Bhramar Geet by Surdas

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Bhramar Geet by Surdas

 

 

भ्रमर गीत वस्तुतः भागवत पुराण में वर्णित है जिसमे गोपियों ने उद्धव को भ्रमर की संज्ञा दी है और उन्हें ज्ञान का उपदेश सुनाने पर उलाहना भी दी है । गोपियों ने ज्ञान मार्गी उद्धव को प्रेम मार्ग का उपासक बना दिया । उसी परिप्रेक्ष्य में अपनी ही काव्यात्मक शैली में सूरदास जी ने गोपियों और उद्धव के मध्य एक मीठी नोक झोंक और उलाहना  भरे भ्रमर गीत नामक काव्य की रचना की है जो यहाँ प्रस्तुत है । प्रत्येक पद एक विशेष राग पर आधारित है । 

 

राग धनाश्री

तेरो बुरो न को मानै।

रस की बात मधुप नीरस सुनु , रसिक होत सो जानै।।

दादुर बसै निकट कमलन के जन्म न रस पहिचानै ।

अलि अनुराग उड़न मन बांध्यो कहे सुनत नहि कानै।।

सरिता चलै मिलन सागर को कूल मूल द्रुम भानै।

कायर बकै लोह तें भाजै लरै जो सूर बखानै ।।31

 

इसमें उद्धव और गोपियों के दृष्टिकोण का निरूपण किया गया है । गोपियाँ श्री कृष्ण प्रेम की महत्ता का गान करती हैं और उद्धव निर्गुण के महत्त्व बखानने में लगे हैं ।

 

उद्धव को भ्रमर के रूप में सम्बोधित करती हुई गोपियाँ व्यंग्य गर्भित शैली में कह रही हैं – हे नीरस भ्रमर ! तेरी बातों का कोई बुरा नहीं मानता है क्योंकि सभी जानते हैं कि तुम शुष्क ह्रदय हो और प्रेम की बातों का महत्त्व क्या जानो । अरे नीरस भ्रमर ! यदि तुम सरस होते , रसज्ञ होते तो रस अर्थात प्रेम की बातों को ग्रहण करते परन्तु तुमसे तो रस अर्थात प्रेम की चर्चा करना ही बेकार है । रस की बात तो रसज्ञ ही जानते हैं अर्थात प्रेम की बात तो प्रेमी ही जानते हैं । यद्यपि मेढक जल में कमलों के निकट निवास करता है लेकिन वह जीवन पर्यन्त रस अर्थात कमलों के मकरंद का सुख नहीं ले पाता । वह रस क्या वस्तु है वह जान ही नहीं पाता किन्तु कमल के रस लोभी भौरों ने उसके निकट उड़ने में ही अपने मन को बाँध रखा है । कमल के निकट रहने वाला मेढक कमला के मकरंद का आस्वादन जीवन भर नहीं कर पाता किन्तु वन में रहने वाला भ्रमर कमल के प्रेम में उड़ कर उसके पास पहुंचने में ही अपने मन को लगा देता है और कहने सुन ने पर भी मर्यादा की परवाह नहीं करता । प्रेमोद्रेक की स्थिति यह है कि नदी अपने किनारे के वरीखों कि परवाह न करते हुए उन्हें तोड़ती हुयी अपने प्रियतम समुद्र से मिलने चल पड़ती है । युद्ध स्थल में जो कायर होता है वह तो मात्रा प्रलाप करता है और योद्धाओं के हथियार देखकर भाग जाता है लेकिन जो लड़ता है वही वीर कहलाता है । 

 

राग धना श्री

घर ही के बाढ़े रावरे
नाहीं मीत वियोग बस परे अनवउगे अली बावरे !
भुख मरि जाय चरै नहि तिनुका सिंह को यहै स्वभाव रे !
स्रवन सुधा – मुरली के पोषे , जोग – जहर न खवाव रे !
ऊधो हमहि सीख का दैहो ? हरि बिनु अनत न ठाँव रे !
सूरदास कहाँ लै कीजै थाही नदिया नाव रे।।32।।

 

गोपियाँ उद्धव के प्रलाप को सुनकर क्रुद्ध हो गयीं और कहने लगीं कि उद्धव जी अपने ज्ञान का जितना ढिंढोरा पीट रहे हैं , उतना वो है नहीं । इसमें गोपियों कि श्री कृष्ण के प्रति एक निष्ठता और प्रेम कि अनन्यता का प्रदर्शन हुआ है ।

 

( उद्धव के प्रति गोपियों का व्यंग्य कथन ) हे उद्धव ! तुम अपने घर पर ही अपने ज्ञान की थोथी बातों का बढ़ – चढ़ कर भले ही बखान कर लो , किन्तु जब दूसरे के समक्ष पहुंचोगे तो पता चलेगा कि तुम्हारे ज्ञान की कितनी गहराई है अर्थात हम गंवार गोपियों के बीच में ही तुम अपने ज्ञान का प्रलाप करने वाले हो । हे मित्र ! अभी तुम वियोग के फेर में पड़े नहीं हो । अभी तुमने वियोग की पीड़ा का अनुभव किया नहीं है । हे पागल भ्रमर ! ( हे अज्ञानी उद्धव ! ) जब हमारी स्थिति में पड़ोगे तो तुम्हें भी ऐसी वियोग पीड़ा सहनी पड़ेगी । कहा जाता है कि सिंह का यह स्वभाव है कि मांस न मिलने पर वह कभी घास नहीं चरेगा , भले ही वह भूखा मर जाये । उसी प्रकार श्री कृष्ण के दर्शन न होने पर भले ही हम लोग उनके वियोग में मर जाएं लेकिन किसी नए की उपासना नहीं करेंगी । तुम्हें मालूम होना चाहिए कि ये हमारे कान श्री कृष्ण की मुरली की ध्वनि रुपी सुधा ( अमृत ) से पोषित हैं । उन्होंने अपनी मुरली की अनुपम धुन से हमारे कानों को आनंदित किया है । अब उन्हीं कानों को अपनी योग साधना विषयक कटु वाणी ( जहरीली बातों ) से पीड़ित मत करो । कहाँ मुरली की मधुर ध्वनि और कहाँ तुम्हारी कटु योग वार्ता । दोनों में कितना अंतर है । हे उद्धव ! तुम हमें क्या शिक्षा दोगे। हम तो तुम्हारी बातों को भली भांति समझती हैं । हमारे लिए तो एकमात्र श्री कृष्ण की ही शरण है । श्री कृष्ण के बिना हमारा अन्यत्र कोई स्थान या शरण नहीं है । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं – हे उद्धव ! हम ठहरी हुयी नदी के लिए आपकी योग रुपी नाव को लेकर क्या करेंगीं अर्थात जिस संसार की गहराई के बारे में हम जान चुकी हैं । यह संसार कितना छिछला है इसे पार करना कौन सी मुश्किल बात है ?  उसे पार करने के लिए आपकी योग चर्चा रुपी नाव की क्या आवश्यकता है ? अरे नाव तो गहरी नदी में चलाई जाती है । जब संसार को बिना योग – साधना से ही पार किया जा सकता है तो योग रुपी नाव को ग्रहण करने की क्या आवश्यकता है ? यह योग रुपी नाव तो तुम जैसे योगियों के लिए अधिक उपयोगी है , हम गोपियों के लिए श्री कृष्ण की भक्ति और प्रेम अत्यंत महत्त्व पूर्ण है ।

 

राग मलार

स्याममुख देखे ही परतीति।
जो तुम कोटि जतन करि सिखवत जोग ध्यान की रीति॥
नाहिंन कछू सयान ज्ञान में यह हम कैसे मानैं।
कहौ कहा कहिए या नभ को कैसे उर में आनैं॥
यह मन एक, एक वह मूरति, भृंगकीट सम माने।
सूर सपथ दै बूझत ऊधो यह ब्रज लोग सयाने॥३३॥

 

गोपियाँ श्री कृष्ण के समक्ष किसी को भी मानने के लिए तैयार नहीं हैं । उद्धव जी गोपियों को योग की बलात शिक्षा देना चाहते हैं लेकिन गोपियों का आग्रह है कि श्याम सुन्दर के सौंदर्य पूर्ण मुखमण्डल को देख लेने पर औरों के प्रति विश्वास नहीं होता ।

 

उद्धव के प्रति गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! तुम जो हमें अतिशय यत्न पूर्वक योगाभ्यास की रीतियाँ सिखा रहे हो वह हमारे लिए बेकार है क्योंकि हमें तो श्री कृष्ण के मुख को देख लेने पर ही इसमें विश्वास हो सकता है । हमारा विश्वास श्री कृष्ण के मुख सौंदर्य के प्रति है अन्यों के लिए हमारे मानस में किसी प्रकार का विश्वास नहीं है । तुम हमें ज्ञान की शिक्षा दे रहे हो परन्तु तुम्हारी इस ज्ञान शिक्षा में भी हमें चालाकी का आभास हो रहा रहा है । हम यह कैसे स्वीकार कर लें कि तुम बिना किसी प्रयोजन के हमें ज्ञान की बातें सिखा रहे हो । तुम चालाकी से हमें निर्गुण ब्रह्मोपासना में प्रवृत्त कर के श्री कृष्ण की भक्ति के प्रति उदासीन करना चाहते हो । यह तो बताओ कि इस असीम आकाश ( शून्य ; ब्रह्म ) के सम्बन्ध में क्या कहा जाये अर्थात आकाश की भांति शून्य इस ब्रह्म के सम्बन्ध में क्या कहा जाये? कैसे इसका निरूपण किया जाये ? और किस प्रकार इस अनंत आकाश को समेट कर अपने छोटे से ह्रदय में बसा लें । यह ब्रह्म आकाश की भांति शून्य और अनंत है । अतः मानस के लिए अग्राह्य और अगम्य है । उद्धव जी ! हमारा मन भी एक है और श्याम सुन्दर की मूर्ति भी एक ही है । अतः भृंगी कीड़े की भांति दोनो एक ह्रदय हो गए हैं । जैसे भृंगी कीट किसी कीड़े को पकड़ कर उस अपने अनुरूप बना लेता है ठीक उसी प्रकार श्री कृष्ण ने भृंगी कीट की भांति हमें अपने रंग में रंग लिया । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! ब्रज के चतुर लोग तुमसे सौगंध पूर्वक पूछना चाहते हैं कि जब दोनों अर्थात जब हमारा मन और श्री कृष्ण दोनों एक ही रंग में रंग गए हैं तो योग साधना की ओर कैसे जा सकते हैं ?33

 

राग धनाश्री

लरिकाई को प्रेम, कहौ अलि, कैसे करिकै छूटत?
कहाँ कहौं ब्रजनाथ-चरित अब अँतरगति यों लूटत॥
चंचल चाल मनोहर चितवनि, वह मुसुकानि मंद धुनि गावत।
नटवर भेस नंदनंदन को वह बिनोद गृह बन तें आवत॥
चरनकमल की सपथ करति हौं यह सँदेस मोहिं बिष सम लागत।
सूरदास मोहि निमिष न बिसरत मोहन सूरति सोवत जागत॥३४॥

 

इसमें गोपियों ने श्री कृष्ण के प्रति अपने बचपन के सहचर्य जनित प्रेम भाव को व्यक्त किया है ।

 

हे उद्धव ! कृष्ण के प्रति हमारा यह प्रेम भाव आकस्मिक नहीं है बल्कि इसका उदय बचपन से हुआ है । अतः बचपन का प्रेम कैसे छूट सकता है ? ब्रजनाथ श्रीकृष्ण के चरित्र की क्या विशेषताएं रही हैं उन्हें तुम्हें कैसे बताऊँ , उनकी ये विशेषताएं हमारी चित्तवृत्ति को आज भी अभिभूत कर लेती हैं । आज भी जब हम उनके चरित्र की याद करते हैं तो हमारा मानस भाव मग्न हो जाता है । उनकी चंचल गति , सुन्दर चितवन, वह मुस्कराहट तथा मंद – मंद स्वरों से जब वह गाते थे , उनके गाने का ढंग । यही नहीं जब वे नटवर वेश में नाना प्रकार के विनोद करते हुए वन से घर लौटते थे तो हमारा मन श्री कृष्ण की उस मुद्रा पर मोहित हो जाता था । हम उनके कमलवत चरणों की शपथ खा कर कहती हैं कि यह योग का संदेश , योगशास्त्र विषयक ज्ञान श्री कृष्ण की उस रूप माधुरी के सामने विष के समान दुःखद प्रतीत हो रहा है । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हे उद्धव ! हम सोते – जागते किसी भी अवस्था में श्री कृष्ण की वह माधुर्य पूर्ण मूर्ति अर्थात उनका सुखद स्वरूप एक क्षण के लिए भी नहीं भूल पाते। हमारा मन सदैव उसी रूप माधुरी में डूबा रहता है ।

 

राग सोरठ

अटपटि बात तिहारी ऊधो सुनै सो ऐसी को है?
हम अहीरि अबला सठ, मधुकर! तिन्हैं जोग कैसे सोहै?
बूचिहि[१] खुभी आँधरी काजर, नकटी पहिरै बेसरि।
मुँडली पाटी पारन चाहै, कोढ़ी अंगहि केसरि॥
बहिरी सों पति मतो करै सो उतर कौन पै पावै?
ऐसो न्याव है ताको ऊधो जो हमैं जोग सिखावै॥
जो तुम हमको लाए कृपा करि सिर चढ़ाय हम लीन्हे ।
सूरदास नरियर जो बिष को करहिं बंदना कीन्हे ॥३५॥

 

इसमें गोपियों ने उद्धव की बातों को अत्यंत बेढंगा और अनुपयुक्त समझकर व्यंग्य गर्भित शैली में उनकी कटु आलोचना की है । उद्धव ने जो पात्रता और अपात्रता का ध्यान दिए बिना योग की शिक्षा दी है उसे गोपियों ने सर्वथा अग्राह्य माना है ।

 

हे उद्धव ! ऐसी कौन है जो तुम्हारी यह अटपटी वाणी सुने अर्थात तुम जो योग साधना की शिक्षा दे रहे हो वह यहाँ किसी के पल्ले नहीं पड़ेगी । अटपटी बात यह है कि हम सब अहीरनी और और अबला हैं । ऐसी स्थिति में हे शठ भ्रमर ! हे अज्ञानी और जड़ उद्धव ! योग साधना हमें कैसे शोभा दे सकती है ? हमें कैसे अच्छी लग सकती है ? भला यह तो बताओ कि जिसके कान कटे हैं वह लौंग नामक कर्णाभूषण कैसे ग्रहण करेगी ? अंधी स्त्री काजल कैसे लगाएगी ? नकटी स्त्री नथ कैसे धारण करेगी ? ये सब वस्तुएं ऐसी स्त्रियों के लिए व्यर्थ हैं और असंभव हैं। तुम्हारे योग की साधना भी हमारे लिए उसी प्रकार की है । सोचो जो मुंडी है जिसके सर पर बाल ही नहीं हैं वह केश कैसे संवारेगी ? उसके केश संवारना संभव नहीं । तुम्हारी बातें तो ऐसी हैं जैसे कोढ़ी के अंग में केसर लगाना । भला कोढ़ी के अंग में जिसके अंग गलित हैं केसर कहाँ लगाई जा सकती है ? उसमें केसर लगाने की पात्रता कहाँ है ? और यह उसी प्रकार है जैसे किसी बहरी स्त्री का पति उस से किसी प्रकार की सलाह ले तो उसे उत्तर कौन देगा अर्थात जब उस बहरी स्त्री को प्रश्न सुनाई ही नहीं पड़ेगा तो तो वो उत्तर या सलाह कैसे देगी । उसी प्रकार तुम्हारी इन बातों को सुनने के लिए हमारे कान बहरे हैं अतः तुम्हें कोई उत्तर नहीं मिलेगा । हमें जो योग की शिक्षा देना चाहेगा उसकी स्थिति इसी प्रकार की होगी । तुम जो हमारे लिए उपहार स्वरूप यह योग लाये हो उसे हमने शोरोधार्य कर लिया लेकिन हमारे लिए यह विषैले नारियल के समान है जिसे दूर से प्रणाम करते बनता है । अर्थात तुम जो सन्देश लाये हो उसे हम वंदनीय समझती हैं लेकिन जो आपकी योग साधना का उपदेश है वो अग्राह्य है ।

 

राग विहागरो

बरु वै कुब्जा भलो कियो।
सुनि सुनि समाचार ऊधो मो कछुक सिरात हियो॥
जाको गुन, गति, नाम, रूप हरि, हार्‌यो फिरि न दियो।
तिन अपनो मन हरत न जान्यो हँसि हँसि लोग जियो॥
सूर तनक चंदन चढ़ाय तन ब्रजपति बस्य कियो।
और सकल नागरि नारिन को दासी दाँव लियो॥३६॥

 

इसमें कुब्जा के प्रति श्री कृष्ण के ऐसे प्रेम भाव को देख कर गोपियों ने उन्हें उलाहना दी है । एक समय श्री कृष्ण ने सभी चतुर नारियों का मन हर लिया । आज स्थिति यह है कि वे स्वयं कुब्जा द्वारा ठगे गए हैं ।

 

हे उद्धव ! बल्कि कुब्जा ने श्री कृष्ण के साथ अच्छा व्यवहार किया है अर्थात उसने अत्यंत सोच विचार कर उनसे बदला लिया है । कुब्जा के ऐसे व्यवहार समाचार सुन – सुन कर हम लोगों का ह्रदय कुछ शीतल हो गया । हम सबको अत्यंत प्रसन्नता हुयी कि आखिर मिली तो उन्हें कोई एक खिलाड़िन । अभी तक तो यही देखती रही कि श्री कृष्ण ने जिसके गुण , नाम और रूप को हर लिया था उसे कभी वापस नहीं किया । हम सब गोपियों के गुण, गति , नाम और रूप को उन्होंने हर लिया और सब परेशान हैं लेकिन अभी तक वे इन्हें लौटा न सके । अब इन्हें भी कोई जोड़ कि मिल गयी है । कुब्जा ने इनके मन को ऐसा हरण किया है कि अभी तक उस ईव प् नहीं सके हैं अर्थात गोपियों के प्रेम को भूल कर श्री कृष्ण अब कुब्जा के प्रेम में वशीभूत हो गए हैं । लोग श्री कृष्ण की ऐसी दशा पर हँसते हैं और सोचते हैं कि बनते बड़े चालाक थे किन्तु आज कुब्जा के आगे इनकी कोई चालाकी नहीं चल सकीय । जरा देखिये तो थोड़ा सा चन्दन लगा कर श्री कृष्ण को अपने कब्जे में कर लिया और उन्हें मालूम भी नहीं हुआ कि उनका मन कैसे अपहृत हो गया । उसकी सामान्य सी सेवा से वे पराजित हो गए और उसे अपना सब कुछ दे दिया । इसके विपरीत हम लोग जीवन भर उनकी सेवा करती रहीं उनके एक वंशी स्वर के पीछे दौड़ पड़ती थीं । परन्तु उन्होंने कभी भी अपना मन हमें नहीं सौंपा । अब हम लोगों को प्रसन्नता है कि मथुरा की सब कुलीन और श्रेष्ठ स्त्रियों का बदला उस दासी कुब्जा ने ले लिया । उस से इनका कोई दांव नहीं लग सका । मथुरा की ऐसी नारियों को छोड़ कर श्री कृष्ण ने कुब्जा से प्रेम किया अर्थात एक नगण्य दासी से प्रेम किया यह लज्जास्पद बात है ।36

 

राग सारंग

हरि काहे के अंतर्यामी?
जौ हरि मिलत नहीं यहि औसर, अवधि बतावत लामी॥
अपनी चोप जाय उठि बैठे और निरस बेकामी?
सो कह पीर पराई जानै जो हरि गरुड़ागामी॥
आई उघरि प्रीति कलई सी जैसे खाटी आमी।
सूर इते पर अनख मरति हैं, उधो पीवत मामी॥३७॥

 

गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! तुम जो यह कहते हो कि हरि अंतर्यामी हैं , सब के ह्रदय में व्याप्त हैं यह हम कैसे मान लें ? वे जब हमसे मिलते नहीं – ऐसी वियोगावस्था में भी जब वे हमें दर्शन नहीं देते और अपने आने की लम्बी अवधि बताते हैं तो उन्हें अंतर्यामी की संज्ञा कैसे दी जा सकती है ? वे तो अपनी उमंग में स्वेच्छा से मथुरा जा कर छा गए । हम लोगों ने तो उन्हें वहां जाने के लिए कहा नहीं था । अब क्या देखती हूँ कि वहां जाते ही उन्होंने अपनी सारी सहृदयता ही भुला दी और नीरस तथा निष्कामी बन गए और योगियों की तरह निष्कामना की बात करने लगे । भला वे दूसरों की पीड़ा का अनुभव क्या कर सकते हैं जो सदैव गरुड़ की सवारी किया करते हैं । जो कभी सामान्य लोगों की भाँति भूतल पर पैर ही नहीं रखते वे भूतल पर रहने वालों की पीड़ा क्या समझेंगे ? परन्तु अब उनके झूठे प्रेम का रहस्योद्घाटन उसी प्रकार हो गया है जैसे किसी बर्तन की काली पर खट्टा आम रगड़ देने पर उसका वास्तविक रंग उभर कर आ जाता है । मथुरा जाने पर ही पता लग गया कि श्री कृष्ण का हम लोगों के प्रति कितना प्रेम था । वस्तुतः यह वियोग उनके प्रेम को कसने कि सच्ची कसौटी है । हे उद्धव ! हम सब यहाँ इतने पर भी दुःख से कुढ़ती रहती हैं कि वे अब भी सीधे सीधे मना करते हैं कि हम तुम सबों से अलग नहीं हैं अर्थात यह नहीं मानते कि उनका प्रेम सर्वथा झूठा और बनावटी है । 37

 

राग सारंग 

बिलग जनि मानहु, ऊधो प्यारे!
वह मथुरा काजर की कोठरि जे आवहिं ते कारे॥
तुम कारे, सुफलकसुत कारे, कारे मधुप भँवारे।
तिनके संग अधिक छबि उपजत कमलनैन मनिआरे॥
मानहु नील माट तें काढ़े लै जमुना ज्यों पखारे।
ता गुन स्याम भई कालिंदी सूर स्याम-गुन न्यारे॥३८॥

 

इस पद में गोपियों ने श्री कृष्ण , अक्रूर , उद्धव और भ्रमर के श्याम वर्ण पर व्यंग्योक्ति द्वारा गहरी चोट की है ।

 

गोपियाँ उद्धव से कहती हैं हे प्यारे उद्धव ! तुम हमारी बातों का बुरा मत मानना । हमारी समझ में यह मथुरा नगरी काली कोठरी के समान है क्योंकि वहां से जो भी आते हैं सभी काले लगते हैं अर्थात तुम्हारी मथुरा नगरी कपटी पुरुषों की नगरी है और वहां से जो भी आते हैं सभी कपटी प्रवृत्ति के लगते हैं । इसका प्रमाण यह है कि तुम भी वहीँ से आये हो और काले हो तथा कपटी जैसी बातें करते हो । अक्रूर भी हमें काले लगे क्योंकि अपने कपट आचरण से कृष्ण और बलराम को फुसलाकर यहाँ से ले गए और वहां का भ्रमणशील भौंरा भी काला है । उसके कपट की बात प्रकट है कि वह कहीं टिकता नहीं है । सभी पुष्पों का रस लेता है और किसी के साथ सच्चे प्रेम का निर्वाह नहीं करता । इतने कालों के बीच सबसे भयंकर मणिधारी सर्प के समान श्री कृष्ण की शोभा बढ़ जाती है । इन काले ह्रदय वालों में श्री कृष्ण सबसे बढ़ कर कपटी सिद्ध हुए हैं । ये उस मणिधारी भयंकर जहरीले सर्प की भाँति है जिसके काटने पर प्राणों की रक्षा की ही नहीं जा सकती । ऐसा लगता है कि ये सब नील के घड़े से निकाल कर इन्हें यमुना के जल में ले जाकर धोया गया और यमुना भी इनके धोने से इनके श्याम गुणों के कारण काली पड़ गयीं । इनका काला रंग उस पर भी चढ़ गया । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि श्याम का गुण ही बड़ा विलक्षण है इसे कौन जान सकता है ?38

 

राग सारंग

अपने स्वारथ को सब कोऊ।
चुप करि रहौ, मधुप रस लंपट! तुम देखे अरु वोऊ॥
औरौ कछू सँदेस कहन को कहि पठयो किन सोऊ।
लीन्हे फिरत जोग जुबतिन को बड़े सयाने दोऊ॥
तब कत मोहन रास खिलाई जो पै ज्ञान हुतोऊ?
अब हमरे जिय बैठो यह पद ‘होनी होउ सो होऊ’॥
मिटि गयो मान परेखो ऊधो हिरदय हतो सो होऊ।
सूरदास प्रभु गोकुलनायक चित-चिंता अब खोऊ॥३९॥

 

इस पद में गोपियों ने उद्धव और श्री कृष्ण दोनों को स्वार्थी बतलाया है । इसके अतिरिक्त गोपियों के ह्रदय की उदारता , सहनशीलता और विशालता का भी प्रचाय मिलता है ।

 

गोपियाँ खीझ कर उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! सभी अपने स्वार्थ के हैं अर्थात हमने अच्छी प्रकर से देख लिया है कि इस संसार में सभी परम स्वार्थी हैं । अब हे मकरंद लोभी भ्रमर ( उद्धव ) ! चुप रहो । ज्यादा बढ़ – चढ़ कर बातें मत करो । हमने तुम्हें भी समझ लिया और श्री कृष्ण को भी । इतना सन्देश देने के अतिरिक्त यदि उन्होंने कुछ और सन्देश भेजा है तो उसे भी क्यों है कह डालते । तुमने जितनी जली – भुनी बातें बताई हैं उन सबको सहने के लिए हम सब का मन तैयार है । तुम जो भी खरी – खोटी सुनाओगे उसे हम सहर्ष बर्दाश्त कर लेंगी । तुम दोनों अर्थात तुम और श्री कृष्ण दोनों ही बड़े ही चतुर हो जो युवतियों को अर्पित करने के लिए योग का सन्देश लिए फिर रहे हो । जब उन्हें ज्ञान का ही सन्देश देना था तो हमसे रस – रीति की बातें क्यों की और किस लिए हमारे साथ रास रचाया ? अब हम लोगों के मन में यह बात पूरी तरह बैठ गयी की जो कुछ भी ब्रह्मा की ओर से होना है होवे किन्तु श्री कृष्ण की प्रेम साधना में किसी प्रकार का व्यवधान ना होने पाए । हमारे मन में इतने संकट के बाद भी कृष्ण की भक्ति और उनका प्रेम भाव निरंतर बना रहे । हे उद्धव ! अब तो हमारे मन में जो भी थोड़ा बहुत मान सम्मान और पश्चाताप का भाव था वह भी समाप्त हो गया । अब ना तो कृष्ण के प्रति मान – अपमान की भावना हमारे मन में शेष रही और ना उनके लिए किसी प्रकार का पछतावा ही है । सूर के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि हे उद्धव ! अब हमें यह दृढ विश्वास है कि गोकुल के स्वामी श्री कृष्ण हमारे मन की समस्त चिंता को अवश्य ही दूर करेंगे । यहाँ भक्त की भगवन के प्रति दृढ़ आस्था और विश्वास का भाव व्यक्त हुआ है । 39

 

राग सारंग 

तुम जो कहत सँदेसो आनि।
कहा करौं वा नँदनंदन सों होत नहीं हितहानि॥
जोग-जुगुति किहि काज हमारे जदपि महा सुखखानि?
सने सनेह स्यामसुन्दर के हिलि मिलि कै मन मानि॥
सोहत लोह परसि पारस ज्यों सुबरन बारह बानि।
पुनि वह चोप कहाँ चुम्बक ज्यों लटपटाय लपटानि॥
रूपरहित नीरासा निरगुन निगमहु परत न जानि।
सूरदास कौन बिधि तासों अब कीजै पहिचानि? ॥४०॥

 

इसमें गोपियाँ श्री कृष्ण के प्रेम में अनुरक्त अपने मन में विवशता का वर्णन कर रही हैं । उनके अनुसार यह मन श्री कृष्ण के प्रेम में इतना तन्मय है कि उसे योग की समस्त युक्तियाँ बेकार प्रतीत होती हैं । इस पर इन युक्तियों का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता ।

 

हे उद्धव ! तुम यहाँ आकर योग का सन्देश दे रहे हो लेकिन क्या करें हमारी यह विशेषता है कि हमसे श्री कृष्ण के प्रेम को त्यागते नहीं बनता । यद्यपि तुम्हारी योग – साधना विषयक युक्तियाँ अत्यंत सुखदायिनी हैं लेकिन ये हमारे लिए किस काम की है अर्थात जब इस योग साधना के लिए श्री कृष्ण प्रेम को हमें त्यागना पड़े तो इसकी हमारे लिए क्या उपयोगिता , क्योंकि यह निश्चित बात है कि हम श्री कृष्ण प्रेम को किसी भी प्रकार त्याग नहीं सकतीं । तुम्हें जानना चाहिए कि श्याम सुन्दर के प्रेम में तन्मय हमारे मन ने उनसे हिल मिल कर अपना सब कुछ अर्पित कर दिया है और उनकी भक्ति और प्रेम को स्वीकार कर लिया । अब उसे त्यागना हमारे लिए असंभव है जैसे लोहा जब एक बार पारस पत्थर के स्पर्श से खरे स्वर्ण के रूप में परिणित हो जाता है तो पुनः उसमें वह चाव या उमंग कहाँ शेष रहती है कि चुम्बक से मोहित हो कर लिपट जाये । उसी प्रकार श्री कृष्ण के प्रेम में पगा हमारा यह मन अन्यत्र नहीं जा सकता । यह मनः स्थिति कि परिवर्तित दशा है जिसमें अन्यों के प्रति आकर्षण का स्थान नहीं बचता । तुम्हारा ब्रह्म तो निराकार , निष्काम और गुणातीत है , उसे वेद भी नहीं जान पाते । अतः सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि ऐसे ब्रह्म से किस प्रकार परिचय किया जाये ? ऐसे अगम्य , गुणातीत , निराकार ब्रह्म के रहस्य को किन उपायों से जाना जाये?40

 

राग धनाश्री

हम तौ कान्ह केलि की भूखी।
कैसे निरगुन सुनहिं तिहारो बिरहिनि बिरह-बिदूखी?
कहिए कहा यहौ नहिं जानत काहि जोग है जोग।
पा लागों तुमहीं सों, वा पुर बसत बावरे लोग॥
अंजन, अभरन, चीर, चारु बरु नेकु आप तन कीजै।
दंड, कमंडल, भस्म, अधारी जौ जुवतिन को दीजै॥
सूर देखि दृढ़ता गोपिन की ऊधो यह ब्रत पायो।
कहै ‘कृपानिधि हो कृपाल हो! प्रेमै पढ़न पठायो’॥४१॥

 

इसमें गोपियों की अटल प्रेम भक्ति का निरूपण किया गया है। वस्तुतः गोपियों की ऐसी प्रेम निष्ठा देख कर उद्धव भी उसी रंग में रंग गए।

 

हे उद्धव ! हम सब तो कृष्ण लीला के आनंद को प्राप्त करने के लिए लालायित हैं । इसके अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु की भूख या उत्कट अभिलाषा हमें नहीं है । भला यह तो बताओ कि हम तुम्हारे निर्गुण के गुण को कैसे सुनें ? क्योंकि हम लोग वियोग की ज्वाला में पूर्णतया संतप्त हैं । भला तुमसे क्या कहें जिन्हें यह भी नहीं मालूम कि यह योग साधना किसके लिए है ? तुम इतने अज्ञानी हो कि यह भी नहीं समझते कि क्या हम लोग इस कठिन योग साधना की उपयुक्त पात्री हैं ? उद्धव ! हम सब तुम्हारे पाँव छू कर पूछती हैं अर्थात बड़ी विनयशीलता पूर्वक जानना चाहती हैं कि उस नगर में अर्थात मथुरा में क्या तुम्हारे जैसे ही सभी लोग पागल हैं अर्थात तुम तो पागल हो ही और जिस ने तुम्हें यहाँ योग सन्देश देने हेतु भेजा है अर्थात वे श्री कृष्ण भी पागल ही हैं । हमारी भी तुमसे यह शर्त है कि जैसे तुम हम युवतियों को दंड , कमंडल , राख देने का आग्रह कर रहे हो उसी प्रकार आप भी जरा हम लोगों का अंजन , आभूषण और सुन्दर वस्त्र अपने शरीर पर धारण कर के देखें कि क्या यह अच्छा लगता है ? तात्पर्य यह है कि जैसे योगी पुरुषों के कमंडल , भस्म और अधारी आदि हम स्त्रियों को शोभा नहीं दे सकते उसी प्रकार हम स्त्रियों के श्रंगारिक प्रसाधन आपके शरीर में कैसे शोभा पा सकते हैं ? कहीं पुरुषों का पहनावा स्त्रियों को और स्त्रियों का पहनावा पुरुषों के उपयुक्त हो सकता है ? सूरदास के शब्दों में उद्धव जी गोपियों की ऐसी दृढ़ भक्ति और प्रेम कि ऐसी निष्ठा को देखकर स्वतः अभिभूत हो गए और उन्होंने उनके प्रेम संकल्प एवं व्रत को ग्रहण कर लिया और मन में कहने लगे कि ऐसा प्रतीत होता है कि कृपासागर दयालु कृष्ण ने गोपियों के प्रेम पाठ को पढ़ने के लिए ही मुझे यहाँ भेजा है ।

 

राग धनाश्री 

अँखिया हरि-दरसन की भूखी।
कैसे रहैं रूपरसराची ये बतियाँ सुनि रूखी॥
अवधि गनत इकटक मग जोवत तब एती नहिं झूखी।
अब इन जोग-सँदेसन ऊधो अति अकुलानी दूखी॥
बारक वह मुख फेरि दिखाओ दुहि पय पिवत पतूखी।
सूर सिकत हठि नाव चलाओ ये सरिता हैं सूखी॥४२॥

 

इसमें गोपियों की कृष्ण के प्रति दर्शनाभिलाषा की भावना व्यक्त हुयी है ।

 

हे उद्धव ! हमारी आँखें तो मात्र श्री कृष्ण के दर्शन की भूख से पीड़ित हैं । इनमें एकमात्र उत्कट अभिलाषा श्री कृष्ण के दर्शन के लिए बनी है । भला यह तो बताओ कि जिन आँखों ने निरंतर श्री कृष्ण के सौंदर्य का पान किया , जो सदैव श्री कृष्ण की रूप माधुरी में डूबी रहीं वे अब इसके अभाव में आपकी योग शास्त्र विषयक इन नीरस बातों को सुन कर कैसे जीवित रह सकती हैं ? तुम्हारी इन बातों से उन्हें कैसे संतोष हो सकता है ? जब ये आँखें अपलक श्री कृष्ण के आगमन की अवधि की गणना करती हुयी उनका मार्ग देख रही थीं तब इतनी दुखी नहीं थीं । कारण यह है कि तब श्री कृष्ण के आने की एक प्रबल आशा इनमें बनी हुयी थीं लेकिन अब तो इन्हें इन योग के संदेशों को सुन कर अति कष्ट हुआ और ये घबरा उठी हैं और इन्हें सचमुच श्री कृष्ण के अनागमन की निराशा हो गयी है किन्तु आपसे निवेदन है कि एक बार हमारी इन आँखों को श्री कृष्ण की वही पूर्व मुद्रा पुनः दिखला दीजिये जब वे वन में पत्तों के पात्र में गायों का दूध दुह कर पीते थे । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से आग्रहपूर्वक कहती हैं कि हे उद्धव ! तुम हठ कर के बालू में नाव मत चलाओ क्योंकि ये नदियां अर्थात हम गोपियाँ सूखी हैं । अभिप्राय यह है कि जैसे बालू में नाव नहीं चलायी जा सकती उसी प्रकार योगियों के लिए उपयुक्य यह योग साधना गोपियों को नहीं बताई जा सकती । यह संभव नहीं है ।42

 

राग सारंग

जाय कहौ बूझी कुसलात।
जाके ज्ञान न होय सो मानै कही तिहारी बात॥
कारो नाम, रूप पुनि कारो, कारे अंग सखा सब गात।
जौ पै भले होत कहुँ कारे तौ कत बदलि सुता लै जात॥
हमको जोग, भोग कुबजा को काके हिये समात?
सूरदास सेए सो पति कै पाले जिन्ह तेही पछितात॥४३॥

 

इस पद में गोपियों ने कृष्ण के प्रति उपालम्भ भाव व्यक्त किया है ।

 

हे उद्धव ! तुम कृष्ण से जाकर यह कह देना कि गोपियों ने तुमसे कुशल – क्षेम पूछा है । क्या तुम कुशलतापूर्वक हो ? कुशल पूछने के बाद यह भी कहना कि तुम्हारी कही हुयी बात अर्थात योग सन्देश वही मान सकता है जो अज्ञानी है अर्थात क्या तुम हमें इतना मूर्ख समझते हो जो इस तरह योग और ज्ञान का सन्देश अंगीकार कर लें । कह देना कि तुम्हारा नाम काला है अर्थात कृष्ण है और रूप भी काला है और तुम्हारे मित्रों अक्रूर तथा उद्धव के शरीर भी काले हैं । सत्य बात तो यह है कि यदि काले रंग वाले अच्छे होते तो वसुदेव जी क्यों तुम्हें नन्द जी के यहाँ छोड़ कर बदले में रोहिणी की नवजात पुत्री उठा लाते ? भला यह तो बताओ कि वे हमें योग सन्देश देना चाहते हैं और कुब्जा को भोग विलास में लगाए रहते हैं । उनकी यह बात किसे जँचेगी ? किसे पसंद आएगी ? सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि जिन गोपियों ने जिस कृष्ण की पति के रूप में सेवा की वे भी और जिन्होंने उन्हें पुत्रवत उन्हें पाला पोसा वे नन्द यशोदा भी इनके व्यवहार से अब भी पछ्ता रहे हैं अर्थात काले रंग वाले कृष्ण ने अंततः सबको धोखा दे दिया ।43

 

राग सारंग 

कहाँ लौं कीजै बहुत बड़ाई।
अतिहि अगाध अपार अगोचर मनसा तहाँ न जाई॥
जल बिनु तरँग, भीति बिनु चित्रन, बिन चित ही चतुराई।
अब ब्रज में अनरीति कछू यह ऊधो आनि चलाई॥
रूप न रेख, बदन, बपु जाके संग न सखा सहाई।
ता निर्गुन सों प्रीति निरंतर क्यों निबहै, री माई?
मन चुभि रही माधुरी मूरति रोम रोम अरुझाई।
हौं बलि गई सूर प्रभु ताके जाके स्याम सदा सुखदाई॥४४॥

 

इसमें उद्धव के निर्गुण ब्रह्म के सम्बन्ध में व्यंग्य करती हुयी गोपियाँ परस्पर कह रही हैं कि उद्धव ने तो व्रज में एक नयी रीति चला दी है ।

 

( एक सखी का दूसरे के प्रति कथन ) हे सखी ! उद्धव के निर्गुण ब्रह्म की प्रशंसा कहाँ तक करें । ऐसे ब्रह्म की प्रशंसा करते जी नहीं अघाता ( गोपियाँ उद्धव को ताना मार रही हैं कि उद्धव जिस ब्रह्म का निरूपण कर रहे हैं वह निराधार और अप्रशंसनीय है )। यह ब्रह्म तो ऐसा है जो अतिशय अगाध अनंत है , जो ना तो दिखाई पड़ता है और ना वहां तक इन्द्रियों का राजा मन ही पहुँच पाता है अर्थात वह सब प्रकार से युवतियों के लिए अग्राह्य और अगम्य है । उद्धव जी ने तो ब्रज में आकर एक नयी और विचित्र रीति चलाई है क्योंकि ये जिस ब्रह्म के स्वरूप का निरूपण कर रहे हैं वह तो उसी प्रकार का है जैसे बिना जल के तरंगों का उद्भव , बिना दीवार के चित्रों कि रचना करना और बिना चित्त के चतुराई और कौशल की बात करना । यह रीति सर्वथा निराधार है । हे सखी ! उद्धव तो अपने जिस ब्रह्म की चर्चा कर रहे हैं उसका ना रूप है ना रेखा है ना उसका मुख है ना शरीर है । उसके सखा और सहायक भी कोई नहीं है । फिर उस निर्गुण ब्रह्म से सदैव प्रेम का निर्वाह कैसे किया जा सकता है ? ऐसे ब्रह्म के प्रति हम सब की कैसे अनुरक्ति कैसे अनुरक्ति हो सकती है ? इसके विपरीत हम लोगों के मन में तो श्री कृष्ण की मधुर मूर्ति चुभ रही है और वह रोम – रोम में उलझ गयी है । मन और शरीर के एक – एक रोम में भगवान श्री कृष्ण की मधुर मूर्ति व्याप्त है । हमारा तन मन कृष्णमय है । सूर के शब्दों में सखी का कथन है कि हे सखी ! हम लोग तो उस पर बलिहारी हैं जिसे हमारे कृष्ण सदैव अच्छे लगते हैं । उद्धव से क्या लाभ वे तो हमारे कृष्ण की जगह निराकार ब्रह्मोपासना की रट लगाए हुए हैं ।44

 

राग मलार

काहे को गोपीनाथ कहावत?
जो पै मधुकर कहत हमारे गोकुल काहे न आवत?
सपने की पहिंचानि जानि कै हमहिं कलंक लगावत।
जो पै स्याम कूबरी रीझे सो किन नाम धरावत?
ज्यों गजराज काज के औसर औरै दसन दिखावत।
कहन सुनन को हम हैं ऊधो सूर अंत बिरमावत॥४५॥

 

इसमें गोपियों ने उद्धव से कृष्ण के कार्य – कलाप की तीखे शब्दों में निंदा की है ।

 

हे उद्धव ! वे प्रेम तो कुब्जा से करते हैं और अपने को गोपीनाथ कहते हैं । वे अब क्यों गोपीनाथ कहलाते हैं , यदि वे हमारे कहलाते हैं तो गोकुल क्यों नहीं आते , उनका न आना ही सिद्ध करता है कि वे वस्तुतः हमारे नहीं हैं । वे तो यह कहते हैं कि हमारी और उनकी पहचान स्वप्न जैसी है अर्थात क्षणिक है फिर भी गोपीनाथ नाम धारण कर के हमें कलंकित लज्जित करते हैं । यदि वे कूबरी पर ही सच्चे ह्रदय से अनुरक्त हैं तो खुलकर ‘ कूबरीनाथ ‘ क्यों नहीं कहलवाते ? हमें तो उनकी सभी नीतियां बनावटी प्रतीत होती हैं । यह उनकी दुरंगी चाल है । यह चाल उस हाथी जैसी है जिसके खाने के दांत और हैं और दिखाने के दांत और हैं । सूर के शब्दों में गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! कहने सुनने के लिए दिखाने के लिए तो हम उनकी प्रियतमा हैं लेकिन वे रुकते कहीं और हैं , प्रेम किसी और से करते हैं ।

 

राग मलार 

अब कत सुरति होति है, राजन्?
दिन दस प्रीति करी स्वारथ-हित रहत आपने काजन॥
सबै अयानि भईं सुनि मुरली ठगी कपट की छाजन।
अब मन भयो सिंधु के खग ज्यों फिरि फिरि सरत जहाजन॥
वह नातो टूटो ता दिन तें सुफलकसुत-सँग भाजन।
गोपीनाथ कहाय सूर प्रभु कत मारत हौ लाजन॥४६॥

 

गोपियाँ उद्धव से व्यंग्य पूर्ण शैली में पूछ रही हैं कि अब भी क्या तुम्हारे राजा को मेरी याद आती है क्योंकि अब वे गोपीनाथ नहीं हैं । अब वे राजा हो गए हैं ।

 

हे उद्धव ! अब श्री कृष्ण राजा हो गए हैं । अतः वे हमारी याद क्यों करने लगे । अब तो वे हम सब को अच्छी तरह भूल गए होंगे ? वास्तव में उन्होंने हम लोगों से स्वार्थवश थोड़े समय का प्रेम किया था । अब तो वे अपने राज्य कार्य में लगे रहते होंगे । उनका क्या दोष ? हम लोग उनकी मुरली कि मधुर ध्वनि सुन कर अज्ञानी बन बैठीं और विवेक खो दिया और इस प्रकार उनके कपट वेश में ठगी गयीं । किन्तु अब देखती हूँ कि हम लोगों का मन समुद्र के जहाज कि भांति बार – बार रोकने पर भी आगे बढ़ने का प्रयास करता है । एक मात्र आपकी ही शरण का सहारा लेता है । वह भली प्रकार जनता है कि हमारा उद्धार आप ही करेंगे । उनका पुराना नाता – प्रेम सम्बन्ध तो उसी दिन टूट गया जिस दिन वे अक्रूर के साथ हम लोगों को छोड़ कर भाग गए थे और हम लोगों को धोखा दिया । सूर के शब्दों में कृष्ण के प्रति गोपियों का कथन है कि तुम गोपीनाथ कहलाकर अब क्यों हमें लज्जा से मार रहे हो – क्यों हमें लज्जित कर रहे हो ? अर्थात जब भी कोई तुम्हें गोपीनाथ कह कर याद करता है तो हमें लज्जित होना पड़ता है कि तुम तो अब मथुरापति हो गए हो अब तुम्हें गोपीनाथ से क्या प्रयोजन ?46

 

राग सोरठ

लिखि आई ब्रजनाथ की छाप।
बाँधे फिरत सीस पर ऊधो देखत आवै ताप॥
नूतन रीति नंदनंदन की घरघर दीजत थाप।
हरि आगे कुब्जा अधिकारी, तातें है यह दाप॥
आए कहन जोग अवराधो अबिगत-कथा की जाप।
सूर सँदेसो सुनि नहिं लागै कहौ कौन को पाप? ॥४७॥

 

श्रीकृष्ण द्वारा सम्प्रेषित पत्र उद्धवजी अपने सर की पगड़ी में रखे घूम रहे हैं इसे देख कर गोपियाँ व्यंग्यात्मक शैली में परस्पर कह रही हैं ।

 

गोपियाँ परस्पर कह रही हैं – अरे सखियों ! देखो ब्रजनाथ की मुहर लगी हुयी चिट्ठी आ गयी है । इसे उद्धव जी अपनी पगड़ी में बांधे घूम रहे हैं लेकिन इसे देखते तो हमें ज्वर चढ़ आता है । पीड़ा से समस्त शरीर जलने लगता है । क्या देखती हूँ कि श्री कृष्ण इस नयी रीति को अर्थात योग सन्देश को जो पत्र में लिख कर भेजा है घर – घर में प्रचारित करना चाहते हैं । अब तो श्री कृष्ण के समक्ष कुब्जा अधिकारिणी बन बैठी है इसीलिए उसे अति घमंड हो गया है । लगता है उसी ने श्री कृष्ण की मुहर लगा कर हम लोगों को जलाने के लिए ऐसी चिट्ठी या योग सन्देश उद्धव द्वारा भिजवाई है । अब तो उद्धव जी यहाँ आ कर यही प्रचारित कर रहे हैं की योग की साधना करो और निर्गुण ब्रह्म की गाथा का जाप करो । निर्गुणोपासना में लग जाओ । सूर के शब्दों में गोपियाँ परस्पर कह रही हैं कि भला ऐसे अमांगलिक सन्देश को सुनकर किसे पाप नहीं लगेगा । इसे दूर करने की बात तो दूर रही सुनना भी पाप लगने के तुल्य है । इसलिए कि हम सब कृष्ण को पति के रूप में वरन कर चुकी हैं । अब पतिव्रता धर्म के विरुद्ध अन्य की उपासना करना कैसे संभव है ?

 

राग सारंग

फिरि फिरि कहा सिखावत बात?
प्रातकाल उठि देखत, ऊधो, घर घर माखन खात॥
जाकी बात कहत हौ हमसों सो है हमसों दूरि।
ह्याँ है निकट जसोदानँदन प्रान-सजीवनमूरि॥
बालक संग लये दधि चोरत खात खवावत ड़ोलत।
सूर सीस सुनि चौंकत नावहिं अब काहे न मुख बोलत?॥४८॥

 

उद्धव द्वारा बार – बार योग का सन्देश देने पर गोपियाँ नाराज हो गयी हैं और कहने लगीं कि जिस ब्रह्मोपासना की बात आप कर रहे हैं वह बेकार है क्योंकि यहाँ नित्य हम लोग बालकृष्ण की लीलाओं का सुख लिया करती हैं ।

 

गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! बार – बार हम लोगों को तुम योग की ऐसी शिक्षा क्यों दे रहे हो ? क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि हम लोग प्रातः काल नित्य उठ कर घर – घर श्री कृष्ण को माखन कहते हुए देख रही हैं । हम लोगों के मानस पटल पर श्री कृष्ण के घर – घर से माखन चुरा कर खाने कि मुद्रा अंकित है वह मिटी नहीं है । हे उद्धव ! तुम जिस ब्रह्म कि चर्चा हम लोगों से कर रहे हो वह हम लोगों से काफी दूर है । हम लोगों के मानस पटल पर वह बिकुल भी नहीं धंसता । उसमें हम लोगों की बिलकुल भी अनुरक्ति नहीं है । हमारे निकट तो यहाँ श्री कृष्ण हैं जो हमारे प्राणों को संजीवनी बूटी के सामान सजीवता उत्पन्न करते हैं । आज भी उनका वह स्मृति बिम्ब मानस में है जिसमें वे अपने साथ बालकों को लिए हुए दही चुराकर स्वयं खाते हैं और उन्हें भी खिलाते हुए इधर – उधर घूम रहे हैं । सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! अब हमारी इन बातों को सुन कर चौंकते क्यों हो ? और शर्म से मस्तक क्यों झुका रहे हो ? मुख से क्यों नहीं बोलते हो ? स्तब्ध क्यों हो गए हो ? जब तुम्हें यह विश्वास हो चला है कि सब गोकुल कृष्णमय है और प्रत्येक बृजवासी के मन में श्री कृष्ण की लीलाएं अंकित हैं तो योग की शिक्षा क्यों दे रहे हो ?

 

राग धनाश्री

अपने सगुन गोपालै, माई! यहि बिधि काहे देत?
ऊधो की ये निरगुन बातैं मीठी कैसे लेत।
धर्म, अधर्म कामना सुनावत सुख औ मुक्ति समेत॥
काकी भूख गई मनलाडू सो देखहु चित चेत।
सूर स्याम तजि को भुस फटकै[ मधुप तिहारे हेत? ॥४९॥

 

इस पद में निर्गुण ब्रह्मोपासना की तुलना में सगुन ब्रह्मोपासना को अधिक महत्त्व दिया गया है ।

 

हे सखी !अपने सगुण गोपाल के माधुर्य की मूर्ति श्री कृष्ण को इस प्रकार निर्गुणोपासना के निमित्त कैसे त्यागा जा सकता है ? हम किसी प्रकार भी अपने सगुण गोपाल की भक्ति और प्रेम नहीं दे सकतीं । उद्धव की इन निर्गुण विषयक मीठी चिकनी चुपड़ी बातों को कौन ग्रहण करे ? यद्यपि ये हमें धर्म – अधर्म की कामना के सम्बन्ध में बतला रहे है । धर्म अधर्म के स्वरूप की विवेचना कर रहे हैं और यह समझाते हैं कि निर्गुणोपासना के द्वारा सुख और मोक्ष की प्राप्ति होगी अर्थात इस प्रकार के सुखों का ये लालच तो दे रहे हैं लेकिन हमारे लिए तो यह मन का लड्डू खाना है । क्या मन के लड्डू खाने से किसी की भूख मिटी है? किसी को आनंद मिला है ? अर्थात ऐसी थोथी और काल्पनिक बातों से किसी को वास्तविक आनंद की प्राप्ति हुई है ? किसी की ईश्वर प्राप्ति की भूख और जिज्ञासा शांत हुयी है ? जरा इन बातों को मन में विचार कर के देखो । अंत में भ्रमर अर्थात उद्धव को सम्बोधित करते हुए गोपियाँ कह रही हैं कि हे भ्रमर ! श्री कृष्ण को त्याग कर कौन तुम्हारे लिए निः सार भूसी फटके अर्थात निःसार ब्रह्म से कौन तत्व की प्राप्ति करे? अर्थात जैसे भूसी फटकने से कुछ सार नहीं मिलता उसी प्रकार निर्गुणोपासना से कुछ तत्व नहीं मिलने वाला ।

 

राग सारंग

हमको हरि की कथा सुनाव।
अपनी ज्ञानकथा हो, ऊधो! मथुरा ही लै गाव॥
नागरि नारि भले बूझैंगी अपने वचन सुभाव।
पा लागों, इन बातनि, रे अलि! उनहीं जाय रिझाव॥
सुनि, प्रियसखा स्यामसन्दर के जो पै जिय सति भाव।
हरिमुख अति आरत इन नयननि बारक बहुरि दिखाव॥
जो कोउ कोटि जतन करै, मधुकर, बिरहिनि और सुहाव?
सूरदास मीन को जल बिनु नाहिंन और उपाव॥५०॥

 

इसमें निर्गुणोपासना का खंडन और श्री कृष्ण की मधुर भक्ति और प्रेम तत्व की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है ।

 

हे उद्धव ! हम सब मात्रा श्री कृष्ण की प्रेम कथा सुनना चाहती हैं । यदि आप सुनना चाहें तो यही सुनाएं । आपकी निर्गुण गाथा सुनने को यहाँ कोई उत्सुक नहीं है। इसे आप लौटकर मथुरा ले जाएं जहाँ से इसे ले कर आये हैं अर्थात जिसे कृष्ण और कुब्जा ने हमारे मत्थे मढ़ा है उन्हीं के समक्ष इसका गुणगान करो वहीं इसका स्वागत भी बहुत होगा । वहां की चतुर नारियां जो अपने वचन और सुन्दर स्वभाव के कारण प्रसिद्द हैं इसे अच्छे से समझेंगीं और इस विषय पर भली – भांति वार्ता भी करेंगीं । हे भ्रमर ! तुम्हारी इन बातों को हम प्रणाम करती हैं । इन्हें हमसे दूर रखो । इस से हमारा कोई प्रयोजन नहीं है । तुम इन बातों से उन्हीं को जाकर प्रसन्न करो । वे ही इसके अधिकारी भी हैं । हे कृष्ण के प्रिय मित्र ! यदि हम लोगों के प्रति तुम्हारी थोड़ी भी सहानुभूति है , यदि तुम्हे हमारी पीड़ा का तनिक भी आभास तो हमारे इन व्यततीत और कृष्ण दर्शन के लिए लालायित नेत्रों को पुनः एक बार श्री कृष्ण के मुख सौंदर्य का दर्शन करा दो । भला हे भ्रमर ! हे उद्धव ! यदि कोई कितना ही उपाय क्यों न करें लेकिन वियोगिनियों को क्या पति दर्शन के बिना कभी सुख मिल सकता है ? क्या पति के अभाव में उन्हें अन्य वस्तुएं अच्छी लग सकती हैं ? सूरदास के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं के हे उद्धव ! मछलियों के लिए जल के बिना जीवित रहने का कोई अन्य उपाय ही नहीं है । जैसे बिना जल के मछली जीवित नहीं रह सकती उसी प्रकार बिना कृष्ण दर्शन के हम सब किसी भी प्रकार अन्य उपायों अपनी जीवन रक्षा नहीं कर सकतीं ।

 

श्री कृष्ण का वचन उद्धव-प्रति

राग कान्हरो

अलि हो ! कैसे कहौ हरि के रूप-रसहि ?
मेरे तन में भेद बहुत बिधि रसना न जानै नयन की दसहि।।
जिन देखे तो आहि बचन बिनु जिन्हैं बजन दरसन न तिसहि।
बिन बानी भरि उमगि प्रेमजल सुमिरि वा सगुन जसहि।।
बार-बार पछितात यहै मन कहा करै जो बिधि न बसहिं।
सूरदास अंगन की यह गति को समुझावै या छपद पंसुहि।।51

 

यहां इस पद में गोपियाँ श्री कृष्ण के ध्यान में मग्न हैं लेकिन वे श्री कृष्ण के सुंदर रस रूपी, रूप का बखान करने में असमर्थ हैं अर्थात बता नहीं पा रहे हैं।

 

यहाँ पर गोपी उद्धव को अलि अर्थात भँवरे के रूप में सम्बोधित करते हुए कह रही है कि हे अलि  ! मैं कृष्ण के रूप, रस, श्रृंगार का कैसे वर्णन करूं।  इस शरीर के जो विभिन्न अवयव हैं उनमें परस्पर भेद है अर्थात अंतर् है। मेरी जिह्वा मेरे नयनों की दशा को नहीं जानती और न ही वह उस दशा का वर्णन कर सकती हैं कि हे उद्धव ! एक अंग एक ही कार्य कर सकता है । नयनों ने कृष्ण के रूप माधुर्य के दर्शन तो किये हैं किन्तु वे वचनों के अभाव में उसके वर्णन करने में असमर्थ हैं और जो जिह्वा बोलने में अथवा वर्णन करने में समर्थ है वो नेत्र के अभाव में देखने में अथवा अनुभव करने में असमर्थ हैं । नेत्र बोल नहीं पाते इसलिए कृष्ण के सगुण स्वरूप और उसके यश का स्मरण कर प्रेम के आवेग में उमड़ते हुए आंसुओं से भर उठते हैं। अपनी इस विवशता के कारण हमारा मन बार-बार पश्चाताप से घिर उठता है । जब विधाता ही बस में नहीं है तो ये मन कर भी क्या सकता है। हमारे भाग्य में प्रियतम कृष्ण से वियोग दशा लिखी थी अब उसे हम भुगत रहे हैं। सूरदास जी कह रहे हैं कि अपने शरीर के विभिन्न अंगों की विवशता से एक मुँह और छः पैरों वाले भौंरे को कौन समझाये यह प्रेम के महत्व तथा प्रभाव को नहीं समझ पाता यह मूर्ख है। अतः इसको समझाना व्यर्थ है।

 

राग सारंग

हमारे हरि हारिल की लकरी।
मन बच क्रम नंदनंदन सों उर यह दृढ करि पकरी।।
जागत, सोवत, सपने ‘सौंतुख कान्ह-कान्ह जक री।
सुनतहि जोग लगत ऐसो अलि ! ज्यों करुई ककरी।।
सोई व्याधि हमें लै आए देखी सुनी न करी।
यह तौ सूर तिन्हैं लै दीजै जिनके मन चकरी।। 52

 

प्रस्तुत पद में गोपियाँ उद्धव को कह रही हैं कि कृष्ण उनके लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान बन गए हैं।

 

जिस प्रकार हारिल पक्षी कहीं भी हो वो किसी भी दशा में हो वह सहारे के लिए अपने पंजे में किसी न किसी लकड़ी को अथवा किसी तिनके को पकड़े रहता है उसी प्रकार हम गोपियाँ श्री कृष्ण के ध्यान में निमग्न रहती हैं। हमने अपने मन, वचन और कर्म से श्री कृष्ण रूपी लकड़ी को अपने हृदय में दृढ़ करके पकड़ लिया है अर्थात श्री कृष्ण का रूप सौंदर्य हमारे हृदय में गहराई तक बैठ गया है और यह अब जीवन का एक अंग बन गया है। हमारा मन तो जागते-सोते स्वप्न अवस्था में प्रत्यक्ष रूप में अर्थात सभी दशाओं में कृष्ण की नाम की रट लगाता रहता है। श्री कृष्ण का स्मरण ही एक मात्र कार्य रह गया है हमारे लिए जिसे हमारा मन सभी अवस्थाओं में करता है। हे भ्रमर तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म संबंधी ज्ञान उपदेश की बातें सुनकर हमें ऐसे लगता है जैसे कोई कड़वी ककड़ी हमने मुंह में रख ली हो। गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! इस निर्गुण ब्रह्म के रूप में तुम हमारे लिए ऐसा रोग ले आये हो जिसे न तो हमने कभी देखा है न सुना है न कभी उसका भोग किया है । इसीलिए इस योग ज्ञान रूपी बीमारी को तुम उन लोगों को दो जिनका मन चकरी के समान अथवा चकरी के समान सदैव चंचल रहते हैं। वे इसका आदर करेंगे। गोपियाँ कहना हैं की उनका हृदय तो कृष्ण प्रेम में दृढ एवं स्थिर है उनके हृदय में योग ज्ञान और निर्गुण ब्रह्म संबंधी बातों के लिए कोई स्थान नहीं। उद्धव के योग बातें वहीं लोग स्वीकार कर सकते हैं जो अपनी आस्था में दृढ नहीं होते । भावावेश में अपनी आस्था और विशवास को बदलते रहते हैं और इसीलिए ऐसे अस्थिर चित्त वालों के लिए ही योग का उपदेश उचित है।

 

राग सारंग

फिरि-फिरि कहा सिखावत मौन ?
दुसह बचन अति यों लागत उर ज्यों जारे पर लौन।।
सिंगी, भस्म, त्वचामृग, मुद्रा अरु अबरोधन पौन।
हम अबला अहीर, सठ मधुकर ! घर बन जानै कौन।।
यह मत लै तिनहीं उपदेसौ जिन्हैं आजु सब सोहत।
सूर आज लौं सुनी न देखी पोत सूतरी पोहत।। 53

 

प्रस्तुत पद्य में उद्धव को गोपियाँ फटकार लगाते हुए उसे मूर्ख कहते हुए कह रहे हैं कि तुम जले में नमक डाल रहे हो।

 

गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव तुम हमें बार-बार मौन साधने का उपदेश क्यों दे रहे हो कम से कम तुम हमें आपना दुःख तो कह लेने दो। हे उद्धव, हे भ्रमर तुम्हारी ये योग साधना रूपी असहनीय योग के वचन इस प्रकार दुःख दे रहे हैं जैसे जले पर नमक छिड़क दिया गया हो। कवि कहना चाहते हैं कि गोपियाँ कृष्ण के वियोग में पहले ही दुःखी और घायल हैं ऊपर से उद्धव उन्हें क्रृष्ण को त्याग कर ब्रह्म  प्राप्ति के लिए योग साधना का उपदेश दे रहें हैं ऐसा लगता है जैसे जले पर नमक छिड़क कर घायल को और अधिक कष्ट दिया जा रहा हो। हे उद्धव ! तुम हमसे, सिंगी, भभूत, मृग छाला और मुद्रा धारण करके प्राणायाम की साधना करने को कहते हो किन्तु हे मूर्ख भ्रमर ! क्या तुमने कभी यह सोचा है कि हम अबला अहीर नारियाँ हैं । हमारे लिए ये किस प्रकार सम्भव है कि हम तुम्हारे कठिन योग साधना से प्राप्त निर्गुण ब्रह्म को अपना ले योग साधना तो वन में रहकर अपनाई जाती हैं । हम तो न तो घर को त्याग सकती हैं और न ही अपने घर को वन के समान निर्जन कर सकती हैं और यह असम्भव है क्योकिं हमारे घरों में कृष्ण संबंधी पुरानी यादें समाई हुई हैं जिन्हें हमें भुलाना पड़ेगा और यह हमारे लिए सम्भव नहीं हैं और इसलिए तुम्हारे लिए यही उचित है कि तुम अपना उपदेश उन लोगों के पास ले जाओं जिन्हें आजकल यह करना शोभा देता है। कवि कहना चाहता है कि यह योगसाधना का उपदेश उनके लिए नहीं बल्कि कुब्जा के लिए उचित है क्योंकि वह कृष्ण के निकट रह कर सभी प्रकार से समर्थ और प्रसन्न है। जो अनुराग में रत है उसके लिए योग साधना का उपदेश उचित है । हम तो पहले से ही वैराग्य का जीवन व्यतीत कर रहीं हैं। इस योग साधना के उपदेश का वास्तव में उस कुब्जा को अधिक आवश्यता है जो श्री कृष्ण के साथ आनंद में लिप्त है और अंत में गोपियाँ कहती हैं कि हमने आज तक किसी भी व्यक्ति को मोती में सुतली फिरोते हुए नहीं देखा है। इस प्रकार यह कार्य असम्भव है । तुम हमें योगसाधना के द्वारा निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त करने का जो उपदेश देते हो वह भी इसी प्रकार का असम्भव कार्य है और तम्हें इस कार्य में सफलता नहीं मिल सकती।

 

राग जैतश्री

प्रेमरहित यह जोग कौन काज गायो ?
दीनन सों निठुर बचन कहे कहा पायो ?
नयनन निज कमलनयन सुंदर मुख हेरो।
मूँदन ते नयन कहत कौन ज्ञान तेरो ?
तामें कहु मधुकर ! हम कहाँ लैन जाहीं।
जामें प्रिय प्राणनाथ नंदनंदन नाहीं ?
जिनके तुम सखा साधु बातें कहु तिनकी।
जीवैं सुनि स्यामकथा दासी हम जिनकी।।
निरगुन अविनासी गुन आनि भाखौ।
सूरदास जिय कै जिय कहाँ कान्ह राखौ ?।।54

 

अपनी वियोग स्थिति का वर्णनं बड़े ही मार्मिक ढंग से गोपियाँ कर रहीं हैं।

 

गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! तुमने नीरस योग के गीतों को हमारे सामने क्यों गाया ? इनकी यहाँ क्या आवश्यकता है? उद्धव इनमें प्रेम का अभाव है और इसलिए ये हमारे लिए त्यक्त हैं। हे उद्धव ! बताओ हम अबलाओं अर्थात विरहणि नारियों के सम्मुख, हम दुखियों के सम्मुख इस प्रकार की कठोर बातें कहकर तुम्हें क्या मिला? हमारे इन नयनों ने कमल नेत्रों वाले सुंदर मनमोहक सुंदर कृष्ण के मुंह के दर्शन किये हैं। ये तुम्हारा किस प्रकार का ज्ञान है कैसा विवेक है कि तुम इन नेत्रों को बंद करके और निर्गुण ब्रम्ह की साधना करने को कहते हो। हम अपने नेत्र बंद करके तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म के पीछे क्यों भटकती रहें? हे उद्धव हमें बताइये कि आपकी इस योग साधना को किस लालसा से अपनाये? क्योंकि हम जानती हैं कि इससे हासिल कुछ नहीं होने वाला और इसमें नंदनंदन कृष्ण की भी हानि है। क्योंकि उन्हें त्यागकर ही इसे अपनाना होगा और इसलिए तुम्हारी यह साधना निरर्थक है। हे उद्धव ! हमें तो उन्हीं कृष्ण की बातें सुनाओ जिनके तुम सच्चे मित्र हो और हम उनकी दासी और सेविकाएँ हैं। उन श्याम की कथा और रसभरी हुई बातें सुनकर हम जी उठेंगी ।हमें प्राण मिल जाएंगे और हमारा विरह भी जाता रहेगा लेकिन तुम उस कृष्ण की बातें न करके किसी निर्गुण अविनाशी ब्रह्म के विषय में कुछ कहकर इस प्रकार की बातें करते हो , अन्यान्य बातें करते हो । ऐसी बातें करते हुए न जाने तुम हमारे प्राणों के प्राण कृष्ण को कहाँ छुपाकर रखे हो उनके बारे में हमें कुछ नहीं बताते।

 

राम केदारो

जनि चालो, अलि, बात पराई।
ना कोउ कहै सुनै या ब्रज में नइ कीरति सब जाति हिंराई।।
बूझैं समाचार मुख ऊधो कुल की सब आरति बिसराई।
भले संग बसि भई भली मति, भले मेल पहिचान कराई।।
सुंदर कथा कटुक सी लागति उपजल उर उपदेश खराई।
उलटी नाव सूर के प्रभु को बहे जात माँगत उतराई।।55

 

हे उद्धव ! यहाँ दूसरों की चर्चा मत करें । हम एक मात्र श्री कृष्ण की प्रेम कथा सुन ना पसंद करते हैं। तुम्हारी इस चर्चा को ( योग साधना की इन बातों को ) ना कोई यहाँ पसंद करता है और ना सुनता ही है – इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि अभी तक श्री कृष्ण के मित्र के रूप में तुम्हें जो नव कीर्ति मिली है ( सबों ने तुम्हे सम्मानित किया है ) वह इन योग कि बातों से नष्ट होती जा रही है । तुम्हारी इन बातों से लोग तुम्हारे विरुद्ध होते जा रहे हैं । हे उद्धव ! हम तो तुम्हारे मुख से जानना चाहते हैं कि क्या श्री कृष्ण ने अपने वंश और परिवार की प्रतिष्ठा की पीड़ा को सर्वथा भुला दिया ( प्रयोजन यह है कि कुबरी से सम्बन्ध स्थापित करने के कारण उनके वंश कि प्रतिष्ठा घटी है और लोगों को बड़ी पीड़ा हुई है । श्री कृष्ण को मथुरा में भले लोगों के साथ रहने से अच्छी बुद्धि मिली है ( विपरीत लक्षण से अर्थ यह होगा कि मथुरा निवासियों कि धूर्तता में फंसकर इनकी भी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है ) और ऐसी बुद्धि को पाकर उन्होंने तुम्हें यहाँ माध्यम बनाकर भेजा है । क्या करें आपकी योग विषयक कथा बहुत सुन्दर है , लेकिन हमें तो वह कड़वी ( अरुचिकर ) प्रतीत होती है ( मनः स्थिति कि विषमता के कारण दूसरों कि बातों का बुरा लग्न स्वाभिक है ) आप का उपदेश ( निर्गुण ब्रह्मोपासना कि चर्चा ) हमारे ह्रदय को खरा ( माधुर्य रहित ) प्रतीत होता है । ( आपके शुष्क उपदेशों में किसी भी प्रकार की सरसता और आकर्षण नहीं है ) . सूर के शब्दों में उद्धव से गोपियों का कथा है कि हे उद्धव ! श्री कृष्ण का उल्टा न्याय ( न्याय विरुद्ध बातें ) तो देखिये , बेचारे जो नाव के पलट जाने से पानी की धारा में एक ओर बहे जा रहे हैं ( उस प्रवाह से उनकी रक्षा ना कर के ) उनसे इसके विपरीत नाव का किराया माँगा जा रहा है अर्थात एक ओर गोपियाँ जहाँ वियोग की पीड़ा से जल रही हैं वहीँ दूसरी ओर उनके पास यह योग का सन्देश भिजवाया है – धन्य है उनका न्याय

 

राग मलार

याकी सीख सुनै ब्रज को, रे ?
जाकी रहनि कहनि अनमिल, अलि, कहत समुझि अति थोरे।।
आपुन पद-मकरंद सुधारस, हृदय रहत नित बोर।
हमसों कहत बिरस समझौ, है गगन कूप खनि खोरे।।
घान को गाँव पयार ते जानौ ज्ञान विषयरस भोरे।
सूर दो बहुत कहे न रहै रस गूलर को फल फोरे।।56

 

प्रस्तुत पद में उद्धव की कथनी और करनी को स्पष्ट किया गया है।

 

क्योंकि योग सधना संबंधी निर्गुण ब्रह्म का उपदेश यहाँ ब्रज में कौन सुनेगा जिनके रहन सहन और व्यवहार में अर्थात कथनी और करनी में इतना विरोध रहता हो उनकी बातें यहाँ कोई भी सुनना पसंद नही करेगा। हे उद्धव!  तुम स्वयं तो श्री कृष्ण के चरण कमल रूपी मकरंद रूपी अमृत में सदैव अपने हृदय को डुबोये रहते हो और हमसे कहते हो कि उस कृष्ण को रस हीन समझो नीरस समझो खुद तो रस में लीन रहते हो और हमें कृष्ण को रसीम समझने को कहते हो उसी प्रकार असम्भव है जिस प्रकार आकाश में कुआँ खोदकर उसके जल में स्नान करने का प्रयत्न करना। धान के गाँव का परिचय उसके चारों ओर फैले पुआल धान के भूसे से ही प्राप्त हो जाता है । उसी प्रकार तुम्हें देखकर हमें यही लगता है कि तुम स्वयं तो कृष्ण भक्त हो क्योंकि तुम स्वयं उनके चरणों में अनुराग रखते हो और बावले बने हुए हो और फिर क्या यह तुम्हारे लिए उचित है कि हम जैसी जो विरहणी जो बालाएँ हैं उन्हें तुम कृष्ण से विमुख होने का उपदेश देते हो। तुम्हारी कथनी और करनी में स्पष्ट अंतर् है और इसलिए उचित यही है कि तुम हमसे इस विषय में और अधिक चर्चा न करो। गूलर का फल फोड़ने से जो स्थिति उतपन्न होती है वह स्थिति उतपन्न हो जाएगी और इसीलिये इस मामले में इस संबंध में हमसे अधिक बातें मत करो। गूलर का फल उपर से अत्यंत सुंदर प्रतीत होता है किन्तु उसे फोड़ने पर मरे कीड़े को देखकर विरक्ति उत्पन्न हो जाती है और इसलिए तुम अपनी जो बातें हैं उन्हें गुप्त ही रहने दो । हम तुम्हारी जो वास्तविकता है उसे जान रही हैं। इसे तुम यदि नहीं खुलवाओगे तो तुम्हारे लिए अच्छा होगा उचित होगा।

 

राग मलार 

निरख अंक स्यामसुंदर के बारबार लावति छाती।
लोचन-जल कागद-मिसि मिलि कै है गई स्याम स्याम की पाती।।
गोकुल बसत संग गिरिधर के कबहुँ बयारि लगी नहिं ताती।
तब की कथा कहा कहौं, ऊधो, जब हम बेनुनाद सुनि जाती।।
हरि के लाड़ गनति नहिं काहू निसिदिन सुदिन रासरसमाती।
प्राननाथ तुम कब धौं मिलोगे सूरदास प्रभु बालसँघाती।।57

 

गोपियाँ उस पत्र का चर्चा कर रहीं हैं जिसमें श्री कृष्ण ने अपना संदेश भिजवाया था।

 

उद्धव के हाथों कृष्ण की चिठ्ठी को पाकर वे अत्यंत भाव विभोर हो गई थी उसी समय की स्थिति का वर्णन करते हुए सूरदास जी कहते हैं कि कृष्ण के पत्र में लिखे उनके अक्षरों को देख देखकर गोपियाँ बार-बार उस पत्र को अपने हृदय से लगाने लगी अपनी छाती से लगाने लगी और प्रेमावेश के कारण उनके नेत्रों में आँसु आ गए और आँखों से जब आँसू बह रहे हैं तो स्याम के द्वारा जो चिट्ठी भेजी गई है वह भीग जाती है और नेत्रों के जल से कागज पर जो लिखा हुआ है उसकी स्याही और नेत्रों का जल आपस में मिल जाने से सारे कागज में स्याही फ़ैल जाती है और उनकी पूरी चिट्ठी काली हो जाती है स्याम अर्थात कृष्ण की पाती है इसलिए काली हो जाती है । इस पत्र को निहारते ही गोपियाँ की पूर्व काल की स्मृतियाँ जो है वह साकार हो उठती हैं। जब गोकुल में हम श्री कृष्ण के साथ रहा करती थीं तो हमें कभी वायु की गर्माहट नहीं लगी गोपियाँ कहना चाहती हैं कि हमें किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं हुआ। हमें कोई भी विपत्ती नहीं आई। हे उद्धव! हम उस समय की क्या चर्चा तुमसे करें जब हम कृष्ण की मुरली की मधुर ध्वनि सुनकर उनके पास वन में दौड़ी चली जाती थीं और अनेक प्रकार की क्रीड़ाएं उनके साथ किया करती थीं ।हम कृष्ण के प्रेम में अनेक प्रकार की रास क्रीड़ाएं किया करते थे और उससे आनंदित हुआ करते थे। कृष्ण के प्रेम को पाकर हम इतनी गर्वित होती थीं कि अपने सम्मुख किसी को कुछ भी नहीं समझती थीं और इस प्रकार पुरानी बातें याद करके और गोपियाँ अत्यंत भाव विभोर हो गई हैं और कृष्ण को पुकार रहीं हैं। कृष्ण को कहती हैं कि हे प्राणनाथ ! हे बचपन के साथी ! आप हमें कब मिलेंगे कब हमें दर्शन देंगे और कब आपका और हमारा मिलन हो सकेगा।

 

राग मारू

मोहिं अलि दुहूँ भाँति फल होत।
तब रस-अधर लेति मुरली अब भई कूबरी सौत।।
तुम जो जोगमत सिखवन आए भस्म चढ़ावन अंग।
इत बिरहिन मैं कहुँ कोउ देखी सुमन गुहाये मंग।
कानन मुद्रा पहिरि मेखली धरे जटा आधारी।।
यहाँ तरल तरिवन कहैं देखे अरु तनसुख की सारी।।
परम् बियोगिन रटति रैन दिन धरि मनमोहन-ध्यान।
तुम तों चलो बेगि मधुबन को जहाँ-जहाँ जोग को ज्ञान।
निसिदिन जीजतु है या ब्रज में देखि मनोहर रूप।
सूर जोग लै घर-घर डोली, लेहु लेहु धरि सूप।।58

 

गोपियाँ अपने भाग्य को दोष देती हुई कह रही हैं।

 

गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! हे भ्रमर ! हमें तो दोनों ही अवस्थाओं में चाहें वो कृष्ण का सामीप्य हो या आज जब हम उनसे दूर हैं इन दोनों ही अवस्थाओं में हमें एक ही जैसा फल मिला है। जब कृष्ण हमारे निकट थे तब मुरली उनके होठों पर हमेशा सजी रहती थी और वह मुरली ही उनके अधरों का पान किया करती थी। उनकी होठों से लगी रहती थी और इस अमृत से हम वंचित थे और आज वह कुबरी, वह कुब्जा हमारी सौत बन गई है। आज मुरली का स्थान उस कुब्जा ने ले लिया है और वह कुब्जा कृष्ण के सामीप्य का लाभ उठा रही है। तुम हम विरहणियों को योग साधना के द्वारा प्राप्त निर्गुण ब्रह्म का उपदेश देने के लिए आये हो और चाहते हो कि हम अपने शरीर पर भस्म का लेप कर लें। क्या तुमने कभी किसी गोपी को अपने मांग में फूल चढ़ाये देखा है ? तुम हमें कह रहे की हम अपने कानों में मुद्रा पहन कर नुज की करधनी जटा जूट और अधारी धारण करें। मुझे एक बात बताओ क्या तुमने हम में से किसी को अपने कानों में कर्ण-फूल या तनसुक कपड़े से बनाई हुई साड़ी धारण किये हुए देखा है ? हम तो कृष्ण के प्रेम के विरह में संतप्त हैं और हम तो पहले ही शरीरिक साज सज्जा और शृंगार साधन को छोड़ दिया है और हम तो पहले से ही योगिनी बनी हुई हैं। हे उद्धव ! उचित यही होगा कि तुम शीघ्र ही मथुरा नगरी लौट जाओ क्योंकि वहां तुम्हें तुम्हारे इस योग के अनेक पारखी मिलेंगे और इसलिए वहीं तुम्हारे इस योग का आदर सम्मान हो पायेगा । हम तो रात दिन कृष्ण के मनोहर रूप को देखकर और स्मरण करके जीवित रही हैं। हे उद्धव ! तुम अपने इस योग को व्यर्थ ही लादे हुए घर-घर घूम रहे हों अपना समय बर्बाद कर रहे हो क्योकि यहां तुम्हारे इस योग का कोई ग्राहक नहीं है और इसीलिए तुम वहीं काम कर रहे हो जिस प्रकार कोई व्यापारी अपने ग्राहक से अपने माल को भली भाँती छान-फटक कर खरीदने का आग्रह करता है लेकिन तुम चाहे जितना भी प्रत्यन कर लो हम तुम्हें विश्वास दिलाते हो कि तुम्हारी इस बेकार की चीज का यहां खरीददार नहीं मिलेगा। इस ब्रज में इसकी कोई उपयोगिता नहीं है इसलिए तुम इसे लेकर के मथुरा चले जाओ। वहाँ इसके पारखी हैं और तुम उन्हीं को जाकर के यह ज्ञान योग की शिक्षा देना।

राग सारंग

अपनी सी कठिन करत मन निसिदिन।
कहि कहि कथा, मधुप, समुझावति तदपि न रहत नंदनंदन बिन।।
बरजत श्रवन सँदेस, नयन जल, मुख बतियां कछु और चलावत।
बहुत भांति चित धरत निठुरता सब तजि और यहै जिय आवत।।
कोटि स्वर्ग सम सुख अनुमानत हरि-समीप समता नहिं पावत।
थकित सिंधु-नौका खग ज्यों फिरि फिरि फेर वहै गुन गावत।।
जे बासना न बिदरत अंतर तेइ-तेइ अधिक अनूअर दाहत।
सूरदास परिहरि न सकत तन बारक बहुरि मिल्यों है चाहत।।60

 

इस पद्यांश में सूरदास जी ने गोपियों की विरह व्यथा के कारण जो स्थिति उत्पन्न हुई है और विरह के कारण उनसे मन और शरीर में किस प्रकार सामंजस्य नही है उसको इस पद के माध्यम से बताया है।

 

गोपियाँ उद्धव से अपनी विवशता का वर्णन करते हुए कहती हैं कि हे उद्धव ! हम रात दिन अपने मन को अपने समान कठोर बनाये रखने का भरसक प्रत्यन करती रहती हैं। हे मधुप ! हम अपने इस मन को खूब समझाने का प्रयत्न करती हैं। अनेक प्रकार की कथाएँ कहती हैं ताकि यह कृष्ण से दूर हो जाए किन्तु यह चंचल मन हमारे सभी प्रयत्नों को निष्फल कर देता है। हम अपने कानों को कृष्ण का संदेश सुनने से रोकती हैं ताकि उनकी याद न आये और उनकी याद आकर आँखों में आँसू न आये इसके लिए हम कृष्ण के अलावा अन्य विषयों पर बात- चीत करती हैं । हम इस निष्ठुर मन को अनेक प्रकार से कठोर और दृढ़ बनाने का प्रयत्न करती हैं लेकिन अन्य सभी बातों को छोड़कर हमारे हृदय कृष्ण के सानिध्य से जो सुख की अनुभूति करते हैं उसकी तुलना में करोड़ों स्वर्गों से प्राप्त सुख भी कुछ नहीं है अर्थात कृष्ण का सानिध्य और उससे प्राप्त सुख हमारे लिए श्रेष्ठ है। आगे गोपियाँ कहती हैं कि हमारा मन जो समुद्र में चलने वाली नौका होती है उसमें बैठे हुए उस थके हुए पक्षी के समान है। जो बार-बार उड़कर इधर-उधर जाने का प्रयास करता है लेकिन उसे कोई अन्य स्थान नहीं मिलता। अन्य कोई आसरा नहीं मिलता तो वह थक वापस जहाज पर ही वापस लौट लाता है। हमारा मन भी उसी प्रकार क्षण भर के लिए अन्य बातों में आकर्षण ढूंढने का प्रयत्न करता है किन्तु जब वहाँ उसे कोई सुख प्राप्त नहीं होता तो बार-बार लौटकर कृष्ण के ही गुण गाने लगता है। हमारा हृदय कृष्ण के वियोग से अनवरत दग्ध रहता है- दुखी रहता है। हम अपने शरीर को त्यागना नही चाहती क्योंकि यह शरीर जो है वह हृदय से कृष्ण के मिलने की आस लगाए हुए वियोग सुख की अनुभूति रखता है। हमारा यह हृदय दृढ़ नहीं हो पाता वह प्राणों को धारण किये हुए रहता है।

 

 

 

 

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