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Contents
देवासुर सम्पद विभाग योग- सोलहवाँ अध्याय
01-05 फलसहित दैवी और आसुरी संपदा का कथन
06-20 आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन
21-24 शास्त्रविपरीत आचरणों को त्यागने और शास्त्रानुकूल आचरणों केलिए प्रेरणा
दैवासुरसम्पद्विभागयोग- सोलहवाँ अध्याय
अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग
फलसहित दैवी और आसुरी संपदा का कथन
श्रीभगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥16.1॥
श्रीभगवानुवाच–पुरुषोत्तम भगवान् ने कहा; अभयम्-निडर; सत्त्वसंशुद्धिः-मन की शुद्धि ; ज्ञान-सत्य ज्ञान; योग-अध्यात्मिक; व्यवस्थिति:-दृढ़ता; दानम्-दान; दमः-इन्द्रियों पर नियंत्रण; च-और; यज्ञः-यज्ञ का अनुष्ठान; च-और; स्वाध्यायः-धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन; तपः-तपस्या; आर्जवम्-स्पष्टवादिता;
श्रीभगवान् बोले – भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की शुद्धि, ज्ञान के लिये योग में दृढ़ स्थिति, सात्त्विक दान, इन्द्रियों का दमन, यज्ञ, स्वाध्याय, कर्तव्य-पालन के लिये कष्ट सहना, शरीर-मन-वाणी की सरलता अर्थात भगवान, देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण एवं वेद-शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान् के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिए कष्टसहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता॥16.1॥
(परमात्मा के स्वरूप को तत्त्व से जानने के लिए सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में एकाग्र भाव से ध्यान की निरन्तर गहरी स्थिति का ही नाम ‘ज्ञानयोगव्यवस्थिति’ है )
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥16.2॥
अहिंसा-अहिंसा; सत्यम्-सत्यता; अक्रोधः-क्रोध से मुक्ति; त्यागः-त्याग; शन्तिः – शान्तिप्रियता; अपैशुनम्-दोषारोपण से दूर, किसी की निन्दा न करना, चुगली न करना; दया – करुणा; भूतेषु-सभी जीवों के प्रति; अलोलुप्त्वम्-लोभ से मुक्ति; मार्दवम्-भद्रता; ह्री:-लज्जा; अचापलम्-अस्थिरहीनता;
अहिंसा, सत्य भाषण, क्रोध न करना, संसार की कामना का त्याग, अन्तःकरण में राग-द्वेष जनित हलचल का न होना, किसी की निन्दा न करना, प्राणियों पर दया करना, सांसारिक विषयों में न ललचाना, अन्तःकरण की कोमलता, अकर्तव्य करने में लज्जा, चपलता का अभाव अर्थात मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, सत्य और प्रिय भाषण , अपना अपकार और अपमान करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, चित्त की चञ्चलता का अभाव, किसी की भी चुगली और निंदा आदि न करना, सब भूतप्राणियों में दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, ह्रदय की कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण करने में लज्जा आना और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव॥16.2॥
(अन्तःकरण और इन्द्रियों के द्वारा जैसा निश्चय किया हो, वैसे-का-वैसा ही प्रिय शब्दों में कहने का नाम ‘सत्यभाषण’ है)
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥16.3॥
तेजः-शक्ति; क्षमा – क्षमाः धृतिः-धैर्य; शौचम्-पवित्रता; अद्रोहः-दूसरों के प्रति ईर्ष्याभाव से मुक्ति; न नहीं; अतिमानिता–प्रतिष्ठा की इच्छा से मुक्त; भवन्ति हैं; सम्पदम्-गुण; दैवीम् दिव्य स्वभाव; अभिजातस्य-से संपर्क; भारत-हे भरतपुत्र।
तेज (प्रभाव), क्षमा, धैर्य, शरीर की शुद्धि, किसी में भी वैर या शत्रु भाव का न रहना और मान – सम्मान को न चाहना, गर्व का अभाव , हे भरतवंशी अर्जुन ! ये सभी दैवी सम्पदा या दैवीय गुणों को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण हैं ॥16.3॥
(श्रेष्ठ पुरुषों की उस शक्ति का नाम ‘तेज’ है कि जिसके प्रभाव से उनके सामने विषयासक्त और नीच प्रकृति वाले मनुष्य भी प्रायः अन्यायाचरण से रुककर उनके कथनानुसार श्रेष्ठ कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं)
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्॥16.4॥
दम्भ:-पाखंड; दर्पः- घमंड ; अभिमान:-गर्व; च-और; क्रोध:-क्रोध; पारुष्यम्-कठोर; एव-निश्चय ही; च-और; अज्ञानम्-अज्ञानता; च-और; अभिजातस्य-से सम्पन्न; पार्थ-पृथापुत्र अर्थात अर्जुन; सम्पदम्-गुण; आसुरीम् आसुरी।।
हे पार्थ ! दम्भ या पाखण्ड करना, घमण्ड करना, अभिमान या गर्व करना, क्रोध करना, निष्ठुरता या कठोरता रखना, कठोर वाणी और अविवेक या अज्ञान का होना भी – ये सभी आसुरी सम्पदा को प्राप्त हुए या आसुरी गुणों से युक्त मनुष्य के लक्षण हैं॥16.4॥
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥16.5॥
दैवी-दिव्य; सम्पत्-गुण; विमोक्षाय-मुक्ति की ओर; निबन्धाय-बन्धन; आसुरी-आसुरी गुण; मता-माने जाते हैं; मा-नहीं; शुचः-शोक; सम्पदम्-गुणों; दैवीम् – दैवीय; अभिजात:-जन्मे; असि-तुम हो; पाण्डव-पाण्डुपुत्र, अर्जुन।
दैवीय गुण या दैवीय सम्पदा मुक्ति की ओर ले जाते हैं या मोक्ष का कारण होते हैं जबकि आसुरी गुण या आसुरी सम्पदा निरन्तर बंधन का कारण होते हैं। हे पांडव ! शोक मत करो क्योंकि तुम दैवीय गुणों के साथ जन्मे हो ॥16.5॥
आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन
द्वौ भूतसर्गौ लोकऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ में श्रृणु॥16.6॥
द्वौ-दो; भूतसर्गौ-जीवों की सृष्टियाँ; लोके-संसार में; अस्मिन्- इस; दैवः-दिव्य; आसुरः-आसुरी; एव-निश्चय ही; च-और; दैव:-दिव्य; विस्तरश:-विस्तृत रूप से; प्रोक्त:-कहा गया; आसुरम् आसुरी लोगः पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; मे-मुझसे;शृणु-सुनो।
हे पार्थ ! इस लोक में भूतों की सृष्टि या मनुष्य समुदाय दो ही प्रकार का है। दैवी और आसुरी- एक तो दैवी प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रकृति वाला। उनमें से दैवी प्रकृति वाला तो विस्तारपूर्वक कहा गया, अब तू आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य समुदाय को भी विस्तारपूर्वक मुझसे सुन अर्थात संसार में दो प्रकार के प्राणी हैं-एक वे जो दैवीय गुणों से सम्पन्न हैं और दूसरे वे जो आसुरी गुणों से संपन्न हैं। मैं दैवीय गुणों वाले देवों का स्वभाव तो विस्तार से वर्णन कर चुका हूँ अब तुम मुझसे आसुरी स्वभाव वाले लोगों के संबंध में सुनो। ॥16.6॥
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥16.7॥
प्रवृत्तिम्-उचित कर्म; च-और; निवृत्तिम्-अनुचित कर्म करना; च-और; जना:-लोग; न-नहीं; विदुः-समझते हैं; आसुराः-आसुरी गुण से युक्त; न-न हीं; शौचम्-पवित्रता; न-न तो; अपि-भी; च-और; आचारः-आचरण; न-न ही; सत्यम्-सत्यता; तेषु-उनमें; विद्यते-होता है।
आसुर स्वभाव वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति- इन दोनों को ही नहीं जानते। इसलिए उनमें न तो बाहर की शुद्धि है न भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न ही सत्य भाषण ही है अर्थात वे जो आसुरी गुणों से युक्त होते हैं वे यह नहीं समझ पाते कि उचित और अनुचित कर्म क्या हैं। इसलिए उनमें न तो शारीरिक और मानसिक पवित्रता है , न ही सदाचरण है और न ही उनमें सत्यता पायी जाती है।॥16.7॥
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्॥16.8॥
असत्यम्-परम सत्य के बिना; अप्रतिष्ठम् – बिना आधार के; ते – वे; जगत्-संसार; आहुः-कहते हैं; अनीश्वरम्-भगवान के बिना; अपरस्पर-अकारण; सम्भूतम्-सृजित; किम्-क्या; अन्यत्-दूसरे; कामहैतुकम्-केवल काम वासना तृप्ति के लिए।
वे कहते हैं, संसार परम सत्य से रहित और आधारहीन है तथा यह भगवान रहित है जो इसका सृष्टा और नियामक है। यह दो विपरीत लिंगों से उत्पन्न होता है और कामेच्छा के अतिरिक्त इसका कोई अन्य कारण नहीं है अर्थात वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहा करते हैं कि जगत् आश्रयरहित, सर्वथा असत्य और बिना ईश्वर के, अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न है, अतएव केवल काम ही इसका कारण है। इसके सिवा इसका और क्या कारण है? ॥16.8॥
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥16.9॥
एताम्-ऐसे; दृष्टिम् – विचार; अवष्टभ्य-देखते हैं; नष्ट-दिशाहीन होकर; आत्मानः-जीवात्माएँ ; अल्पबुद्धयः-अल्पज्ञान; प्रभवन्ति-जन्मते हैं; उग्र-निर्दयी; कर्माणः-कर्म; क्षयाय-विनाशकारी; जगतः-संसार का; अहिताः-शत्रु।
ऐसे विचारों पर स्थिर रहते हुए पथ भ्रष्ट आत्माएँ अल्प बुद्धि और क्रूर कृत्यों के साथ संसार के शत्रु के रूप में जन्म लेती हैं और इसके विनाश का जोखिम बनती है अर्थात इस मिथ्या ज्ञान या नास्तिक दृष्टि या नास्तिक बुद्धि का सहारा लेने वाले मनुष्य – जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है तथा जिनकी बुद्धि मन्द है, वे घोर कर्म करने वाले क्रूर कर्मी मनुष्य जगत के शत्रु होते हैं और केवल जगत् के नाश के लिए ही समर्थ और उत्पन्न होते हैं ॥16.9॥
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः॥16.10॥
कामम्-कामवासना; आश्रित्य-प्रश्रय लेकर; दुष्पूरम्-अतृप्ति; दम्भ-अहंकार; मान- अभिमान , मद- गर्व ; अन्विता:-मिथ्या प्रतिष्ठा से भ्रमित; मोहात्-मोह; गृहीत्वा – आकर्षित होकर; असत्-अस्थायी; ग्रहान्-वस्तुओं को ; प्रवर्तन्ते-पनपते हैं; अशुचिव्रताः-अशुभ संकल्प के साथ।
अतृप्त काम वासनाओं, पाखंड से पूर्ण , मद और अभिमान में डूबे हुए आसुरी प्रवृति वाले मनुष्य अपने मिथ्या सिद्धांतों से चिपके रहते हैं। इस प्रकार से वे भ्रमित होकर भ्रष्ट आचरणों और दुराग्रहों को धारण करके अशुभ और अशुद्ध संकल्प के साथ इस संसार में काम करते और विचरते रहते हैं॥16.10॥
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः॥16.11॥
चिन्ताम -चिन्ताएँ; अपरिमेयाम्-अंतहीन; च-और; प्रलयंताम – मृत्यु काल तक; उपाश्रिताः-शरण लेना; कामोपभोग -कामनाओं की तृप्ति; परमाः-जीवन का लक्ष्य; एतावत्-फिर भी; इति-इस प्रकार; निश्चिताः-पूर्ण आश्वासन के साथ;
वे आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग मृत्युपर्यन्त रहने वाली अपार चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले अर्थात मृत्यु होने तक कभी न समाप्त होने वाली असंख्य और अंतहीन चिंताओं से ग्रस्त और पीड़ित रहते हैं परन्तु फिर भी वे पूर्ण रूप से आश्वस्त रहते हैं कि कामनाओं की तृप्ति और धन सम्पत्ति का संचय ही जीवन का परम लक्ष्य है अर्थात पदार्थों का संग्रह और विषय भोगों को भोगने में तत्पर रहने वाले, विषयों के उपभोग को ही परम लक्ष्य मानने वाले ये आसुरी लोग ‘इतना ही सुख है, इतना ही (सत्य, आनन्द) है, जो कुछ है, वह इतना ही है ‘ इस प्रकार मानने वाले होते हैं॥16.11॥
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्॥16.12॥
आशापाश–इच्छाओं रूपी बन्धन; शतैः-सैकड़ों द्वारा; बद्धाः-बँधे हुए; कामवासना; क्रोध -क्रोधः परायणाः-समर्पित होकर; ईहन्ते – प्रयास करते हैं; काम-वासना; भोग-इन्द्रियतृप्ति; अर्थम् – के लिए; अन्यायेन-अवैध रूप से; अर्थ-धन; सञ्चयान्–संचय करना।
सैंकड़ों आशा पाशों और कामनाओं की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के परायण होकर विषय भोगों के लिए अन्यायपूर्वक धन आदि पदार्थों का संग्रह करने की चेष्टा करते रहते हैं अर्थात सैंकड़ों कामनाओं के बंधनों में पड़ कर मनुष्य काम वासना और क्रोध से प्रेरित होकर या काम और क्रोध के वश में हो कर अवैध ढंग से अन्यायपूर्वक धन संग्रह करने में जुटे रहते हैं। यह सब वे इन्द्रिय तृप्ति के लिए करते हैं॥16.12॥
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्॥16.13॥
इदम् – यह; अद्य-आज; मया – मेरे द्वारा; लब्धाम्-प्राप्त; इमम्-इसे; प्राप्स्ये-मैं प्राप्त करूँगा; मनोरथम – इच्छित; इदम् – यह; अस्ति-है; इदम् – यह; अपि-भी; मे-मेरा; भविष्यति-भविष्य में; पुनः – फिर; धनम्-धन;
आसुरी व्यक्ति सोचता है-“मैंने आज इतनी संपत्ति प्राप्त कर ली है और अब मैं इससे अपनी इन कामनाओं की पूर्ति कर सकूँगा। यह सब मेरी है और कल मेरे पास इससे भी अधिक धन होगा ” अर्थात आसुरी मनुष्य सदैव यही सोचा करता है कि आज मैंने यह प्राप्त कर लिया , आज मैंने इतनी वस्तुएं प्राप्त कर ली और अब मैं इस से अपने इस मनोरथ को पूरा करूंगा , आज मेरे पास इतना धन है और भविष्य में इस से भी अधिक धन होगा ॥16.13॥
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥16.14॥
असौ-वह; मया – मेरे द्वारा; हतः-मारा गया; शत्रुः-शत्रु; हनिष्ये-मैं मारूंगा ; च-और; अपरान्-अन्यों को; अपि-भी; ईश्वरः-भगवान; अहम्-मैं हूँ; अहम्- मैं हूँ; भोगी-भोक्ता; सिद्धः-सिद्ध; अहम्-मैं; बलवान्- शक्तिशाली; सुखी-प्रसन्न
” वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया है और मैं उन दूसरे शत्रुओं को भी मारूंगा”, “मैं ईश्वर हूँ और भोक्ता हूँ”, “मैं सिद्ध पुरुष हूँ”, “मैं बलवान और सुखी हूँ” अर्थात मैंने अपने उस शत्रु का नाश कर दिया है और मैं अन्य शत्रुओं का भी विनाश करूंगा। मैं सर्व समर्थ हूँ, मैं स्वयं भगवान हूँ, मैं भोक्ता हूँ, मैं शक्तिशाली हूँ, मैं सुखी हूँ, मेरे पास अपार धन संपत्ति और भोग सामग्री है, मैं सब सिद्धियों से युक्त हूँ॥16.14॥
आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः॥16.15॥
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥16.16॥
आढ्यः-धनी; अभिजनवान् – कुलीन संबंधियों के साथ; अस्मि-मैं; कः-कौन; अन्यः-दूसरा; अस्ति – है; सदृशः-समान; मया – मेरे द्वारा; यक्ष्ये-मैं यज्ञ करूँगा; दास्यामि-मैं दान दूंगा; मोदिष्ये-मैं आनंद मनाऊँगा; इति-इस प्रकार; अज्ञान-आनतावश; विमोहिताः-मोहग्रस्त।अनेक-कई; चित्त-कल्पनाएँ; विभ्रान्ताः-भ्रमित; मोह-मोह में; जाल-जाल; समावृताः-आच्छादित; प्रसक्ताः-आसक्त; कामभोगेषु – इन्द्रिय सुखों की तृप्तिः पतन्ति-गिर जाते हैं; नरके-नरक में; अशुचौ-अंधा नर्क
मैं अत्यंत धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ। मैं श्रेष्ठ कुल में जन्मा हूँ । मेरे समान दूसरा कौन है? मैं कई यज्ञ करूँगा, दान दूँगा, आमोद-प्रमोद करूँगा , सुखों का भोग करूँगा। इस प्रकार अज्ञान के कारण मोह ग्रस्त रहने वाले तथा कई प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मोहरुपी जाल से घिरे हुए और पदार्थों और विषय भोगों में अत्यन्त आसक्त आसुरलोग घोर, भयंकर और अपवित्र नरक में गिरते हैं ॥16.15-16.16॥
आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्॥16.17॥
आत्मसम्भाविताः -आत्मअभिमानी; स्तब्धाः-हठी; धन-संपत्ति; मान-गर्वः मद-अभिमान; अन्विताः-पूर्ण; यजन्ते–यज्ञ करते हैं; नाम-नाम मात्र के लिए; यज्ञैः-यज्ञों द्वारा; ते-वे; दम्भेन-आडंबरपूर्ण; अविधिपूर्वकम्-शास्त्रों के विधिविधानों का पालन किये बिना।
अपने-आपको ही सबसे अधिक श्रेष्ठ और पूज्य मानने वाले , आत्म अभिमानी , घमण्डी , हठी, धन – संपत्ति और मान – मद के अभिमान से चूर होकर केवल नाममात्र के लिए पाखण्ड और आडम्बर करते हुए शास्त्रविधि से रहित अर्थात शास्त्रों के विधि-विधानों का आदर न करते हुए दम्भपूर्वक यज्ञों का अनुष्ठान करते हैं ॥16.17॥
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥16.18॥
अहंकारं -अभिमान; बलम् – शक्ति; दर्पम् – घमंड; काम-कामना; क्रोधम्-क्रोध; च-और; संश्रिताः-परायण, आश्रय लेने वाले ; माम्-मुझे; आत्मपरदेहेषु-अपने और अन्य के शरीरों में ; प्रद्विषन्तः-निन्दा करते हुए; अभ्यसूयकाः-दूसरो की निंदा करने वाले।
अहंकार, शक्ति, घमंड, कामना और क्रोध के वशीभूत या क्रोध में अंधे, दूसरों की निंदा करने वाले मनुष्य अपने और अन्य लोगों के शरीरों के भीतर मेरी उपस्थिति की निंदा करते हैं अर्थात अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं ॥16.18॥
तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥16.19॥
तान् – इन; अहम् – मैं; द्विषत:-विद्वेष; क्रूरान् – निर्दयी; संसारेषु-भौतिक संसार में; नराधामान् -नीच और दुष्ट प्राणी; क्षिपामि – डालता हूँ; अशस्त्रम्- बार बार; अशुभान्-अपवित्र; आसुरीषु-आसुरी; एव -वास्तव में; योनिषु–गर्भ में
मानव जाति के इन द्वेष करनेवाले , क्रूर स्वभाव वाले निर्दयी, पापाचारी , अपवित्र , घृणित , नीच और दुष्ट नराधमों को मैं निरन्तर भौतिक संसार के जीवन-मृत्यु के चक्र में उन्हीं के समान आसुरी प्रकृति के गर्भों में डालता हूँ अर्थात बार-बार आसुरी योनियों में ही गिराता रहता हूँ ॥16.19॥
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्॥16.20॥
आसुरीम्-आसुरी; योनिम्-गर्भ में; आपन्ना:-प्राप्त हुए;मूढाः-मूर्ख; जन्मनि जन्मनि – जन्म जन्मांतर; माम्-मुझको; अप्राप्य-पाने में असफल; एव-भी; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; ततः-तत्पश्चात, उसके बाद , फिर ; यान्ति-जाते हैं; अधमाम् – निन्दित; गतिम्-गंतव्य को।
हे कौन्तेय ! ये अज्ञानी आत्माएँ बार-बार आसुरी प्रकृति के गर्भों में जन्म लेती हैं। मुझ तक पहुँचने में असफल होने के कारण वे जन्म जन्मान्तरों में अति अधम जीवन प्राप्त करते जाते हैं अर्थात वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर जन्म- जन्मांतर में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, उसके पश्चात उससे भी अधिक अति नीच और अधम गति को प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर और भयंकर नरकों में चले जाते हैं ॥16.20॥
शास्त्रविपरीत आचरणों को त्यागने और शास्त्रानुकूल आचरणों के लिए प्रेरणा
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥16.21॥
त्रिविधाम् – तीन प्रकार का; नरकस्य-नरक में; इदम् – यह; द्वारम् – द्वार; नाशनम् – विनाश;आत्मन:-आत्मा का; कामः-काम, क्रोध:-क्रोध; तथा-और; लोभ:-लोभ; तस्मात्-इसलिए; एतत्-उन; त्रयम्-तीनों को; त्यजेत्-त्याग देना चाहिए।
काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार हैं । ये तीनों आत्मा का नाश करने वाले अर्थात जीवात्मा का पतन करने वाले और उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए ॥16.21॥
( सर्व अनर्थों के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु होने से यहाँ काम, क्रोध और लोभ को ‘नरक के द्वार’ कहा है)
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्॥16.22॥
एतैः-इन; विमुक्तः-मुक्त होकर; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र अर्जुन; तमोद्वारैः-अंधकार के द्वार; त्रिभिः-तीन; नरः-व्यक्ति; आचरति-प्रयास करता है; आत्मन:-आत्मा; श्रेयः-कल्याण; ततः-तत्पश्चात; यति-प्राप्त करता है; पराम्-सर्वोच्च; गतिम्-लक्ष्य।
हे कौन्तेय ! जो मनुष्य इन तीन अंधकार रूपी नरक के द्वारों से मुक्त होते हैं, वे अपनी आत्मा के कल्याण के लिए चेष्टा करते हैं और इस प्रकार से परम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं अर्थात इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है, इससे वह परमगति को जाता है अर्थात् मुझको प्राप्त हो जाता है ॥16.22॥
(अपने उद्धार के लिए भगवदाज्ञानुसार बरतना ही ‘अपने कल्याण का आचरण करना’ है)
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥16.23॥
यः-जो; शास्त्र-विधिम्-शास्त्रों की आज्ञाओं को; उत्सृज्य-त्याग कर; वर्तते-करते हैं; कामकारतः-इच्छा के आवेग से प्रेरित होकर; न-न तो; सः-वे; सिद्धिम् पूर्णतः को; अवाप्नोति–प्राप्त करते हैं; न कभी नहीं; सुखम्-सुख; न कभी नहीं; पराम्-सर्वोच्च; गतिम्-लक्ष्य।
जो मनुष्य शास्त्रविधि को त्याग कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न तो पूर्णत्व की सिद्धि ( अन्तःकरण की शुद्धि ) को , न सुख को और न परमगति को ही प्राप्त होता है अर्थात जो अपनी इच्छाओं के आवेग के अंतर्गत कर्म करते हैं और शास्त्रों के विधि-निषेधों को ठुकराते हैं वे न तो पूर्णताः प्राप्त करते हैं , न सिद्धि प्राप्त करते हैं , न सुख को प्राप्त करते हैं और न ही जीवन में परम लक्ष्य की प्राप्ति करते हैं ॥16.23॥
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥16.24॥
तस्मात् – इसलिए; शास्त्रम्-धार्मिक ग्रंथ; प्रमाणम्-प्राधिकारी; ते – तुम्हारा; कार्य-कर्त्तव्य; अकार्य-निषिद्ध कर्म; व्यवस्थितौ – निश्चित करने में; ज्ञात्वा-जानकर; शास्त्र – धार्मिक ग्रंथ; विधान-विधिविधान; उक्तम्-जैसा कहा गया; कर्म-कर्म; कर्तुम्-संपन्न करना; इह-इस संसार में; अर्हसि – तुम्हें चाहिए।
इसलिए क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए? यह निश्चित करने के लिए शास्त्रों में वर्णित विधानों को स्वीकार करो और शास्त्रों के निर्देशों व उपदेशों को समझो तथा फिर तदानुसार संसार में अपने कर्तव्यों का पालन करो अर्थात तुम्हारे कर्तव्य-अकर्तव्य का निर्णय करने में शास्त्र ही प्रमाण है – ऐसा जानकर तुम्हें इस संसार में शास्त्र विधि से नियत कर्त्तव्य कर्म ही करने चाहिए ॥16.24॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्नीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्यायः ॥16॥
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में देवासुर सम्पद विभाग योग नाम का सोलहवां अध्याय संपूर्ण हुआ ॥
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