Surdas Bhramar Geet

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Surdas Bhramar Geet

 

 

 

राग धनाश्री

रहु रे, मधुकर ! मधुमतवारे !
कहा करौं निर्गुन लै कै हौं जीवहु कान्ह हमारे।।
लोटत नीच परागपंग में पचत, न आपु सम्हारे।
बारंबार सरक मदिरा की अपरस कहा उघारे।।
तुम जानत हमहूँ वैसी हैं जैसे कुसुम तिहारे।
घरी पहर सबको बिलमावत जेते आवत कारे।।
सुन्दरस्याम को सर्बवस अप्र्यो अब कापै हम लेहिं उधारे।।61

 

इसमें गोपियों की वासना रहित अनविरल प्रेम व्यंजना की प्रधानता है । वस्तुतः श्री कृष्ण के प्रति गोपियों का प्रेम उनके सतीत्व और दृढ़ता का बोधक है । यहाँ भ्रमर रूप उद्धव की चंचल वृत्ति का गोपियाँ उपहास कर रही हैं । इसके साथ ही सूर ने इस पद में उद्धव को एक मद्यप के रूप में प्रस्तुत किया है ।

 

रे भ्रमर रूप मद्यप ! ठहर जा ! ज्यादा मत बोल ! आशय यह है कि मकरंद रूप मदिरा के नशे में मतवाले हो रहे हो । हे उद्धव ! ब्रह्म ज्ञान के मद में तुम्हारा विवेक खो गया है , अतः चुप रहो । हम तुम्हारा निर्गुण अर्थात गुणहीन और बेकार ब्रह्म लेकर क्या करें । तुम्हारे निर्गुण ब्रह्मोपासना से हमारे किस प्रयोजन की सिद्धि होगी अर्थात हम सब सती स्त्रियां हैं अतः पर पुरुष अर्थात तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म से कैसे सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं ? हमारे श्री कृष्ण चिरंजीवी रहे । उनके रहते हमारा अन्यों से कैसे प्रेम हो सकता है ? हे नीच मद्यप भ्रमर ! तुम तो इतने विवेकहीन हो गए हो कि पराग के कीचड़ में लोट रहे हो जैसे शराबी जब शराब के नशे में धुत रहता है तो उसका समस्त विवेक खो जाता है , और वह गन्दी नालियों के कीचड़ में लौटने लगता है उसी प्रकार तुम अपनी गिरती हुयी मर्यादा को संभाल नहीं पा रहे हो और  बर्बाद हो रहे हो । तुम तो बार – बार शराब की लत में पड़ कर – शराब के नशे में मगन हो कर अपनी गुप्त बात भी खोल रहे हो , इस से क्या लाभ ? शराबी शराब के नशे में अपनी गुप्त बात भी प्रकट कर देता है । उद्धव के पक्ष में इसकी अभीष्ट व्यंजना यह होगी कि निर्गुण ज्ञान के गर्व में तुम उस स्पर्श हीन ब्रह्म के महत्त्व को क्यों उद्घाटित कर रहे हो उस से क्या लाभ होगा ? उस का प्रभाव हम लोगों पर किसी प्रकार भी नहीं पड़ेगा । तुम समझते हो कि जैसे तुम्हारे पुष्प हैं , वैसे क्या हम सब भी हैं अर्थात तुम जिन पुष्पों से प्रेम करते हो उनका क्या चारित्रिक स्तर है ? वे सब चरित्रहीन स्त्रियों के समान हैं किन्तु हम सबका प्रेम एकमात्र श्री कृष्ण से ही है , दूसरे के लिए कोई स्थान नहीं है । गोपियों का प्रयोजन है कि तुम मथुरा की जिन नारियों से प्रेम करते हो विशेष कर कुब्जा से वे व्यभिचारिणी तुल्य हैं उनके प्रेम में एकनिष्ठ का भाव नहीं है । वे सब तो जितने काले भ्रमर उनके पास आते हैं सब का थोड़े समय के लिए स्वागत करती हैं । प्रयोजन ये है कि जिस प्रकार पुष्प सभी भ्रमरों को स्थान देते हैं और वहां भ्रमरों को थोड़ी देर के लिए आराम मिलता है उसी प्रकार कुब्जा तथा मथुरा की चपल नारियां सब श्याम वर्ण वालों को ( श्री कृष्ण और उद्धव ) वारांगना की भांति अपने यहाँ ठहराते हैं लेकिन हमारे लिए तो एकमात्र सुन्दर कमल नेत्र नन्द और यशोदा के प्रिय पुत्र श्री कृष्ण ही हैं – उन्हीं की शरण में हैं और उनके लिए हमने अपना सब कुछ अर्पित कर दिया । अब दूसरा मन उधार में किस से ले जो तुम्हारे ब्रह्म को भेंट करें । यहाँ गोपियों की अनन्यता का भाव व्यक्त हुआ है ।

 

राग बिलावल

काहे को रोकत मारग सूधो ?
सुनहु मधुप ! निर्गुन-कंटक तें राजपंथ क्यों रुधो ?
कै तुम सिखै पाठए कुब्जा, कै कही स्मामधन जू धौं ?
बेद पुरान सुमृति सब ढूँढ़ौ जुवतिन जोग कहूँ घौं ?
ताको कहा परेखो कीजै जानत छाछ न दूधौ।
सूर मूर अक्रूर गए लै ब्याज निबेररत ऊधौ।।62

 

गोपियाँ उद्धव के द्वारा बार-बार योग और निर्गुण ब्रह्म का उपदेश देकर प्रेम और सगुणोपासना के सरल और सीधे मार्ग को छोड़कर कंटकपूर्ण टेढ़े मेढ़े योग और निर्गुणोपासना के दुर्गम मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करने पर खीज का प्रदर्शन करते हुए कहती है या कर रही हैं।

 

अपनी खीज का प्रदर्शन करते हुए गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! तुम हमारे सीधे-साधे सरल प्रेम मार्ग में बाधा क्यों बन रहे हो? योग मार्ग का उपदेश देकर हमें प्रेम मार्ग से विचलित क्यों कर रहे हो? हे उद्धव ! राजपथ के समान बाधा रहित कंटक रहित प्रेम मार्ग को तुम काँटों से भरे हुए अनुचित और कष्ट देने वाली योग मार्ग से क्यों अवरुद्ध कर रहे हो तुम्हारा योगमार्ग जो है, वह कठिन, असाध्य है और इसीलिए हम अपने सादे प्रेम मार्ग को छोड़कर उसे अपना नहीं सकतीं। हे उद्धव ! ऐसा लगता है कि कुब्जा ने हमारे प्रति जो उसकी ईर्ष्या है चरम पर होने के कारण तुम्हें सिखा पढ़ाकर हमारे पास भेजा है ताकि हम कृष्ण को भूलकर हम योग में भटक जाए और वह कृष्ण के प्रेम का अकेले आनंद ले , उनके साथ विहार करे या फिर कहीं लगता है कि श्याम ने ही कहीं तुम्हें समझा बुझाकर तुम्हें सिखाकर तुम्हें ये योग का सन्देश देकर हमारे पास इसलिए भेजा हो ताकि वह कुब्जा के प्रेम का भोग कर सके। हे उद्धव ! वेद पुराण स्मृतियाँ आदि सम्पूर्ण धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करके देख लो। उनमें कहीं भी स्पष्ट नहीं है कि कोमल नारियों को योग की शिक्षा देनी चाहिए। अब हम तुम्हारे जैसे मूर्ख व्यक्ति की बात का क्या बुरा माने जिसे दूध और छाछ का अंतर ही पता नहीं है। हमारे कृष्ण तो दुग्ध के समान सर्व गुण सम्पन्न हैं और तुम्हारे निर्गुण, छाछ के समान सार हीन हैं किन्तु तुम स्वयं उन दोनों में अंतर नहीं समझ पा रहे हो तो तुम्हारी बात का बुरा क्या माना जाए। हे उद्धव ! मूलधन को तो अक्रूर ही यहां से ले गए थे मूलधन अर्थात श्री कृष्ण और अब तुम यहां व्याज लुगाने आये हो अर्थात अब यहां जो उसकी थोड़ी सी पड़ी स्मृति शेष है वह भी तुम ले जाना चाहते हो ब्याज रूप में और हमें निर्गुण ब्रह्म का उपदेश दे रहे हो।

 

राग मलार

बातन सब कोऊ समुझावै।
जेद्वि बिधि मिलन मिलैं वै माधव सो बिधि कोउ न बतावै।।
जधदपि जतन अनेक रचीं पचि और अनत बिरमावै।
तद्धपि हठी हमारे नयना और न देखे भावै।।
बासर-निसा प्रानबल्ल्भ तजि रसना और न देखे भावै।।
सूरदास प्रभू प्रेमहिं, लगि करि कहिए जो कहि आबै।।63

 

गोपियाँ उद्धव के उपदेश पर किस प्रकार खिझ उठी हैं, उसका वर्णन किया गया है।

 

गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि सब लोग हमको बातों से ही समझाने का प्रयास कर रहें हैं। बातों-बातों में ही रिझाना जानते हैं किन्तु कोई भी ऐसा उपाय नहीं बताता जिससे श्री कृष्ण से हमारा मिलन सम्भव हो जाय। हम तो कृष्ण के दर्शन की प्यासी हैं किन्तु लोग हमें कृष्ण के दर्शन के उपाय न बताकर केवल बातों से ही हमें संतोष दिलाना चाहते हैं। हमने कृष्ण से मिलने के अनेक प्रयत्न किये किन्तु वह कहीं  अन्यत्र ही आनंद के साथ विहार करते रहे और उन्होंने हमारी कोई खोज खबर नहीं ली। इतना होने पर भी हमारे नयन कृष्ण के दर्शनों के प्यासे हैं । उन्हें कुछ और देखना अच्छा नहीं लगता। हमारी ये जीभ रात दिन श्री कृष्ण के गुणों का गान करती रहती है और उनको छोड़कर किसी और के गुणों को गाने में इसका मन नहीं लगता। सूरदास जी कहते है कि गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हे उद्धव ! तुम हमारे इस कृष्ण प्रेम को चाहे जो समझो और चाहे जो कहो इससे हमारे लिए कोई अंतर नही पड़ने वाला । हम तो मन , वचन और कर्म से उस कृष्ण की ही अनुरागिनीं हैं। अब से तुम्हारी इन बातों का , तुम्हारे इस उपदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला।

 

राग सारंग

निर्गुन कौन देस को बासी ?
मधुकर ! हँसि समुझाय, सौंह दै बूझति साँच, न हाँसी।।
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि , को दासी ?
कैसो बरन, भेस है कैसो केहि रस कै अभिलासी।।
पावैगो पुनि कियो आपनो जो रे ! कहैगो गाँसी।
सुनत मौन है रह्यो कहियो नन्द कठोर ठग्यो सो सूर सबै मति नासी।।64

 

गोपियाँ निर्गुण ब्रह्म के विषय में अत्यंत मनोरंजक प्रश्न पूछकर उद्धव की हँसी उड़ा रहीं हैं। अपनी वाक् शक्ति के बल पर गोपियाँ उद्धव की हंसी उड़ाती हैं परन्तु साथ ही साथ उन्हें यह विश्वास भी दिलाती हैं कि वे ब्रह्म के विषय में जानने की जिज्ञासा रखती हैं।

 

सूरदास जी कहते हैं कि गोपियाँ भ्रमर के माध्यम से पूछ रहीं हैं कि हे उद्धव ! तुम्हारा ये निर्गुण किस देश में निवास करता है? कहाँ का रहने वाला है ? उसका पता ठिकाना क्या है ? हे मधुकर ! हम सौगंध खाकर कहती हैं कि हमें नहीं पता कि वह कहाँ रहता हैं ? किस देश में निवास करता है और इसलिए हम तुमसे सच-सच पूछ रही हैं ? कोई हँसी मजाक नहीं कर रहीं हैं और इसलिए तुम हमें इस निर्गुण ब्रह्म के निवास के बारे में ठीक – ठीक बता दो। हमें बताओ कि तुम्हारे इस निर्गुण ब्रह्म  का पिता कौन है? इसकी माता कौन है ? इसकी दासी कौंन हैं ? ये जो तुम्हारा निर्गुण ब्रह्म है उसका रूप रंग उसकी वेश-भूषा किस प्रकार की है ? उसकी रूचि किस प्रकार के रस में है ? उसकी रूचि किस प्रकार के कार्यों में है ? उद्धव को सावधान करते हुए गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! याद रखना कि तुमने अपने निर्गुण ब्रह्म के बारे में यदि कोई भी झूठी बात या कोई कपट पूर्ण बात कही तो फिर इस करनी का फल भी तुम्हें ही भुगतना पड़ेगा। गोपियों के मुँह से इस प्रकार की बातों को सुनकर उद्धव थका सा और मौन रह गया। गोपियों की इस प्रकार चतुराई पूर्ण बातों को सुनकर उद्धव मौन खड़े रह गए । उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला । ऐसा प्रतीत हुआ मानो इनका समस्त ज्ञान और विवेक उनका साथ छोड़ गया हो ।

 

 राग केदारा

नाहिंन रह्यो मन में ठौर।
नंदनंदन अछत कैसे आनिए उर और ?
चलत, चितवन, दिबस, जागत,सपन सोवत राति।
हृदय ते वह स्याम मूरति छन न इत उत जाति।।
कहत कथा अनेक ऊधो लोक-लाभ दिखाय।
कहा करौं तन प्रेम-पूरन घट न सिंधु समाय।।
स्याम गात सरोज-आनन ललित अति मृदु हास।
सूर ऐसे रूप कारन मरत लोचने प्यास।।65

 

निर्गुण ब्रह्म को स्वीकार करने में गोपियाँ उद्धव से अपनी विवशता प्रकट कर रही हैं ।

 

उद्धव ! हमारे मन में श्री कृष्ण के अतिरिक्त किसी के लिए स्थान नहीं रहा है। हे उद्धव ! तुम ही बताओ कि नंदनंदन श्री कृष्ण के इस हृदय में रहते हुए हम किसी अन्य को अर्थात निर्गुण ब्रह्म को अपने हृदय में कैसे ला सकती हैं ? इसलिए हे उद्धव! तुम्हारे इस निर्गुण ब्रह्म को स्वीकार करने में हम असमर्थ हैं। हमें तो चलते – फिरते इधर – उधर देखते दिन में जागृत अवस्था में तथा रात को सोते समय स्वप्न अवस्था में भी श्री कृष्ण की मधुर मूर्ति लुभाती है और हमारे हृदय से यह मोहनी मूरत क्षण भर के लिए इधर – उधर नहीं जातीं । ओझल नहीं होती। हम तो जीवन की प्रत्येक अवस्था में श्री कृष्ण के ध्यान में मग्न रहती हैं। हे उद्धव ! आप योग और निर्गुण ब्रह्म के संबंध में अनेक कथाएं सुनाकर हमें सांसारिक लाभ का मार्ग सुझा रहे हैं। आप हमारे लिए मोक्ष प्राप्ति का साधन उपलब्ध करा रहें हैं , हमारे लिए मोक्ष प्राप्ति का साधन उपलब्ध करा रहे हैं किन्तु हम क्या करें। हम इस मार्ग को नहीं अपना सकते। हम तो कृष्ण-प्रेम के लिए पुनः शरीर धारण करने के लिए भी तत्पर हैं क्योंकि हमारा यह तन कृष्ण प्रेम से परिपूर्ण है और जिस प्रकार सागर का जल एक छोटे से घड़े में नहीं समा सकता , उसी प्रकार हमारे इस छोटे से हृदय में तुम्हारा अनंत ब्रह्म नहीं समा सकता। हे उद्धव ! हमारे श्री कृष्ण का शरीर सांवला है , मुख कमल के समान सुंदर और मनमोहक है, उनकी हंसी मधुर और बरबस अपनी ओर खींचने वाली है । इसलिए हमारे नेत्र कृष्ण की ऐसे आकर्षक रूप माधुर्य का पान करके तृप्त होने के लिए व्याकुल बने रहते हैं।

 

राग मलार

ब्रजजन सकल स्याम-ब्रतधारी।
बिन गोपाल और नहिं जानत आन कहैं व्यभिचारी।।
जोग मोट सिर बोझ आनि कैं, कत तुम घोष उतारी ?
इतनी दूरी जाहु चलि कासी जहाँ बिकति है प्यारी।।
यह संदेश नहिं सुनै तिहारो है मंडली अनन्य हमारी।
जो रसरीति करी हरि हमसौं सो कत जात बिसारी ?
महामुक्ति कोऊ नहिं बूझै, जदपि पदारथ चारी।
सूरदास स्वामी मनमोहन मूरति की बलिहारी।।66

 

गोपियाँ ब्रज निवासियों के भक्ति का वर्णन कर रहीं हैं।

 

गोपियाँ श्री कृष्ण प्रेम के समक्ष मोक्ष को तुच्छ समझती हैं और गोपियों की ही भाँति अन्य ब्रजवासी भी श्री कृष्ण प्रेम धारी हैं और कृष्ण प्रेम के लिए मोक्ष को ठुकरा सकते हैं। गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! हमारे सम्पूर्ण ब्रजवासी भी कृष्ण प्रेम के व्रत को धीरता और दृढ़ता से धारण किये हुए हैं। वे श्री कृष्ण के अलावा और किसी को प्रेम करना तो दूर उसके प्रति आकर्षित भी नहीं हो सकते । हम यदि गोपाल के अतिरिक्त अन्य किसी की बात भी करें अर्थात तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की बातें भी करें तो भी हम व्यभिचारी कही जायेंगीं क्योंकि पतिव्रता नारी किसी अन्य को अपने मन में नहीं ला सकती और यदि वह ऐसा करती है तो वह व्यभिचारिणी है । हम तो श्री कृष्ण की पतिव्रताएँ हैं । तुम्हारे ब्रह्म का विचार करके व्यभिचारी नहीं कहलाना चाहती। हे उद्धव ! तुमने अपनी योग की गठरी का भारी बोझ यहाँ गोकुल में अहीरों की बस्ती में लाकर क्यों उतारा है ? यहां इस निरर्थक वस्तु का कोई ग्राहक नहीं है। तुम ऐसा करो कि इसे यहां से दूर काशी ले जाओ । वहां के लोग इसे जानते हैं। इसका मर्म समझते हैं और यह योग रुपी वस्तु वहाँ आसानी से बिक सकेगी और महँगी भी बिक सकेगी। हे उद्धव! हमारी यह मंडली विलक्षण मंडली है और श्री कृष्ण के प्रेम में निमग्न है और इसलिए यहां तुम्हारा निर्गुण ब्रह्म संबंधी उपदेश कोई नहीं सुनने वाला। हे उद्धव ! तुम्हीं बताओ कि कृष्ण ने जो यहां हमारे साथ प्रेम लीलाएँ की, जो रास रचाया था क्या वह कभी भुलाया जा सकता है? हे उद्धव ! हमें तो कृष्ण के प्रेम में ही तुम्हारे उन चारों पदार्थों की प्राप्ति हो चुकी है । उन पदार्थों से युक्त मुक्ति प्राप्त हो चुकी है और इसलिए निर्गुण ब्रह्म के मार्ग पर चलकर प्राप्त होने वाली भक्ति का हमारे लिए कोई आकर्षण नहीं है , कोई मोल नहीं है। हम तो अपने स्वामी श्री कृष्ण की सुंदर मूर्ति पर प्राण निवछावर किया करती हैं।

 

राग धनाश्री

कहति कहा ऊधो सों बौरी।
जाको सुनत रहे हरि के ढिग स्यामसखा यह सो री !
हमको जोग सिखावन आयो, यह तेरे मन आवत ?
कहा कहत री ! मैं पत्यात री नहीं सुनी कहनावत ?
करनी भली भलेई जानै, कपट कुटिल की खानि।
हरि को सखा नहीं री माई ! यह मन निसचय जानि।।
कहाँ रास-रस कहाँ जोग-जप ? इतना अंतर भाखत।
सूर सबै तुम कत भईं बौरी याकी पति जो राखत।।

 

गोपियों का मानना है कि योग का संदेश लाने वाला कृष्ण का सखा कभी नहीं हो सकता यह तो कोई धूर्त या कपटी है व्यंग्य कटु सुनाते हुए कहती हैं।

 

एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि हे पगली ! तू उद्धव से क्या बात कर रही है। अरी पगली ! यह श्याम का सखा है जो सदा उनके पास निवास करता है और जिसके विषय में हम कब से सुनते आ रही हैं । अर्थात तुम सब इस धोखे में मत रहना कि यह श्याम का सखा है । अरे यह धूर्त व्यक्ति है और स्वयं को श्याम का सखा बतला रहा है । अरी ! तू क्या यह समझ रही है कि यह योग की शिक्षा देने आया है? अरे सखी ! तुम क्या कह रही है ? मुझे तो तुम्हारी बात का विश्वास ही नहीं हो रहा। क्या तुमने कहावत नहीं सुनी कि जो व्यक्ति सज्जन होते हैं , वे सज्जनता की ही बातें करते हैं , उनके सभी कार्य सज्जनता पूर्ण होते हैं किन्तु जो कपटी और धूर्त होते हैं वे कुटिलता से भरे होते हैं , कुटिलता और दुष्टता उनमें कूट – कूट कर भरी होती है । अर्थात सज्जन और भले लोग अपनी प्रकृति के अनुसार दूसरों की भलाई में लगे होते हैं और नीच मनुष्य अत्यंत कपटी होते हैं और दूसरों का कार्य बिगाड़ने में खुशी अनुभव करते हैं । इसलिए हे सखी ! ये अपने मन में तू निश्चय जान ले कि यह कृष्ण का सखा नहीं है यह बात तू अपने मन में जान ले यह निश्चय जान ले क्योंकि यदि ये कृष्ण के मित्र के मित्र होते तो श्री कृष्ण की सज्जनता के गुण इन्हें मिले होते परन्तु ये अत्यंत दुष्ट प्रकृति के व्यक्ति हैं। भला कहाँ रास का आनंद और कहाँ योग की नीरस बातें अर्थात कहाँ तो श्री कृष्ण के साथ प्रेम विहार तथा क्रीड़ाओं का आनंद और कहाँ योग साधना का तथा तपस्या का कठिन कार्य। ये कैसी परस्पर विरोधी बातें कर रहा है । दोनों बातों में आकाश और पाताल का अन्तर है । जिसे इसे अंतर का पता नहीं उस पर क्यों विश्वास कर रही है ? यदि यह कृष्ण का सखा होता तो हमें उनके प्रेम से विमुख होकर योग की तपस्या का उपदेश नहीं देता। अरे तुम सब क्या पागल हो गई हो जो इसकी बातों को विशवास करके इसे कृष्ण के सखा के समान आदर दे रही हो। यह तो कोई छलिया और बहरूपिया है जिसे यहां से अपमानित करके भगा देना ही उचित है।

 

राग रामकली

ऐसेई जन दूत कहावत !
मोको एक अचंभी आवत यामें ये कह पावत ?
बचन कठोर कहत, कहि दाहत, अपनी महत्त गवावत।
ऐसी परकृति परति छांह की जुबतिन ज्ञान बुझावत।।
आनुप निजल रहत नखसिख लौं एते पर पुनि गावत।
सूर करत परसंसा अपनी, हारेहु जीति कहावत।।68

 

गोपियाँ योग का संदेश लाने वाले उद्धव पर कटाक्ष कर रहीं हैं।

 

गोपियों के मत में सफल दूत वही है जो वास्तविक संदेश न कह कर दिन भर की झूठी बातें बढ़ चढ़ कर सुनाया करते हैं। गोपियाँ उद्धव के संदेश पर संदेह करती हुई और उसके योग पर व्यंग्य करती हुई आपस में बातचीत करती हैं और कहती हैं “ऐसेई जन दूत कहावत।” ऐसे ही लोग सफल दूत कहे जाते हैं जो वास्तविक संदेश न कहकर इधर-उधर की बातें करके सुनाया करते हैं। मुझे एक बात का आश्चर्य है कि ऐसा करने पर अर्थात योग का संदेश सुनाकर हमें संतप्त अर्थात दुखी करके इन्हें क्या लाभ होता है? ऐसे लोग दूसरों से कठोर वचन कहते हैं । जैसे ये उद्धव हमें कृष्ण को भुलाकर निर्गुण ब्रह्म की उपासना करने को कह रहे हैं और इस प्रकार के वचनों से दूसरों को दुखी करते हैं और इस प्रकार अपनी महत्ता और सम्मान भी गँवा बैठते हैं। प्रत्येक व्यक्ति पर संगत का प्रभाव पड़ता है जिसके कारण वह बौरा जाता है अर्थात पागल हो जाता है और उटपटांग बातें करने लगता है । उद्धव को देखो ! ये तो इस बात के साक्षात प्रमाण हैं कि कुब्जा के संगत में रहने के कारण इसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है , जिसके कारण ये अबलाओं को योग और निर्गुण ब्रम्ह की शिक्षा देने यहां पर आ गए हैं । इन्हें यह समझ ही नहीं आ रहा कि इनका ये कार्य कितना अनुचित है। ऐसे लोग पूर्णतः निर्लज्ज होते हैं और अपने निर्लज्ज कार्यों के लिए निर्लज्जता का अनुभव न करके अपनी ही हाँके चले जाते हैं । ये लोग स्वयं ही अपनी प्रशंसा करते – करते अपनी हार को भी जीत कहते हैं – अपनी पराजय को भी विजय कहते हैं। ये उद्धव ज्ञान और विवेक में हमसे हार चुके है क्योंकि हमारी एक भी बात का तो उत्तर नहीं दे पाते , फिर भी स्वयं को विजयी घोषित कर रहे हैं और निररंतर निर्गुण ब्रह्म से संबंधित अपनी रट लगाए हुए हैं।

 

राग धनाश्री

प्रकृति जोई जाके अंग परी।
स्थान-पूँछ कोटिक जा लागै सूधि न काहु करी।।
जैसे काग भच्छ नहिं छाड़ै जनमत जौन धरी।
धोये रंग जात कहु कैसे ज्यों कारी कमरी ?
ज्यों अहि डसत उदर नहिं तैसे हैं एउ री।69

 

गोपियों के द्वारा उद्धव की तुलना श्वान अर्थात कुत्ते से की जा रही है।

 

क गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि आज तक करोड़ों प्रयत्न क्ररके भी कोई कुत्ते की पूँछ को सीधा नहीं कर पाया और इसका कारण क्या बताया? इसका कारण यह है कि पूँछ का स्वभाव  सदा टेढ़ा है और स्वभाव को बदला नहीं जा सकता और इसलिए अब इसे सीधा नहीं किया जा सकता। एक और उदाहरण देते हुए कहती हैं कि कौआ जन्म से ही न खाने योग्य पदार्थ को खाना प्रारम्भ कर देता है। कौआ अभक्षी को भी अर्थात खाने व न खाने योग्य पदार्थ को भी खाना प्रारम्भ कर देता है और पूरे जीवन इस स्वभाव को नहीं छोड़ता । तुम्हीं  बताओ कि धोने से काले कंबल का रंग उतर सकता है क्या? जैसे कि सांप दूसरों को डसने का काम करता है लेकिन दूसरों को डसने से उसका पेट नहीं भरता क्योंकि उसके पेट में तो कुछ जाता ही नहीं फिर भी उसका स्वभाव पड़ गया है डसना और इसलिए वह इसे छोड़ता नहीं और ऐसे ही यह उद्धव हैं दूसरों को दुखी करना इनका स्वभाव बन गया है। इन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं है कि इनके व्यवहार का क्या परिणाम होगा? बस ये तो ऐसे ही हैं अर्थात दूसरों को दुखी करना इनका स्वभाव बन गया है । इन्हें इसी बात में आनंद मिलता है।

 

राग रामकली

तौ हम मानैं बात तुम्हारी।
अपनो ब्रम्ह दिखावहु ऊधो मुकुट-पितांबरधारी।।
भजि हैं तब ताको सब गोपी सहि रहि हैं बरु गारी।
भूत समान बतावत हमको जारहु स्याम बिसारो।।
जे मुख सदा सुधा अँचवत हैं ते विष क्यों अधिकारी।
सूरदास प्रभु एक अंग पर रीझि रही ब्रजनारी।

 

यहाँ गोपियाँ उद्धव के ज्ञान योग को स्वीकार करने के लिए एक शर्त रख रहीं हैं जिसका वर्णन प्रस्तुत पद में किया गया है।

 

प्रस्तुत पद में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हम तुम्हारी बात को मानकर तुम्हारे ब्रह्म को स्वीकार कर लेंगे लेकिन एक शर्त पर कि तुम अपने ब्रह्म के मोर मुकुट और पीतांबर धारण किया हुआ दर्शन करा दो । यदि तुम्हारा ब्रह्म कृष्ण का वेश धारण करके हमारे सम्मुख आ जाता है तो हम उसे स्वीकार कर लेंगे । ऐसा करते हुए हम बिलकुल भी संकोच नहीं करेंगे । हम तुम्हारी बात मान जाएंगे। फिर हम सब मिलकर उसे भजेंगे और उसका ध्यान करेंगे चाहे हमें इसके लिए यह संसार गाली ही क्यों न दे, हमें चरित्ररहीन ही क्यों न बताये। हम सब सहन कर लेंगी लेकिन हमें ऐसा लगता नहीं है कि तुम हमें अपने ब्रम्ह का कृष्ण रूप में दर्शन करा दोगे क्योंकि तुम तो अपने ब्रह्म  को छायाहीन और आकारहीन बताते हो , भूत के समान बताते हो और इसलिए उनका मोर मुकुट और पीतांबर धारन करना असम्भव है और इसलिए हम कृष्ण को भुला कर उसे स्वीकार नहीं कर पायेंगी। हम तो सदा अपने मुख से अमृत का पान करते हुए आई हैं और उसी मुख से आज विष का पान कैसे कर सकती हैं अर्थात हमारा मुख अमृत के समान प्राणदायक और मधुर कृष्ण का नाम स्मरण करने का आदी हो चुका है । वह आज तुम्हारे विष के समान घातक और कटु ब्रह्म का नाम कैसे जप सकता है ? हे उद्धव ! हम सम्पूर्ण ब्रज की नारियाँ अपने कृष्ण के मनोहर शरीर पर मुग्ध है और इसलिए उन्हें त्यागकर हमारे शरीर विहीन निराकार ब्रह्म को स्वीकार नहीं कर सकती।

 

राग बिलावल

यहै सुनत ही नयन पराने।
जबहीं सुनत बात तुव मुख की रोवत रमत ढराने॥
बारँबार स्यामघन धन तें भाजत फिरन लुकाने।
हमकों नहिं पतियात तबहिं तें जब ब्रज आपु समाने॥
नातरु यहौ काछ हम काछति वै यह जानि छपाने।
सूर दोष हमरै सिर धरिहौ तुम हौ बड़े सयाने॥७१॥

 

गोपियाँ उद्धव के योग मार्ग का खंडन और अपने नेत्रों की विवशता का उल्लेख इस पद में कर रही हैं ।

 

हे उद्धव ! तुम्हारे योग मार्ग की बातों को सुन कर हमारे नेत्र भाग खड़े हुए । जब तुम योग की चर्चा करते हो तो हमारे नेत्र तुम्हारे सामने बंद हो जाते हैं । वे तुम्हें देखना नहीं चाहते , तुमसे भागते रहते हैं । जब ये तुम्हारे मुख से निर्गुण की गाथा सुनते हैं तो ये रोने लगते हैं , श्री कृष्ण की स्मृति में मग्न हो जाते हैं और कभी – कभी उनका स्मरण कर के अश्रुपात भी करने लगते हैं । वे श्याम वर्ण वालों को देखना नहीं चाहते और यदि इनके सामने श्याम वर्ण वाले दिखाई पड़ जाएं तो ये छिप जाते हैं और उनसे भागते रहते हैं । इन श्याम वर्ण वालों से ये क्यों भागते और छिपते हैं इसका कारण ये है कि एक बार श्याम वर्ण वाले अक्रूर जी ब्रज में आकर बलराम और श्री कृष्ण को फुसलाकर ले गए । श्याम वर्ण वाले श्री कृष्ण ने मथुरा में बस कर कभी स्मरण नहीं किया , उन्होंने भी धोखा दिया । अब श्याम वर्ण वाले तुम भी योग संदेशों से इन्हें प्रवंचित करना चाहते हो लेकिन ये अब सावधान हैं और इन श्याम वर्ण वालों के प्रति इनका कुछ भी विश्वास नहीं है । यहाँ तक कि जब वर्षा काल में घने श्याम वर्ण वाले बादल दिखाई पड़ते हैं तो उन्हें देखकर ये छिप जाना चाहते हैं । हमारा तो ये तभी से विश्वास नहीं करते जब से आपने ब्रज में प्रवेश किया है । उन्हें ऐसी आशंका है कि कहीं तुम्हारे कहने में सब निर्गुण मार्ग की उपासिका न बन जाएं और श्री कृष्ण से उन्हें वंचित न कर दें और वे श्री कृष्ण की रूप माधुरी का सुख पुनः प्राप्त न कर सकें। हमारे प्रति उनका जो अविश्वास है उसका यही कारण है । वे तो इन सब बातों को समझ कर छिप गए अन्यथा हम तुम्हारी योग साधना की सभी बातों को स्वीकार कर लेतीं और योगियों के वेश को धारण करने में किसी प्रकार का संकोच न करतीं लेकिन हम सब जानती हैं कि आप बड़े चतुर हैं और हमारे नेत्रों की विवशता पर तो विश्वास करेंगे नहीं उलटे हमारे ही सर दोष मढ़ेंगे अर्थात हमें ही दोषी बनाएंगे । 71

 

राग धनाश्री

नयननि वहै रूप जौ देख्यो।
तौ ऊधो यह जोबन जग को साँचु सफल करि लेख्यो॥
लोचन चारु चपल खंजन, मनरँजन हृदय हमारे।
रुचिर कमल मृग मीन मनोहर स्वेत अरुन अरु कारे॥
रतन जटित कुंडल श्रवननि वर, गंड कपोलनि झाँई।
मनु दिनकर-प्रतिबिंब मुकुट महँ ढूँढ़त यह छबि पाई॥
मुरली अधर विकट भौंहैं करि ठाढ़े होत त्रिभंग।
मुकुट माल उर नीलसिखर तें धँसि धरनी ज्यों गंग॥
और भेस को कहै बरनि सब अँग अँग केसरि खौर।
देखत बनै, कहत रसना सो सूर बिलोकत और॥७२॥

 

इसमें गोपियों ने उद्धव को बताया कि इन नेत्रों से हमने श्री कृष्ण की रूप माधुरी का रसास्वादन किया उससे हमारा सांसारिक जीवन सचमुच सफल हो गया । यह सूर के सौंदर्य बोध का एक उत्कृष्ट नमूना है ।

 

गोपियों ने श्री कृष्ण के जिस सौंदर्य को इन नेत्रों से देखा था , उसका वर्णन करती हुयी उद्धव से कह रही हैं । हे उद्धव ! इन नेत्रों से हमने श्री कृष्ण का जो वह अद्भुत रूप देखा उससे हमने अपने सांसारिक जीवन को सचमुच सफल समझा । श्री कृष्ण के उस अलौकिक सौंदर्य को देख लेने पर हमें यह लगा कि यह सांसारिक जीवन सफल हो गया । श्री कृष्ण के सुन्दर नेत्र चंचल खंजन पक्षी की भाँति थे जो हमारे ह्रदय के लिए आनंददायक थे , उनसे हमारा ह्रदय हर्षातिरेक से भर जाता था । उन नेत्रों के अनुपम सौंदर्य की चर्चा करती हुयी गोपियाँ पुनः कहती हैं – वे नेत्र सुन्दर कमल – मृग और मीन की भांति मनोहर प्रतीत होते थे क्योंकि नेत्रों के तीन रंगों श्वेत , रक्त और श्याम से यह स्पष्ट आभासित होता था कि वे सचमुच कमल ( नेत्रों की लालिमा से अभिप्राय है ), मृग ( नेत्रों की कालिमा से अभिप्राय है ) और मीन ( नेत्रों की श्वेतता से अभिप्राय है ) जैसे हैं । उनके दोनों श्रेष्ठ कानों में रत्न जड़ित कुण्डल शोभित थे जिनकी छाया उनकी कनपटी और कपोल प्रदेश पर पड़ रही थी । उसे देखकर ऐसा लगता था मानो सूर्य ( कुण्डल से अभिप्राय है ) अपनी जिस सौंदर्य छाया को ढूँढ रहा था वह उसे कपोल रूप दर्पण में मिल गयी । वे ओष्ठों पर मुरली रख कर टेढ़ी भौहें किये हुए त्रिभंगी मुद्रा में शोभित होते थे। उनकी छाती पर मोतियों कि माला इस प्रकार शोभा दे रही थी मानो पर्वत की नीली चोटी ( श्री कृष्ण के उर स्थल से अभिप्राय है ) से गंगा की धारा ( मुक्तामाल से प्रयोजन है ) निकल कर धरणी पर गिरते ही धंस गयी हो । श्री कृष्ण के अन्य वेश का वर्णन हम कैसे करें ? उनके प्रत्येक अंग में केसर की छाप शोभित थी , ऐसे अंगों को देखते ही बनता था , उनका वर्णन करना असंभव था , क्योंकि जिह्वा तो कहती है जो देखती है जो देखती नहीं देखता और कोई है ( यहाँ और कोई से अभिप्राय नेत्रों से है )

 

राग नट

नयनन नंदनंदन ध्यान।
तहाँ लै उपदेस दीजै जहाँ निरगुन ज्ञान॥
पानिपल्लव-रेख गनि गुन-अवधि बिधि-बंधान।
इते पर कहि कटुक बचनन हनत जैसे प्रान॥
चंद्र कोटि प्रकास मुख, अवतंस कोटिक भान।
कोटि मन्मथ वारि छबि पर, निरखि दीजित दान॥
भृकुटि कोटि कुदंड रुचि अवलोकनी सँधान।
कोटि बारिज बंक नयन कटाच्छ कोटिक बान॥
कंबु ग्रीवा रतनहार उदार उर मनि जान।
आजानुबाहु उदार अति कर पद्म सुधानिधान॥
स्याम तन पटपीत की छवि करै कौन बखान?
मनहु निर्तत नील घन में तड़ित अति दुतिमान॥
रासरसिक गोपाल मिलि मधु अधर करती पान।
सूर ऐसे रूप बिनु कोउ कहा रच्छक आन? ॥७३॥

 

इसमें गोपियों ने श्री कृष्ण के नख शिख के सौंदर्य का वर्णन किया है । उद्धव के निराकार ब्रह्म की तुलना में श्री कृष्ण का अनिर्वचनीय लावण्य कितना मोहक और आकर्षक है इसे गोपियों ने पूर्णतया सिद्ध कर दिया ।

 

हे उद्धव ! हमारे ये नेत्र श्री कृष्ण का ही ध्यान करते रहते हैं । इन नेत्रों में श्री कृष्ण की शोभा के अतिरिक्त अन्य कोई रूप धंसता ही नहीं । अतः तुम अपने इस निर्गुण ज्ञान का उपदेश वहां दो जहाँ ऐसे ज्ञान के मर्मी रहते हैं । यहाँ तो तुम्हारा यह निर्गुण ज्ञान कोई जानता भी नहीं किन्तु हम सब तो ब्रह्मा द्वारा निर्मित अपने पत्ते के समान कोमल हथेली की भाग्य रेखाओं को जान कर प्रसन्न हैं कि गुणशाली श्री कृष्ण से हमारा संयोग हुआ । इधर तो हम सब अपनी वियोग व्यथा से स्वयं पीड़ित हैं और उस पर आप अपनी कठोर और कड़वी वाणी से हमारे प्राणों को मार रहे हैं , उन्हें असह्य पीड़ा दे रहे हैं । हमारे श्री कृष्ण की रूप माधुरी इस प्रकार है । उनके मुख मंडल का प्रकाश करोड़ों चन्द्रमा के समान है और कानों में शोभित कुण्डल की दीप्ति करोड़ों सूर्य के सदृश है । उनकी शोभा पर तो करोड़ों कामदेव को निछावर कर दो क्योंकि वे करोड़ों कामदेवों से बढ़कर है । हम सब तो उन्हें देखकर अपने आप को उन्हीं दान दे देती हैं ( उन्हें अपने आपको समर्पित कर देती हैं ) उनकी भौहें करोड़ों धनुष के समान हैं और सुन्दर चितवन अर्थात उनका देखना ही उस धनुष को खींचना है । उनके बांके नेत्र करोड़ों कमल के समान और कटाक्ष ( चितवन ) करोड़ों बाणों के सदृश तीक्ष्ण है । उनकी शंख के समान गर्दन में रत्नो का हार शोभित रहता है और विशाल वक्षस्थल में कौस्तुभ मणि शोभित होती है । उनकी अतिशय सुन्दर भुजाएं घुटने तक लम्बी हैं और उनके कमलवत हाथ अमृत का भंडार हैं । वे अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और अमर बनाते हैं । उनके श्याम शरीर पर शोभित पीताम्बर का कौन वर्णन कर सकता है । उसे देख कर ऐसा लगता है की मानो नीले बादलों में चमकती हुयी बिजली नृत्य कर रही हो । यहाँ पीताम्बर की उपमा बिजली से दी गयी है । हम सब तो रास क्रीड़ा में रूचि लेने वाले रसिक श्री कृष्ण से मिल कर उनके अधरामृत का पान किया करती हैं । भला ऐसे अनुपम सौंदर्यशाली श्री कृष्ण के बिना हमारी रक्षा कोई दूसरा कैसे कर सकता है ? हम सबों को एक मात्र श्री कृष्ण का ही सहारा है ।

 

राग जैत श्री

देन आये उधौ मत नीको ।।
आवहु री! सब सुनहु सयानी , लेहु न जस को टीको ।।
तजन कहत अम्बर , आभूषन , गेह नेह सब ही को ।
सीस जटा , सब अंग भस्म , अति सिखवत निर्गुण फीको ।।
मेरे जान यही जुबतिन को देत फिरत दुःख पी को ।
तेहि सर – पंजर भये श्याम तन अब न गहत डर जी को ।।
जाकी प्रकृति परी प्रानन सो सोच न पोच भली को ।
जैसे सूर व्याल डसि भाजत का मुख परत अमी को ? ।।74।।

 

इसमें गोपियों ने व्यंग्य गर्भित शैली में उद्धव की क्रूर प्रकृति का निरूपण किया है । वे निर्गुणोपासना के उपदेश रुपी बाणों से सब को भेदना चाहते हैं ।

 

गोपियाँ उद्धव की क्रूर प्रकृति और उनकी अविवेकशीलता का उल्लेख करती हुयी परस्पर कह रही हैं – हे सखियों , उद्धव जी यहाँ हम सब को अपने बहुत अच्छे विचार और सिद्धांत देने आये हैं । अब तुम सब ऐसे शुभ अवसर को गँवाओ नहीं आ जाओ और हे चतुर सखियों ! अब अच्छा होगा कि इनसे उपदेशों को सुन कर यश का टीका ले लो । इनकी बातों को ग्रहण करने में तुम सब संसार में यशस्विनी के रूप में परिगणित होगी । व्यंग्यात्मक अर्थ यह है कि इसके फेर में मत पड़ना अन्यथा संसार में तुम सबों को कलंकिनी बनना पड़ेगा । ये महाशय हमें अपने मार्ग पर लगाना चाहते हैं और आभूषण , वस्त्र , गृह और सबों के प्रेम को छोड़ देने की बात पर बराबर जोर दे रहे हैं अर्थात ये पूरी तरह से हमें वीतराग बनाना चाहते हैं । यही नहीं योगिनी के रूप में ये हमें शीश पर जटा रखने और अंगों में राख लगाने के लिए कह रहे हैं और शुष्क एवं नीरस निर्गुण ब्रह्म का हमें ज्ञान सिखाते फिरते हैं । हमारी समझ में यही ऐसा व्यक्ति है जो हम जैसी भोली – भाली युवतियों को प्रियतम के वियोग का दुःख देता फिरता है अर्थात इसके अतिरिक्त ऐसा निष्ठुर प्राणी इस ब्रज में अभी तक नहीं देखा गया है । यद्यपि ऐसे उपदेश के काले बाणों से इसका सारा शरीर कला हो गया है । यह अपने उपदेश के बाणों से दूसरों को विद्ध करता रहता है और इसका सारा शरीर इन बाणों और उपदेशों से घिरा रहता है । इसी से यह डरता नहीं । कहा गया है कि बाणों की भाँति यह काला हो गया है लेकिन अपने काले उपदेश से इसका काला हो जाना स्वाभाविक है , फिर भी यह अपनी शरारत से बाज नहीं आता । अरी सखी ! जिसका स्वभाव प्राण ग्रहण करने के साथ ही बन जाता है अर्थात जिसका जन्मजात स्वभाव होता है उसे अच्छे और बुरे की चिंता नहीं होती । इस दृष्टि से यह अत्यंत ढीठ और निर्लज्ज है । जिस प्रकार सर्प जब किसी को काट कर भागता है तो क्या उसके मुख में अमृत की बूँद पड़ जाती है । काटने से क्या वो अमर बन जाता है किन्तु काटना तो उसका जन्मजात स्वभाव है । उद्धव की भी यही जन्मजात प्रकृति बन गयी है वह बदल नहीं सकती । 74

 

राग सारंग

प्रीति करि दीन्हीं गरे छुरी ।
जैसे बधिक चुगाय कपटकन पाछे करात बुरी ।।
मुरली मधुर चोंप करि कांपो मोरचन्द्र ठटबारी।
बंक बिलोकनि लूक लागि बस सकी न तनहि सम्हारी।।
तलफत छाँड़ि चले मधुबन को फिरि कै लई न सार ।
सूरदास वा कलप तरोवर फेरि न बैठी डार।। 75।।

 

इसमें गोपियाँ श्रीकृष्ण के कपटपूर्ण व्यवहार का उल्लेख उद्धव से कर रही है और उलाहना दे रही हैं कि प्रेम के क्षेत्र में उन्होंने हमारे साथ धोखा किया । यहाँ श्रीकृष्ण को बहेलिया और गोपियों को चिड़िया के रूप में अभिहित किया गया है ।

 

हे उद्धव ! श्री कृष्ण ने प्रेम करने के बाद हमारे गले में छुरी फेर दी अर्थात हमारे साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया । उन्होंने तो यह किया कि जैसे बहेलिया पहले तो कपट का अन्न खिलाता है । धोखा देकर उन्हें अन्न के कण खाने के लिए डाल देता है और जब वे अन्न के कण के खाने में लग जाती हैं तो उन्हें पकड़ लेता है और उनके साथ बुरा व्यवहार करता है । उन्हीं धीरे – धीरे मार डालता है । उसी प्रकार श्री कृष्ण ने पहले तो अपने प्रेम जाल में हमें फंसाया । अब वियोग की पीड़ा में हमें मार रहे हैं । उन्होंने अपनी मुरली की मधुर ध्वनि रुपी लासा को अपने हाथ रुपी बांस में लगाकर कंपा अर्थात छोटी – छोटी तीलियाँ बनाया और मोर पंख रुपी टटिया के पीछे छिप कर गोपियों रुपी चिड़ियों को फंसा लिया और अपनी तिरछी चितवन रुपी आग की लपटों में डाल दिया । उन लपटों के वशीभूत हम सब अपने शरीर को संभाल न सकीं । पहले तो उन्होंने प्रेम किया और जब हम सब उनके प्रेम जाल में फंस गयीं तो उन्होंने बंक चितवन की आग में डाल कर कष्ट दिया । इस प्रकार चितवन की आग में तड़फती हुयी हमें छोड़कर वे मथुरा चले गए और उलट कर हम सबों की खोज खबर नहीं ली । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि पुनः उस कृष्ण रुपी कल्पवृक्ष की डाल पर बैठ न सकीं । जब श्री कृष्ण के साथ हम सब रहती थीं तो उनसे हमारी समस्त कामनाएं कल्प वृक्ष की भाँति पूरी होती रहीं ।75

 

राग धनाश्री

कोउ ब्रज बाँचत नाहिंन पाती ।
कत लिखि लिखि पठवत नंदनंदन कठिन बिरह की काती।।
नयन , सजल , कागद अति कोमल , कर अंगूरी अति ताती।
परसत जरै , बिलोकत भीजै दुहूँ भाँति दुःख छाती ।।
क्यों समुझैं ये अंक सूर सुनु कठिन मदन – सर – घाती।
देखे जियहिं स्यामसुंदर के रहहिं चरन दिन – राती।। 76

 

श्रीकृष्ण की भेजी हुयी पत्री को गोपियाँ पढ़ नहीं पातीं । कोई अन्य भी इसे पढ़ने में समर्थ नहीं है । अतः व्याकुल मन गोपियाँ श्री कृष्ण को उलाहना देकर कहती हैं की ऐसी चिट्ठी वे क्यों लिख कर भेजते हैं । इसमें चिट्ठी को उद्दीपन विभाव के रूप में चित्रित किया गया है ।

 

कोई गोपी श्री कृष्ण के द्वारा भेजी हुयी चिट्ठी के सम्बन्ध में कह रही है। हे सखी ! इस ब्रज मंडल में कोई भी श्री कृष्ण की चिट्ठी नहीं पढ़ता । जो इसे पढ़ता है उसे श्री कृष्ण की स्मृति – जनित पीड़ा होती है और उसकी मनोदशा ऐसी हो जाती है कि वह चाहते हुए भी इस पत्र को पढ़ नहीं पाता। अरी सखी ! विरह में चुभने वाली कठोर छुरी के समान ऐसी पत्री श्री कृष्ण क्यों लिख – लिख कर भेजा करते है ? गोपियों के कहने का आशय है कि वियोग में उनकी पत्री ह्रदय में उसी प्रकार चोट पहुंचाती है जैसे छुरी । इस पत्री को न पढ़ने की विवशता से और कष्ट होता है । वह यह है कि वियोग में हमारे नेत्र तो सदैव अश्रु से भरे रहते हैं और इस पत्री का कागज अत्यंत कोमल हैं तथा हाथ की उँगलियाँ अतिशय गर्म रहती हैं अर्थात वियोग की आग से जलती रहती है । अतः यदि इसे स्पर्श करती हैं तो यह जलने लगती है क्योंकि कागज कोमल है और नेत्रों यदि पढ़ने का प्रयास करती हैं तो आंसुओं के गिरने से अक्षर परस्पर मिल जाते हैं अर्थात सभी अक्षर अस्पष्ट हो जाते हैं । इस तरह हमारी छाती में दोनों प्रकार से कष्ट होता है – एक पत्री न पढ़ पाने का और दूसरा अक्षरों के नष्ट हो जाने का । सूर के शब्दों में विरहणी गोपी अपनी सखी को सम्बोधित करती हुयी कह रही है की अरी सखी ! ये अक्षर कैसे समझ में आएं । ये तो वास्तव में कामदेव के तीक्ष्ण कठोर बाणों की भांति घातक हैं । जब इन अक्षरों को समझने का प्रयास करती हूँ तो श्री कृष्ण की याद आ जाते हैं । इस दृष्टि से ये अक्षर नहीं है बल्कि हमारी पीड़ा से ह्रदय को संतप्त कर देने वाले तीखे बाण हैं । अब तो श्यामसुंदर को देखकर और उनके चरणों में रहकर ही जीवित रह सकती हूँ । अब हमें एक मात्र सहारा उनके चरणों का ही है ।76

 

राग जैतश्री

मुकुति आनि मंदे में मेली।
समुझि सगुन लै चले न ऊधो ! ये सब तुम्हरे पूँजि अकेली ।।
कै लै जाहु अनत ही बेचैन , कै लै जाहु जहाँ विष बेली ।
याहि लागि को मरै हमारे बृंदाबन पायँन तर पेली ।।
सीस धरे घर – घर कत दौलत , एकमते सब भई सहेली ।
सूर वहां गिरधरन छबीलो जिनकी भुजा अंस गहि मेली ।। 77

 

इस पद में गोपियों ने उद्धव के मोक्ष सिद्धांत का उपहास किया है । वे श्री कृष्ण प्रेम के समक्ष योगियों की मुक्ति को नगण्य और तुच्छ समझती हैं । व्यंग्य गर्भित शैली का यह एक उत्कृष्ट नमूना है ।

 

हे उद्धव ! तुमने तो अपनी मुक्ति का यह सौदा मंदे बाज़ार में उतरा । जब बाजार के भाव में गिरावट आ गई तो ऐसी दशा में तुम्हारे मुक्ति रुपी सौदा का अधिक मूल्य यहाँ नहीं मिलेगा । लगता है , तुम शकुन विचार कर इसे लेकर नहीं चले अर्थात इसे बेचने के लिए शुभ घड़ी में नहीं निकले और यही तुम्हारे पास एकमात्र पूँजी है अर्थात योग , जप , व्रत आदि की बातें ही तो तुम्हारे पास हैं । इनके अतिरिक्त तुम्हारे पास कुछ है भी नहीं । कहीं इस सस्ते बाजार में यह माल न बिका तो तुम्हारा बहुत बड़ा घाटा हो जायेगा । अधिक पूँजी भी नहीं है कि दुबारा अपना यह व्यापर चला सको । अतः हम सब की राय यह है कि या तो तुम इसे यहाँ से दूसरी जगह ले जाकर बेचो अथवा वहां ले जाओ जहाँ विष की लता कुब्जा निवास करती है । वह इसे अवश्य खरीद लेगी क्योंकि तुम्हारी मुक्ति का मार्ग वह भली – भांति जानती है और उस से तुम्हें अच्छी रकम मिल जाएगी । इस मुक्ति के लिए हमारे यहाँ कौन मरे अर्थात कौन परेशान हो । इसे तो हम वृन्दावन में श्री कृष्ण के साथ केलि करते समय पैरों के नीचे डाल देती थी अर्थात इसे पैरों से कुचल देती थीं। आशय यह है कि श्री कृष्ण के साथ वृन्दावन में रास लीलादि करते समय जो सुख मिलता था उसकी तुलना में हम सब मुक्ति को तिरस्कृत कर देती थीं । मुक्ति में वैसे सुख का अनुभव नहीं करती थीं । अब तुम व्यर्थ में क्यों इसे सर पर लादे घर – घर बेच रहे हो ? स्मरण रखो कि यहाँ इसे पूछने वाला कोई नहीं है क्योंकि हमारी सभी सखियाँ एक ही विचार की हैं । इसमें कोई भी इसे पसंद नहीं करेगा । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! हमारे गिरिधारी , वहां मथुरा में अवश्य चले गए हैं लेकिन एक ऐसा भी समय था जब वे बृजमण्डल में बसते थे तो हम सब प्यार में अपने कंधे पर उनकी भुजाएं रख कर बहुत क्रीड़ा करती थीं । व्यञ्जयना यह है कि उस आनंद के समक्ष तुम्हारी मुक्ति क्या है ?77

 

राग कान्हरो

हम , अलि, गोकुलनाथ अराध्यो।
मन वच क्रम हरि सों धरि पति ब्रत प्रेम योग तप साध्यो ।।
मातु – पिता , हित – प्रीति निगम – पथ तजि दुःख – सुख भ्रम नाख्यो ।
मानपमान परम परितोषी अस्थिर थित मन राख्यो ।।
सकुचासन , कुलसील परस करि , जगत बंद्य करि बंदन ।
मानअपवाद पवन – अवरोधन हित – क्रम काम – निकंदन ।।
गुरुजन – कानि अगिनि चहुँ दिसि , नभ – तरनि – ताप बिनु देखे ।
पिवत धूम – उपहास जहाँ तहँ , अपजस श्रवण – अलेखे ।।
सहज समाधि बिसारि बपु करी , निरखि निमख न लागत ।
परम ज्योति प्रति अंग – माधुरी धरत यही निसि जागत ।।
त्रिकुटी संग भ्रूभंग , तराटक नैन नैन लागि लागे ।
हँसन प्रकास , सुमुख कुण्डल मिलि चंद्र सूर अनुरागे ।।
मुरली अधर श्रवन धुनि सो सुनि अनहद शब्द प्रमाने ।
बरसात रास रूचि – बचन – संग , सुखपद – आनंद – समाने ।।
मंत्र दियो मनजात भजन लगि , ज्ञान ध्यान हरि ही को ।
सूर , कहौं गुरु कौन करे , अलि , कौन सुने मत फीको ।। 78

 

उद्धव ने बार – बार गोपियों के समक्ष ब्रह्म – दर्शन के लिए जिस योग – साधना पर बल दिया उसे सुनकर गोपियों ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि वे योग साधना की भांति प्रेम – साधना और प्रेम – योग में निरत हैं , उन्हें इन्हीं से अवकाश नहीं मिलता । अतः उद्धव के ब्रह्म की उपासना वे कब करें । प्रेम साधना का तत्कालीन योगियों के लिए यह तीखा उत्तर था ।

 

हे उद्धव ! अब तो हमने श्री कृष्ण की आराधना आरम्भ कर दी है और मनसा , वाचा और कर्मणा श्री कृष्ण से पातिव्रत धर्म का पालन करती हुयी प्रेम – योग और तप को साध लिया है । योगियों की भाँति हमने माता , पिता और हितैषियों के प्रेम और वेद मार्ग की मर्यादाओं को त्याग कर सुख और दुःख के भ्रम को पार कर गयीं अर्थात योगियों की भांति सुख और दुःख के बंधन से सर्वथा मुक्त हो गयीं हैं। हमने इस साधना द्वारा अपने चंचल मन को स्थिर कर लिया है और इस कारण मान और अपमान दोनों से ही संतुष्ट हैं । हमने संकोच रुपी आसान पर बैठ कर कुल के शील को परित्यक्त कर दिया और इस प्रकार जगत वंद्य भगवान श्री कृष्ण की वंदना में निरत हो गयीं । आशय यह है कि श्री कृष्णोपासना के लिए हमने संकोच , लज्जा और कुल की मर्यादा का ध्यान तक नहीं दिया । सांसारिक मान और निंदा ही हमारे लिए योगियों का प्राणायाम है अर्थात सांसारिक मान और निंदा का हमारे ऊपर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता । हमारे लिए दोनों ही समतुल्य हैं । प्रेम कर्म और प्रेम साधना ही हमारे लिए काम वासनाओं को नष्ट करना है । श्री कृष्ण की प्रेम साधना में हमें काम – वासनाएं स्पर्श तक नहीं कर पातीं । हमारे लिए गुरुजनों की लज्जा ही योगियों की पंचाग्नि है अर्थात जैसे योगी पंचाग्नि में तप – साधना कर के अपने शरीर को कष्ट देते हैं उसी प्रकार हम भी अपने चारों ओर गुरुजनों की मर्यादा और लज्जा की आग में जलती रहती हैं और कष्ट के साथ मर्यादा का भी पालन करती रहती हैं । जिस प्रकार योगी पांचवी अग्नि अर्थात सूर्य ताप में तपता है उसी प्रकार हम सब भी आकाश में स्थित सूर्य को देखे बिना ही वियोगाग्नि के सूर्य – ताप में संतप्त होती रहती हैं । हम सब निरंतर यत्र – तत्र होने वाले जग – उपहास और निंदा का धूम्र पान उसी प्रकार करती रहती हैं जैसे योगी पंचाग्नि के धुँए का पान करता है। आशय यह है कि श्री कृष्ण की प्रेम साधना में जग के उपहास और निंदा का प्रभाव हम सब पर नहीं पड़ता । हम सब संसार के अपयश को सुनी – अनसुनी कर देते हैं अर्थात जिस प्रकार योगी अपनी चित्तवृत्तियों को संसार से हटा कर अंतर्मुखी कर लेता है और उसके कानों में सांसारिक शब्द सुनाई नहीं पड़ते उसी प्रकार श्री कृष्ण प्रेम में तन्मय हमारे मन को सांसारिक अपयश का कुछ भी भान नहीं होता । योगियों की भाँति हम अपने शरीर को भुला कर , उसकी चिंता न कर के सहज समाधि में लीन हो गयीं और श्री कृष्ण के सौंदर्य को देखते हुए हमारे नेत्रों की पलकें गिरती नहीं , वे निर्निमेष देख रहे हैं और प्रेम में समाधिस्ठ हो कर रात – रात भर जागती हुयी हम सब परब्रह्म की परम ज्योति के सदृश श्री कृष्ण के प्रत्येक अंग की रूप माधुरी को ग्रहण करती रहती हैं । आशय यह है कि योगियों की भांति हमने मुक्तावस्था को सिद्ध कर लिया है । अब आपके योग के इन प्रपंचों की आवश्यकता को हम व्यर्थ समझती हैं । योगियों की भांति हम सब भी श्री कृष्ण के भ्रू भाग के साथ ही त्रिकूट चक्र में अर्थात दोनों भौहों के बीच के स्थान में त्राटक मुद्रा के द्वारा ध्यान को केंद्रित करके अपने नेत्रों को श्री कृष्ण के नेत्रों में मिलकर निर्निमेष अर्थात बिना पलकें झपकाए देखते रहती हैं । जैसे योगी त्राटक मुद्रा में अपने नेत्रों को वहीं गड़ा देता है उसी प्रकार हमारे नेत्रों की भी यही दशा है कि वे निरंतर श्री कृष्ण की ओर देखा करते हैं । हम श्री कृष्ण के सुन्दर चंद्र मुख और सूर्यवत प्रकाशमान कानों के कुण्डल तथा मंद मुस्कराहट के प्रकाश का अनुभव उसी प्रकार करती हैं जैसे योगी इड़ा , पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों के मूल प्रदेश में स्थित क्रमशः चन्द्रमा , सूर्य और अग्नि प्रकाश का अनुभव करते हैं । यह योग की साधना की उस अवस्था का बोधक है जिसमे वह इड़ा और पिंगला को नियंत्रित्र करके कुंडलिनी को जाग्रत करता है और उसकी कुण्डलिनी योग के छह चक्रों को पार करती हुयी ब्रह्मरन्ध्र में पहुँचती है । साधक इसी अवस्था में परम ज्योति का दर्शन करता है । गोपियाँ भी इसी श्री कृष्ण की परम ज्योति का अनुभव कर रही हैं । उन्हें वंशी की मधुर ध्वनि उसी प्रकार प्रतीत होती है , जैसे योगियों को अनाहत शब्द सुनाई पड़ता है । मुरली से निकलने वाली श्री कृष्ण की मधुर वाणी के साथ ही आनंद की वृष्टि का अनुभव होता है । गोपियाँ श्री कृष्ण के चरणों में तन्मय होकर जिस सुख को प्राप्त करती हैं वह यहाँ योगियों की ब्रह्मानंद में लीन होने की अवस्था का बोधक है । योगी जैसे किसी गुरु से मंत्र लेते हैं उसी प्रकार हमारे गुरु कामदेव ने हमें भजन का मंत्र दे कर अपनी शिष्य बनाया है । अतः अब तो श्री कृष्ण के ही ज्ञान और ध्यान में लगी रहती हैं । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से पूछ रही हैं कि तुम्हीं बताओ कि अब अन्य किसको गुरु बनाएं क्योंकि गुरुमुख तो ले चुकी हैं और ऐसी दशा में तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म के शुष्क ज्ञान की बातें कौन सुने ? श्री कृष्ण की प्रेम साधना से जो रस मिला है वह यहाँ कहाँ ?78

 

राग सारंग

कहिबे जीय न कछु सक राखो।
लावा मेलि दए हैं तुमको बकत रहौं दिन आखों॥
जाकी बात कहौ तुम हमसों सो धौं कहौ को काँधी।
तेरो कहो सो पवन भूस भयो, वहो जात ज्यों आँधी॥
कत श्रम करत, सुनत को ह्याँ है, होत जो बन को रोयो।
सूर इते पै समुझत नाहीं, निपट दई को खोयो॥७९॥

 

उद्धव के द्वारा बार – बार निर्गुण ब्रह्म की चर्चा करने पर गोपियाँ नाराज हो गयीं और उन्हें ऐसा लगा कि किसी ने उद्धव पर जादू कर दिया है इसीलिए वे मनन करने पर भी निर्गुण ब्रह्म की बारम्बार रट लगाए हैं । इसमें गोपियों की झुंझलाहट का बहुत सरस वर्णन हुआ है ।

 

हे उद्धव ! कहने के लिए अपने मन में कुछ शक मत रखो । तुम निःसंदेह जो कुछ भी कहना चाहते हो कह डालो । तुम्हारे इतना बोलने पर मुझे संदेह होता है कि तुम्हारे ऊपर किसी ने टोना कर दिया है और तुम सारा दिन पागलों की भांति बकते रहते हो । यह तो बताओ कि तुम जिस निर्गुण ब्रह्म की बात हमसे कर रहे हो उसे किसने अंगीकार किया है । सत्य तो यह है कि तुम्हारा यह निर्गुण ब्रह्म विषयक कथन हमें ऐसा लगा जैसे पवन का भूसा हो जो तेज आंधी में बह गया हो अर्थात तुम्हारी बातें यहाँ उसी प्रकार गायब हो गयीं जैसे तेज आँधी में भूसे का पता ही नहीं चलता । तुम्हारी बातों का यहाँ कुछ भी प्रभाव नहीं है । तुम व्यर्थ ही श्रम कर रहे हो । तुम्हारी बातें यहाँ कौन सुन ने वाला है । तुम्हारा यह कथन तो हमारी दृष्टि में अरण्यरोदन के समान है अर्थात वह सर्वथा प्रभाव हीन है । लेकिन तुम इतने पर भी हमारी बातों पर ध्यान नहीं देते । लगता है तुम सर्वथा गए बीते लोगों में से हो अर्थात बहुत ही निर्लज्ज और नगण्य हो ।79

 

राग धनाश्री

अब नीके कै समुझि परी।
जिन लगि हुती बहुत उर आसा सोऊ बात निबरी॥
वै सुफलकसुत, ये, सखि! ऊधो मिली एक परिपाटी।
उन तो वह कीन्ही तब हमसों, ये रतन छँड़ाइ गहावत माटी॥
ऊपर मृदु भीतर तें कुलिस सम, देखत के प्रति भोरे।
जोइ जोई आवत वा मथुरा तें एक डार के से तोरे॥
यह, सखि, मैं पहले कहि राखी असित न अपने होंहीं।
सूर कोटि जौ माथो दीजै चलत आपनी गौं हीं॥८०॥

 

गोपियाँ अक्रूर से जितनी निराश हो चुकी थीं उतनी ही उद्धव के आने पर उनमें आशा बंधी थी लेकिन उद्धव से भी गोपियों के प्रयोजन की सिद्धि न हो सकी और दोनों एक ही सांचे में ढले हुए लगे । इनके सम्बन्ध में गोपियाँ परस्पर अपने ह्रदय की निराशा व्यक्त कर रही हैं ।

हे सखी ! अब अच्छी तरह समझ में आ गया कि जिनसे कुछ ह्रदय में आशा थी वह बात भी समाप्त हो गयी । अब तो इनसे आशा की बात करना बेकार है । अक्रूर के जाने पर गोपियों को उद्धव से बहुत बड़ी आशा थी कि वे श्री कृष्ण के दर्शन करने में सहायक होंगे लेकिन ये सब बातें निराशा में परिणित हो गयीं । वास्तव में हे सखी ! वे अक्रूर और ये उद्धव दोनों एक ही परंपरा के पोषक हैं । दोनों की रीतियों में कुछ भी अंतर नहीं है । अक्रूर तो उस समय हमारे श्री कृष्ण और बलराम को हमसे छीन कर ले गए और अब ये उद्धव श्री कृष्ण के प्रेम रुपी रत्न को हमसे छीन कर हमें मिट्टी अर्थात निर्गुण ब्रह्म उपासना पकड़ा रहे हैं । कहने का आशय यह है कि ये सगुण उपासना की जगह हमें निर्गुण की उपासना का पथ पढ़ा रहे हैं । ये ऊपर से तो बड़े ही सुशील और कोमल स्वभाव के प्रतीत होते हैं लेकिन ह्रदय से वज्र के समान कठोर और बड़े निर्दयी हैं । लोगों को इन्हें देख कर ऐसा लगता है कि कि ये बड़े भोले-भाले हैं , कुछ जानते ही नहीं । व्यंग्य ये है कि ये अत्यंत धूर्त और कठोर हैं । हमें तो ऐसा लगता है कि मथुरा से जो भी आते हैं सब एक ही पेड़ के तोड़े हुए फल के समान हैं अर्थात सभी का स्वभाव एक समान है । हे सखी ! हमारी बात को कोई माने या न माने हमने पहले ही बता रखा था कि काले वर्ण वाले कभी अपने सगे नहीं होते । इनका विश्वास कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि काले श्याम , काले अक्रूर और काले उद्धव तीनों ही धोखेबाज निकले । सूर के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि यदि इन कालों के लिए अपने मस्तक भी कटवा दें अर्थात यदि इनके लिए हम अपने प्राण भी दे दें तो भी ये अपने दांव में लगे रहते हैं अर्थात ये बड़े ही अविश्वासी हैं ।

 

राग मलार

मधुकर रह्यो जोग लौं नातो।
कहति बकत बेकाम काज बिनु, होय न ह्याँ ते हातो।।
जब मिलि मिलि मधुपान कियो हो तब तू कह धौं कहाँ तो।
तू आयो निर्गुन उपदेसन सो नहिं हमैं सुहातो।।
काँचे गुन लै तनु ज्यों बेधौ ; लै बारिज को ताँतो।
मेरे जान गह्यो चाहत हौ फेरि कै मंगल मातो।।
यह लै देहु सुर के प्रभु को आयो जोग जहाँ तो।
जब चहिहैं तब माँगि पठैहैं जो कोउ आवत-जातो।।81

 

गोपियाँ उद्धव के ज्ञान-योग के उपदेश को बार-बार सुनकर परेशान हो रही हैं। अतः वे उद्धव से झल्लाती हुई कह रही हैं –

 

गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं – हे भ्रमर! यदि यह सही भी है कि कृष्ण ने ही हमारे लिए यह संदेशा भेजा है तो भी क्या यह सही है कि तुम्हारा सम्बन्ध योग तक ही सीमित है। हमें ऐसा प्रतीत हो रहा है कि तुम बिना काम के ही बातें बना रहे हो और हमारे बार-बार कहने पर भी यहां से दूर नहीं भाग जाते हो? हमने कृष्ण के साथ मधुपान किया है । अनेक प्रकार से रसपान किया है। जब हम इस रसपान में संलग्न थीं तब तुम कहाँ थे। उस समय हमें इस मार्ग से दूर करने के लिए क्यों नहीं आये थे। हे उद्धव जी ! तुम यहाँ हमें निर्गुण का उपदेश देने क्यों आये हो? यह तुम्हारा उपदेश हमें नहीं अच्छा लगता है। अतः तेरे द्वारा हमसे अपने निर्गुण उपदेश को स्वीकार करवा लेना । उसी प्रकार असम्भव है, जैसे कोई कच्चा धागा लेकर शरीर को भेदने का प्रयास करे। कच्चा धागा कमजोर होने के कारण शीघ्र ही टूट जाता है। उसका शरीर में प्रवेश कराना असम्भव है। हमें तुम्हारा यह प्रयत्न वैसा ही प्रतीत होता है जैसे कोई कमल के कोमल तन्तुओं द्वारा मदमस्त हाथी को बाँधकर उसे वशीभूत करने का प्रयत्न कर रहा हो। अतः हे उद्धव जी ! तुम कृपया यह करो कि इस योग को वहीं ले जाओ जहाँ से इसे लेकर आये हो। कारण वे ही इसका सही उपयोग जानते हैं। हमें फिलहाल तो इसकी आवश्यकता नहीं है; जब भी कभी होगी तो किसी आते जाते के हाथों मंगा लेते।

 

राग नट

मोहन माँग्यों अपनो रूप।
या व्रज बसत अँचै तुम बैठीं, ता बिनु यहाँ निरुप।।
मेरो मन, मेरो अली ! लोचन लै जो गए धुपधूप।
हमसों बदलो लेन उठि धाए मनो धारि कर सूप।।
अपनो काज सँवारि सूर , सुनु हमहिं बतावत कूप।
लेवा-देइ बरावर में है , कौन रंक को भूप।।82

 

उद्धव का विशेष आग्रह निर्गुणोपासना की ओर था। गोपियाँ उसी आग्रह को समझती हुई कह रही हैं सखियों समझ लो।

 

गोपियाँ कह रहीं हैं कि सखियाँ समझ लो कि उद्धव जी यहां निराकार की शिक्षा देने विशेष कारण से आये हैं। कृष्ण ने अपने रूप सौंदर्य को वापस माँगा है उस रूप को जिसे तुमने इस ब्रज में रहकर पी लिया है। तुम्हारे द्वारा रूप-पान कर लेने के कारण ही कृष्ण अब निरुप हो गए हैं। उसी निरूपता को साकार करने के लिए उन्होंने यह योग का उपदेश भेजा है। सखी की इस बात को सुनकर राधा कहती है कि हे सखी ! क्या तुम्हें पता नहीं है कि कृष्ण मेरा धुला-धुलाया रूप-विशुद्ध मन स्वयं चुराकर ले गए हैं। देखो तो सही कितना अन्याय है कि वे हमारे रूप को तो वापस नहीं करते और ऊपर से उल्टे योग की शिक्षा दे दी है। ये उद्धव है कि हाथ में सूप लेकर हमसे बदला लेने के लिए यहां आये हैं अर्थात अच्छी तरह से जांच-पड़ताल करके अपने लाभ की वस्तु को वापस लेना चाहते हैं। इस प्रकार से अपना काम तो सँवारना चाहते हैं किन्तु हमें कुँए में धकेल रहे हैं। सूरदास कहते हैं कि राधा ने कहा कि लेन-देन करने में सब बराबर होते हैं- कोई छोटा बड़ा नहीं होता है। राजा और रंक का कोई भी भेद यहाँ लेन-देन के मामले में नहीं चलता है। कृष्ण राजा है फिर भी अन्याय के पक्षधर क्यों बने हुए हैं? अपनी वस्तु को तो मांग रहे हैं किन्तु हमारी वस्तु को वापस ही नहीं करना चाहते हैं। भाव यह है कि यदि कृष्ण अपना रूप मांगते हैं तो हमारा वह मन भी तो लौटा दें जिसे वे यहां से चुराकर ले गए हैं।

 

राग नट

हरी सों भलो सो पति सीता को।
वन बन खोजत फिरे बंधु-संग किया सिंधु बीता को।।
रावन मारयो , लंका जारी, मुख देख्यो भीता को।
दूत हाथ उन्हैं लिखि न पठायो निगम-ज्ञान गीता को।।
अब धौं कहा परेखो कीजै कुब्जा के माता को।
जैसे चढ़त सबै सुधि भूली, ज्यों पीता चीता को ?
कीन्हीं कृपा जोग लिखि पठयो, निरख पत्र री ! ताको।
सूरदास प्रेम कह जानै लोभी नवनीता को।।83

 

विरह से ग्रसित गोपियां जब अपने दु:ख में कृष्ण की तरफ से सहानुभूति का एक कण न पा सकी तो अत्यंत दु:खी हो गई और उन्हें विरहानुभूति के क्षणों में सीता की याद हो आई।

 

गोपियां सोच रहीं हैं कि राम कितने अच्छे थे कि उन्होंने अपनी पत्नी के लिए अनेक कष्ट सहे परंतु आखिर उन्हें आखिर पाकर ही छोड़ा। इधर हमारे प्रिय कृष्णा कितने बुरे हैं कि प्रेम के बदले में योग का संदेश दे रहे हैं। इसी प्रश्न में वे सोचती विचारती कह रही हैं –हमारे कृष्ण से तो कहीं अधिक अच्छा पति सीता को मिला था कि उसकी खोज-खबर के लिए राम वन-वन अपने भाई के साथ खोजता फिरा। इतना ही क्यों इतना विशाल समुद्र उन्होंने अपनी प्रिया को पाने के निमित्त छोटा-सा बना डाला। भाव यह है कि सीता के लिए राम ने इतना किया कि समुद्र पर पुल तक तैयार कर दिया किंतु कोई भी वेदना महसूस नहीं की और इधर हमारे कृष्ण हैं कि करना-धरना तो दूर रहा उल्टे जलाने के लिए योग का संदेश और भेज रहे हैं। राम ने तो सीता के ही निमित्त रावण का वध किया; लंका दहन कराया और तब कहीं इतने कष्टों के बाद डरी हुई सीता का मुख देखा। सीता ने भी दूत के माध्यम से संदेश तो भेजा था किंतु वे कितने अच्छे थे कि कोई भी ज्ञान आदि का संदेश नहीं भेजा था। अब तो केवल कुब्जा का ही हाथ उनके ऊपर है कुब्जा के ही वश में हैं। वह इस क्षण कुब्जा के प्रेम में पूरी तरह संलग्न हैं और हमें तो इस प्रकार भूल गये हैं जैसे कोई पीने वाला मदिरा के नशे में सभी होश-हवास खो बैठता है? कृष्ण भी कुब्जा के प्रेम नशे में सभी कुछ भूल गए हैं। हे सखी ! हमारे ऊपर तो उन्होंने प्रेम के बदले में यह कृपा की है कि योग का संदेश लिख भेजा है। देख ! मैं सच कहती हूं, तू स्वयं ही इस पत्र को देख ले। वास्तविकता यह है कि वह तो केवल मक्खन का प्रेमी है । प्रेम की सारी स्थितियों से अनभिज्ञ लगता है कि ये तो उनमें से है जो मरने वालों की चिंता नहीं करते हैं और अपना कार्य करते रहते हैं।

 

राग सोरठ

निरमोहिया सों प्रीति कीन्हीं काहे न दुख होय ?
कपट करि-करि प्रीति कपटी लै गयो मन गोय।।
काल मुख तें काढ़ि आनी बहुरि दीन्हीं ढोय।
मेरे जिय की सोई जानै जाहि बीती होय।।
सोच, आँखि मँजीठ कीन्हीं निपट काँची पोय।
सूर गोपी मधुप आगे दरिक दीन्हों रोय।84

 

गोपियां प्रेम-योगिनियां सभी कुछ सहन कर सकती हैं केवल अपने प्रिय की उपेक्षा उन्हें सह्य नहीं है। वह सोचती हैं कि हर क्षण उपेक्षा सहन करना कठिन है। गोपियों को इस बात का भी दुख है कि उन्होंने कृष्ण जैसे निर्मोही और कलुष हृदय वाले से प्रेम किया ही क्यों। यदि ऐसा ना हो तो फिर परेशानी काहे की थी। इस प्रसंग में वे कह रही हैं।

 

निर्मोही व्यक्ति से प्रेम करने का परिणाम दुख के अतिरिक्त और क्या हो सकता है? अर्थात वह तो भोगना ही पड़ता है। कृष्णा तो इतने स्वार्थी और कपटी निकले कि पूरे छल और चातुर्य से उन्होंने हमसे प्रीति बढ़ाएं और उसी थोथी प्रीति के बहाने मन को चुराकर चलता बना। एक बार तो हम उनकी बातों में आ गई और हमें ऐसा प्रतीत हुआ मानो उसने हमें काल के मुख से निकाल लिया हो, परंतु आज उद्धव के माध्यम से आज योग की शिक्षा दिलाकर हमारी समस्त आशाओं पर पानी फेर दिया है। अब ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो वे हमें मौत के मुंह में धकेल रहे हैं। अतः आज उनके व्यवहार से हृदय में जो वेदना हुई है वह अनिर्वचनीय है। उस पीड़ा को तो वही जान सकता है जो भुक्तभोगी हो, जिसने प्रेममार्ग की पीड़ाओं को भोगा हो। गोपी कह रही हैं कि मैं तो व्यर्थ ही उनकी कच्ची प्रीति के कारण रो-रोकर अपनी आंखों को फोड़ती रही। सूरदास कहते हैं कि इन पश्चाताप की बातों को कहते हुए गोपी विशेष या राधा दहाड़ मारकर रो पड़ी। हमें दुःख तो इस बात का है कि हमने उनके पूर्णतः कच्चे प्रेम को ही पक्का प्रेम समझ लिया था उनके वियोग में आंखों को रो-रोकर के लाल रंग के समान कर लिया था । ठीक वैसे ही जैसे कच्ची गीली लकड़ियों को फूंक-फूंक कर अपनी आंखों को धूएँ से लाल कर कोई रोटी बनाने का प्रयत्न करें। ” इतना कहकर गोपियां निर्ममता से व्यथित होती हुई रो पड़ीं।

 

राग सारंग

बिन गोपाल बैरनि भई कुंजै।
तब ये लता लगति अति सीतल , अब भई विषम ज्वाल की पुंजै।।
बृथा बहति जमुना, खग बोलत, बृथा कमल फूलैं, अलि गुंजै।
पवन पानि घनसार संजीवनि दधिसुत किरन भानु भई भुंजै।।
ए , ऊधो , कहियो माधव सों बिरह कदन करि मारत लुंजै।
सूरदास प्रभु को मग जोवत आँखियाँ भई बरन ज्यों गुंजैं।85

 

संयोग में जो वस्तुएं आनंददायक प्रतीत होती हैं; वह वियोग काल में दुखदाई प्रतीत होने लगती हैं। कृष्ण के साथ जो कुंज बड़े-भले और सुंदर प्रतीत होते थे , वे ही अब कृष्णाभाव में बड़े कड़वे और कष्टदायक प्रतीत हो रहे हैं। इसी भाव की व्यंजना करती हुई गोपियाँ कह रही है –

 

कृष्ण के साथ ये कुञ्ज बड़े सुखद और आनंद प्रद प्रतीत होते थे किन्तु अब उनके बिना रस-युक्त क्रीड़ाओं के आधार कुंज भी हमारे लिए शत्रु बन गए हैं। संयोग काल में ये लताएं बड़ी शीतल लगती थी और उनके विरह में ये कठोर लपटों के समान बन गई हैं। वह कहती हैं कि कृष्णा की उपस्थिति में तो सभी की सार्थकता है किंतु उनके बिना यमुना का जल बहना भी व्यर्थ प्रतीत होता है। इतना ही क्यों पक्षियों का कलरव भी महत्वहीन प्रतीत होता है। कमल व्यर्थ ही बोलते हैं और यह भ्रमर व्यर्थ ही गुलजार करते फिरते हैं। शीतल पवन, कपूर एवं संजीवनी, चंद्र किरणें अब सूर्य के समान जला डालती हैं। भावार्थ यह है कि पवन की शीतलता अब दाहक बन गई है। हे उद्धव ! तुम माधव से जाकर कहना कि विरह की कटार हमें काटकर लंगड़ा बना रही है। सूर कहते हैं कि गोपियों ने कहा कि, हे उद्धव! प्राणेश कृष्ण की प्रतीक्षा करते – करते यह आंखें गुंजा के समान लाल हो गई हैं।

 

राग नट

सँदेसो कैसे कै अब कहौं ?
इन नैनन्ह तन को पहरो कब लौं देति रहौं ?
जो कछु बिचार होय उर -अंतर रचि पचि सोचि गहौं।
मुख आनत ऊधौं-तन चितवन न सो विचार, न हौं।।
अब सोई सिख देहु, सयानी ! जातें सखहिं लहौं।
सूरदास प्रभु के सेवक सों बिनती कै निबहौं।।86

 

कृष्ण ने प्रेम मार्ग की निष्ठुरता का परिचय दिया है और गोपियां उनकी निष्ठुरता को सहन नहीं कर पा रही हैं। उन्हें सबसे अधिक इस बात की चिंता है कि कृष्ण ने प्रेम का उत्तर प्रेम से देने की अपेक्षा योग का संदेश दिया है और वह भी उद्धव जैसे प्रेम – भावना से विहीन  व्यक्ति के द्वारा एक गोपी अपनी इसी दुविधा को व्यक्त करते हुए अपनी सहेली से कह रही है-

 

अब मैं कृष्ण के लिए संदेश किस प्रकार भेजूं अर्थात विचारणीय यह है कि ऐसे पत्थर दिल व्यक्ति को संदेश भेजना उचित भी है या नहीं।मैं अपने इस तन पर नेत्रों का पहरा कब तक लगाती रहूँ। भाव यह है कि कृष्ण वियोग में पहले से ही क्षीण हुआ यह मेरा शरीर अब इस निष्ठुर योग संदेश को सुनकर जीवित नहीं रहना चाहता है किंतु ये नेत्र हैं कि अभी तक यह आस लगाए बैठे हैं कि कृष्ण के दर्शन अवश्य होंगे। यही कारण है कि मेरे शरीर पर निरंतर पहरा लगाते रहते हैं। मैं चाहूं भी तो मुझे प्राण छोड़ने नहीं देते हैं। गोपी कहती हैं कि कभी मेरे हृदय में कृष्ण को संदेश देने की बात उठती है तो भी मैं बहुत सोच-विचार कर और मन मार कर रह जाती हूं। कारण यह है कि जिस व्यक्ति ने हमें योग का संदेश भेजा है उसके लिए संदेश-प्रेम-संदेश किस बल पर भेजा जाए। इतने पर भी यदि हिम्मत करके मैं कुछ कहना चाहती हूं; संदेश की बात मेरे मुख तक आ जाती है। मैं उसे कहना चाहती हूं कि, इन उद्धव की निगाह जाते ही न मेरे वे विचार ही रहते हैं और न मैं ही। भाव यह है कि योग का संदेश भेजने वाले कृष्ण के मित्र इन उद्धव को देखकर ही मैं कर्त्तव्य पूर्ण हो जाती हूँ कि इतने निष्ठुर और हृदय हीन व्यक्ति के द्वारा मैं अपना संदेश कैसे भेजूं? इन्हें देखने देखते ही वे संपूर्ण विचार गायब हो जाते हैं और मैं संज्ञाहीन सी हो जाती हूँ। मन में आए संपूर्ण विचार बिखर जाते हैं और उनके बिखरते ही अपनी सभी सुधि-बुधि भूल जाती हूं। अतः हे सखी अब तो कोई ऐसी सलाह दो जिससे कि मैं कृष्ण को प्राप्त कर सकूं । सूरदास कहते हैं कि गोपी अपनी सखियों से पूछने लगी कि , यह जो कृष्ण का मित्र उद्धव आया है, इससे किस ढंग से प्रार्थना की जाए अर्थात किस रीति से उद्धव जी को समझा-बुझाकर यह तय किया जाए कि हमें तुम कृष्ण के दर्शन करा दो और अपनी इस योग-चर्चा को बंद कर दो।

 

राग कान्हरो

बहुरो ब्रज यह बात न चाली।
वह जो एक बार ऊधो कर कमलनयन पाती दै घाली।।
पथिक ! तिहारे पा लगति हौं मथुरा जाब जहां बनमाली।
करियो प्रगट पुकार द्वार ह्वै ‘कालिंदी फिरि आयो काली’।।
जबै कृपा जदुनाथ कि हम पै रही, सुरुचि जो प्रीति प्रतिपाली।
मांगत कुसुम देखि द्रुम ऊँचे, गोद पकरि लेते गहि डाली।।
हम ऐसी उनके केतिक हैं अग-प्रसंग सुनहु री, आली !
सूरदास प्रभु रीति पुरातन सुमिरि राधा-उर साली।।87

 

इस पद में उस समय का वर्णन किया गया है, जब उद्धव संदेश देकर वापस में मथुरा चले गए हैं और उसके बाद भी गोपियों की परेशानी दूर नहीं हुई है। उस समय राधा व्याकुल हो उठी और किसी पथिक के द्वारा कृष्ण तक संदेश भेजने के लिए तैयार हो गई हैं।

 

गोपियां पथिक को संबोधित करते हुए कह रही हैं कि हे पथिक! हे उद्धव ! ब्रज में उद्धव के अलावा कोई भी अन्य संदेशवाहक नहीं आया है जिसने कृष्ण विषयक कोई भी बात कही हो। परिणामतः कृष्ण की कोई भी चर्चा सुनने को नहीं मिली है। अतः राधा पथिक के पैरों को पड़ती हुई कह रही हैं कि हे राहगीर! मैं तेरे चरण छूती हूं , आप कृपा करके वहां चले जाइए। जहां वनमाली कृष्ण निवास करते हैं। वह आगे कह रहीं हैं कि तुम उनके दरवाजे पर पहुंचकर दूर से ही इस प्रकार पुकारना कि हे प्रभु! यमुना में फिर से काली नाग आकर रहने लगा है। बहुत संभव है कि कृष्ण इस बात को सुनकर पूर्व की भांति उसे मारने के लिए ही जाएं। हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारी उनकी प्रीति की पुरातनता उन्हें यहां आने के लिए विवश कर देगी । तुम अच्छी तरह समझ लो कि कृष्ण जब यहां रहा रहते थे तब वे सदैव कृपा किया करते थे। उनका प्रणय-भाव पूरी ‘सुरुचि’ के साथ हमें सदैव प्राप्त होता रहता था। जब हम किसी वृक्ष पर ऊंचाई पर लगा हुआ पुष्प मांगती थी तो कृष्ण हमें गोद में उठा लेते थे और हम डाली पकड़कर उस अभीष्ट फल या फूल को तोड़ लेती थीं। ऐसी प्रीति थी तब हमें विश्वास है कि वे हमारे कष्टों को सुनकर अवश्य ही आएंगे।”  हे सखी! हम जैसी उनके कितनी ही प्रेयसी ना होंगी। अतः हे सखी ! ध्यान से सुन लो! हमारे पास कृष्ण विषयक अनेक कथाएं और कथाएं मौजूद हैं । सूरदास कह रहे हैं कि इस प्रकार राधा और कृष्ण के उन विगत प्रेम भरे व्यवहारों को याद कर करके अत्यंत विह्वल होने लगी कृष्ण की स्मृतियां उन्हें पीड़ित करने लगी।

 

राग गौरी

ऊधो ! क्यों राखौं ये नैन ?
सुमिरि सुमिरि गुन अधिक तपत हैं सुनत तिहारो बैन।।
हैं जो मन हर बदनचंद के सादर कुमुद चकोर।
परम-तृषारत सजल स्यामघन के जो चातक मोर।
मधुप मराल चरनपंकज के, गति-बिसाल-जल मीन।
चक्रबाक, मनिदुति दिनकर के मृग मुरली आधीन।।
सकल लोक सूनी लागतु है बिन देखे वा रूप।
सूरदास प्रभु नंदनंदन के नखसिख अंग अनूप।।88

 

गोपियां कृष्ण के वियोग में व्यथित हैं और वे अनेक युक्तियों से नेत्रों की दयनीय स्थिति का वर्णन कर रही हैं कि कृष्ण के बिना इनकी दशा दिनों दिन बिगड़ती जा रही है।

 

गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि उद्धव हम अपने नेत्रों को किस प्रकार और किस लिए समझाएं । हमें कृष्ण की ओर से कोई आशा भी तो नहीं जगती प्रतीत नहीं होती है। एक तो ये आपकी कठोर वाणी सुनते ही श्री कृष्ण के गुणों का स्मरण करके संतप्त होने लगते हैं । हमारे ये नेत्र श्री कृष्ण के अंग – प्रत्यंग के उपासक हैं । ये कृष्ण के सुंदर मुखचंद के लिए कुमुद और चकोर हैं, जिन्होंने निरख-निखरकर ही विकास करना सीखा है। यह उसी ओर टकटकी लगाकर देखते रहने में ही संतोष लाभ करते हैं। यह हमारे नेत्र उन सजल घनश्याम की रूप-माधुरी के लिए परम प्यासे मयूर और चातक हैं तथा उनके चरण कमलों पर अटल अनुराग करने वाले यह भ्रमर और हंस हैं। यदि श्री कृष्ण की मनोहर चाल गति रूप जल प्रवाह है तो हमारे नेत्र उसी जल प्रवाह में आनंद मग्न रहने वाले मीन अर्थात मछली हैं । कृष्ण के कानों में चमकते हुए कुण्डलों को देख कर ये नेत्र सूर्यकांत मणि और चक्रवाक पक्षी ही तो हैं और उन्हीं के समान प्रसन्न हो जाते हैं ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार जैसे  सूर्य की प्रभा को देख कर चक्रवाक पक्षी प्रसन्न होता है और सूर्यकांत मणि सूर्य की प्रभा से द्रवित होती है और उनकी मधुर मुरली के स्वरों के लिए ये मृग हैं। इस प्रकार हमारे नेत्र उनकी प्रत्यंग व्यापिनी माधुरी मूर्ति पर पूरी तरह मोहित हैं। यदि वह कृष्ण का रूप इन्हें नहीं दिखता है, तो इन्हें सारा संसार सूना प्रतीत होता है। सूरदास कहते हैं कि कृष्ण का समस्त रूप सौंदर्य अप्रतिम है- उसकी कोई तुलना ही नहीं है अर्थात अद्वितीय है। यदि इन्हें इतना सौंदर्य प्राप्त ना होता तो संसार का सौंदर्य ही इसके बिना फीका होता। वस्तुतः वही सौंदर्य तो सांसारिक सौंदर्य का मूल है, उसकी स्थिति से ही समस्त सौंदर्य सुंदर होता है अगर वह नहीं तो यह समस्त सौंदर्य शुष्क और नीरस है।

 

राग मलार

सँदेसनि मधुबन-कूप भरे।
जो कोउ पथिक गए हैं ह्याँ तें फिरि नहिं अवन करे।।
कै वै स्याम सिखाय समोधे कै वै बीच मरे ?
अपने नहिं पठवत नंदनंदन हमरेउ फेरि धरे।।
मसि खूँटी कागद जल भींजे, सर दव लागि जरे।
पाती लिखैं कहो क्यों करि जो पलक-कपाट अरे ?89

 

इस पद्य में एक गोपी श्री कृष्ण की निष्ठुरता का वर्णन कर रही है।

 

गोपियाँ कृष्ण के वियोग में पूर्णतः दुखी जीवन बिता रही थीं। उन्होंने एक बार नहीं बल्कि कई बार श्री कृष्ण को संदेश भेजा कि कृष्ण हमेशा के लिए न सही कम से कम एक बार तो आ जाएं पर कृष्ण ने तो पूरी निष्ठुरता धारण कर ली है। वे आये ही नहीं। इस संदर्भ में एक गोपी कह रही है – संदेशों से मथुरा का सारा कुआं भर गया है। हमने अनेक संदेश भेजे हैं किन्तु एक का भी कोई उत्तर नहीं आया है। हमने जिन पथिकों के माध्यम से कृष्ण के पास संदेश भेजा है वे भी दुबारा लौटकर नहीं आये हैं। न जाने क्या कारण है जिससे वे आये ही नहीं हैं। हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि या तो उन्हें कृष्ण ने समझा – बुझा दिया है जिससे वे दुबारा लौटकर नहीं आये हैं या फिर कहीं रास्ते में ही उनके प्राण निकल गए हैं। गोपियाँ कहती हैं कि आश्चर्य की बात यह है कि वे अपने संदेश वाहकों को तो भेजते ही नहीं हैं हमारे भी अपने पास रख लिए हैं। भाव यह है कि समझा – बुझाकर उन्हें भी जैसे-तैसे कर समझा दिया है परिणामतः वे आये ही नहीं हैं। उस कृष्ण को पत्र लिखते – लिखते भी हम परेशान हो गई हैं। सभी स्याही समाप्त हो गयी है और कागज भी अश्रु जल से भीग गया है। इतना ही नही बल्कि सरकंडे जिनसे कलम बनती थी वे भी समाप्त हो गई हैं। अतः अब तो स्थिति बहुत ही विचित्र हो गई है। अब चिट्ठी कैसे लिखी जा सकती है क्योंकि हमारे नेत्रों के पलक रूपी किवाड़ बंद हो गए हैं। भाव है कि साधनों के अभाव के कारण पत्र लिखने और संदेश भेजने में बाधा पहुँच रही है।

 

राग नट

नंदनंदन मोहन सों मधुकर ! है काहे की प्रीति ?
जौ कीजै तौ है जल, रवि औ जलधर की सी रीति।।
जैसे मीन, कमल, चातक, को ऐसे ही गई बीति।
तलफत, जरत, पुकारत सुनु, सठ ! नाहिं न है यह रीति।।
मन हठि परे, कबंध जुध्द ज्यों, हारेहू भइ जीति।
बँधत न प्रेम-समुद्र सूर बल कहुँ बारुहि की भीति।।90

 

इस पद में गोपियाँ कृष्ण की निष्ठुरता पर व्यंग्य कर रही हैं ।

 

उद्धव के वचन को सुनकर गोपियों को जो कष्ट हुआ वह बताया नहीं जा सकता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि कृष्ण का व्यवहार गोपियों के प्रति निष्ठुरतापूर्ण था। इसी निष्ठुरता पर व्यंग्य करती हुई गोपियों कह रहीं हैं कि हे भ्रमर ! नंदनंदन कृष्ण से हमारी प्रीति किस बात की है। भाव यह है कि वे हमें प्रेम ही नहीं करते हैं। उनसे जो भी प्रेम करता है वह पछताता रहता है। कारण कृष्ण का व्यवहार तो अपने प्रियजनों के प्रति उसी प्रकार का है जैसा कि जल, सूर्य और बादल का । जल से मछली प्रेम करती है, सूर्य से कमल और बादल से चातक प्रेम करता है पर इन प्रेम करने वालों की स्थिति ऐसी है कि स्वयं तो प्रेम में तड़पते रहते हैं और अपने प्रिय से कुछ प्रेम भी प्राप्त नहीं करते। जल के अभाव में मछली तड़पती रहती है। सूर्य के अभाव में कमल जलकर ही चैन पाता है – अर्थात विनष्ट हो जाता है। इसी प्रकार बादल के बिना चातक पी-पी की पुकार लगाता रहता है। हे शठ ! हे मूर्ख भ्रमर! तू इस बात को अच्छी तरह समझ ले कि प्रेम का यह नियम नहीं है। प्रेम तो दोनों ओर से होता है। कोई उसे एक ओर से निभाना चाहे तो वह सम्भव नही है। अतः प्रेम का यह नियम नहीं है जो तुम या तुम्हारे आराध्य अपना रहे हो। मीन, कमल और चातक अपने मन से प्रेम करते हैं और उनके मर जाने पर प्रिय को प्राप्त करने में असफल हो जाने पर भी उसकी जीत ही मानी जानी चाहिए। योद्धा युद्ध में लड़ते हैं फिर लड़ते – लड़ते उनका सिर कट जाता है तो उनका धड़ ही लड़ता रहता है। यह उनकी निष्ठा है और इसी कारण उसके निमित्त उन्हें प्रतिष्ठा या सम्मान की प्राप्ति होती हैं। मछलियाँ और चातक आदि भी अपनी प्रेमजनित निष्ठा के कारण ही ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। सूरदास कहते हैं कि गोपियों ने उद्धव से कहा कि हे उद्धव ! प्रेम का सागर कहीं बालू या रेत की दीवार के द्वारा वश में किया जा सकता है। भाव यह है कि यह सम्भव नहीं है तो हमारा व्यक्तित्व भी इसे कैसे सम्पन्न करे। तुम्हारा निर्गुण ब्रह्म का उपदेश हमारे हृदयों में प्रवाहित प्रेम के सागर को कैसे बाँध सकता है। इतने पर भी यदि तुम यही समझते हो कि यह सम्भव है तो यह तुम्हारा भ्रम है। गोपियाँ यह कहना चाहती हैं कि हम अपने प्रेम-मार्ग से पूर्णतः दृढ़ता से सलग्न हैं। उसमें कोई भी कमजोरी नहीं है।

 

 

 

 

 

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