Mohini Ekadashi Vrat Katha | Mohini Ekadashi | Mohini Ekadashi Vrat | मोहिनी एकादशी व्रत कथा | मोहिनी एकादशी | मोहिनी एकादशी व्रत | मोहिनी एकादशी व्रत महत्त्व | मोहिनी एकादशी व्रत के लाभ | मोहिनी एकादशी व्रत का फल | मोहिनी एकादशी की पूजा विधि | मोहिनी एकादशी का व्रत रखने से मिलता है सहस्र गोदान का फल | सब पापों को हरने वाली है मोहिनी एकादशी | मोहिनी एकादशी के व्रत से प्राणियों के अनेक जन्मों के किये हुए मेरु पर्वत जैसे महापाप भी हो जाते हैं नष्ट | मोहिनी एकादशी व्रत के प्रभाव से मनुष्य हो जाता है माया मोह के बंधनों से मुक्त |मोहिनी एकादशी का व्रत रखने से मिलता है 1000 गौ दान का फल | एकादशी | एकादशी व्रत कथा | एकादशी व्रत का फल | एकादशी व्रत का महत्त्व | एकादशी व्रत के लाभ | एकादशी का व्रत क्यों रखें | एकादशी व्रत पूजन विधि | एकादशी के व्रत में न हो जाए कोई भूल | एकादशी के दिन व्रत के भोजन में शामिल करें ये चीजें|एकादशी का व्रत क्यों रखा जाता है? एकादशी व्रत के पीछे वैज्ञानिक कारण | एकादशी के दिन क्या खाएं क्या न खाएं |एकादशी व्रत कैसे प्रारंभ हुआ?|एकादशी व्रत-उपवास के नियम | एकादशी व्रत के दिन क्या करें क्या न करें |
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वैशाख मास के शुक्लपक्ष को पड़ने वाली एकादशी को मोहिनी एकादशी कहते हैं। हिन्दू धर्म में इसका विशेष स्थान है । माना जाता है कि जो भी जातक यह व्रत करता है उसे सहस्र गोदान का फल मिलता है ।
मोहिनी एकादशी पर भगवान विष्णु की आराधना करने से जहां सुख-समृद्धि बढ़ती है वहीं शाश्वत शांति भी प्राप्त होती है। अत: इस दिन व्रत रखकर माया मोह के बंधन से मुक्त होने के लिए यह एकादशी बहुत लाभदायी है।
इस संसार में आकर मनुष्य केवल प्रारब्ध का भोग ही नहीं भोगता है बल्कि अपने वर्तमान को भक्ति और आराधना से जोड़कर सुखद भविष्य का निर्माण भी करता है। मोहिनी एकादशी व्रत से मोह आदि सब नष्ट हो जाते हैं। संसार में इस व्रत से श्रेष्ठ कोई व्रत नहीं है। इसके माहात्म्य को पढ़ने से अथवा सुनने से एक हजार गौदान का फल प्राप्त होता है।
मोहिनी एकादशी का महत्त्व
स्कंद पुराण के अनुसार मोहिनी एकादशी के दिन समुद्र मंथन में निकले अमृत का बंटवारा हुआ था। स्कंद पुराण के अवंतिका खंड में शिप्रा को अमृतदायिनी, पुण्यदायिनी कहा गया। अत: मोहिनी एकादशी पर शिप्रा में अमृत महोत्सव का आयोजन किया जाता है।
अवंतिका खंड के अनुसार मोहिनी रूपधारी भगवान विष्णु ने अवंतिका नगरी में अमृत वितरण किया था। देवासुर संग्राम के दौरान मोहिनी रूप रखकर राक्षकों को चकमा दिया और देवताओं को अमृत पान करवाया। यह दिन देवासुर संग्राम का समापन दिन भी माना जाता है।
मोहिनी एकादशी के अवसर पर श्रद्धालुओं को सुबह से ही पूजा-पाठ, प्रातःकालीन आरती, सत्संग, एकादशी महात्म्य की कथा, प्रवचन सुनना चाहिए।
साथ ही भगवान विष्णु को चंदन और जौ चढ़ाने चाहिए क्योंकि यह व्रत परम सात्विकता और आचरण की शुद्धि का व्रत होता है। अत: हमें अपने जीवन काल में धर्मानुकूल आचरण करते हुए मोक्ष प्राप्ति का मार्ग ढूंढना चाहिए।
व्रत न रखने पर भी एकादशी के दिन सावधानी
एकादशी व्रत बहुत सावधानी का व्रत है। एकादशी के दिन चावल खाना वर्जित हैं।
एकादशी व्रत का फल
एकादशी व्रत समस्त पापों का क्षय करता है तथा व्यक्ति के आकर्षण प्रभाव में वृद्धि करता है। एकादशी व्रत को करने से मनुष्य को समाज, परिवार तथा देश में प्रतिष्ठा मिलती है तथा उसकी ख्याति चारों ओर फैलती है। एकादशी व्रत सभी मोह बंधनों से मुक्त करने वाला है और समस्त पापों का नाश करने वाला है। एकादशी व्रत के प्रभाव से मनुष्य को मृत्यु के बाद मिलने वाली नर्क की यातनाओं से छुटकारा मिलता है। विष्णु पुराण के अनुसार मोहिनी एकादशी का विधिवत व्रत करने से मनुष्य मोह-माया के बंधनों से मुक्त हो जाता है। साथ ही व्रती के समस्त पापों का नाश हो जाता है।
मोहिनी एकादशी व्रत कथा
युधिष्ठिर ने पूछा: जनार्दन ! वैशाख मास के शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है? उसका क्या फल होता है? उसके लिए कौन सी विधि है?
भगवान श्रीकृष्ण बोले: धर्मराज ! पूर्वकाल में परम बुद्धिमान श्रीरामचन्द्रजी ने महर्षि वशिष्ठजी से यही बात पूछी थी, जिसे आज तुम मुझसे पूछ रहे हो ।
श्रीराम ने कहा: भगवन् ! जो समस्त पापों का क्षय तथा सब प्रकार के दु:खों का निवारण करनेवाला, व्रतों में उत्तम व्रत हो, उसे मैं सुनना चाहता हूँ ।
वशिष्ठजी बोले: श्रीराम ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है । मनुष्य तुम्हारा नाम लेने से ही सब पापों से शुद्ध हो जाता है । तथापि लोगों के हित की इच्छा से मैं पवित्रों में पवित्र उत्तम व्रत का वर्णन करुँगा । वैशाख मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका नाम ‘मोहिनी’ है । वह सब पापों को हरनेवाली और उत्तम है । उसके व्रत के प्रभाव से मनुष्य मोहजाल तथा पातक समूह से छुटकारा पा जाते हैं ।
सरस्वती नदी के रमणीय तट पर भद्रावती नाम की सुन्दर नगरी है । वहाँ धृतिमान नामक राजा, जो चन्द्रवंश में उत्पन्न और सत्यप्रतिज्ञ थे, राज्य करते थे । उसी नगर में एक वैश्य रहता था, जो धन धान्य से परिपूर्ण और समृद्धशाली था । उसका नाम था धनपाल । वह सदा पुण्यकर्म में ही लगा रहता था । दूसरों के लिए पौसला (प्याऊ), कुआँ, मठ, बगीचा, पोखरा और घर बनवाया करता था । भगवान विष्णु की भक्ति में उसका हार्दिक अनुराग था । वह सदा शान्त रहता था । उसके पाँच पुत्र थे : सुमना, धुतिमान, मेघावी, सुकृत तथा धृष्टबुद्धि । धृष्टबुद्धि पाँचवाँ था । वह सदा बड़े-बड़े पापों में ही संलग्न रहता था । जुए आदि दुर्व्यसनों में उसकी बड़ी आसक्ति थी । वह वेश्याओं से मिलने के लिए लालायित रहता था । उसकी बुद्धि न तो देवताओं के पूजन में लगती थी और न पितरों तथा ब्राह्मणों के सत्कार में । वह दुष्टात्मा अन्याय के मार्ग पर चलकर पिता का धन बरबाद किया करता था। एक दिन वह वेश्या के गले में बाँह डाले चौराहे पर घूमता देखा गया । तब पिता ने उसे घर से निकाल दिया तथा बन्धु बान्धवों ने भी उसका परित्याग कर दिया । अब वह दिन रात दु:ख और शोक में डूबा तथा कष्ट पर कष्ट उठाता हुआ इधर उधर भटकने लगा । एक दिन किसी पुण्य के उदय होने से वह महर्षि कौण्डिन्य के आश्रम पर जा पहुँचा । वैशाख का महीना था । तपोधन कौण्डिन्य गंगाजी में स्नान करके आये थे । धृष्टबुद्धि शोक के भार से पीड़ित हो मुनिवर कौण्डिन्य के पास गया और हाथ जोड़ सामने खड़ा होकर बोला : ‘ब्रह्मन् ! द्विजश्रेष्ठ ! मुझ पर दया करके कोई ऐसा व्रत बताइये, जिसके पुण्य के प्रभाव से मेरी मुक्ति हो ।’
कौण्डिन्य बोले: वैशाख के शुक्लपक्ष में ‘मोहिनी’ नाम से प्रसिद्ध एकादशी का व्रत करो । ‘मोहिनी’ को उपवास करने पर प्राणियों के अनेक जन्मों के किये हुए मेरु पर्वत जैसे महापाप भी नष्ट हो जाते हैं |’
वशिष्ठजी कहते है: श्रीरामचन्द्रजी ! मुनि का यह वचन सुनकर धृष्टबुद्धि का चित्त प्रसन्न हो गया । उसने कौण्डिन्य के उपदेश से विधिपूर्वक ‘मोहिनी एकादशी’ का व्रत किया । नृपश्रेष्ठ ! इस व्रत के करने से वह निष्पाप हो गया और दिव्य देह धारण कर गरुड़ पर आरुढ़ हो सब प्रकार के उपद्रवों से रहित श्रीविष्णुधाम को चला गया । इस प्रकार यह ‘मोहिनी’ का व्रत बहुत उत्तम है । इसके पढ़ने और सुनने से सहस्र गौदान का फल मिलता है ।’
एकादशी व्रत का महत्त्व
एकादशी को भगवान श्री विष्णु को समर्पित दिन माना जाता है। प्रत्येक एकादशी तिथि का एक अलग महत्व है और प्रत्येक एकादशी तिथि पर विष्णु की पूजा की जाती है। एकादशी तिथि हर महीने में दो बार आती है, एक कृष्ण पक्ष में और एक शुक्ल पक्ष में। इस प्रकार एक वर्ष में कम से कम 24 एकादशी होती हैं। हिन्दू पंचांग के अनुसार प्रत्येक माह की 11वीं तिथि को एकादशी कहते हैं। एकादशी भगवान विष्णु को समर्पित एक दिन माना जाता है। एक महीने में दो पक्ष होने के कारण दो एकादशी आती हैं, एक शुक्ल पक्ष की और दूसरी कृष्ण पक्ष की। इस प्रकार एक वर्ष में कम से कम 24 एकादशी हो सकती हैं, लेकिन अधिक मास (अतिरिक्त महीने) के मामले में यह संख्या 26 भी हो सकती है।
दोनों पक्षों की एकादशी समान रुप से कल्याण करने वाली है । इसमें शुक्ल और कृष्ण का भेद नहीं करना चाहिए । यदि उदय काल में थोड़ी सी एकादशी, मध्य में पूरी द्वादशी और अन्त में किंचित् त्रयोदशी हो तो वह ‘त्रिस्पृशा एकादशी’ कहलाती है । वह भगवान को बहुत ही प्रिय है । यदि एक ‘त्रिस्पृशा एकादशी’ को उपवास कर लिया जाय तो एक हजार एकादशी व्रतों का फल प्राप्त होता है तथा इसी प्रकार द्वादशी में पारण करने पर हजार गुना फल माना गया है । अष्टमी, एकादशी, षष्ठी, तृतीय और चतुर्दशी – ये यदि पूर्व तिथि से विद्ध हों तो उनमें व्रत नहीं करना चाहिए । परवर्तिनी तिथि से युक्त होने पर ही इनमें उपवास का विधान है । पहले दिन में और रात में भी एकादशी हो तथा दूसरे दिन केवल प्रात: काल एक दण्ड एकादशी रहे तो पहली तिथि का परित्याग करके दूसरे दिन की द्वादशी युक्त एकादशी को ही उपवास करना चाहिए । यह विधि मैंने दोनों पक्षों की एकादशी के लिए बतायी है । एकादशी तिथि के लिए उदया तिथि मान्य होती है। वैष्णवों को योग्य द्वादशी मिली हुई एकादशी का व्रत करना चाहिए। त्रयोदशी आने से पूर्व व्रत का पारण करें।
जो मनुष्य एकादशी को उपवास करता है, वह वैकुण्ठ धाम में जाता है, जहाँ साक्षात् भगवान गरुड़ध्वज विराजमान रहते हैं । जो मानव हर समय एकादशी के माहात्म्य का पाठ करता है, उसे हजार गौदान के पुण्य का फल प्राप्त होता है । जो दिन या रात में भक्तिपूर्वक इस माहात्म्य का श्रवण करते हैं, वे नि:संदेह ब्रह्महत्या आदि पापों से मुक्त हो जाते हैं । एकादशी के समान पापनाशक व्रत दूसरा कोई नहीं है । हिंदू धर्म में एकादशी का बहुत अधिक महत्व होता है। इस दिन विधि- विधान से भगवान विष्णु की पूजा- अर्चना होती है।
एकादशी व्रत को सबसे कठिन व्रतों में से एक माना गया है। इसलिए एकादशी व्रत में नियम और अनुशासन का विशेष ध्यान रखना चाहिए। इसके साथ ही व्रत का पारण भी शुभ मुहूर्त में करना चाहिए। एकादशी व्रत में पारण का विशेष महत्व दिया गया है। मान्यता है कि विधि पूर्वक व्रत का पारण न करने से इस व्रत का पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं होता है।
इस दिन विधिपूर्वक भगवान नारायण की पूजा करनी चाहिए । जैसे नागों में शेषनाग, पक्षियों में गरुड़ तथा देवताओं में श्रीविष्णु श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण व्रतों में एकादशी तिथि श्रेष्ठ है ।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजेन्द्र ! बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञों से भी मुझे उतना संतोष नहीं होता, जितना एकादशी व्रत के अनुष्ठान से होता है ।
एकादशी की रात्रि में रात्रि जागरण का विशेष महत्त्व है । अतः बंधु बांधवों के साथ या उनके अभाव में स्वयं ही भजन कीर्तन , नाम संकीर्तन और मन्त्र जाप करते हुए रात्रि जागरण करना चाहिए । एकादशी की रात में जागरण करके शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान विष्णु की भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए । ऐसा करनेवाले पुरुष के पुण्य की गणना करने में चतुर्मुख ब्रह्माजी भी असमर्थ हैं ।
एकादशी का व्रत क्यों रखा जाता है?
एकादशी व्रत के पीछे वैज्ञानिक कारण
एकादशी हर 15 दिन में एक बार आती है। यह वह समय होता है जब शरीर एक विशेष चक्र से गुजरता है। इस समय शरीर को भोजन की कोई खास जरूरत नहीं रहती या यूं कहें कि बाकी दिनों की अपेक्षा सबसे कम होती है। इस काल में शरीर हल्का और शुद्ध होना चाहता है। ऊर्जा अंतर्मुखी होकर बहना चाहती है।
हर 15 दिन बाद होने वाली व्रत की यह शृंखला शरीर की कोशिकाओं पर ही नहीं, बल्कि डीएनए तक पर प्रभाव डालकर अनेक असाध्य बीमारियों से बचाव करते हैं और शरीर की उम्र बढ़ाती है। ऐसे में किया गया उपवास शारीरिक, मानसिक, भावात्मक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को बढ़ा देता है। यह उपवास करने का सबसे उचित समय होता है जो हमें प्रकृति से जोड़कर अंतर्मुखी करने में मदद करता है।
एकादशी व्रत कैसे प्रारंभ हुआ?
भगवती एकादशी कौन है, इस संबंध में पद्म पुराण में कथा है कि एक बार पुण्यश्लोक धर्मराज युधिष्ठिर को लीला पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण ने समस्त दुःखों, त्रिविध तापों से मुक्ति दिलाने, हजारों यज्ञों के अनुष्ठान की तुलना करने वाले, चारों पुरुषार्थों को सहज ही देने वाले एकादशी व्रत करने का निर्देश दिया। एकादशी व्रत-उपवास करने का बहुत महत्व होता है। साथ ही सभी धर्मों के नियम भी अलग-अलग होते हैं। खास कर हिंदू धर्म के अनुसार एकादशी व्रत करने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को दशमी के दिन से ही कुछ अनिवार्य नियमों का पालन करना चाहिए।
एकादशी व्रत-उपवास के नियम
एकादशी व्रत के दिन क्या करें क्या न करें
एकादशी का व्रत दसवीं तिथि के सूर्यास्त के बाद से शुरू होकर एकादशी के अगले दिन सूर्योदय तक रहता है। इसमें खाने-पीने की कई चीजों का ध्यान रखना भी जरूरी होता है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार एकादशी का पूर्ण लाभ लेने के लिए व्रत के नियमों का सख्ती से पालन करना चाहिए। एकादशी व्रत का नियम कुछ कठोर होता है। यह व्रत कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा से रख सकता है।एकादशी के व्रत में दशमी के दिन से ही ब्रह्मचार्य व्रत का पूर्ण रूप से पालन करना चाहिए। एकादशी का व्रत भगवान विष्णु को समर्पित है। इस दिन भगवान विष्णु की पूजा की जाती है और उन्हें प्रसन्न करने के लिए उन्हें धूप, फल, फूल, दीप, पंचामृत आदि अर्पित करते हैं। व्रत के दौरान क्रोध और द्वेष भावना नहीं रखनी चाहिए।
द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को मिष्ठान्न, दक्षिणा देना चाहिए। क्रोध नहीं करते हुए मधुर वचन बोलना चाहिए। इस व्रत को करने से जीवन के सारे कष्ट समाप्त हो जाते हैं, और उपवास करने वाला दिव्य फल प्राप्त करता है।
एकादशी के दिन क्या खाएं क्या न खाएं
एकादशी व्रत में अन्न नहीं खाया जाता। इस दिन चावल बिलकुल भी नहीं खाने चाहिए तथा चने या चने के आटे से बनी चीज से भी परहेज करना चाहिए। इस दिन शहद खाने से भी बचना चाहिए। एकादशी का व्रत-उपवास करने वालों को दशमी के दिन से ही मांस, लहसुन, प्याज, मसूर की दाल आदि निषेध वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। रात्रि को पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए तथा भोग-विलास से दूर रहना चाहिए।
एकादशी के व्रत का भोजन
एकादशी के व्रत में अन्न खाना मना होता है। कुछ लोग एकादशी का व्रत निर्जला करते हैं, जिसे निर्जला एकादशी के नाम से जाना जाता है। वहीं, शास्त्रों के अनुसार एकादशी के दिन इन वस्तुओं और मसालों का प्रयोग व्रत के दौरान कर सकते हैं- एकादशी के व्रत में ताजे फल, मेवे, चीनी, कुट्टू, नारियल, जैतून, दूध, अदरक, काली मिर्च, सेंधा नमक, आलू, साबूदाना, शकरकंद आदि खा सकते हैं। एकादशी व्रत का भोजन सात्विक होना चाहिए। एकादशी के दिन व्रतधारी व्यक्ति को गाजर, शलजम, गोभी, पालक, इत्यादि का सेवन नहीं करना चाहिए। केला, आम, अंगूर, बादाम, पिस्ता इत्यादि अमृत फलों का सेवन करें। प्रत्येक वस्तु प्रभु को भोग लगाकर तथा तुलसीदल छोड़कर ग्रहण करना चाहिए।
कैसे करें मोहिनी एकादशी का व्रत
पूजा विधि
एकादशी तिथि के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान व ध्यान करने के बाद स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए। इसके बाद पूजा की तैयारियां शुरू कर दें और व्रत का संकल्प लें। इसके बाद भगवान कृष्ण की मूर्ति या चित्र पर गंगाजल से छिड़काव करें और रोली व अक्षत से टीका करें। इसके बाद देशी घी का दीपक जलाएं और फूलों से मंदिर को सजाएं। इस एकादशी पर भगवान कृष्ण की पूजा करने का भी विधान है। कृष्णजी को माखन-मिश्री अच्छी लगती है इसलिए उनको यही भोग लगाएं। धूप-दीप से भगवान की पूजा करने के बाद विष्णु सहस्रनाम का पाठ करना उत्तम रहेगा। इसके बाद तुलसी पूजन करें। दिन भर मन को शांत रखकर भगवान का स्मरण करते रहें और हो सके तो गीता पाठ कर लें । शाम के समय श्रीकृष्ण की फिर से पूजा करें और भोग लगाएं। इसके बाद भोग को सभी में बांट दें।अगले दिन पूजा-पाठ और दान-दक्षिणा देकर ब्राह्मणों को घर पर बुलाकर भोजन करवाएं और फिर खुद पारण करें।
भगवान को केवल सात्विक चीजें ही अर्पित करें। ऐसा माना जाता है कि तुलसी के बिना भगवान विष्णु भोग स्वीकार नहीं करते हैं। इस दिन भगवान विष्णु के साथ-साथ मां लक्ष्मी की भी पूजा करनी चाहिए। पूजा के बाद आरती करें और भगवान से प्रर्थना करें। तत्पश्चात् पूजा स्थल को गंगा के जल की कुछ बूंदें डालकर पवित्र कर लेना चाहिये और तदुपरांत भगवान् नारायण का षोडशोपचार विधि से पूजन, अर्चन और स्तवन करना चाहिये। षोडशोपचार यानी सोलह प्रकार के उपचार के क्रियान्वयन को भगवान् की पूजा का षोडशोपचार पूजन कहा जाता है। इसमें सोलह प्रकार की चीजों का प्रयोग किया जाता है जो इस प्रकार हैं:
पहला उपचार यानी देवता का आवाहन।
दूसरा उपचार यानी देवता को आसन देना।
तीसरा उपचार यानी पाद प्रक्षालन।
चौथा उपचार यानी अर्घ्य देना।
पांचवां उपचार यानी आचमन या मुख प्रक्षालन।
छठवां उपचार यानी स्नान यानी देवता पर जल चढ़ाना।
सातवां उपचार यानी देवता को वस्त्र देना।
आठवां उपचार यानी देवता को उपवस्त्र अर्थात् जनेऊ देना।
नौवां उपचार यानी देवता को गंध या चंदन देना।
दसवां उपचार यानी पुष्प अर्पित करना।
ग्यारहवां उपचार यानी धूप अर्पित करना।
बारहवां उपचार यानी दीप अर्पित करना।
तेरहवां उपचार नैवेद्य अर्पित करना।
चौदहवां उपचार यानी देवता को नमन करना।
पंद्रहवां उपचार यानी परिक्रमा करना।
सोलहवां उपचार यानी मंत्रपुष्प अर्पित करना।
इस प्रकार षोडशोपचार विधि से भगवान् नारायण का पूजन करके उनसे अपने अपराधों के क्षमा याचना करनी चाहिये। रात में दीपों का दान करना चाहिये और यदि संभव हो तो पूरी रात जागरण करते हुए भगवान् नारायण का पाठ करते रहें। इस अवसर पर विष्णुसहस्रनाम का पाठ बहुत फल देने वाला माना गया है। इस प्रकार अगले दिन प्रात: पुन: पूजन आदि करके दान और भोजन आदि से योग्य पात्रों को संतुष्ट करके स्वयं भी सात्विक भोजन कर लेना चाहिये।
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