करता हूँ।।14।।
सरसिजनिलये सरोजहस्ते
धवलतमांशुकगन्धमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे
त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम्।।15।।
भगवती हरिप्रिया! तुम कमल वन में निवास करने वाली हो, तुम्हारे हाथों में नीला कमल सुशोभित है। तुम अत्यंत उज्ज्वल वस्त्र, गंध और माला आदि से सुशोभित हो। तुम्हारी झाँकी बड़ी मनोरम है। त्रिभुवन का ऐश्वर्य प्रदान करने वाली देवी, मुझ पर प्रसन्न हो जाओ।।15।।
दिग्घस्तिभिः कनककुम्भमुखावसृष्ट –
स्वर्वाहिनीविमलचारुजलप्लुताङ्गीम्।
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष –
लोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम् ।।16।।
दिग्गजों द्वारा सुवर्ण-कलश के मुख से गिराए गए आकाश गंगा के निर्मल एवं मनोहर जल से जिनके श्री अंगों का अभिषेक (स्नान) संपादित होता है, संपूर्ण लोकों के अधीश्वर भगवान विष्णु की गृहिणी और क्षीरसागर की पुत्री उन जगज्जननी लक्ष्मी को मैं प्रात:काल प्रणाम करता हूँ।।16।।
कमले कमलाक्षवल्लभे
त्वं करुणापूरतरङ्गितैरपाङ्गैः।
अवलोकय मामकिञ्चनानां
प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः ॥17॥।।17।।
कमल नयन केशव की कमनीय कामिनी कमले! मैं अकिंचन (दीन-हीन) मनुष्यों में अग्रगण्य हूँ, अतएव तुम्हारी कृपा का स्वाभाविक पात्र हूँ। तुम उमड़ती हुई करुणा की बाढ़ की तरह तरंगों के समान कटाक्षों द्वारा मेरी ओर देखो।।17।।
स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमूभिरन्वहं
त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्।
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो
भवन्ति ते भुवि बुधभाविताशयाः ।।18।।
जो मनुष्य इन स्तुतियों द्वारा प्रतिदिन वेदत्रयी स्वरूपा त्रिभुवन-जननी भगवती लक्ष्मी की स्तुति करते हैं, वे इस भूतल पर महान गुणवान और अत्यंत सौभाग्यशाली होते हैं तथा विद्वान पुरुष भी उनके मनोभावों को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं।।18।।
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