Shikshashtakam with Hindi Meaning | Shikshashtakam by Chaitanya Mahaprabhu | शिक्षाष्टकम् | चैतन्य महाप्रभु द्वारा रचित शिक्षाष्टकम | शिक्षाष्टक हिंदी अर्थ सहित
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भगवान चैतन्य जो अपनी युवावस्था से ही बहुत महान विद्वान थे, माना जाता है कि उन्होंने अपने जीवन में बहुत कम प्रार्थनाएँ लिखी हैं। वह भगवान कृष्ण की भक्ति के प्रतिरूप थे। यह महान अष्टक उनके द्वारा लिखित एकमात्र लेखन है और माना जाता है कि इसमें उनकी सभी शिक्षाओं का सार समाहित है।
चेतोदर्पणमार्जनं भव–महादावाग्नि–निर्वापणम्
श्रेयः–कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू–जीवनम् ।
आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम्
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण–संकीर्तनम् ॥१॥
चित्त रूपी दर्पण को स्वच्छ करने वाले, भव रूपी महान अग्नि को शांत करने वाले, चन्द्र किरणों के समान श्रेष्ठ, विद्या रूपी वधु के जीवन स्वरुप, आनंद सागर में वृद्धि करने वाले, प्रत्येक शब्द में पूर्ण अमृत के समान सरस, सभी को पवित्र करने वाले श्रीकृष्ण कीर्तन की उच्चतम विजय हो॥१॥
( श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो जो हृदय में वर्षों से संचित मल का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी दावानल को शांत करने वाला है। यह संकीर्तन यज्ञ मानवता के लिए परम कल्याणकारी है क्योंकि चन्द्र-किरणों की तरह शीतलता प्रदान करता है। समस्त अप्राकृत विद्या रूपी वधु का यही जीवन है। यह आनंद के सागर की वृद्धि करने वाला है और नित्य अमृत का आस्वादन कराने वाला है॥१॥)
नाम्नामकारि बहुधा निज सर्व शक्ति
स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।
एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दु
र्दैवमीदृश–मिहाजनि नानुरागः॥२॥
हे प्रभु ! आपने अपने अनेक नामों में अपनी शक्ति भर दी है, जिनका किसी समय भी स्मरण किया जा सकता है। हे भगवन ! आपकी इतनी कृपा है परन्तु मेरा इतना दुर्भाग्य है कि मुझे उन नामों से प्रेम ही नहीं है॥२॥
( हे भगवन!आपका मात्र नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है- कृष्ण,गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियां अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण एवं कीर्तन करने में देश-काल आदि का कोई भी नियम नहीं है। प्रभु!आपने अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यंत ही सरलता से भगवत-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में अब भी मेरा अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाया है॥२॥)
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥३॥
स्वयं को तृण से भी छोटा समझते हुए, वृक्ष जैसे सहिष्णु रहते हुए, कोई अभिमान न करते हुए और दूसरों का सम्मान करते हुए सदा श्रीहरि का भजन करना चाहिए॥३॥
(स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर,वृक्ष के समान सहनशील होकर,मिथ्या मान की कामना न करके दूसरों को सदैव मान देकर हमें सदा ही श्री हरिनाम कीर्तन विनम्र भाव से करना चाहिए॥३॥)
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥४॥
हे जगत के ईश्वर! मैं धन, अनुयायी, स्त्रियों या कविता की इच्छा न रखूँ। हे प्रभु, मुझे जन्म जन्मान्तर में आपसे ही अकारण प्रेम हो॥४॥
(हे सर्व समर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दर स्त्री अथवा प्रशंनीय काव्यों का इक्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र यही कामना है कि जन्म-जन्मान्तर मैं आपकी अहैतु की भक्ति कर सकूँ॥४॥)
अयि नन्दतनुज किंकरं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ।
कृपया तव पादपंकज– स्थितधूलिसदृशं विचिन्तय॥५॥
हे नन्द के पुत्र ! इस दुर्गम भव–सागर में पड़े हुए मुझ सेवक को अपने चरण कमलों में स्थित धूलि कण के समान समझ कर कृपा कीजिये॥५॥
(हे नन्दतनुज! मैं आपका नित्य दास हूँ किन्तु किसी कारणवश मैं जन्म-मृत्यु रूपी इस सागर में गिर पड़ा हूँ। कृपया मुझे अपने चरणकमलों की धूलि बनाकर मुझे इस विषम मृत्युसागर से मुक्त करिये॥5।।)
नयनं गलदश्रुधारया वदनं गदगदरुद्धया गिरा।
पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम–ग्रहणे भविष्यति॥६॥
हे प्रभु ! कब आपका नाम लेने पर मेरी आँखों के आंसुओं से मेरा चेहरा भर जायेगा ? कब मेरी वाणी हर्ष से अवरुद्ध हो जाएगी ? कब मेरे शरीर के रोम खड़े हो जायेंगे ॥६॥
(हे प्रभु!आपका नाम कीर्तन करते हुए कब मेरे नेत्रों से अश्रुओं की धारा बहेगी, कब आपका नामोच्चारण मात्र से ही मेरा कंठ गद्गद होकर अवरुद्ध हो जायेगा और मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा॥६॥)
युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्।
शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्द विरहेण मे॥७॥
श्रीकृष्ण के विरह में मेरे लिए एक क्षण एक युग के समान है, आँखों में जैसे वर्षा ऋतु आई हुई है और यह विश्व एक शून्य के समान है॥७॥
(हे गोविन्द! आपके विरह में मुझे एक क्षण भी एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है। नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरंतर अश्रु-प्रवाह हो रहा है तथा समस्त जगत एक शून्य के समान दिख रहा है॥७॥)
आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्–मर्महतां करोतु वा।
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्– तु स एव नापरः॥८॥
उनके चरणों में प्रीति रखने वाले मुझ सेवक का वह आलिंगन करें या न करें, मुझे अपने दर्शन दें या न दें, मुझे अपना मानें या न मानें, वह चंचल, नटखट श्रीकृष्ण ही मेरे प्राणों के स्वामी हैं, कोई दूसरा नहीं॥८॥
(एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे ही सदैव बने रहेंगे, चाहे वे मेरा आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे आहत करें। वे नटखट कुछ भी क्यों न करें- वे सभी कुछ करने के लिए स्वतंत्र हैं क्योंकि वे मेरे नित्य आराध्य प्राणनाथ हैं॥८॥)
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