Surdas Bhramar Geet – Part 5 | सूरदास भ्रमर गीत | सूरदास द्वारा रचित भ्रमर गीत | भ्रमर गीत | Bhramar Geet | गोपियों द्वारा उद्धव को उपदेश | गोपियों और उद्धव के मध्य संवाद | Surdas Bhramargeet | सूरदास का भ्रमरगीत | Bhramar geet in Hindi | Bhramar Geet Lyrics with Hindi Meaning | Bhramar Geet Saar – Surdas | भ्रमरगीत सार के पदों की व्याख्या | Surdas Bhramar Geet | Bhramar Geet by Soordas | Bhramar Geet Composed by Soordas | Bhramar Gita | उद्धव द्वारा गोपियों को ज्ञान का उपदेश | सूरदास का भ्रमर गीत | भ्रमर गीता | भ्रमर गीत हिंदी लिरिक्स | भ्रमर गीत हिंदी अर्थ सहित | Gopi Bhramar Geet | भ्रमर गीतम | भ्रमर गीता | गोपी भ्रमर गीत | गोपी भ्रमर गीता | भ्रमर गीत हिंदी लिरिक्स
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राग सारंग
ऊधो! प्रीति न मरन बिचारै।
प्रीति पतंग जरै पावक परि, जरत अंग नहिं टारै॥
प्रीति परेवा उड़त गगन चढ़ि गिरत न आप सम्हारै।
प्रीति मधुप केतकी-कुसुम बसि कंटक आपु प्रहारै॥
प्रीति जानु जैसे पय पानी जानि अपनपो जारै।
प्रीति कुरंग नादरस, लुब्धक तानि तानि सर मारै॥
प्रीति जान जननी सुत-कारन को न अपनपो हारै?
सूर स्याम सोँ प्रीति गोपिन की कहु कैसे निरुवारै॥१२१॥
इस पद में गोपियाँ उद्धव को समझा रही हैं कि प्रेम के मार्ग में मृत्यु की भी चिंता नहीं की जाती । वे अनेक प्रेम पात्रों के आदर्श गुणों की चर्चा करती हुयी यह संकेत करती हैं कि यदि श्री कृष्ण के लिए यह जीवन देना भी पड़े तो चिंता की बात नहीं ।
हे उद्धव ! प्रेम के मार्ग में मृत्यु का विचार नहीं किया जाता अर्थात मृत्यु के भय से कोई साधक अपने मार्ग से कभी विचलित होते नहीं देखा गया । प्रेम साधकों को प्रेम मार्ग पर चलने से कुछ ऐसा आनंद मिलता है कि वे हँसते – हँसते जीवन को उत्सर्ग कर देते हैं जैसे प्रेम के ही कारण पतंगा दीपक की आग में पड़ कर अपने जीवन को समाप्त कर देता है । वह चाहे तो दीपक की ज्वाला से भाग जाये लेकिन दीपक के प्रति उसका ऐसा प्रेम है कि वह उसमें जल जाता है और जलते समय उस आग से अपने तन को हटाता नहीं है । उड़कर चला नहीं जाता । कबूतर भी जब बहुत ऊंचे आकाश में पहुँच जाता है और वहां से जब अपनी कबूतरी को देखता है तो इतनी तेजी से उस पर गिरता है कि अपने प्राणों की भी चिंता नहीं करता । इतने ऊँचे आकाश से गिरने पर उसकी मृत्यु हो सकती है लेकिन कबूतरी के प्रेम में उसे मृत्यु की चिंता ही नहीं होती । प्रेम के ही कारण भ्रमर केतकी पुष्प में बस जाता है और यह नहीं देखता कि उसके तीक्ष्ण काँटों से उसके कोमल अंग विदीर्ण हो जायेंगे । वह इसकी चिंता किये बिना स्वयं ही कांटे की चोट सहता है । प्रेम तो दूध और पानी का देखना चाहिए । दूध जब आग में जलता है तो पानी दूध के प्रेम में आत्मभाव के कारण उसे बचाता है और अपने आप को जला देता है । आदर्श प्रेमी तो हिरण होते हैं जो संगीत के आनंद में मुग्ध हो जाते हैं और प्रेम की ऐसी तन्मयता देखकर बहेलिया खूब कस कस कर उस पर बाणों का प्रहार करता है । इस प्रहार से वो अपनी उस संगीत की तन्मयता से विलग नहीं हो पाता। प्रेम के ही कारण कौन माता अपने पुत्र के लिए अपने सुख दुःख को नहीं त्याग देती । आशय यह है कि माता की सभी चिंता पुत्र के सुख दुःख के लिए होती है । अपने आपके लिए नहीं । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हे उद्धव ! हम गोपियों का प्रेम भी इसी प्रकार श्याम सुन्दर से है । भला बताओ ऐसे प्रेम को कैसे दूर किया जा सकता है ?
राग रामकली
ऊधो! जाहु तुम्हैं हम जाने।
स्याम तुम्हैं ह्याँ नाहिं पठाए तुम हौ बीच भुलाने॥
ब्रजवासिन सौँ जोग कहत हौ, बातहु कहन न जाने।
बड़ लागै न विवेक तुम्हारो ऐसे नए अयाने॥
हमसोँ कही लई सो सहिकै जिय गुनि लेहु अपाने॥
कहँ अबला कहँ दसा दिगंबर सँमुख करौ, पहिचाने॥
सांच कहौ तुमको अपनी सौं[१] बूझति बात निदाने।
सूर स्याम जब तुम्हैं पठाए तब नेकहु मुसुकाने?॥१२२॥
गोपियाँ जब उद्धव की धृष्टता से ऊब जाती हैं तो वे अपने तीखे व्यंग्य द्वारा उन्हें बनाने की पूर्ण चेष्टा करती हैं । प्रस्तुत पद में उद्धव के प्रति गोपियों के व्यंग्य , विनोद और उपहास का बड़ा ही यथार्थ और सहज रूप व्यक्त हुआ है ।
हे उद्धव ! जाओ हमने तुम्हें ठीक तरह से पहचान लिया अर्थात तुम इस भ्रम में मत रहो कि हम तुम्हारे मर्म को नहीं समझतीं । अरे हमें तो ऐसा लगता है कि श्यामसुंदर ने तुम्हें हमारे पास नहीं भेजा , कहीं अन्यत्र भेजा था लेकिन बीच में ही अपना रास्ता भूल गए हो और यहाँ पहुँच गए । तुम ब्रजवासियों से योग की चर्चा कर रहे हो लेकिन ब्रजवासियों से इस प्रकार की बात करनी चाहिए या नहीं इसे तुम नहीं जानते । आशय यह है कि श्री कृष्ण ने अपना योग सन्देश विवेकशील प्राणियों के पास भेजा था लेकिन तुम हम अज्ञानियों के पास पहुँच गए । अतः तुम अपनी बात अर्थात दार्शनिक जटिलताओं को समझाना भी नहीं जानते । तुम्हारा यह विवेक हमें बड़ा नहीं लगता । इसमें तुम्हारी थोड़ी समझदारी का परिचय मिलता है और तुम एक नए या विचित्र ढंग के अज्ञानी प्रतीत होते हैं क्योंकि आज तक हमने नहीं सुना कि स्त्रियों को भी योग साधना की ओर प्रवृत्त किया जाये । भला अज्ञानी अहीर की स्त्रियां योग के मर्म को क्या जाने ? तुमने ऐसी मूर्खता और ह्रदय को पीड़ित करने वाली जो बातें हमें बतायीं उसे हमने तो किसी प्रकार सहन कर लिया लेकिन अपने मन में जरा विचार कर के देखो कि अबला और दिगंबर साधु की दशा में कितना अंतर है । एक वीतराग सांसारिक लिप्सा और घर गृहस्थ से दूर और दूसरे वे हैं जो सांसारिक जीवन में पगे हैं । इन दोनों में मेल कैसे हो सकता है ? इसे तुम प्रत्यक्ष पहचानने का प्रयत्न करो। कोरे सिद्धांतों के द्वारा दोनों के तात्विक अंतर को नहीं समझा सकते। छोडो इन बातों को । हमें अंततः तुमसे एक बात पूछनी है , तुम्हें हमारी सौगंध है । सच – सच बताना वह यह कि जब कृष्ण ने तुम्हें हमारे पास भेजा था तो क्या वे किंचित मुस्कुराये भी थे । यदि भेजते समय वे मुस्कुराये थे तो निश्चय ही उन्होंने तुम्हारे साथ मजाक किया है और तुम्हें मूर्ख बनाने के लिए हमारे पास योग का सन्देश भेजा है । व्यंजना यह है कि उन्होंने जान बूझ कर तुम्हारे ज्ञान गर्व से स्फुरित व्यक्तित्व को समाप्त करने के उद्देश्य से यहाँ भेजा है और यह भी सोचा होगा कि तुम प्रेम और भक्ति की गरिमा को समझो ।
राग धनाश्री
ऊधो! स्यामसखा तुम सांचे।
कै करि लियो स्वांग बीचहि तें, वैसेहि लागत कांचे।
जैसी कही हमहिं आवत ही औरनि कही पछिताते।
अपनो पति तजि और बतावत महिमानी कछु खाते॥
तुरत गौन कीजै मधुबन को यहां कहां यह ल्याए?
सूर सुनत गोपिन की बानी उद्धव सीस नवाए॥१२३॥
गोपियाँ श्री कृष्ण और उद्धव की प्रकृति की समता करती हुयी कह रही हैं कि दोनों ही स्वांग करने में कच्चे हैं अर्थात गंवार हैं । इन्हें स्वांग करना भी नहीं आता क्योंकि दोनों के स्वांग की कलई खुल गयी ।
हे उद्धव ! क्या सचमुच तुम श्री कृष्ण के सच्चे मित्र हो अथवा बीच में ही स्वांग रचकर हम सब को धोखा देने आये हो ? क्योंकि तुम उन्हीं के स्वभाव के लगते हो । उन्होंने भी हम लोगों से प्रेम का अभिनय किया था क्योंकि कुछ समय तक हम लोगों को उन्होंने अपने झूठे प्रेम में फंसाया और अंत में कुब्जा से प्रेम कर लिया। तुम भी उन्हीं की भांति कच्चे लगते हो । स्वांग करना नहीं जानते और इस कला में गंवार प्रतीत होते हो । तुमने आते ही हमसे जिस प्रकार की बातें कहीं अर्थात श्री कृष्ण को छोड़ कर जो निर्गुण ब्रह्म की उपासना का मार्ग बतलाया यदि वैसी ही बातें किसी दूसरे से करते तो निश्चय ही तुम्हें पछताना पड़ता अर्थात इस करनी का फल तुम्हें मिलता और यदि किसी स्त्री के समक्ष अपना पति छोड़ कर किसी दूसरे को ग्रहण करने की चर्चा करते तो तुम्हारी अच्छी आवभगत होती । व्यंजना यह है कि तुम्हें बहुत दंड मिलता । तुम्हारी भली-भाँति मरम्मत होती । हे उद्धव ! उत्तम यही है कि तुम शीघ्र ही मथुरा के लिए प्रस्थान कर दो और यह योग तुम यहाँ कहाँ लाये हो , यहाँ कौन इसका पारखी है ? सूर के शब्दों में गोपियों कि वाणी को सुनते ही उद्धव ने अपना मस्तक झुका लिया । वे निरुत्तर हो गए । उनसे कुछ कहते न बना ।
राग केदारो
ऊधोजू! देखे हौ ब्रज जात।
जाय कहियो स्याम सों या विरह को उत्पात॥
नयनन कछु नहिं सूझई, कछु श्रवन सुनत न बात।
स्याम बिन आंसुवन बूड़त दुसह धुनि भइ बात॥
आइए तो आइए, जिय बहुरि सरीर समात।
सूर के प्रभु बहुरि मिलिहौ पाछे हू पछितात॥१२४॥
कृष्ण के बिना गोपियों की दशा अत्यंत दयनीय हो गयी । प्राण शक्तियां शनैः शनैः क्षीण हो रही हैं । गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि यह उनका अंतिम समय है । यदि ऐसे समय उनका दर्शन हो जाता है तो शायद निकलते हुए ये प्राण शरीर में पुनः प्रवेश कर जाएं।
हे उद्धव ! तुम तो ब्रजवासियों की दशा प्रत्यक्ष रूपेण देखे जा रहे हो । तुमसे क्या छिपा है ? अतः वियोगजनित हम ब्रजवासियों की सभी परेशानियां श्री कृष्ण से स्पष्टरूपेण जा कर बता देना । हमारी स्थिति तो इस प्रकार दयनीय हो गयी है कि न आँखों से कुछ दिखाई पड़ता है । वियोग में रोते – रोते आँखों कि ज्योति क्षीण हो गयी है और न कानों से कुछ सुनाई पड़ता है । श्रवण शक्तियां भी समाप्त हो चुकी हैं । आँखें श्री कृष्ण के बिना आंसुओं में डूबी रहती हैं । तात्पर्य यह है कि आँखों से निरंतर आंसू बहते रहते हैं और उनका बहना बंद नहीं होता । आंसुओं के जल में आँखें डूबी रहने के कारण कारण कुछ दिखाई नहीं पड़ता और जो लोग बातें करते हैं कि उनकी ध्वनि श्याम के बिना कानो को असह्य हो गयी हैं । हम सब कृष्ण के बिना किसी भी प्रकार की बात सुनना पसंद नहीं करते । उनसे तुम स्पष्ट कह देना कि यदि वे आते हैं और हमें दर्शन देते हैं तो ये जाते हुए हमारे पररण शरीर में पुनः आ जायेंगे अर्थात हम पुनर्जीवित हो जायेंगीं अन्यथा यदि वे अवसर पर नहीं मिलते हैं तो उन्हें पछताना पड़ेगा । आशय यह है कि आशा में हमारे प्राण अटके हैं। यदि समय पर उनका दर्शन हो जाता है तो ये प्राण बने रहेंगे अन्यथा मर जाने पर यदि वे आते हैं तो उन्हें दुःख होगा और निराश होकर यहाँ से जाना पड़ेगा । हमारे मर जाने के बाद वे किस से मिलेंगे ?
राग नट
ऊधो! बेगि मधुबन जाहु।
जोग लेहु संभारि अपनो बेंचिए जहँ लाहु॥
हम बिरहिनी नारि हरि बिनु कौन करै निबाहु?
तहां दीजै मूर पूजै[२], नफा कछु तुम खाहु॥
जौ नहीं ब्रज में बिकानो नगरनारि बिसाहु।
सूर वै सब सुनत लैहैं जिय कहा पछिताहु॥१२५॥
गोपियाँ उद्धव के योग का उपहास कर रही हैं क्योंकि उद्धव की बातों को वे सुनते – सुनते ऊब गयी हैं और अब अधिक सुनने में असमर्थ हैं । उनका कथन है कि इस योग की अधिकारिणी कुब्जा जैसी नारियां हैं जो भोग में लिप्त हैं ।
हे उद्धव ! तुम शीघ्र ही मथुरा जाओ । तुम अपना योग अच्छी तरह संभाल लो और वहां बेचो जहाँ तुम्हें लाभ मिले । तात्पर्य यह है कि यहाँ तो तुम्हें लाभ के बदले हानि उठानी पड़ेगी क्योंकि यहाँ तुम्हारे योग के महत्व को कोई नहीं समझता । हाँ , मथुरा नगर में इसके अनेकों मर्मी मिल जायेंगे । हम सब विरहिणी नारियां हैं । श्री कृष्ण के बिना हमारा कौन निर्वाह कर सकता है ? हमें तो एकमात्र श्री कृष्ण का ही सहारा है । वे ही हम सबका निर्वाह कर सकते हैं । तुम अपने इस योग को वहां बेचो जहाँ तुम्हारी इसमें फँसी हुयी पूँजी निकल आवे और इस से कुछ कमाओ। देखो उद्धव ! दुःख मानने की बात नहीं है यदि तुम्हारा यह योग ब्रजमंडल में नहीं बिकता है तो मथुरा की नारियां इसे अवश्य खरीद लेंगीं वहीं इसे ले जाओ । वे इस योग को सुनते ही ले लेंगीं । तुम्हारा यह माल बिक नहीं रहा है इसके लिए तुम पश्चाताप क्यों कर रहे हो ? अरे यहाँ नहीं बिकता है तो मथुरा में तो बिक ही जायेगा ।
राग नट
ऊधो! कछु कछु समुझि परी।
तुम जो हमको जोग लाए भली करनि करी॥
एक बिरह जरि रहीं हरि के, सुनत अतिहि जरी।
जाहु जनि अब लोन लावहु देखि तुमहिं डरी॥
जोग-पाती दई तुम कर बड़े जान हरी।
आनि आस निरास कीन्ही, सूर सुनि हहरी॥१२६॥
गोपियाँ उद्धव के योग सन्देश से असंतुष्ट हो कर उन्हें व्यंग्य पूर्ण शैली में भला बुरा कह रही हैं और डाँट रही हैं कि वे वियोग कि ज्वाला में जली गोपियों पर अब नमक न छिड़कें ।
हे उद्धव ! अब तुम्हारी बातें कुछ – कुछ हमारी समझ में आ रही हैं । सचमुच तुम जो हमारे लिए योग का सन्देश लाये हो यह तुम्हारा बहुत ही श्रेष्ठ कार्य है । व्यंजना यह है कि तुम्हारा योग सन्देश हमारे लिए एक निंदनीय कार्य सिद्ध हुआ है क्योंकि एक तो हम सब श्री कृष्ण के वियोग की ज्वाला में पहले ही से जली थीं , दूसरे तुम्हारे योग सन्देश को सुनकर और जल उठीं । तात्पर्य यह है कि हमें द्विगुणित पीड़ा हुई । अतः उत्तम यही होगा कि तुम यहाँ से चले जाओ और इस जले पर नामका मत छिड़को। एक दुःख से दूसरा दुःख देकर हमारी पीड़ा और मत बढ़ाओ । हम सब तुम्हें देखकर भयभीत हो गयी हैं । सोचती हैं कि अब न जाने तुम कौन सा दुःख डोज । अतिशय सुजान श्री कृष्ण ने तुम्हारे हाथों योग का पत्र अर्थात योग सन्देश भेजा है । आशय यह है कि यदि वे चतुर और बुद्धिमान होते तो हम अबलाओं के पास योग का सन्देश न भेजते। सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! तुमने आकर हमारी आशा को निराशा में परिणित कर दिया । अभी तक तो हम सब आशान्वित थीं कि श्री कृष्ण हम सब को दर्शन देंगे लेकिन अब उनके योग सन्देश को सुनकर हम सब बिलकुल निराश हो गयीं और दहल गयी हैं ।
राग धनाश्री
ऊधो! सुनत तिहारे बोल।
ल्याए हरि-कुसलात धन्य तुम घर घर पार्यो गोल॥
कहन देहु कह करै हमारो बरि उड़ि जैहै झोल।
आवत ही याको पहिंचान्यो निपटहि ओछो तोल॥
जिनके सोचन रही कहिबे तें, ते बहु गुननि अमोल।
जानी जाति सूर हम इनकी बतचल चंचल लोल॥१२७॥
इस पद में गोपियों ने उद्धव की प्रकृति का यथार्थ निरूपण किया है । गोपियों के अनुसार उद्धव अत्यंत बकवादी , लम्पट और बेईमान व्यक्ति हैं । उद्धव के प्रति गोपियों ने क्रुद्ध हो कर अपने ह्रदय का सच्चा उदगार व्यक्त किया है ।
हे उद्धव ! हम सब तुम्हारी बात को सुन रही हैं और अच्छी तरह उसे समझ भी रही हैं । तुम धन्य हो कि श्री कृष्ण की कुशलता का समाचार क्या लाये कि घर – घर में गड़बड़ी पैदा कर दी । तुम्हारे योग सन्देश को सुनकर घर – घर में कोहराम मच गया । व्यंजना यह है कि तुम्हारी दुष्टता की हद हो गयी क्योंकि तुमने श्री कृष्ण की कुशलता के बहाने ब्रज के प्रत्येक प्राणी को दुखी किया । उद्धव से जब कोई सखी इस प्रकार कह रही थी उसी समय एक अन्य गोपी ने कहा कि हे सखी ! यह जो कुछ कहता है । इसे कहने दो । उससे हमारी क्या हानि होगी ? हमारा कुछ बनता बिगड़ता नहीं है । इसकी बातें तुम देखोगी जल कर राख के रूप में उड़ जाएंगी । इसकी बकबकाहट कुछ देर में समाप्त हो जाएगी और उसका हम हैब पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा । हमने तो इसे आते ही पहचान लिया था कि यह अतिशय बेईमान प्रकृति का व्यक्ति है । इसकी नियत ठीक नहीं है और यह तौल में कम अर्थात हल्का है अर्थात स्वभाव का गंभीर नहीं है । अरी अभी तक तो हम जिनके संकोच ( जिस कृष्ण के सखा होने के कारण ) में कुछ भी कहने से रहीं अर्थात कुछ भी नहीं कहा लेकिन ये तो अमूल्य गुणवान निकले । बड़े ही गुणज्ञ और महान पुरुष प्रमाणित हुए । सूर के शब्दों में उस गोपी का कथन है कि हमने इनकी जाति पहचान ली अर्थात ये अतिशय बकवादी , चंचल और लम्पट स्वभाव के व्यक्ति हैं । इनकी बातों में किसी भी प्रकार की न गहराई है न सच्चाई । 127
राग नटनारायण
ऐसी बात कहौ जनि ऊधो!
ज्यों त्रिदोष उपजे जक लागति, निकसत बचन न सूधो॥
आपन तौ उपचार करौ कछु तब औरन सिख देहु।
मेरे कहे बनाय न राखौ थिर कै कतहूँ गेहु॥
जौ तुम पद्मपराग छांड़िकै करहु ग्राम-बसबास।
तौ हम सूर यहौ करि देखैं निमिष छांड़हीं पास॥१२८॥
गोपियाँ भ्रमर रूप उद्धव से कहती हैं कि हम एक शर्त पर श्री कृष्ण का संपर्क छोड़ने को तैयार हैं वह यह कि पहले तुम कमलों के पराग के प्रति अपना अनुराग त्याग कर के गाँवों में निवास करो । कमल वनों में मत जाओ अन्यथा यह तुम्हारा प्रलाप मात्र है ।
हे उद्धव ! तुम जो श्री कृष्ण छोड़ कर निर्गुण ब्रह्मोपासना की बात कर रहे हो वह हमें प्रिय नहीं है । अतः तुम इस प्रकार की चर्चा हमारे समक्ष मत करो । हम देख रही हैं कि तुम्हारी बातें उसी प्रकार सीधे – सीधे नहीं निकल रही हैं जैसे सन्निपातग्रस्त रोगी अपनी बात सीधे – सीधे नहीं कहता और उसे बकवाद करने की एक झक सी लग जाती है । वह निरंतर निरर्थक बातें करता रहता है । सिद्ध हो गया है कि तुम्हें भी बड़बड़ाने का सन्निपात हो गया है । अतः पहले अपना इलाज कराओ फिर दूसरों को शिक्षा दो । जब तुम स्वयं रोगी हो तो दूसरे के रोग को कैसे दूर कर सकते हो ? मेरे कहने से तुम स्थाई रूप से अपना कहीं घर क्यों नहीं बना लेते ? अर्थात बिना स्थाई घर के अस्थिर प्रकृति के हे भ्रमर उद्धव ! तुम इधर – उधर क्यों घूमा करते हो ? हाँ यदि तुम कमलों के पराग का प्रेम छोड़कर गाँवों में निवास करने लगो तो हम सब भी एक क्षण में श्री कृष्ण का संपर्क त्याग करके तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की उपासना क्यों करें? आशय यह है कि तुम तो चंचल प्रकृति के हो और दूसरों को योगी बनने का उपदेश देते फिरते हो । यदि तुम अपनी प्रकृति त्याग दो तो हम भी अपनी प्रकृति त्यागने को तैयार हैं । 128
राग नट
ऊधो! जानि परे सयान।
नारियन को जोग लाए, भले जान सुजान॥
निगम हूँ नहिं पार पायो कहत जासों ज्ञान।
नयनत्रिकुटी जोरि संगम जेहि करत अनुमान॥
पवन धरि रबि-तन निहारत, मनहिं राख्यो मारि।
सूर सो मन हाथ नाहीं गयो संग बिसारि॥१२९॥
इस पद में गोपियों ने उद्धव की अज्ञानता पर चिंता प्रकट की है । उनके अनुसार नारियों को ब्रह्म ज्ञान और योग की शिक्षा देना अज्ञान का द्योतक है ।
हे उद्धव ! तुम तो हमें बहुत चतुर समझ पड़ते हो । तुम तो इतने ज्ञानी और सज्जन पुरुष हो कि नारियों के लिए योग साधना का सन्देश लेकर आये हो । तात्पर्य यह है कि तुम्हारी अज्ञानता और उद्दंडता का परिचय तो हमें उसी समय मिल गया जब तुम हम अबलाओं को योग की शिक्षा देने लगे । तुम जिन गोपियों से ब्रह्म ज्ञान की चर्चा कर रहे हो उसके रहस्य को वेदों ने भी नहीं समझा और योगी जन जिस ब्रह्म के साक्षात्कार का अपनी त्रिकुटी में नेत्रों को जोड़कर अर्थात एकाग्र हो कर अनुमान किया करते हैं तथा अपने मन को वशीभूत कर के एवं प्राणायाम साधकर सूर्य की ओर निरंतर देखा करते हैं योगियों जैसा वह मन हमारे पास अब नहीं है । वह तो हमारा साथ छोड़कर एवं हमें भुला कर हमारे हाथ से निकल गया । हमारे मन ने पहले से ही श्री कृष्ण के सौंदर्य में वशीभूत होकर हमें छोड़ दिया । यदि वह हमारे वश में होता तो हम तुम्हारी योग साधना को स्वीकार कर लेतीं और हमारा मन तुम्हारे इस निर्गुण ब्रह्म की साधना में अवश्य ही लग जाता । 129
राग धनाश्री
ऊधो! मन नहिं हाथ हमारे।
रथ चढ़ाय हरि संग गए लै मथुरा जबै सिधारे॥
नातरु कहा जोग हम छांड़हि अति रुचि कै तुम ल्याए।
हम तौ झकति स्याम की करनी, मन लै जोग पठाए॥
अजहूँ मन अपनो हम पावैं तुमतें होय तो होय।
सूर, सपथ हमैं कोटि तिहारी कहौ करैंगी सोय॥१३०॥
इस पद में गोपियाँ अपने मन की विवशता प्रकार कर रही हैं । उनका मन तो कृष्ण के साथ चला गया । यदि उनका मन लौट आये तो कृष्ण के साथ चला गया । यदि उनका मन लौट आये तो वे उद्धव की बातों को मानने के लिए तत्पर हैं ।
हे उद्धव ! हमारा मन तो हमारे अधिकार में नहीं है । हमारे मन को श्री कृष्ण रथ पर बैठा कर उस समय ले गए जब वे मथुरा जाने लगे । अन्यथा तुम जिस योग को बड़े प्रेम के साथ हमारे पास ले आये हो उसे हम सब क्या छोड़ सकती थीं । हम तो श्री कृष्ण के उस व्यवहार से झीखती हैं कि उन्होंने हमारे मन को तो ले लिया , उसे अपने वश में कर लिया लेकिन अब उसे वापस न कर के उसके बदले में उन्होंने हमारे पास योग भेजा है । बिना मन वापस किये योग साधना के लिए बल देना क्या उचित है ? यदि तुम प्रयास कर सको तो हमें अपना मन आज भी , अब भी मिल सकता है । योग साधना के लिए मन को पाना अत्यंत आवश्यक है । बिना मन के कौन योग साधना कर सकता हैं ? सूर के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि हे उद्धव ! हम तुम्हारी करोड़ों सौगंध खा कर कह रही हैं कि यदि हमारा मन वापस आ जायेगा तो जो तुम कहोगे हम सभी तुम्हारी बात स्वीकार करेंगीं । तात्पर्य यह है कि श्री कृष्ण के प्रेम में अनुरक्त हमारे मन को यदि वहां से हटाने में समर्थ होते तो तुम्हारे प्रत्येक आदेश का हम सब हर्ष से पालन करेंगीं । 130
राग धनाश्री
ऊधो! जोग सुन्यो हम दुर्लभ।
आपु कहत हम सुनत अचंभित जानत हौ जिय सुल्लभ॥
रेख न रूप बरन जाके नहिं ताकों हमैं बतावत।
अपनी कहो[१] दरस वैसे को तुम कबहूँ हौ पावत?
मुरली अधर धरत है सो, पुनि गोधन बन बन चारत?
नैन बिसाल भौंह बंकट करि देख्यो कबहुँ निहारत?
तन त्रिभंग करि नटवर बपु धरि पीताम्बर तेहि सोहत ।
सूर स्याम ज्यों देत हमैं सुख त्यों तुमको सोउ मोहत ।।131
इस पद में गोपियों ने सगुणोपासना की तुलना में योग साधना को सहज साध्य नहीं माना । वे उस ब्रह्म की उपासना करने में सर्वथा असमर्थ हैं । जिसका न कोई रूप है और न रंग ।
हे उद्धव ! हमने तो यह सुना है कि योग साधना अत्यंत दुर्लभ है वह सहज साध्य नहीं है । आप तो उस योग की महिमा का वर्णन करते हैं लेकिन हम तो उसे सुनकर आश्चर्यचकित हैं जिसे आप सुलभ और सहज साध्य समझते हैं । आश्चर्य है कि तुम्हारे जिस ब्रह्म की न कोई रूप रेखा है और न कोई वर्ण । उसकी उपासना की बात आप हमें बताते हैं । तुम हमें अपना अनुभव बताओ । क्या तुम्हें ऐसे ब्रह्म का कभी दर्शन होता है ? क्या तुमने ऐसे निराकार ब्रह्म को कभी देखा है ? क्या तुम्हारा यह ब्रह्म हमारे सगुण श्री कृष्ण की भांति कभी होने होठों पर मुरली धारण करता है ? क्या वो वन – वन गायों को चराता है ? क्या तुमने उसे विशाल नेत्रों से भौहों को टेढ़ी कर के कभी निहारते देखा है ? आशय यह है कि क्या तुमने कभी श्री कृष्ण के मनोहर रूप का दर्शन किया है ? क्या त्रिभंगी रूप में नट वेश में तुम्हारे ब्रह्म के तन पर पीताम्बर शोभा देता है ? यही नहीं जिस प्रकार वह कृष्ण हमें सुख देता है क्या तुम्हारा वह ब्रह्म भी तुमको उसी प्रकार मोहित करता है ? आशय यह है कि श्री कृष्ण ने अपनी नाना प्रकार की लीलाओं के द्वारा हमें जो सुख दिया क्या वैसा सुख कभी आपको भी प्राप्त हुआ है ? 131
राग रामकली
उधौ ! हम लायक सिख दीजै ।
यह उपदेस अगिनि तें तातो कहो कौन विधि कीजै ?
तुम्हीं कहौ यहाँ इतनिन में सीखनहारी को है ?
जोगी जती रहित माया तें तिनको यह मत सोहै ।।
जो कपूर कहंदान तन लिपट तेहि बिभूति क्यों छाजै ?
सूर कहौ सोभा क्यों पावे आँख आंधरी आंजै ।। 132
गोपियाँ उद्धव से निवेदन कर रही हैं कि वे उनके योग्य – उनकी प्रकृति , शक्ति और क्षमता के अनुरूप ही उपदेश दें । वास्तव में योग साधना का उपदेश गोपियों के स्वभाव के सर्वथा विरुद्ध हैं । कहाँ अनपढ़ और गंवार गोपियाँ और कहाँ योग साधना की जटिलता । दोनों में कितना अंतर है ?
हे उद्धव ! तुम हमारी प्रकृति के योग्य उपदेश दो तो उसको हम ग्रहण भी करें किन्तु यह उपदेश जो हमें दे रहे हो वह अग्नि से भी अधिक सन्तापकारी है । तात्पर्य यह है कि जिस योग साधना की चर्चा हमारे समक्ष कर रहे हो उसे हम किस प्रकार कर सकती हैं ? तुम स्वयं अपनी आँखों से देख रही हो कि इतनी जटिल साधना को कौन कर सकता है ? पुनः तुम्हीं बताओ कि यहाँ इतनी ब्रजबालाओं में कौन ऐसी हैं जो इसे सीखने के लिए तैयार हैं ? सत्य बात तो यह है कि यह साधना योगी जातियों के लिए है जो सांसारिक मोह माया से सर्वथा विरक्त हैं । उन्हीं को यह शोभा देगी अन्यों को नहीं । भला आप ही बताएं कि जिन कोमलांगी स्त्रियों के शरीरों पर कर्पूर और चन्दन का लेप शोभा देता है उस पर कभी भस्म शोभा दे सकती है ? तात्पर्य यह है कि जोग साधना की जटिलताओं के कष्ट को ऐसी सरल स्वभाव की गोपियाँ कभी सहन नहीं कर सकतीं । ये तो योगाभ्यासी साधुजन और तपस्वी ही सहन कर सकते हैं । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं – हे उद्धव ! क्या तुमने कभी सुना है कि अंधी की आँखों में अनजान कभी शोभा देता है ? अरे जो आँखों से अंधी है उसे अनजान लगाने से क्या प्रयोजन ? अर्थात जो अज्ञानताओं से भरी हैं उन्हें ब्रह्म ज्ञान और जटिल सिद्धांतों से क्या लाभ ? वे इन्हें कैसे समझ और ग्रहण कर सकती हैं ? 132
राग रामकली
उधो ! कहा कथित विपरीति ?
जुवतिन जोग सिखावन आये यह तौ उलटी रीति ।।
जोतत धेनु दुहत पय वृष को , करन लगे जो अनीति ।
चक्रवाक ससि को क्यों जानै? रबि चकोर कह प्रीति?
पाहन तरै , काठ जो बूड़ै , तौ हम मानै नीति ।
सूर स्याम प्रति अंग माधुरी रही गोपिका जीति ।। 133
इस पद में गोपियों के अनुसार युवतियों को उद्धव का योग सन्देश देना नीति के सर्वथा विरुद्ध है और यह उसी प्रकार असंभव है जैसे बैल से दूध दुहना और गाय को हल में जोतना ।
हे उद्धव ! तुम इतने चतुर और बुद्धिमान होकर भी नीति के विरुद्ध कार्य क्यों कर रहे हो ? वस्तुतः स्त्रियों को योग की शिक्षा देना तो सर्वथा उलटी रीति है । अतः तुम इस उलटी और लोक विरुद्ध नीति में सफल नहीं होंगे । तुम जो इन युवतियों को योग साधना की ओर उन्मुख कर रहे हो तुम्हारा यह प्रयास और तुम्हारी यह अनीति तो उसी प्रकार है जैसे गाय को हल में जोतना और बैल से दूध दुहना जो संभव नहीं । इसी तरह भला चकवा – चकवी चन्द्रमा को क्या जानें ? चन्द्रमा के प्रकाश से उन्हें क्या प्रेम ? चन्द्रमा के उदय के साथ तो वे परस्पर वियुक्त हो जाते हैं । अतः उनका प्रेम तो सूर्य प्रकाश से है । जिस प्रकाश से निकलने पर दोनों मिलते हैं । इसी प्रकार सूर्य से चकोर की क्या प्रीति है ? चकोर तो चंद्र किरणों का रस पान करता है । सूर्य प्रकाश से उसकी क्या सिद्धि होगी ? हाँ यदि पानी में पत्थर तैरने लगे और लकड़ी डूब जाये तो युवतियों के लिए तुम्हारी इस योग विषयक नीति को भी हम उचित मान लेंगी । आशय यह है कि जैसे लकड़ी की जगह पानी में पत्थर कभी तैर नहीं सकता उसी प्रकार युवतियां तुम्हारी इस योग साधना में कभी सफल नहीं हो सकतीं । उन्हें तो श्री कृष्ण के अंग – प्रत्यंग की सौंदर्य माधुरी ने पराभूत कर रखा है । वे श्री कृष्ण के प्रत्येक अंग की शोभा के माधुर्य पर मुग्ध हैं । 133
राग रामकली
उधो ! जुवतिन ओर निहारौ
तब यह जोग मोट हम आगे हिये समुझि बिस्तारौ ।।
जे कच स्याम आपने कर करि नितहि सुगंध रचाये ।
तिनको तुम जो बिभूति घोरिकै जाता लगावन आये ।।
जेहि मुख मृगमद मलयज उबटति छनछन धोवति मांजति।
तेहि मुख कहत खेह लपटावन सो कैसे हम छाजति ?
लोचन आँजि स्याम ससि दरसति तबहीं ये तृप्ताति ।
सूर तिन्हैं तुम रबि दरसावत यह सुनि सुनि करुआति।। 134
गोपियों का कथन है कि उनकी दशा पर बिना विचार किये योग की शिक्षा देना उद्धव की नितांत अज्ञानता है ।
हे उद्धव ! पहले तुम युवतियों की दशा पर विचार करो तब अपने योग की गठरी को ह्रदय में बहुत सोच समझ कर हम लोगों के समक्ष खोलो । कहने का तात्पर्य यह है कि पहले तुम यह तो समझ लो कि तुम्हारे इस योग के गंभीर सिद्धांतों को हम सब समझने में समर्थ हैं या नहीं । तब अपने योग की महत्ता का विचारपूर्वक विश्लेषण करो । भला यह तो बताइये कि हमारे जिन कोमल बालों को श्री कृष्ण ने अपने हाथों से सुगंधमय किया अब आप उन्हें जटाओं के रूप में राख घोलकर लगाने आये हो । यह कहाँ संभव है कि हम अपने बालों को जटाओं के रूप में परिणित कर के उनमें राख लगाएं । हम अपने जिस मुख में कस्तूरी और चन्दन का उबटन करती रहीं और क्षण – क्षण उसे धोती रहीं और स्वच्छ करती रहीं उसी मुख पर आप मिट्टी मलने को कह रहे हैं । यह कैसे शोभा दे सकता है ? यह कहाँ तक उचित है ? हमारे ये नेत्र अंजन लगाकर जब कृष्ण रुपी चन्द्रमा को चकोर पक्षी की भाँति देखते हैं तभी तृप्त होते हैं । तभी इन्हें वास्तविक आनंद की प्राप्ति होती है । अब आप उन्हीं नेत्रों को सूर्य की ओर उन्मुख करना चाहते हैं ऐसा सोचकर ये कडुआने लगते हैं अर्थात इन आँखों में कडुआहट उत्पन्न हो जाती है । कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे जो नेत्र चकोर की भांति श्री कृष्ण के चंद्र मुख का अभी तक सौंदर्य रस पान करते रहे उन्हें आप निर्गुण ब्रह्मरूपी सूर्य की ओर लगाना चाहते हैं इस से तो इन्हें सुख के बजाय दुःख मिलता है । जो श्री कृष्ण के सौंदर्य माधुरी में डूबे रहे वे शुष्क निराकार ब्रह्म के प्रति अनुरक्त कैसे रह सकते हैं ? 134
राग रामकली
उधो ! इन नयनन अंजन देहु ।
आनहु क्यों न श्याम रंग काजर जासों जुरयो सनेहु ।।
तपति रहति निसि बासर मधुकर नहि सुहात तन गेहु।
जैसे मीन मरत जल बिछुरत कहा कहौं दुःख एहु।।
सब बिधि बाँधि ठानि कै राख्यो खरि कपूर कोरेहु ।
बारक मिलवहु श्याम सूर प्रभु क्यों न सुजस जग लेहु ?135
इस पद में कृष्ण दर्शन के लिए व्याकुल नेत्रों का वर्णन किया गया है । गोपियाँ अपने नेत्रों के लिए उद्धव से कृष्ण रुपी अंजन की कामना करती हैं । जिस प्रकार नेत्रों की दीप्ति और प्रकाश अंजन के लगाने से बढ़ जाता है उसी प्रकार गोपियों के नेत्रों की उत्फुल्लता कृष्ण दर्शन से बढ़ेगी ।
हे उद्धव ! हमारे इन व्याकुल नेत्रों को श्यामल रुपी अंजन लेकर दो क्योंकि ऐसे अंजन से ही ये शीतल हो सकते हैं । तुम उस कृष्ण रूप काजल को लाकर क्यों नहीं देते । जिस से इनका स्नेह जुड़ा है अर्थात श्री कृष्ण के उस श्याम रूप का दर्शन हमें क्यों नहीं कराते हैं जिनके लिए हमारे नेत्र व्याकुल रहा करते हैं । हे भ्रमर उद्धव ! श्री कृष्ण के वियोग में हम दिन रात जलती रहती हैं और हमें न यह शरीर अच्छा लगता है और न यह घर । अब हम यह शरीर भी छोड़ देना चाहती हैं । हम अपनी वियोग जनित इस पीड़ा का उल्लेख तुमसे क्या करें । हम तो उसी प्रकार से मर रही हैं जैसे बिना जल के मछलियाँ। हमने श्री कृष्ण के प्रति अपने स्नेह को सब प्रकार से उसी प्रकार इन आँखों के एक कोने में सुरक्षित रख छोड़ा है जैसे कपूर के उड़ने के भय से उसे खड़िया के साथ बांधकर किसी डिब्बे आदि के एक कोने में सुरक्षित रक् दिया जाता है । श्री कृष्ण के दर्शन का स्नेश अभी ही इन आँखों में अक्षुण्ण है । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! तुम एक बार श्याम का दर्शन करा के सुयश को प्राप्त क्यों नहीं कर लेते । यदि तुम श्री कृष्ण का एक बार दर्शन करा दोगे तो इस संसार में तुम्हारी कीर्ति बढ़ जाएगी और तुम विश्व के यशस्वी लोगों में गिने जाओगे ।135
राग रामकली
ऊधो ! भली करी तुम आये ।
ये बातें कहि कहि या दुःख में ब्रज के लोग हंसाये ।।
कौन काज बृन्दावन को सुख दही भात कि छाक।
अब वै कान्ह कूबरी राचे बने एक ही ताक।।
मोर मुकुट मुरली पीताम्बर पठवौ सौज हमारी ।
अपनी जटाजूट अरु मुद्रा लीजै भस्म अधारी।।
वै तौ बड़े सखा तुम उनके तुमको सुगम अनीति ।
सूर सबै मति भली स्याम की जमुना जल सों प्रीति।। 136
इस पद में ब्रज की गोपियों ने व्यंग्य गर्भित शैली में उद्धव का उपहास किया है । वे उद्धव की बातों को सुन – सुन कर दुखित हो गयीं और जब उनसे नहीं रहा गया तो वे सब एक बार पुनः उनका मजाक उड़ाने लगीं ।
हे उद्धव ! अच्छा ही हुआ कि तुम आ गए । यहाँ व्यंग्यार्थ यह हुआ कि तुम्हारा आगमन हमारे लिए कष्टकर हुआ और अपनी इन बातों अर्थात निर्गुण ब्रह्म की उपासना विषयक बातों को बताकर दुखित ब्रजवासियों को हँसा तो दिया । तुम्हारी इन विचित्र और अटपटी बातों को सुनकर सभी ब्रजवासी हंस पड़े । अब श्री कृष्ण मथुरा में राजा हो गए हैं । अतः उन्हें वृन्दावन के सुखों से क्या प्रयोजन है ? यह सुख तो हम सब सामान्य गाँव के रहने वाले और गाय चराने वाले ब्रजवासियों के लिए है और वे तो अब मथुरा में मेवे – मिष्ठान आदि राजसी भोजन करते होंगे । इस दूध-भात के कलेवा से उन्हें कहाँ सुख मिलेगा ? इसे वे क्यों पसंद करने लगे ? जो कृष्ण किसी समय हमसे प्रेम करते थे अब वे ही कुब्जा के प्रेम में अनुरक्त हैं और दोनों एक ही मेल के हैं । दोनों के स्वभाव में समानता होने के कारण दोनों में खूब बैठती है , खूब मेल रहता है । अब हम तुम्हारी सभी वस्तुएं जैसे पीताम्बर , मोर – मुकुट और वंशी आदि जो कुछ श्री कृष्ण यहाँ से उठा ले गए हैं उन्हें भिजवा दो क्योंकि ये वस्तुएं अब उन्हें पसंद न होंगीं और जो उन्होंने तुम्हारे द्वारा भस्म , अधारी , कुण्डल और जटाजूट बढ़ने आदि का सन्देश भेजा है उन सबों को हम तुम्हारे द्वारा वापस कर रही हैं । अब न उन्हें हमारी वस्तुओं से प्रयोजन है और न हमें उनकी वस्तुओं से । वे तो अब बड़े आदमी हैं , मथुराधिपति हैं और तुम उनके मित्र हो अतः तुम्हारे लिए भी अनीति करना बहुत सुगम है । अनीति करने में तुम्हें भी किसी भी प्रकार की कठिनाई या संकोच का अनुभव नहीं होता । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि श्री कृष्ण की सभी प्रकार की बुद्धि अच्छी ही है । उनकी बुद्धि में कोई दोष नहीं है । उनकी अच्छी बुद्धि का परिणाम यह है कि वे यमुना जल से भी प्रेम करने लगे हैं । व्यंग्य यह है कि जैसे यमुना का श्याम जल कपट का प्रतीक है । उसी प्रकार से श्याम ( काली – कपट ) बुद्धि वाले श्रीकृष्ण कपट स्वरूप यमुना जल से प्रेम करने लगे हैं । मथुरा जल में प्रवाहित होने वाले यमुना जल से प्रेम उनके कपटी और बनावटी प्रेम का बोधक है । 136
राग सारंग
ऊधो ! बूझति गुपुत तिहारी ।
सब काहू के मन की जानत बाँधे मूरि फिरत ठगवारी ।।
पीत ध्वजा उनके पीताम्बर लाल ध्वजा कुब्जा व्यभिचारी ।
सत की ध्वजा स्वेत ब्रज ऊपर अजस हेतु ऊधो ! सो प्यारी ।।
उनके प्रेम – प्रीति मनरंजन पै ह्यां सकल सील व्रत धारी ।
सूर वचन मिथ्या लंगराई ये दोउ ऊधो की न्यारी ।। 137
इस पद में गपियों ने उद्धव को एक ठग के रूप में परिकल्पित किया है जो निर्गुण ज्ञान द्वारा ब्रजवासियों को ठगता फिरता है । लेकिन गोपियों को पूर्ण विश्वास है कि वे अपने सात्विक प्रेम के कारण विजयी होंगी , भले ही इस सात्विक प्रेम मार्ग पर चलते समय कुछ लोगों द्वारा उन्हें अपयश या कलंक मिले । वे यह भी खूब जानती हैं कि उनके सात्विक प्रेम की तुलना में कृष्ण का राजसी प्रेम और कुब्जा का तामसी या स्वार्थमूलक है ।
हे उद्धव ! हम तुम्हारे रहस्य और चालाकी को खूब समझ रही हैं । तुम सबके मन की बात अर्थात मनोवृत्ति को जानते हुए ठगों की जड़ी बाँधे घूम रहे हो । जिस प्रकार ठग धोखे से जड़ी खिलाकर पथिकों और भोले – भाले अनजान लोगों को लूट लेते हैं उसी प्रकार तुम भी यह खूब जानते हो कि ब्रजवासियों का कृष्ण के प्रति अटल और सात्विक प्रेम है तथापि उन्हें धोखा देकर निर्गुण ब्रह्म की जड़ी धोखे से खिलाकर श्री कृष्ण प्रेम की अमूल्य निधि को उनसे लूट लेना चाहते हो परन्तु तुम्हें यह पता होना चाहिए कि श्री कृष्ण का जो पीताम्बर पीली ध्वजा के समान समस्त मथुरा मंडल में लहरा रहा है वह इस बात का प्रमाण है कि उनको हमारे प्रति जो प्रेम है वह राजसी है सात्विक नहीं । सात्विक प्रेम का उसमें आभास मात्र है । इसके विपरीत कुब्जा की लाल साड़ी लाल ध्वजा के समान है जो कृष्ण के प्रति उसके तामसिक प्रेम को व्यक्त कर रही है । कहने का आशय यह कि हमारी भांति उसका प्रेम सात्विक नहीं है । स्वार्थमूलक और वासना के रंग से रंजित है लेकिन समस्त ब्रजमंडल में इन दोनों के विरुद्ध श्वेत ध्वजा जो कृष्ण के प्रति हमारे सात्विक प्रेम का प्रतीक है फहरा रही है । यद्यपि हमारी इस सात्विक प्रेम साधना में बहुत सी बाधाएं हैं । आप भी श्री कृष्ण के प्रति हमारे सात्विक प्रेम को अच्छा नहीं समझते और उसे अपयश का कारण मानते हैं । किन्तु क्या इन बाधाओं और अपयश के भय से कोई श्री कृष्ण को त्याग देगा । कदापि नहीं । इस से कलंक भले ही मिले किन्तु हे उद्धव ! हमें यही प्रिय है । श्री कृष्ण और कुब्जा का जो परस्पर प्रेम और प्रीति है वह मनोरंजन का साधन मात्र है परन्तु इस ब्रजमंडल में सभी गोपियाँ श्वेत वस्त्रों को धारण कर के अपने शील और सात्विक प्रेम का निर्वाह कर रही हैं । कृष्ण के वियोग में हम सभी गोपियों ने विलासमय जीवन को त्याग कर रंग – बिरंगे कपड़ों की जगह श्वेत वस्त्र धारण किये इस प्रेम योग की साधना में रत हैं । ब्रज मंडल की श्वेत ध्वजा इसी सात्विक प्रेम और शील के रूप में सर्वत्र लहरा रही है । सूर के शब्दों में गोपियों का कथा है कि इस सात्विक प्रेम को जानते हुए भी उद्धव वासनात्मक और राजसी प्रेम की प्रशंसा कर रहे हैं । अतः सिद्ध है कि झूठ बोलने और लम्पटता के आचरण दोनों में उद्धव अद्वितीय हैं । ये दोनों बातें उनकी अतिशय विलक्षण हैं । 137
राग सारंग
ऊधो! मन माने की बात।
जरत पतंग दीप में जैसे, औ फिरि फिरि लपटात॥
रहत चकोर पुहुमि पर, मधुकर! ससि अकास भरमात।
ऐसो ध्यान धरो हरिजू पै छन इत उत नहिं जात॥
दादुर रहत सदा जल-भीतर कमलहिं नहिं नियरात।
काठ फोरि घर कियो मधुप पै बंधे अंबुज के पात॥
बरषा बरसत निसिदिन, ऊधो! पुहुमी पूरि अघात।
स्वाति-बूंद के काज पपीहा छन छन रटत रहात॥
सेहि न खात अमृतफल भोजन तोमरि को ललचात।
सूर कृस्न कुबरी रीझे गोपिन देखि लजात॥१३८॥
इसमें उद्धव को गोपियों ने बताया कि जिसका जिस से प्रेम होता है उसे वही अच्छा भी लगता है । गोपियाँ अपनी विवशता प्रकट करते हुए कह रही हैं कि यद्यपि तुम्हारा निर्गुण ब्रह्म बहुत अच्छा है लेकिन उसमें हमारी कोई रुचि या प्रेम न होने के कारण वह हमें प्रिय नहीं है ।
हे उद्धव ! यह तो मन के मानने की बात है अर्थात जिसके मन को जो अच्छा लगता है उसे वही सुहाता है , वही भाता है । जैसे पतंगे को देखिये वह दीपक में जब जलने लगता है तो उस से भागता नहीं । भाग जाये तो उसके प्राणों की रक्षा हो जाये लेकिन उसका दीपक से इतना प्रेम और मोह है कि वह बार – बार उसी में लिपटता है। उसी में लिपट कर अर्थात दीपक की ज्वाला में पड़कर अपने जीवन को उत्सर्ग कर देता है । हे भ्रमर उद्धव ! जरा प्रेम की रीति पर दृष्टिपात तो करो । बेचारा चकोर पृथ्वी पर रहता है और चन्द्रमा आकाश में भ्रमण करता रहता है लेकिन चकोर की दृष्टि चन्द्रमा की ओर ही सदैव लगी रहती है । प्रेम की रीति में पृथ्वी और आकाश की दूरी बाधक सिद्ध नहीं होती । इसी प्रकार ब्रज से श्री कृष्ण के दूर हो जाने पर भी हम सबों का ध्यान उन्हीं पर लगा रहता है लेकिन पानी में ही विकसित कमल के निकट वह कभी नहीं जाता क्योंकि उसका कमल से किसी प्रकार का प्रेम नहीं है । रूचि की बात तो देखिये कि भ्रमर ने लकड़ी को तो काट कर उसमें छिद्र करके अपना घर बना लिया लेकिन वही भ्रमर कमल के प्रेम पाश में पड़ कर उसके पत्ते में बँध गया । सूर्यास्त के समय जब कमल सम्पुटित हुआ तो भ्रमर भी उसी में बँध गया । वह चाहता तो कमल के पत्तों को काट कर निकल आता लेकिन प्रेमाकर्षण का ऐसा जादू है कि ऐसा वह नहीं कर सका । इसी प्रकार वर्षा काल में जब बहुत वर्षा होती है तो पृथ्वी तो पूर्णतया तृप्त हो जाती है लेकिन पपीहा तो स्वाति की एक बूँद के लिए रट लगाए रहता है । उसकी तृप्ति वर्षा के जल से नहीं होती । उसकी सच्ची तृप्ति तो स्वाति नक्षत्र में गिरे जल की बूंदों से होती है । साही नामका पशु को देखो , वह अमृतफल ( नाशपाती , अमरुद आदि को ) छोड़कर कड़वी लौकी खाने के लिए ललचाया रहता है । उसी प्रकार तुम्हारी दृष्टि में सगुण श्री कृष्ण में कोई आकर्षण नहीं है लेकिन हम गोपियों का मन तो उन्हीं की रूप माधुरी में मुग्ध है । सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! बहुत सी सुन्दर स्त्रियां थी लेकिन कृष्ण कूबरी पर रीझ गए और गोपियों को देखकर लजाते हैं उनसे भागते हैं । आशय यह है कि वे हमारे सात्विक प्रेम की अवहेलना कर के उस कुब्जा के तामसिक प्रेम के लिए सदैव लालायित रहते हैं । 138
राग सारंग
ऊधो! खरिऐ जरी हरि के सूलन की।
कुंज कलोल करे बन ही बन सुधि बिसरी वा भूलन की।
ब्रज हम दौरि आँक भरि लीन्ही देखि छाँह नव मूलन की॥
अब वह प्रीति कहाँ लौं बरनौं वा जमुना के कूलन की॥
वह छवि छाकि रहे दोउ लोचन बहियां गहि बन झूलन की।
खटकति है वह सूर हिये मों माल दई मोहिं फूलन की॥१३९॥
इस पद में गोपियों ने उद्धव के समक्ष अपने अतीत के उन सुखमय क्षणों और प्रेम प्रसंगों का स्मरण किया है जिसमें उन्हें परम आनंद की प्राप्ति होती थी ।
हे उद्धव ! हम सब श्री कृष्ण के वियोग की पीड़ा से अत्यंत संतप्त हैं । एक समय हम लोगों का ऐसा भी था जब हम वन – वन में स्थित कुञ्ज में श्री कृष्ण के साथ विहार करती थीं किन्तु आज उसके भूलने की वृत्ति ही भूल गई अर्थात वह सुख और आनंद भुलाये नहीं भूलता । यही नहीं जब श्रीकृष्ण ब्रज में थे तो वे हमें नए निकुंजों की छाया में देख कर अपने ह्रदय से लगा लिया करते थे । यह मधुर स्मृति आज भी हमारे मानस पटल पल जीवित है । श्री कृष्ण के उस प्रेम का वर्णन कैसे करूँ जब वे यमुना के तट पर मिला करते थे । उनका यमुना के तट पर विहार और नाना प्रकार की आनंद क्रीड़ाएं आज भी आँखों में नाच रही हैं । उस समय जब श्री कृष्ण हमारी बाहों को पकड़ कर झूला झूलते थे तो उनकी अपूर्व और अलौकिक सुंदरता को देखकर हमारे दोनों नेत्रों को अपार आनंद प्राप्त होता था । हे उद्धव ! अब भी हमें वह अवसर भूलता नहीं । ह्रदय में कसकता है जब श्री कृष्ण ने हमें फूलों की माला दी थी , हमें पहनाई थी । यद्यपि समय के परिवर्तन ने उस अतीत के सुखों को हमसे छीन लिया लेकिन उसकी मधुर स्मृतियों के ये मधुर चित्र मिटाये नहीं मिटते। 139
राग सारंग
मधुकर! हम न होहिं वे बेली।
जिनको तुम तजि भजत प्रीति बिनु करत कुसुमरस-केली॥
बारे तें बलबीर बढ़ाई पोसी प्याई पानी।
बिन पिय-परस प्रात उठि फूलन होत सदा हित-हानी॥
ये बल्ली बिहरत बृंदावन अरुझीं स्याम-तमालहिं।
प्रेमपुष्प-रस-बास हमारे बिलसत मधुप गोपालहिं॥
जोग-समीर धीर नहिं डोलत, रूपडार-ढिग लागी।
सूर पराग न तजत हिये तें कमल-नयन-अनुरागी॥१४०॥
इस पद में गोपियों ने अपने को एक आदर्श प्रेम और शील वृत्ति का निर्वाह करने वाली सच्ची साधिका के रूप में प्रस्तुत किया है और उद्धव को एक चंचल वृत्ति का पुरुष निरूपित किया है जिसमें विचारों की न स्थिरता है और न अनन्यता का भाव । उद्धव एक चंचल स्वभाव वाले मधुप माने गए हैं और गोपियों को एक पवित्र लता के रूप में कल्पित किया गया है ।
हे भ्रमर उद्धव ! हम वे लताएं नहीं हैं जिन्हें तुम बिना किसी प्रेम के त्याग देते हो अर्थात जब तक उन लताओं में पुष्प का रस ( मकरंद ) होता है तब तक उनमें केलि करते हो । उनसे प्रेम का अभिनय करते हो किन्तु जब उनमें रस नहीं रह जाता तो तुम उन्हें छोड़कर अन्य पुष्पों के रस या आनंद क्रीड़ा में जुट जाते हो । हम ऐसी लताओं में नहीं हैं । इन्हें तो बचपन से श्री कृष्ण ने अपने प्रेम जल से सींच – सींच कर बड़ी किया । बचपन से ही हमें श्री कृष्ण के पवित्र प्रेम के रसास्वादन का सुयोग मिलता रहा । अब स्थिति यह है कि बिना प्रियतम श्री कृष्ण के स्पर्श के ये लताएं प्रातः काल पुष्पित होती हैं और इनके प्रेम रुपी पुष्पों का उपयोग करने वाला कोई नहीं है । तात्पर्य यह है कि श्री कृष्ण के प्रति हमारे मानस में जो पवित्र प्रेम की धारा बह रही है उसमें अवगाहन करने वाला कोई नहीं है । अपने उस प्रेम की गहराई का परिचय कैसे दें ? ये लताएं अर्थात वियोगिनी गोपिकाएं वृन्दावन में फैलते समय अर्थात गोपिकाओं के वृन्दावन में विचरण के समय श्री कृष्ण रुपी तमाल वृक्ष में उलझ गयीं । हमारे भ्रमर स्वरूप श्री कृष्ण इन प्रेम पुष्पों के मकरंद और सुगंध का सदैव आनंद लिया करते हैं । तात्पर्य यह है कि हमारे ध्यान में श्री कृष्ण कि छवि बसी हुई है और हमें उसका आनंद मिलता रहता है । ये लताएँ अर्थात वियोगिनी गोपिकाएं इस प्रकार श्याम रुपी तमाल में श्याम रुपी तमाल में इतना उलझ गयीं हैं कि तुम्हारे योग सन्देश रुपी पवन से इनका धैर्य किंचित विचलित नहीं होता । तुम्हारी योग की बातों से कृष्ण के प्रति हमारे मन का ध्यान टूटता ही नहीं । ये लताएं तो अटल रूप में श्री कृष्ण के सौंदर्य रुपी डालों में फंस गयीं हैं । वहां से हटने में असमर्थ हैं । सूर के शब्दों में कमलनेत्र श्री कृष्ण के प्रेम में अनुरक्त ये लताएँ उनके प्रेम पराग को अपने ह्रदय से किसी भी प्रकार त्यागना नहीं चाहतीं । तात्पर्य यह है कि इन गोपियों के ह्रदय में जो प्रेम कृष्ण के लिए सुरक्षित है उसे उद्धव के निर्गुण ब्रह्म को सौंपा नहीं जा सकता । उसके अधिकारी तो श्री कृष्ण ही हैं अन्य कोई नहीं है । 140
राग सारंग
मधुकर! स्याम हमारे ईस।
जिनको ध्यान धरे उर-अंतर आनहिं नए न उन बिंन सीस॥
जोगिन जाय जोग उपदेसौ जिनके मन दस बीस।
एकै मन, एकै वह मूरति, नित बितवत दिन तीस॥
काहे निर्गुन-ज्ञान आपुनो जित तित डारत खीस।
सूर प्रभू नंदनंदन हैं उनतें को जगदीस?॥१४१॥
इस पद में गोपियों की अनन्यता का भाव व्यक्त हुआ है । उद्धव जिस ब्रह्म की उपासना के लिए गोपियों को बाध्य कर रहे हैं गोपियाँ अपने ह्रदय में स्थित श्री कृष्ण को ही परम ब्रह्म मानती हैं ।
हे भ्रमर उद्धव ! तुम जिस निर्गुण ब्रह्म पर बल दे रहे हो हमारे लिए तो श्याम ही उस ब्रह्म के समतुल्य हैं । हम जिन श्री कृष्ण का ध्यान अपने ह्रदय में करती हैं उनके अतिरिक्त दूसरे के लिए हमारे मस्तक नहीं झुकते । हम दूसरों को प्रणाम नहीं करतीं । दूसरों के लिए हमारे ह्रदय में कोई स्थान नहीं है । तुम अपने योग का उपदेश उन योगिनियों को दो जिनके एक नहीं दस – बीस मन हैं अर्थात जो चंचल वृत्ति की हैं और जिनमें अनन्यता और एकनिष्ठ का भाव नहीं है । हम सबके पास तो एक ही मन है और यह मन एक ही मूर्ति अर्थात श्री कृष्ण की एक मात्र मधुर मूर्ति का उपासक है और उनकी भक्ति और उन्हीं की उपासना में तीसों दिन बीतता है । सदैव इसी भाँति हमारे दिन कटते हैं । तुम अपात्रों के निकट अपने निर्गुण ज्ञान को यत्र-तत्र क्यों नष्ट कर रहे हो ? तात्पर्य यह है कि जो तुम्हारे निर्गुण ज्ञान के मर्म को समझे तुम उसके पास जाकर इसका उपदेश दो । यहाँ तो हम सब गंवार स्त्रियां इस मर्म को जानती ही नहीं । हाँ, यदि मथुरा के ज्ञानियों के पास चले जाओ तो अवश्य ही तुम्हारे निर्गुण ज्ञान की कद्र होगी । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हे उद्धव ! हमारे स्वामी तो नन्द नंदन हैं । उनसे बढ़ कर कौन जगदीश अर्थात जगत का स्वामी है ? अर्थात ब्रह्म से बढ़कर तो हमारे स्वामी श्री कृष्ण ही हैं और वे हमें प्राप्त हो चुके हैं अतः हम व्यर्थ में किसलिए तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय करें । 141
राग मलार
मधुकर! तुम हौ स्याम-सखाई।
पा लागों यह दोष बकसियो संमुख करत ढिठाई॥
कौने रंक संपदा बिलसी सोवत सपने पाई?
किन सोने की उड़त चिरैया डोरी बांधि खिलाई?
धाम धुआँ के कहौ कौन के बैठी कहाँ अथाई?
किन अकास तें तोरि तरैयाँ आनि धरी घर, माई!
बौरन की माला गुहि कौनै अपने करन बनाई?
बिन जल नाव चलत किन देखी, उतरि पार को जाई?
कौनै कमलनयन-ब्रत बीड़ो जोरि समाधि लगाई?
सूरदास तू फिरि फिरि आवत यामें कौन बड़ाई?॥१४२॥
इस पद में गोपियों ने उद्धव को उनकी धृष्टता के लिए नम्रतापूर्वक फटकारा है और इस बात की चिंता भी प्रकट की है कि उद्धव ऐसी बातों को मानने के लिए उन्हें बाध्य कर रहे हैं जो व्यावहारिक जीवन में किसी भी रूप में संभव नहीं हैं ।
हे मधुकर ! तुम तो श्री कृष्ण के सखा ही हो । इस कारण तुम्हारा संकोच कर रही हैं । तुम बार – बार निर्गुण ब्रह्मोपासना के लिए हमें बाध्य कर रहे हो यह उचित नहीं है । हम तुम्हारे समक्ष जो कुछ कहने की धृष्टता कर रही हैं , पैर छूकर कहती हैं हमारे ऐसे अपराधों को तुम क्षमा करना । अच्छा तुम्हीं बताओ कि किस गरीब पुरुष ने स्वप्न में प्राप्त सम्पदा का उपभोग किया है । स्वप्न की सम्पदा तो असत्य है । उसे किसने प्राप्त किया है ? ठीक उसी प्रकार उस निराकार , निर्गुण ब्रह्म को किसने देखा और किसने उसके दर्शन का सुख प्राप्त किया है ? क्या किसी ने सोने की उड़ती हुयी चिड़िया को डोर में बाँध खिलाया है ? उसके साथ मनोरंजन किया है ? क्या कभी किसी ने धुएं के महल में बैठक भी हुयी है अर्थात कभी चार – छह व्यक्तियों ने मिलकर किसी बात पर विचार – विमर्श भी किया है ? यह तो बताओ कि किसने आकाश के तारों को तोड़कर घर में लेकर रखा है ? अर्थात जैसे आकाश के तारों को तोड़ना असंभव है उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त करना । उसे देखना भी असंभव है । आम्र मंजरी के छोटे – छोटे फूलों से किसने अपने हाथों से माला गूँथी है । इतने छोटे पुष्पों से जैसे माला नहीं बनाई जा सकती उसी प्रकार सूक्ष्म ब्रह्म दर्शन भी असंभव है तथा किसने बिना जल के नाव चलती हुयी देखी है और उस से उतर कर कौन पार हुआ है ? बिना जल के नाव पर बैठकर नदी पार कर लेना संभव नहीं । उसी प्रकार कमल नेत्र श्री कृष्ण के प्रेम का अनुरागी श्री कृष्ण से प्रेम करने का संकल्प करने वाले किस व्यक्ति ने योग साधना में प्रवृत्त होने की चेष्टा की है । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि हे उद्धव ! जब निर्गुणोपासना हमारे लिए असंभव है तो तुम जो बार – बार उसका उपदेश देने के लिए हमारे पास आते हो । इसमें कौन सी बड़ाई है ? तुम्हें ऐसा करने से क्या गौरव लाभ होगा ? 143
राग धनाश्री
मधुकर! मन तो एकै आहि।
सो तो लै हार संग सिधारे जोग सिखावत काहि?
रे सठ, कुटिल-बचन, रसलंपट! अबलन तन धौं चाहि।
अब काहे को देत लोन हौ बिरहअनल तन दाहि॥
परमारथ उपचार करत हौ, बिरहव्यथा नहिं जाहि।
जाको राजदोष कफ ब्यापै दही खवावत ताहि॥
सुंदरस्याम-सलोनी-मूरति पूरि रही हिय माहिं।
सूर ताहि तजि निर्गुन-सिंधुहि कौन सकै अवगाहि?॥१४३॥
इस पद में गोपियाँ उद्धव से अपनी विवशता प्रकट करती हुयी कह रही हैं कि उनके पास तो एक मात्र एक ही मन था जिसे मथुरा जाते हुए श्री कृष्ण अपने साथ लेकर चले गए । हाँ यदि दूसरा मन होता तो वे निर्गुणोपासना कि ओर उसे अवश्य लगातीं ।
हे भ्रमर ! हे उद्धव ! हम सबों के पास तो एक ही मन था वह भी मथुरा जाते समय श्री कृष्ण अपने साथ लेकर चले गए अब तुम किसे योग साधना की शिक्षा दे रहे हो ? वस्तुतः मन के निग्रह के लिए उसकी चंचलता के परिहार के लिए योग साधना की आवश्यकता होती है । परन्तु जब मन ही नहीं है तो योग शिक्षा का प्रभाव किस पर पड़ेगा ? इसे कौन ग्रहण करेगा ? रे चंचल वृत्ति वाले शठ, कुटिल वाणी बोलने वाले , मकरंद लोभी भ्रमर , जरा इन अबलाओं की ओर तो देखो , इनकी दशा पर विचार करो , आशय यह है कि तू स्वयं आनंद का उपभोग करता है और अबलाओं को विरक्ति की शिक्षा देता फिरता है । तू कितना दुष्ट और अटपटी वाणी बोलने वाला है । तुम्हारी ऐसी कठोर वाणी से हम अबलाओं को कितनी पीड़ा होती है । भला जो पहले से ही विरह की ज्वाला में दग्ध हो चुकी हैं उन पर अब क्यों नमक छिड़क रहा है ? दूसरे शब्दों में जलों को अब और क्यों जला रहे हो ? तुम विरह व्यथित गोपियों की पीड़ा को दूर करने के लिए परमार्थ अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान की औषधि दे रहे हो उस से विरह का कष्ट कैसे दूर किया जा सकता है ? आशय यह है कि हम सबों की पीड़ा कृष्ण दर्शन से ही जा सकती है , तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म के उपदेश से नहीं । तुम्हारा निर्गुण ब्रह्म का उपदेश हमारे लिए उसी प्रकार है जैसे किसी को राज रोग होने के कारण कफ का विकार उत्पन्न हो जाये और उस कफ को दूर करने के लिए दही खिलाया जाये । भला राजरोग जनित कफ को दही कैसे ठीक कर सकता है उस से तो उसका कफ और बढ़ जायेगा । तुम्हारे इस निर्गुण ज्ञानोपदेश से हमारी विरह व्यथा घटने की जगह और बढ़ती ही जा रही है । अतः सिद्ध है कि तुम उस मूर्ख चिकित्सक की भाँति हो जो उचित उपचार करना नहीं जानता । हमारे ह्रदय में तो कृष्ण की सुन्दर , श्याम सलोनी और लावण्यमयी मूर्ति बस गयी है । उसे छोड़ कर तुम्हारे इस निर्गुण ब्रह्म ज्ञान के समुद्र का अवगाहन कौन करे ? आशय यह है कि इस अनंत और अपार निर्गुण ब्रह्म के ज्ञान कि अधिकारिणी हम कैसे हो सकती हैं ? यह तो तत्वज्ञ और मर्मी योगियों के लिए है । हमें तो सगुण रूप सलोने श्याम सुन्दर का रूप माधुरी ही परम प्रिय है । तुम्हारा निर्गुण ब्रह्म नहीं । 143
राग सारंग
मधुकर! छाँड़ु अटपटी बातें।
फिरि फिरि बार बार सोइ सिखवत हम दुख पावति जातें॥
अनुदिन देति असीस प्रांत उठि, अरु सुख सोवत न्हातें।
तुम निसिदिन उर-अंतर सोचत ब्रजजुबतिन को घातें॥
पुनि पुनि तुम्हैं कहत क्यों आवै, कछु जाने यहि नाते।
सूरदास जो रंगी स्यामरंग फिरि न चढ़त अब राते॥१४४॥
गोपियाँ उद्धव की अटपटी वाणी सुनते – सुनते ऊब गयीं । अतः उन्हें यह अभीष्ट नहीं है कि उद्धव बार – बार उन्हीं बातों पर चर्चा करें जिनसे उन्हें कष्ट मिलता है ।
हे भ्रमर ! अब तुम अपनी निर्गुण ज्ञान विषयक ऐसी अटपटी बातें कहना छोड़ दो । ऐसी बातें हमसे मत कहो । अब बहुत हो चुका है । तुम हमें बार – बार निर्गुण ब्रह्म की बातें सिखाते हो जिनसे हमें कष्ट मिलता है । क्या हमें दुःख पहुंचना ही तुम्हारा धर्म है ? हम तो श्याम के सखा के नाते प्रतिदिन उठ कर सुख से सोते समय तुम्हें आशीर्वाद देती रहती हैं । तुम्हारी मंगल कामना करती रहती हैं और तुम अपने ह्रदय में सदैव ब्रज युवतियों को कष्ट देने की बातें सोचा करते हो । तुम बार – बार ऐसी बातें क्यों करते हो ? तुम्हारी इन बातों से तो हमें तुम्हारे स्वभाव की कुछ – कुछ जानकारी होने लगी है अर्थात अब हमें यह आभास मिलने लगा है कि तुम्हारे साथ चाहे कितनी ही भलाई की जाये लेकिन तुम ब्रज युवतियों के विरुद्ध ही सोचोगे । सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! जो कृष्ण के रंग में , श्याम रंग में , कृष्ण प्रेम में रंग चुके हैं उन पर लाल रंग नहीं चढ़ेगा अर्थात उन पर तुम्हारे ब्रह्म का प्रभाव नहीं पड़ेगा । तात्पर्य यह है कि ब्रह्म का अनुराग अर्थात प्रेम का लाल रंग अब हमें नहीं चढ़ सकता । 144
राग सारंग
मधुप! रावरी पहिचानि।
बास रस लै अनत बैठे पुहुप को तजि कानि॥
बाटिका बहु बिपिन जाके एक जौ कुम्हलानि।
फूल फूले सघन कानन कौन तिनकी हानि?
कामपावक जरति छाती लोन लाए आनि।
जोग-पाती हाथ दीन्हीं बिप चढ़ायो सानि॥
सीस तें मनि हरी जिनके कौन तिनमें बानि।
सूर के प्रभु निरखि हिरदय ब्रज तज्यो यह जानि॥१४५॥
इस पद में गोपियों ने उद्धव को एक चंचल , रस लोलुप और स्वार्थी भ्रमर के रूप में कल्पित किया है । जिस प्रकार भ्रमर पुष्पों से तभी तक प्रेम करता है जब तक उनमें रस और सुगंध आदि गुण होते हैं । रस गुणों के अभाव में वह एक क्षण भी नहीं ठहरता लेकिन गोपियों का प्रेम एकनिष्ठ भाव से कृष्ण के लिए है । उनक समस्त जीवन उन्हीं के लिए अर्पित है ।
हे भ्रमर ! आपकी तो यह पहचान है कि एक पुष्प की सुगंध और उसके मकरंद को ग्रहण कर के पूर्व पुष्प के संकोच और मर्यादा की परवाह न करते हुए अन्यत्र चले जाते हो । यही तुम्हारी स्वार्थपरता की नीति है । जिस भ्रमर के लिए बहुत सी वाटिका और वन के पुष्प प्राप्त हों यदि उन वाटिकाओं और वनों में एक पुष्प कुम्हला जाये तो भ्रमर की इस से क्या हानि होगी ? वह अन्य बहुत से सघन वनों के पुष्प में विहार करेगा । कहने का तात्पर्य यह है कि जिसका एकनिष्ठ प्रेम किसी से नहीं होता वह यत्र – तत्र सर्वत्र विचरण करता रहता है और उसके प्रेम में स्थिरता नहीं रहती लेकिन हे भ्रमर ! हमारा प्रेम तो एक मात्र श्री कृष्ण से ही है । हमने श्री कृष्ण को छोड़ कर अन्य किसी से प्रेम नहीं किया । हमारा ह्रदय तो श्री कृष्ण के वियोग में जलता रहता है लेकिन तुमने इस जलते ह्रदय को शीतल करने के बजाय उसमें आकर नमक छिड़क दिया और इस प्रकार हमारी पीड़ा को और बढ़ा दिया । श्री कृष्ण के दर्शन की चर्चा करने के बजाय तुमने योग दर्शन का विश्लेषण किया । तुमने हमारे हाथों में योग की पत्री अर्थात योग का सन्देश देकर मानो समस्त शरीर में विष घोल दिया अर्थात समस्त शरीर को विषाक्त कर दिया । तुम्हरा यह योग सन्देश विरह से भी अधिक पीड़ित करने वाला सिद्ध हुआ । श्री कृष्ण के बिना तो हमारी दशा ऐसी है जैसे सर्प के मस्तक से उसकी मणि छीन ली जाये तो वह कांतिहीन हो जाता है उसी प्रकार श्री कृष्ण रुपी मणि के छीन लिए जाने के बाद हम गोपियाँ अब कांतिहीन हो चुकी हैं । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि शायद हमारी इस कान्तिहीनता का ह्रदय में अनुमान करके श्री कृष्ण ने बृजमण्डल को छोड़ दिया । 145
राग सारंग
मधुकर! स्याम हमारे चोर।
मन हरि लियो माधुरी मूरति चितै नयन की कोर॥
पकर्यो तेहि हिरदय उर-अंतर प्रेम-प्रीति के जोर।
गए छंड़ाय छोरि सब बंधन दै गए हँसनि अंकोर॥
सोवत तें हम उचकि परी हैं दूत मिल्यो मोहिं भोर।
सूर स्याम मुसकनि मेरो सर्वस लै गए नंदकिसोर॥१४६॥
इस पद में श्री कृष्ण की रूप माधुरी से अपहृत गोपियों के मानस का बड़ा ही भावपूर्ण चित्रण हुआ है । गोपियाँ अपनी इस मनोदशा का उल्लेख उद्धव से कर रही हैं ।
हे भ्रमर ! हमारे श्याम तो चोर निकले । चोरी की कला में तो वे बड़े निपुण निकले । उनकी माधुरी मूर्ति ने मात्र अपनी तिरछी चितवन से देखकर मेरे मन को चुरा लिया । मेरे मन को मोहित और पराभूत कर लिया । हमने उनके ह्रदय को अपने समस्त प्रेम और प्रीति के बल से स्वहृदय के भीतर पकड़ कर रखा । उनके मन को अपने प्रेम पाश में अपने ह्रदय के एक कोने में बाँध कर रखा लेकिन वे बड़े पक्के चोर थे । अपनी मात्र एक मुस्कराहट की भेंट देकर अर्थात मुस्कराहट के लालच में फंसा कर समस्त बंधनों को तोड़ते हुए निकल भागे । इसी चिंता में हम सो गयीं और सोते समय अचानक चौंक पड़ीं । प्रातः काल जब चौंक कर उठीं तो देखा कि सामने संदेशवाहक दूत अर्थात उद्धव खड़े हैं । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि श्री कृष्ण केवल एक मुस्कराहट के बदले हमारा सर्वस्व अर्थात इतना बड़ा मन उठा कर ले गए । 146
राग सारंग
मधुकर! समुझि कहौ मुख बात।
हौ मद पिए मत्त, नहिं सूझत, काहे को इतरात?
बीच जो परै[१] सत्य सो भाखै, बोलै सत्य स्वरूप।
मुख देखत को न्याव न कीजै, कहा रंक कह भूप॥
कछु कहत कछुऐ मुख निकसत, परनिंदक व्यभिचारी।
ब्रजजुवतिन को जोग सिखावत कीरति आनि पसारी॥
हम जान्यो सो भँवर रसभोगी जोग-जुगुति कहँ पाई?
परम गुरू सिर मूँडि बापुरे करमुख[२] छार लगाई॥
यहै अनीति बिधाता कीन्हीं तौऊ समुझत नाहीं।
जो कोउ परहित कूप खनावै परै सो कूपहि माहीं॥
सूर सो वे प्रभु अंतर्यामी कासों कहौं पुकारी?
तब अक्रूर अबै इन ऊधो दुहुँ मिलि छाती जारी॥१४७॥
उद्धव की बातों को सुन कर गोपियाँ नाराज हो जाती हैं और स्पष्ट शब्दों में कहने लगती हैं कि जो बातें वे कह रहे हैं उन्हें समझ – बूझ कर कहें । उद्धव की अनर्गल बातें और प्रलाप उन्हें किसी भी रूप में प्रिय नहीं है । इसमें उद्धव के प्रति गोपियों की फटकार और अमर्ष भाव की व्यंजना बहुत ही सहज रूप में हुयी है ।
हे भ्रमर ! जो कुछ भी बातें मुख से निकालो उन्हें खूब समझ – बूझ कर निकालो। यूं ही अनर्गल बातें हमारे सामने मत करो क्योंकि अभी तक तुमने निर्गुण विषयक अनेक अनर्गल बातों की चर्चा की लेकिन अब इस सम्बन्ध में अधिक मत कहो । तुम्हारी इस बड़बड़ाहट से हमें लगता है कि तुमने मदिरा पी ली है और तुम्हें कुछ समझ नहीं पड़ता । जैसे मदिरा के मद में चूर व्यक्ति को कुछ नहीं दिखाई पड़ता उसी प्रकार तुम्हें भी यह नहीं समझ पड़ता कि गोपियों को निर्गुण ब्रह्म का ज्ञानोपदेश देना उचित है या नहीं । तुम क्यों घमंड में चूर हो ? किसलिए गर्वोन्मत्त होकर इधर – उधर की बातें कर रहे हो ? जो मध्यस्थता करता है वह सत्य का आधार लेता है । पक्षपात नहीं करता और सत्य स्वरूप का ही समर्थन करता है । मुंह देखी बात नहीं करनी चाहिए । पक्षपात करना अनुचित है । चाहे निर्धन हो या राजा न्याय तुला पर निर्धन और राजा दोनों ही समान हैं । तुम तो ज्ञानोन्मत हो , तुम्हें ज्ञान का नशा है इसी कारण कहना कुछ चाहते हो और तुम्हारे मुख से निकल कुछ और रहा है । जैसे मदिरा के नशे में चूर व्यक्ति कुछ का कुछ कहता रहता है उसी प्रकार उद्धव जी की बातें भी तर्कसंगत नहीं हैं । तुम हमारी दृष्टि में परनिंदक अर्थात सगुणोपासना के निंदक और व्यभिचारी अर्थात एकनिष्ठ प्रेम के शत्रु हो । ब्रजमंडल में आ कर तुमने ब्रज की युवतियों को योग की शिक्षा दे कर चारों तरफ अपनी कीर्ति फैला दी है । तुम्हारी इन बातों की सर्वत्र चर्चा हो रही है। तुम्हारे ऐसे कार्यों से ब्रज के सभी लोग परिचित हो गए हैं लेकिन जब तुम्हारी कीर्ति को हमने सुना तो आश्चर्य हुआ और सोचा कि भ्रमर तो रसभोगी होता है । उसने योग की ऐसी – ऐसी युक्तियाँ – योग विषयक ऐसी बातें कहाँ से प्राप्त की हैं ? इसे योग की ऐसी शिक्षा कहाँ मिली है ? आशय यह है कि अभी तक तो यह भोग – विलास में ही फंसा रहा । अब यह वैराग्य की बातें कब से सोचने लगा । वस्तुतः वह स्वयं भोगी होकर विश्व को वैराग्य की शिक्षा देता रहा । इस अपराध से परम गुरु ब्रह्मा ने बेचारे के सिर को मुड़ा कर इसके काले मुख पर मिट्टी लगा दी । भौंरा काले रंग का होता है , उसके सिर पर बाल नहीं होते और मुख पर पिले रंग का टिका लगा रहता है जिसे मिट्टी के रूप में कल्पित किया गया है , आशय यह है कि जब किसी को उसकी अनीति पर दण्डित किया जाता था तो उसके सिर को मुड़ा कर कालिख या राख या मिट्टी लगा दी जाती थी । भ्रमर के काले रंग और पीले टीके की कल्पना इस प्रकार की गयी है । यद्यपि इसी अनीति के कारण ब्रह्मा ने उसे ऐसा रूप दिया । उसे ऐसा कलमुँहा बनाया । तो यह नहीं समझता । वास्तव में जो दूसरों के लिए कुआँ खोदता है वह स्वयं ही उस कुएं में गिरता है । सूर के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि श्री कृष्ण स्वयं अंतर्यामी हैं । सबके ह्रदय में हैं । सब की बात जानते हैं । अतः अपनी पीड़ा हम किस से कहें । वे इस अन्यायी उद्धव की बातें स्वयं जान रहे हैं । हाँ यह अवश्य है कि पहले तो अक्रूर जी ने आ कर हमें दुःख दिया । श्री कृष्ण और बलराम को फुसला कर मथुरा ले गए । अब उद्धव जी ने – अर्थात इन दोनों ने इस प्रकार मिल कर हमारे ह्रदय को जलाया है । हमें पीड़ित किया है । 147
राग सारंग
मधुकर! हम जो कहौ करैं।
पठयो है गोपाल कृपा कै आयसु तें न टरैं॥
रसना वारि फेरि नव खंड कै, दै निर्गुन के साथ।
इतनी तनक बिलग जनि-मानहुँ, अँखियाँ नाहीं हाथ॥
सेवा कठिन, अपूरब दरसन कहत अबहुँ मैं फेरि।
कहियो जाय सूर के प्रभु सों केरा पास ज्यों बेरि॥१४८॥
गोपियाँ निर्गुण ब्रह्म उपासना के लिए अपनी विवशता प्रकट कर रही हैं । वे उद्धव से कहती हैं कि अपनी जिह्वा तो हम तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म के हवाले कर सकती हैं लेकिन अपनी आँखों से विवश हैं । वे श्री कृष्ण की रूप माधुरी के बिना रह ही नहीं सकतीं । उन्हें हम अपने वश में नहीं कर सकतीं ।
हे उद्धव ! आप जो भी कहें हम सब करने के लिए तैयार हैं । आपको श्री कृष्ण ने कृपापूर्वक हमारे पास भेजा है । हम आपकी आज्ञा का उल्लंघन किसी भी रूप में नहीं करेंगीं । आशय यह है कि आप श्री कृष्ण के परम मित्र हैं और उन्होंने तुम्हें हमारे पास भेजा है । इसलिए आज्ञा उल्लंघन की कोई बात नहीं है । हाँ इतना अवश्य कर सकती हैं कि अपनी जिह्वा जो निरंतर श्री कृष्ण का नाम जपा करती है उसे तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म पर न्योछावर कर सकती हैं । निर्गुण जाप के लिए लगा सकती हैं और आवश्यकता पड़ने पर उसे नौ खण्डों में विभाजित कर के , टुकड़े – टुकड़े कर के निर्गुण को अर्पित भी कर सकती हैं लेकिन हमारी थोड़ी सी विवशता है उसके लिए बुरा न मानना वह यह कि हमारी आँखें हमारे वश में नहीं हैं । वे तो मात्र श्री कृष्ण की रूप माधुरी के वशीभूत हैं । उन्हें श्री कृष्ण की मनोरम मूर्ति के अतिरिक्त दूसरी वस्तुएं अच्छी लगती ही नहीं । अब भी हम सब यही कह रही हैं कि निर्गुणोपासना का मार्ग बड़ा ही कठिन है । उस निर्गुण की सेवा आराधना करना हमारे लिए सरल नहीं है और उसका दर्शन अर्थात ब्रह्म ज्योति का साक्षात्कार तो और भी कठिन तथा विलक्षण है । सहज और साध्य नहीं है । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! यह निर्गुण मार्ग हमें रह – रह कर पीड़ित करता है यह श्री कृष्ण से जाकर कह देना । योग और निर्गुण ब्रह्म का सन्देश तो हमारी प्रकृति के सर्वथा विरुद्ध है । वह हमें उसी प्रकार कष्ट देता है जैसे बेर के पेड़ के पास रहने से केले के पत्तों में बराबर बेर के कांटे चुभते रहते हैं अर्थात दोनों का प्रकृति वैषम्य के कारण निर्वाह नहीं हो सकता ।
राग धनाश्री
मधुकर! तौ औरनि सिख देहु।
जानौगे जब लागैगो, हो, खरो कठिन है नेहु॥
मन जो तिहारो हरिचरनन-तर, तन धरि गोकुल आयो।
कमलनयन के संग तें बिछुरे कहु कौने सचु पायो?
ह्याँई रहौ जाहु जनि मथुरा, झूठो माया-मोहु।
गोपी सूर कहत ऊधो सों हमहीं से तुम होहु॥१४९॥
इसमें गोपियों ने उद्धव को बताया कि प्रेम का मार्ग बाद कठिन होता है । जब प्रेम बाण से प्रेमी बिद्ध होता है तभी इसकी पीड़ा का अनुभव उसे होता है । गोपियों के अनुसार उद्धव अभी प्रेम की पीड़ा के सम्बन्ध में नहीं जानते । इन्हें तब बोध होगा जब गोपियों की भाँति ये भी प्रेम व्यथा से पीड़ित होंगे ।
हे उद्धव ! प्रेम का मार्ग अतिशय कठिन मार्ग है । उस पर चलना आसान नहीं है । तुम्हें अभी प्रेम का बाण लगा नहीं है जब लगेगा तो समझ पड़ेगा और तब तुम अपने योग की शिक्षा दूसरों को देना अर्थात जब तुम श्री कृष्ण के प्रेम में अभिभूत हो जाओगे तो तुम योग की शिक्षा जो दूसरों को देते फिरते हो , भूल जाओगे । यद्यपि तुम्हारा मन तो निरंतर श्री कृष्ण के कमलवत चरणों में लगा रहता है लेकिन यहाँ तुम अपना मात्र शरीर लेकर आये हो क्योंकि श्री कृष्ण से बिछुड़ने पर किसे सुख मिला है ? व्यंजना यह है कि तुम भी श्री कृष्ण का साथ कैसे छोड़ सकते हो ? उनका साथ छोड़ने पर तुम्हें सुख कैसे मिल सकता है ? तुम तो हमसे यह कहते फिरते हो कि यह माया मोह सब झूठा है । यदि झूठा है तो तुम यहाँ ही इस गोकुल में हमारे साथ रहो और मथुरा में मत जाओ । लेकिन तुम्हें तो मथुरा में ही रहना पसंद है । इस से स्पष्ट है कि तुम माया मोह से मुक्त नहीं हो और मथुरा तथा श्री कृष्ण का मोह तुम्हारे मन में है । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हमारी ही भाँति तुम भी प्रेम मार्ग के पथिक बन जाओ और इस योग मार्ग को छोड़ दो । ऐसी स्थिति में तुम वियोग की व्यथा के मर्म को समझोगे ।149
राग धनाश्री
मधुकर! जानत नाहिंन बात।
फूँकि फूँकि हियरा सुलगावत उठि न यहाँ तें जात॥
जो उर बसत जसोदानंदन निगुन कहाँ समात?
कत भटकत डोलत कुसुमन को तुम हौ पातन पात?
जदपि सकल बल्ली बन बिहरत जाय बसत जलजात।
सूरदास ब्रज मिले बनि आवै? दासी की कुसलात॥१५०॥
इस पद में गोपियों ने उद्धव से कहा कि जिस ह्रदय में श्री कृष्ण बसते हैं वहां हम सब तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म को कैसे स्थान दे सकती हैं ?
हे उद्धव ! तुम बात करना भी नहीं जानते । यदि तुम्हें बात करने का ढंग होता तो हम गंवार गोपियों के समक्ष अपने निर्गुण ब्रह्म की चर्चा कभी नहीं करते । तुम अपनी अटपटी वाणी द्वारा हमारी वियोगाग्नि को फूंक – फूंक कर प्रज्ज्वलित कर रहे हो और उसमें हमारे ह्रदय को जला रहे हो । आशय यह है कि तुम्हारी इन बातों से हमारी वियोग व्यथा और बढ़ जाती है और हमारा ह्रदय जलने लगता है । भला तुम यह तो बताओ कि जिस ह्रदय में श्री कृष्ण बस रहे हैं उसमें तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म को स्थान हम कैसे दे सकती हैं ? अर्थात एक म्यान में दो तलवारें कैसे आ सकती हैं ? हे भ्रमर यद्यपि तुम समस्त वन कि लताओं में विहार करते रहते हो , उन लताओं के पुष्पों का रसास्वादन करते रहते हो लेकिन अंत में तुम कमल में ही जाकर बस जाते हो । तुम्हारा सच्चा प्रेम तो कमल से है और उसी के प्रेम पाश में बांध जाते हो । फिर भी तुम क्यों वन के पत्ते – पत्ते में पुष्पों कि खोज करते हुए भटकते फिर रहे हो ? यह भटकना ही तुम्हारी चंचल प्रकृति का द्योतक है । तुम चंचल होते हुए भी अपना सच्चा प्रेम एक मात्र कमल के प्रति व्यक्त करते हो । उसी प्रकर हमारा भी एकनिष्ठ प्रेम श्री कृष्ण के प्रति है । जिस प्रकार अनेक पुष्पों से संपर्क रखकर भी तुम सबको अपने ह्रदय में स्थान नहीं दे पाते। केवल कमल को ही अपने ह्रदय में बसाते हो उसी तरह हम तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म को अपने ह्रदय में स्थान न देकर एक मात्र श्री कृष्ण को स्थान देती हैं । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि श्री कृष्ण के ब्रज में आने से क्या कुब्जा का हित हो सकता है ? शायद उसके कल्याण को ध्यान में रख कर ही कृष्ण यहाँ नहीं आये । दासी कुब्जा ने तुम्हें इसीलिए भेजा है कि तुम्हारे योग सन्देश से हम सब की कृष्ण के प्रति जो प्रीति है उसे भूल जाएँ ।
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