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Kunti Stuti-कुंती द्वारा भगवान श्री कृष्ण की स्तुति 

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Kunti Stuti in Hindi with meaning

 

 

कुंती उवाच

नमस्ये पुरुषं त्वद्यमीश्वरं प्रकृते: परम् ।

अलक्ष्यं सर्वभूतानामन्तर्बहिरवास्थितम् ॥१॥

 

कुंती बोली – 

हे प्रभो ! आप समस्त जीवों के बाहर और भीतर एकरस स्थित हैं अर्थात एक रूप में समाये हुए हैं या व्याप्त हैं। फिर भी इन्द्रियों और वृत्तियों से देखे नहीं जाते क्योंकि आप प्रकृति से परे आदिपुरुष परमेश्वर हैं । ऐसे आदि पुरुष जो इन्द्रियातीत हैं (इन्द्रियों से जिनको जाना नहीं जा सकता है ), जो अलक्ष्य हैं (आपके बारे में कोई अनुमान नहीं लगा सकता है जो अभेदी हैं , मैं आपको बारम्बार नमस्कार करती हूँ ।

 

मायाजवनिकाच्छन्नमज्ञाधोक्षमव्ययम् ।

न लक्ष्यसे मूढदृशा नटो नाटयधरो यथा ॥२॥

 

इन्द्रियों से जो कुछ जाना जा सकता है , उसकी तह में अर्थात उसके भीतर आप ही विद्यमान या व्याप्त  रहते हैं और अपनी ही माया के परदे से अपने को ढके रहते हैं। मैं अबोध नारी आप अविनाशी पुरुषोत्तम को भला , कैसे जान सकती हूँ? हे लीलाधर ! जैसे मूढ़ लोग दूसरा भेष धारण किये हुए नट को प्रत्यक्ष देख कर भी नहीं पहचान सकते , वैसे ही हम आपको नहीं पहचान सकते हैं अर्थात आप दिखते हुए भी नहीं दिखते।

 

तथा परमहंसानां मुनीनाममलात्मनाम् ।

भक्तियोगविधानार्थं कथं पश्येम हि स्त्रिय: ॥३॥

 

आप तो शुद्ध हृदय वाले , विचारशील , जीवन्मुक्त , परमहंसों के ह्रदय में अपनी प्रेममयी भक्ति को प्रकट करने या सृजन करने के लिए अवतीर्ण ( प्रकट ) हुए हैं  । ऐसे में हम अल्प बुद्धि स्त्रियां आपको कैसे पहचान सकती हैं?

 

कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च ।

नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नम: ॥४॥

 

हे गोविन्द ! आप श्री कृष्ण , वासुदेव, देवकीनन्दन, नन्दगोप लाडले हैं। आपको बारम्बार नमन है।

 

नम: पङ्कजनाभाय नम: पङ्कजमालिने ।

नम: पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये ॥५॥

 

हे ईश्वर, जिसकी नाभि से ब्रह्मा जी का जन्म स्थान कमल प्रकट हुआ है ( जिनकी नाभि कमल के समान है ) , जो सुन्दर कमलों की माला को धारण करते हैं , जिनके नेत्र भी कमल के समान सुन्दर और विशाल हैं , जिनके चरण कमलों में कमल का चिह्न है  ( जिनके चरण कमल के समान हैं ) ऐसे श्री कृष्ण को मैं बार बार नमन करती हूँ।

 

यथा हृषीकेश खलेन देवकी

कंसेने रुद्धातिचिरं शुचार्पिता ।

विमोचिताहं च सहात्मजा विभो

त्वयैव नाथेन मुहुर्विपद्गणात् ॥६॥

 

हे हृषिकेश ! आपने दुष्ट कंस के द्वारा चिरकाल से शोकग्रस्त और कैद की गई देवकी की रक्षा की और ऐसे ही आपने मेरे पुत्रों सहित मेरी भी बार – बार विपत्तियों से रक्षा की है। हे ईश्वर ! आप ही हमारे स्वामी हैं । आप सर्वशक्तिमान हैं।

 

विषान्महाग्ने: पुरुषाददर्शनाद

सत्सभाया वनवासकृच्छ्रत: ।

मृधे मृधे नेकमहारथास्त्रतो

द्रौण्यस्त्रतश्चास्म हरे भिसक्षिता: ॥७॥

 

हे श्री कृष्ण! कहाँ तक गिनाऊँ – आपने विष से, लाक्षागृह की भयानक आग से, हिडिम्ब आदि दैत्यों की दृष्टि से, वनवास के संकटों से, दुष्टों की द्यूत सभा से और अनेक बार के युद्धों में अनेक महारथियों के शस्त्रों और अस्त्रों से तथा अभी अभी इस अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से भी आपने हमारी रक्षा की है।

 

विपद: सन्तु ता: शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो ।

भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ॥८॥

 

हे जगद्गुरु ! हमारे जीवन में सर्वदा पद – पद पर विपत्तियां आती रहें क्योंकि विपदाओं और विपत्तियों में ही निश्चित रूप से हमें आपके दर्शन हुआ करते हैं और आपके दर्शन हो जाने पर फिर जन्म – मृत्यु के चक्कर में नहीं आना पड़ता अर्थात जीव जन्म – मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है।

 

जन्मैश्वर्यश्रितश्रीभिरेधमानमद: पुमान् ।

नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वामकिञ्चनगोचरम् ॥९॥

 

ऊँचे कुल में जन्म लेने से, ऐश्वर्य प्राप्त कर लेने से , विद्या तथा सम्पति के कारण जिसका घमंड बढ़ रहा है, वह मनुष्य ( जीव ) तो आपका नाम भी नहीं ले सकता और आपका नहीं हो सकता है क्योंकि आप तो केवल उन लोगों को ही दर्शन देते हैं जो अकिंचन ( जिनके पास आपके सिवा और कुछ नहीं है ) हैं।

 

नमो किञ्चनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये ।

आत्मारामाय शान्ताय कैवल्यपतये नम: ॥१०॥

 

हे ईश्वर ! आपको माया का प्रपंच ( माया जाल ) छू भी नहीं सकता है। आप स्वंय में ही विहार करने वाले अर्थात अपनी आत्मा में ही रमण करने वाले हैं, परम शांत स्वरूप हैं। आप ही कैवल्य मोक्ष के स्वामी हैं (आप ही मोक्ष प्रदाता हैं ) मैं आपको बार बार नमस्कार करती हूँ ।

 

मन्ये त्वां कालमीशानमनादिनिधनं विभुम् ।

समं चरन्तं सर्वत्र भूतानां यन्मिथ: कलि: ॥११॥

 

हे ईश्वर ! आप अनादि, अनन्त, सर्वव्यापक, सब के नियन्ता, कालरूप, परमेश्वर हैं।  संसार के समस्त पदार्थ और प्राणी आपस में टकराकर विषमता के कारण परस्पर विरुद्ध हो जाते हैं लेकिन आप सबमें समान रूप से विचरण करते हैं ।

 

न वदे कश्चद्भगवंश्चिकीर्षितं

तवेहमानस्य नृणां विडम्बनम् ।

न यस्य कश्चिद्दयितोस्ति कहिर्चिद्

द्वष्यश्च यस्मिन्विषमा मतिर्नृणाम् ॥१२॥

 

हे भगवन ! आप जब मनुष्यों की सी लीला करते है  , तब आप क्या करना चाहते हैं यह कोई नहीं जानता। आपका न तो कोई प्रिय है और ना ही कोई अप्रिय । आपके सबंध में लोगों की बुद्धि ही विषम हुआ करती है।

 

जन्म कर्म च विश्वात्मन्नकस्याकर्तुरात्मन: ।

तिर्यङ्नृषिषु याद: स तदत्यन्तविडम्बनम् ॥१३॥

 

आप विश्व के आत्मा हैं, विश्वरूप हैं. न आप जन्म लेते हैं और न कर्म ही करते हैं। फिर भी पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋषि, जलचर आदि में आप ही जन्म लेते हैं और उन योनियों के अनुरूप दिव्य कर्म भी करते हैं। यह आपकी लीला ही तो है ।

 

गोप्याददे त्वयि कृतागसि दाम तावद्या

ते दशाश्रुकलिलाञ्जनासम्भ्रमाक्षम् ।

वक्रं निनीय भयभावनया स्थितस्य

सा मां विमोहयति भीरपि यद्बभेति ॥१४॥

 

बाल्यावस्था में जब आपने दूध की मटकी फोड़ कर माता यशोदा को खिझा ( परेशान )  कर दिया था और उन्होंने आपको बाँधने के लिये हाथ में रस्सी ले ली थी , तब आपकी आँखों में से आँसू छलक पड़े थे , काजल कपोलों ( गाल ) पर बह चला था,  नेत्र चञ्चल हो रहे थे और भय की भावना के कारण आप ने अपने मुख को नीचे की ओर झुका लिया था ।  आपकी उस दशा का – लीला – छवि का ध्यान करके मैं मोहित हो जाती हूँ । भला , जिससे भय भी भय मानता हो , उसी की यह दशा !!

 

केचिदाहुरजं जातं पुण्यश्लोकस्य कीर्तये ।

यदो: प्रियस्यान्ववाये मलयस्येव चन्दनम् ॥१५॥

 

आपने अजन्मा हो कर भी जन्म क्यों लिया है इस का कारण बतलाते हुए कोई – कोई महापुरुष यों कहते हैं कि जैसे मलयाचल की कीर्ति का विस्तार करने के लिये उसमें चन्दन प्रकट होता है, वैसे ही अपने प्रिय भक्त पुण्यश्लोक राजा यदु की कीर्ति का विस्तार करने के लिए ही आपने उनके वंश में अवतार ग्रहण किया है।

 

अपरे वसुदेवस्य देवक्यां याचितो भ्यगात् ।

अजस्त्वमस्य क्षेमाय वधाय च सुरद्विषाम् ॥१८॥

 

दूसरे लोग आपके जन्म के विषय में यों कहते हैं कि वसुदेव और देवकी ने पूर्वजन्म में ( सुतपा और पृष्णि के रूप में ) आपसे यह वरदान प्राप्त किया था ( कि आप उनके कुल में जन्म लेंगे) इसीलिए आप अजन्मा होते हुए भी जगत के कल्याण और दैत्यों के नाश के लिए उनके पुत्र के रूप में अवतरित हुए हैं।

 

भारावतारणायान्ये भुवो नाव इवोदधौ ।

सीदन्त्या भूरिभारेण जातो ह्यात्मभुवार्थित: ॥१९॥

 

कुछ और लोगों का (आपके जन्म के विषय में)  यह कथन है कि यह पृथ्वी दैत्यों के अत्यंत भार से सागर में डूबते हुए जहाज की तरह डगमगा रही थी तथा पीड़ित हो रही थी । ऐसे में ब्रह्मा जी की प्रार्थना के पश्चात पृथ्वी का भार उतारने के लिए आपने अवतार लिया है।

 

भवेष्मिन्‌ क्लिष्यमानानामविद्याकामकर्मभिः।

श्रवण स्मरणार्हाणि करिष्यन्निति केच ॥२०॥

 

कुछ महापुरुषों का कथन है कि जो लोग इस संसार में अज्ञान, कामना ( इच्छा / लालसा ) और कर्मों के बंधन में जकड़े हुए पीड़ित हो रहे हैं , उन लोगों के लिए श्रवण और स्मरण करने योग्य लीला करने के विचार अर्थात उनको ज्ञान की प्राप्ति करवाने के लिए ही आपने अवतार लिया है।

 

शृण्वन्ति गायन्ति गृणन्त्यभीक्ष्णश:

स्मरन्ति नन्दन्ति तवेहितं जना: ।

त एव पश्यन्त्यचिरेण तावकं

भवप्रवाहोपरमं पदाम्बुजम् ॥२१॥

 

भक्तजन बार – बार आपके चरित्र का श्रवण , गान , कीर्तन एवं स्मरण करके आनंदित होते रहते हैं।  ऐसे ही भक्त अविलम्ब ( शीघ्र ) आपके उन चरण कमल का दर्शन प्राप्त कर पाते हैं जिनका दर्शन जन्म – मरण का चक्र ( जन्म – मृत्यु का प्रवाह ) सदा के लिए रोक देता है।

 

अप्यद्य नस्त्वं स्वकृतेहित प्रभो

जिहाससि स्वित्सुहृदो नुजीविन: ।

येषां न चान्यद्भवत: पदाम्बुजात्

परायणं राजसु योजितांहसाम् ॥२२॥

 

हे भक्तवाञ्छाकल्पतरु ! क्या अब आप अपने आश्रित और संबधी हम लोगों को छोड़कर जाना चाहते हैं ? क्या आप जानते हैं कि आपके चरण कमलों के अतिरिक्त हमारा कोई भी सहारा नहीं है । इस पृथ्वी के राजाओं के तो हम यों ही शत्रु हो चुके हैं।

 

के वयं नामरूपाभ्यां यदुभि: सह पाण्डवा: ।

भवतो दर्शनं यर्हि हृषीकाणामिवेशितु: ॥२३॥

 

हे ईश्वर ! जैसे जीव के बिना समस्त इन्द्रियाँ शक्तिहीन हो जाती हैं, वैसे ही आपके बिना यदुवशियों और पांडवों के नाम तथा रूप का अस्तित्व ही क्या रह जायेगा अर्थात समाप्त हो जाएगा।

 

नेयं शोभिष्यते तत्र यथेदानीं गदाधर ।

त्वत्पदैरङ्किता भाति स्वलक्षणविलक्षितै: ॥२४॥

 

हे गदाधर ( गदा धारण करने वाले ) ! यह धरा तो आपसे ही शोभामान है, आपके विलक्षण चरणों के चिन्हों से चिह्नित यह कुरुजाङ्गल देश की भूमि आज जैसी शोभायमान हो रही है , वैसी आपके जाने के बाद नहीं रहेगी।

 

इमे जनपदा: स्वृद्धा: सुपक्वौषधिवीरुध: ।

वनाद्रिनद्युदन्वन्तो ह्येधन्ते तव वीक्षितै: ॥२५॥

 

आपकी दया दृष्टि के प्रभाव से ही यह देश पकी हुई फसल और लता – वृक्षों से समृद्ध हो रहा है । ये वन , नदी , पर्वत और समुद्र आपकी दृष्टि से ही वृद्धि को प्राप्त हो रहे हैं ।

 

अथ विश्वेश विश्वात्मन्विश्वमूर्ते स्वकेषु मे ।

स्नेहपाशमिमं छिन्धि दृढं पाण्डुषु वृष्णषु ॥२६॥

 

हे ईश्वर ! आप विश्व के स्वामी हैं , विश्व के आत्मा हैं और  विश्वरूप हैं। यदुवंशियों और पाण्डवों में मेरी बड़ी ममता हो गयी है । आप कृपा कर के स्वजनों के साथ जोड़े हुए इस स्नेह के पाश को काट दीजिये।

 

त्वयि मे नन्यविष्या मतिर्मधुपतेसकृत् ।

रतिमुद्वहतादद्धा गङ्गेवौघमुदन्वति ॥२७॥

 

हे ईश्वर ! ऐसी कृपा कीजिये कि मैं सदा ही आपसे ही प्रेम करती रहूं। जैसे गङ्गाकी अखण्ड धारा समुद्र में गिरती रहती है, वैसे ही मेरी बुद्धि भी किसी दूसरे ओर न जाकर सदा आप में ही लिप्त रहे, निरंतर आपसे ही प्रेम करती रहे ।

 

श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनि

ध्रुग्राजन्यवंशदहनानपवर्गवीर्य ।

गोविन्द गोद्विजसुरार्तिहरावतार

योगेश्वराखिलगुरो भगवन्नमस्ते ॥२८॥

 

हे श्रीकृष्ण! आप अर्जुन के अत्यंत ही प्रिय सखा हैं, यदुवंश के शिरोमणि हैं, आप ही इस पृथ्वी के भार रूप दैत्यों को जलाने के लिए अग्निरूप हैं। आपकी शक्ति अनंत है उसका कोई थाह नहीं है। हे गोविन्द ! आपका यह अवतार गौ , ब्राह्मणों और देवताओं के दुःख को मिटाने के लिए ही हुआ है। हे योगेश्वर! चराचर के गुरु भगवान् ! मैं आप  को नमन करती हूँ।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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