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हरिर्हरति पापानि दुष्टचितैरपि स्मृतः ।
अनिच्छयाऽपि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावकः ॥1॥
भगवान हरि पापों को हर लेते हैं चाहे दुष्ट चित्त वालों ने ही उन्हें क्यों न याद किया हो, या न चाहते हुये भी उन्हें किसी ने याद किया हो, बिलकुल वैसे ही जैसे आग जला कर राख कर देती है॥1॥
स गंगा स गया सेतुः स काशी स च पुष्करम् ।
जिह्वाग्रे वर्तते यस्या हरिरित्यक्षर द्वयम् ॥2॥
उसने गंगा , सेतु, काशी और पुष्कर के दर्शन कर लिये, जिसके मुँह मे भगवान हरि के नाम के ये दो अक्षर रहते हैं॥2॥
वाराणस्यां कुरुक्षेत्रे नैमिषारण्य एव च ।
यत्कृतं तेन येनोक्तं हरिरित्यक्षर द्वयम् ॥3॥
जो हरि नाम के ये दो अक्षरों का उच्चारण करता है , उसने वाराणसी, कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य में जो भी पुण्य कार्य हुये हैं वो सब कर लिये ॥3॥
पृथिव्यां यानि तीर्थानि पुन्यान्यायतनानि च ।
तानि सर्वाण्यशेषाणि हरिरित्यक्षर द्वयम् ॥4॥
पृथ्वी पर जितने भी तीर्थ हैं और अन्य भी जितने पण्य स्थान हैं वो सब हरि, ये दो अक्षरों में हैं॥4॥
गवां कोटिसहस्राणि हेमकन्यासहस्रकम् ।
दत्तं स्यात्तेन येनोक्तं हरिरित्यक्षर द्वयम् ॥5॥
उसने एक करोड़ गाऐं और एक हजार सोने की मूर्तियां दान कर दीं, जो हरि, ये दो अक्षरों का उच्चारण करता है॥5॥
ॠग्वेदोऽथ यजुर्वेदः सामवेदोऽप्यथर्वणः ।
अधीतस्तेन येनोक्तं हरिरित्यक्षर द्वयम् ॥6॥
ॠग, साम, यजुर और अथर्व, ये चारों वेद उस ने पढ़ लिये हैं जो हरि, इन दो अक्षरों का उच्चारण करता है॥6॥
अश्वमेधैर्महायज्ञैः नरमेधैस्तथैव च ।
इष्टं स्यात्तेन येनोक्तं हरिरित्यक्षर द्वयम् ॥7॥
अश्वमेध नाम के महायज्ञ से और नरमेध यज्ञ से जो पुण्य फल प्राप्त होते हैं वो सब भगवान हरि का नाम लेने वाले को प्राप्त होते हैं॥7॥
प्राण प्रयाण पाथेयं संसार व्याधिनाशनम् ।
दुःखात्यन्त परित्राणं हरिरित्यक्षर द्वयम् ॥8॥
हरि नाम के ये दो अक्षर कानों द्वारा प्राणों के रास्ते जाकर संसार रूपी बीमारी का नाश कर देते हैं और अत्यन्त दुख का अन्त करते हैं॥8॥
बद्ध परिकरस्तेन मोक्षाय गमनं प्रति ।
सकृदुच्चारितं येन हरिरित्यक्षर द्वयम् ॥9॥
जो हरि का नाम लेते हैं वे पुण्यशील लोग हाथ जोड़े मोक्ष की तरफ बढते हैं॥9॥
हर्यष्टकमिदं पुण्यं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
आयुष्यं बलमारोग्यं यशो वृद्धिश्श्रियावहम् ॥10॥
जो सुबह उठ कर ये हरि अष्टकम् पढता है उसके आयु , बल, आरोग्यता और श्री की वृद्धि होती है॥10॥
प्रह्लादेन कृतं स्तोत्रं दुःखसागर शोषणम् ।
यः पठेत्स नरो याति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥11॥
प्रह्लाद द्वारा कहा ये स्तोत्र, जो दुख के सागर को सुखाने वाला है। इसे जो मनुष्य पढ़ता है, वो भगवान विष्णु के परम् पद को प्राप्त करता है॥11॥
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