Ram Naam Ki Mahima | राम नाम की महिमा | श्री राम नाम की महिमा। राम नाम है अपरंपार | राम नाम की महिमा अपरंपार | राम नाम की महिमा भारी | Ram Naam Ki Mahima Bhaari | श्री राम नाम जाप महिमा | Shri Ram Naam Jap Mahima| राम ने भी माना राम से बड़ा है राम का नाम | राम से बड़ा राम का नाम | राम नाम महिमा | राम नाम में इतनी शक्ति क्यों है ? | Naam Mahima |नाम महिमा | राम नाम की महिमा क्या है?| श्री राम नाम महिमा | Shri Rama nama Mahima| राम नाम का जाप कब और कैसे करे | राम नाम एक महामन्त्र | महामंत्र | Mahamantra| Shri Ram naam Mahima in hindi| श्री राम नाम की महिमा- पुराण, दोहावली और रामायण अनुसार | श्री नाम वंदना और नाम महिमा
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“राम राम” का जितना हो सके उतना जाप करें।
कहते हैं कि जब आप अपने बिस्तर पर होते हैं और उनका नाम जपते हैं, तो राम बैठते हैं और सुनते हैं। जब आप बैठकर उनका नाम जप रहे होते हैं तो वह खड़े होकर सुनते हैं। जब आप खड़े होकर जप करते हैं तो वह खुशी से नाचते हैं और आपकी बात सुनते हैं और जब आप हर समय इसका जाप करते हैं, तो वह आपके लिए वैकुंठ का द्वार खोल देते हैं ।
“रं” मंत्र या राम के मनन से मणिपुर चक्र में पूर्व से ही निरन्तर चले आ रहे असुंतलन से उत्पन्न पूर्व में हमारा स्वभाव बन चुकी हमारी अहं युक्त – “मैं” व कर्ता भाव की भावना समाप्त होने लग जाती है।
राम नाम का अर्थ:
रमन्ते सर्वभूतेषु स्थावरेषु चरेषु च।
अंतराम स्वरूपेण यश्च रामेति कथ्यते।।
जो सब जीवो में चल और अचल स्वरुप में बिराजते है उन्हें ही राम कहते है।
राम नाम का अर्थ ( रामायण अनुसार ) :
बंदउ नाम राम रघुबर को । हेतु कृसानु भानु हिमकर को ।।
बिधि हरि हरमय बेद प्राण सो ।अगुन अनूपम गुन निधन सो ।।
मैं रघुनाथ के नाम ‘राम’ की वंदना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चंद्रमा) का हेतु अर्थात् ‘र’ ‘आ’ और ‘म’ रूप से बीज है। वह ‘राम’ नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों का प्राण है, निर्गुण, उपमा रहित और गुणों का भंडार है।
नारद पुराण के अनुसार राम नाम का अर्थ:
र – कार बीज मंत्र अग्निनारायण का है जिसका काम शुभाशुभ कर्म को भस्म करदेना है।
आ – कार बीज सूर्यनारायण का है जिसका काम मोहान्धकार का विनाश करना है |
म – कार बीज चंद्रनारायण का है जिसका काम त्रिविध ताप (दैहिक, दैविक और भौतिक, तीनों ताप या कष्ट) को संहार करने का है | इस तरह से नारदजी ने राम का अर्थ बताया है।
श्रीराम नाम के तीनों पदों ” र,अ,म “ – में सच्चिदानंद का अभिप्राय स्पष्ट झलकता है।
श्रीराम नाम के तीनो पदों में सत चित आनंद तीनो समाहित हैं अर्थात
“र” कार चित का
“अ” कार सत का और
“म” कार आनंद का वाचक है
इस प्रकार ‘राम’ नाम सच्चिदानन्दमय है ।
राम नाम के तीनो अक्षर (र,अ,म) क्रमशः इन तीनो के बीज अक्षर हैं ।
‘र’ अग्निबीज है जैसे अग्नि शुभाशुभ कर्मों को जलाकर समाप्त कर देता है, वस्तु के गुण तथा दोषों को जला के शुद्ध कर देता है वैसे ही “र” के उच्चारण से व्यक्ति के शुभाशुभ कर्म नष्ट होते हैं जिसका फल स्वर्ग नरक का अभाव है साथ ही ये हमारे मन के मल–विषयवासनाओं का नाश कर देता है जिससे स्वस्वरूप(जीव का स्वरुप आत्मा है ) का आभास होने लगता है यहाँ कार्य से कारण में विशेषता दिखायी है । अग्नि से जो कार्य नहीं हो सकता वह उसके बीज से हो जाता है ।
‘अ’ भानुबीज है वेदशास्त्रों का प्रकाशक है जैसे सूर्य अन्धकार को दूर करता है वैसे ही “अ” से मोह, दंभ आदि जो अविद्धतम है, उसका नाश होता है व ज्ञान का प्रकाश होता है ।
‘म’ चंद्रबीज है,अमृत से परिपूर्ण है । जैसे चन्द्रमा शरदातप (शरद ऋतु का ताप) हरता है, शीतलता देता है वैसे ही ‘म’ से भक्ति उत्पन्न होती है त्रिताप दूर होते हैं ।
इस तरह से ‘र’ ‘अ’ और ‘म’ क्रमशः ज्ञान वैराग्य व भक्ति के उत्पादक हैं ।
“रमन्ति इति राम” जो रोम रोम में बसते है वो राम है।
ॐ और राम परमात्मा के परिचायक शब्द है।
ॐ (ओ अहम) अर्थात् वो परमात्मा जो हममें है।
राम – जिसमें रमा जाता है।
रमन्ति योगिने यस्मिन स: राम अर्थात् योगी लोग जिसमें रमण करते है– वह एक परमात्मा।
ॐ और राम ही जपते–जपते आसानी से श्वास में ढल जाते है।
पहले नाम जिह्वा से जपा जाता है लेकिन अवस्था उन्नत होने पर आगे चलकर श्वास से जपा जाता है, उससे उन्नत अवस्था होने पर जपना भी नहीं पड़ता बल्कि जप अपने आप चलता है – ‘जपै न जपावै अपने से आवै।’
आज तक होने वाले सभी संत–महापुरुषों ने इस मानव तन को दुर्लभ कहा है इसलिए इसे केवल संसार एवं भोगों में ही नष्ट न करें वरन आत्म चिंतन (परमात्म चिन्तन) में भी लगायें। भगवान् का भजन केवल मनुष्य ही कर सकता है, अन्य जीवों को भजन का अधिकार नहीं है क्योंकि वे भोग योनि है। 84 लाख योनियों के पश्चात मानव तन मिलता है इसलिए इसे संसार के भोगों में व्यर्थ नष्ट न करें, परमात्मा के सुमिरन–भजन के लिए भी कुछ समय अवश्य निकालें।
श्वास–श्वास पर नाम जप, वृथा श्वास मत खोय।
न जाने यहि श्वास का आवन होय न होय।।
राम नाम का पहला अर्थ है–
‘रमन्ते योगिन: यस्मिन् राम:।’ यानी ‘राम’ ही मात्र एक ऐसे विषय हैं, जो योगियों की आध्यात्मिक–मानसिक भूख हैं, भोजन हैं, आनन्द और प्रसन्नता के स्त्रोत हैं।
राम’ नाम का रहस्य
राम का अर्थ है ‘प्रकाश’। किरण एवं आभा (कांति) जैसे शब्दों के मूल में राम है। ‘रा’ का अर्थ है आभा (कांति) और ‘म’ का अर्थ है मैं, मेरा और मैं स्वयं। अर्थात मेरे भीतर प्रकाश, मेरे ह्रदय में प्रकाश।
“रमंति इति रामः” जो रोम–रोम में रहता है, जो समूचे ब्रह्मांड में रमण करता है। वही राम है।
राम नाम ही परमब्रह्म है:-
कबीरदासजी ने कहा है–
आत्मा और राम एक है–
आतम राम अवर नहिं दूजा।
राम नाम कबीर का बीज मंत्र है। रामनाम को उन्होंने “अजपा जप” (जिसका उच्चारण नही किया जाता, अपितु जो स्वास और प्रतिस्वास के गमन और आगमन से सम्पादित किया जाता है।) कहा है। यह एक चिकित्सा विज्ञान आधारित सत्य है कि हम 24 घंटों में लगभग 21,600 श्वास भीतर लेते हैं और 21,600 उच्छावास बाहर फेंकते हैं।
इसका संकेत कबीरदाजी ने इस उक्ति में किया है–
“सहस्र इक्कीस छह सै धागा, निहचल नाकै पोवै।”
अर्थात मनुष्य 21,600 धागे नाक के सूक्ष्म द्वार में पिरोता रहता है। अर्थात प्रत्येक श्वास–प्रश्वास में वह राम का स्मरण करता रहता है।
राम का दूसरा अर्थ है:-‘रति महीधर: राम:।’
‘रति’ का प्रथम अक्षर ‘र’ है और ‘महीधर’ का प्रथम अक्षर ‘म’, दोनों मिलकर होते हैं राम। ‘रति महीधर:’ सम्पूर्ण विश्व की सर्वश्रेष्ठ ज्योतित सत्ता है, जिनसे सभी ज्योतित सत्ताएं ज्योति प्राप्त करती हैं।
भगवान श्रीराम का विजय–मन्त्र : ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’
भगवान के ‘नाम’ का महत्व भगवान से भी अधिक होता है । भगवान को भी अपने ‘नाम’ के आगे झुकना पड़ता है । यही कारण है कि भक्त ‘नाम’ जप के द्वारा भगवान को वश में कर लेते हैं ।
जब हनुमानजी संकट में थे, तब सबसे पहले ‘श्री राम जय राम जय जय राम’ मन्त्र नारद जी ने हनुमानजी को दिया था । इसलिए संकट–नाश के लिए इस मन्त्र का जप मनुष्य को अवश्य करना चाहिए । यह मन्त्र ‘मन्त्रराज’ भी कहलाता है क्योंकि—यह उच्चारण करने में बहुत सरल है ।
मन्त्र सम्बन्धी कथा :-
लंका–विजय के बाद एक बार अयोध्या में भगवान श्रीराम देवर्षि नारद, विश्वामित्र, वशिष्ठ आदि ऋषि–मुनियों के साथ बैठे थे । उस समय नारदजी ने ऋषियों से कहा कि यह बताएं—‘नाम’ (भगवान का नाम) और ‘नामी’ (स्वयं भगवान) में श्रेष्ठ कौन है ?’
इस पर सभी ऋषियों में वाद–विवाद होने लगा किन्तु कोई भी इस प्रश्न का सही निर्णय नहीं कर पाया । तब नारदजी ने कहा—‘निश्चय ही ‘भगवान का ‘नाम’ श्रेष्ठ है और इसको सिद्ध भी किया जा सकता है ।’
इस बात को सिद्ध करने के लिए नारदजी ने एक युक्ति निकाली । उन्होंने हनुमान जी से कहा कि तुम दरबार में जाकर सभी ऋषि–मुनियों को प्रणाम करना किन्तु विश्वामित्रजी को प्रणाम मत करना क्योंकि वे राजर्षि (राजा से ऋषि बने) हैं, अत: वे अन्य ऋषियों के समान सम्मान के योग्य नहीं हैं ।’
हनुमानजी ने दरबार में जाकर नारदजी के बताए अनुसार ही किया । विश्वामित्रजी हनुमानजी के इस व्यवहार से रुष्ट हो गए। तब नारदजी विश्वामित्रजी के पास जाकर बोले—‘हनुमान कितना उद्दण्ड और घमण्डी हो गया है, आपको छोड़कर उसने सभी को प्रणाम किया ?’ यह सुन विश्वामित्रजी आगबबूला हो गए और श्रीराम के पास जाकर बोले—‘तुम्हारे सेवक हनुमान ने सभी ऋषियों के सामने मेरा घोर अपमान किया है, अत: कल सूर्यास्त से पहले उसे तुम्हारे हाथों मृत्युदण्ड मिलना चाहिए ।’
विश्वामित्रजी श्रीराम के गुरु थे अत: श्रीराम को उनकी आज्ञा का पालन करना ही था ।‘ श्रीराम हनुमान को कल मृत्युदण्ड देंगे’—यह बात सारे नगर में आग की तरह फैल गई । हनुमानजी नारदजी के पास जाकर बोले—‘देवर्षि ! मेरी रक्षा कीजिए, प्रभु कल मेरा वध कर देंगे । मैंने आपके कहने से ही यह सब किया है ।’
नारदजी ने हनुमानजी से कहा—‘तुम निराश मत होओ, मैं जैसा बताऊं, वैसा ही करो । ब्राह्ममुहुर्त में उठकर सरयू नदी में स्नान करो और फिर नदी–तट पर ही खड़े होकर ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’—इस मन्त्र का जप करते रहना । तुम्हें कुछ नहीं होगा ।’
दूसरे दिन प्रात:काल हनुमानजी की कठिन परीक्षा देखने के लिए अयोध्यावासियों की भीड़ जमा हो गई । हनुमानजी सूर्योदय से पहले ही सरयू में स्नान कर बालुका तट पर हाथ जोड़कर जोर–जोर से ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ का जप करने लगे ।
भगवान श्रीराम हनुमानजी से थोड़ी दूर पर खड़े होकर अपने प्रिय सेवक पर अनिच्छापूर्वक बाणों की बौछार करने लगे । पूरे दिन श्रीराम बाणों की वर्षा करते रहे, पर हनुमानजी का बाल–बांका भी नहीं हुआ । अंत में श्रीराम ने ब्रह्मास्त्र उठाया । हनुमानजी पूर्ण आत्मसमर्पण किए हुए जोर–जोर से मुस्कराते हुए ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ का जप करते रहे । सभी लोग आश्चर्य में डूब गए ।
तब नारदजी विश्वामित्रजी के पास जाकर बोले—‘मुने ! आप अपने क्रोध को समाप्त कीजिए । श्रीराम थक चुके हैं, उन्हें हनुमान के वध की गुरु–आज्ञा से मुक्त कीजिए । आपने श्रीराम के ‘नाम’ की महत्ता को तो प्रत्यक्ष देख ही लिया है । विभिन्न प्रकार के बाण हनुमान का कुछ भी नहीं बिगाड़ सके। अब आप श्रीराम को हनुमान को ब्रह्मास्त्र से न मारने की आज्ञा दें।’
विश्वामित्रजी ने वैसा ही किया। हनुमानजी आकर श्रीराम के चरणों पर गिर पड़े। विश्वामित्रजी ने हनुमानजी को आशीर्वाद देकर उनकी श्रीराम के प्रति अनन्य भक्ति की प्रशंसा की।
राम से बड़ा राम का नाम–
गोस्वामी तुलसीदासजी का कहना है—‘राम–नाम’ राम से भी बड़ा है । राम ने तो केवल अहिल्या को तारा, किन्तु राम–नाम के जप ने करोड़ों दुर्जनों की बुद्धि सुधार दी । समुद्र पर सेतु बनाने के लिए राम को भालू–वानर इकट्ठे करने पड़े, बहुत परिश्रम करना पड़ा परन्तु राम–नाम से अपार भवसिन्धु ही सूख जाता है ।
कहेउँ नाम बड़ ब्रह्म राम तें ।
राम एक तापस तिय तारी ।
नाम कोटि खल कुमति सुधारी ।।
राम भालु कपि कटकु बटोरा।
सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा ।।
नाम लेत भव सिंधु सुखाहीं ।
करहु विचार सुजन मन माहीं ।।
श्री राम नाम की महिमा कोई और क्या स्वयं भगवान भी नहीं गा सकते। भगवान से जुड़ी सभी वस्तुएं अनंत है जैसे भगवान का नाम, गुण, लीला, शक्तियाँ इत्यादि सब अनंत हैं इसलिए यदि स्वयं भगवन भी अपने नाम की महिमा करने बैठे तो अनंत काल तक नाम की महिमा गाते रहेंगे किन्तु नाम की महिमा समाप्त नहीं होगी। तुलसीदासजी ने राम नाम की महिमा को विस्तार से दोहावली में और संक्षेप में श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड में वर्णन किया है।
ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार श्रीराधा जी द्वारा ‘राम’ नाम की व्याख्या
राशब्दो विश्ववचनो मश्चापीश्वरवाचकः ।
विश्वानामीश्वरो यो हि तेन रामः प्रकीर्त्तितः ॥
रमते रमया सार्द्धं तेन रामं विदुर्ब्बुधाः ।
रमाणां रमणस्थानं रामं रामविदो विदुः ॥
रा चेति लक्ष्मीवचनो मश्चापीश्वरवाचकः ।
लक्ष्मीपतिं गतिं रामं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥
नाम्नां सहस्रं दिव्यानां स्मरणे यत् फलं लभेत् ।
तत् फलं लभते नूनं रामोच्चारणमात्रतः ॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराणे अध्यायः-११०, श्लोकसंख्या १८ से २१)
श्रीराधा जी कहती है – ‘रा’ शब्द विश्ववाचक है और ‘म’ शब्द ईश्वरवाचक है, इसलिए जो लोकों का ईश्वर है उसी कारण वह ‘राम’ कहा जाता है। वह रमा के साथ रमण करता है इसी कारण विद्वान उसे ‘राम’ कहते हैं। रमा का रमण स्थान होने के कारण रामतत्ववेत्ता ‘राम’ बतलाते हैं। ‘रा’ लक्ष्मीवाचक है और ‘म’ ईश्वरवाचक है, इसलिए मनीषीगण लक्ष्मीपति को ‘राम’ कहते हैं। सहस्त्रों दिव्य नामों के स्मरण से जो फल प्राप्त होता है, वह फल निश्चय ही ‘राम’ शब्द के उच्चारणमात्र से मिल जाता है।
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रामरक्षास्तोत्र और पद्मा पुराण के अनुसार शिव जी द्वारा राम नाम की महिमा का वर्णन
राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥
( राम रक्षा स्तोत्र 38, पद्म पुराण 281.21)
शिव पार्वती से बोले – सुमुखी! मैं तो ‘राम! राम! राम!’ इस प्रकार जप करते हुए परम मनोहर श्रीरामनाम में ही निरंतर रमण किया करता हूँ। रामनाम सम्पूर्ण सहस्त्रनाम के समान हैं। अर्थात तीन बार राम नाम का जाप सम्पूर्ण विष्णु सहस्त्रनाम या १००० बार ईश्वर के नाम का जाप करने के बराबर है।
राम के नाम में संस्कृत के दो अक्षर हैं- र एवं म
र (संस्कृत का द्वितीय व्यंजन : य, र, ल, व, स, श)
म (संस्कृत का पाँचवा व्यंजन : प, फ, ब, भ, म)
र और म के स्थान पर २ तथा ५ रखने से राम = २* ५= १०
अतः तीन बार राम राम राम बोलना = २ * ५* २* ५* २* ५ = १० * १० * १० = १०००
इस प्रकार ३ बार राम नाम का जाप १००० बार के बराबर है।
श्री रामचरितमानस के अनुसार राम नाम की महिमा
महामंत्र जोइ जपत महेसू।
कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
महिमा जासु जान गनराऊ।
प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
जो महामंत्र है, जिसे महेश्वर श्री शिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है तथा जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस ‘राम’ नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं।
जान आदिकबि नाम प्रतापू।
भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
सहस नाम सम सुनि सिव बानी।
जपि जेईं पिय संग भवानी॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
आदिकवि श्री वाल्मीकिजी रामनाम के प्रताप को जानते हैं, जो उल्टा नाम (‘मरा’, ‘मरा’) जपकर पवित्र हो गए। श्री शिवजी के इस वचन को सुनकर कि एक राम-नाम सहस्र नाम के समान है, पार्वतीजी सदा अपने पति (श्री शिवजी) के साथ राम-नाम का जप करती रहती हैं।
आखर मधुर मनोहर दोऊ।
बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥
ससुमिरत सुलभ सुखद सब काहू।
लोक लाहु परलोक निबाहू॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
‘राम’ नाम के दो अक्षर मधुर और मनोहर हैं, जो वर्णमाला रूपी शरीर के नेत्र हैं, भक्तों के जीवन हैं तथा स्मरण करने में सबके लिए सुलभ और सुख देने वाले हैं और जो इस लोक में लाभ और परलोक में निर्वाह करते हैं (अर्थात् भगवान के दिव्य धाम में दिव्य देह से सदा भगवत्सेवा में नियुक्त रखते हैं।
नर नारायन सरिस सुभ्राता ।
जग पालक बिसेषि जन त्राता ।।
भगति सुतिय कल करन बिभूषन ।
जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन ।।
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
ये दोनों अक्षर नर-नारायण के समान सुंदर भाई हैं, ये जगत का पालन और विशेष रूप से भक्तों की रक्षा करने वाले हैं। ये भक्ति रूपिणी सुंदर स्त्री के कानों के सुंदर आभूषण (कर्णफूल) हैं और जगत के हित के लिए निर्मल चन्द्रमा और सूर्य हैं।
समुझत सरिस नाम अरु नामी।
प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
नाम रूप दुइ ईस उपाधी।
अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
समझने में नाम और नामी दोनों एक से हैं, किन्तु दोनों में परस्पर स्वामी और सेवक के समान प्रीति है (अर्थात् नाम और नामी में पूर्ण एकता होने पर भी जैसे स्वामी के पीछे सेवक चलता है, उसी प्रकार नाम के पीछे नामी चलते हैं। प्रभु श्री रामजी अपने ‘राम’ नाम का ही अनुगमन करते हैं (नाम लेते ही वहाँ आ जाते हैं)। नाम और रूप दोनों ईश्वर की उपाधि हैं, ये (भगवान के नाम और रूप) दोनों अनिर्वचनीय हैं, अनादि हैं और सुंदर (शुद्ध भक्तियुक्त) बुद्धि से ही इनका (दिव्य अविनाशी) स्वरूप जानने में आता है।
को बड़ छोट कहत अपराधू।
सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू॥
देखिअहिं रूप नाम आधीना।
रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
इन (नाम और रूप) में कौन बड़ा है, कौन छोटा, यह कहना तो अपराध (नामापराध) है। इनके गुणों का तारतम्य (कमी-बेशी) सुनकर साधु पुरुष स्वयं ही समझ लेंगे। रूप नाम के अधीन देखे जाते हैं, नाम के बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकता।
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर।।
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
तुलसीदास कहते हैं, यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहता है, तो मुखरूपी द्वार की जीभरूपी देहली पर रामनामरूपी मणि-दीपक को रख।
राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल।।
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
राम नाम नृसिंह भगवान है, कलियुग हिरण्यकशिपु है और जप करनेवाले जन प्रह्लाद के समान हैं, यह राम नाम देवताओं के शत्रु को मारकर जप करने वालों की रक्षा करेगा। तुलसीदासजी कृत दोहावली में विस्तार पूर्वक राम नाम की महिमा कही गई है। हम आपको दोहावली द्वारा राम नाम की महिमा के कुछ दोहों को आपके समक्ष रखेंगे।
नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी।
बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा।
अकथ अनामय नाम न रूपा॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
ब्रह्मा के बनाए हुए इस प्रपंच (दृश्य जगत) से भलीभाँति छूटे हुए वैराग्यवान् मुक्त योगी पुरुष इस नाम को ही जीभ से जपते हुए (तत्व ज्ञान रूपी दिन में) जागते हैं और नाम तथा रूप से रहित अनुपम, अनिर्वचनीय, अनामय ब्रह्मसुख का अनुभव करते हैं॥1॥
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ।
नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥
साधक नाम जपहिं लय लाएँ।
होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
जो परमात्मा के गूढ़ रहस्य को (यथार्थ महिमा को) जानना चाहते हैं, वे (जिज्ञासु) भी नाम को जीभ से जपकर उसे जान लेते हैं। (लौकिक सिद्धियों के चाहने वाले अर्थार्थी) साधक लौ लगाकर नाम का जप करते हैं और अणिमादि (आठों) सिद्धियों को पाकर सिद्ध हो जाते हैं॥2॥
जपहिं नामु जन आरत भारी।
मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी॥
राम भगत जग चारि प्रकारा।
सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
(संकट से घबड़ाए हुए) आर्त भक्त नाम जप करते हैं, तो उनके बड़े भारी बुरे-बुरे संकट मिट जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं। जगत में चार प्रकार के (1- अर्थार्थी-धनादि की चाह से भजने वाले, 2-आर्त संकट की निवृत्ति के लिए भजने वाले, 3-जिज्ञासु-भगवान को जानने की इच्छा से भजने वाले, 4-ज्ञानी-भगवान को तत्व से जानकर स्वाभाविक ही प्रेम से भजने वाले) रामभक्त हैं और चारों ही पुण्यात्मा, पापरहित और उदार हैं॥3॥
चहू चतुर कहुँ नाम अधारा।
ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥
चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ।
कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥4॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
चारों ही चतुर भक्तों को नाम का ही आधार है, इनमें ज्ञानी भक्त प्रभु को विशेष रूप से प्रिय हैं। यों तो चारों युगों में और चारों ही वेदों में नाम का प्रभाव है, परन्तु कलियुग में विशेष रूप से है। इसमें तो (नाम को छोड़कर) दूसरा कोई उपाय ही नहीं है॥4॥
सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन॥22॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
जो सब प्रकार की (भोग और मोक्ष की भी) कामनाओं से रहित और श्री रामभक्ति के रस में लीन हैं, उन्होंने भी नाम के सुंदर प्रेम रूपी अमृत के सरोवर में अपने मन को मछली बना रखा है (अर्थात् वे नाम रूपी सुधा का निरंतर आस्वादन करते रहते हैं, क्षणभर भी उससे अलग होना नहीं चाहते)॥
अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा।
अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरें मत बड़ नामु दुहू तें।
किए जेहिं जुगनज बस निज बूतें॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
निर्गुण और सगुण ब्रह्म के दो स्वरूप हैं। ये दोनों ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं। मेरी सम्मति में नाम इन दोनों से बड़ा है, जिसने अपने बल से दोनों को अपने वश में कर रखा है।
प्रौढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की।
कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥
एकु दारुगत देखिअ एकू।
पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥2॥
उभय अगम जुग सुगम नाम तें।
कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें॥
ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी।
सत चेतन घन आनँद रासी॥3॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
सज्जनगण इस बात को मुझ दास की ढिठाई या केवल काव्योक्ति न समझें। मैं अपने मन के विश्वास, प्रेम और रुचि की बात कहता हूँ। (नर्गुण और सगुण) दोनों प्रकार के ब्रह्म का ज्ञान अग्नि के समान है। निर्गुण उस अप्रकट अग्नि के समान है, जो काठ के अंदर है, परन्तु दिखती नहीं और सगुण उस प्रकट अग्नि के समान है, जो प्रत्यक्ष दिखती है।
(तत्त्वतः दोनों एक ही हैं, केवल प्रकट-अप्रकट के भेद से भिन्न मालूम होती हैं। इसी प्रकार निर्गुण और सगुण तत्त्वतः एक ही हैं। इतना होने पर भी) दोनों ही जानने में बड़े कठिन हैं, परन्तु नाम से दोनों सुगम हो जाते हैं। इसी से मैंने नाम को (निर्गुण) ब्रह्म से और (सगुण) राम से बड़ा कहा है, ब्रह्म व्यापक है, एक है, अविनाशी है, सत्ता, चैतन्य और आनन्द की घन राशि है॥2-3॥
अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी।
सकल जीव जग दीन दुखारी॥
नाम निरूपन नाम जतन तें।
सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥4
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
ऐसे विकाररहित प्रभु के हृदय में रहते भी जगत के सब जीव दीन और दुःखी हैं। नाम का निरूपण करके (नाम के यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभाव को जानकर) नाम का जतन करने से (श्रद्धापूर्वक नाम जप रूपी साधन करने से) वही ब्रह्म ऐसे प्रकट हो जाता है, जैसे रत्न के जानने से उसका मूल्य॥
निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।
कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
इस प्रकार निर्गुण से नाम का प्रभाव अत्यंत बड़ा है। अब अपने विचार के अनुसार कहता हूँ, कि नाम (सगुण) राम से भी बड़ा है॥
राम भगत हित नर तनु धारी।
सहि संकट किए साधु सुखारी॥
नामु सप्रेम जपत अनयासा।
भगत होहिं मुद मंगल बासा॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
श्री रामचन्द्रजी ने भक्तों के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके स्वयं कष्ट सहकर साधुओं को सुखी किया, परन्तु भक्तगण प्रेम के साथ नाम का जप करते हुए सहज ही में आनन्द और कल्याण के घर हो जाते हैं॥
राम एक तापस तिय तारी।
नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥
रिषि हित राम सुकेतुसुता की।
सहित सेन सुत कीन्हि बिबाकी॥2॥
सहित दोष दुख दास दुरासा।
दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥
भंजेउ राम आपु भव चापू।
भव भय भंजन नाम प्रतापू॥3॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
श्री रामजी ने एक तपस्वी की स्त्री (अहिल्या) को ही तारा, परन्तु नाम ने करोड़ों दुष्टों की बिगड़ी बुद्धि को सुधार दिया। श्री रामजी ने ऋषि विश्वामिश्र के हित के लिए एक सुकेतु यक्ष की कन्या ताड़का की सेना और पुत्र (सुबाहु) सहित समाप्ति की, परन्तु नाम अपने भक्तों के दोष, दुःख और दुराशाओं का इस तरह नाश कर देता है जैसे सूर्य रात्रि का। श्री रामजी ने तो स्वयं शिवजी के धनुष को तोड़ा, परन्तु नाम का प्रताप ही संसार के सब भयों का नाश करने वाला है॥2-3॥
दंडक बन प्रभु कीन्ह सुहावन।
जन मन अमित नाम किए पावन॥
निसिचर निकर दले रघुनंदन।
नामु सकल कलि कलुष निकंदन॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
प्रभु श्री रामजी ने (भयानक) दण्डक वन को सुहावना बनाया, परन्तु नाम ने असंख्य मनुष्यों के मनों को पवित्र कर दिया। श्री रघुनाथजी ने राक्षसों के समूह को मारा, परन्तु नाम तो कलियुग के सारे पापों की जड़ उखाड़ने वाला है॥
सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
श्री रघुनाथजी ने तो शबरी, जटायु आदि उत्तम सेवकों को ही मुक्ति दी, परन्तु नाम ने अगनित दुष्टों का उद्धार किया। नाम के गुणों की कथा वेदों में प्रसिद्ध है॥
राम सुकंठ बिभीषन दोऊ।
राखे सरन जान सबु कोऊ ॥
नाम गरीब अनेक नेवाजे।
लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
श्री रामजी ने सुग्रीव और विभीषण दोनों को ही अपनी शरण में रखा, यह सब कोई जानते हैं, परन्तु नाम ने अनेक गरीबों पर कृपा की है। नाम का यह सुंदर विरद लोक और वेद में विशेष रूप से प्रकाशित है॥
राम भालु कपि कटुक बटोरा।
सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥
नामु लेत भवसिन्धु सुखाहीं।
करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
श्री रामजी ने तो भालू और बंदरों की सेना बटोरी और समुद्र पर पुल बाँधने के लिए थोड़ा परिश्रम नहीं किया, परन्तु नाम लेते ही संसार समुद्र सूख जाता है। सज्जनगण! मन में विचार कीजिए (कि दोनों में कौन बड़ा है)
राम सकुल रन रावनु मारा।
सीय सहित निज पुर पगु धारा॥
राजा रामु अवध रजधानी।
गावत गुन सुर मुनि बर बानी॥3॥
सेवक सुमिरत नामु सप्रीती।
बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती॥
फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें।
नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें॥4॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
श्री रामचन्द्रजी ने कुटुम्ब सहित रावण को युद्ध में मारा, तब सीता सहित उन्होंने अपने नगर (अयोध्या) में प्रवेश किया। राम राजा हुए, अवध उनकी राजधानी हुई, देवता और मुनि सुंदर वाणी से जिनके गुण गाते हैं, परन्तु सेवक (भक्त) प्रेमपूर्वक नाम के स्मरण मात्र से बिना परिश्रम मोह की प्रबल सेना को जीतकर प्रेम में मग्न हुए अपने ही सुख में विचरते हैं, नाम के प्रसाद से उन्हें सपने में भी कोई चिन्ता नहीं सताती॥3-4॥
ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
इस प्रकार नाम (निर्गुण) ब्रह्म और (सगुण) राम दोनों से बड़ा है। यह वरदान देने वालों को भी वर देने वाला है। श्री शिवजी ने अपने हृदय में यह जानकर ही सौ करोड़ राम चरित्र में से इस ‘राम’ नाम को (साररूप से चुनकर) ग्रहण किया है॥
नाम प्रसाद संभु अबिनासी।
साजु अमंगल मंगल रासी॥
सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी।
नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
नाम ही के प्रसाद से शिवजी अविनाशी हैं और अमंगल वेष वाले होने पर भी मंगल की राशि हैं। शुकदेवजी और सनकादि सिद्ध, मुनि, योगी गण नाम के ही प्रसाद से ब्रह्मानन्द को भोगते हैं॥
नारद जानेउ नाम प्रतापू।
जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू।
भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥2॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
नारदजी ने नाम के प्रताप को जाना है। हरि सारे संसार को प्यारे हैं, (हरि को हर प्यारे हैं) और आप (श्री नारदजी) हरि और हर दोनों को प्रिय हैं। नाम के जपने से प्रभु ने कृपा की, जिससे प्रह्लाद, भक्त शिरोमणि हो गए॥2॥
ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ।
पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥
सुमिरि पवनसुत पावन नामू।
अपने बस करि राखे रामू॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
ध्रुवजी ने ग्लानि से (विमाता के वचनों से दुःखी होकर सकाम भाव से) हरि नाम को जपा और उसके प्रताप से अचल अनुपम स्थान (ध्रुवलोक) प्राप्त किया। हनुमान्जी ने पवित्र नाम का स्मरण करके श्री रामजी को अपने वश में कर रखा है॥
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ।
भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई।
रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
नीच अजामिल, गज और गणिका (वेश्या) भी श्री हरि के नाम के प्रभाव से मुक्त हो गए। मैं नाम की बड़ाई कहाँ तक कहूँ, राम भी नाम के गुणों को नहीं गा सकते॥
नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
कलियुग में राम का नाम कल्पतरु (मन चाहा पदार्थ देने वाला) और कल्याण का निवास (मुक्ति का घर) है, जिसको स्मरण करने से भाँग सा (निकृष्ट) तुलसीदास तुलसी के समान (पवित्र) हो गया॥
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका।
भए नाम जपि जीव बिसोका॥
बेद पुरान संत मत एहू।
सकल सुकृत फल राम सनेहू॥1॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
(केवल कलियुग की ही बात नहीं है,) चारों युगों में, तीनों काल में और तीनों लोकों में नाम को जपकर जीव शोकरहित हुए हैं। वेद, पुराण और संतों का मत यही है कि समस्त पुण्यों का फल श्री रामजी में (या राम नाम में) प्रेम होना है॥1॥
ध्यानु प्रथम जुग मख बिधि दूजें।
द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥
कलि केवल मल मूल मलीना।
पाप पयोनिधि जन मन मीना॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
पहले (सत्य) युग में ध्यान से, दूसरे (त्रेता) युग में यज्ञ से और द्वापर में पूजन से भगवान प्रसन्न होते हैं, परन्तु कलियुग केवल पाप की जड़ और मलिन है, इसमें मनुष्यों का मन पाप रूपी समुद्र में मछली बना हुआ है (अर्थात पाप से कभी अलग होना ही नहीं चाहता, इससे ध्यान, यज्ञ और पूजन नहीं बन सकते)॥
नाम कामतरु काल कराला।
सुमिरत समन सकल जग जाला॥
राम नाम कलि अभिमत दाता।
हित परलोक लोक पितु माता॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
ऐसे कराल (कलियुग के) काल में तो नाम ही कल्पवृक्ष है, जो स्मरण करते ही संसार के सब जंजालों को नाश कर देने वाला है। कलियुग में यह राम नाम मनोवांछित फल देने वाला है, परलोक का परम हितैषी और इस लोक का माता-पिता है (अर्थात परलोक में भगवान का परमधाम देता है और इस लोक में माता-पिता के समान सब प्रकार से पालन और रक्षण करता है।)॥
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू।
राम नाम अवलंबन एकू॥
कालनेमि कलि कपट निधानू।
नाम सुमति समरथ हनुमानू॥4॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
कलियुग में न कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है, राम नाम ही एक आधार है। कपट की खान कलियुग रूपी कालनेमि के (मारने के) लिए राम नाम ही बुद्धिमान और समर्थ श्री हनुमान्जी हैं॥4॥
भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा।
करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
अच्छे भाव (प्रेम) से, बुरे भाव (बैर) से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता है। उसी (परम कल्याणकारी) राम नाम का स्मरण करके और श्री रघुनाथजी को मस्तक नवाकर मैं रामजी के गुणों का वर्णन करता हूँ॥
नाम रूप गति अकथ कहानी।
समुझत सुखद न परति बखानी॥
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी।
उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
नाम और रूप की गति की कहानी (विशेषता की कथा) अकथनीय है। वह समझने में सुखदायक है, परन्तु उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। निर्गुण और सगुण के बीच में नाम सुंदर साक्षी है और दोनों का यथार्थ ज्ञान कराने वाला चतुर दुभाषिया है॥
रूप बिसेष नाम बिनु जानें।
करतल गत न परहिं पहिचानें॥
सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें।
आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
कोई सा विशेष रूप बिना उसका नाम जाने हथेली पर रखा हुआ भी पहचाना नहीं जा सकता और रूप के बिना देखे भी नाम का स्मरण किया जाए तो विशेष प्रेम के साथ वह रूप हृदय में आ जाता है॥
एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
तुलसीदासजी कहते हैं- श्री रघुनाथजी के नाम के दोनों अक्षर बड़ी शोभा देते हैं, जिनमें से एक (रकार) छत्ररूप (रेफ र्) से और दूसरा (मकार) मुकुटमणि (अनुस्वार) रूप से सब अक्षरों के ऊपर है॥
स्वाद तोष सम सुगति सुधा के।
कमठ सेष सम धर बसुधा के॥
जन मन मंजु कंज मधुकर से।
जीह जसोमति हरि हलधर से॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
ये सुंदर गति (मोक्ष) रूपी अमृत के स्वाद और तृप्ति के समान हैं, कच्छप और शेषजी के समान पृथ्वी के धारण करने वाले हैं, भक्तों के मन रूपी सुंदर कमल में विहार करने वाले भौंरे के समान हैं और जीभ रूपी यशोदाजी के लिए श्री कृष्ण और बलरामजी के समान (आनंद देने वाले) हैं॥
कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके।
राम लखन सम प्रिय तुलसी के॥
बरनत बरन प्रीति बिलगाती।
ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
ये कहने, सुनने और स्मरण करने में बहुत ही अच्छे (सुंदर और मधुर) हैं, तुलसीदास को तो श्री राम-लक्ष्मण के समान प्यारे हैं। इनका (‘र’ और ‘म’ का) अलग-अलग वर्णन करने में प्रीति बिलगाती है (अर्थात बीज मंत्र की दृष्टि से इनके उच्चारण, अर्थ और फल में भिन्नता दिख पड़ती है), परन्तु हैं ये जीव और ब्रह्म के समान स्वभाव से ही साथ रहने वाले (सदा एक रूप और एक रस)॥
बंदउँ नाम राम रघुबर को।
हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो।
अगुन अनूपम गुन निधान सो॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
मैं श्री रघुनाथजी के नाम ‘राम’ की वंदना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात् ‘र’ ‘आ’ और ‘म’ रूप से बीज है। वह ‘राम’ नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों का प्राण है, निर्गुण, उपमारहित और गुणों का भंडार है॥
ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
इस प्रकार नाम ब्रह्म और राम दोनों से बड़ा है। यह वरदान देने वालों को भी वर देनेवाला है। शिव ने अपने हृदय में यह जानकर ही सौ करोड़ राम चरित्र में से इस ‘राम’ नाम को ग्रहण किया है॥ ]
दोहावली के अनुसार राम नाम की महिमा
सगुन ध्यान रूचि सरस नहिं जिर्गुन मन ते दूरि ।
तुलसी सुमिरहु रामको नाम सजीवन मूरि ।।
( दोहावली )
सगुण रूप के ध्यान में तो प्रीति युक्त रुचि नहीं है और निर्गुण स्वरूप मन से दूर है (यानी समझ में नहीं आता)। तुलसीदासजी कहते है कि ऐसे दशा में रामनाम-स्मरणरूपी संजीवनी बूटी का सदा सेवन करो।
नाम गरीब निवाज को राज देत जन जानि।
तुलसी मन परिहरत नहीं घुर बिनिआ की बानि।।
( दोहावली )
तुलसीदासजी कहते है कि गरीबनिवाज (दीनबन्धु) श्रीरामजी का नाम ऐसा है, जो जपने वाले को भगवान का निज जन जानकर राज्य (प्रजापति का पद या मोक्ष-साम्राज्य तक) दे डालता है। परन्तु यह मन ऐसा अविश्वासी और नीच है कि घूरे (कुड़ेके ढेर) में पड़े दाने चुगने की ओछी आदत नहीं छोड़ता (अर्थात् गंदे विषयों में ही सुख खोजता है)।
राम नाम अवलंब बिनु परमारथ की आस ।
बरषत बारिद बूँद गहि चाहत चढ़न अकास ।।
( दोहावली )
जो रामनाम का सहारा लिए बिना ही परमार्थ की – मोक्ष की आशा करता है, वह तो मानो बरसते हुए बादल की बूँद को पकड़कर आकाश में चढ़ना चाहता है। (अर्थात् जैसे वर्षा की बूँद को पकड़कर आकाश पर चढ़ना असम्भव है, वैसे ही रामनाम का जप किये बिना परमार्थ की प्राप्ति असम्भव है।)
रे मन सब सों निरस है सरस राम सों होहि।
भलो सिखावन देत है निसि दिन तुलसी तोहि ।।
( दोहावली )
रे मन! तू संसार के सब पदार्थों से प्रीति तोड़कर श्री राम से प्रेम कर। तुलसीदास जी तुझको रात-दिन यही सत-शिक्षा देता है। तुलसीदासजी ने राम नाम की महिमा बहुत की है। उन्होंने अनेक जगहों पर राम नाम का प्रेम पूर्वक मन से जप करने को कहते है और यही बात वो अपने मन को दिन-रात करने को कहते है।
नाम्नां सहस्रं दिव्यानां स्मरणे यत्फलं लभेत ।
तत्फलं लभते नूनं रामोच्चारण मात्रतः ।।
ब्रह्म वैवर्त पुराण श्री कृष्ण जन्म खंड अध्याय 111.21
श्री राधा जी राम नाम की व्याख्या करते हुए कहती हैं कि सहस्रों दिव्य नामों के स्मरण से जो फल प्राप्त होता है वह फल निश्चय ही राम शब्द के उच्चारण मात्र से मिल जाता है।
राम नाम रति राम गति राम नाम बिस्वास।
सुमिरत सुभ मंगल कुसल दुहुँ दिसि तुलसीदास।39।
( दोहावली )
तुलसीदास कहते हैं कि जिसका राम नाम में प्रेम है, राम ही जिसकी एकमात्र गति है और राम नाम में ही जिसका विश्वास है, उसके लिए राम नाम का स्मरण करने से ही दोनों ओर (इस लोक में और परलोक में) शुभ, मंगल और कुशल है।
बिगड़ी जनम अनेक की सुधरैं अबहीं आजु ।
होहिं राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाज।।
( दोहावली )
तुलसीदास जी कहते हैं कि तू कुसंगति और चित्त के सरे बुरे विचारों को त्याग कर राम का बन जा और उनके नाम राम का जप कर । ऐसा करने से अनेक जन्मों की बिगड़ी हुयी स्थिति अभी सुधर सकती है और श्री राम जी प्रेम के वश हो कर आपके हो जाते हैं ।
तुलसी प्रीति प्रतीति सों राम नाम जप जाग ।
किएँ होइ बिधि दाहिनो देइ अभागेहि भाग ।।
( दोहावली )
तुलसीदास जी कहते हैं कि प्रेम और विश्वास के साथ राम नाम जप रुपी यज्ञ करने से ईश्वर अनुकूल हो जाता है और अभागे मनुष्य को भी परम भाग्यवान बना देता है ।
राम भरोसो राम बल राम नाम बिस्वास ।
सुमिरत सुबह मंगल कुसल माँगत तुलसीदास ।।
( दोहावली )
तुलसीदास जी कहते हैं कि एकमात्र राम पर ही मेरा भरोसा रहे , राम का ही बल रहे और जिसके स्मरण मात्र से ही शुभ मंगल और कुशल की प्राप्ति होती है उस रामनाम में ही विश्वास रहे ।
राम नाम रति राम गति राम नाम बिस्वास ।
सुमिरत सुबह मंगल कुसल दुहुँ दिसि तुलसीदास ।।
( दोहावली )
तुलसीदास जी कहते हैं कि जिसका रामनाम में प्रेम है , राम ही जिसकी एकमात्र गति है और रामनाम में ही जिसका विश्वास है उसके लिए रामनाम का स्मरण करने से ही दोनों ओर अर्थात लोक तथा परलोक में शुभ , मंगल और कुशल है ।
राम नाम पर नाम तें प्रीति प्रतीति भरोस ।
सो तुलसी सुमिरत सकल सगुन सुमंगल कोस ।।
( दोहावली )
तुलसीदास जी कहते हैं कि जो रामनाम के परायण हैं और रामनाम में ही जिसका प्रेम , विश्वास और भरोसा है वह रामनाम का स्मरण करते ही सद्गुणों और श्रेष्ठ मंगलों का खजाना बन जाता है ।
राम के नाम की महिमा से सम्बंधित एक अत्यंत सुन्दर कथा है । यह कथा कबीर दास के पुत्र कमाल की है। ये सभी जानते हैं कि कबीर दास जी राम नाम का अजपा जप जरते थे अर्थात 24 घंटे उनके श्वासों से राम नाम का उच्चारण चलता था । उनका पुत्र कमाल भी उनकी ही भांति राम नाम जपा करता था । एक बार राम नाम का प्रभाव कुछ ऐसा हुआ कि कमाल द्वारा एक कोढ़ी का कोढ़ दूर हो गया। इससे कमाल को यह लगने लगा कि राम नाम की महिमा को वो पूरी तरह जान गए हैं परन्तु इससे कबीर दास जी को कोई प्रसन्नता नहीं हुई। कबीर दास जी ने कमाल को तुलसीदास जी के पास भेजा।
तुलसीदास जी ने तुलसी के पत्र पर रामनाम लिखा और उसे एक जल में डाल दिया। इस जल को पीकर 500 कोढ़ी ठीक हो गए। इस घटना से कमाल को लगने लगा कि राम के नाम को तुलसी पत्र पर लिखकर जल में डालने और उसे पीने से 500 कोढ़ियों को ठीक किया जा सकता है, रामनाम की इतनी महिमा है किन्तु कबीर दास जी अभी भी प्रसन्न नहीं हुए। उन्होंने कमाल को सूरदास के पास भेजा।
सूरदास जी ने गंगा में बह रहे एक शव के कान में केवल र कहा और उनके इतना कहते ही शव जीवित हो उठा। तब कमाल को लगा कि राम नाम के केवल र अक्षर से ही मुर्दा जीवित हो उठा। राम नाम की महिमा बहुत ज्यादा है। इस पर कबीर जी ने कमाल से कहा कि सिर्फ इतनी ही महिमा नहीं है राम नाम की। उन्होंने कहा- भृकुटि विलास सृष्टि लय होई।
अर्थात् इसके भृकुटि विलास मात्र से प्रलय हो सकता है। राम के नाम की महिमा का वर्णन तुम क्या करोगे? अर्थात राम नाम अवर्णनीय है । राम के नाम कि महिमा अनंत है जिसे जितना गया जाये उतना कम है ।
राम नाम महिमा से सम्बंधित एक अन्य कथा
राम नाम महिमा में एक अन्य कथा भी प्रचलित है। इस कथा के अनुसार, एक बार एक व्यक्ति समुद्र तट पर चिंता में बैठा था। इतने में ही वहां से विभीषण गुजरे। उन्होंने व्यक्ति से पूछा कि तुम किस बात को लेकर चिंतित हो। तब व्यक्ति ने कहा कि उसे समुद्र पार जाना है परन्तु कोई साधन नहीं है। तब विभीषण ने कहा कि इस पर इतना उदास होने की क्या जरुरत है। विभीषण ने एक पत्ता लिया और उस पर राम का नाम लिख दिया। विभीषण ने व्यक्ति से कहा कि उन्होंने उसकी धोती में इसमें मैंने तारक मंत्र बांधा है। बिना घबराए ईश्वर पर भरोसा करते हुए पानी में चलते जाना। समुद्र पार पहुंच जाओगे। विभीषण के वचनों पर विश्वास कर वह व्यक्ति समुद्र की तरफ बढ़ने लगा। वह व्यक्ति बड़ी ही आसानी से पानी पर चलने लगा। जब वह समुद्र के बीचों बीच पहुंचा तब उसे लगा कि आखिर ऐसा क्या मंत्र विभीषण ने बांधा है कि वो पानी पर चल पा रहा है। उसने अपने पल्लू में बंधा हुआ पत्ता खोला और पढ़ा तो उस पर राम का नाम लिखा था। उसे पढ़ते ही उसकी श्रद्धा तुरंत ही अश्रद्धा में बदल गयी। उसे लगा कि यह कोई तारक मंत्र नहीं है। यह तो सबसे सीधा सादा राम नाम है। उसके मन में आई अश्रद्धा के चलते ही वह डूबकर मर गया।
तुलसीदास जी कहते हैं-
राम ब्रह्म परमारथ रूपा।
अर्थात्- ब्रह्म ने ही परमार्थ के लिए राम रूप धारण किया था।
इस प्रकार राम नाम की महिमा अपरंपार है । राम नाम के जाप से पत्थर भी तर जाते हैं । राम नाम ऐसा महामंत्र है जिसे जपने के लिए किसी नियम या विधान की आवश्यकता नहीं है । राम का नाम हम सुख में, दुख में, किसी के जन्म पर, मरण पर कहीं भी और कभी भी ले सकते हैं।
राम नाम जपने वाले को कोई चिंता नहीं सताती। राम नाम निर्गुण ब्रह्म और सगुण राम दोनों से बड़ा है। श्री राम का नाम कल्पतरु के समान है। राम के नाम को राम से भी बड़ा माना गया है।
Contents
हनुमान जी ने कही राम नाम की महिमा
लंका युद्ध से पहले जब हनुमान जी सीता माता का पता लगा कर आ गए तब समुद्र देव ने श्री राम को समुद्र पर सेतु बनाने का सुझाव दिया। समुद्र पर सेतु निर्माण के लिए सारी वानर सेना कार्य कर रही थी। श्री राम देख रहे थे उनका नाम लिख कर पत्थर पानी में डालते हैं तो वह तर जाते हैं। श्री राम मन में विचार करने लगे कि मेरे नाम से पत्थर तर जाते हैं तो समुद्र में मेरे द्वारा डाला गया पत्थर भी तर जायेगा लेकिन जैसे ही श्रीराम ने पत्थर पानी में डाला तो वह डूब गया। श्री राम विस्मित हुए कि ऐसा क्यों हुआ? हनुमान जी यह सारा प्रसंग देख रहे थे। हनुमान जी पूछने लगे कि प्रभु क्या सोच रहे हैं ? श्री राम कहने लगे कि हनुमान जिस पत्थर पर मेरा नाम लिखा है वह पत्थर तर रहे हैं लेकिन पानी में मेरे द्वारा डाला गया पत्थर क्यों डूब गया ? हनुमान जी कहने लगे कि प्रभु आपके नाम को धारण करने के कारण पत्थर पानी में तैर रहे हैं लेकिन जिन पत्थरों को आप स्वयं त्याग रहे हैं उनको डूबने से कौन बचा सकता है ? अर्थात श्री राम का नाम भव सागर से तारने वाला है। इस प्रकार हनुमान जी ने सिद्ध किया की राम से बड़ा है राम का नाम।
कहा जाता है कि जब श्री राम अयोध्या के राजा बने तो उन की सभा में बहस हुई की राम बडे़ या फिर राम का नाम बड़ा। नारद जी कहते थे कि” राम का नाम बड़ा” और बाकी सभी सभा जन कहते थे कि” राम बड़े ” अपने वचन को सिद्ध करने के लिए नारद जी ने एक युक्ति लगाई । जब हनुमान जी सभा में आए उन्होंने हनुमान जी को सभी ऋषि-मुनियों को प्रणाम करने के लिए कहा लेकिन महाराज जी विश्वामित्र के बारे में उन्हें कुछ नहीं बताया इसलिए उन्होंने प्रणाम नहीं किया। उधर विश्वामित्र जी को जाकर बोल दिया, “हनुमान ने आपको प्रणाम नहीं किया। उन्होंने आपका अपमान किया है। ” विश्वामित्र जी ने श्री राम से कहा कि हनुमान ने मेरा अपमान किया है। इसे मृत्यु दंड दे दो। जब हनुमान जी को पता लगा कि श्री राम जी उन्हें मृत्यु दंड देने वाले हैं तो वह एक पेड़ के नीचे जाकर बैठ गए और राम राम की धुन जपने लगे। राम नाम रटते रटते उनका ध्यान लग गया। जब श्री राम जी वहां पहुंचे तो उन्होंने हनुमान जी पर बहुत से तीर चलाए पर हनुमान जी का एक बाल भी बांका नहीं हुआ किन्तु अपने गुरु की आज्ञा को पूरा करने के लिए राम जी ने उन पर ब्रह्मास्त्र भी चलाया लेकिन वह भी विफल हो गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हनुमान जी लगातार राम राम जप रहे थे। ऋषि वशिष्ठ ने फिर ऋषि विश्वामित्र से कहा कि आप राम को इस धर्म संकट से निकाल दो। हनुमान राम राम रट रहे हैं इसलिए हनुमान का एक बाल भी बांका नहीं हो रहा। उधर श्री राम अपने गुरु की आज्ञा पूरी ना कर पाने के कारण परेशान थे । ततपश्चात् विश्वामित्र ने श्री राम को अपने वचन से मुक्त कर दिया । फिर नारद जी ने बताया कि हनुमान ने ऋषि विश्वामित्र का अपमान नहीं किया था । मैंने जानबूझ कर उन्हें ऋषि विश्वामित्र के बारे में बताया ही नहीं था क्योंकि मैं सिद्ध करना चाहता था कि राम से बड़ा राम का नाम है , और इस बात को राम भक्त हनुमान से बढ़कर और कौन सिद्ध सकता है? जो राम नाम जपते हैं उनका कोई बुरा नहीं कर सकता। उस दिन सिद्ध हो गया राम से बड़ा राम का नाम है।
तुलसीदास जी द्वारा रामचरितमानस में बताया – कलयुग में राम नाम की महिमा
कलियुग जोग न जग्य न ग्याना ।
एक अधार राम गुन गाना ।।
सब भरोस तजि जो भज रामहि।
प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि ।।
तुलसीदास जी कहते हैं कि कलयुग मे न योग है, ना यज्ञ है, ना ही ज्ञान है केवल राम नाम ही एक आधार है जो सब भरोसे त्याग कर श्री राम का नाम सिमरन करता है और उनके गुणों का गान करता है।
सोई भव तर कछु संसय नाहीं।
नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं।।
कलि कर एक पुनीत प्रतापा।
मानस पुन्य होहिं नहीं पापा।।
श्री राम का नाम जपने वालि भव सागर तर जाता है इसमें कोई भी संदेह नहीं है। नाम का प्रताप तो कलयुग में प्रत्यक्ष है। कलयुग का एक पुनीत प्रताप है कि मानसिक पुण्य तो होते हैं लेकिन मानसिक पाप नहीं होते हैं।
कलियुग सम जुग आन नहीं जौं कर विश्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास।।
अगर आप विश्वास करे तो कलयुग के समान कोई युग नहीं है क्योंकि कलयुग में श्री राम के निर्मल गुणों का गान कर मनुष्य संसार रूपी भव सागर से बिना परिश्रम ही तर जाता है।
काल धर्म नहीं ब्यापहिं ताही ।
रघुपति चरन प्रीति अति जाही।।
नट कृत बिकट कपट खगनायक ।
नट सेवक न ब्यापइ माया।।
जिसकी श्री राम के चरणों में प्रीति है उनको काल धर्म नहीं व्यापते। हे पक्षी राज! जैसे नट ( बाजीगर) का किया कपट(खेल) देखने वाले के लिए विकट( दुर्गम) होता है लेकिन बाजीगर के सेवक ( जमूरे ) को उसकी माया नहीं व्यापती अर्थात सेवक को उसका खेल दुर्गम नहीं लगता है।
हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं ।
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं।।
श्री हरि की माया से रचे हुए दोष और गुण श्री हरि (राम) के भजन के बिना नहीं जाते। ऐसा सोच कर सब कामनाओं को छोड़कर कलयुग में श्री राम के नाम का भजन करना चाहिए।
राम नाम के चमत्कार की एक कथा
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Ram ram ji
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